ओशो
बंदर से आदमी
का विकास हुआ
यह तो समझ में
आता है। लेकिन
आप जो आत्मा
के विकास की
बात कहते है,
वह जरा समझ
में नहीं आता।
इसमें
समझने की बात
ही बहुत
ज्यादा नहीं
है। बंदर से
आदमी की देह
मिली है, यह भी
आपको कैसे समझ
में आता है? यह इसीलिए
समझ में आता
है कि पीछे
डार्विन ने
बहुत मेहनत की
और यह समझाने
की कोशिश की
कि शरीर का जो
विकास है, मनुष्य
के पास जो
शरीर है, वह
शरीर बंदर के
पास जो शरीर
है उसकी ही
आगे की कड़ी है।
यह शरीर उससे
ही विकसित
होकर आया हुआ
है। यह तो आधी
बात हुई।
अगर
मनुष्य केवल
शरीर है, तब
तो बात खत्म
हो गई। लेकिन
मनुष्य अगर
आत्मा भी है, जैसा कि है, तो आत्मा
कैसी विकास—यात्रा
से आ रही है?
प्रकृति
में बहुत—बहुत
तलों पर बहुत
तरह का विकास
चल रहा है। तो
जैसे शरीर की
कड़ी बंदर से
जुड़ी हुई है, वैसे
ही अगर हम
आदमी के पुनर्जन्मों
में जाने की
कोशिश करें—जैसे
अगर आपके
पुनर्जन्मों
को जानने की, पिछले
जन्मों को
जानने की
कोशिश की जाए—तो
यह बड़ा
आश्चर्यजनक
अनुभव है कि
अगर दस—पांच
लोगों को उनके
पिछले जन्मों
की स्मृति में
ले जाया जाए, तो दस—पांच
जन्म तो उनके
मनुष्यों के
मिलेंगे, लेकिन
मनुष्यों के
अतिरिक्त अगर
पीछे कोई
याददाश्त को
घुमाया जाए, तो आखिरी
कडी गाय की
मिलेगी। यानी
अगर आपको याद दिलाया
जाए, तो हो
सकता है आपके
पिछले दस जन्म
मनुष्य के ही
रहे हों।
लेकिन ग्यारहवां
जन्म आपका गाय
का मिल जाएगा।
अगर किसी भी
मनुष्य के
पिछले जन्मों
की स्मृति को
खोदा जाए, तो
मनुष्य होने
के पहले उसका
जो जन्म होगा
वह गाय का
होगा। आत्मिक
कड़ी! शरीर की
कड़ी नहीं, शरीर
की कड़ी तो
बंदर से आई
हुई है। लेकिन
आदमी होने के
पहले कोई
आत्मा किस पशु
योनि से
गुजरती है, अगर इसकी
खोज—बीन की
जाए, तो
आदमी होने के
पहले मनुष्य की
आत्मा गाय की
योनि से
गुजरती है, यह मेरा
कहना है। और
चूंकि इस
संबंध में कोई
बहुत बड़ा काम
नहीं हुआ, जैसा
कि डार्विन के
लिहाज से शरीर
के संबंध में
हुआ है, तो
इस पर काफी
काम करने जैसी
गुंजाइश है, कि अगर हम दस—पच्चीस
लोगों को
पिछले जन्मों
में उतारने की
कोशिश करें, तो जहां से
उन्होंने
मनुष्य की कड़ी
शुरू की है, वह कड़ी गाय
की कड़ी के बाद
शुरू होती है।
इसलिए गाय से
एक आत्मिक
निकटता है, वह जो मैंने
कहा, गऊमाता
का मेरा जो
अर्थ हो सकता
है।
बंदर
से भी एक
निकटता है, शारीरिक
कड़ी की दृष्टि
से। यानी इसका
मतलब यह हुआ
कि आदमी के
पैदा होने के
पहले, गाय
की यात्रा से
जो आत्मा
विकसित हो रही
थी वह, और
बंदर की
यात्रा से जो
शरीर विकसित
हो रहा था वह, मनुष्य होने
के लिए इन दो
चीजों का
उपयोग किया
गया— बंदर
वाले शरीर का
और गाय वाली
आत्मा का।
यह समझ
में नहीं आता।
समझने
की बात नहीं
है बहुत न! वह
तो प्रयोग
करने की बात
है बहुत। वह
तो अगर पिछले
जन्मों की
स्मृति को
जगाने की
कोशिश करें, तो
समझ में आने
वाली बात है।
आपने
किया है
प्रयोग?
हां, तभी
कह रहा हूं
नहीं तो कैसे
कहूंगा।
आपने जो
प्रयोग किया
वह बताए तो
उससे शायद समझ
में आए।
उससे भी
कुछ समझ में
नहीं आएगा न!
वह तो तुम्हारा
ही प्रयोग
तुम्हें
कराया जाए तो
समझ में आता
है।
आत्मा
के संबंध में
जितनी बातें
हैं,
वे बिना
प्रयोग के कोई
भी समझ में
आने वाली नहीं
हैं। कहा जा
सकता है कि यह
है, ऐसा है,
लेकिन उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता कहने से।
वह तो किसी को
भी उत्सुकता
हो... तो जैसे
मैं ध्यान के
शिविर ले रहा
हूं धीरे—
धीरे
उत्सुकता
जगाता हूं कुछ
लोगों में कि
जिन लोगों को
पिछले जन्म की
स्मृति की
यात्रा पर
जाना हो, उनके
अलग शिविर
लेने का
इंतजाम। थोड़े
से पच्चीस लोग
इक्कीस दिन के
लिए मेरे पास
आकर रहें, उनको
पिछले जन्म की
यात्रा में
उतारने की कोशिश
की जाए।
इक्कीस के साथ
मेहनत की जाए
तो उसमें से
पांच—सात लोग
उतर जाएंगे।
तो ही समझ में
आ सकता है कि
हमारी पिछली
कड़ी कहां से
जुड़ी हुई है।
नहीं तो वह
समझ में नहीं
आता।
और
कठिनाई तो यह
है कि कोई
प्रयोग करने
के लिए, गहरे
प्रयोग करने
की तैयारी
नहीं है किसी
की। क्योंकि
गहरे प्रयोग
खतरनाक भी हैं।
क्योंकि आपको
अगर पिछले
जन्मों की
स्मृति आ जाए,
तो आप फिर
दुबारा वही
आदमी कभी नहीं
हो सकेंगे जो
आप स्मृति के
पहले थे। कभी
नहीं हो
सकेंगे! फिर
असंभव है यह बात।
यानी आपकी
पूरी, टोटल
पर्सनैलिटी
फौरन बदल
जाएगी।
क्योंकि आप
पाएंगे कि अगर
अपनी पत्नी को
बहुत प्रेम कर
रहे हैं, तो
आप पाएंगे कि
ऐसी कई
पत्नियों को
बहुत बार प्रेम
किया और कुछ
अर्थ नहीं
पाया। तो इसके
बाद आप इस
पत्नी को वही
प्रेम नहीं कर
सकते जो आप
इसके पहले कर
रहे थे। वह असंभव
हो जाएगा, वह
बात ही खतम हो
गई। अगर अपने
बेटे के लिए
आप मरे जा रहे
हैं कि इसको
यह बनाऊं, इसको
वह बनाऊं, और
आपको अगर पांच
जन्मों की
स्मृति आ जाए
कि आप ऐसे कई
बेटों के साथ
मेहनत कर चुके
हैं, वह सब
बेमानी साबित
हुई, और
आखिर में मर
गए, तो इस
बेटे के साथ
जो आपका
पागलपन है वह
एकदम क्षीण हो
जाएगा।
बुद्ध
और महावीर, दोनों
ने अपने सभी
साधकों को
पिछले जन्मों
में ले जाने
का प्रयोग
किया। अगर कोई
बहुत गौर से
समझे तो बुद्ध
और महावीर का
जो सबसे बड़ा
दान है वह
अहिंसा वगैरह
नहीं है।
अहिंसा तो
बहुत दिन से
चलती थी। इन
दोनों का जो
सबसे बड़ा
कीमती दान है,
वह जाति—स्मरण
है, वह
विधि है जिसके
द्वारा आदमी
को उसका पिछला
जन्म स्मरण
दिलाया जा सके।
और जो लाखों
लोग भिक्षु और
संन्यासी हो
गए, वह
शिक्षा से
नहीं हो गए।
वह जैसे ही
उनको पिछले
जन्म का स्मरण
आया कि सब
बातें बेकार
हो गईं और
उनको सिवाय
संन्यास के
कोई सार्थक
बात न रही।
लाखों आदमी एक
साथ जो
संन्यासी हुए,
उसका यह
कारण नहीं था
कि महावीर ने
समझा दिया कि
संन्यास से
मोक्ष मिल
जाएगा। उसका
कुल कारण इतना
था कि उनको
उनकी स्मृति की
याद दिला देने
से उनको यह
लगा कि यह सब
तो हम बहुत
बार कर चुके, इसमें तो
कुछ सार नहीं
है, इसमें
कुछ भी सार
नहीं है। यह
चक्कर तो बहुत
दफे घूम चुका,
इसमें कोई
भी अर्थ नहीं
है। तब कुछ और
करने की
धारणा...।
तो
वह तो मैं
चाहता हूं। ये
जो सारी बातें
कहता भी हूं
वे इसी खयाल
से कहता हूं कि
आप में कोई जिज्ञासा
जगे। लेकिन
बौद्धिक जिज्ञासा
से कुछ भी
नहीं होगा। जिज्ञासा
ऐसी कानी
चाहिए कि कुछ
लोग प्रयोग
करने के लिए
राजी हों। और
अब जल्दी ही
मैं चाहता हूं
कि ध्यान के
शिविर भी हों
तो अब इस तरह
के सामान्य
शिविर न हों।
सभी लोग आ
जाएं, ऐसा अब न
हो। या फिर हम
शिविरों को
बांटें।
सामान्य
शिविर हो, कोई
भी आ सके। फिर
गहरा शिविर हो,
जिसमें वही
लोग आ सकें जो
कि गहरे जाने
की हिम्मत और
पूरी शक्ति
लगाने को
तैयार हों।
तो
मैं तो मानता
हूं कि इक्कीस
दिन में गहरा
प्रयोग करने
से आप बिलकुल
दूसरे आदमी हो
जाएं, आपकी सारी
जिंदगी और हो
जाए। जो आप
सोचते थे वह
चला जाए; जो
आप जीते थे वह
चला जाए; और
दुबारा आप लौट
कर कभी वही न
हो सकें।
लेकिन
बौद्धिक
जिज्ञासा से
तो कुछ हल
होने वाला
नहीं है बहुत।
क्योंकि जो भी
आप पूछेंगे, मैं
कुछ और कहूंगा,
उस पर और दस
प्रश्न खड़े हो
जाते हैं, और
वह बात वहीं
घूम कर रह
जाती है। उससे
कोई मतलब नहीं
है।
ओशो
जाति—स्मरण की
बात तो अतीत
की हो गई।
जी, अतीत
की हां, अतीत
की ही। लेकिन
अगर आपको यह
खयाल आ जाए कि
आप ने अतीत में
क्या—क्या
किया, कितने
बार किया, तो
आज जो आप कर
रहे हैं उसके
करने में
बुनियादी फर्क
पड़ जाएगा। अगर
यह पता चल जाए
कि मैंने कई
दफा धन कमाया,
कई दफा
कमाया और कुछ
भी नहीं पाया,
तो आज धन
कमाने की जो
दौड़ हो, वह
एकदम क्षीण हो
जाएगी। उसमें
से बल निकल
जाएगा। फर्क
बुनियादी पड़
जाएगा एकदम।
अगर आपको यह
पता चल जाए कि
यह शरीर बहुत
दफे मिला और
हर बार नष्ट
हो गया, तो
अब इस शरीर के
आसपास जीने का
कोई मतलब नहीं,
यह फिर नष्ट
हो जाएगा। तो
मेरे जीने का
केंद्र शरीर
नहीं होना
चाहिए, क्योंकि
शरीर बहुत दफे
मिलता है और
मर जाता है, और कोई फर्क
नहीं पड़ता। तो
आपके जीने का
केंद्र पहली
दफा आत्मा हो
जाएगी, शरीर
नहीं रह जाएगा।
अतीत की ही है
वह। लेकिन
उसका स्मरण
आपको यह साफ
कर देगा कि जो
आप कर रहे हैं,
यह कोल्हू
के बैल जैसा
करना है, यानी
बहुत दफे किया
जा चुका है।
सफल हो गए हैं
तो भी कुछ
नहीं पाया, असफल हो गए
हैं तो भी कुछ
नहीं गंवाया।
अगर यह बात
दिख जाए तो
सफलता— असफलता
का कोई मूल्य
नहीं रह जाएगा।
यानी हम फिर
वही नहीं कर
सकेंगे न!
एक
पिछले जन्म
में मैंने
करोड़ रुपये
इकट्ठे कर लिए, और
फिर मर गया।
इस जन्म में
मैं फिर करोड़
रुपये इकट्ठे
करने के लिए
लगा हुआ हूं।
तो मेरे सामने
साफ हो जाएगा
कि करोड़
इकट्ठे कर
लूंगा, और
फिर मर जाऊंगा।
तो अब मुझे
करोड़ इकट्ठे
करने की दौड़
में जीवन गंवाना?
या कुछ और
कमाने का खयाल
करना चाहिए?
और
प्रकृति की यह
तरकीब है कि
आपके पिछले
जन्म की
स्मृतियां
बिलकुल दबा कर
रख देती है।
और ठीक भी है, नहीं
तो आप पागल हो
जाएं। अगर
अकारण स्मृति
आपको रही आए, तो आप मुश्किल
में पड़ जाएं।
तो जो हिम्मत
करके कोशिश
करता है खोजने
की उसको ही
पता चलता है, नहीं तो
नहीं पता चलता।
सारी
स्मृतियां, जितने
जन्म हुए हैं—
और एक—एक आदमी
के लाखों जन्म
हुए हैं— वे
सारी
स्मृतियां
कोई भी खो
नहीं जाती हैं,
वे सारी
स्मृतियां
आपके भीतर
मौजूद हैं।
गहरी परतों पर
उनको खोजना
पड़ेगा। और ऐसे
तो सामान्यत:
हम, आठ साल
पहले आपने
क्या किया, वह भी भूल गए
हैं।
मैं
एक लड़की पर
बहुत दिन तक
प्रयोग करता
था,
उसकी जाति—स्मरण
के लिए। तो
अगर मैं आपसे
पूछूं कि
उन्नीस सौ
इक्यावन में
एक जनवरी को
आपने क्या
किया? तो
आप कुछ भी
नहीं बता सकते।
एक जनवरी हुई
है, उन्नीस
सौ इक्यावन भी
हुआ है, वह
आपको पता है।
पिछले जन्म की
बात नहीं, इसी
जन्म की बात
है। लेकिन एक
जनवरी उन्नीस
सौ इक्यावन को
आपने सुबह से
शाम तक क्या
किया? वह
कुछ भी स्मरण
नहीं है। हुई
भी एक जनवरी
उन्नीस सौ
इक्यावन या
नहीं हुई, बराबर
हो गई है।
लेकिन अगर
आपको
सम्मोहित
करके बेहोश
किया जाए और
याद दिलाया
जाए, तो
आपको एक जनवरी
उन्नीस सौ
इक्यावन आप इस
तरह रिपोर्ट
करते हैं जैसे
अभी आंख के
सामने से गुजर
रही हो। अभी
रिपोर्ट कर
देंगे आप पूरा—
कि यह हुआ, सुबह
उठा, यह
हुआ, यह
नाश्ता लिया
था, यह
पसंद नहीं आया,
नमक ज्यादा
था दाल में—
पूरे दिन का
आप रिपोर्ट कर
देंगे। पर
मुश्किल यह
मुझे हुई कि
उसको टैली
कैसे किया जाए
कि यह हुआ भी
कि यह सिर्फ
एक सपना है।
तो
फिर मैंने नोट
करना शुरू
किया कि जैसे
आज दिन भर मैं
सुबह से शाम
तक उसको नोट
करता रहा कि
क्या हो रहा
है— उसने
किसको गाली दी, किससे
झगड़ा किया, किस पर
क्रोध किया—
तो दिन भर के
दस—पंद्रह
मैंने नोट कर
लिए। तीन साल
बाद उसको
बेहोश किया और
उस दिन के लिए पूछा,
तो उसने
बिलकुल ऐसा
रिपोर्ट कर
दिया कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं था। जो
बातें मैंने
नोट की थीं वे
तो रिपोर्ट
हुईं हां, जो
मैं नोट नहीं
कर पाया था, क्योंकि दिन
में तो हजार
घटनाएं घट रही
हैं, वे भी
सब रिपोर्ट कर
दीं। तो इस
जन्म की भी
बहुत कामचलाऊ
स्मृति हमारे पास
रह जाती है, बाकी तो
नीचे दब जाती
है। इसमें भी
जो दुखद
स्मृतियां
हैं वे एकदम
से दबा दी
जाती हैं, चित्त
उनको दबा देता
है, जो
सुखद
स्मृतियां
हैं उनको ऊपर
रख लेता है।
और इसीलिए
हमें पिछला
बीता हुआ समय
अच्छा मालूम
पड़ता है।
का
आदमी कहता है, बचपन
बहुत अच्छा था।
उसका और कोई
कारण नहीं है,
बचपन की जितनी
दुखद
स्मृतियां
थीं वे नीचे
दबा देता है
चित्त और जो
सुखद थीं थोड़ी
सी उनको ऊपर
रख लेता है, उनको याद रख
लेता है।
एक
का आदमी कहता
है कि जवानी
बहुत मजे की
थी। बस वह
जवानी में जो
सुखद थोड़ा सा
घटा होगा वह ऊपर
रख लिया है, बाकी
सब उसने दबा
दिया है। और
अगर उसका पूरा
चित्त खोला जा
सके, तो वह
हैरान रह
जाएगा कि
मुश्किल से, सौ घटनाएं
घटती हैं
जिसमें
निन्यानबे
दुख की होती
हैं, एकाध
कभी सुख की
हलकी झलक की
होती है। मगर
चित्त ऐसा
धोखा करता है।
और अगर दो—चार
जन्म खोले जा
सकें, तब
तो पूरी ही
जिंदगी बदल
जाती है।
क्योंकि फिर आप
और ही ढंग से
सोचेंगे, कुछ
और ही केंद्र
बनाएंगे।
अतीत
की ही हैं, लेकिन
वे फर्क लाती
हैं, एकदम
फर्क लाती हैं।
मुझे एक
बात पूछनी है
ओशो प्राणी का
सूक्ष्म शरीर
और आदमी का एक
ही समान होता
है?
प्राणी
यानी?
कोई भी
जानवर जैसे
गाय.....
नहीं, एक
सा नहीं होता,
अलग—अलग
होता है। अलग—अलग
होता है।
ओशो अलग
सूक्ष्म शरीर
होने से चक्र
अलग रहते हैं
दोनों के?
नहीं, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
सूक्ष्म शरीर
जो है आपका, अगर मनुष्य
हैं, तो
जैसा आपका
शरीर है, ठीक
इसी आकृति का,
ठीक ऐसा हां,
लेकिन
अत्यंत
एस्ट्रल
एटम्स का बना
हुआ, बहुत
सूक्ष्म
पदार्थों का
बना हुआ शरीर
होगा। उसके आर—पार
जाने में
कठिनाई नहीं
है। अगर हम एक
पत्थर फेंकें
तो वह उसके आर—पार
हो जाएगा। वह
सूक्ष्म शरीर
अगर दीवाल से
निकलना चाहे
तो निकल जाएगा,
उसमें कोई
बाधा नहीं है।
लेकिन आकृति
बिलकुल यही
होगी जो आपकी
है। धुंधली
होगी, जैसे
धुंधला
फोटोग्राफ हो।
अगर आपके
सूक्ष्म शरीर
का फोटोग्राफ
होगा तो वह
बिलकुल इससे
मेल खाएगा।
लेकिन ऐसा
खाएगा जैसे कि
कई सैकड़ों
वर्ष में पानी
पड़ते—पड़ते
एकदम धुंधला
हो गया हो। पर
होगा यही।
गाय
का होगा तो
गाय जैसा होगा।
लेकिन गाय जब
मनुष्य शरीर
में प्रवेश
करेगी, तो
सूक्ष्म शरीर
चूंकि इतना
वायवीय है, वह किसी भी
आकृति में
फौरन ढल सकता
है। वह कोई
ठोस चीज नहीं
है। जैसे हम
गिलास, पच्चीस
ढंग के गिलास
रखें और पानी
को एक गिलास
में डालें तो
पानी उस आकृति
का हो जाता है,
दूसरे
गिलास में
डालें, दूसरी
आकृति का हो
जाता है।
क्योंकि पानी
लिकिड है, उसका
कोई ठोस आकार
नहीं है, वह
जिस गिलास में
होता है उसी
आकार का होता
है। तो वह जो
सूक्ष्म शरीर
है, वह जिस
प्राणी—जीवन
में प्रवेश
करता है उसी
आकार का हो
जाता है। उसको
आकार का ठोसपन
नहीं है।
इसलिए अगर गाय
का सूक्ष्म
शरीर निकल कर
मनुष्य में
प्रवेश करेगा,
तो वह
मनुष्य की
आकृति ग्रहण
कर लेगा। और
सूक्ष्म शरीर
की जो आकृति
है, वह
डिजायर से
पैदा होती है,
वह वासना से
पैदा होती है।
तो जिस जीवन
में प्रवेश की
वासना पैदा हो
जाएगी, सूक्ष्म
शरीर उसी का
आकार ले लेगा।
और
अगर हम अपने
इस शरीर पर भी
प्रयोग करें
तो हम बहुत
हैरान हो
जाएंगे! इस
शरीर पर भी
अगर हम प्रयोग
करें तो हम
बहुत हैरान हो
जाएंगे। यह
शरीर भी बहुत
कुछ आकृतियां
हमारी वासना
से ही लेता है।
अभी
तो वैज्ञानिक
भी इस बात को समझने
में असमर्थ
हैं कि हम
खाना खाते हैं, तो
उसी खाने से
हड्डी बनती है,
उसी खाने से
खून बनता है, उसी खाने से
हाथ की चमड़ी
भी बनती है, उसी खाने से आंख
की अंदर की
चमड़ी भी बनती
है। लेकिन आंख
की चमड़ी देखती
है और हाथ की
चमड़ी नहीं
देखती। और कान
की हड्डी
सुनती है और
हाथ की हड्डी
नहीं सुनती।
और जो तत्व हम
ले जाते हैं
वे एक ही हैं।
और इतना सारा
का सारा
निर्माण भीतर
जो होता है, यह किस आधार
पर हो रहा है? तो वह जो
हमारे भीतर जो
गहरी वासना है,
वह वासना
आकृति देती है।
और उस वासना
का सूक्ष्मतम
रूप, अब वे
कहते हैं कि
जरूर किसी कोड
लैंग्वेज में
कहीं न कहीं
लिखा होगा।
जैसे
एक बीज है, उस
बीज को हम डाल
देते हैं। फोड़
कर देखें तो
हमें कुछ पता
नहीं चलता। उस
बीज को हम
मिट्टी में
डालते हैं और
उसमें से एक
फूल निकलता है,
समझो
सूर्यमुखी का
फूल निकलता है।
तो सूर्यमुखी
के फूल में
जितनी पंखुड़ियां
हैं, इसका
कुछ न कुछ कोड
लैग्वेज में
उस बीज में लिखा
हुआ होना
चाहिए।
अन्यथा यह
कैसे संभव है
कि यह
सूर्यमुखी का
ही पौधा बनता
है, यह
दूसरा पौधा
नहीं बन जाता!
बीज में किसी
न किसी तरह, किसी न किसी
सूक्ष्म तल पर,
जो होने
वाला है, वह
सब लिखा होना
चाहिए।
एक
मां के पेट
में एक अणु
गया है, उस
अणु में वह सब
लिखा हुआ है
जो आप में
संभव होगा। वह
उस अणु में
कहां लिखा हुआ
है? अभी तक
वैज्ञानिक की
पकड़ के बाहर
है, लेकिन
आध्यात्मिक
या योग का
कहना यह है कि
उसमें जो
प्राण
प्रविष्ट हुआ
है, उस
प्राण की जो
वासना है, वह
वासना कोड है।
उस कोड से सब
विकसित होगा।
और
वह जो सूक्ष्म
शरीर है, जब तक
एक ही तरह की
जीवन—यात्रा
करेगा— जैसे
दस जन्म होंगे
आदमी के, तो
वह आदमी का
रहेगा। लेकिन
हर जन्म में
उसकी आकृति
बदलती चली
जाएगी। और वह
आकृति भी आपकी
वासना से ही
निर्धारित होगी।
ओशो
सूक्ष्म शरीर
के साथ चक्र
जाते हैं कि
नहीं जाते?
चक्र
न! हां, चक्र तो
जो असल में
गौर से समझें,
तो सूक्ष्म
शरीर और इस
स्थूल शरीर के
बीच जो कांटैक्ट
फील्ड हैं, उनका नाम
चक्र है। यानी
आपका यह शरीर
और वह शरीर
जहां—जहां
छूता है, वे
चक्र हैं। तो
वे सब समान
हैं, उसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
प्राणी
में और......
सब में।
जहां से गाय
का शरीर छुएगा, वहां
चक्र बन जाएगा।
और वे छूने के
स्थल तय हैं।
जैसे समझ लें
कि सेक्स के
सेंटर पर एक
चक्र होगा।
चाहे वह किसी
जाति का
प्राणी हो—
कुत्ता हो, बिल्ली हो, आदमी हो, औरत
हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता— एक बहुत
फोर्सफुल
चक्र सेक्स के
सेंटर पर होगा।
तो वह चक्र सब
शरीरों में
होगा, उनकी
आकृति कुछ भी
हो, उस जगह
चक्र होगा।
हां, वह
चक्र छोटा—बड़ा
हो सकता है, कमजोर—ताकतवर
हो सकता है।
सात
चक्र होते हैं?
हां, सात
चक्र होंगे।
(प्रश्न
का ध्वनि—
मुद्रण
स्पष्ट नहीं।)
हां—हां, समझा।
तो उसका मतलब
केवल इतना है
कि उनके बाकी
चक्र निष्कि्रय
पड़े हुए हैं।
वे जब भी
सक्रिय हो
जाएंगे, उनकी
उतनी
इंद्रियां
प्रकट होने
लगेंगी। चक्र
निष्कि्रय हो
सकते हैं। और
हमारे भीतर भी
सात चक्र होते
हैं, लेकिन
सातों सक्रिय नहीं
होते। सातों
सक्रिय हो
जाएं तो बहुत
अदभुत घटना घट
गई। हमारे भी
सातों सक्रिय
नहीं होते।
आमतौर से सौ
आदमियों की
जांच—पड़ताल
करेंगे, तो
सेक्स का चक्र
तो सब में
सक्रिय
मिलेगा, बाकी
छह चक्रों में
से कोई एकाध
चक्र किसी में
सक्रिय होगा,
किसी में दो
चक्र सक्रिय
होंगे, नहीं
तो नहीं होंगे।
प्रकृति
को तो जितने
चक्र सक्रिय
उसने बनाए हैं, वे
तो सक्रिय
रहते हैं।
लेकिन जितने
साधना से
सक्रिय होते
हैं, वे
नहीं सक्रिय
होते। वे हैं
हमारे भीतर, लेकिन वे निष्क्रिय
पड़े होंगे।
जैसे कि बिजली
का बटन तो है, बल्व भी है, लेकिन बटन
ऑफ है, तो
बल्व बंद पड़ा
हुआ है, वह
ऑन हो जाए तो
बल्व जल जाए।
चक्र पूरी तरह
मौजूद हैं, लेकिन ऑन
हालत में नहीं
हैं, ऑफ
हालत में हैं।
तो
हमारे जितने
श्रेष्ठतर
चक्र हैं, वे
सब ऑफ हालत
में हैं। और
ध्यान से और
योग से उनको
ऑन हालत में
लाने की ही
सारी चेष्टा
की जाती है कि
वे ऑन हो जाएं
और वे सक्रिय
हो जाएं। और
जितने ऊपर के
चक्र सक्रिय
होने लगते हैं,
उतने नीचे
के चक्र अपने
आप निष्क्रिय
होने लगते हैं।
क्योंकि जो
शक्ति है
हमारे पास वह
वही है, वह
धीरे— धीरे
ऊपर के चक्रों
में गतिमान हो
जाती है, नीचे
के चक्र शिथिल
हो जाते हैं।
इस
पर कभी पूरी
बात करनी
अच्छी होगी।
कभी मैं चाहता
हूं कि पूरी
एक सीरीज
लेक्चर्स की
पूरी ही इस पर
हो सके तो
अच्छा हो।
गुजरात
में दिया था
आपने एक
लेक्चर इस पर।
बहुत
बात करने जैसी
है,
बहुत बात
करने जैसी है।
क्योंकि
मामला इतना
आसान नहीं है
जितना आमतौर
से समझा जाता
है। काफी जटिल
है पीछे।
ओशो,
पिछले जन्मों
में जाने के
लिए जो आपने
बात कही उसके
लिए कैसे
प्रयोग करना
होगा आउटलाइन
दी जा सकती है?
नहीं, वह
तो आप आ जाएं
तो करवा ही
दूं आउटलाइन
जरा मुश्किल
बात है। न, आउटलाइन
से काम नहीं
होगा। और
आउटलाइन दी भी
नहीं जा सकती
है। वह तो आप
एक स्टेप पूरा
करें तो दूसरे
की आउटलाइन दी
जा सकती है।
और नहीं तो आप
परेशानी में
पड़ जाएं, उससे
कुछ मतलब नहीं
है। और कुछ से
कुछ कर लें, उससे कुछ
मतलब नहीं
होगा। वह तो
एक स्टेप पूरा
हो जाए तो
दूसरे स्टेप
की बात करना
सार्थक है।
ओशो,
यह पासिबल है
यह उससे खयाल
में आ सके।
जैसे एक
वैज्ञानिक
प्रयोग करता
है तो सब लोग घर
में प्रयोग
नहीं करते।
लेकिन वे जो
डिस्काइब
करते हैं उससे
ऐसा मालूम
होता है कि
ऐसा हो सकता
है।
इसमें
दोनों में बुनियादी
फर्क हैं। यह
वैज्ञानिक
प्रयोग नहीं
है उस अर्थों
का,
क्योंकि विज्ञान
और धर्म के
प्रयोग में जो
बुनियादी
फर्क है वह यह
है कि विज्ञान
का प्रयोग
ऑब्जेक्टिव
है।
एक
बिजली का पंखा
किसी ने बनाया।
तो जिसने
बनाया उसी को
पंखा दिखता है, ऐसा
नहीं है, जिन्होंने
नहीं बनाया, वे सिर्फ
देखने आकर खड़े
हो गए हैं, उनको
भी पंखा दिखता
है, चलाएगा
तो चलता हुआ
भी दिखता है।
वे मानते हैं
कि ठीक है, पंखा
चलता है, हवा
भी फेंकता है।
विज्ञान
जो प्रयोग कर
रहा है वह
ऑब्जेक्ट के
साथ कर रहा है
और धर्म जो
प्रयोग कर रहा
है वह
सब्जेक्ट के
साथ कर रहा है।
मैंने अपने
साथ जो प्रयोग
किए हैं वे
आपको किसी
हालत में नहीं
दिख सकते। कोई
कारण नहीं
दिखने का। सच
तो यह है कि
मेरे शरीर से
ज्यादा आपको
मेरे भीतर कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ता है। कैसे
दिखाई पड़ेगा? शरीर
ऑब्जेक्ट है।
लेकिन मैं तो
कभी आपके लिए
ऑब्जेक्ट
नहीं हो सकता;
न आप मेरे
लिए ऑब्जेक्ट
हो सकते हैं।
और धर्म के
सारे प्रयोग
सब्जेक्ट से
जुड़े हुए हैं,
वह जो भीतर
है उससे।
तो
अगर एक महावीर
या एक बुद्ध
कितने ही
प्रयोग कर लें, फिर
भी बाहर अगर
लाकर, महावीर
को बिठा दिया
जाए सामान्य
कपड़ों में, आपके बीच, आपको पता भी
नहीं चलेगा
यहां महावीर
बैठे हुए हैं।
क्योंकि जो
घटना घटी है
वह इतनी आंतरिक
है, इतनी
भीतरी है कि
वह सिर्फ
महावीर के लिए
ही साक्षात हो
सकता है उसका।
उसका साक्षात
बाहर से नहीं
हो सकता। और
बाहर से भी एक
स्थिति में हो
सकता है कि
ठीक वैसी घटना
आपके भीतर भी घटी
हो, तो कोई
भीतरी पहचान
हो सकती है कि
महावीर की आंख
में आपको वह
बात दिखाई
पड़ने लगे जो
आपकी अपनी आंख
में आपको
अनुभव होती है।
महावीर
के चलने में
आपको वह बात
दिखाई पड़ने लगे
जो आपके चलने
में फर्क पड़
गया है। तो
शायद आपको
थोड़ा अंदाज
लगे कि इस
आदमी के भीतर
भी कुछ वैसी
बात तो नहीं
हो गई जैसी
मेरे भीतर हो
गई है! नहीं तो
अन्यथा
बिलकुल
मुश्किल मामला
है।
और
रूप—रेखा की
भी जो बात है, कि
एक आउटलाइन भी
दी जा सके।
आउटलाइन देना
भी बिलकुल
मुश्किल है।
क्योंकि
मामला ऐसा है,
समझ लीजिए
कि पहली कक्षा
में एक
विद्यार्थी भर्ती
हुआ है और वह
कहता है कि
थोड़ी—बहुत
हमें मैट्रिक
की आउटलाइन दे
दी जाए, तो
हमें पहली
कक्षा में
पढ़ने में थोड़ी
सुविधा हो। तो
उससे शिक्षक
कहेगा कि
चूंकि तुम
पहली कक्षा से
ही परिचित
नहीं हो, मैट्रिक
की आउटलाइन का
कोई मामला ही
नहीं उठता।
क्योंकि वह हम
कैसे तुम्हें
देंगे? और
तुम कैसे
जानोगे? क्या
करोगे तुम उसे
जान कर? तुम
पहचान भी नहीं
सकते हो उसको।
क्योंकि जिस
भाषा में वह
आउटलाइन दी
जाने वाली है,
वह भाषा तुम
जब इन कक्षाओं
से गुजरो तब
तुम्हारे पास
होगी। वह
आउटलाइन भी जो
दी जाने वाली
है
समझ
लीजिए कि एक
पांच साल, सात
साल का बच्चा
है, इसको
अगर सेक्स के
संबंध में
समझाने बैठा
जाए, तो
बहुत कठिनाई
हो जाने वाली
है। क्योंकि
यह बच्चे के
पास कोई भीतरी
भूमिका नहीं
है जिससे
सेक्स की भाषा
यह समझ सके।
इसके लिए कोई
सवाल नहीं
उठता कि यह
कैसे समझे? आप क्या कह
रहे हैं, यह
कैसे समझे? आप आउटलाइन
भी दे देंगे, तब भी इसको
ऐसा लगेगा कि
न मालूम किस
लोक की बात की
जा रही है
जिससे मुझे
कोई पहचान
नहीं है! क्या
कहा जा रहा है
यह? तो
जितने गहरे
सत्य हैं भीतर
के, उनकी
बिलकुल
प्राथमिक बात
की जा सकती है,
बिलकुल
प्रारंभ की, बिलकुल शुरू
की। और एक—एक
कदम उनमें गति
हो, तो आगे
के एक—एक कदम
की बात आगे की
जा सकती है।
और एक सीमा के
बाद उसकी पूरी
बात की जा
सकती है। नहीं
तो नहीं की जा
सकती।
और
हमारी कठिनाई
यह है कि हम
में से प्रयोग
करने के लिए
बहुत कम लोग
हिम्मत जुटा
पाते हैं। और
कुछ बातें ऐसी
हैं जो बिना
प्रयोग के कभी
अनुभव में आ
ही नहीं सकती
हैं। छोटा—मोटा
प्रयोग ही
करना हमें
मुश्किल
गुजरता है। और
ये सब प्रयोग
तो जिसको हम
कहें टोटल
डिस्टरबेंस
पैदा करने
वाले हैं।
आपकी पूरी की
पूरी जिंदगी
