पत्र—पाथय—43
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
सुबह आंखें
खोली। अंधेरा
था और खिड़की
के बाहर अभी
तारे थे। देर
तक चुपचाप पड़ा
रहा। सब शांत
था। नींद टूट
गई थी पर मन
अभी नहीं जागा
था। फिर
आहिस्ता—आहिस्ता
मन जागने लगा।
विचार तेरते
हुए आने लगे।
मैं देखता रहा।
विचार बाहर से
आते हैं। स्व जहां
है—चेतना जहां
है—वहां विचार
पैदा नहीं
होते हैं। इसे
स्पष्ट देखा
जा सकता है।
विचार मन में
पैदा होते हैं।
मन में रहते
हैं और स्व के
चारों और घूमते
हैं। इससे कोई
विचार हमारा
नहीं है। सब
विचार पर हैं, पराये
हैं, परिधि
पर हैं। जहां
केन्द्र है
वहां विचार
नहीं हैं, इसलिए
जो विचार में
है वह केन्द्र
पर नहीं पहुच
पाता है।
विचार
में होना
केन्द्र के
बाहर होना है।
वही अलान है।
विचारों की
परिधि के बाहर
कूद जाना जान
है। देखें; विचारों
को देखें — और
उसका पर होना
जान लें। यह
जान लेना ही
उनके बाहर
निकलना हो
जाता हे।
8 मार्च 1962
रजनीश
के प्रणाम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें