पाप
और आवरण
मीरदाद
:
पाप के विषय
में तुम्हें
बता दिया गया
है,
और यह तुम
जान जाओगे कि
मनुष्य पापी
कैसे बना।
तुम्हारा
कहना है, और वह
सारहीन भी
नहीं है, कि
परमात्मा का
प्रतिबिम्ब
और प्रतिरूप
मनुष्य यदि
पापी है, तो
स्पष्ट है कि
पाप का स्रोत
स्वय
परमात्मा ही
है। इस तर्क
में भोले —भाले
लोगों के लिये
एक जाल है, और
तुम्हें, मेरे
साथियो, मैं
जाल में फँसने
नहीं दूँगा।
इसलिये मैं इस
जाल को
तुम्हारे
रास्ते से हटा
दूँगा. ताकि
तुम इसे अन्य
मनुष्यों के
रास्ते से हटा
सकी।
परमात्मा
में कोई पाप
नहीं, क्या
सूर्य का अपने
प्रकाश में से
मोमबत्ती को
प्रकाश देना
पाप है? न
ही मनुष्य में
पाप है, क्या
एक मोमबत्ती
के लिये धूप
में जल कर
अपने आप को
मिटा देना और
इस प्रकार
सूर्य के साथ
मिल जाना पाप
है?
लेकिन
पाप है उस
मोमबत्ती में
जो अपना
प्रकाश बिखेरना
नहीं चाहती, और
जब उसे जलाया
जाता है तो
दियासलाई तथा
दियासलाई
जलाने वाले
हाथ को कोसती
है। पाप है उस
मोमबत्ती में
जिसे धूप में
जलने में शर्म
आती है. और जो
इसीलिये अपने
आप को सूर्य से
छिपा लेना
चाहती है।
मनुष्य
ने प्रभु के
विधान का
उल्लघन करके
पाप नहीं
किया. बल्कि
पाप किया है
उस विधान के
प्रति अपने
अज्ञान पर परदा
डाल कर।
ही.
पाप तो अंजीर—पत्ते
के आवरण से
अपनी नग्नता
छिपाने में था।
क्या
तुमने मनुष्य
के पतन की कथा
नहीं पढ़ी जो शब्दों
की दृष्टि से
सरल और
संक्षिप्त, परन्तु
अर्थ की
दृष्टि से
गहरी और महान
है? क्या
तुमने नहीं पढ़ा
कि जब मनुष्य
परमात्मा में
से नया —नया
निकला था तो
किस प्रकार वह
एक शिशु —परमात्मा
जैसा था —
निश्चेष्ट, गतिहीन, सृजन
में असमर्थ? क्योंकि
परमात्मा के
सभी गुणों से
युक्त होते
हुए भी वह सब
शिशुओं की तरह
अपनी अनन्त
शक्तियों और
योग्यताओं को
प्रयोग में
लाने में ही
नहीं, बल्कि
उन्हें जानने
में भी असमर्थ
था।
एक
सुन्दर शीशी
में बन्द
अकेले बीज की
तरह था मनुष्य
अदन की वाटिका
में। शीशी में
पड़ा बीज बीज
ही रहेगा, और
जब तक उसे
उसकी प्रकृति
के अनुकूल
मिट्टी में
दबाया न जाये
और उसका खोल
फूट न जाये, उसके अन्दर
बन्द चमत्कार
सजीव होकर
प्रकाश में
नहीं आयेगा।
परन्तु
मनुष्य के पास
उसकी प्रकृति
के अनुकूल कोई
मिट्टी नहीं
थी जिसमें वह
अपने आप को रोपता
और अंकुरित हो
जाता।
उसके
चेहरे को किसी
अन्य समरूपी
चेहरे में अपनी
झलक नहीं
मिलती थी।
उसके मानवी
कान को कोई
अन्य मानव—स्वर
सुनाई नहीं
देता था। उसका
मानव —स्वर
किसी अन्य
मानव —कण्ठ
में गूँज कर
नहीं लौटता था।
उसके एकाकी
हृदय के साथ
एक—सुर होने
के लिये कोई
अन्य हृदय
नहीं था।
इस
संसार में, जिसे
उपयुक्त
जोड़ों के रूप
में अपनी
यात्रा पर
रवाना किया
गया था, मनुष्य
अकेला था, बिलकुल
अकेला। वह
अपने लिये एक
अजनबी था।
उसके करने के
लिये अपना कोई
काम नहीं था
और न ही था
उसके लिये
निर्धारित
कोई मार्ग।
अदन उसके लिये
वही था जो
किसी शिशु के
लिये एक आरामदेह
पालना होता है
— निक्रिय
आनन्द की एक
अवस्था। वह
उसके लिये सब
प्रकार की सुख
—सुविधा का
स्थान था।
नेकी
और बदी के
ज्ञान का
वृक्ष तथा
जीवन का वृक्ष
दोनों उसकी
पहुँच में थे; फिर
भी वह उनके फल
तोड्ने और
चखने के लिये
हाथ नहीं
बढाता था; क्योंकि
उसकी रुचि और
उसकी संकल्प —शक्ति,
उसके विचार
तथा उसकी
कामनाएँ, यहाँ
तक कि उसका
जीवन भी, सब
उसके अन्दर
बन्द पड़े थे
और इस
प्रतीक्षा
में थे कि उन्हें
कोई धीरे—धीरे
खोले। उन्हें
स्वयं खोलना
उसके लिये
सम्मव नहीं था।
अतएव उसे अपने
अन्दर से ही
अपने लिये एक
साथी पैदा
करने के लिये
विवश किया गया
— एक ऐसा हाथ जो
उसके बन्धन.
खोलने में
उसका सहायक
बने।
पाप
और आवरण उसे
सहायता और
कहाँ से मिल
सकती थी सिवाय
अपने अन्दर के
जो दिव्यत्व
से सम्पन्न होने
के कारण
सहायता से
भरपूर था?
और यह बात
अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण
है।
किसी
नई मिट्टी और
साँस से नहीं
बनी थी हौवा, बल्कि
आदम की अपनी
ही मिट्टी और
साँस थी — उसकी
हड्डी में से
एक हड्डी उसके
मास में से
मांस का एक
टुकड़ा। कोई
अन्य जीव
रंगमंच पर
प्रकट नहीं
हुआ था; बल्कि
स्वयं उसी एक
आदम को युगल
बना दिया गया था
— एक पुरुष आदम
और एक स्त्री
आदम।
इस
प्रकार उस
अकेले. दर्पण —रहित
चेहरे को एक
साथी और एक
दर्पण मिल
जाता है, और वह
नाम जो पहले
किसी मानव —स्वर
में नहीं
गूँजा था अदन
की वीथिकाओं
में ऊपर, नीचे,
सर्वत्र
मधुर स्वरों
में गूँजने
लगता है, और
वह हृदय जिसकी
उदास धड़कन एक
सूने वक्ष में
दबी पड़ी थी एक
साथी वक्ष में
एक साथी हृदय
के अन्दर अपनी
गति महसूस
करने और धड़कन
सुनने लगता है।
इस
प्रकार
चिनगारी—रहित
फौलाद का उस
चकमक पत्थर से
मेल हो जाता
है जो उसमें
से बहुत —सी
चिनगारियाँ
पैदा कर देता
है। इस प्रकार
अनजली
मोमबत्ती
दोनों सिरों
से जला दी
जाती है।
मोमबत्ती
एक है, बत्ती
एक है, और
रोशनी भी एक
है, यद्यपि
वह देखने में
दो अलग —अलग
सिरों से पैदा
हो रही है। और
इस प्रकार
शीशी में पड़े
बीज को वह
मिट्टी मिल
जाती है
जिसमें
अंकुरित होकर
वह अपने रहस्य
प्रकट कर सकता
है।
इस
प्रकार अपने
आप से अनजान
एकत्व द्वैत
को जन्म देता
है ताकि द्वैत
में निहित
संघर्ष और विरोध
के द्वारा उसे
अपने एकत्व का
ज्ञान कराया
जा सके। इस
प्रक्रिया
में भी मनुष्य
अपने
परमात्मा का
सही प्रतिबिम्ब
है,
उसका
प्रतिरूप है।
क्योंकि
परमात्मा —
आदि चेतना —
अपने आप में
से शब्द को
प्रकट करता है;
और शब्द तथा
चेतना दोनों
दिव्य ज्ञान
में एक हो
जाते हैं।
द्वैत
कोई दण्ड नहीं
है,
बल्कि एकल
की प्रकृति
में निहित एक
प्रक्रिया है,
उसकी
दिव्यता के
प्रकट होने का
एक आवश्यक साधन।
कैसा बचपना है
और किसी तरह
सोचना। कैसा
बचपना है यह
विश्वास करना
कि इतनी बड़ी प्रक्रिया
से उसका मार्ग
तीन बीसी और
दस सालों या
तीन बीसी दस—लाख
सालों में भी
तय करवाया जा
सकता है।
आत्मा
का परमात्मा
बनना क्या कोई
मामूली बात है?
क्या
परमात्मा
इतना कठोर और
कंजूस मालिक
है कि देने के
लिये उसके पास
पूरा
अनन्तकाल
होते हुए भी
वह मनुष्य को
फिर से एक
होकर, अपने
ईश्वरत्च तथा
परमात्मा के
साथ अपनी एकता
का पूरी तरह
डगन प्राप्त
करके वापस
अपने मूलधाम
अदन में
पहुँचने के
लिये केवल
सत्तर वर्ष का
इतना कम समय
प्रदान करे?
लम्बा
है द्वैत का
मार्ग; और
मूर्ख हैं वे
लोग जो उसे
तिथिपत्रों
से नापते हैं।
अनन्तकाल
सितारों के
चक्कर नहीं
गिनता।
जब
निष्क्रिय, गतिहीन,
सृजन में
असमर्थ आदम को
एक से दो कर
दिया गया तो
वह तुरन्त
क्रियाशील, गतिमान तशा
सृजन और
सन्तानोत्पादन
में समर्थ हो
गया।
दो
कर दिये जाने
पर आदम का
पहला काम क्या
था?
वह था नेकी
और बदी के
ज्ञान के
वृक्ष का फल
खाना और इरा
प्रकार अपने
सारे ससार को
अपने जैसा ही
दो कर देना।
अब कुछ भी
वैसा न रहा था
जैसा पहले था —
निष्पाप तथा
निश्चिन्त।
बल्कि सब —कुछ
अच्छा या बुरा,
लाभकारी या
हानिकारक, सुखकर
या कष्टकर हो
गया था, दो
विरोधी दलों
में बँट गया
था जब कि पहले
एक था।
और
जिस साँप ने
हौवा को नेकी
और बदी का
स्वाद चखने के
लिये फुसलाया
था,
क्या वह उस
सक्रिय
किन्तु
अनुभवहीन
द्वैत की ही
गहरी आवाज
नहीं थी जो
कुछ करने तथा
अनुभव प्राप्त
करने के लिये
अपने आप को
प्रेरित कर रहा
था?
यह
कोई आश्चर्य
की बात नहीं
है कि इस आवाज
को पहले हौवा
ने सुना और
उसका कहा माना।
क्योंकि हौवा
मानों सान का
पत्थर थी —
अपने साथी में
छिपी
शक्तियों को
प्रकट करने के
लिये बनाया
गया उपकरण।
इस
प्रथम मानव—कथा
में चोरी से
अदन के पेड़ों
में से अपना
मार्ग बना रही
इस प्रथम
स्त्री की
सजीव कल्पना
के लिये क्या
तुम अक्सर रुक
नहीं गये — ऐसी
स्त्री की
कल्पना जो
घबराई हुई थी, जिसका
हृदय पिंजरे
में बन्द
पक्षी की तरह
फड़फड़ा रहा था,
जिसकी आंखें
चारों ओर देख
रही थीं कि
कहीं कोई ताक
तो नहीं रहा
है, और
जिसके मुँह
में पानी भर
आया था जब
उसने अपना
काँपता हुआ
हाथ उस
लुभावने फल की
ओर बढ़ाया था? क्या तुमने
उस समय अपनी
साँस रोक नहीं
ली जब उसने वह
फल तोड़ा और
उसके कोमल गूदे
में अपने दाँत
गड़ा दिये, ऐसी
क्षणिक मिठास
का स्वाद लेने
के लिये जो स्वयं
उसके और उसकी
सन्तान के
लिये स्थायी
कडवाहट में
बदलने वाली थी?
क्या
तुमने जी —जान
से नहीं चाहा
कि जब हौवा
अपना विवेक—शून्य
कार्य करने ही
वाली थी, परमात्मा
उसी समय प्रकट
होकर उसकी
उन्मत्त धृष्टता
को रोक देता, बजाय बाद
में प्रकट
होने के जैसा
कि कहानी में
होता है?
और जब हौवा ने
वह गुनाह कर
ही लिया, तो
क्या तुमने
नहीं चाहा कि
आदम के पास
इतना विवेक और
साहस होता कि
वह अपने आप को
हौवा का सह —अपराधी
बनने से रोक
लेता?
परन्तु
न तो परमात्मा
ने हस्तक्षेप
किया, न आदम ने
अपने आप को
रोका, क्योंकि
परमात्मा
नहीं चाहता था
कि उसका प्रतिरूप
उससे भिन्न हो।
यह उसकी इच्छा
और योजना थी
कि मनुष्य
अपनी खुद की
इच्छा और
योजना को
सँजोये और
दिव्य ज्ञान
द्वारा अपने
आप को एक करने
के लिये द्वैत
का लम्बा
रास्ता तय करे।
जहाँ तक आदम
का सवाल है, वह चाहता भी
तो अपनी पत्नी
के दिये फल को
खाने से अपने
आप को रोक
नहीं सकता था।
वह फल खाने के
लिये बाध्य था
केवल इसलिये
कि उसकी पत्नी
उस फल का कुछ
अंश खा चुकी
थी, क्योंकि
दोनों एक शरीर
थे, और
दोनों एक —दूसरे
के कर्मों के
लिये
उत्तरदायी थे।
क्या
परमात्मा
मनुष्य के
नेकी और बदी
का फल खाने पर
अप्रसन्न और
कुद्ध हुआ?
यह सम्भव नहीं
था, क्योंकि
परमात्मा
जानता था कि
मनुष्य फल खाये
बिना रह नहीं
सकेगा, और
वह चाहता था
कि मनुष्य फल
खाये; किन्तु
वह यह भी
चाहता था कि
मनुष्य पहले
ही जान ले कि
खाने का
परिणाम क्या
होगा और उसमें
परिणाम का
सामना करने की
शक्ति हो। और
मनुष्य में वह
शक्ति थी। और
मनुष्य ने फल
खाया। और
मनुष्य ने
परिणाम का
सामना किया।
और
वह परिणाम था
मृत्यु।
क्योंकि
प्रभु की
इच्छा से
क्रियाशील दो
बनने में
मनुष्य की
क्रिया —रहित
एकता समाप्त
हो गई थी। अतएव
मृत्यु कोई
दण्ड नहीं है, बल्कि
जीवन का एक
पक्ष है, द्वैत
का ही एक अंश
है। क्योंकि
द्वैत की
प्रकृति है सब
वस्तुओं को एक
से दो का रूप
दे देना, प्रत्येक
वस्तु को एक
परछाईं
प्रदान कर
देना।
इसलिये
आदम ने अपनी
परछाईं पैदा
कर ली हौवा के
रूप में, और
अपने जीवन के
लिये दोनों ने
एक परछाईं
पैदा कर ली
जिसका नाम है
मृत्यु।
परन्तु आदम और
हौवा मृत्यु
की छाया में
रहते हुए भी
प्रभु के जीवन
में परछाईं—रहित
जीवन जी रहे
हैं।
द्वैत
एक निरन्तर
संघर्ष है; और
संघर्ष यह
भ्रम पैदा
करता है कि दो
विरोधी पक्ष
अपने आप को
मिटा देने पर
तुले हैं।
विरोधी दिखने
वाले पक्ष
वास्तव में एक—दूसरे
के पूरक हैं, एक—दूसरे के
साधक हैं और कंधे
से कन्धा मिला
कर एक ही
उद्देश्य के
लिये, सम्पूर्ण
शान्ति, एकता
और दिव्य
ज्ञान से
उत्पन्न होने
वाले सन्तुलन
के लिये कार्य
—रत हैं।
परन्तु भ्रम
की जड़
ज्ञानेन्द्रियों
में जमी हुई
है, और वह
तब तक बना
रहेगा जब तक
ज्ञानेन्द्रियाँ
हैं।
इसलिये
आदम की आंखें
खुलने के बाद
प्रभु ने जब
उसे बुलाया तो
उसने उत्तर
दिया, ''मैंने
बा:। में तेरी
आवाज सुनी, और 'मैं' डर गया
क्योंकि 'मैं'
नंगा था, और 'मैंने'
अपने आप को
छिपा लिया।’’ आदम ने यह भी
कहा, ''जो
स्त्री तूने 'मुझे' साथी
के रूप में दी
थी, उसने 'मुझे' वृक्ष
का फल दिया, और 'मैंने'
खाया।’’
हौवा
और कोई नहीं
थी,
आदम का अपना
ही हाड़—मांस
थी। फिर भी
आदम के इस
नवजात 'मैं'
पर विचार
करो जो आंख
खुलने के बाद
अपने आप को
हौवा से, परमात्मा
से और
परमात्मा की
समूची रचना से
भिन्न, पृथक्
और स्वतन्त्र
समझने लगा।
एक
भ्रम था यह 'मैं'। उस अभी —अभी
खुली आँख का
एक भ्रम था
परमात्मा से
पृथक् हुआ यह
व्यक्तित्व।
इसमें न सार
था, न
यथार्थ। जन्म
इसका
इसलिये हुआ था
कि इसकी
मृत्यु के
माध्यम से
मनुष्य अपने
वास्तविक अहं
को पहचान ले
जो परमात्मा
का अहं है। यह
भ्रम तब लुप्त
होगा जब बाहर
की आंख के
सामने अँधेरा
छा जायेगा और
अन्दर की आंख
के सामने
प्रकाश हो
जायेगा। और
इसने यद्यपि
आदम को चकरा
दिया, फिर भी
इसने उसके मन
में एक प्रबल
जिज्ञासा उत्पन्न
कर दी और उसकी
कल्पना को
लुभा लिया।
मनुष्य के
लिये, जिसे
किसी भी अहं
का अनुभव न
हुआ हो, एक
ऐसा अहं पा
लेना जिसे वह
पूरी तरह अपना
कह सके सचमुच
एक बहुत बड़ा—
प्रलोभन था, और उसके
मिथ्याभिमान
के लिये बहुत
बड़ा प्रोत्साहन
भी।
और
आदम अपने इस
भ्रामक अह के
प्रलोभन और
बहकावे में आ
गया। यद्यपि
वह इसके लिये
लज्जित था, क्योंकि
यह अवास्तविक
था, नग्न
था, फिर भी
वह इसे
त्यागने को
तैयार नहीं था,
वह तो इसे
अपने पूरे
हृदय से और
अपने नये मिले
समूचे कौशल से
पकड़े बैठा था।
उसने अंजीर के
पत्ते सीकर
जोड़ लिये तथा
अपने लिये एक
आवरण तैयार कर
लिया जिससे वह
अपने नग्न
व्यक्तित्व को
ढक ले और उसे
परमात्मा की
सर्व —वेधी
दृष्टि से बचा
कर अपने ही
पास रखे।
इस
प्रकार अदन, आनन्दपूर्ण
भोलेपन की
अवस्था, अपने
आप से बेखबर
एकता, पत्तों
का आवरण पहने
एक से दो बने
मनुष्य के हाथ
से निकल गई, और मनुष्य
तथा दिव्य
जीवन के वृक्ष
के बीच ज्वाला
की तलवारें
खड़ी हो गईं।
मनुष्य
नेकी और बदी
के दोहरे
द्वार में से
अदन से बाहर
आया था, वह
दिव्य ज्ञान
के इकहरे
द्वार में से
अदन के अन्दर
जायेगा। वह
दिव्य जीवन के
वृक्ष की ओर
पीठ किये
निकला था, उस
वृक्ष की ओर
मुँह किये
प्रवेश करेगा।
जब वह अपने
लम्बे और कठिन
सफर पर रवाना
हुआ था तो
अपनी नग्नता
पर लज्जित था
और अपनी लज्जा
को छिपाये
रखने के लिये
आतुर, जब
वह अपनी
यात्रा के
अन्त पर
पहुँचेगा तो
उसकी
पवित्रता
आवरण —मुक्त
होगी और उसे
अपनी नग्नता
पर गर्व होगा।
परन्तु
ऐसा तब तक
नहीं होगा जब
तक कि पाप
मनुष्य को पाप
से मुक्त न कर
दे। क्योंकि
पाप स्वय अपने
विनाश का कारण
सिद्ध होगा।
और पाप आवरण
के सिवाय और
कहीं है?
हां, पाप
और कुछ नहीं
है सिवाय उस
दीवार के जो
मनुष्य ने
अपने और
परमात्मा के
बीच में खड़ी
कर ली है — अपने
क्षण —भंगुर
अहं और अपने
स्थायी अह के
बीच।
वह
ओट जो शुरू
में अंजीर के
मुट्ठी भर
पत्ते थी अब
एक विशाल
परकोटा बन गई
है। क्योंकि
जब मनुष्य ने
अदन के भोलेपन
को उतार फेंका
तब से वह
अधिकाधिक
पत्ते जमा
करने और आवरण
पर आवरण सीने
में जी—जान से
जुटा हुआ है।
आलसी
लोग अपने
मेहनती
पड़ोसियों
द्वारा फेंके
गये चीथड़ों से
अपने आवरणों
के छेदों पर पैबन्द
लगा —लगा कर
सन्तोष कर
लेते हैं। पाप
की पोशाक पर
लगाया जाने
वाला हर
पैबन्द पाप ही
होता है, क्योंकि
वह उस लज्जा
को स्थायी
बनाने का साधन
होता है जिसे
परमात्मा से
अलग होने पर
मनुष्य ने
पहली बार और
बड़ी तीव्रता
के साथ महसूस
किया था।
क्या
मनुष्य अपनी
लज्जा पर विजय
पाने के लिये कुछ
कर रहा है? अफसोस,
उसके सब
उद्यम लज्जा
पर लादे गये
लज्जा के ढेर
हैं, आवरणों
पर चढ़े और
आवरण हैं।
मनुष्य
की कलाएँ और
विद्याएँ
आवरणों के
सिवाय और क्या
हैं?
उसके
साम्राज्य, राष्ट्र, जातीय अलगाव,
और युद्ध के
मार्ग पर चल
रहे धर्म —
क्या ये आवरण
की पूजा के
सम्प्रदाय
नहीं हैं?
उसके
उचित और
अनुचित, मान
और अपमान
न्याय और
अन्याय के
नियम, उसके
असंख्य
सामाजिक
सिद्धान्त और
रूढ़ियाँ —
क्या ये आवरण
नहीं हैं?
उसके
द्वारा
अमूल्य का
मूल्यांकन और
उसका अमित को
नापना, असीम
को सीमांकित
करना — क्या यह
सब उस लुंगी
पर और पैबन्द
लगाना नहीं है
जिस पर पहले
ही कई पैबन्द
लगे हुए हैं।
पीड़ा
से भरे सुखों
के लिये उसकी
अमिट भूख; निर्धन
बना देने वाले
धन के लिये
उसका लोभ, दास
बना देने वाले
प्रभुत्व के
लिये उसकी
प्यास, और
तुच्छ बना
देने वाली शान
के लिये उसकी
लालसा — क्या
ये सब आवरण
नहीं हैं?
नग्नता
को ढकने के
लिये अपनी
दयनीय आतुरता
में मनुष्य ने
बहुत अधिक
आवरण पहन लिये
हैं जो समय के
साथ उसकी
त्वचा से इतने
कस कर चिपक
गये हैं कि अब
वह उनमें और
अपनी. त्वचा
में भेद नहीं
कर पाता। और
मनुष्य साँस
लेने के लिये
तड़पता है; वह
अपनी अनेक
त्वचाओं से
छुटकारा पाने
के लिये
प्रार्थना
करता है। अपने
बोझ से छटकारा
पाने के लिये
मनुष्य अपने
उन्माद में सब—कुछ
करता है,
लेकिन
वही एक काम
नहीं करता जो
वास्तव में
उसे उसके बोझ
से छुटकारा दिला
सकता है, और वह
है उस बोझ को
फेंक देना। वह
अपनी
अतिरिक्त
त्वचाओं से
मुक्त होना
चाहता है. पर
अपनी पूरी
शक्ति से उनसे
चिपका हुआ है।
वह आवरण —रहित
होना चाहता
है. पर साथ ही
चाहता है कि
पूरी तरह कपड़े
पहने रहे।
निरावरण
होने का समय
समीप है। और
मैं अतिरिक्त
त्वचाओं को —
आवरणों को —
उतार फेंकने
में तुम्हारी
सहायता करने
के लिये आया
हूँ ताकि अपनी
त्वचाओं को
उतार फेंकने
में तुम भी
संसार के उन
सब लोगों की
सहायता कर सकी
जिनमें तड़प है।
मैं तो केवल
विधि बताता
हूँ;
किन्तु
अपनी त्वचा को
उतार फेंकने
का काम हरएक
को स्वयं ही
करना होगा, चाहे वह
कितना ही
कष्टदायी
क्यों न हो।
अपने
आप से अपने
बचाव के लिये
किसी चमत्कार
की प्रतीक्षा
न करो, न ही
पीड़ा से डरो; क्योंकि
आवरण —रहित
ज्ञान
तुम्हारी
पीड़ा को
स्थायी आनन्द
में बदल देगा।
फिर
यदि दिव्य ज्ञान
की नग्नता में
तुम्हारा
अपने आप से
सामना हो और
यदि परमात्मा
तुम्हें बुला
कर पूछे, ''तुम
कहाँ हो?'' तो
तुम शर्म नहीं
करोगे, डरोगे
ही परमात्मा
से छिपोगे।
बल्कि महसूस न
तुम न तुम तुम
अडोल बन्धन —मुक्त,
दिव्य
शान्ति से
युक्त खड़े
रहोगे, और
परमात्मा को
उत्तर दोगे :
''हमारे प्रभु,
हमारी
आत्मा, हमारे
अस्तित्व, हमारे
एकमात्र अहं,
हमें
देखिये।
लज्जा. भय और
पीड़ा में हम
नेकी और बदी
के लम्बे, विषम,
और टेढ़े—मेढ़े
उस रास्ते पर
चलते रहे हैं
जिसे आपने हमारे
लिये समय के
आरम्भ में
निर्धारित
किया था। निज
घर के लिये
महाविरह ने
हमारे पैरों
को प्रेरणा दी
और विश्वास ने
हमारे हृदय को
थामे रखा. और अब
दिव्य ज्ञान
ने हमारे बोझ
उतार दिये हैं,
हमारे घाव
भर दिये हैं.
और हमें वापस
आपकी पावन
उपस्थिति में
ला खड़ा किया
है — नेकी और
बदी, जीवन
और मृत्यु के
आवरणों से
मुक्त; द्वैत
के सभी भ्रमों
से मुक्त; आपके
सर्वग्राही
अहं के सिवाय
और हर अहं से
मुक्त। अपनी
नग्नता को
छिपाने के
लिये कोई आवरण
पहने बिना हम
लज्जामुक्त, प्रकाशमान,
भय—रहित
होकर आपके
सम्मुख खड़े
हैं। देखिये,
हम एक हो
गये हैं।
देखिये, हमने
आत्म—विजय
प्राप्त कर ली
है।’’
और
परमात्मा
तुम्हें
अनन्त प्रेम
से गले लगा लेगा, और
तुम्हें सीधे
अपने दिव्य
जीवन—वृक्ष तक
ले जायेगा।
यही
शिक्षा थी
मेरी नूह को।
यही
शिक्षा है
मेरी तुम्हें।
नरौंदा
:
यह बात भी
मुर्शिद ने तब
कही थी जब हम
अँगीठी के पास
बैठे थे।
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