अपरूटेड हो
जाए,
और तरह की
हो जाए।
क्योंकि कुछ
चीजें आपको
पता ही नहीं
जो दिखाई पड़े;
और कुछ
चीजें जो आपने
कभी सोची भी
नहीं हैं, सामने
आ जाएं। तो
उनको एक—एक
कदम करना ही
उचित है।
ओशो
मेरा खयाल है
कि जैसे आपने
कहा कि वह रात
को पंद्रह
मिनट— मैं कौन
हूं?... इससे
आगे कुछ आप
कहेंगे,
ऐसा खयाल के
लिए।
वह भी
नहीं कहता न
कोई! वह भी
नहीं कहता कोई
पंद्रह मिनट
बैठ कर, वह भी
कोई नहीं
कहता। वह भी
मैं कहता हूं
तब एकाध—दो
दिन कोई बैठ
कर कर लेता है।
वह भी नहीं
कहता कोई।
क्योंकि अगर
वह भी एक दो—तीन
महीने कोई
श्रमपूर्वक
कहे, तो
उसकी पूरी की
पूरी
जिज्ञासा बदल
जाएगी फौरन।
वह जो प्रश्न
पूछेगा वे
दूसरे ही होने
वाले हैं, जो
आप पूछ ही
नहीं सकते।
क्योंकि उसे
कुछ चीजें
दिखाई पड़नी
शुरू होंगी
जिनके बाबत वह
पूछना शुरू
करेगा, जो
आप कभी पूछ ही
नहीं सकते।
यानी आदमी
क्या पूछता है,
यह देख कर
मैं कह सकता
हूं कि वह
कहां है।
क्योंकि
पूछेगा वही न,
जहां वह सोच
रहा है, जहां
उसका सारा
चित्त खड़ा हुआ
है।
वह
भी कोई नहीं
फिकर करता कि
वह कोई तीन—चार
महीने भी ताकत
लगा कर कर ले।
उतना भी नहीं
हो रहा है। वह
भी थोड़ा सा हो
तो आगे बात की
जा सकती है, जरूर
की जा सकती है।
और
अब मैं इधर
चुनाव कर रहा
हूं कि कुछ
कैंप मैं
बुलाना चाहूंगा
जिनमें कुछ
लोगों को मैं
निमंत्रण करूंगा
कि वे आ जाएं।
कोई भी नहीं आ
सकेगा, जिसको
मैं बुलाऊगा
वही आ जाए। तो
मेरी नजर में
वे कुछ लोग
आने शुरू हुए
हैं, जो
थोड़ा काम कर
रहे हैं। और
उन थोड़े लोगों
के साथ आगे
मेहनत की जानी
जरूरी है। तो
उधर सोचता हूं।
(प्रश्न
का ध्वनि—
मुद्रण
स्पष्ट नहीं।)
हां, कारण
हैं लगने के, कारण हैं
लगने के। बड़ा
कारण तो यह है
कि एक तो
हजारों साल से
ऐसा समझाया जा
रहा है कि
किसी की कृपा
से हो जाएगा; कोई कर देगा
तो हो जाएगा; कोई गुरु
मिल जाएगा तो
कर देगा।
हजारों साल से
यह समझाया जा
रहा है कि कोई
कर देगा, हो
जाएगा; आपको
कुछ करना नहीं
है। यह मन में
बैठ गया है
गहरे, एक।
दूसरी
बात यह है कि
कोई भी आदमी
बहुत श्रम से
गुजरना नहीं
चाहता, और
ऐसी चीजों के
लिए जो बहुत
साफ—साफ दिखाई
न पड़ती हों।
धन दिखाई पड़ता
है तो आदमी
श्रम कर लेता
है, यश
दिखाई पड़ता है
तो आदमी श्रम
कर लेता है, पद दिखाई
पड़ता है तो
आदमी श्रम कर
लेता है। धर्म
का मामला ऐसा
है, दिखाई
बिलकुल नहीं
पड़ता और श्रम
की बहुत मांग है
इसमें—कि इतना
श्रम करो तो
कुछ होगा, इतना
श्रम करो तो
दिखाई पड़ेगा
कुछ।
तो
अदृश्य के लिए
श्रम जुटाने
की क्षमता
थोड़े लोग ही
कर सकते हैं।
दृश्य के लिए
श्रम जुटाना
बहुत आसान बात
है।
फिर
चारों तरफ, हमारे
चारों तरफ जो
लोग कर रहे
हैं, वही
हम करते हैं।
चारों तरफ
हमारे जो लोग
कर रहे हैं, वही हम करते
हैं। क्योंकि
हम आमतौर से
खुद कुछ भी नहीं
करते, जो
हमारे चारों
तरफ हो रहा है,
उसका हम
अनुकरण करते
हैं। जैसे
कपड़े लोग पहने
हैं, हम
पहन लेंगे, जो लोग पढ़
रहे हैं वह हम
पढ़ेंगे; जिस
पिक्वर को वे
देख रहे हैं, हम देखेंगे।
चारों तरफ से
हमारे चित्त
के जो तार हैं
वे जिस तरफ
खींचे जाते
हैं, वहां
खिंचते हैं।
जैसे कि अगर
हिंदुस्तान
में आप पैदा
हुए, तो आप
और तरह के काम
करेंगे, और
अगर आप जापान
में पैदा हुए,
तो और तरह
के, और
फ्रांस में
पैदा हुए, तो
और तरह के। जो
वहां की हवा
है, चारों
तरफ जो हो रहा
है।
बुद्ध
और महावीर
जैसे लोगों ने
दस—दस हजार
भिक्षु
इकट्ठे किए। और
इकट्ठे करने
का कारण यह
नहीं था कि दस
हजार इकट्ठा
करने से कोई
फायदा है।
सिर्फ उपयोग
इतना था कि आम
आदमी दस हजार
के बीच फौरन
सक्रिय हो
जाता है। जो
अकेले में हो
ही नहीं सकता
वह। जब दस
हजार भिक्षु
साधना में लगे
हों और दस हजार
भिक्षु सुबह
से सांझ तक
सिर्फ साधना
की बात कर रहे
हों,
जहां दस
हजार भिक्षु
सुबह से सांझ
तक आत्मिक अनुभवों
की बात कर रहे
हों, वहां
आप अगर पहुंच
गए, तो
बहुत असंभव है
कि आप इस धारा
में प्रविष्ट होने
से बच जाएं, आप इसमें
डूब जाने वाले
हैं।
तो
बड़े आश्रमों
का और बड़े
प्रतिष्ठानों
का उपयोग
सिर्फ इतना था
कि वहां की
पूरी की पूरी
हवा—जैसे कि
संसार की पूरी
की पूरी हवा
सांसारिक है
और आप यहां
वही करने लगते
हैं जो दूसरे
कर रहे हैं—ठीक
वहां की पूरी
हवा
आध्यात्मिक
हो और आप वहां
वही करने लगें
जो वहां चारों
तरफ हो रहा है।
और एक दफा
थोड़ी सी गति
हो जाए, तब तो इतना
रस आने लगता
है कि फिर कोई
मतलब नहीं है
कि कौन कर रहा
है कि नहीं कर
रहा है। आपका
अपना आनंद ही
आपको खींचने
लगता है।
लेकिन पहला
स्टेप उठ जाए,
उसकी जरूरत
है।
और
इधर जितना
लंबा फासला
हुआ है उतना
आदमी को ऐसा
लगने लगा है
कि अध्यात्म...
