एक
बड़े राज्य का
मुख्यमंत्री
मर गया था। उस
राज्य का नियम
था कि
मुख्यमंत्री
का चुनाव, देश
में जो
सर्वाधिक
बुद्धिमान
आदमी हो, उसकी
खोज करके किया
जाता था।
सारे
देश में
परीक्षाएं
हुईं। तीन
बुद्धिमान
लोग खोंजे
गए। अंतिम
परीक्षा होगी, और
उन तीन में जो
सर्वाधिक
बुद्धिमान
सिद्ध होगा वह
बड़ा वजीर
बनेगा। अंतिम
परीक्षा के
लिए वे तीनों
व्यक्ति राजधानी
आए।
तीनों
चिंतित रहे
होंगे, जीवन—मरण
का सवाल था।
वे तीनों यह
चाहते थे कि
शायद कहीं से
पता चल जाए कि
परीक्षा में
क्या प्रश्न
आने को है। वे
नगर में आए तो
और भी हैरान
हुए, नगर
में एक—एक
राजधानी के
निवासी को पता
था कि परीक्षा
क्या होने
वाली है।
जिससे भी पूछा
उसने कहा, निश्चिंत
रहो। राजा ने
बहुत दिनों से
एक भवन बना
रखा है। उस
भवन में तुम
तीनों को कल
बंद कर दिया
जाएगा। उस भवन
के द्वार पर
उसने एक ऐसा
ताला लगवाया है
जिसकी कोई
चाबी नहीं है,
वह ताला
गणित की एक
पहेली है।
उस पहेली के अंक ताले पर खुदे हुए हैं। जो इस पहेली को हल कर लेगा वह दरवाजा खोल कर बाहर निकल आएगा। और जो पहले बाहर निकलेगा वही बड़ा वजीर हो जाने को है।
उस पहेली के अंक ताले पर खुदे हुए हैं। जो इस पहेली को हल कर लेगा वह दरवाजा खोल कर बाहर निकल आएगा। और जो पहले बाहर निकलेगा वही बड़ा वजीर हो जाने को है।
वे
तीनों ही न तो
कोई चोर थे कि
ताले के संबंध
में समझते हों, न
कोई इंजीनियर
थे, न ही
गणित के कोई
जानकार थे।
इनमें से एक
तो जाकर, जहां
ठहराया गया था, वहां
चुपचाप चादर
ओढ़ कर सो गया।
दो मित्रों ने
सोचा कि शायद
इसने परीक्षा
देने का खयाल
छोड़ दिया। दो
बहुत परेशान
थे, भागे
हुए राजधानी
में गए, ताले
वालों से मिले,
गणितज्ञों
से मिले, इंजीनियरों
से मिले, कुछ
किताबें
पहेलियों की
लाए। रात भर
किताबें पढ़ते
रहे। अजीब सी
बात थी; कभी
तालों के
संबंध में
सोचा नहीं था,
कैसे ताला
खोलेंगे! रात
भर सोए नहीं।
एक ही रात की
बात थी और कल
जीवन भर के
लिए एक बड़ी संपत्ति,
एक बड़ा
सम्मान, एक
बड़ा पद मिल
जाता। दोनों
ने रात भर
बहुत तैयारी
की। इतनी
तैयारी की, रात भर सोए
नहीं, किताबें—किताबें,
पहेलियां,
गणित—कि
सुबह उनकी ऐसी
हालत हो गई
जैसी परीक्षा
देने वाले की
अक्सर हो जाती
है। उनसे अगर
कोई पूछता कि
दो और दो
कितने होते हैं,
तो वे नहीं
बता सकते थे।
फिर
वे राजमहल की
तरफ चले। वह
जो साथी सोया
रहा था वह उठा, गीत
गाता रहा, स्नान
किया, वह
भी उनके पीछे
हो लिया। उन
दोनों ने सोचा
यह आदमी क्या
करेगा? इसने
कोई तैयारी
नहीं की है।
लेकिन कई बार
ऐसा होता है
कि जो नहीं
तैयारी करते
हैं वे कुछ कर
लेते हैं; और
कई बार ऐसा होता
है कि जो
तैयारी करते
हैं वे पिछड़
जाते हैं।
वे
तीनों राजमहल
पहुंचे।
अफवाह सच थी, उन्हें
एक कमरे में
बंद कर दिया
गया। और
सम्राट ने कहा,
यह ताला लगा
है, यह
ताले की कोई
चाबी नहीं है।
अगर कोई इसकी
पहेली को हल
कर ले जो अंक
इस पर खुदे
हैं, तो
बाहर निकल आना।
जो पहले निकल
आएगा वही वजीर
हो जाएगा। मैं
बाहर
प्रतीक्षा
करता हूं।
वे
तीनों अंदर
बंद कर दिए गए।
दो तो अपने
कपड़ों में
किताबें छिपा
लाए थे।
उन्होंने
अपनी किताबें
निकाल कर सवाल
हल करना शुरू
कर दिया। एक
जो रात भर
सोया रहा था
वह फिर एक
कोने में आंख
बंद करके बैठ
गया। वे दोनों
हैरान हुए यह
आदमी किसलिए
आया है? रात
भर सोया रहा, अब जब कि
सवाल हल करने
का समय आया, तब भी आंख
बंद करके बैठ
गया। इस आदमी
को हो क्या
गया है? लेकिन
उसकी फिकर
करनी उचित न
थी। अच्छा ही
था कि वह
सहभागी न हो, प्रतियोगी न
हो। अच्छा ही
है, दो के
बीच ही निर्णय
हो जाए। वे
दोनों सवाल हल
करने लगे।
वह
आदमी आधा घंटे
तक बैठा रहा।
उस आदमी ने
कुछ भी नहीं
किया। वह
बिलकुल ही चुप
बैठा रहा।
उसके हाथ—पैर
भी नहीं हिले, उसकी
आंख की पलक भी
नहीं हिली।
फिर अचानक वह
उठा, दरवाजे
पर गया, दरवाजे
को धक्का दिया।
दरवाजे में
ताला लगा नहीं
था, दरवाजा
केवल अटका था।
वह बाहर निकल
गया। सम्राट
उसे लेकर भीतर
आया और उसने
कहा कि मित्रो,
अब बंद कर
दो। जिसको
निकलना था वह
निकल गया।
वे
दोनों तो बहुत
हैरान हुए!
उन्होंने कहा, यह
आदमी निकल गया
जिसने कुछ भी
नहीं किया! यह
निकला कैसे?
सम्राट
ने कहा कि
ताला लगा नहीं
था,
सिर्फ
दरवाजा अटका
था। और हम
बुद्धिमत्ता
की परीक्षा कर
रहे हैं। तो
बुद्धिमत्ता
का पहला लक्षण
यह है कि सवाल को
हल करने के
पहले जान लेना
कि सवाल है या
नहीं। अगर
सवाल न हुआ तो
हल करने की
किसी भी कोशिश
से कभी हल
नहीं हो सकता
है। अगर सवाल
हो तो हल हो भी
सकता है।
लेकिन तुमने
बुद्धिमत्ता
का पहला लक्षण
ही नहीं
दिखाया।
तुमने फिकर ही
नहीं की कि
दरवाजा बंद है
या खुला है।
और तुम खोलने
की कोशिश में
लग गए। कैसे
तुम खोल पाओगे?
दरवाजा बंद
हो तो खोला जा
सकता है; दरवाजा
खुला हो तो
फिर खोलने का
कोई भी रास्ता
नहीं, कोई
भी मार्ग नहीं।
इस आदमी ने
बुद्धिमत्ता
का लक्षण
दिखाया। इसने
पहले जांच की
कि दरवाजा बंद
है या खुला।
इसको हम वजीर:
बना लेते हैं।
उन
दोनों ने उस
आदमी से पूछा
कि तुमने कैसे
यह सोचा कि
दरवाजा बंद है
या खुला?
उस
आदमी ने कहा, मैंने
रात को, जब
मुझे पता चला
कि ताला खोलना
पड़ेगा, तभी
मैंने कहा कि
जो भी मैं
जानता हूं र
मेरा कोई भी
ज्ञान इस
पहेली को हल
करने में काम
नहीं आ सकता।
क्योंकि जो भी
मैं जानता हूं
जो भी मैंने
जाना है, जो
भी मुझे पता
है, उससे
वही सवाल हल
किए जा सकते
हैं जो मेरे
परिचित हों।
अपरिचित को
परिचित ज्ञान
के आधार पर
कभी भी हल
नहीं किया जा
सकता है। अज्ञात
को ज्ञात ज्ञान
के आधार पर
कभी हल नहीं
किया जा सकता
है। अनजाने को
जाने हुए ज्ञान
के आधार पर
कभी हल नहीं
किया जा सकता
है। जो हम
जानते हैं, हम उसी को हल
कर सकते हैं
उसके द्वारा
जो हमने पीछे
सीखा है।
लेकिन
अपरिचित, अनजान,
अशात, अननोन
कोई सवाल हो, तो नोन से, जो जात
ज्ञान है उससे
हल नहीं हो
सकता। तो फिर
मैंने सोचा कि
एक ही रास्ता
है कि मैं अपने
मन को शांत कर
लूं और जो मैं
जानता हूं उसे
भी भूल जाऊं।
तो शायद जो
मैं नहीं
जानता हूं
उसकी झलक मेरे
प्राणों में,
मेरे मन में
आ जाए। और रात
भर से मैं मूलने
की कोशिश कर
रहा हूं उसको
जो मैं जानता
हूं। क्योंकि
जो मैं जानता
हूं कहीं उसके
कारण, जो अज्ञात
है, उसमें
और मेरे मन के
बीच कोई दीवाल
न बना ले मेरा ज्ञान।
तो मैं ज्ञान
को विदा करने
की कोशिश कर
रहा हूं।
तुमने रात भर ज्ञान
इकट्ठा किया,
मैंने रात
भर ज्ञान छोड़ा,
मैंने रात
भर यही कोशिश
की कि सुबह तक
मैं बिलकुल
खाली हो जाऊं
एक कोरी स्लेट
की तरह, जो
कुछ भी नहीं
जानता है। रात
भर मैं इसीलिए
चुप पड़ा रहा।
यहां आकर भी, स्नान करने
के बाद भी मैं
वही कोशिश कर
रहा हूं कि सब
मुझे भूल जाए
जो मैं जानता
हूं र ताकि मन
निर्मल और शांत
हो जाए। और
शांत मन ही
नये सवाल का
हल खोज सकता
है, अशांत
मन नहीं। और
जिस मन में
बहुत ज्ञान
भरा है, वह
बहुत अशांत
होता है। तो
मैंने घड़ी भर
बैठ कर सब
भुला दिया। और
जैसे ही मैं
सब भूल गया, अचानक मुझे
भीतर से लगा
कि दरवाजा बंद
नहीं, दरवाजा
खुला है। मैं
उठा और बाहर
निकल गया।
मुझे पता नहीं
यह कैसे हुआ।
यह
छोटी सी कहानी
मैंने क्यों
कही?
यह कहानी
मैं इसलिए
कहना चाहता
हूं कि जो लोग जीवन
के सत्य को
जानना चाहते
हैं, वे भी
शास्त्रों को
खोल कर बैठ
जाते हैं और
जीवन के सत्य को
कभी नहीं जान
पाते। जो लोग
जीवन को जानना
चाहते हैं, जो जीवन का
द्वार खोलना
चाहते हैं, वे भी
किताबों और
शब्दों को
लेकर बैठ जाते
हैं और शब्दों
से भर जाते
हैं, ज्ञानी
हो जाते हैं, लेकिन
अज्ञान मिटता
नहीं। पंडित
हो जाते हैं, लेकिन प्रज्ञा
का द्वार नहीं
खुलता। सब जान
लेते हैं और
फिर भी कुछ
नहीं जान पाते
हैं। बस
किताबें—किताबें,
शब्द—शब्द,
शास्त्र—सिद्धांत,
इन्हीं के
घेरे में पड़े
रह जाते हैं।
और जीवन का वह
द्वार, जो
बंद ही नहीं
है, बंद रह
जाता है। जो
सदा खुला है, वह भी नहीं
खुल पाता है।
उसे खोलने के
लिए भी इस तीसरे
आदमी जैसा
बनना जरूरी है—
जो जानते हुए
को भूल जाए, विस्मरण कर
दे जिसे सीखा
है, चुप हो
जाए, मौन
हो जाए, ताकि
मौन के क्षण
में जीवन के
द्वार का
खुलापन दिखाई
पड़ जाए।
एक
बहुत बड़ा
संगीतज्ञ था
जर्मनी में— वेजनर।
उसके दरवाजे
पर सारी
दुनिया के
संगीतज्ञ संगीत
सीखने आते थे।
उसने अपने
दरवाजे पर एक
तख्ती लगा छोड़ी
थी,
उसमें लिखा
था उसने कि जो
लोग बिलकुल
संगीत नहीं
जानते हैं
उनकी फीस इतनी
है और जो लोग
संगीत जानते
हैं उनकी फीस दुगनी है
और जो बहुत
बड़े पंडित हैं
संगीत के उनको
तो मैं सिखाता
ही नहीं हूं।
लोग
उससे पूछते कि
पागल हो गए हो
आप?
जो पंडित है
संगीत का उसे
नहीं सिखाते?
तो
वेजनर
कहता कि पंडित
को पहले
पांडित्य
छोड़ना पड़ता है, तब
वह सीख सकता
है। क्योंकि
जिसे खयाल है
कि मैं जानता
हूं वह सीख
नहीं सकता। जो
लोग कुछ सीखे
हुए हैं
उन्हें पहले
भुलाना पड़ता है
जो वे सीखे
हुए हैं। तो
महीनों उनके
साथ मेहनत
करनी पड़ती है
कि तुम पुराना
भूल जाओ, ताकि
नया सीख सको।
नया सीखने के
लिए पुराने का
भूल जाना
जरूरी है। हां,
जो नये हैं,
जो कुछ भी
नहीं सीखे
हैं, उन्हें
मैं थोड़ी सी
फीस में सिखा
देता हूं।
वह
वेजनर
ठीक कहता था।
रमण
महर्षि थे
दक्षिण में।
एक जर्मन
विचारक ओकबर्न
उनसे मिलने
आया और पूछने
लगा,
मुझे ईश्वर
को जानना है, मैं क्या सीखूं?
मैं क्या सीखूं र
मुझे ईश्वर को
जानना है!
तो
रमण ने उनसे
कहा,
सीखो मत, जो सीखे
हुए हो उसको
भूल जाओ, तो
ईश्वर को तुम
जान लोगे। अनलर्न!
लर्निग की
बात ही मत करो।
जो तुम जानते
हो उसको भी
भूल जाओ।
बड़ी
उलटी बात लगती
है यह। वह
आदमी बहुत
चौंका। उसने
कहा,
मैं जो
जानता हूं वह
भी भूल जाऊं? उससे मैं
कैसे ईश्वर को
जान लूंगा?
रमण
ने कहा कि अगर
तुम भूल जाओ
जो तुम सीखे
हो,
तो
तुम्हारा मन
हलका हो जाए, निर्भार हो
जाए। तो
तुम्हारा मन,
जिसके ऊपर ज्ञान
के पत्थर रखे
हैं, वे
पत्थर हट जाएं,
तो
तुम्हारा मन
इतना हलका हो
जाए कि तुम
ऊपर उठ सको।
हलका मन ऊपर
उठता है, खाली
मन ऊपर उठता
है।
जैसे
कोई दर्पण के
ऊपर कुछ धूल
जम गई हो तो
फिर दर्पण में
प्रतिबिंब
नहीं बनता, ऐसे
ही मनुष्य के
मन पर अगर
ज्ञान की धूल
जम जाए— और
ध्यान रहे, मनुष्य के
मन पर एक ही
धूल जमती है
और वह ज्ञान
की धूल है— अगर
वह जम जाए तो
मन के दर्पण
में परमात्मा
की प्रतिछवि
कभी नहीं बनती।
यह
बात आपसे कहना
चाहता हूं अगर
आप ज्ञानी बने
रहे... और हम सब
ज्ञानी हैं, क्योंकि
हम सब कुछ न
कुछ जानते हैं
बिना कुछ जाने।
नहीं कुछ
जानते हैं सच
में। क्या
जानते हैं हम?
खुद को भी
नहीं जानते, और कुछ
जानना तो बहुत
दूर की बात है।
जो स्वयं को
भी नहीं जानता
वह और क्या
जानता होगा? लेकिन नहीं,
हमें भ्रम
है कि हम बहुत
कुछ जानते हैं।
वह जो बहुत
कुछ जानने का
भ्रम है, वह
धूल की तरह मन
के दर्पण को
ढंक लेता है।
उस दर्पण में
परमात्मा की,
सत्य की प्रतिछवि
कभी नहीं बनती।
और जिनको हम
कहते हैं कि
ईश्वर के
खोजने वाले लोग,
वे और भी
किताबों से भर
जाते हैं।
एक
संन्यासी
ईश्वर की खोज
में निकला हुआ
था और एक आश्रम
में जाकर ठहरा।
पंद्रह दिन तक
उस आश्रम में
रहा,
फिर ऊब गया।
उस आश्रम का
जो बूढ़ा गुरु
था वह कुछ
थोड़ी सी बातें
जानता था, रोज
उन्हीं को
दोहरा देता था।
फिर उस युवा
संन्यासी ने
सोचा, यह
गुरु मेरे
योग्य नहीं, मैं कहीं और
जाऊं। यहां तो
थोड़ी सी बातें
हैं, उन्हीं
का दोहराना है।
कल सुबह छोड़
दूंगा इस
आश्रम को, यह
जगह मेरे लायक
नहीं।
लेकिन
उसी रात एक
घटना घट गई कि
फिर उस युवा
संन्यासी ने
जीवन भर वह
आश्रम नहीं
छोड़ा। क्या हो
गया?
रात एक और
संन्यासी
मेहमान हुआ।
रात आश्रम के
सारे मित्र
इकट्ठे हुए, सारे
संन्यासी
इकट्ठे हुए, उस नये
संन्यासी से
बातचीत सुनने।
उस नये
संन्यासी ने
बड़ी ज्ञान की
बातें कहीं, उपनिषद की
बातें कहीं, वेदों की
बातें कहीं।
वह इतना जानता
था, इतना
सूक्ष्म उसका
विश्लेषण था,
ऐसा गहरा
उसका ज्ञान था
कि दो घंटे तक
वह बोलता रहा।
सबने
मंत्रमुग्ध
होकर सुना।
फिर उस युवा
संन्यासी के
मन में हुआ :
गुरु हो तो
ऐसा हो। इससे
कुछ सीखने को
मिल सकता है।
एक वह का है, वह चुपचाप
बैठा है, उसे
कुछ भी पता
नहीं। अभी सुन
कर उस बूढ़े
के मन में बड़ा
दुख होता होगा,
पश्चात्ताप
होता होगा, ग्लानि होती
होगी—कि मैंने
कुछ न जाना और
यह अजनबी
संन्यासी
बहुत कुछ
जानता है।
युवा
संन्यासी ने
यह सोचा कि आज
वह का गुरु अपने
दिल में बहुत—बहुत
दुखी, हीन
अनुभव करता
होगा। तभी उस
आए हुए
संन्यासी ने
बात बंद की और
बूढ़े गुरु से
पूछा कि आपको
मेरी बातें
कैसी लगीं?
वह
का गुरु
खिलखिला कर
हंसने लगा और
कहने लगा, तुम्हारी
बातें? मैं
दो घंटे से
सुनने की
कोशिश कर रहा
हूं तुम तो
कुछ बोलते ही
नहीं हो। तुम
तो बिलकुल
बोलते ही नहीं
हो।
वह
संन्यासी
बोला, दो घंटे
से मैं बोल
रहा हूं र आप
पागल तो नहीं
हैं! और मुझसे
कहते हैं कि
मैं बोलता
नहीं हूं।
उस
के ने कहा, हां,
तुम्हारे
भीतर से गीता
बोलती है, उपनिषद
बोलता है, वेद
बोलता है, लेकिन
तुम तो जरा भी
नहीं बोलते हो।
तुमने इतनी
देर में एक
शब्द भी नहीं
बोला! एक शब्द
तुम नहीं बोले,
सब सीखा हुआ
बोले, सब
याद किया हुआ
बोले, जाना
हुआ एक शब्द
तुमने नहीं
बोला। इसलिए
मैं कहता हूं
कि तुम कुछ भी
नहीं बोलते हो,
तुम्हारे
भीतर से
किताबें
बोलती हैं।
एक
ज्ञान है जो
उधार है, जो हम
सीख लेते हैं।
ऐसे ज्ञान से
जीवन के सत्य
को कभी नहीं
जाना जा सकता।
जीवन के सत्य
को केवल वे
जानते हैं जो
उधार ज्ञान से
मुक्त होते
हैं। और हम सब
उधार ज्ञान से
भरे हुए हैं।
हमें ईश्वर के
संबंध में पता
है। और ईश्वर
के संबंध में
हमें क्या पता
होगा जब अपने
संबंध में ही
पता नहीं है? हमें मोक्ष
के संबंध में
पता है। हमें
जीवन के सभी
सत्यों के
संबंध में पता
है। और इस
छोटे से सत्य
के संबंध में
पता नहीं है जो
हम हैं! अपने
ही संबंध में
जिन्हें पता
नहीं है, उनके
ज्ञान का क्या
मूल्य हो सकता
है?
लेकिन
हम ऐसा ही
ज्ञान इकट्ठा
किए हुए हैं।
और इसी ज्ञान
को जान समझ कर
जी लेते हैं
और नष्ट हो
जाते हैं।
आदमी अज्ञान
में पैदा होता
है और मिथ्या
ज्ञान में मर
जाता है, ज्ञान
उपलब्ध ही
नहीं हो पाता।
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं एक
अज्ञानी और एक
ऐसे अज्ञानी
जिन्हें तानी
होने का भ्रम
है। तीसरी तरह
का आदमी
मुश्किल से
कभी—कभी
जन्मता है।
लेकिन जब तक
कोई तीसरी तरह
का आदमी न बन
जाए, तब तक
उसकी जिंदगी
में न सुख हो
सकता है, न
शांति हो सकती
है। क्योंकि
जहां सत्य
नहीं है, वहां
सुख असंभव है।
सुख सत्य की
छाया है। जिस
जीवन में सत्य
नहीं है, वहां
संगीत असंभव
है, क्योंकि
सभी संगीत
सत्य की वीणा
से पैदा होता है।
जिस जीवन में
सत्य नहीं है,
उस जीवन में
सौंदर्य
असंभव है; क्योंकि
सौंदर्य
वस्त्रों का
नाम नहीं है
और न शरीर का
नाम है।
सौंदर्य सत्य
की उपलब्धि से
पैदा हुई
गरिमा है। और
जिस जीवन में
सत्य नहीं है,
वह जीवन
अशक्ति का
जीवन होगा, इंपोटेंट होगा
निस्सत्व
होगा, क्योंकि
सत्य के
अतिरिक्त और
कोई शक्ति
दुनिया में
नहीं है।
हम
सब कुरूप, हम
सब अर्धमृत,
हम सब
असुंदर, हम
सब सड़ते—गलते,
हम सब जीवन
में रोज—रोज
मरने की तरफ
जाते हुए लोग,
हमें पता भी
नहीं है कि हम
जी भी नहीं
रहे। क्योंकि
जब तक सत्य न
मिल जाए तब तक
कोई जीवन नहीं
है। जिसे सत्य
मिलता है उसे
ही जीवन मिलता
है, क्योंकि
जिसे सत्य
नहीं मिलता वह
मृत्यु में ही
जीता है, मृत्यु
में ही गिरता
है, मृत्यु
में ही नष्ट
होता है।
सत्य
के अतिरिक्त
कोई जीवन नहीं
है।
एक
सम्राट था
इब्राहिम।
संन्यास ले
लिया उस
सम्राट ने और
गांव के बाहर
एक चौरस्ते
पर झोपड़ी
बना कर रहने
लगा। लेकिन उस
झोपड़ी पर
रोज झगड़े हो
जाते।
क्योंकि कोई
भी आकर उस झोपड़े
पर पूछता कि
बस्ती का
रास्ता कहां
है?
वहां से दो
रास्ते जाते
थे, एक
बस्ती की तरफ,
एक मरघट की
तरफ। उस फकीर
से कोई भी
पूछता चौराहे
पर—वह चौराहे
पर था, और
कोई चौराहे पर
था भी नहीं—रास्ता
कहां है बस्ती
का?
वह
फकीर कहता, बाएं
चले जाना; दाएं
मत जाना, दायां
रास्ता मरघट
ले जाता है।
लोग
बाएं चले जाते, तीन
मील चल कर
मरघट पहुंच
जाते। तब बड़ा
क्रोध आता कि
यह आदमी कैसा
है? राह
चलते हुए
अजनबी लोगों
से मजाक करता
है! लौट कर तीन
मील चल कर
गुस्से में
आकर उसको पकड़
लेते कि तुम
आदमी कैसे हो?
तुमने इतने
जोर से कहा कि बाएं
जाओ, बाएं
बस्ती है। और
हम बाएं चले
गए। और तुमने
रोका था, दाएं
मत जाना, दाएं
मरघट है। कैसे
आदमी हो तुम?
इब्राहिम
कहता, तो फिर
हमारी
परिभाषाएं
अलग—अलग मालूम
पड़ती हैं। तुम
जिसे बस्ती
कहते हो, उसे
मैं मरघट कहता
हूं र क्योंकि
वहां हर आदमी
मरने की
तैयारी में
बैठा हुआ है।
आज मरेगा कोई,
कल मरेगा
कोई, परसों
मरेगा कोई। और
तुम जिसको
मरघट कहते हो,
उसको मैं
बस्ती कहता
हूं। क्योंकि
वहां जो बस
गया, बस
गया, फिर
कभी उजड़ता
नहीं, फिर
कभी वहां से
जाता नहीं। तो
तुमने पहले
क्यों नहीं
कहा कि कौन सी
बस्ती!
क्योंकि
बस्ती का मतलब
होता है कि
जहां बसने पर उजडूना
नहीं होता। तो
हम तो मरघट को
ही बस्ती कहते
हैं।
जो
जानते हैं वे
हमें जीवित
नहीं कहेंगे।
वे कहेंगे, हम
मरते हुए लोग।
और क्या है
जीवन हमारा? जिस दिन हम
पैदा होते हैं
उसी दिन से
मरना शुरू हो
जाता है।
हमारी पूरी
जिंदगी मरने
की एक लंबी
प्रक्रिया है,
ए ग्रेजुअल
प्रोसेस ऑफ
डेथ। धीरे—
धीरे— धीरे—
धीरे मरते
जाने की
प्रक्रिया है।
आदमी जन्म के
बाद मरने के
सिवाय और क्या
करता है?
लेकिन
हम सोचते हैं, शायद
मौत आती है
कभी सत्तर
वर्ष बाद।
मौत
इस तरह नहीं
आती कि सत्तर
वर्ष बाद
अचानक आ जाती
है। मौत रोज
साथ—साथ चलती
है। रोज हम
मरते हैं, रोज
हम बूढ़े होते
हैं, रोज
कुछ जीवन से
खिसकता चला
जाता है— जीवन
की आधारशिलाए,
जीवन की ईटं;
और मौत बढ़ती
चली जाती है।
एक दिन मौत
पूरी हो जाती
है। जिसको हम
मौत का आना
कहते हैं, वह
मौत का आना
नहीं है, मौत
का पूरा हो जाना
है। जैसे बीज
बड़ा होता है
और वृक्ष बनता
है। ऐसे ही
जन्म बड़ा होता
है और मौत बन
जाता है। और
जिस जन्म से
मौत निकलती हो,
उस जन्म को
जीवन कहा जा
सकता है? और
जिस जन्म का
अंतिम परिणाम
मौत होता हो, उसे हम क्या
कहें? उसे
मौत की लंबी
प्रक्रिया
कहें या जीवन
कहें?
एक
सम्राट रात
सोया था, उसने
एक सपना देखा।
सपना देखा कि
कोई काली छाया
उसके कंधे पर
हाथ रखे खड़ी
है। वह बहुत
घबड़ा गया, उसने
पूछा, तुम
कौन हो?
उस
काली छाया ने
सपने में कहा
कि मैं मौत
हूं और आज शाम
तुम्हें लेने
आती हूं। तुम
ठीक जगह और
ठीक समय पर
मिल जाना। समय
का ध्यान रखना, सूरज
के डूबते हां,
धूप
के डूबते ही।
सम्राट
की नींद घबड़ाहट
में खुल गई।
मन था कि पूछ
लेता मौत से
कि जगह और बता
दे कि वह जगह
कौन सी है, समय
तो बता दिया।
इसलिए नहीं कि
उस जगह पर
पहुंच जाता, बल्कि इसलिए
कि उस जगह पर
पहुंचने से
बचता। कहीं
भूल—चूक से उस
जगह न पहुंच
जाए। लेकिन
नींद खुल गई
थी, सपना
टूट गया था, मौत मौजूद
नहीं थी। बहुत
घबड़ा गया। आधी
रात थी। लेकिन
उसी वक्त गांव
में डुंडी
पिटवा दी
कि जो लोग भी
सपने का अर्थ
जानते हों वे
आ जाएं।
अनेक
विद्वान थे उस
राजधानी में, वे
आ गए। और वे
सपने का अर्थ
करने लगे। अब
पंडितों से
कभी भी किसी
चीज का अर्थ
पूछना खतरे से
खाली नहीं है।
क्योंकि एक
पंडित एक अर्थ
बताएगा, वह
अर्थ दूसरा
पंडित कभी
नहीं बताएगा।
तीसरा पंडित
तो दोनों
अर्थों से
तीसरा अर्थ बताएगा।
पंडित होने का
मतलब अलग होना
होता है। वे
सारे पंडित
अलग—अलग अर्थ
करने लगे।
उन्होंने
अपनी किताबें
खोल लीं और
शास्त्रों का
अर्थ निकालने
लगे। सुबह हो
गई, सूरज
उग गया। राजा घबड़ाने
लगा। क्योंकि
जब सपने से
जगा था तो उसे
सपना कुछ साफ—साफ
मालूम पड़ता था,
पंडितों की
बातें सुन कर
और कनफ्यूजन,
और भी भ्रम
हो गया था; अब
कुछ भी समझ
में नहीं आ
रहा था कि
क्या मतलब था
सपने का।
फिर
सूरज ऊपर चढ़ने
लगा और
पंडितों का
विवाद भी सूरज
के साथ ऊपर चढ़ने
लगा।
निष्कर्ष पर
पहुंचना तो
दूर,
आशा नहीं
रही कि
निष्कर्ष पर
वे पहुंच
सकेंगे। और तब
राजा के बूढ़े
नौकर ने राजा
के कान में
कहा, महाराज,
इनकी बातों में
मत उलझिए!
पांच—दस हजार
साल से भी
पंडित विचार
करते हैं, लेकिन
किसी नतीजे पर
कभी नहीं
पहुंचे हैं।
पंडित नतीजे
पर पहुंचते ही
नहीं। शाम
जल्दी हो
जाएगी, सूरज
ढल जाएगा। पता
नहीं, इस
भवन में उस
काली छाया के
दर्शन हुए हैं,
कहीं इसी
भवन में मौत
आती न हो।
अच्छा तो यह
है, पंडितों
को निर्णय
करने दें, आप
घोड़े पर सवार
होकर जितनी
दूर निकल सकें
इस महल से
निकल जाएं।
उस
राजा ने कहा, बात
तो ठीक है।
पंडित निर्णय
बाद में भी कर
लेंगे, बाद
में पता चल
जाएगा, लेकिन
अभी तो मुझे
सांझ से बचना
चाहिए।
उसके
पास तेज घोड़ा
था,
लेकर भागा।
कई बार अपनी
पत्नी से कहा
था—तेरे बिना
एक क्षण नहीं
जी सकता हूं।
लेकिन आज
भागते समय
घोड़े पर पत्नी
की कोई याद न
आई। अनेक
मित्रों से
कहा था कि
तुम्हीं मेरी आंखों
के तारे हो।
तुम हो तो
मेरी श्वास है।
तुम हो तो
सुगंध है। तुम
नहीं हो तो
कुछ भी नहीं
है। तुम्हारे
बिना नहीं जी
सकता हूं। आज
किसी मित्र की
कोई याद न आई।
आज एक ही याद
थी— अपनी।
मौत
के क्षण में
अपनी ही याद
रह जाती है।
और जिंदगी भर
हम दूसरे की
याद करते हैं, इसलिए
जिंदगी फिजूल
खो जाती है।
जो लोग जिंदगी
के क्षण में
अपनी याद कर
लें, उनकी
जिंदगी
सार्थक हो जाती
है। लेकिन
मरते वक्त लोग
अपनी याद करते
हैं और जिंदगी
भर दूसरों की
याद करते हैं।
जिंदगी बेकार
हो जाती है और
मौत के क्षण
में कुछ किया
नहीं जा सकता।
कुछ करने को
समय चाहिए; और मौत के
क्षण का मतलब
है समय अब
नहीं है।
वह
आदमी भागा। वह
दिन भर भागता
रहा,
खाने के लिए
नहीं रुका, पानी के लिए
नहीं रुका।
रुकना खतरनाक
था, महल से
जितनी दूर
निकल जाए उतना
अच्छा था। तेज
घोड़ा था उसके
पास, सांझ
होते—होते सैकड़ों
मील दूर निकल
गया। एक बगीचे
में जाकर घोड़ा
बांधा। सूरज
ढलता था, वह
बहुत खुश था।
घोड़े की पीठ
थपथपाई और कहा,
शाबाश! आज जब
कोई काम नहीं
पड़ा तब तू
मेरे काम पड़ा।
तू ही मेरा
असली दोस्त है,
तू ही मेरा
साथी है।
धन्यवाद तेरा
कि तू मुझे
बचा कर निकाल
लाया। तभी
पीछे किसी
काली छाया ने
कंधे पर हाथ
रखा। घबड़ा कर
लौट कर देखा, वही छाया! और
मृत्यु ने कहा,
धन्यवाद
मैं भी
तुम्हारे
घोड़े को देना
चाहती हूं।
मैं भी चिंतित
थी, इस जगह
तुम्हारा
मरना बदा था, तुम पहुंच
सकोगे कि नहीं
पहुंच सकोगे,
मैं भी घबड़ा
रही थी। घोड़ा
तुम्हारा तेज
है और ठीक समय
पर ठीक जगह ले
आया है। सच
में घोड़े का
धन्यवाद करने
योग्य है।
भागा
सुबह से सांझ
तक,
जिससे भागा
उसी के मुंह
में पहुंच गया।
जिंदगी भर हम
मौत से ही
बचना चाहते
हैं और मौत में
ही पहुंच जाते
हैं। गरीब के
घोड़े भी
पहुंचा देते
हैं, घबड़ाना मत कि अमीर
के घोड़े ही
पहुंचा सकते
हैं। गरीब के
घोड़े भी
पहुंचा देते
हैं वहीं जहां
अमीर के घोड़े
पहुंचाते हैं।
पैदल चलने
वाले भी पहुंच
जाते हैं, हवाई
जहाज से उड़ने
वाले भी पहुंच
जाते हैं। ठीक
जगह पर ठीक
समय पर हर
आदमी पहुंच
जाता है।
उसमें कभी भूल—चूक
नहीं होती।
क्योंकि जन्म
की शुरुआत मौत
की शुरुआत है;
क्योंकि
जन्म के साथ
ही मरना शुरू
हो गया।
इसे
हम जिंदगी
कहते हैं? तभी
तो फिर जिंदगी
दुख है; तभी
तो जिंदगी एक
पीड़ा है, तभी
तो जिंदगी एक
चिंता है और
एक अशांति है।
जिंदगी क्या
है एक तनाव के
अतिरिक्त? एक
तनाव जिसमें
प्राण कंपते
रहते हैं, प्रतिपल
दुख, और
दुख, और
दुख। एक तनाव
जिसमें सिवाय आंसुओ के
कुछ भी हाथ
नहीं लगता। एक
तनाव जिसमें
सिवाय
दुर्घटनाओं
के कोई घटना
ही नहीं घटती।
जिंदगी क्या
है? एक
सपना, और
वह भी दुखद, नाइटमेयर।
ऐसी
जिंदगी को अगर
बदलना हो तो
बिना सत्य के
साक्षात के
नहीं बदला जा
सकता। और
जिंदगी ऐसी
इसीलिए है कि
हमें सत्य का
कोई भी पता
नहीं। सत्य
यानी जीवन, हमें
जीवन का ही
कोई पता नहीं।
हम बाहर ही
बाहर देखते
हैं और भीतर
झांक भी नहीं
पाते जहां
जीवन का मूल
स्रोत है।
धर्म
विज्ञान है
जीवन के मूल
स्रोत को
जानने का।
धर्म मेथडोलॉजी
है,
विधि है, विज्ञान है,
कला है उसे
जानने का जो
सच में जीवन
है। वह जीवन
जिसकी कोई
मृत्यु नहीं होती।
वह जीवन जहां
कोई दुख नहीं
है। वह जीवन
जहां न कोई
जन्म है, न
कोई अंत। वह
जीवन जो सदा
है और सदा था
और सदा रहेगा।
उस जीवन की
खोज धर्म है।
उसी जीवन का
नाम परमात्मा
है। परमात्मा
कहीं बैठा हुआ
कोई आदमी नहीं
है आकाश में।
परमात्मा
समग्र जीवन का,
टोटल लाइफ
का इकट्ठा नाम
है। ऐसे जीवन
को जानने की
कला है धर्म।
लेकिन
हम धर्म के
नाम पर क्या
जानते हैं?
हम
धर्म के नाम
पर जानते हैं
शास्त्र। हम
धर्म के नाम
पर जानते हैं
शब्द। हम धर्म
के नाम पर
जानते हैं
सिद्धात। कोई
गीता को
कंठस्थ किए है, कोई
कुरान को, कोई
बाइबिल को, और सोच रहा
है कि धर्म हो
गया। नहीं, शब्दों से
धर्म नहीं
होता। जो
शब्दों को
सत्य समझ लेता
है वह वैसा ही
आदमी है जिसने
कंकड़—पत्थरों
को हीरे—मोती
समझ लिया हो।
जो शब्दों को
सत्य समझ लेता
है वह ऐसा ही
आदमी है जिसने
शब्दकोश में
लिखा हो घोड़ा
और उसको घोड़ा
समझ लिया।
अब
शब्दकोश के
घोड़े पर कोई
भी सवारी नहीं
करता है। घोड़ा
अस्तबल में
बंधा हुआ है।
और वहां घोड़ा
वगैरह कुछ भी
नहीं लिखा हुआ
है,
वहां सिर्फ
घोड़ा बंधा है।
और घोड़े को
पता भी नहीं
होगा कि वह
घोड़ा भी कहा जाता
है। शब्दकोश
में लिखा है
घोड़ा। और कई
ऐसे
बुद्धिमान
हैं कि शब्दकोश
पर चढ़ कर सवार
हो जाएंगे और
कहेंगे, घोड़ा,
मुझे ले चल।
नहीं
लेकिन, शब्दकोश
के घोड़े पर
कोई छोटा
बच्चा भी नहीं
चढ़ता।
लेकिन
शब्दकोश के
ईश्वर पर
अधिकतम लोग
पूजा करते
रहते हैं, और
शब्दकोश के
ईश्वर के
सामने हाथ जोड़
कर खड़े रहते
हैं। शब्दकोश
को ही सत्य
समझ लेते हैं,
शास्त्र पढ़
लेते हैं और
सिद्धांतों
को सत्य समझ
लेते हैं।
यह
सारा का सारा
ज्ञान ऐसा ही
है जैसे कोई
आदमी तैरने के
संबंध में
बहुत सी
किताबें पढ़ ले, और
तैरने का
जानकार बन जाए,
और जरूरत
पड़े तो तैरने
पर पी. एच. डी. कर
ले, किताबें
लिख डाले, व्याख्यान
करे। लेकिन
कभी भूल कर
ऐसे आदमी को
नदी में धक्का
मत दे देना, क्योंकि वह
आदमी और सब कर
सकता है, तैर
नहीं सकता है।
किताब से पढ़ा
हुआ तैरना नदी
में काम नहीं
आता। हां, और
एक किताब
लिखनी हो तो
काम पड़ सकता
है।
तो
कुछ लोग
किताबें पढ़ते
हैं और नई
किताबें बनाते
चले जाते हैं।
तो दुनिया में
किताबों का
ढेर बढ़ता चला
जाता है, लेकिन
ज्ञान नहीं बढ़
रहा है।
क्योंकि
ज्ञान किताब
से नहीं आता, ज्ञान तो
जिंदगी के
भीतर, अपने
ही भीतर छिपे
हुए कुएं हैं,
वहां से आता
है। लेकिन
वहां तो हम
कभी देखते ही
नहीं। हम तो
बाहर से कूड़ा—करकट
इकट्ठा करके भीतर
ले जाते हैं।
उलटे हमारा ज्ञान
हमारे भीतर के
ज्ञान को ढंक
देता है और
निकलने नहीं देता।
आदमी
की जिंदगी में
ज्ञान वैसे ही
है जैसे पानी
जमीन के नीचे
है। और कुआं
कोई खोद ले, जमीन
के पत्थर
निकाल कर बाहर
फेंक दे। कुआं
खोदने में कोई
क्या करता है?
मिट्टी—पत्थर
निकाल कर फेंक
देता है। पानी?
पानी भीतर
है। मिट्टी—पत्थर
के निकलते ही
बाहर आ जाता
है। कुआं क्या
है? कुआं
एक छेद, एक एंप्टीनेस,
एक खाली जगह
है। हमने एक
खाली जगह बना
दी, भीतर
का पानी प्रकट
होने लगा।
लेकिन
कुछ लोग कुआं
नहीं बनाते, कुछ
लोग हौज बना
लेते हैं। हौज
बिलकुल उलटी
चीज है! कुआं
जमीन में
खोदना पड़ता है,
हौज ऊपर की
तरफ उठानी
पड़ती है। कुएं
में मिट्टी—पत्थर
निकाल कर
फेंकने पड़ते
हैं, हौज
के लिए बाजार
से खरीद कर
लाने पड़ते हैं।
मिट्टी—पत्थर
लाओ, दीवाल
बना कर जोड़ कर
खड़ा कर दो। कुआं
खुद जाता है
तो पानी
मांगने नहीं
जाना पड़ता, पानी अपने
आप आता है।
हौज बन कर
तैयार हो गई, अब पानी भी
लाओ, अब
पड़ोस के कुओं
से पानी मांगो
उधार और अपनी
हौज में भर लो।
देखने पर हौज
और कुआं एक
जैसे मालूम
पड़ते हैं। हौज
में भी पानी
है, कुएं
में भी पानी
है। लेकिन
कुएं के पास
अपना पानी है,
हौज के पास
अपना पानी
नहीं है।
कुएं
के पानी में
जिंदगी है, कुएं
का पानी जिंदा
है, उसके
सागर से संबंध
हैं, उसकी
दूर धाराएं
फैली हैं, वह
अनंत से जुड़ा
है। हौज किसी
से भी नहीं
जुड़ी, अपने
में बंद है, चारों तरफ
से बंद है, उसका
किसी से कोई
संबंध नहीं। कुआं
भलीभांति
जानता है कि
पानी मेरा
नहीं है, सागर
का है। हौज
जानती है कि
पानी मेरा है।
अब
यह मजा देखो!
हौज के पास
सारा पानी
उधार है, लेकिन
हौज को लगता
है कि पानी
मेरा है। कुएं
के पास पानी
उधार नहीं है,
अपना है।
लेकिन कुआं
जानता है मेरा
क्या है! मैं
तो केवल प्रकट
होने का एक
रास्ता हूं।
पानी तो सागर
का है, पानी
तो आकाश का है,
पानी तो दूर
से आता है और
मैं भर जाता
हूं। मैं तो
एक खाली जगह
हूं जिसमें
पानी प्रकट होता
है।
कुएं
के पास कोई
अहंकार नहीं
होता, हौज के
पास अहंकार
होता है। अगर
पानी भरा रहे
तो हौज का
पानी सडेगा,
कुएं का
पानी नहीं सडेगा।
अगर पानी को
निकाल लो तो
हौज का पानी
खाली हो जाएगा,
हौज नंगी और
खाली हो जाएगी।
कुएं का पानी
निकालों, और
नया पानी भर
जाएगा।
मैंने
कुओं को
चिल्लाते
सुना है कि आओ, कोई
मेरा पानी
निकाल लो! और हौजें भी
चिल्लाती हैं
और रोती हैं
कि दूर रहना, हमारा पानी
मत निकाल लेना!
लाओ, और
थोड़ा पानी डाल
दो।
और
आदमी भी दो
तरह के हैं।
एक हौज की तरह
के आदमी हैं
जो ज्ञान उधार
लेकर भर लेते
हैं अपनी
खोपड़ी में।
उनके पास अपना
कुछ भी नहीं
होता। और एक
वे लोग भी हैं
जो ज्ञान उधार
नहीं मांग
लेते, जो अपने
भीतर खोदते
हैं और ज्ञान
का कुआं
उपलब्ध कर
लेते हैं।
शानी वे हैं
जिनके भीतर
कुएं की तरह
पानी प्रकट
होता है और
पंडित वे हैं
जो हौज की तरह
हैं।
इसलिए
दुनिया में
पंडित कभी भी
सत्य को नहीं
जान पाता है।
अज्ञानी जान
सकते हैं, लेकिन
पंडित नहीं
जान सकता।
मैंने सुना ही
नहीं कि पंडित
कभी भगवान के
दरवाजे तक
पहुंचा हो। आज
तक नहीं
पहुंचा, आगे
भी कभी नहीं
पहुंच सकता है,
क्योंकि
पंडित के पास
सब उधार है, उधार आदमी
कहीं भी नहीं
पहुंच सकता है।
सब बारोड
है, सब
बासा है, सब
मुर्दा है, दूसरों के
शब्द हैं।
हम
पंडित बनना
चाहते हैं तो
बहुत आसान है, लेकिन
अगर हम ज्ञान
को उपलब्ध
होना चाहते
हैं तो थोड़ी
कठिनाई है।
क्योंकि
पंडित होने
में संग्रह
करना पड़ता है।
संग्रह करना
आसान है, क्योंकि
संग्रह करना
मन को बड़ा सुख
देता है।
जितना संग्रह
बढ़ता है उतना
लगता है मैं
कुछ हूं। पैसा
इकट्ठा होता
है तो आदमी को
लगता है मैं
कुछ हूं। ज्ञान
इकट्ठा होता
है तो भी आदमी
को लगता है
मैं कुछ हूं।
किसी भी चीज
के इकट्ठे
होने से आदमी
की ईगो, अहंकार
मजबूत होता है
और लगता है
मैं कुछ हूं।
इसलिए संग्रह
करना हमेशा
आसान है, क्योंकि
संग्रह से मैं
निर्मित होता
है, अहंकार
मजबूत होता है।
लेकिन जिसे
ज्ञान पाना है,
वह थोड़ा
कठिन है, आरडुअस
है, थोड़ा तपश्चर्यापूर्ण
है, क्योंकि
उसमें संग्रह
छोड़ना पड़ता है।
और धन छोड़ना
आसान है, ज्ञान
छोड़ना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि ज्ञान
भीतरी धन
मालूम पड़ता है,
लगता है कि
यही तो हमारा
सहारा है।
लेकिन
कभी भीतर झांक
कर देखें, वहां
कोई भी ज्ञान
नहीं है हमारे
पास, वहां
हम बिलकुल
खाली और
अज्ञानी हैं,
हमने झूठा
ज्ञान वहां
पकड़ रखा है।
और जब तक हम इस
झूठे ज्ञान को
पकड़े हुए
हैं, तब तक
हम अपनी
किताबें खोल
कर बैठे
रहेंगे और पूछते
रहेंगे ईश्वर
का दरवाजा
कहां है? ईश्वर
का दरवाजा
कैसे खोलें? की ऑफ नॉलेज
कहां है? ज्ञान
की कुंजी कहां
है? हम
कहां जाएं? किससे पूछें?
किसको गुरु बनाएं? कौन
हमें कुंजी
देगा और हम
दरवाजा खोल
लेंगे? तब
तक हम अपनी
किताब में
उलझे रहेंगे
और पांडित्य
में।
लेकिन
एक रास्ता और
भी है। मत
पूछें किसी से, मत
जाएं किसी के
द्वार पर, न
किसी शास्त्र
के पास, न
किसी गुरु के
पास। न किसी
शास्त्र के
पास ज्ञान है
और न किसी
गुरु के पास
जान है। ज्ञान
प्रत्येक के
भीतर है, स्वयं
के भीतर है।
वहीं है
शास्त्र, वहीं
है गुरु, वहीं
स्वयं
परमात्मा
बैठा हुआ है।
किससे पूछ रहे
हैं?
