पत्र पाथय—37
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
(यात्रा
से सतता
(स्टेशन
विश्रामालय)
संध्या.
15 फर. 1962
प्रिय मां,
एक घने
कोलाहल के बीच
बैठा हूं।
विश्रामालय
में भीड़—भाड़
है। सब बातचीत
में संलग्न है
और एक भी
व्यक्ति शांत
नहीं मालूम
होता है।
प्रत्येक
के बाहर जितनी
बात—चीत है
उतनी ही भीतर
भी मालूम होती
है। इस
विक्षिप्त
मनोदशा ने
सारे युग को
पकड़ लिया है।
एक नये
व्यक्ति मेरे
पास आकर बैठ
गये हैं। कोई
राजनैतिक नेता
मालूम होते
हैं। अकेले हैं।
बातचीत के लिए
उत्सुक हैं।
ऐसा लगता है
कि मैं ही
शिकिर बनूगा।
उनकी आंखों
में, उनके
चहरे पर विचार
तेर रहे हैं।
आखिर
उन्होंने
बोलना शुरु कर
दिया है।
आशावादी
बातें—चुनाव,
राजनीति।
मैं सुनता हूं
और और मुझे
बहुत हंसी आती
है। हर आदमी
एक रद्दी की
टोकरी हो गया
हे। दूसरों की
जूठन और उधार
खानें सब उसे
इकट्ठी हो
जाती हैं। फिर
इन्हीं को वह
दूसरों पर
उलीचने लगता
है। इसमें कोई
अशिष्टता भी
नहीं है।
दूसरों के घर
में कचरा
फेंकने में
शायद हम डरें
पर दूसरों के
सिर पर फेंकने
में कोई नहीं
डरता है'
मैं
चुप हूं इससे
वे कुछ ऊब रहे
हैं। बातचीत
का ताना—बाना
आगे नहीं बढ़
पा रहा है।
हाँ हूं भी
मैंने नहीं की
है। आखिर
उन्होंने
पूछा है क्या
आप बोलते नहीं
हैं? मौन
हैं? मैं
फिर भी चुप हूं।
उनकी आंखों को
देख रहा हूं।
वे शायद सोच
रहे हैं कि
किस पागल से
मिलना हो गया
है' अंतत:
मैंने कहा है,
''एक समय
बातचीत की बीमारी
मुझे भी थी।
उस पागलपन से
मैं अब मुक्त
हो गया हूं।
प्रत्येक को
हो जाना चाहिए।
विचार विकार
हैं। उनसे ऊपर
उठकर जीवन का
अर्थ और सत्य
दीखता है। वह
सत्य
मुक्तिदायी
है।'' वै
बोले, ''सोचूंगा।''
मुझे हंसी आ
गई। मैंने कहा,
''सोचियेगा?
वही तो बीमारी
है। केवल
देखिए—अपनी बीमार
आदत को देखिए।
और अभी और यही
मुक्ति हो
जाती है।
रजनीश
के प्रणाम
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