पता नहीं!
कहीं मुट्ठी में
तो पकड़ में
आता नहीं कि
क्या है? कौन
झंझट में पड़े?
और एक—दो
दिन में भी
मुट्ठी में
पकड़ में आ जाए
तो भी कोई
झंझट में पड़
जाए। हमारे
जन्मों—जन्मों
की यात्रा
प्रतिकूल है
और उलटे संस्कार
इकट्ठे हैं।
उनको पार किए
बिना, उनको
तोड़े बिना
कहीं गति हो
नहीं सकती।
इतना लंबा और
कठिन दिखाई
पड़ता है कि
फिर आदमी सोचता
है— ठीक है।
सुन लो, बात
कर लो, पढ़
लो; इससे
ज्यादा झंझट
में पड़ने का
नहीं।
अब
एक बहुत अच्छे
आदमी हैं, विनोबा
जी के खास
साथियों में
से हैं। वे कई
बार मेरे पास
आते थे, अब
बूढ़े हो गए
हैं, तो
उनसे मैंने
कहा कि अब बातचीत
आप बहुत कर
चुके। कई बार
गांधी जी के
साथ जीवन भर
रहे, विनोबा
जी के साथ रहे,
अरविंद
आश्रम रहे, रमण के यहां.....सब,
हिंदुस्तान
में इधर पचास
सालों में जो
भी कुछ हुआ
होगा, वे
सबसे परिचित
हैं, सब
जगह रहे हैं।
तो बातचीत आप
बहुत कर चुके,
अब कुछ
करिएगा, क्योंकि
अब उम्र बहुत
हो गई। तो
उनसे मैंने
कहा कि एक
इक्कीस दिन का
मैं प्रयोग
आपको बताता हूं, पहले आप यह
करके आइए, फिर
मैं आगे बात
करूं। नहीं तो
बेकार है; आप
तो इतने लोगों
से बात कर
चुके हैं कि
अब कोई मतलब
है नहीं इसमें।
वे
मेरा पूरा
प्रयोग समझे
और मुझसे बोले, यह
तो मैं करूंगा
नहीं, क्योंकि
इसमें तो मैं
पागल हो
जाऊंगा।
तो
मैंने उनसे
कहा कि अब
मरने के करीब
हैं आप, वर्ष,
दो वर्ष, कितने दिन
जिंदा रहेंगे,
यह नहीं कहा
जा सकता। इतनी
हिम्मत कर
लीजिए! पागल—वागल
नहीं हो
जाएंगे। पागल
आप हैं! जो
आदमी पचास साल
से निरंतर
अध्यात्म की
बातें सुनता
हुआ घूम रहा
है और एक प्रयोग
नहीं किया, वह आदमी
पागल नहीं तो
और क्या है? घूमो ही मत
फिर ऐसा है तो।
पर
वे कहने लगे, नहीं,
यह मैं नहीं
कर सकता हूं।
यह तो आपका
पूरा मैंने
समझा, इसमें
सात दिन के बाद
ही मैं वापस
लौटने वाला
नहीं हूं,
मैं तो गया।
उस
दिन से वे फिर
मुझसे
जिज्ञासा
करने भी नहीं
आए,
क्योंकि
उन्होंने कहा
कि.....वे समझ गए
कि मैं कहूंगा
कि वह करिए, फिर आगे बात
होगी, नहीं
तो बात नहीं
होगी।
जिज्ञासा
बौद्धिक हो गई, बिलकुल
इंटलेक्चुअल
है। एक आदमी
आकर पूछ लेता
है ईश्वर है
या नहीं? उसे
कोई मतलब भी
नहीं है। हो
तो ठीक है, न
हो तो ठीक है।
इतना भी मतलब
नहीं है।
पूछने में भी
कोई सार नहीं
है।
अभी
गुरजिएफ था एक
फकीर फ्रांस
में। तो जो भी
आदमी आएगा, जिज्ञासा
करने के पहले
उसे बड़े
उपद्रवों में से
गुजारेगा वह।
और जब वह उतनी
हिम्मत
दिखाने को
राजी हो जाए तो
जिज्ञासा कर
सकता है, नहीं
तो नहीं करने
देगा। वह
कहेगा कि
फिजूल
जिज्ञासा से
कोई मतलब तो है
नहीं।
इधर
मैं भी जो
इतनी बात करता
हूं वह इसी
खयाल से करता
चला जाता हूं
कि इसमें से
कुछ लोग ठीक जिज्ञासा
पर आ जाएंगे।
हजार आदमी
पूछते हैं, कोई
एक आदमी करने
को राजी होगा।
तो एक दों—तीन
वर्ष घूमता
रहूंगा और, और फिर मेरी
नजर में लोग
आते जाते है,, उन लोगों को
बुला कर जो
करना है वह कर
लूंगा। फिर एक
कोने पर बैठ
जाऊंगा, फिर
जिसको करना हो
वह वहां आ जाए।
फिर मुझे कुछ
भटकने की
जरूरत नहीं, कोई प्रयोजन
नहीं।
और
इतना ध्यान
रहे कि करेंगे
तो ही कुछ
होगा, किसी के
करने से कुछ
होने वाला
नहीं है। पर न
साहस है, न
इच्छा है। कोई
कामना भी नहीं
है वैसी। और
ऐसा खयाल बनता
है कि सब कुछ
करते हुए, कभी
घड़ी आधा घड़ी
इस तरह की
बातें भी कीं
तो अच्छा है।
इससे ज्यादा
नहीं है कुछ।
बस।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें