पत्र—पाथय—48
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
25 मार्च 1962
प्रिय मां,
दोपहर
तप गई है।
पलाश वृक्षों
पर फूल
अंगारों की
तरह चमक रहे हैं।
एक
सुनसान
रास्ते से
गुजरता हूं।
बांसों के घने
झुरमुट हैं और
उनकी छाया भली
लगती है।
कोई अपरिचित
चिड़िया गीत
गाती है। उसके
निमंत्रण को मान
वहीं रुक जाता
हूं। एक
व्यक्ति साथ
हैं। पूछ रहे
हैं, ‘‘क्रोध
को कैसे जीते,
काम को कैसे
जीते?'' यह
बात तो अब रोज—रोज
पूछी जाती है।
इसके पूछने
में ही भूल है।
यही उनसे कहता
हूं। समस्या
जीतने की है
ही नहीं।
समस्या मात्र
जानने की है।
हम न क्रोध को
जानते हैं और
न काम को
जानते हैं।
यह
अज्ञान ही हमारी
पराजय है।
जानना जीतना
हो जाता है।
क्रोध होता है,
काम होता है
तब हम नहीं
होते हैं। होश
नहीं होता
इसलिए हम नहीं
होते हैं। इस
मूर्च्छा में
जो होता है वह
बिल्कुल
यांत्रिक है।
मूर्च्छा
टूटते ही पछतावा
आता है पर वह
व्यर्थ है
क्योंकि जो
पछता रहा है
वह काम के
पश्चात् पुन:
खो जाने को है।
यह न हो पावे—अमूर्च्छा
आती रहे—जाग्रति—सम्यक्
स्मृति बने
रहे तो पाया
जाता है कि न क्रोध
है, न काम
है।
यांत्रिकता
टूट जाती है
और फिर किसी
को जीतना नहीं
पड़ता है।
दुश्मन पाये
ही नहीं जाते है।
एक
प्रतीक—कथा से
समझें।
अंधेरे में
कोई रस्सी
सांप दीखती है।
कुछ उसे देखकर
भागते हैं; कुछ लड़ने
की तैयारी
रखते हैं।
दोनों ही मूल
में है
क्योंकि
दोनों ही उसे
सीप स्वीकार
कर लेते हैं।
कोई निकट जाता
है और पाता है
कि सांप है ही
नहीं। उसे कुछ
करना नहीं
होता, केवल
निकट पर जाना
होता है।
मनुष्य
को अपने निकट
भर जाना है।
मनुष्य में जो
भी है सबसे
उसे परिचित
होना है। किसी
से लड़ना नहीं
है और मैं
कहता हूं कि
बिना लड़े ही
विजय पर आ
जाती है।
सम्यक् जागरण
जीवन—विजय का
सूत्र है।
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