कुल पेज दृश्य

सोमवार, 14 मार्च 2016

भावना के भोज पत्र--(पत्र--पाथय--42)

पत्रपाथय42

निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
                                                जबलपुर (म. प्र.)
आर्चाय रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय

प्रिय मां,
दोपहर की शांति। उजली धूप और पौधे सोये—सोये से। एक जामुन की छाया तले दूब पर आ बैठा हूं। रह—रहकर पत्ते ऊपर गिर रहे हैं। अंतिम पुराने पत्ते मालूम होते हैं। सारे वृक्षों पर नयी पत्तियां आ गई हैं। और नयी पत्तियों के साथ न मालूम कितनी नई चिड़ियों और पक्षियों का आगमन हुआ है। उनके गीतों का जैसे कोई अंत ही नहीं है।
कितने प्रकार की मधुर ध्वनियां इस दोपहर को संगीत दे रही हैं। सुनता हूं जैसे सुनता रहता हूं और फिर मैं भी एक अभिनव संगीत.....लोक में चला जाता हूं।
पथ का लोक संगीत का लोक ही है।
यह संगीत प्रत्येक के पास है। इसे पैदा नहीं करना होता है। केवल वह खुल पड़े इसके लिए मौन होना होता है। चुप होते ही कैसा एक पर्दा उठ जाता है। जो सदा से था; वह दीख पड़ता है। जो सदा से था; वह खुल पड़ता है। और पहली बार ज्ञात हे। रग है कि हम दरिद्र नहीं है। एक अनत संपत्ति का पुन: अधिकार मिल जाता है। फिर कितनी हंसी आती है—जिस खोजते थे वह भीतर ही बैठा था!

 (3 मार्च 1962)
रजनीश के प्रणाम
 (पुनश्च : पत्र मिले हैं। कॉलेज 30 अप्रैल को बद होंगे। बाल मंदिर वार्षिकोत्सव उसके बाद ही रखें। विवरण पत्रिका में बाल मंदिर का विकास—इतिहास और भावी योजना प्रकाशित करनी चाहिए। उसके पूर्व राष्ट्र के प्रमुख नेताओं और विचारकों तथा अन्य बाल—मंदिरों के निर्माताओं के शुभ—संदेश बुला लेने चाहिए जिन्हें विवरण पत्रिका में प्रकाशित किया जा सके। मेरा संदेश जब चाहे मैं भेज दूंगा या मैं पहले जो संदेश भेजा था उसका ही उपयोग कर लें। शेष शुभ! सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें