अध्याय—(इक्यानवां)
ओशो 24
मार्च 1981 को
अपना अंतिम
प्रवचन देते
हैं और 25
मार्च से बाहर
आना बंद कर देते
हैं। उनकी पीठ
के निचले
हिस्से में
दर्द रहने लगा
है और रीढ़ की
हड्डी में भी
कोई तकलीफ है।
कोई इलाज
कारगर नजर
नहीं आता।
उन्हें पूरी
तरह से आराम
की जरूरत है।
संन्यासी
पोडियम की ओर
जाने वाले
रास्ते को फिर
से ठीक कर रहे
हैं। रास्ते
को पोडियम की
ऊंचाई तक उठाना
है ताकि ओशो
आराम से चलकर
पोडियम पर आ
सकें और
उन्हें
सीढ़ियां न
चढ़नी पड़े।
1 मई 1981 को
ओशो बुद्धा
हॉल में आकर
हमारे साथ मौन
में बैठने
लगते हैं।
भारतीय परपरा
में इसे
सत्संग कहा
जाता है, जिसका
अर्थ होता है—सत्तरु
की उपस्थिति
में मौन बैठना।
मेरे लिए यह
बहुत ही अनूठा
अनुभव है। बीच—बीच
में संन्यासी
संगीत बजाते
हैं जो कि मौन
को और भी गहरा
कर जाता है।
सत्संग
एक महीने तक
चलता है।
कम्यून का
बाकी सब काम
जैसा का तैसा
चल रहा है।
फिर 31 मई 1981 को
दोपहर 12—3० बजे
मैं भोजन के
लिए अपने ऑफिस
से बाहर आती हूं
और देखती हूं
कि बहुत से
संन्यासी आपस
में गले मिल
रहे हैं; कुछ
रो रहे हैं, कुछ हंस रहे
हैं और कुछ
अपनी आंखें
बंद किए
चुपचाप खड़े
हैं। मैं
पूछकर पता
लगाती हूं कि
ओशो अभी—अभी
बंबई चले गए
हैं, जहां
से वे अपने
इलाज के लिए
अमेरिका चले
जाएंगे। उनके
प्रस्थान को
उनकी सुरक्षा
की दृष्टि से
गोपनीय रखा
गया था।
मैं
एक कोने में
जाकर अकेली
बैठ जाती हूं
और अपने आंसुओ
को नहीं रोक
पाती। मैं
चुपचाप जी—भरकर
रोती हूं। मैं
यह सोचकर खुद
को सांत्वना
देती हूं कि
वे जल्दी ही
वापस आ जाएंगे।
कुछ
दिन बाद
संन्सासी
कम्यून छोड़—छोड़कर
जाने लगते हैं।
मैं अपने पिता
से मिलने बंबई
में अपने घर
चली जाती हूं।
वह मुझसे
पूछते हैं कि
अपनी नौकरी
छोड्कर चले
जाने का क्या
अब मुझे
पछतावा हो रहा
है। मैं उनसे
कहती हूं यदि
मैं वह नौकरी
करती रहती और पूना
न जाती तो
मुझे पछतावा
होता।’ पूना
में बिताया
हुआ यह एक साल
मेरे जीवन का सबसे
कीमती समय है।
इस एक वर्ष
में ओशो ने
मुझे इतना
दिया है कि
मैं पूरी तरह
तृप्त हो गई
हूं और सही
समय पर मुझे
बुला लेने के
लिए मैं उनकी
अनुग्रहीत
हूं।
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