भारतीय
अध्यात्म
जगत में जो भी
खोज हुई है।
वह अमुल्य
है। ध्यानियों
ने अपने अंतस
में उतर कर
संगीत, नृत्य,
योग, और आर्युवेद, मुर्ति
कला जाना है।
जिसने हमारे
जीवन के
खजानें को इतना
उन्नत और खुसहाल
कर दिया था।
इस तरह भारत
ने संगीत की
उन उच्चाईयों
को जाना
जिससे....ठाठ और
राग निर्मित
हुए। प्रत्येक
राग का एक
टाईम है.....उस
किन—किन सुरों
के साथ कितने
समय पर गायन
करना है।
यदि
प्रकृति की
दृष्टि से
देखो तो
इंद्रधनुष के
साथ रंग दिखाई
देंगे। इनमें
लाल रंग पहला
और बैंगनी रंग
अंतिम होगा। बैंगनी
रंग के बाद
पून: यही क्रम
दिखाई देगा। यह
बात सोचने की
है कि किस
प्रकार रंगों
और सुरो
में सम्यता
है।
एक समानता तो यही है कि दोनों की उत्पती आन्दोलनों से होती है। ध्वनि की आन्दोलन वायु के माध्यम से होकर हमारे कानों तक पहुंचती है। जबकि रंगों के आन्दोलन को ईथर कहते है। ध्वनि के कंपन को आन्दोलन—संख्या और रंगों के कम्पनों को एंगस्ट्रोम कहा जाता है।
एक समानता तो यही है कि दोनों की उत्पती आन्दोलनों से होती है। ध्वनि की आन्दोलन वायु के माध्यम से होकर हमारे कानों तक पहुंचती है। जबकि रंगों के आन्दोलन को ईथर कहते है। ध्वनि के कंपन को आन्दोलन—संख्या और रंगों के कम्पनों को एंगस्ट्रोम कहा जाता है।
ध्वनि
के आन्दोलन
को तो फिर भी
किसी न किसी
तरह हम समझ
सकते है।
परंतु रंगों
के एंगस्ट्रोम
के तरंग—दैर्ध्य
की तो केवल
कल्पना ही की
जा सकती है।
एक माईको
मीटर में—दस
हजार एंगस्ट्रोम
होते है।
एक
सैंटीमीटर
में—दस मिली
मीटर
एक
मिली मीटर—एक
हजार माईक्रो
मीटर
एक माईाक्रोमीटर—दस
हजार एंगस्ट्रोम
ध्वनि के
आन्दोलन का
अभ्यास
कानों के
द्वारा होता
है, जबकि एंगस्ट्रोम
का अभ्यास
हमारे नेत्र
करते है। फिर
भी भारतिय
शास्त्रीय
संगीत ने स्वरो
और रंगों को
समझ कर
प्रकृति के
अनुरूप उसके भाव
विभाव और उनके
ताल को जान कर
रागों का
निर्माण
किया। यह एक आकुट खाजाना
है....जिसमें करोंड़ो—करोड़ो
साधकों ने करोड़ोजन्म
गवा
दिये। आज हम
इसकी कोई कीमत
नहीं जानते।
मनुष्य ने जो
भी महत्वपूर्ण
खोजा उसे
बाजार में
समाज में उतारदिया।
चाहे संगीत है, नृत्य हो
या कोई दूसरी
कला हो।
कुल
स्वर सात
होते है। परन्तु
इनकी सुरतियां
22 होती है। इसी
तरह रंग भी
सात ही होते
है परंतु इनसे
बनने वालीआभाये
भी उसी अनुरूप
में बढ़ती
जाती है।
जिस
तरह संगीत में
तीन सुर महत्व
पूर्ण होते है
उसी तरह रंगों
में तीन रंग
ही महत्व
पूर्ण है। सा, गा और पा
और रंग लाल, पीला और
नीला। जब हम एक
ध्वनि को ‘सा’ मान लेते
है, तो इससे
जो स्वयंभु
नाद पैदा होता
है, उसके नौवे आवर्तक
में चार बार ‘सा’ दो बार
‘प’ और एक
बार ‘गा’ की ध्वनी
उत्पन्न होती
है। वैसे नौवें
आवर्तक में एक
‘र’ भी आता
है। किन्तु वह
इतना सुक्ष्महोता
हैकि उसे बहुत
कम सुना जाता
है। चारों ‘सा’ की ध्वनि
एक—दूसरे में विलीन
हो जाती है। षड्ज
