पत्र—पाथय—50
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
कल
रात्रि कोई
महायात्रा पर
निकल गया है।
उसके द्वार पर
आज रुदिन है।
सुबह—सुबह
घूमकर लौटा
हूं। देखता
हूं कि सड़क के
किनारे कुछ
लोग जमा है।
एक भिखारी
शरीर से मुक्त
हो गया है।
एक
बचपन की
स्मृति मन पर
दुहर जाती है।
पहली बार मरघट
जाना हुआ था।
चिता जल गई थी
और लोग छोटे—छोटे
झुंड बनाकर
बातें कर रहे
थे। गांव के
एक कवि ने कहा
था:, ‘‘मैं
मृत्यु से
नहीं डरता हूं।
मृत्यु तो
मित्र है।’’
यह बात
सबसे अनेक
रुपों में
अनेक लोगों से
सुनी है। जो
ऐसा कहते हैं।
उनकी आंखों में
भी देखा है और
पाया है कि भय
से ही ऐसी अभय
की बातें
निकलती है।
मृत्यु को
अच्छे नाम
देने से ही
कुछ परिवर्तन
नहीं हो जाता
है। वस्तुत:
डर मृत्यु का
नहीं है, डर अपरिचय
का है। जो
अज्ञात है वह
भय पैदा करता
है। मृत्यु से
परिचित होना
जरुरी है।
परिचय अभय ले
जाता है।
क्यों —
क्योंकि
परिचय से
ज्ञान होता है
कि 'जो है' उसकी मृत्यु
नहीं है। जिस
व्यक्तित्व
को हमने अपना 'मैं' जाना
है, वही
टूटता है।
उसकी ही ह। वह
है नहीं, इसलिए
टूट जाता है।
वह केवल
सांयोगिक है।
कुछ तत्वों का
जोड़ है; जोड़
खुलते ही बिखर
जाता है। यही
मृत्यु।
व्यक्तित्व
के साथ स्वरुप
को एक जानना
जब तक है तब तक
मृत्यु है।
व्यक्तित्व
से गहरे उतरें
स्वरुप पर
पहुंचें और
अमृत उपलब्ध
हो जाता है।
इस यात्रा का—व्यक्तित्व
से स्वरुप तक
ही यात्रा का मार्ग
ध्यान है।
ध्यान में, समाधि
में मृत्यु से
परिचय हो जाता
है।
सूरज
आते ही जैसे
अंधेरा नहीं
हो जाता है
वैसे ही समाधि
उपलब्ध होते
ही मृत्यु
नहीं हो जाती
है।
मृत्यु
न तो शत्रु है, न मित्र
है, मृत्यु
है ही नहीं। न
उससे भय करना
है, न उससे
अभय होना है; केवल उसे
जानना है।
रजनीश
के प्रणाम
पुनश्च:
आपका
कार्ड मिल गया
है। निश्चय
जानकर ठीक लगा।
एक—दो दिन चि.
सुशीला के पास
रह लेना जरूरी
है। मुझे यही
डर था कि कहीं
मेरे कारण
निर्णय न बदल
लें। मैं 7
अप्रैल को
सुबह 4 बजे आगरा—अहमदाबाद
एक्सप्रैस से
जयपुर पहुंच
रहा हूं।
शेष
मिलने पर।
सबको
विनम्र
प्रणाम।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें