रात्रि
— अनुपम
गायिका
नरौंदा
:
पर्वतीय नीड़
के लिये, जिसे
बर्फीली
हवाओं और बर्फ
के भारी
अम्बारों ने
पूरे शीतकाल
में हमारी
पहुँच से परे
रखा था, हम
सब इस प्रकार
तरस रहे थे
जिस प्रकार
कोई निर्वासित
व्यक्ति अपने
घर के लिये
तरसता है।
हमें
नीड़ में ले
जाने के लिये
मुर्शिद ने
बसन्त की एक
ऐसी रात चुनी
जिसके नेत्र
कोमल और
उज्ज्वल थे, जिसकी
साँस उष्ण और
सुगन्धित थी,
जिसका हृदय
सजीव और सजग
था।
वे
आठ सपाट पत्थर, जो
हमारे बैठने
के काम आते थे,
अभी —तक
वैसे ही अर्ध —चक्र
के आकार में
रखे थे जैसे
हम उन्हें उस
दिन छोड़ .गये
थे जब मुर्शिद
को बेसार ले
जाया गया था।
स्पष्ट था कि
उस दिन से कोई
भी नीड़ में
नहीं गया था।
हममें
से प्रत्येक
अपने —अपने
स्थान पर बैठ
गया और
मुर्शिद के
बोलने की
प्रतीक्षा
करने लगा।
परन्तु वे
खामोश थे।
पूर्णिमा का
चन्द्र भी, जिसकी
किरणें मानों
हमारा स्वागत
कर रही थीं, आशा के साथ
मुर्शिद के
ओंठों की ओर
टकटकी लगाये
हुए था।
एक
शिला से दूसरी
शिला पर गिर
रहे पहाड़ी
झरनों ने
रात्रि को
अपने तुमुल
संगीत से भर
दिया था। बीच—बीच
में किसी उल्लू
की धूं —धूं या
किसी झींगुर
के गीत के
खण्डित स्वर
सुनाई देते थे।
गहरी
खामोशी में प्रतीक्षा
करते हमें
काफी देर हो
चुकी थी जब मुर्शिद
ने अपना सिर
उठाया, और
अपनी अधमुँदी
आँखें खोलते
हुए हमसे
बोले.
मीरदाद
: इस रात की
शान्ति में
मीरदाद चाहता
है कि तुम
रात्रि के गीत
सुनो। रात्रि
के गायक —वृन्द
को सुनो।
क्योंकि
सचमुच ही
रात्रि एक
अनुपम गायिका
है।
अतीत
की सबसे
अँधेरी
दरारों में से, भविष्य
के उन्नलतम
दुर्गों में
से, आकाश
के शिखरों तथा
धरती की
गहराइयों में
से निकल रहे
हैं रात्रि के
स्वर, और
तेजी से पहुँच
रहे हैं विश्व
के दूरतम कोनों
तक। विशाल
तरंगों के रूप
में ये
तुम्हारे
कानों के
चारों ओर लहरा
रहे हैं। अपने
कानों को अन्य
सब स्वरों से
मुक्त कर दो ताकि
इन्हें सुन
सकी।
उतावली—भरा
दिन जिसे
आसानी से मिटा
देता है.
उतावली से
मुक्त रात्रि
उसे अपने क्षण
भर के जादू से
पुन बना देती
है। क्या चाँद
और तारे दिन
की तेज रोशनी
में छिप नहीं
जाते? दिन
जिसे कल्पना और
असत्य के
मिश्रण में
डबा देता है, रात्रि उसे
नपे —तुले
उल्लास के
साथ
दूर—दूर तक
गाती है। जड़ी —बूटियों
के सपने भी
रात्रि के
गायक—वृन्द
में शामिल
होकर उनके गीत
में योग देते
हैं।
सुनो तुम
सितारों को
सुनो, गगन
में झूलते
सुनाते जो
लोरियाँ
दलदली
बालू के
पालने में
सो रहे भीमकाय
शिशु को,
चीथड़े
कंगाल के पहने
हुए राजा को,
बेड़ियों —जंजीरों
में जकड़ी हुई
दामिनी को —
पोतड़ों
में लिपटे हुए
स्वयं
परमात्मा को।
सुनो तुम
धरती को
धरती को जो
एक साथ
प्रसव में
कराहती है, दूध
भी पिलाती है,
पालती है, व्याहती
है, कब्र
में सुलाती है।
सुनो वन —पशुओं
को
घूमते हैं
जगल में टोह
में शिकार की,
चीखते, गुर्राते
हैं, चीरते,
चिर जाते
हैं,
सुनो अपनी
राहों पर
सरकती लताओं
को,
रहस्यमय
गीत अपने
गुनगुनाते
कीड़ों को;
किस्से
चरागाहों के, गीत
जल—प्रवाहों
के
सुनो अपने
सपनों में
दोहराते
विहंगों को;
मृत्यु के
प्यालों में
गट—गट पीते
जीवन को
सुनो
वृक्षों, झाड़ियों
को और हर
श्वास को।
शिखर से और
वादी से,
मरुस्थल
से, सागर से,
घास और
मिट्टी के
नीचे से, और
वायु से
आ रही
चुनौती है समय
में लिपटे
प्रभु को।
सुनो सब
माताओं को —
किस तरह वे
रोती हैं, कैसे
वे बिलखती हैं,
और सब
पिताओं को —
कैसे वे
कराहते हैं, कैसे
आहें भरते हैं।
सुनो उनके
बेटों को और
उनकी बेटियों
को
बहक़ लेने
भागते, बन्दूक
से डर भागते,
प्रभु को
फटकारते, और
भाग्य को
धिक्कारते।
स्वाँग
रचते प्यार का
और बैर
फुसफुसाते
हैं,
पीते तो
हैं जोश पर
पसीना छूटे डर
से,
बोते हैं
मुसकानें और
काटते आंसू
हैं,
अपने लाल
खून से
उमड़ रही
बाढ़ के प्रकोप
को पैनाते हैं।
सुनो उनके
भूख —मारे
पेटों को
पिचकते,
और उनकी
सूजी हुई
पलकों को
झपकते,
कुम्हलाई
उनकी
अँगुलियों को
सुनो उनकी
आस की लाश को
खोजते,
और उनके
हृदयों को
अनगिनत
ढेरों में
फूलते और
फूटते।
सुनो, कूर
मशीनों को
सुनो दनदनाते
हुए,
दर्प —भरे
नगरों को धड़ाम
से गिर जाते
हुए, श
शक्तिशाली
दुर्गों को
अपने ही
नाश की
घण्टियाँ
बजाते हुए,
पंकिल
रक्त—ताल में
छप—छप गिर
जाते हुए।
सुनो
न्यायी लोगों
की तुम
प्रार्थनाओं
को
लोभ की
चीखों के संग
टनटनाते हुए,
बच्चों की
तोतली और भोली
बातों को
दुष्ट
गपशप सग चारण—गीत
गाते हुए,
सुनो किसी
कन्या की
लज्जारुण
मुसकान को
वेश्या की
धूर्तता के
संग चहचहाते
हुए,
और किसी
वीर के
हर्षोन्माद
को
सुनो एक
धूर्त के
विचार
गुनगुनाते
हुए।
हर जनजाति
के और हर किसी
गोत्र के
हर खेमे हर
कुटिया में से
रात्रि
सुनाती है