पंचम का मेल इतना
अच्छा होता
है पंचम भी षडज
में विलय हो जाता
है। केवल एक सूर
है गंधार जो सबसे
अलग खड़ा रहता
है। तानपूरा
मिलाते समय संगितकार जब
गंधार (गा) की ध्वनि
सुस्पष्ट सुनाई
देने लगे तब वह
कहते है तानपूरा
मिल गया।
अंत:
सा—गा—पा के अनुरूप
लाल—‘’सा’’ का और पीला ‘’गा’’ का और नीला
‘’पा’’ समझा
जा सकता है। जब
‘सा’ का लाल
‘गा’ के पीलेसे मिलता
है तो बीच में ‘रे’ का रंग
नारंगी हो जाता
है। इसी प्रकार
‘गा’ का पीला
जब ‘पा’ के
नीले रंग से मिलता
है तो ‘मा’ का रंग हरा हो
जाता है। और जब
तारषडज (सां) का लाल
रंग ‘पा’ के नीले से मिलता
है तो ‘नी’ का बैंरंगी
हो जाता है। और
जब ‘नी’ बैगनी
‘पा’ के नीले
रंग के साथ मिलताहै
तो गाढ़ा नीला
‘धा’ हो जाता
है।
इस प्रकार:
सुर और रंग
सा—लाल
रा—नारंगी
गा—पीला
मा—हरा
पा—नीला
(आसमानी)
धा—गहरानीला
नी—बैंगनी
सां—लाल (गहरा)
चक्रा
साउंड ध्यान बहुतगहरा ध्यान
है जो ओशो के ध्यान
के हीरों में कोहेनुर कहना
चाहिए। ये ध्यान
साधक को गहरे से
गहरे तलो में
ले जाता है। इस
ध्यान की विशेषता
यह है जो संगीत
को बिलकुल भी नहीं
जानता वह भी केवल
आपने को छोड़ने
मात्र से उन गहराइयों
उतर सकता है। जिस
में संगित
का प्रगाढ़ पंडित
उतरता है। और फिर
होश में उतरे—आते
जाते उन ध्वनियों
और तालों के एक
रूप होते—होते
आप अपने अनंद की
ध्वनि के लय वद
हो जाते है।
हिंदुस्तान
में हम एक शब्द
इस्तेमाल करते
थे ‘बेसुरा’ या ‘बेसुरी’ यानि आप अपने
सुर से भटक गये
है। हमारे शरीर
में भी वहीं सुर
और रंग है। जो बहार
के संगीत या रंगों
से अभिभुत
होकर तरंगाईत
हो जातेहै।
और तभी तो संगीत
प्रत्येक प्राणी
की जान है। इसलिए
ज्यादा न कहते
हुए आप चक्रा साऊंड ध्यान
का आनंद ले। थोड़ा
और समझ ले।
इस
ध्यान में
चक्रों को
लयबद्ध करने व
उनके प्रति एक
चेतना जाग्रत
करने के लिए
ध्वनियों का उपयोग
किया जाता है।
स्वयं ध्वनियां
पैदा करते हुए
अथवा केवल
संगीत को सुन
कर अपने भीतर
ध्वनियों को
महसूस करते
हुए, इस
ध्यान में आप
एक गहरे शांत
अंतर—मौन में
उतर जाते हैं।
यह ध्यान किसी
भी समय किया
जा सकता है।
पृष्ठभूमि का
संगीत आपको ऊर्जागत
रूप से इस
ध्यान में
सहयोगी होता
है व हर चरण के
प्रारंभ का
संकेत देता
है। ध्वनि के
आघातों को अपने
प्रत्येक चक्र
पर महसूस करे।
इस बात का बहुत
गोर किया गया
है कि संगीत के
साथ उस चक्र की
ताल भी आपके चक्र
को आन्दोलित करे।
क्योंकि प्रत्येक
चक्र की एक खास
ताल है। अब आप ध्यान
के निर्देश सुन
लीजिए।
पहला
चरण : 45 मिनट
खड़े
होना चाहें, आराम से
बैठना चाहें,
या लेटना—
आपको जो भी
सुविधाजनक हो
करें। अपनी
पीठ को सीधा व
शरीर को ढीला
छोड़ दें।
श्वास को छाती
की बजाय पेट
तक जाने दें।
जो भी
ध्वनियां आप
करेंगे वह
खुले मुंह व जबड़े को
ढीला छोड़ कर
करें। अपनी आखें बंद
कर लें और
संगीत को
सुनें; यदि
आप चाहें तो
पहले चक्र में
ध्वनियां
पैदा करना
शुरू कर दें।
आप चाहें तो
एक ही सुर
निकाल सकते
हैं या सुर
बदल भी सकते
हैं। स्वयं को
संगीत द्वारा
निर्देशित
होने दें; वैसे
अपनी
ध्वनियों के
साथ आप
सृजनात्मक हो
सकते हैं।
संगीत की
ध्वनियों को
सुनते हुए या
जो ध्वनियां
आप कर रहे हैं,
उनकी आवाज
को अपने चक्र
के केंद्र में
धड़कता
हुआ महसूस
करें, भले
ही शुरू में
वह एक कल्पना
ही लगे। ओशो
सुझाते हैं कि
जो कुछ सदा से
वहां है ही, उससे लयबद्ध
होने के लिए
कल्पना का
उपयोग किया जा
सकता है। तो
यदि आपको लगे
कि आप चक्रों की
कल्पना कर रहे
हैं, तो भी
ध्यान जारी
रखें। होश के
साथ आपकी
कल्पना आपको
हर चक्र के
कंपन के अनुभव
में ले जा सकती
है।
पहले
चक्र में
ध्वनि जाग्रत
करने के बाद, आप संगीत
को ऊंचे तल पर
जाता
सुनेंगे—यह
संकेत है कि
आप अब दूसरे
चक्र में
ध्वनियों को
सुनें व महसूस
करें। यदि आप
चाहें तो
ध्वनियां
निकालते भी रह
सकते हैं। यह
प्रक्रिया
ऊपर सातवें
चक्र तक दोहराई
जाती है।
जैसे—जैसे
आप एक चक्र से
दूसरे चक्र पर
गति करें, अपनी
आवाज को ऊंचे
तल पर पहुंचने
दें। सातवें चक्र
में ध्वनियों
को सुनने व
महसूस करने के
बाद सुर नीचे
वापस उतरने
लगेंगे—सभी
चक्रों से
होते हुए।
जैसे—जैसे आप
सुरों को नीचे
उतरता सुनें,
और—और नीचे
उतरते हुए
चक्रों में
ध्वनियों को सुनें,
तो भाव करें
कि आपका शरीर
बांस की पोली पोगरी बन
गया है और
ध्वनियों को
ऊपर से नीचे
तक प्रतिसंवेदित
होने दे रहा
है।
एक
श्रृंखला
समाप्त होने
पर थोड़ी देर
को संगीत रुक
जाएगा और फिर
दूसरी
श्रृंखला
शुरू होगी। 45 मिनट
की अवधि में
ध्वनियों के
आरोह और अवरोह
की यह
प्रक्रिया
तीन बार
दोहराई जाएगी।
जब आप इस
ध्यान से
भलीभांति
परिचित हो
जाएं, तो
इसमें कल्पना
द्वारा देखने
के आयाम को भी
इसमें सम्मिलित
कर सकते हैं।
हर चक्र पर
ध्यान को ले
जाते हुए अपनी
कल्पना में
आकार भी उठने
दें। कोई चित्र
बनाने की
जरूरत नहीं है,
जो दिखाई दे
बस उसके प्रति
खुले रहें। ये
चित्र रंग हो
सकते हैं, पैटर्न
हो सकते हैं, या प्रकृति
के दृश्य हो
सकते हैं।
आपके सामने जो
कुछ भी आए, हो
सकता है वह एक
चित्रमय
आकृति हो या
फिर केवल एक
विचार हो।
उदाहरण के लिए
आपके मन में ' स्वर्ण' का
विचार उठे या
फिर आपको वह
रंग दिखाई दे
सकता है।
दूसरा
चरण : 15 मिनट
ध्वनि
की प्रक्रिया
को तीसरी बार
दोहरा लेने के
बाद आखें
बंद करके मौन
बैठ जाएं। जब
आप बैठें
तो किसी विशेष
चीज पर अपना
ध्यान एकाग्र
न करें। जो
कुछ भी हो रहा
है, बिना
उसमें संलग्न
हुए, उसके
साक्षी बने
रहें। और अपने
भीतर उठती गिरते
आनदोलनों
को महसूस करे।
आपके अंदर एक खास
तरह की शांति उतरती
महसूस होगी। केवल
अपने को छोड़ भर
दे। और मात्र साक्षी
बन कर उसे देखते
रहे।
(मा
अनुप्रदा जो
लंबे समय से
ध्यान की धारा
के साथ जुड़ी
हैं, एक
संगीतज्ञ की
हैसियत से
अपने व संगीत
के साथ अपने
रिश्ते के
बारे में
बताती हैं और
साथ में यह भी
कि चक्रा
साउंड ध्यान
की सरंचना
उन्होंने
कैसे की। ओशो के
निर्देशो
को सुन कर उसे पी
कर उस पर किस तरह
से काम होता था
इस बात एक झलक
मां अनुप्रदा अपने
इस छोटे और प्यारे
साक्षताकार
में करायेगी।
अभी तक यानि 2013 तक
भी मा अनुप्रदा
इस ध्यान को पूना
कम्यून में करने
का आनंद लेती रही।
और सच उनके संग
में इस ध्यान
को करना एक अजीब
अनुभुति का
सुस्वाद था। रात
को ही ये ध्यान
अधिक होता था।
अभी तो ओशो की समाधि
पर जब ये ध्यान
किया तो वहां की
शांति और गहराई
अद्भुत थी। रात
का निरजन सन्नाटा
और ओशो समाधि का
गीला मौन मानों
संगीत के इस ध्यान
को चार चाँद लगा
देता था। ओशो का
ये अभुतपूर्व
है।)
प्रश्न
: सदियों से
विश्व के हर
कोने से कुछ
प्रश्न उठते
हैं कि संगीत
क्या है तथा
यह व्यक्ति को
कैसे
प्रभावित
करता है। इन
प्रश्नों में
आपकी
उत्सुकता
कैसे जगी?
उत्तर
: मैं
बहुत छोटी
बच्ची थी जब
मैंने संगीत
सीखना शुरू
किया। मैंने
सोचा कि इस
बात के पीछे
एक राज है कि
संगीत अपने
गर्भ में कुछ
महत्वपूर्ण
लिए हुए है (और
छोटे बच्चों
को छुपा—छुपी
व पहेलियों
में बड़ा मजा
आता है।) भले
ही हर कोई यह
सोच रहा था कि
मैं संगीतकार
बनने के लिए
यह सब कर रही
हूं परंतु मैं
हमेशा यह
महसूस करती थी
कि मेरा
वास्तविक
ध्येय संगीत
का राज जानना
है। बस मुझे
यह मालूम नहीं
था कि यह कैसे
संभव है (और
लोग सोचते थे
कि मैं पागल
हूं) अत: मैंने
अपनी पढ़ाई
जारी रखी तथा
मन ही मन मुझे
विश्वास था कि
एक समय अवश्य
आएगा जब यह
संभव होगा। और
वह समय आ गया।
मैं कुछ संगीत
समारोहों
में भाग ले
चुकी थी और कई
वर्षों से
संगीत सिखाती
भी रही थी। तब
मैं एक दिन भौचक्की
रह गयी कि इन
संगीत—समारोहों
में शामिल
होना मुझे
परितोष नहीं
दे पाता था।
इनमें
प्रतियोगिता
व राजनीति
बहुत हावी थी
और ऐसी बहुत
सी बातें जो
मुझे एक ऐसा
शख्स बनने पर
विवश कर रही
थीं जो मैं
बनना नहीं
चाहती थी। न
ही मुझमें
वैसा बनने की
शक्ति व ऊर्जा
बची थी कि मैं
संगीत तथा
इसके विभिन्न
पहलुओं की
गहराई में
जाती— और यह सब
ऐसा ही था।
फिर
मैंने निश्चय
किया कि संगीत
व व्यवसाय को मैं
अलग रखूंगी।
और मैं संगीत
जैसी घटना का
मर्म जानने
में तल्लीन हो
गयी। मैंने
पाश्चात्य
संगीत के
अतिरिक्त
संगीत की अन्य
विधाओं
का अध्ययन प्रारंभ
कर दिया। मैं
विभिन्न वाचनालयों
में जाकर यह ढूंढती कि
संगीत तथा
इसके होने
वाले
प्रभावों के
बारे में औरों
की क्या राय
है। अंततः
मैंने जो पाया
वह केवल संगीत
की विभिन्न
परंपराओं तथा
लोगों की
काल्पनिकता व
अपेक्षा से
परे कुछ और था।
वह सब बहुत
उथला था। और
मेरी तलाश यह
नहीं थी।
मैंने
लंबा सांस
लिया और मुझे
लगा कि उत्तर
मेरे भीतर से
ही आएगा।
मैंने सोचा कि
मुझे हिम्मत
जुटानी होगी
कि मैं अपनी
सत्ता को
पहचान सकूं
तथा अपने
अनुभवों को
आधार बनाकर
नये प्रयोग कर
सकूं। और यह
रही कुंजी!
फिर संगीत के
साथ इस ढंग से जुड़ना मेरा
मुख्य ध्येय
हो गया— ध्येय
ही नहीं बल्कि
एक जुनून! कुछ
समय के पश्चात
कुछ अन्य लोग
भी इन
प्रयोगों में
रुचि लेने लगे
और शीघ्र ही
हमारा एक छोटा
सा समूह बन गया
और हम सप्ताह
में अनेक बार
यह जानने को
इकट्ठे होते
कि संगीत, मौन व लय
को अनुभव करते
हुए इसकी विभिन्न
तरंगें हमारी
देह व मन को
किस प्रकार प्रभावित
करती हैं और
इस प्रक्रिया
में संगीत के
हर संभव पहलू
को जानने के
लिए हम स्वयं
ही 'गिनी
पिग' की
भूमिका
निभाते।
इसी
समय के दौरान
मैंने जाना कि
आरोह—अवरोह
में उठती
तरंगें हमारे
शरीर के सभी
चक्रों को
तरंगायित करती
हैं। अपने इन
प्रयासों को
मैंने अपनी
पुस्तक
' साउंड
एंड अवेयरनेस'ःभैं संकलित
किया जो कुछ
समय बाद
प्रकाशित हुई।
ये
प्रयोग मेरे
लिए ध्यान में
जाने की
प्रेरणा बने
विशेषतया ओशो
द्वारा रचित
ध्यान प्रयोगों
से जुड्ने
में, जहां
संगीत की
भूमिका बहुत
महत्व रखती है।
प्रश्न
: चक्रा साउंड
ध्यान का
उद्गम कैसे
हुआ?
उत्तर
:
वर्षों पहले
की बात है कि
जब मैं ओशो
कम्यून आई और
यहां मेरा
मिलना स्वामी
वदूद से हुआ
जो मल्टीवर्सिटी
के मिस्ट्री
स्कूल में
प्रशिक्षक थे
और उन्हें यह
जानने की
जिज्ञासा थी
शरीर में
ध्वनि कैसे
तरंगायित
होती है। जब
मैंने अपने
आविष्कार की
बात उनसे की
तो उन्होंने
अपने समूह के
साथ मिलकर काम
करने के लिए
मुझे
आमंत्रित
किया।
हम
लोग उस समय
चक्रा साउंड
ध्यान के लिए
संगीत बनाने
में उत्सुक थे
क्योंकि ओशो
को हमने बहुत
बार यह कहते
सुना था कि
हमारे सातों
चक्र अलग— अलग
ध्वनियों से
तरंगायित
होते हैं।
वदूद ने इसी
आशय से यह
संदेश ओशो को
भिजवाया कि हम
चक्रों की
ध्वनियों पर
काम करके उसके
लिए एक संगीत
तैयार करना
चाहते हैं।
एक
दिन वदूद ने
आकर बताया कि
उन्हें ओशो से
चक्रा साउंड
ध्यान के लिए
टेप बनाने के
लिए ओशो की
स्वीकृति मिल
गयी है। 'तो फिर हो
जाए।' अचानक
वह सब हो गया
जिसकी
प्रतीक्षा थी।
हमें आरोह—
अवरोह में
उठती गिरती उन
तरंगों का
ज्ञान था जो
हमारे चक्रों
को प्रभावित
करती है। हमने
वदूद के साथ
कार्य कर रहे
गायकों व संगीतकारों
का सहयोग लिया।
गायकों का वुंद
प्रत्येक
चक्र के अलग—अलग
गुणों को
प्रतिबिंबित
करता। कुछ समय
हमें रिहर्सल
में लगा और
फिर हमने इसे
बुद्ध सभागार
में बजाया। तब
से यह ध्यान
अत्यंत प्रिय
ध्यान बन गया
है।
प्रश्न
: अब
संगीत के
क्षेत्र में
आप क्या कर
रही हैं?
उत्तर
: मैं तो
अब भी संगीत
के इस राज को
परत— दर—परत अपने
भीतर खोलती
चली जा रही
हूं।
(स्वामी
आनंद प्रसाद मनसा)
सुरम्य!💐💐💐
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