पत्र पाथय—34
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
रात्रि 1 फर. 1962
प्रिय मां,
एक शव
यात्रा से
लौटा हूं। कल
सांझ ही उनसे
कहकर आया था चिंता
न करें। कहते
हैं चिंता ही
चिता बन जाती
है। और चौबीस
घंटे बाद ही
उनकी चिता से
लौटा हूं। ऐसा
आभास मुझे कल
ही हुआ था।
शरीर उनका
रुग्ण था पर
मन उससे भी
ज्यादा था।
शायद मन की
रुग्णता ही
शरीर से भी
निकली थी।
प्रत्येक
व्यक्ति
कितना व्यर्थ
का मानसिक भार
ढोता है।
यह
भार और लगाव
ही तोड़ देता
है। जिस जीवन
से शांति और आनंद
मिल सकता था।
उससे केवल
कांटें ही मिल
पाते हैं।
फूल
बहुत हैं।
शायद फूल ही
फूल हैं। पर
हमें कांटों
की ही आदत पड़ी
है। जीवन का
आनंद और
प्रकाश दीखता
ही नहीं है।
सागर के बीच
ही हम प्यासे
रह जाते हैं।
फकीर
ने कहा है, ‘‘यह सुन
बहुत हंसी आती
है कि मछली
सागर में ही
प्यासी है!'' आज उस चिता के
किनारे खड़े—खड़े
मुझे कबीर की
हंसी सुनाई
पढ़ने लगी थी।
मेरा मन भी
हुआ कि हंसू
खूब हंसू। जो
व्यक्ति चला
गया वह जीवन
पर व्यर्थ की
अशांति से
घिरा था।
काल्पनिक
उसका दुःख है।
यूं तो सभी
दुःख
काल्पनिक है।
दुःख है
क्योंकि हम
अपने में नहीं
है। अपने में
न होना स्वप्न
में होना है।
स्वप्न में
हैं इससे दुःख
है। स्वप्न
छोड़े तो आनंद
ही आनंद शेष
रह जाता है।
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