लेकिन
वहां जाने के
लिए चुप हो
जाना पड़ेगा, वहां
जाने के लिए आंख
बंद कर लेनी
पड़ेगी, वहां
जाने के लिए
सब छोड़ देना
पड़ेगा जो हम
जानते हैं। और
जो आदमी सब
छोड़ने को राजी
है— ज्ञान, जो
ज्ञान छोड़ने
को राजी है वह
आदमी ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है।
क्योंकि तब वह
पाता है कि
द्वार पूर कोई
ताला नहीं है,
द्वार खुला
है। धक्का दो
और द्वार खुल
जाता है।
जीसस
ने कहा है, नीक
एंड दि डोर
शैल बी ओपन्द
अनटू यू। खटखटाओ और
द्वार खोल दिए
जाएंगे। आस्क
एंड इट शैल बी गिवेन।
मांगो और मिल
जाएगा।
जीसस
तो कहते हैं, खटखटाओ
और द्वार खुल
जाएगा। लेकिन
मैं कहता हूं
खटखटाने की भी
कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि
द्वार बंद
नहीं है, आंख
खोलों और
पाओगे कि
द्वार खुला
हुआ है। लेकिन
आंख नहीं
खुलती है, आंख
पर किताबें
रखी हैं, आंख
पर शास्त्र
रखे हैं, हिंदुओं
के, मुसलमानों
के, ईसाइयों
के, सबके
शास्त्र छाती
पर रखे हुए
हैं और हर
आदमी दब गया
है शास्त्रों
के नीचे।
हमारे
पास,
शास्त्रों
ने हमें बंधे
हुए उत्तर दे
दिए। और बंधे
हुए उत्तर
सबसे ज्यादा
खतरनाक हैं, क्योंकि
उनकी वजह से
कोई आदमी अपना
उत्तर नहीं
खोज पाता है।
एक
छोटी सी कहानी, और
अपनी बात मैं
पूरी कर दूंगा।
बंधे
हुए उत्तर सबसे
ज्यादा
खतरनाक हैं; क्योंकि
बंधे हुए
उत्तर आपको
ज्ञानी तो बना
देते हैं, लेकिन
बंधे हुए
उत्तर आपकी
चेतना को कभी
विकसित नहीं
होने देते।
आपने
एक कहानी सुनी
होगी। सुना
होगा, एक आदमी
था, एक
सौदागर।
टोपियां
बेचता था
बाजारों में
जाकर। एक दिन
लौट रहा था
टोपियां बेच
कर, एक
झाडू के नीचे
सोया था। बंदर
उतरे और उसकी
टोपियां लगा
कर ऊपर चढ़ गए।
जब उसकी नींद
खुली तब वह
हैरान हुआ, टोपियां
कहां गईं? ऊपर
देखा तो बंदर
टोपियां लगाए
बैठे हैं। बड़ी
मुश्किल हुई—इनसे
टोपियां कैसे
वापस ली जाएं?
तब उसे खयाल
आया कि बंदर
नकलची होते हैं।
उसने अपनी
टोपी निकाल कर
फेंक दी। सारे
बंदरों ने
टोपियां फेंक
दीं। उसने
सारी टोपियां
इकट्ठी कीं और
अपने घर चला
गया। इतनी
कहानी आपने
सुनी होगी।
लेकिन यह आधी
कहानी है, आधी
कहानी और है, वह भी मैं
आपसे कहना
चाहता हूं।
फिर
वह सौदागर मर
गया,
उसका बेटा
सौदागर हुआ।
उस बेटे ने भी
टोपियां
बेचना शुरू
कीं। वह बेटा
भी उसी झाडू
के नीचे रुका।
बंदर उतरे और
टोपियां लगा
कर ऊपर चढ़ गए।
उस बेटे ने
ऊपर देखा, उसे
अपने बाप की
कहानी याद आई।
उसके पास
उत्तर तैयार
था, उसने
सोचा कि बाप
ने कहा था कि
टोपी फेंकने
से सब टोपियां
बंदरों ने
फेंक दी थीं।
उसने अपनी
टोपी निकाली
और फेंक दी।
लेकिन
दुर्भाग्य, एक बंदर
नीचे उतरा और
उसकी भी टोपी
लगा कर ऊपर चला
गया। बंदरों
ने टोपी नहीं
फेंकी, क्योंकि
बंदर पहले
मामले से समझ
गए थे और उन्होंने
तय कर लिया था
कि अब कभी भूल
ऐसी नहीं करनी
है, सौदागर
एक दफा धोखा
दे गया। लेकिन
बेटे के पास
बंधा हुआ
उत्तर था, बाप
के ज्ञान को
अपना ज्ञान
बना लिया था
उसने। वह झंझट
में पड़ गया।
सभी
बेटे बाप के
ज्ञान को अपना
ज्ञान बना कर
झंझट में पड़
जाते हैं, क्योंकि
ज्ञान कभी भी
किसी का किसी
दूसरे का नहीं
बन सकता है।
ज्ञान कभी भी
उधार नहीं
होता। ज्ञान
उधार हो ही
नहीं सकता है।
जो उधार है वह
अज्ञान से
बदतर है।
लेकिन
हम सब उधार
ज्ञान से भरे
हुए हैं। सब
बाप—दादों के
उत्तर हैं, सब
याद किए हुए
हैं हम। कृष्ण
का, महावीर
का, बुद्ध
का, क्राइस्ट
का, सब
उत्तर हमें
याद हैं। उन
उत्तरों के
कारण हमें
अपना उत्तर
नहीं मिल पाता
है। इसलिए हम
जिंदगी में, जिंदगी को
बिना जाने
जीते हैं और
मर जाते हैं।
इसलिए जिंदगी
हमारी एक
सुवास नहीं, इसलिए
जिंदगी एक
सुगंध नहीं, इसलिए
जिंदगी एक
जीता हुआ
संगीत नहीं, इसलिए
जिंदगी एक कल—कल
करता हुआ झरना
नहीं है।
जिंदगी एक बंद
तालाब हो गई
है। और इस बंद
तालाब में हम सड़ गए हैं,
गल रहे हैं।
चारों तरफ
दुर्गंध फैल
रही है जीवन
के, चारों
तरफ जीवन उदास
हो गया।
ऐसी
उदास जिंदगी
को बदलने के
लिए कुछ किया
जाना जरूरी है।
क्या कर सकते
हैं?
उधार ज्ञान
को छोड़े और
अपने भीतर झांकें,
जहां से
असली ज्ञान के
स्रोत उपलब्ध
होते हैं।
मेरी
बातों को, जो
कि बड़ी
मुश्किल से
मैं कह पाया
और पूरी नहीं
कह पाया, फिर
भी आपने इतनी
बातचीत करने
वाले लोगों के
बीच—यह मौका
पहली दफा है
मेरी जिंदगी
में ऐसा, आपके
गांव को याद
रखूंगा— फिर
भी मेरी बातों
को किसी तरह
सुन लिया, उसके
लिए बहुत—बहुत
अनुग्रह
मानता हूं। और
अंत में सबके
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
आज
इतना ही।
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