तुरही पर
अपनी
युद्ध —गीत
मनुष्य के।
पर
जादूगरनी
रात्रि
लोरियाँ, चुनौतियाँ,
युद्ध—गीत
और सब
मिला देती
है एक ही अति
उत्तम गीत में।
गीत वह
सूक्ष्म इतना
जो कान सुन
पाये न
गीत इतना
भव्य, और
अनन्त फैलाव
में,
स्वर में
गहराई और टेक
में मिठास ऐसी,
कि तुलना
में फरिश्तों
के गायकवृन्द
गीतिकाएँ
लगते
मात्र कोलाहल
और बड़बड़ाहट
हैं।
आत्म—विजेता
का
यही विजय —गान
है।
पर्वत जो
रात्रि की गोद
में हैं ऊँघते,
यादों में डूबे
मरु लिये टीले
रेत के,
पर्यटक
तारे, सागर
नींद में जो
घूमते,
निवासी
प्रेत—पुरियों
के,
पावन —त्रयी
और प्रभु —इच्छा,
सब करते
आत्म—विजेता
का
स्वागत
हैं, जयघोष
हैं।
भाग्यवान
हैं लोग वे जो
सुनते हैं और
बुझते।
भाग्यवान
हैं लोग जिनको
रात्रि
संग अकेले में
होती अनुभुति
है
रात्रि
जैसी शान्ति
की, गहराई
की, विस्तार
की
लोग वे, अँधेरे
में
चेहरों पर
जिनके अँधेरे
में किये गये
अपने
कुकर्मों की
पड़ती नहीं मार
है,
लोग वे, आंसू
जिनकी
ररकते
नहीं पलकों
में
साथियों
की आंखों से
जो उन्होंने
बहाये हाथों
में न जिनके
लोभ से, द्वेष
से, होती
कभी खाज है, कानों को न
जिनके
अपनी
तृष्णाओं की
घेरती
फूत्कार है, विवेक
को न जिनके
डक कभी
मारते उनके
विचार हैं।
भाग्यवान
हैं. हृदय
जिनके
समय के हर
कोने से घिर
कर आती हुई
विविध
चिन्ताओं के
बैठने के
छत्ते नहीं;
जिनकी
बुद्धि में भय
सुरंग खोद
लेते नहीं;
साहस के
साथ जो
कह सकते
हैं रात्रि से, ''दिखा
दो हमें दिन को''
कह सकते
हैं दिन को, ''दिखा
दो हमें
रात्रि को''।
हां, बहुत
भाग्यवान हैं
जिनको
रात्रि
संग अकेले में
होती अनुभूति
है
रात्रि
जैसी
समस्वरता, नीरवता,
अनन्तता की।..
उनके लिये
ही केवल
गाती है
रात्रि यह गीत
आत्म—विजेता
का।
यदि
तुम दिन के
झूठे लाँछनों
का सामना सिर
ऊँचा रख कर
विश्वास से
चमकती आंखों
से करना चाहते
हो,
तो शीघ्र ही
रात्रि की
मित्रता
प्राप्त करो।
रात्रि
के साथ मैत्री
करो। अपने
हृदय को अपने
ही जीवन —रक्त
से अच्छी तरह
धोकर उसे
रात्रि के
हृदय में रख
दो। अपनी
आवरणहीन
कामनाएँ
रात्रि के
वक्ष को सौंप
दो,
और दिव्य
ज्ञान के
द्वारा
स्वतन्त्र
होने की महत्त्वाकांक्षा
के अतिरिक्त
अन्य सभी महत्त्वाकांक्षाओं
की उसके चरणों
में बलि दे दो।
तब दिन का कोई
भी तीर
तुम्हें बेध
नहीं सकेगा, और तब
रात्रि
तुम्हारी ओर
से लोगों के
सामने गवाही
देगी कि तुम
सचमुच आत्म —विजेता
हो।
व्यग्र
दिन भले ही
पटकें
तुम्हें इधर—उधर,
तारक—हीन
रातें चाहे
अपने
अँधेरे में
लपेट लें तुम
को,
फेंक दिया
जाये तुम्हें
विश्व के
चौराहों पर,
राह
दिखाने को
चिह्न, पद—चिह्न
मिलें नहीं,
फिर भी न
डरोगे तुम
किसी भी मनुष्य
से और न ही
किसी स्थिति
से.
न ही होगा
शक तुम्हें
लेश—मात्र
इसका
कि दिन और
रातें, और
मनुष्य और
चीजें भी
जल्दी ही
या देर से
आयेंगे
तुम्हारे पास,
और
विनयपूर्वक
प्रार्थना वे
करेंगे —
''आदेश दें
हमको, ''
विश्वास
क्योंकि
रात्रि का
प्राप्त होगा
तुमको।
और विश्वास
रात्रि का
प्राप्त जो कर
लेता है
सहज ही
आदेश वह अगले
दिन को देता
है।
रात्रि
के हृदय को
ध्यान से सुनो, क्योंकि
उसी के अन्दर
आत्म—विजेता
का हृदय धड़कता
है। यदि मेरे
पास आंसू होते
तो आज रात मैं
उन्हें भेंट
कर देता हर टिमटिमाते
सितारे और रज—कण
को; हर कल —कल
करते नाले और
गीत गाते
टिड्डे को; वायु में
अपनी
सुगन्धित आत्मा
को बिखेरते हर
नील—पुष्प को,
हर सरसराते
समीर को, हर
पर्वत और वादी
को, हर पेड़
और घास की हर
कोंपल को — इस
रात्रि की
सम्पूर्ण
अस्थायी
शान्ति और सुन्दरता
को। मैं अपने
आंसू मनुष्य
की कृतघ्नता
तथा बर्बर
अज्ञान के
लिये
क्षमायाचना
के रूप में इनके
सामने उँड़ेल
देता।
क्योंकि
मनुष्य, घृणित
पैसे के गुलाम,
अपने
स्वामी की
सेवा में
व्यस्त हैं, इतने व्यस्त
कि स्वामी की
आवाज़ और इच्छा
के अतिरिक्त
और किसी आवाज
और इच्छा की
ओर ध्यान नहीं
दे सकते।
और
भयंकर है
मनुष्यों के
स्वामी का
कारोबार —
मनुष्य के
संसार को एक
ऐसे क़साईखाने
में बदल देना
जहाँ वे ही
गला काटने
वाले हैं और
वे ही गला
कटवाने वाले।
और इसलिये.
लहू के नशे
में चूर
मनुष्य
मनुष्यों को
इस विश्वास
में मारते चले
जाते हैं कि जिन
मनुष्यों का
कोई. खून करता
है,
धरती के सब
प्रसादों और
आकाश की समस्त
उदारता में उन
मनुष्यों का
सभी हिस्सा
उसे विरासत
में मिल जाता
है।
अभागे
मूर्ख। क्या
कभी भेडिया
किसी दूसरे
भेड़िये का पेट
चीर कर मेमन।
बना है? क्या
कभी कोई साँप
अपने साथी
साँपों को
कुचल और निगल
कर कपोत बना
है? क्या
कभी किसी मनुष्य
ने अन्य
मनुष्यों की
हत्या करके
उनके दुःखों
को छोड़ उनकी
खुशियाँ
विरासत में
पाई हैं? क्या
कभी कोई कान
दूसरे कानों
में डाट लगा
कर जीवन की
स्वर—तरंगों
का अधिक आनन्द
ले सका है? या
कभी कोई आँख
अन्य आंखों को
नोच कर
सुन्दरता के
विविध रूपों
के प्रति अधिक
सजग हुई है?
ऐसा
कोई मनुष्य
मनुष्यों का
समुदाय है जो
केवल एक क्या
या
घण्टे
के वरदानों का
भी पूरी तरह
उपयोग कर सके, वरदान
चाहे खाने—पीने
के पदार्थों
के हों, चाहे
प्रकाश और
शान्ति के? धरती जितने
जीवों को पाल
सकती है उससे
अधिक जीवों को
जन्म नहीं
देती। आकाश
अपने बच्चों
के पालन के
लिये न भीख
माँगता है, न चोरी करता
है।
वे
झूठ बोलते हैं
जो मनुष्य से
कहते हैं, ''यदि
तुम तृप्त
होना चाहते हो
तो मारो और
जिन्हें
मारते हो उनकी
विरासत
प्राप्त करो।’’
जो
मनुष्य का
प्यार, धरती
का दूध और मधु
तथा आकाश का
गहरा स्नेह
पाकर नहीं फला—फूला,
वह मनुष्य
के आंसू, रक्त
और पीड़ा के
आधार पर कैसे
फले—फूलेगा?
वे
झूठ बोलते हैं
जो मनुष्य से
कहते हैं, ''हर
राष्ट्र अपने
लिये है।’’ कनखजूरा
कभी एक इव भी
आगे कैसे बढ़
सकता है यदि उसका
हर पैर दूसरे
पैरों के
विरुद्ध दिशा
में चले, या
दूसरे पैरों
के आगे बढ़ने
में रुकावट
डाले, या
दूसरे पैरों
के विनाश के
लिये
षड्यन्त्र रचे?
मनुष्य भी
क्या एक
दैत्याकार
कनखजूरा नहीं
है, राष्ट्र
जिसके अनेक
पैर हैं? वे
झूठ बोलते हैं
जो मनुष्य से
कहते हैं, ''शासन
करना सम्मान
की बात है, शासित
होना लज्जा की।’’
क्या
गधे को हाँकने
वाला उसकी दुम
के पीछे—पीछे
नहीं चलता? क्या
जेलर कैदियों
से बँधा नहीं
होता?
वास्तव
में गधा अपने
हाँकने वाले
को हाँकता है, कैदी
अपने जेलर को
जेल में बन्द
रखता है।
वे
झूठ बोलते हैं
जो मनुष्य से
कहते हैं, ''दौड़
उसी की जो तेज दौड़े,
सच्चा वही
जो समर्थ हो।’’
क्योंकि
जीवन
मांसपेशियों
और बाहुबल की
दौड़ नहीं है।
लूले— लँगड़े
भी बहुधा
स्वस्थ लोगों
से बहुत पहले
मंजिल पर
पहुँच जाते
हैं। और कभी —कभी
तो एक तुच्छ
मच्छर भी कुशल
योद्धा को
पछाड़ देता
वे
झूठ बोलते हैं
जो मनुष्य से
कहते हैं कि
अन्याय का
उपचार केवल
अन्याय से ही
किया जा सकता
है। अन्याय के
बदले में थोपा
गया अन्याय
कभी न्याय
नहीं बन सकता।
अन्याय को
अकेला छोड़ दो, वह
स्वयं ही अपने
आप को मिटा
देगा।
परन्तु
भोले लोग अपने
स्वामी पैसे
के सिद्धान्तों
को आसानी से
सच मान लेते
हैं। पैसे और
उसके
जमाखोरों में
वे
भक्तिपूर्ण
विश्वास रखते
हैं और उनकी
हर मनमानी सनक
के आगे सर
झुकाते हैं।
रात्रि का न
वे विश्वास
करते हैं न
परवाह। जब कि
रात्रि
मुक्ति के गीत
गाती है, और
मुक्ति तथा
प्रभु—प्राप्ति
की प्रेरणा
देती है।
तुम्हें तो, मेरे साथियो,
वे या तो
पागल करार
देंगे या
पाखण्डी।
मनुष्यों
की कृतम्मता
और तीखे उपहास
का बुरा मत
मानना, बल्कि
प्रेम और असीम
धैर्य के साथ
स्वयं उनसे तथा
आग और खून की
बाढ़ से, जो
शीघ्र ही उन
पर टूट पड़ेगी,
उनके बचाव
के लिये उद्यम
करना।
समय
आ गया है कि
मनुष्य
मनुष्य की
हत्या करना
बन्द कर दे।
सूर्य, चन्द्र
और तारे
अनादिकाल से
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कि
उन्हें देखा,
सुना और
समझा जाये, धरती की
लिपि
प्रतीक्षा कर
रही है कि उसे
पढ़ा जाये, आकाश
के राजपथ, कि
उन पर यात्रा
की जाये, समय
का उलझा हुआ
धागा, कि
उसमें पड़ी
गाँठों को
खोला जाये, ब्रह्माण्ड
की सुगन्ध, कि उसे
सूँघा जाये; पीड़ा के
कब्रिस्तान, कि उन्हें
मिटा दिया
जाये; मौत
की गुफा, कि
उसे ध्वस्त
किया जाये; ज्ञान की
रोटी, कि
उसे चखा जाये;
और मनुष्य,
परदों में
छिपा
परमात्मा, प्रतीक्षा
कर रहा है कि
उसे अनावृत
किया जाये।
समय
आ गया है कि
मनुष्य मनुष्यों
को लूटना बन्द
कर दें और
सर्वहित के काम
को पूरा करने
के लिये एक हो
जायें। बहुत
बड़ी है यह
चुनौती, पर
मधुर होगी
विजय भी।
तुलना में और
सब तुच्छ तथा
खोखला है।
हां, समय
आ गया है। पर
ऐसे बहुत कम
हैं जो ध्यान
देंगे। बाकी
को एक और
पुकार की
प्रतीक्षा
करनी होगी — एक
और भोर की।
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