पत्र पाथय—36
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय
मां,
एक
स्वप्न से
जागा हूं।
जागते ही एक
सत्य दीखा है।
स्वप्न में
मैं भागीदार
भी था और
दृष्टा भी था।
स्वान में जब
तक था, दृष्टा
भूल गया था, भागीदार ही
रह गया था। अब
जाकर देखता
हूं कि दृष्टा
ही था, भागीदार
प्रक्षेप था।
स्वप्न
जैसा है, संसार भी
वैसा ही है।
दृष्टा
चैतन्य ही
सत्य है, शेष
सब कल्पित है।
जिसे हमने 'मैं' जाना
है, वह वास्तविक
नहीं है। उसे
भी जो जान रहा
है, वास्तविक
वही है। यह
सबका दृष्टा
तत्व सबसे
मुक्त और सबसे
अतीत है। उसने
न कभी कुछ
किया है, न
कभी कुछ हुआ
है। वह बस है।
असत्य 'में' स्वप्न
'में' शांत
हो जाये तो जो 'है' वह
प्रगट हो जाता
है। इस 'है'
को हो जाने
देना मोक्ष है,
केवल्य है।
प्रभात:
11 फर. 1963
रजनीश
के प्रणाम
(पुनश्च
: कल संध्या
पत्र मिला है।
बुलढ़ाता के
संबंध में
सोचा ही। टेप
रिकार्डर
मशीन पारख जी
ले आए यह
अच्छा है। शेष
शुभ' अमृत से
मेरे वायु—विकार
में अंतर पड
रहा है। सबको
मेरे विनम्र
प्रणाम।)
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