दिनांक
16 मई 1979; श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र
:
संतो, मगन भया मन
मेरा।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
कुल
मरजाद मैंड
सब लागो, बैठा भाठी
नेरा।
जात—पाँत
कछु समझौ
नाहीं, किसकूँ करै परेरा।।
रस
की प्यास आस
नहिं औराँ, इहि मत किया
बसेरा।
ल्याव ल्याव ऐही
लय लागी, पीवै फूल
घनेरा।।
सो
रस माँग्या
मिलै न
काहू, सिर
साटे
बहुतेरा।
जन
रज्जब तनमन दे
लीया, होइ धनी का
चेरा।।
प्राणपति
न आए हो, बिरहिण अति बेहाल।
बिन
देखे अब जीव जातु है विलम न कीजै
लाल।।
बिरहिण ब्याकुल केसवा, निसदिन
दुःखी बिहाइ।
जैसे
चंद कुमोदिनी, बिन देखे कुमिलाइ।।
खिन
खिन
दुखिया दगाधिये, विरह—विथा
तन पीर।
घरी
पलक में बिनसिये
ज्यूँ मछरी बिन
नीर।।
पीव
पीव टेरत
दिन भई, स्वातिसुरूपी आव।
सागर
सलिता सब
भरे, परि चातिग कै
नहिं चाव।।
दीन
दुःखी दीदार
बिन, रज्जब
धन बेहाल।
दरस
दया करि दीजिये, तौ निकसै सब
साल।।
प्रेम
का मार्ग
मस्ती का
मार्ग है। होश
का नहीं, बेहोशी
का। खुदी का
नहीं, बेखुदी
का। ध्यान का
नहीं, लवलीनता
का। जागरूकता
का नहीं, तन्मयता
का। यद्यपि
प्रेम की जो
बेहोशी है
उसके अंतर्गृह
में होश का
दीया जलता है।
लेकिन उस होश
के दीए के लिए
कोई आयोजन
नहीं करना
होता। वह तो
प्रेम का सहज
प्रकाश है, आयोजना
नहीं।
यद्यपि
प्रेम के
मार्ग पर जो
बेखुदी है, उसमें खुदी
तो नहीं होती,
पर खुदा
जरूर होता है।
छोटा मैं तो
मर जाता है, विराट मैं
पैदा होता है।
और जिसके जीवन
में विराट मैं
पैदा हो जाए, वह छोटे को पकड़े
क्यों? वह
छुद्र का
सहारा क्यों
ले? जो
परमात्मा में
डूबने का मजा
ले ले, वह
अहंकार के
तिनकों को पकड़े
क्यों, बचने
की चेष्टा
क्यों करे? अहंकार बचने
की चेष्टा का
नाम है। निर—अहंकार
अपने को खो
देने की कला
है।
भक्ति
विसर्जन है, खोने की कला
है। और खूब
मस्ती आती है
भक्ति से।
जितना मिटता
है भक्त, उतनी
ही प्याली
भरती है।
जितना भक्त
खाली होता है,
उतना ही
भगवान से आपूर
होने लगता है।
भक्त खोकर कुछ
खोता नहीं, भक्त खोकर
पाता है।
अभागे तो वे
हैं जिन्हें
भक्ति का
स्वाद न लगा, क्योंकि वे
कमा—कमाकर
केवल खोते हैं,
पाते कुछ भी
नहीं। भक्त
अपने को
गँवाकर अपने को
पा लेता है।
और हम अपने को
बचाते—बचाते
ही एक दिन मौत
के मुँह में
समा जाते हैं।
हमारी
उपलब्धि क्या
है? हमारे
हाथ खाली हैं।
हमारे प्राण
खाली हैं। और
विरोधाभास
ऐसा है कि
भरने में ही
हम लगे रहे
जन्मों—जन्मों
तक। भक्त ने
यह देख लिया
कि भरने से नहीं
भरता है। तब
उसके हाथ में
दूसरा सूत्र आ
जाता है कि
खाली करने से
भरता है।
संतो, मगन भया मन
मेरा!
फिर
भक्ति का
मार्ग कोई
रूखा—सूखा, रसविहीन मार्ग नहीं
है। उदासी का
और हताशा का
और पराजय का
और दुःखवाद
का मार्ग नहीं
है। भक्ति का
मार्ग आनंद—उत्सव
है। भक्ति का
मार्ग बसंत का
मार्ग है—अनंत—अनंत
फूलों का, अनंत—अनंत
गीतों का।
भक्ति का
मार्ग अपनी
आत्यंतिक
अवस्था में
महोत्सव के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। भक्ति
अर्थात् यह
महोत्सव कि हम
हैं और
परमात्मा है,
और क्या
चाहिए! हमारा
होना
परमात्मा में
है, इससे
बड़ा और क्या धन्यभाग
होगा! तो भक्त
खूब छकता है, भक्त खूब रस
में डुबकियाँ
लेता है।
भक्ति का
स्वाद आनंद का
स्वाद है।
तो कोई
अगर भक्ति की
बात करता हो
और निरानंद हो, तो समझना कि
बात—ही—बात
है। कोई अगर
भगवान की बात
करता हो और
उदास हो, तो
समझना कि सब
बकवास है। कोई
अगर मोक्ष की
बात करता हो
और उसके जीवन
में तुम्हें
मुक्ति का रस
बहता न मिले, तो समझना कि
शास्त्र तो
उसने जाने, अभी सत्य से
बहुत दूर है—अभी
जीने की कला
उसे नहीं आयी।
अक्सर
औकात यह महसूस
किया है मैंने
उम्र—भर
जी के भी जीना
नहीं आया
मुझको
मुश्किल
से आता है
जीना। जीवन तो
सबको मिल जाता
है, जीना
बहुत कम को
आता है। जिनको
जीना आ गया, उनको
परमात्मा आ
गया। जीवन को
ही जीना मत
समझ लेना।
जीवन तो केवल
जीने के लिए
एक अवसर है। चाहोगे
तो जी सकोगे, चाहोगे तो
ऐसे ही गँवा
भी दोगे। अधिक
तो गँवाते हैं,
बहुत थोड़े—से
लोग जीते हैं।
अधिक तो
जन्मते हैं और
मरते हैं, थोड़े—से
लोग जीते हैं।
जन्म और
मृत्यु के बीच
जीवन कभी—कभी
घटता है। जब
घटता है, तब
उसकी अपार
महिमा है। जब
घटता है, तब
भगवत्ता
उतरती है, तब
भगवान पृथ्वी
पर चलता है।
भक्त की रसधार
में ही भगवान
के चरण फिर
पृथ्वी पर
पड़ते हैं।
भक्त की मस्ती
में ही फिर
भगवान का गीत
उतरता है।
भक्त के मिट
जाने में, भक्त
की बेखुदी में
भक्त बाँसुरी
बन जाता है, फिर उसके
स्वर
प्रवाहित
होने लगते
हैं।
तुम
अपने से भरे
हो, इसलिए
प्रभु
तुम्हें
बाँसुरी
बनाना भी चाहे
तो कैसे बनाए?
तुम बाँस की
पोंगरी बनो—खाली
और रिक्त और
शून्य—ताकि
उसके स्वर
तुमसे बह
सकें। बजाने
की उसकी बड़ी
आतुरता है, मगर तुम
अपने से भरे
हो। तुम ज़रा
खाली हो जाओ
और फिर देखो!
फिर इसी जीवन
को देखो और
तुम दूसरा ही
जीवन पाओगे।
यह जीवन जो
तुमने अब तक
दुःख जैसा
जाना है, तुम
चकित होकर देखोगे
कि यहाँ कैसा
दुःख, यह
आनंद का
महासागर है।
और यह जीवन
जहाँ तुमने
काँटे—ही—काँटे
पाए थे, अचानक
तुम पाओगे
फूलों भरा है।
यहाँ हजार—हजार
कमल खिल रहे
हैं।
तुम्हारी
दृष्टि बदली कि
सृष्टि बदली।
लेकिन
तुम दृष्टि को
तो नहीं बदलते, दृष्टि का
धोखा पैदा कर
लेते हो—दर्शनशास्त्रों
को पकड़ लेते
हो। दृष्टि तो
तुम्हारी
होती है, दर्शनशास्त्र
उधार होते
हैं। किसी ने
जैन—दर्शन
पकड़ा है, किसी
ने इस्लाम—दर्शन
पकड़ा है, किसी
ने हिंदू—दर्शन
पकड़ा है—दृष्टि
खोजो, दर्शन
पकड़ने से
क्या होगा? ऑंख
चाहिए, देखनेवाली ऑंख।
दर्शन तो और
अंधा कर देता
है। शब्द ही
शब्दों की
पर्तें जम
जाती हैं ऑंखों
पर। दर्पण में
फिर कुछ और
दिखायी नहीं
पड़ता।
ऐ
दिल! तेरा
मुकाम था दैरो—हरम
से दूर
क्यों
अपने आपको
यहीं बहला के
रह गया
लेकिन
लोग मंदिरों—मस्जिदों
में उलझ गए
हैं। अद्भुत
अंधापन है। इस
पृथ्वी पर
लाखों चर्च
हैं और हर
चर्च में कम—से—कम
एक चीज तो रखी
ही है—बाइबिल।
और ज़रा
बाइबिल को
पलटना और
बाइबिल में
जगह—जगह इस
बात की
उद्घोषणा की
गयी है कि
मुझे तुम आदमियों
के बनाए हुए
मंदिरों में
मत खोजना। यह
दुनिया बड़ी
अद्भुत है।
यहाँ मंदिरों
में किताबें
रखी हैं
जिसमें लिखा
है कि तुम
मुझे आदमी के बनाए
हुए मंदिरों
में मत खोजना, मैं वहाँ
नहीं हूँ, तुम
मुझे मेरी
कृति में
खोजना, मेरी
सृष्टि में
खोजना, तुम
मुझे आदमी की
बनायी हुई
मूर्तियों
में मत खोजना,
और आदमी के
बनाए हुए
सिद्धांतों
में मत खोजना।
लेकिन बाइबिल को
पढ़ता कौन है? पूजा की चीज
है।
ऐसा ही
समझो कि तुम
देख नहीं
पाते। किसी ने
तुम्हें
चश्मा दिया कि
तुम ठीक से
देख सको और तुमने
चश्मे को
सजाकर रख लिया—एक
छोटी—सी वेदी
बना ली, चश्मे
को सजाकर रख
लिया, सोने
का फ्रेम चढ़वा
दिया है, काँच
की जगह
बहुमूल्य
हीरे—जवाहरात
जड़ दिए हैं, रोज फूल चढ़ा
देते हो, रोज
सिर झुका लेते
हो। चश्मे की
पूजा से क्या होगा?
यही हो रहा
है। मैं
तुम्हें एक
खिड़की दिखाऊँ
और कहूँ झाँको
आकाश को और
तुम खिड़की में
ही उलझ जाओ।
तुम कहो—अहाहा!
कैसी प्यारी
नक्काशी है!
और तुम कहो—कैसी
बहुमूल्य
खिड़की है!
कैसे रंगीन
काँच! और फिर
तुम इस खिड़की
को ही एक वेदी
बना लो, यहाँ
रोज फूल चढ़ाओ,
खिड़की को
चंदन—मंदन से मढ़ दो, खिड़की
को हीरे—जवाहरात
जड़ दो और यह
भूल ही जाओ कि
खिड़की कोई पूजा
का विषय नहीं
थी, सिर्फ
माध्यम थी, उसके पार
देखना था।
खिड़की देखने
के लिए एक ऑंख
थी, एक
दृष्टि थी।
उसके पार जाना
था। वहाँ दूर
खिड़की के पार
आकाश में चाँद
ऊगा है, पूर्णिमा
की रात है और
तुम खिड़की की
पूजा कर रहे
हो! यही हो रहा
है। बाइबिल की
पूजा चल रही
है चर्च में
और बाइबिल
कहती है कि
मुझे आदमियों
के बनाए हुए
मंदिरों में
मत खोजना और
आदमी के
द्वारा गढ़ी
हुई
मूर्तियों
में मैं नहीं
हूँ। तुम मुझे
मेरी कृति में
खोजो! और यह
सारा जगत उसकी
कृति है। और
तुम भी उसकी
कृति हो।
तो
पहले, इसके
पहले कि बाहर
खोजने जाओ, कम—से—कम
भीतर तो खोजो।
वह तो
तुम्हारे
निकटतम वहाँ है,
तुम्हारे
भीतर। वहाँ
करीब—से करीब
है परमात्मा।
क्योंकि बाहर
किसी वृक्ष के
पास जाओगे तो
कुछ कदम चलने
पड़ेंगे। और हिमालय
को दर्शन करने
जाओगे तो
हजारों मील
जाना पड़ेगा।
और चाँद पर
जाओगे तो और
हजारों—लाखों
मील। लेकिन
अपने भीतर जाओ
तो इंच भर की भी
दूरी नहीं है।
वहाँ परमात्मा
तुम्हारे
निकटतम है।
पहले वहाँ तो
खोज लो।
वहाँ
की खोज क्यों
नहीं हो पाती?
हम
सिद्धांतों
और शास्त्रों
में उलझे हैं, भीतर जाए
कौन? हमें
मंत्रों ने, यंत्रों ने,
तंत्रों ने
अटका लिया है,
भीतर जाए
कौन? भीतर
जाने की सुध
खो गयी है।
भक्ति उस
अंतरतम में
उतरना है। और
उस अंतरतम में
नृत्य के साथ
उतरना है। ध्यानी
भी उतरता है, लेकिन
ध्यानी नृत्यशून्य
उतरता है।
भक्त नृत्यपूर्ण
उतरता है। हो
सको तो भक्त
होना। न हो
सको भक्त, तो
ध्यानी होना,
वह नंबर दो
की बात है।
दोयम।
ऐ
दिल! तेरा
मुकाम था दैरो—हरम
से दूर
क्यों
अपने आपको
यहीं बहला के
रह गया
ज़रा
उठो मंदिरों—मस्जिदों
से, शब्दों—सिद्धांतों
से और
परमात्मा
तुम्हें बड़ी
दूर की यात्रा
पर ले जाने को
आतुर है।
परमात्मा तुम्हें
वहाँ ले जाना
चाहता है जहाँ
तुमने कभी जाने
की कल्पना भी
नहीं की।
तेरी
निगाह वहाँ ले
जाती है आज
मुझे
मेरी
निगाह भी
मुझको जहाँ न
पहचाने
तुम्हें
परमात्मा
नित्य—नूतन
जीवन देने को
आतुर है। उसकी
सुराही सदा ही
तुम्हारी
प्याली को
भरने को
उत्सुक है। पर
प्याली खाली
तो करो!
प्याली को साफ—सुथरा
तो करो! माँजो
तो! बस भक्ति
इतनी ही है और
कुछ नहीं।
आज का
सूत्र तो
रज्जब का बहुत
अद्भुत है। कल
ही तो मैं
तुमसे कह रहा
था कि यह कोई
मंदिर नहीं, मधुशाला है।
आज के सूत्र
में वह बात आ
गयी। रज्जब
कहते हैं—
संतो, मगन भया मन
मेरा।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी, बैठा भाठी
नेरा।
जात—पाँत
कछु समझौ
नाहीं, किसकूँ करै परेरा।।
रस
की प्यास आस
नहिं औरां, इहि मत किया
बसेरा।
ल्याव ल्याव ऐही
लय लागी, पीवै फूल
घनेरा।।
सो
रस माँग्या
मिले न काहू, सिर साटे
बहुतेरा।
जन
रज्जब तन मन
दे लीया, होइ धनी का
चेरा।।
बड़े
अद्भुत वचन
हैं। लिख लेना
पत्थर की लकीर
से हृदय पर।
बुद्धि के
समझने के नहीं
हैं, हृदय में
उतारने के
हैं। बुद्धि
से ही समझे तो
चूके। यहाँ
होश काम न
आएगा। यहाँ
बेहोशी काम आएगी।
एक—एक शब्द को
हृदय में गहरा
उतरने दो।
संतो, मगन भया मन
मेरा।
मगन का
अर्थ होता है—ऐसा
मस्त हुआ, ऐसा दीवाना
हुआ कि सारी
जो कल तक की
व्यवस्था थी
जीवन की, अस्त—व्यस्त
हो गयी। मान
था, मर्यादा
थी, कुल था,
मरजादा थी,
परिवार था,
समाज था, औपचारिकताएँ थीं, शिष्टाचार
थे, सब टूट
गए। जैसे शराब
पीकर कोई मस्त
हो जाता है, फिर भूल ही
जाता है, फिर
हिसाब—किताब
नहीं रह जाता,
फिर एक क्षण
पहले तक जो
सारी
व्यवस्था
चेतन चित्त की
थी वह एकदम
अस्तव्यस्त
हो जाती है, चेतन एकदम
खंडित हो जाता
है और गहरे से
कुछ उठता है
और शराबी को
आप्लावित कर
लेता है। वैसे
ही भक्त को भी
भीतर की शराब डुबा लेती
है। भक्त
शराबी है।
संतो, मगन भया मन
मेरा।
कैसे
मगन हुआ है? क्या
प्रक्रिया है?
कैसे यह
मस्ती जन्मी?
कहाँ से यह
आयी है?
अहनिस
सदा एकरस लाग्या.....
बस उस
एक परमात्मा
की याद से यह
घटना घटी। यह
शराब उस एक
परमात्मा की सतत्
याददाश्त से
निर्मित हुई
है। उस एक
परमात्मा की
याद ही अंगूर
है, जहाँ से
रस निचुड़ता
है। तुम भी
याद करते हो, लेकिन बहुत
चीजों की याद
करते हो।
तुम्हारी
याददाश्त की
बड़ी फेहरिश्त
है।..... कभी
बैठकर लिखना
कि तुम कितनी
चीजों की याद
करते हो, तब
तुम्हें
लगेगा कि तुम
हजारों—हजारों
चीजों की याद
करते हो। और
इसीलिए तुम्हारी
कोई भी याद
मस्ती नहीं ला
पाती। तुम बँट
जाते हो अपनी
याद में। तुम
खंड—खंड हो
जाते हो। धन
की भी याद है, पद की भी याद
है, प्रेम
की भी याद है, प्रतिष्ठा
की भी याद है
और न—मालूम
कितनी यादें
हैं। तुम
यादों—ही—यादों
से भरे हो।
तुम्हारी याद
में एकाग्रता नहीं
है। तुम्हारी
याद अग्नि
पैदा नहीं कर
पाती है—आग्नेय
नहीं हो पाती।
ऐसा ही
समझो कि सूरज
की किरणें बरस
रही हैं, और
फिर तुम एक
खुर्दबीन ले
आओ, और
सूरज की
किरणों को
खुर्दबीन से
इकट्ठा कर लो—किरणें
तो बरस ही रही
थीं, नीचे
सूखे पत्ते
पड़े थे; जल
नहीं रहे थे।
लेकिन
खुर्दबीन से
किरणें इकट्ठी
हो जाएँ, एकजुट
हो जाएँ और एक
बिंदु पर जाकर
सूखे पत्ते पर
पड़ जाएँ, आग
भभक उठती है।
वे ही किरणें
बिखरी—बिखरी
पड़ती थीं तो
आग नहीं थी; वे ही
किरणें
इकट्ठी होकर
पड़ गयीं तो आग
पैदा हो गयी।
यही
सूत्र है।
जिस
दिन तुम्हारी
याददाश्त एक
के प्रति हो
जाएगी, तुम्हारी
सारी जीवनऊर्जा
इकट्ठी हो
उठेगी। उसी जीवनऊर्जा
के इकट्ठे
होने से
मादकता पैदा
होती है, मस्ती
पैदा होती है,
शराब
निर्मित होती
है, भीतर
की मधुशाला के
द्वार खुलते
हैं। और ऐसा नहीं
है कि तुम्हें
इसका कभी—कभी
अनुभव नहीं
हुआ है—छोटे—छोटे
अनुभव
तुम्हें हुए
हैं, क्षणभंगुर
अनुभव
तुम्हें हुए
हैं। तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गए थे और तब एक
मस्ती की
हल्की झलक आयी
थी। क्या हुआ
था तब? इतना
ही हुआ था—तुम
समझो या न
समझो—हुआ यही
था कि थोड़ी
देर को, कुछ
दिनों को सही—वे
दिन ज्यादा
देर न टिके, वह समय
ज्यादा देर न
रह सका, क्योंकि
तुम्हारा जो
विषय था प्रेम
का वही
क्षणभंगुर था—लेकिन
बात तो यही
घटी थी, विज्ञान
तो यही था। उन
थोड़े दिनों
में तुमने सिवाय
उस स्त्री के
और कुछ भी याद
नहीं किया था।
रात सोते थे
तो उसकी याद
थी, सुबह
उठते थे उसकी
याद थी, रात
सोते—सोते
आखिरी उसकी
याद होती थी, सुबह ऑंख
खुलते ही पहली
उसकी याद होती
थी, हजार
काम में लगा
रहता था मन
लेकिन भीतर
उसकी रसधार
बहती रहती थी,
उसका चेहरा
घूमता रहता था,
कोई और
स्त्री
रास्ते से
गुजरती थी और
तुम्हें उसकी
याद आ जाती थी,
कहीं कोई
गीत गाता था
और तुम्हें
उसकी याद आ जाती
थी—तुम जैसे
याद करने को
तत्पर ही थे, कोई भी बहाना
काफी था—यह
कोयल बोल रही
है और तुम्हें
उसकी याद आ
जाती, और
पपीहा बोलता
और तुम्हें
उसकी याद आ
जाती—ऐसा मत
सोचना कि कोयल
और पपीहे
से कुछ लेना—देना
था, तुम तो
याद से भरे ही
थे, कोई भी
बहाना काफी था,
कोई भी
बहाना
पर्याप्त हो
जाता था; तुम्हारी
याद तो भीतर चल
ही रही थी, ज़रा—सी
चोट और याद
उमग आती थी।
तब तुमने
मस्ती का एक
अनुभव जाना
था। थोड़े दिन
को तुम मस्त
हुए थे।
तुम्हारी चाल
में एक नाच
उतर आया था।
तुम्हारी
वाणी में एक
माधुर्य आ गया
था। तुम्हारी ऑंखों में
एक चमक थी।
तुम्हारे
व्यक्तित्व
में एक आभा आ
गयी थी—टिकनेवाली
आभा नहीं थी, आयी और गयी—लेकिन
सूत्र तो यही
था।
प्रेम
में भक्ति का
ही छोटा—सा
अनुभव होता
है। जो समझ
लेते हैं, वे फिर इस
भक्ति के
अनुभव की
यात्रा पर
प्रेम के
अनुभव से लाभ
उठा लेते हैं।
प्रेम में जो
क्षण—भर को
होता है, भक्ति
में वही
शाश्वत रूप से
हो जाता है।
भेद प्रेम और
भक्ति का इतना
ही है कि प्रेम
का विषय
क्षणभंगुर है—कोई
स्त्री, कोई
पुरुष, कोई
वस्तु—भक्ति
का विषय
शाश्वत है, सनातन है—परमात्मा
है, स्वयं
अस्तित्व है।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या.....
रात हो
कि दिन, अहर्निश,
बस मन एक ही
रस में लग गया
है, एक ही
धुन चढ़ गयी है,
एक ही कड़ी
गुनगुनाता है;
रह—रहकर, रिस—रिसकर
बस उसी—उसी की
याद आ जाती है;
उठता है तो
उसकी याद, बैठता
है तो उसकी
याद, चलता
है तो उसकी
याद; दुनिया
के सब काम भी
होते हैं—करने
ही होते हैं—वे
सब काम चलते
रहते हैं; मगर
भीतर
अंतर्धारा
बहती रहती है।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
हालाँकि
रहना तो बाजार
में ही है—दरीबै
यानी बाजार—डेरा
तो बाजार में
है.....कहीं भी
भाग जाओ, यह
सब बाजार ही
है, यह
सारा संसार
बाजार है—बाजार
का मतलब है, जहाँ चीजें
बिक रही हैं, ली—दी जा रही
हैं; भीड़—भाड़,
शोरगुल, लेन—देन,
छीनाझपटी, स्पर्धा—प्रतिस्पर्धा,
प्रतियोगिता,
संघर्ष, हिंसा,
राजनीति; बाजार का
अर्थ है यह सब
तो हो रहा है—लेकिन
इस बाजार के
बीच में भी
बैठकर भक्त को
एक ही रस लगा
रहता है, उसके
भीतर एक ही
धुन बजती रहती
है।
तुमने
भक्तों के हाथ
में एकतारा
देखा है न! कभी सोचा
वीणा को छोड़कर
एकतारा क्यों
चुना होगा? वह प्रतीक
है एकरस का।
एक ही तार है
उसमें—वीणा
में तो और तार
होते हैं, सारंगी
में और तार
होते हैं, बहुत
तार होते हैं,
वे उस भक्ति
के एकरस के
प्रतीक नहीं
हो सकते। एकतारा,
एक ही तार
है, बस एक
ही धुन बजाता
है, कुछ
नयी धुन उस पर
निकाली नहीं
जा सकती, बस
एक की ही याद
चल रही है—भक्त
के हाथ में ही
एकतारा नहीं
होता, भक्त
का हृदय भी
एकतारा हो गया
होता है।
अहर्निश, अच्छा
हो कि बुरा, जीत हो कि
हार, दिन
हो कि रात, याद
बहती रहती है,
सतत्। और ध्यान
रखना, एक—एक
बूँद भी अगर सतत् पड़ती
रहे तो
चट्टानें टूट
जाती हैं।
रसरी आवत
जात है, सिल
पर परत निसान।
तो अगर एक की
याद चलती रहे,
चलती रहे, चलती रहे, तुम्हें बदल
जाएगी, तुम्हें
मस्त कर
जाएगी।
तुम्हारे हाथ
में मस्त होने
की पूरी—की—पूरी
क्षमता है, लेकिन तुमने
अपनी मस्ती को
खंडों में तोड़
दिया है; विश्रृंखल हो तुम, तुम्हारे
भीतर कोई श्रृंखला
नहीं है, तुम
टुकड़े—टुकड़े
हो गए हो, जैसे
कोई दर्पण को
जमीन पर पटक
दे और हजार
टुकड़े हो जाएँ,
ऐसे तुम हो
गए हो।
तुम्हें
जोड़ा जाना
जरूरी है।
कौन
तुम्हें जोड़ेगा? कैसे तुम जुड़ोगे?
कोई एक ऐसी
चीज चाहिए जो
तुम्हारे सारे
टुकड़ों
के भीतर
अनुस्यूत हो
जाए।
तुम्हारा तन
भी उसे पुकारे,
तुम्हारा
मन भी उसे पुकारे,
तुम्हारे
प्राण भी उसे
पुकारें, तुम्हारा
सब उसे पुकारे।
कोई एक चाहिए
जो तुम्हारे
सब फूलों के
भीतर धागे की
तरह अनुस्यूत
हो जाए, ताकि
तुम माला बन
जाओ। फिर खूब
मस्ती होगी!
मस्ती ही
मस्ती होगी!
इतनी कि तुम बाँटोगे
तो बाँट न
पाओगे!
जब भी
फुरकत की रात
आयी है
मौत
बनकर हयात आयी
है
आए हैं
जब भी लब वो
जुंबिश में
रक्स
में कायनात
आयी है
जिस पै
दिन का गुमान
होता था
एक ऐसी
भी रात आयी है
दुःखते—रिज को
सँभाल पीरे—मुगाँ
मैकशों की
बरात आयी है
दिल
में भी जो कभी
न आयी थी
आज लब
पै वह बात आयी
है
"दुःखते—रिज को
सँभाल पीरे मुगाँ'।
ऐ मदिरालय के
स्वामी!
अपनी मदिरा की
सुराहियों
को सँभाल। "दुःखते—रिज को
सँभाल पीरे—मुगाँ, मैकशों की बरात आयी
है'। पियक्कड़ों
का पूरा समूह
आया है। आज
मधुशाला लुटेगी।
आज खरीद—फरोख्त
नहीं होनवाली
है, आज मधु तौलत्तौलकर
नहीं पिआ
जाएगा—कबीर ने
कहा है, "बिन
तौले'..... तौलना—वौलना
आज नहीं चलेगा.....
"पी गयी मधवा
बिन तौले'। "मैकशों
की बरात आयी
है'।
इन्हीं
मैकशों
की बरात मैं
पैदा कर रहा
हूँ। ये जो
गैरिक वस्त्र
में रंगे हुए
मैकश हैं, इनको ले चल
रहे हैं उस
तरफ जहाँ एक
दिन ये कह सकें—दुःखते—रिज को
सँभाल पीरे—मुगाँ, मैकशों की बरात आयी
है; कि अब
हम आ गए लूटने
तेरी मधुशाला!
और तुम
यह मत सोचना
कि मधुशाला का
मालिक दुःखी
होगा।
मधुशाला का
मालिक बैठा कबसे
प्रतीक्षा कर
रहा है कि तुम
आओ और लूट लो।
उसका मजा
मधुशाला के
लुट जाने में
है। उसका मजा
बाँटने में
है। मगर तुम
ऊर्जा नहीं
इकट्ठी कर
पाते, तुम्हारी
ऊर्जा हजार
दिशाओं में बह
रही है। तुम
एक ऐसे आदमी
हो, जिसका
एक हिस्सा
पश्चिम जा रहा
है, एक
पूरब जा रहा
है, एक
दक्षिण जा रहा
है, एक
उत्तर जा रहा
है। तुम कहाँ
पहुँच पाओगे?
तुम्हारा
हाथ कहीं जा
रहा है, तुम्हारे
पैर कहीं जा
रहे हैं, तुम्हारा
मस्तिष्क
कहीं जा रहा
है, तुम्हारा
हृदय कहीं जा
रहा है—तुम
पहुँच कहाँ
पाओगे? तुम
मधुशाला तक
नहीं पहुँच
पाओगे। इस
जीवन का गुह्यतम
आनंद तुमसे
अपरिचित ही रह
जाएगा।
संतो, मगन भया मन
मेरा।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
फिकर
भी नहीं है
फिर इससे कि
बाजार में
बैठे हैं।
जिसका मन
उसमें लगा है, उसके लिए
कहाँ बाजार? और तुम बैठ
जाओ जाकर
हिमालय की
किसी गुफा में
और मन
तुम्हारा
बजार में लगा
हो, उसके
लिए कहाँ परमात्मा?
तुम हिमालय
की गुफा में
बैठकर भी तो जोड़त्तोड़
कर सकते हो
बाजार का ही, सोच—विचार
बजार का ही।
फिकर तो
तुम्हें वहाँ
भी लगी रहेगी
कि क्या हो
रहा है दुनिया
में। और तुम बजार
में रहकर भी
ऐसे हो सकते
हो कि ज़रा
भी फिकर न हो
कि क्या हो
रहा है दुनिया
में। फिकर हो
यही कि क्या
हो रहा है
मधुशाला में।
क्या हो रहा
है उस अंतर्गृह
में। क्या हो
रहा है वहाँ
जहाँ से सारा
जीवन आया है
और जहाँ सारा
जीवन लौट
जाएगा। क्या
हो रहा है उस मूलस्त्रोत
पर और अंतिम
गंतव्य पर।
कहाँ से उठते
हैं कमल और
सूरज और चाँद
और तारे और
मनुष्य और चेतनाएँ
और फिर कहाँ
खो जाते हैं? उस गहनतम
गहराई में
क्या हो रहा
है, उसमें
एकरस मन लग
जाए।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी...
त्यागनी
ही पड़ती हैं।
ये छोटे—छोटे
हिसाब—किताब
वहाँ नहीं
चलते कि मैं
हिंदू, कि
मैं मुसलमान,
कि मैं
ब्राह्मण, कि
मैं शूद्र, ये मूढ़ताएँ
वहाँ नहीं चलतीं।
"कुल मरजाद मैंड सब
त्यागी,' यह
भी नहीं चलता
कि मैं बड़ा
कुलीन हूँ, कि मैं बड़े
घर से आता हूँ,
कि बड़ी ऊँची
परंपरा से आता
हँ, कि
मेरे पुरखे
बड़े नाम कमा
गए हैं, कि
मैं कोई
साधारण
व्यक्ति नहीं
हूँ, असाधारण
हूँ। "कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी,' मैंड बनाते हैं न
खेत के आसपास
कि यह मेरा
खेत, वह
तेरा खेत; मेरेत्तेरे का जिससे
फासला होता है,
उसका नाम—मैंड। सब
सीमाएँ जो छोड़
देता है, वही
इस मस्ती को
उपलब्ध होता
है। मगर तुम
सीमाएँ पकड़े
हो। और तुम
सीमाओं को जोर
से पकड़े
हो। और तुम
सीमाओं को ऐसे
पकड़े हो
जैसे यह संपदा
है, छूटती
ही नहीं।
कुछ ही
दिन पहले एक
महिला पश्चिम
से आयी। यहाँ
छः महीने से
आकर है। मेरे
पास आने से
डरती रही। फिर
हिम्मत
जुटाकर आयी भी
तो कहा कि मैं
आपके संग—साथ
हो नहीं सकती, क्योंकि मैं
केथॅलिक ईसाई
हूँ। मैं कैसे
आपके संग—साथ
हो सकती हूँ? मैं
क्राइस्ट को
नहीं छोड़
सकती। मैंने
उससे कहा—पागल,
तुझसे कहा
किसने है कि
क्राइस्ट को
छोड़! मुझे छोड़ने
में ही
क्राइस्ट को
छोड़ देगी, मुझे
पकड़ने
में क्राइस्ट
को पा लेगी।
नहीं, लेकिन
वह सुनने को
भी राजी नहीं
थी। उसने सुना
भी नहीं कि मैं
क्या कह रहा
हूँ। वह अपनी
ही कहे गयी कि
यह कभी नहीं
हो सकता। मैं
अपने धर्म को
नहीं छोड़ सकती।
ईसाइयत तो
श्रेष्ठतम
धर्म है।
अब यह
महिला
मधुशाला के
द्वार से ही
लौट जाएगी। यह
कहती है—मैं
भीतर नहीं आ
सकती, क्योंकि
मैं ईसाई हूँ।
जो ईसाई है, वह परमात्मा
में नहीं आ
सकता। और जो
हिंदू है, वह
भी नहीं आ
सकता। और जो
जैन है, वह
भी नहीं आ
सकता। जो
सीमाओं को पकड़े
हुए है, वह
परमात्मा में
नहीं जा सकता।
परमात्मा न हिंदू
है, न
मुसलमान, न
ईसाई।
परमात्मा
असीम है।
और मजा
ऐसा है कि
हिंदुओं के
शास्त्र कहते—परमात्मा
असीम है, और
मुसलमानों के
शास्त्र कहते—परमात्मा
असीम है, मगर
हमने सीमाएँ
बना ली हैं।
हम हर चीज से
सीमा बना लेते
हैं। हम हर
चीज से सीमित
हो जाते हैं।
हमें
कारागृहों से
कुछ ऐसा मोह
है, हमें जंजीरों
से कुछ ऐसा
लगाव है, हम
जंजीरों
को आभूषण
समझते हैं और
हम उनको खूब
सजा लेते हैं।
सोने की बना
ली हैं
जंजीरें और उन
पर बहुमूल्य
हीरे जड़ लिए
हैं, अब
उनको छोड़ें भी
तो कैसे छोड़ें,
जीवन—भर तो
उन पर बरबाद
कर दिया है।
हम कहते हैं
कि नहीं—नहीं,
ये जंजीरें
नहीं हैं, ये
मेरी सीमा
नहीं हैं, यह
मेरा सत्व है।
ब्राह्मण
मेरा सत्व है,
शूद्र मेरा
सत्व है, यह
मेरी सीमा
नहीं है। फिर
सीमा और क्या
होती?
आदमी
पर सीमाएँ
क्या हैं? यही क्षुद्र
बातें। इन
सारी क्षुद्रताओं
को जो गिरा
देता है, उसने
सीमाएँ गिरा
दीं। और जिसने
सीमाएँ गिरा दीं,
उसने घोषणा
की कि
परमात्मा
असीम है।
शास्त्र में
लिखने से कुछ
भी न होगा, तुम्हारे
अस्तित्व से
घोषणा होनी
चाहिए।
"कुल मरजाद मैंड सब
त्यागी'।
रज्जब तो
मुसलमान थे।
और दादू के
चक्कर में आ
गए! दादू
तो हिंदू थे।
एक क्षण को भी
न सोचा कि मैं मुसलमान
हूँ और दादू
हिंदू। दादू
ने आकर बीच में
घोड़ा पकड़ लिया, बरात जा रही
है रज्जब की
और कहा—रज्जब
तैं गज्जब
किया सिर से
बाँधा मौर, आए थे
हरिभजन को चले
नरक की ठौर।
वे जलती दो ऑंखें,
वह सन्नाटा—बैंडबाजे
रुक गए होंगे,
बरात ठहर
गयी होगी, सहम
गयी होगी कि
अब क्या होता
है— और रज्जब
कूद पड़ा घोड़े
से, चरणों
में गिर पड़ा।
फिर उसने यह न
कहा कि तुम हिंदू,
मैं मुसलमान।
निश्चित ही
मुसलमान
नाराज हुए
होंगे। और कोई
ऐसा—वैसा
मुसलमान नहीं
था, शुद्ध
पठान था।
कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी, बैठा भाठी
नेरा।
भाठी
यानी जहाँ
शराब ढाली
जाती है—भट्ठी।
सद्गुरु के
पास होना भाठी
के पास बैठना
है। कुल मरजाद
मैंड सब
त्यागी, बैठा
भाठी नेरा।
दुनिया हँसी
होगी कि हुआ
पागल, वह
दादू तो पागल
था ही, यह
रज्जब भी पागल
हुआ। मुसलमान
निश्चित नाराज
हुए होंगे.....तुम
पूछ सकते हो
कृष्ण
मुहम्मद से, तुम पूछ
सकते हो राधा
मुहम्मद से, मुसलमान
नाराज हैं।
मेरे पास ईसाई
आकर डूब जाते
हैं रंग में, ईसाई नाराज
हैं।
कल एक
युवती ने
मुझसे कहा कि
आपको पता है, एक ईसाई
मिशनरी ने
नेपाल में
मुझसे कहा—और
सब जगह जाना
अगर
हिंदुस्तान
जा रही हो, पूना
मत जाना।
क्योंकि यह
व्यक्ति जो
पूना में बैठा
है, शैतान
का अवतार है।
पूना ही आने
को उत्सुक थी युवती,
वह भी घबड़ा
गयी—बचपन के
संस्कार, और
उस पादरी ने
बाइबिल भी
खोलकर उसको
दिखायी कि देख
बाइबिल में
क्या लिखा है?
और बाइबिल
के पन्ने को
जो उसने
दिखाया, उस
पर लिखा है
जीसस का वचन
कि एक ऐसा
व्यक्ति आएगा
जो बहुत
बुद्धिमान
होगा और लोगों
को भटकाएगा।
उसने कहा कि
यही व्यक्ति
है पूना में।
स्वाभाविक।
ईसाई
नाराज होंगे, यहूदी नाराज
होंगे, जैन
नाराज होंगे,
बौद्ध
नाराज होंगे।
और मजा यह कि
मैं जो कह रहा
हूँ, बुद्ध
की बात; जो
कह रहा हूँ, वह महावीर
की बात; जो
कह रहा हूँ, वह कृष्ण की
बात, मुहम्मद
की बात; और
सब उनके मानने
वाले नाराज
होंगे। उनकी
नाराजगी क्या
है? उनकी
नाराजगी यही
है कि मैं
सीमाएँ तोड़
रहा हूँ। सब
अस्त—व्यस्त
किए दे रहा
हूँ, अराजकता
ला रहा हूँ।
"कुल मरजाद मैंड सब
त्यागी, बैठा
भाठी नेरा'।
और निश्चित ही
लोग तुमसे
कहेंगे कि तुम
अब पागल हो गए,
अब तुम होश
में नहीं हो, यह किस
मस्ती में चल
रहे हो? कोई
शराब पी ली है
क्या? शराब
ही है! और
मस्ती पैदा
होगी ही! और
मस्ती का सारा—का—सारा
स्त्रोत
तुम्हारे
भीतर है। बाहर
तो केवल उपकरण
मात्र हैं, जिनसे भीतर
सोयी हुई
मस्ती जाग
जाती है। सूरज
जब सुबह
निकलता है तो
कोई फूलों को
गंध थोड़े ही
देता है, गंध
तो फूलों में
ही पड़ी है, लेकिन
सूरज का इशारा
पाकर कलियाँ
खिल जाती हैं,
गंध मुक्त
हो जाती हैं।
गंध तो कलियों
में ही दबी थी,
सूरज का
इशारा पाकर कलियाँ
खुल जाती हैं,
सूरज का
सहारा पाकर कलियाँ
खुल जाती हैं,
सूरज का
आश्वासन पाकर कलियाँ
खुल जाती हैं,
हिम्मत
पाकर कलियाँ
खुल जाती हैं,
अंधेरे में
डरती थीं, खुलना
कि नहीं खुलना,
सूरज की
रोशनी में
निर्भय हो
जाती हैं, खुल
जाती हैं, खुलते
ही गंध—मुक्त
हो जाती हैं।
शायद कलियाँ
भी सोचती
होंगी—सूरज ने
गंध दे दी।
स्वाभाविक
तर्क है। सूरज
ने कुछ भी
नहीं दिया।
सूरज की
मौजूदगी काफी
थी।
सद्गुरु
की मौजूदगी ही
पर्याप्त है।
उसकी भट्ठी के
पास बैठते ही
तुम्हारे
भीतर की शराब निचुड़ने
लगती है।
सद्गुरु
सिर्फ भट्ठी
है—बैठा भाठी
नेरा। और इस
भांति बैठा
रज्जब, बहुत
कम लोग बैठते
हैं—सच्चा
पठान था। पठान
था सो ही इस
तरह बैठा। फिर
दादू का साथ न
छोड़ा। फिर जब
तक दादू जिंदा
रहे, बैठा
ही रहा उनके
पास। और जब
दादू मर गए, तो उसने ऑंख
बंद कर लीं, उसने कहा कि
अब ऑंख
नहीं खोलूँगा,
क्योंकि
देखने—योग्य
जो था उसे देख
लिया जिसके
दर्शन करने—योग्य
थे, हो गए
दर्शन, अब
इस संसार में
कुछ भी नहीं
है। फिर
वर्षों जिंदा
रहा, ऑंखें थीं लेकिन
अंधे की तरह
जिंदा रहा। इन
ऑंखों से
अब और क्या
देखना जिन ऑंखों
से दादू जैसा
आदमी देख लिया
हो। अब यह
दगाबाजी होगी,
अब यह
गद्दारी
होगी। अब इन ऑंखों से
और क्या
देखना! परम
शिखर देख लिया,
अब छोटी—मोटी
पहाड़ियाँ
क्या देखना!
सौंदर्य का
आत्यंतिक
आविर्भाव देख
लिया, अब छोटे—मोटे
सौंदर्य की
क्या तलाश
करनी! फिर
दादू के मर
जाने के बाद
रज्जब ने ऑंखें
नहीं खोलीं—सच्चा
पठान था।
इसीलिए तोड़
सका मर्यादा—कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी
बैठा भाठी
नेरा।
"जात—पाँत
कछु समझौ
नाहीं'।
शराब की मस्ती
में कहाँ जात—पाँत!
जात—पाँत
मंदिरों में
होती है, मधुशाला
में नहीं
होती। इसलिए
मंदिर—मस्जिद
तो लड़वा
देते हैं, "एक
कराती
मधुशाला'।
खयाल रखना, इसलिए मैंने
कहा—यह कोई
मंदिर नहीं है,
यह मधुशाला
है। जिनको
भाठी के निकट
बैठने की हिम्मत
हो, वे ही
यहाँ
निमंत्रित
हैं। "जात—पाँत
कछु समझौ
नाहीं, किसकूँ करै परेरा'। किसको
कहूँ पराया? सब अपने
हैं। क्योंकि
जिसने भीतर
उसको जाना, उसे बाहर भी
वही दिखायी
पड़ता है, उसके
अतिरिक्त फिर
कुछ दिखायी
नहीं पड़ता। परमात्मा
जो दिखायी पड़ा,
तो सभी परमात्मामय
हो जाता है।
"रस
की प्यास आस
नहीं औरां'.....
यह
सूत्र खूब
समझने जैसा है—
"रस
की प्यास आस
नहिं औरां,
इहि मत किया
बसेरा'।
और खूब
समझ लिया है
जीवन जन्मों—जन्मों
के अनुभव से
कि जब तक
दूसरों से
आनंद की आशा
रखी, तब तक
दुःख पाया।
"रस की प्यास
आस नहिं औरां'। औरों के
आसरे पूरी
नहीं हुई।
पत्नी से
माँगा, पति
से माँगा, बेटे
से माँगा, भाई
से माँगा, मित्र
से माँगा, धन
से, पद से, प्रतिष्ठा
से, माँगते
ही रहे—जब तक
तुम्हारे
जीवन में
संन्यास का
कमल नहीं खिलता
तब तक तुम
भिखारी ही रहे
हो—फिर चाहे
गरीब भिखारी
होओ, चाहे
अमीर भिखारी,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता—तब तक
तुम माँगते ही
रहे हो; तब
तक माँगने में
ही तुम्हारा
भरोसा रहा है।
औरों की आस।
कोई दे देगा। किसी
से मिल जाएगा।
थोड़ा और बड़ा
मकान बन जाए तो
सब ठीक हो
जाएगा। थोड़ी
और बड़ी कार आ
जाए तो सब ठीक
हो जाएगा।
बैंक में थोड़ा
पैसा और जमा
हो जाए तो फिर
क्या अड़चन है?
सब ठीक ही
हुआ है, बस
अब हुआ ही
जाता है—यह
स्त्री मिल जाए,
यह पुरुष
मिल जाए, एक
बेटा पैदा हो
जाए, सब
ठीक हुआ जाता
है। कब ठीक
हुआ है? यहाँ
कुछ भी ठीक
नहीं होता।
यहाँ ठीक होने
का उपाय ही
नहीं। संसार
आश्वासन देता
है, पूरे
नहीं करता।
परमात्मा कोई
आश्वासन नहीं देता
और पूरा करता
है।
"रस की प्यास
आस नहिं औरां'। रस की
प्यास तो भीतर
है.....अब यह रस की
प्यास दो दिशाएँ
ले सकती है—या
तो औरों की आस
करो, जो कि
संसार है; औरों
की आस यानी
संसार। माँगो!
माँगने से
कहीं आनंद
मिलेगा? और
जो माँगने से
मिलता है, वह
आनंद होगा? "बिन
माँगे मोती मिलै, माँगे
मिलै न
चून'।
माँगने से
साम्राज्य
मिलते हैं? भीख मिल जाए,
भोजन मिल
जाए, वस्त्र
मिल जाए, साम्राज्य
नहीं मिलते
माँगने से।
नहीं तो भिखमंगे
सम्राट हो
जाएँ। उल्टी
है स्थिति।
देने से भले
मिल जाए
साम्राज्य, माँगने से
नहीं मिलता।
इसीलिए तो
हमने महावीर
को तब स्वीकारा
जब भिखारी हो
गए। बुद्ध ने
जब साम्राज्य
छोड़ दिया और भिक्षापात्र
हाथ में ले
लिया, तब
हम उनके चरणों
में झुक गए, बड़ी हैरानी
की बात है।
पहले झुकना था,
जब बड़ा
साम्राज्य
था।
हमारी
पहचान कुछ और
हमारा तराजू
कुछ और कहता है।
हमारा तराजू
यह कहता है—जब
सब था, साम्राज्य
था, तब यह
आदमी भिखारी
था। अब जब कुछ
नहीं रहा, तब
यह आदमी
सम्राट हो
गया। जन्मों—जन्मों
की निरंतर खोज
के बाद हमने
यह तराजू खोजा,
यह मापदंड
निर्मित
किया।
"रस
की प्यास आस
नहिं औरां'। रस की
प्यास भीतर है,
यह सच्चाई
है, यह
मनुष्य का
यथार्थ है। अब
इसके दो उपाय
हो सकते हैं।
इस रस की
प्यास को
मानकर औरों के
सामने भिक्षापात्र
लेकर घूमते
रहें, तो
संसार। और
दूसरा उपाय यह
है—जहाँ से यह
रस की प्यास
उठ रही है, उस
प्यास में ही
उतरें, और
गहरा उतरें, खोज करें
कहाँ से यह
प्यास आती है,
इस प्यास का
मूल उद्गम
मेरे भीतर
कहाँ है? और
तुम चकित हो
जाओगे, जो
इस प्यास के
भीतर उतरता है,
वह
प्राप्ति को
उपलब्ध हो
जाता है। इसी
प्यास में
परमात्मा
छिपा है। इस
प्यास की
मानकर औरों की
आस में नहीं
निकल जाना है,
यह प्यास
तुम्हें भीतर
बुला रही है।
तुम गलत समझते
हो। यह प्यास
कह रही है—भीतर
आओ, यहाँ सरावेर
है। यह प्यास
तो सिर्फ
तुम्हें
उकसावा है सरोवर
की तरफ आने
का। यह
परमात्मा का
हाथ है जो तुम्हें
भीतर खींचना
चाहता है। तुम
सोचते हो कोई
तुम्हें बाहर
खींच रहा है, तुम चले
तलाश में! यह
परमात्मा की
पुकार है। परमात्मा
कह रहा है—कहाँ
खो गए हो? कहाँ
छिप गए हो? मैं
तुम्हारी
प्रतीक्षा
में रत हूँ, मैं तुम्हें
पुकारता हूँ।
रस
की प्यास आस
नहिं औरां, इहि मत किया
बसेरा।
बस इसी
मत में बसेरा
क्या कर लिया, सब पा लिया।
यही बात गुरु
ने समझा दी।
एक बात समझ दी
कि जिसे तुम
खोजने चले हो,
वह भीतर है।
और तुम बाहर
खोज रहे हो, इसलिए खोज
पूरी नहीं
होती, कभी
नहीं होती।
राबिया
अपने घर के
बाहर झोपड़े
के सामने साँझ
को कुछ खोजती
है—एक सूफी
फकीर औरत। पास—पड़ोस
के दो—चार लोग
निकलकर आए
बूढ़ी की
सहायता करने, पूछा— क्या
खो गया? उसने
कहा—मेरी सुई
गिर गयी है।
कपड़े सीकर
अपना काम चलाती
है। बूढ़ी हो
गयी है। वे भी
सुई खोजने
लगे। उनमें से
एक ने कहा कि
साँझ हो रही
है, सूरज
ढला जा रहा है,
तेरी सुई
गिरी कहाँ, ठीक—ठीक जगह
बता, रास्ता
बड़ा है, ऐसे
खोजते कहाँ
मिलेगी? उसने
कहा—यह तो
पूछो ही मत कि
कहाँ गिरी, क्योंकि
गिरी तो घर के
भीतर है। वे
खड़े हो गए, उन्होंने
कहा, तू
पागल है और
तेरे साथ हमें
भी पागल बना
रही है। अगर
घर के भीतर
गिरी, तो
बाहर क्यों
खोजती है? उसने
कहा—घर में
चूँकि अंधेरा
है; साँझ
हो गयी, घर
में रोशनी
नहीं है, मैं
बूढ़ी हूँ, वैसे
ही मुझे
मुश्किल से
दिखायी पड़ता
है, बाहर
थोड़ी रोशनी है,
इसलिए बाहर
खोज रही हूँ।
भीतर तो अंधेरा
है। गरीब हूँ,
दिया जलाने
का उपाय भी
नहीं है। भीतर
कैसे खोजूँ?
और —फिर यही
तो संसार की
रीति भी है—खोए
भीतर, खोजो
बाहर।
राबिया
मजाक उड़ा रही
थी उन पड़ोसियों
का। या मजाक
से उनको कुछ
इशारा दे रही
थी, कि यही तो
संसार की रीति
भी है—खोए
भीतर, खोजो
बाहर; सो
मैंने सोचा
इसी तर्क का
अनुसरण करना
चाहिए। तुम
अगर मुझे पागल
कहते हो, तो
सोचो तुम क्या
कर रहे हो? प्यास
है भीतर, प्रश्न
है भीतर, सदियों—सदियों
का सार—निचोड़
यह है संतो का
कि उत्तर की
तलाश मत करो, जहाँ से
प्रश्न उतर
रहा है उसी
प्रश्न की
गहराई में उतर
जाओ, प्रश्न
को कुऑं
समझ लो, उसकी
गहराई में
उतरो, और खोदो, और
खोदो, और
खोदो, और
तुम चकित हो
जाओगे—प्रश्न
के केंद्र पर
पहुँचते ही
उत्तर है। और प्यास
के केंद्र पर
पहुँचते ही
परमात्मा है।
"रस
की प्यास आस
नहिं औरां,
इहि मत किया
बसेरा'। बस
इस मत में
क्या ठहरे कि
सब ठहर गया। ज्यूँ का त्यूँ
ठहराया।
"ल्याव ल्याव ऐही
लय लागी'।
और अब जब से
भीतर का रहस्य
पता चल गया है,
तो अब किसीसे
माँगने का
सवाल ही नहीं
है, अब तो
भीतर ही बुला
लेते हैं, अब
तो भीतर ही कह
रहे हैं—ल्याव
ल्याव ऐही लय
लागी, पीवै फूल घनेरा।
फूल राजस्थान
में देशी शराब
का नाम है।
ठर्रा। घर में
ढाली शराब।
कड़ी देशी
शराब। ज़रा—सी
पी लो कि डूब
जाओ। प्यारा
नाम दिया—फूल।
भीतर भी ऐसी
शराब ढाली
जाती है—देशी—अपने
ही भीतर ढाली
जाती है, स्वदेश
में, इसलिए
देशी। बाहर
नहीं ढाली
जाती, किन्हीं
यंत्रों की
सहायता नहीं
लेनी पड़ती, खुद का
अस्तित्व
काफी है; मगर
बड़ी कड़ी शराब
है, एक बार
चढ़ गयी तो फिर
उतरती नहीं, इसलिए
ठर्रा! बड़ी
कड़ी शराब है, एक दफे चढ़
गयी तो फिर
उतरती नहीं।
उतर जाए जो शराब,
वह भी कोई
शराब है! शराब
का बहाना
होगी। जाननेवाले
उसको पीते हैं
जो उतरती ही
नहीं।
और मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूँ कि
जो लोग साधारण
शराब को पीते
हैं, वे भी
बेचारे उसी
शराब की आशा
में पी रहे
हैं; आशा
उसी की है, बाहर
खोज रहे हैं।
रस की प्यास
आस नहिं औरां।
अभी उनकी औरों
की आस नहीं
मिटी। खोज तो
हम परमात्मा
की ही शराब
रहे हैं। खोज
तो हम मस्ती रहे
हैं। मगर मिलती
नहीं, पता
नहीं कहाँ है,
तो बाहर
तलाशते हैं!
उसी तलाश में
हम बाहर की मधुशालाओं
में पहुँच
जाते हैं।
वहाँ थोड़ी देर
को मिलती है, घड़ी—दो—घड़ी
को आदमी मस्त
हो जाता है, नाच लेता है,
गा लेता है,
सारी
चिंताओं से
निर्भार हो
जाता है, कोई
फिकर—फाँटा
नहीं रह जाता,
कोई भीड़—भाड़
नहीं रह जाती,
सब भूल जाता
है। मगर उतर
जाएगा यह नशा।
यह रासायनिक
नशा है, आध्यात्मिक
नहीं।
फूल
नाम प्यारा
है। तुम्हारे
भीतर एक ऐसा
फूल खिलता है, जो कभी
कुम्हलाता
नहीं—तुम्हारी
चेतना का फूल।
तुम्हारी
चेतना की आत्यंतिक
सुगंध। फिर जो
मस्ती छाती है,
वह शाश्वत
है, सनातन
है, समयातीत है!
रस
की प्यास आस
नहिं औरां, इहि मत किया
बसेरा।
ल्याव ल्याव ऐही
लय लागी, पीवै फूल
घनेरा।।
सो
रस माँग्या
मिलै न
काहू...
यह रस किसीको
माँगने से कभी
नहीं मिला है।
..... सिर
साटे
बहुतेरा।
जिन्हें
चाहिए हो, उन्हें अपना
सिर कटवाना
पड़ता है; उन्हें
अपने सिर से
कीमत चुकानी
पड़ती है।
सिर दो
बातों का
प्रतीक है। एक
तो अहंकार का।
इसलिए हम कहते
हैं—उसने उसका
सिर झुका
दिया। इसलिए
जब हम किसी को
सम्मान करते
हैं तो उसके
सामने सिर
झुकाते हैं।
एक तो सिर
प्रतीक है
अहंकार का, अस्मिता का,
मैं—भाव का।
इसको गँवाना
पड़ेगा। नहीं
तो तुम मस्त न
हो सकोगे।
"मैं' तुम्हें
मस्त न होने
देगा। "मैं' विघ्न खड़े
करता रहेगा, "मैं' चिंताएँ
बनाता रहेगा।
"मैं' चिंताओं
का मूलस्त्रोत
है। "मैं' ही
विक्षिप्तता
है, तनाव
है, विषाद
है, संताप
है। "मैं' नरक
है। तो एक तो
यह "मैं' जाना
चाहिए।
और फिर
सिर विचार का
भी प्रतीक है।
सोच—विचार का, बुद्धिमानी
का। यह
बुद्धिमानी
भी काम न आएगी—बुद्धिमान
मस्त नहीं हो
पाते। मस्त
होने के लिए
थोड़ा बालक
जैसा भोलापन
चाहिए।
बुद्धिमान तो
चालाक हो जाते
हैं। गणित में
निष्णात हो जाते
हैं, चतुर
हो जाते हैं, चालबाज हो
जाते हैं, बेईमान
हो जाते हैं, उनका भोलापन
खो जाता है, वे परमात्मा
के साथ भी
चालबाजी करने
लगते हैं, वे
परमात्मा को
भी धोखा देने
के आयोजन
बिठाने लगते
हैं, वे
संसार के नियम
को ही नहीं
तोड़ते अपनी चालबाजियों
से, वे
सोचते हैं कि
परमात्मा के
नियम को भी
तोड़ लेंगे, कोई उपाय
खोज लेंगे।
इन्हीं चालबाजों
ने दुनिया के
सारे तरह के
धर्म निर्मित
किए हैं। पाप
करते हो, चालबाज
कहता है—घबड़ाओ
मत, गंगास्नान
कर आओ। यह
चालबाजी है।
यह चतुर आदमी
का उपाय है।
वह कहता है—क्या
घबड़ा रहे हो, गंगास्नान
कर आओ, सब
ठीक हो जाएगा।
किसको
धोखा दे रहे
हो? परमात्मा
को भी धोखा
देने चले हो!
पाप तुम करो, गंगा धोए।
गंगा के कौन
धोएगा? गंगा
मुफ्त में
मारी जाएगी!
और अगर इतना
सस्ता है
मामला कि पाप
गंगा में
नहाने से धुल
जाते हैं, तो
पाप का कोई
मूल्य ही नहीं
रहा फिर गंगा
ही क्या जाना,
फिर पूना की
नदी में भी
धुल जाएँगे—सब
नदियाँ
उसकी हैं। फिर
जो और होशियार
हैं, वे
कहते हैं—"मन
चंगा, तो
कठौती में
गंगा'।
कहाँ जा रहे
हो? यहीं नहा—धो लिए,
पूजा—पाठ कर
लिए, घंटी
इत्यादि बजा
दी।
तुमने
भगवान को समझा
क्या है! बैठे
घंटी बजा रहे
हो! दो फूल चढ़ा
दिए! थोड़ा चंदन—मंदन
लगा दिया!
तुम्हारी
स्तुति एक तरह
की खुशामद है।
तुमने
आदमियों की खुशामदें
की हैं, तुम
सोचते हो इसी
भाँति
परमात्मा की
खुशामद भी कर
लेंगे।
आदमियों को
राजी कर लिया
है—दिल्ली चले
जाते हो, राजनेताओं
की खुशामद कर
लेते हो, लाइसेंस
मिल जाता है, सोचते हो परमात्मा
की भी खुशामद
करेंगे, तो
लाइसेंस मिल
जाएँगे, तो
स्वर्ग में, तो मोक्ष
में प्रवेश हो
जाएगा। तुम
रोज सुबह बैठकर
जब पूजा करते
हो तो क्या
करते हो? खुशामद
ही तो करते हो
न! संस्कृत
शब्द ठीक है उसके
लिए—स्तुति।
स्तुति
का मतलब
खुशामद होता
है। प्रशंसा
कर रहे हैं, झूठी। कह
रहे हैं कुछ, मानते कुछ
और हैं। जब
तुम कहते हो
कि मैं तो दीन—हीन
हूँ, तू
पतित—पावन है,
सच में तुम
ऐसा मानते हो?
कोई अगर
अखबार में छाप
दे कि यह
सज्जन दीन—हीन
हैं, तो
तुम अदालत में
मुकदमा
चलाओगे।
ऐसा
हुआ।
टालस्टाय
सुबह—सुबह
चर्च गया, अंधेरा था
अभी और गाँव
का सबसे बड़ा
धनी आदमी
प्रार्थना कर रहा
था। उसने अंधेरे
में देखा नहीं
कि टालस्टाय
भी खड़ा हुआ
है। वह प्रार्थना
कर रहा था—हे प्रभो, मैं
महापापी हूँ,
देख मैंने
कैसे—कैसे पाप
किए और बढ़ा—चढ़ाकर
पाप गिना रहा
था। क्योंकि
ईसाइयत में
बढ़ा—चढ़ाकर
पाप गिनाने को
बड़ा पुण्य
समझा जाता है—उसका
नाम "कन्फेसन'। और जब "कन्फेसन'
ही कर रहे
हो तो छोटे—मोटे
का क्या करना,
आदमी तो
आदमी ही है न!
हर चीज को बड़ा
कर लेता है। तभी
तो अहंकार का
मजा है! अब तुम
गए और बोले कि
बड़ा पाप किया,
एक चींटी
मार डाली। तो
परमात्मा भी
कहेगा—क्या
सुबह—सुबह
मुझको जगाया!
अरे, कुछ
बड़ा करते, जब
कुछ किया ही
था! तो मारी हो
चींटी तो भी
हाथी बताते
हो।
तो बढ़ा—चढ़ाकर कह
रहा था कि ऐसे
पाप किए, वैसे
पाप किए।
टालस्टाय ने
सब सुन लिया, फिर सुबह
होने लगी, उस
आदमी ने जब
प्रार्थना
पूरी की और
लौटकर देखा तो
वह बड़ा दिक्कत
में पड़ गया कि
टालस्टाय खड़ा
है। वह
टालस्टाय के
पास आया और
उसने कहा कि
क्षमा करना, मैंने जो
प्रार्थना की
है यह मानकर
की है कि यहाँ
कोई मौजूद
नहीं था। अगर
तुमने सुन ली
हो, तो
अनसुनी कर दो।
अगर मैंने
कहीं यह बात
सुनी गाँव में
किसी के मुँह,
तो मैं
मानहानि का
मुकदमा
चलाऊँगा। यह
आदमी तत्क्षण
बदल गया। यह
परमात्मा को
धोखा दे रहा
था। यह
चालबाजी कर
रहा था।
सो
रस माँग्या
मिलै न
काहू, सिर
साटे
बहुतेरा।
चालबाजी
खो दोगे तो
बहुत मिलेगा।
बहुतेरा! ऐसा
बरसेगा कि पी
न सकोगे। भर
लोगे तो ऊपर
से बहेगा।
तुम्हारे सब
पात्र छोटे पड़
जाएँगे। अनंत
बरसेगा।
लेकिन यह
चालबाजी हो तो
नहीं बरसेगा।
हर कली
मस्ते—ख्वाब
हो जाती
पत्ती—पत्ती
गुलाब हो जाती
तूने
डाली न मै—फशाँ
नज़रें
वर्ना
शबनम शराब हो
जाती
उसकी ऑंख तुम पर
पड़े, तो शबनम
शराब हो जाए।
हर कली
मस्ते—ख्वाब
हो जाती
पत्ती—पत्ती
गुलाब हो जाती
तूने
डाली न मै—फशां
नजरें .....
तेरी ऑंख, जिसके
पड़ जाने से ही
शराब पैदा हो
जाती है, मस्ती
आ जाती है, तूने
वह ऑंख ही
हम पर न डाली.....
वर्ना
शबनम शराब हो
जाती
मगर ऑंख तो वह
सदा डाल रहा
है। तुम उसकी ऑंख से एक
क्षण को भी
दूर नहीं हो।
परमात्मा
तुम्हारा
प्रतिक्षण
साक्षी है।
सारे संसार के
शास्त्र कहते
हैं कि
परमात्मा
प्रतिक्षण
साक्षी है, तुम्हें देख
रहा है, उसकी
ऑंख तुम
पर पड़ ही रही
है, मगर
तुमने ऑंख
बंद कर रखी है,
तुम उसकी ऑंख नहीं
देख रहे; तुम्हारी
चालबाजी, तुम्हारी
होशियारी, तुम्हारी
ऑंख पर
पर्दा हो गयी
है। मैं तुमसे
कहता हूँ दोहराकर—परमात्मा
पर कोई पर्दा
नहीं है, पर्दा
तुम्हारी ऑंख
पर है। हटाओ
यह पर्दा।
परमात्मा पर
कोई पर्दा
नहीं है, पर्दा
तुम्हारी
बुद्धिमानी
में है। सरल
बनो, सहज
बनो, भोले—भाले,
छोटे बच्चे
की भाँति और
तत्क्षण तुम
पाओगे—वह सदा
से उपलब्ध था,
तुम्हीं
अपने हाथ से
अनुपलब्ध हो
गए थे। तुमने
ही उसके हाथ
से अपना हाथ छुड़ा लिया
था; उसका
हाथ तो बढ़ा ही
रहा था, प्रतीक्षा
ही करता रहा
था, लेकिन
तुम्हीं हाथ छुड़ा भागे
थे।
कौन
सुलगते ऑंसू
रोके, आग के
टुकड़े कौन चबाए
ओ हमको
समझाने वाले!
कोई तुझे
क्यों कर
समझाए?
जीवन
के अंधियारे
पथ पर, जिसने
तेरा साथ दिया
था
देख
कहीं वह कोमल
आशा, ऑंसू बनकर टूट न
जाए
इस
दुनिया के
रहने वाले, अपना—अपना
गम खाते हैं
कौन
पराया रोग
खरीदे? कौन
पराया दुख
अपनाए?
हाय
मेरी मायूस उमीदें!
हाय मेरे
नाकाम इरादे
मरने
की तदबीर न
सूझी जीने के
अंदाज न आए
प्रेम
की ऍ?धियारी राहों में, अक्ल का
दीपक जल न
सकेगा
ऐ फरजानो!
ऐ फरजानो!
होश से कह दो
होश में आए
ऐ समझदारो!
ऐ फरजानो!
ऐ बुद्धिमानो!
ऐ फरजानो!
ऐ फरजानो!
होश से कह दो
होश में आए
प्रेम
की ऍ?धियारी राहों में, अक्ल का
दीपक जल न
सकेगा
वहाँ
तो प्रेम का
दीया ही
जलेगा। और
प्रेम तो हृदय
की बात है, मस्तिष्क की
नहीं। उतरो
सिर से हृदय
की तरफ; यही
अर्थ है सिर
को गँवाने का।
यही अर्थ है
सिर कटाने का।
सो
रस माँग्या
मिलै न
काहू, सिर
साटे
बहुतेरा।
जन
रज्जब तन मन
दे लीया.....
सब दे
दिया, तब
मिला। रज्जब
को मिला, लेकिन
सब देकर मिला।
कुछ बचाया
नहीं, कुछ
होशियारी न
की।
..... होइ
धनी का चेरा।।
कैसे
खोया यह सब? कहाँ खोया
यह सब? क्योंकि
यह खोने पर
परमात्मा
मिलेगा, तो
तुम यह
परमात्मा के
सामने तो खो
ही नहीं सकते
क्योंकि
परमात्मा तो
खोने पर
मिलेगा।
इस बात
को ठीक से समझ
लेना।
परमात्मा
खोने पर
मिलेगा, तो
तुम यह
परमात्मा के
सामने तो खो
ही नहीं सकते,
यह तो पक्का
हो गया—क्योंकि
वह तो मिलेगा
ही तब, जब
तुम खो दोगे।
तो कहीं खोजना
पड़ेगा कोई धनी,
दादू दयाल
मिल गए, धनी
थे—ठीक शब्द
प्रयोग किया
है धनी का, ऐसे
ही लोगों के
पास धन है; जिनके
पास आत्मा है,
उनके पास धन
है। संतों की
भाषा में धन
का अर्थ होता
है—आत्मा।
निर्धन का
अर्थ होता है—आत्महीन।
धन का अर्थ
होता है—परमात्मा
जिसको मिल
गया। वही तो
धन है। उसको जिसने
नहीं पाया वह
निर्धन है।
जन
रज्जब तनमन दे
लीया, होइ धनी का
चेरा।।
दादू
दयाल के चरणों
में सब रख
दिया। रखा था
दादू दयाल के
चरणों में, पहुँच गया
परमात्मा के
चरणों में। सब
उसी के चरणों
में पहुँच
जाता है, छोड़ो
भर। लेकिन
एकदम से उसके
चरणों में न
छोड़ सकोगे
क्योंकि उसके
चरणों का अभी
कुछ पता नहीं
है। तुम्हें
कहीं कोई ऐसे
चरण मिल जाएँ
जो इतना भरोसा
तुममें जगा
दें कि वहाँ
तुम अपना सिर
झुका सको, तो
बस हो गयी बात,
धनी के चेरे
हुए, यात्रा
शुरू हुई—गुरु
से शुरू होती
है, परमात्मा
पर पूर्ण होती
है। गुरु
परमात्मा का
पहला अनुभव है,
परमात्मा
गुरु का अंतिम
अनुभव है।
प्राणपति
न आए हो, बिरहिण अति बेहाल।
और जब
तक इस धन की
वर्षा न हो, तब तक तो बड़ी
बेचैनी है, बड़ी बेहाली
है। प्राणपति
न आए हो, बिरहिण अति बेहाल।
अभी रज्जब ने
पा लेने के
बाद की बात
कही, अब
तुमसे कहते
हैं तुम्हारी
दशा पा लेने
के पहले की।
अभी—अभी अपनी
बात कही, अब
तुम्हारी बात
कहते हैं—
प्राणपति
न आए हो, बिरहिण अति बेहाल।
बिन
देखे अब जीव जातु है, विलंब न कीजै
लाल।।
और
परमात्मा को
बिना देखे मर
गए तो बिना
जिए मर गए। और
क्या भरोसा? अभी जाए, कभी
चला जाए, क्षण
भर का भी कोई
भरोसा नहीं
है। यह आखिरी
क्षण हो, कौन
जाने! यह साँस
जो बाहर गयी, भीतर न आए।
बिन देखे अब
जीव जातु
है, विलंब
न कीजै
लाल।
जिसको
आज़ाद
होके मौत आयी
उन असीरों की
याद आएगी
बंदी
तो वे ही
सौभाग्यशाली
हैं, जो मरने
के पहले मुक्त
हो गए। "जिसको
आजाद होके मौत
आयी,' मरने
के पहले जो
आजाद होकर मरा,
मरने के
पहले जिसने
स्वतंत्रता
को जान लिया
धनी हो गया—आत्मा
को पहचान
लिया।
जिसको
आजाद होके मौत
आयी
उन असीरों की
याद आएगी
उन
बंदियों की
याद आएगी। वे
ही कुछ लेकर
मरे। ऐसे ही
बंदियों की तो
हम याद करते
हैं जो मुक्त
होकर मरे; फिर उनको
बुद्ध कहो, कृष्ण कहो, राम कहो, रहीम
कहो, कुछ
भी नाम दो। ये
भी हम जैसे
बंदी थे, थोड़ा—सा
फर्क पड़ा, मरने
के पहले एक
बात उन्होंने
साध ली, मरने
के पहले
जंजीरें तोड़
दीं।
बिन
देखे अब जीव जातु है
विलग न कीजै
लाल।।
और
भक्त बड़ी भावदशाओं
से गुजरता है, रोता है, तड़फता
है। मस्ती आती
है, लेकिन
मस्ती के पहले
बहुत ऑंसू
रास्ते साफ करने
आते हैं। ऑंसुओं
के बिना मस्ती
का रास्ता साफ
नहीं होता। ऑंसू
तुम्हारी
प्याली को साफ
करते हैं, ऑंसू
तुम्हारी
हृदय की
प्याली को
तत्पर करते
हैं, फिर
शराब ढल सकती
है।
आपके
चाहनेवालों
में यह अदना खादिम
आपकी
ज्ञान के शायां
ना सही, है तो सही
भक्त
कहता रहता है
भगवान से कि
मैं आपके
योग्य कहाँ? "आपके चाहनेवालों
में यह अदना खादिम,' एक
छोटा—सा सेवक,
मेरी क्या
औकात, मेरी
क्या बिसात? "आपके चाहनेवालों
में यह अदना खादिम, आपकी
शान के शायां
ना सही है, है
तो सही।' यह
मैं नहीं कहता
कि आपकी शान
के काबिल हूँ,
कि आपके
योग्य हूँ, यह मैं नहीं
कहता, बस
इतनी ही याद
दिलाता हूँ कि
हूँ तो सही।
सबसे पीछे सही,
सबसे छोटा
सही, सब से
पापी सही, सब
से बुरा सही, इतनी ही याद
दिलाना चाहता हँ कि हँ
तो सही, और
मैं भी आतुर हँ। आपकी
आकांक्षा, आपको
पाने की
अभीप्सा मेरे
भीतर भी है—और
यह बीज तुमने
ही दिया है, और यह प्यास
तुमने ही जगायी
है, पूरा
करो इसे :
प्राणपति
न आए हो, बिरहिण अति बेहाल।
भक्त
के विरह के
दिन बड़ी पीड़ा
के दिन हैं :
इश्क दरपर्दा
फूँकता है आग
यह
जलाना नज़र
नहीं आता
कोई
इसे देख भी
नहीं पाता :
इश्क दरपर्दा
फूँकता है आग
यह
जलाना नज़र
नहीं आता
यह तो
भक्त ही जानता
है उसके भीतर
जो आग सुलगती
है, जो धुऑं
सुलगता है। यह
तो उसके भीतर
जलती हुई
अग्नि है, इसे
कोई दूसरा
नहीं देख
सकता। भक्त
हों दूसरे तो
पहचान ले सकते
हैं। इसलिए इन
सारे वचनों का
संबोधन रज्जब
ने संतों को
कहा है—संतो, मगन भया मन मेरा।
जो जानते हैं,
जो भक्ति
में रोए
हैं, और जो
मस्ती में हँसे
हैं, और जो
भक्ति में बिलखे
हैं, और जो
मस्ती में
नाचे हैं और
जिन्होंने
भक्ति की ऍ?धेरी रात देखी है,
और
जिन्होंने
मस्ती की सुबह
भी, सुबह
प्रभात भी
देखी, जिन्होंने
भक्ति के विरह
के दिन काटे
और जिन्होंने
मस्ती का मिलन
भी देखा है, उन संतों को
ही ये संबोधन
किए हैं।
मुझसे
लोग पूछते हैं, रोज—रोज
पत्र लिखते
हैं कि यहाँ
सभी को आने
क्यों नहीं
दिया जाता? रुकावट
क्यों है? यहाँ
उन्हीं के लिए
बुलावा है जो
समझेंगे, जिनकी
ऑंखें ऑंसुओं से
भरी हैं और
जिनके प्राण
प्यास से भरे
हैं और जो
मस्त होने की
तैयारी रखते
हैं। यहाँ भीड़भाड़
की जरूरत नहीं
है। यहाँ हर
किसी को आ
जाने का कोई
कारण नहीं है।
यह कोई
मनोरंजन नहीं
हो रहा है, यहाँ
मनोभंजन हो
रहा है। यहाँ
मन तोड़े जा
रहे हैं, मन
मिटाए जा रहे
हैं, यहाँ
सिर काटे जा
रहे हैं:
बिजलियों
की हँसी उड़ाने
को
खुद
जलाता हूँ
आशियाने को
रो रहा
है अगर्चे
दिल फिर भी
मुस्कराते
हैं मुस्कराने
को
छीन ली
उसने ताकते—परवाज
आग लग
जाए आशियाने
को
भक्त
कहता है—जब उड़ने
की सुविधा ही
नहीं है, जब
स्वतंत्रता
का उपाय ही
नहीं है, तो
इस आशियाने का
क्या करें?
बिजलियों
की हँसी उड़ाने
को
खुद
जलाता हूँ
आशियाने को
छीन ली
उसने ताकते—परवाज
आग लग
जाए आशियाने
को
इस
जिंदगी का
करना क्या है? यहाँ न उड़ना
हो सकता है, न कोई आकाश
है, न कोई
पंख है; न
कोई अनुभव है
सौंदर्य का, न कोई
साक्षात्कार
है सत्य का, न कोई
प्रतीति है
अमृत की, क्या
करें इस
जिंदगी को? जो अपने घर
को अपने हाथ
से आग लगाने
को तत्पर है, उसके लिए ही
ये वचन समझ
में आ सकते
हैं। ये वचन कोई
साधारण
कविताएँ नहीं
हैं, ये
जलते हुए
अंगारे हैं।
इनको लेने की,
झेलने की
क्षमता होनी चाहिएः
बिरहिण ब्याकुल केसवा, निसदिन दुखी
बिहाइ।
जैसे
चंद कुमोदिनी, बिन देखे कुमिलाइ।।
रोता
है भक्त। और
उस रोने में
भक्त की
अवस्था हमेशा
स्त्रैण हो
जाती है, खयाल
रखना :
बिरहिण ब्याकुल केसवा, निसदिन दुखी
बिहाइ।
जैसे
चंद कुमोदिनी, बिन देखे कुमिलाइ।।
रात को
खिलनेवाली
कुमुदिनी
चाँद उगे तो
ही खिले, चाँद
न उगे तो
कुम्हला जाए।
ऐसे भक्त
भगवान के
इशारों पर
जीने लगता है।
हो जाती है
झलक किसी दिन
उपलब्ध तो नाच
लेता है, नहीं
होती झलक
उपलब्ध तो
सिवाय रोने के
और कुछ भी
नहीं। कभी चमक
जाती है उसकी
कौंध तो रस—सागर
लहरा जाता है,
और कभी ऍ?धेरी रात आ जाती
है तो सब
मरुस्थल हो
जाता है। बड़ी
हवाएँ बदलती
हैं, मौसम
बदलते हैं।
भक्त के आसपास
हर क्षण उसके
अंतर—आकाश में
कभी सूरज
निकलता है, कभी बदलियाँ
घिर जाती हैं,
कभी वर्षा
हो जाती है।
इसलिए भक्ति
के ये वचन विरह
की अवस्था में
बहुत दशाओं की
सूचना करते हैं
:
मेरे
चमन के नसीबों
में गर बहार
नहीं
तो
उसको हद्दए—बर्को—शरार
कर दे
भक्त
कहता है—अगर
इस जिंदगी में
फूल नहीं खिलने
हैं, तो गिरा
दे बिजली! यह
जिंदगी किस
काम की? तेरे
बिना कोई रस
नहीं। "जैसे
चंद कुमोदिनी,
बिन देखे कुमिलाइ'। कभी भक्त
रोता है, कभी
हँसता है, कभी
गुमसुम हो जाता
है :
ऑंखें
भी खुश्क और
लबों पर भी खामुशी.....
ऑंखें
भी खुश्क और
लबों पर भी खामुशी
यूँ
भी किसी की
याद में रोता
रहा हूँ मैं
कभी
नहीं भी बोलता, बिन बोले
रोता है; कभी
बोलता है, बोलकर
रोता है। शब्द
भी, निःशब्द
भी, मगर
विरह की बात
जारी रहती है।
खिन
खिन दुखिया
दगाधिये, विरह—विथा
तन पीर।
क्षण—क्षण
बस एक ही दग्ध
आग जलाए
जाती है :
खिन
खिन
दुखिया दगाधिये, विरह—विथा
तन पीर।
घपी
पलक में बिनसिये, ज्यूँ मछरी
बिन नीर।।
जैसे
पानी से कोई
मछली को निकाल
ले और मछली तड़फे।
"घरी पलक
में बिनसिये'..... मर ही जाएगी
घड़ी—भर में, पल—भर भी न सह
पाएगी ऐसी
भक्ति की दशा
हो जाती है..... "ज्यूँ मछरी
बिन नीर' :
हुए
असीर, जला
आशियाँ, गिरी
बिजली
फिर
उसके बाद
गुलिस्ताँ का
हाल क्या
मालूम
बड़े
दिनों से
बहारों की आर्जू
थी मगर
लुटेंगे फस्लें—बहाराँ
में यह न था
मालूम
हवाए
तुंद है, तूफाँ हैं, दूर
साहिल है
मेरे सफीने का
अंजाम नाखुदा
मालूम
न दिल
दही न तशफ्फी
न इल्तफात
ऐ दोस्त!
यह
इब्तदा है आलम
तो इन्तहा
न—मालूम
कसक जो
दर्द की पूछो
तो वह है ला—महदूद
जो दिल
की चोट को
पूछो तो वह है
न—मालूम
"कसक
जो दर्द की
पूछो तो वह है
ला—महदूद'।
उसकी कोई सीमा
नहीं, असीम
है :
कसम जो
दर्द की पूछो
तो वह है ला—महदूद
जो दिल
की चोट को
पूछो तो वह है
न—मालूम
शब्द
उसे कह नहीं
पाते :
हुए
असीर, जला
आशियाँ, गिरी
बिजली
फिर
उसके बाद
गुलिस्ताँ का
हाल क्या
मालूम
जिसको
तुमने बगीचा
समझा है, वह
तो भक्त का जल
जाता है।
जिसको तुमने नीड़ समझा
है, वह तो
भक्त का उजड़
जाता है।
तुम्हारा जो
रस है, वहाँ
तो भक्त को
विरस हो जाता
है। तुम जिन
चीजों के पीछे
दौड़ रहे हो, वह दौड़ तो
बंद हो गयी।
हुए
असीर, जला
आशियाँ, गिरी
बिजली
फिर
उसके बाद
गुलिस्ताँ का
हाल क्या
मालूम
बड़े
दिनों से
बहारों की आर्जू
थी मगर
लुटेंगे फस्ले—बहाराँ
में यह न था
मालूम
बीच
बसंत में सब
लुट जाता है :
हवाए
तुंद है, तूफाँ हैं, दूर
साहिल है
मेरे सफीने का
अंजाम नाखुदा
मालूम
इस नाव
का क्या होगा, मुझे तो पता
नहीं। शायद
माझी को पता
हो, कौन
जाने। अभी तो
माझी का भी कोई
पता नहीं। अभी
तो कोई माझी
है भी, यह
भी संदिग्ध
है। अभी तो
कोई किनारा है
भी आगे यह भी
संदिग्ध है।
अभी तो तूफान—हीत्तूफान
है। विरह की
अवस्था तूफान
की अवस्था है।
जैसे हर तूफान
के बाद गहन
शांति उतरती
है, ऐसे हर
विरह की अग्नि
के बाद अमृत
की रसधारा
बहती है।
घरी
पलक में बिनसिये, ज्यूँ मछरी
बिन नीर।
रात—ही—रात
मालूम होती है
विरह में।
सुबह होगी, भरोसा नहीं
आता। सुबह
होती भी है, इस पर भी
आशंका होती है
:
कौन—सा
होगा सबेरा?
खुल
गयी हैं खिड़कियाँ, पर—
रोशनी
आती नहीं है
इस
सवेरे के लिए
उस चाँदनी का
मोह छोड़ा,
और परिवर्तन
के लिए इस
जिंदगी ने पंथ
मोड़ा,
यह
सवेरा प्रश्न
बन धुँधला गया
उनके लिए, पर—
जिन
बसेरों में
किरण की—
रेख तक
आती नहीं है
रोशनी
आती नहीं है
लग रहा
बदली नहीं
आराधना, वरदान
बदला,
यदि
नहीं था
लक्ष्य शर का, व्यर्थ यह
संधान बदला,
है बदल
सारी गयी सरगम
पुराने गीत की, पर—
अनमनी—सी
हो रही वह
जिंदगी—
गाती
नहीं है
रोशनी
आती नहीं है
कौन—सा
होगा सवेरा जो
अंधेरा छीन
लेगा,
स्वप्न
वाली ऑंख
के इन ऑंसुओं
को बीन लेगा,
कौन
बतलाए मुझे इस
जिंदगी को नाम
क्या दूँ?
जी
नहीं पाती
यहाँ जो—
और मर
पाती नहीं है
रोशनी
आती नहीं है
ऐसा अंधेरे
में लटका हुआ
भक्त होता है।
ज्यूँ
मछली बिन नीर।
रात—ही—रात, सुबह का कोई
भरोसा नहीं
मालूम होता।
यह विरह—परीक्षा
है। सुबह का
कोई अनुभव न
होते हुए भी, सुबह हो
सकती है। इस
बात की आस्था
का नाम श्रद्धा
है। प्यास है
तो जल भी होगा,
इस बात की
आस्था का नाम
श्रद्धा है।
खोज है तो खोज
पूरी भी होगी,
बीज है तो
फूल भी बनेगा,
अभीप्सा है
तो कहीं—न—कहीं
आलोक भी होगा,
जिस धनी के
पास इस बात का
भरोसा आने लगे,
वहाँ झुक
जाना, वहाँ
सिर चढ़ा देना।
कबीर ने कहा
है— "जो घर बारै
आपना, चलै
हमारे संग'।
वह सिर के ही
उतारने की बात
है। वही
तुम्हारा घर
है, वहीं
तुम रह रहे हो,
वहीं तुमने
बसेरा कर लिया
है। हृदय से
तो तुमने न—मालूम
कब का अपना
तंबू उखाड़
लिया है, वहाँ
तो तुम जाते
ही नहीं।
धीरे—धीरे
ऑंसू बहें, तो तुम हृदय
तक पहुँचने
लगो। धीरे—धीरे
विचार से
तुम्हारा
रूपांतरण भाव
की तरफ हो, तो
भक्ति उमगे।
पीव
पीव टेरत
दिग भई, स्वातिसुरूपी आव।
पुकारते—पुकारते
बेहाल हो गयी
हूँ, बीमार हो
गयी हूँ—पीव
पीव टेरत दिग भई, स्वातिसुरूपी आव। अब तो आओ!
हे स्वाति के
जल, अब तो बरसो!
सागर
सलिता सब
भरे, परि
चातिग कै
नहिं चाव।।
सागर
भरा है, सरिताएँ भरी हैं, सरोवर
भरे हैं, लेकिन
चातक की ऑंख
तो आकाश में
लगी है। उसे
तो अब एक
अपूर्व आकांक्षा
ने जकड़ लिया
है, एक
अनंत की
अभीप्सा पैदा
हो गयी है, वह
तो स्वाति का
जल पिएगा।
भक्त भी ऐसा
है, चातक
जैसा। इस
संसार में कोई
सौंदर्य की
कमी है? मगर
उसे तो
परमात्मा का
सौंदर्य
चाहिए। इस
संसार में कोई
धन की कमी है? लेकिन उसे
तो परमात्मा
का धन चाहिए।
इस संसार में
सब तो है, लेकिन
बहुत अनुभव के
बाद भक्त ने
देख लिया कि इस
संसार में सब
दिखायी पड़ता
है, है कुछ
भी नहीं, सब
धोखा है। अब
उसे और धोखा
नहीं खाना है।
प्यासा मर
जाएगा, मगर
अब इस कीचड़ से
भरे जल को
नहीं पीना है।
अब तो
मानसरोवर का
जल ही पिएगा।
अब घास खाकर
नहीं जीना है,
अब तो
परमात्मा का
ही स्वाद लेगा
तो ही जीवन का
कोई अर्थ है।
ऐसी उत्कट
आकांक्षा का
जन्म जब हो
जाता है तो
व्यक्ति
धार्मिक बनता
है। मंदिर—मस्जिदों
में जाने से
नहीं। पूजा—पाठ
कर लेने से
नहीं। सत्यनारायण
की कथा करवा
लेने से नहीं।
कभी साल—छः
महीने में
यज्ञ—हवन कर
लेने से नहीं।
जीवन यज्ञ
बनना चाहिए। ऐसे
बनता है जीवन
यज्ञ—
सागर
सरिता सब भरे, परि चातिग
कै नहिं चाव।।
पीव
पीव टेरत
दिग भई, स्वातिसुरूपी आव।
दीन—दुखी
दीदार बिन, रज्जब धन बेहाल।
रज्जब
कहते हैं कि
धन के बिना
बेहाल हूँ, आत्मा के
बिना बेहाल
हूँ, तुम्हारे
बिना बेहाल
हूँ—दीन—दुखी
दीदार बिन—तुम्हारा
दर्शन हो जाए,
दरस—परस हो
जाए तो धनी हो
जाऊँ, नहीं
तो निर्धन
हूँ। और सब
करके देख लिया,
और सब पाकर
देख लिया, यह
भिक्षा का
पात्र भरता ही
नहीं। अब तुम
इसे भरो। दीन—दुखी
दीदार बिन, रज्जब धन
बेहाल।
लबो—रुखसार
को तरसती है
जिस्म
के प्यार को
तरसती है
आप दिल
के करीब हैं
लेकिन
ऑंख
दीदार को
तरसती है
और
परमात्मा कुछ
दूर नहीं है, यहाँ दिल के
करीब है, लेकिन
दीदार को
तरसती है ऑंख,
देखना
चाहती है। पास
से भी पास है
परमात्मा, पर
हमारे पास पास
को देखने की ऑंख नहीं।
दूर को तो हम
कुशलता से देख
लेते हैं, पास
से चूक जाते
हैं। कठिन को
तो हम सुलझा
लेते हैं, सरल
से वंचित रह
जाते हैं। झूठ
के साथ तो हम
बड़े निष्णात
हैं, सत्य
के साथ हम हार
जाते हैं।
लबो—रुखसार
को तरसती है
जिस्म
के प्यार को
तरसती है
आप दिल
के करीब हैं
लेकिन
ऑंख
दीदार को
तरसती है
दीन
दुःखी दीदार
बिन, रज्जब
धन बेहाल।
दरस
दया करि दीजिये, तौ निकसै सब
साल।।
मेरे
सारे कष्ट
समाप्त हो
जाएँ, मेरे
सारे काँटे
निकल जाएँ, मेरी पीड़ा
का अंत आ जाए—दरस
दया करि
दीजिए।
खयाल
करना, मूल्यवान
शब्द है—दया।
रज्जब कह रहे
हैं कि मेरी
कोई पात्रता
नहीं है, यह
कोई मैं दावा
नहीं कर रहा
हूँ कि मैं
पात्र हूँ, आओ, आना
पड़ेगा। खयाल
करना, त्यागी
तपस्वी
पात्रता का
दावा करता है।
वह कहता है, इतने मैंने
उपवास किए, इतने व्रत
किए, इतने
नियम साधे, आओ, आना
पड़ेगा। भक्त
कहता है कि
मेरे किए क्या
होगा, मेरा
सब किया दो कौड़ी
का है, तुम्हारी
दया हो तो आना
हो। मैं रो
सकता हूँ, मैं
पुकार सकता
हूँ, मैं तड़फ सकता
हूँ, मैं
चातक की भाँति
तुम पर नजर
लगाए रख सकता
हूँ और मैं पपीहे
की भाँति
प्राण छोड़ सकता
हूँ पुकार—पुकार
पिव—पिव—पिव, मेरी और कोई
पात्रता नहीं
है, तुम्हारी
दया का ही
प्रवाह मेरी
तरफ हो जाए तो
ही तुम मुझे
मिल सकते हो।
भक्ति
और योग का यह
बुनियादी भेद
है। योग की आस्था
प्रयास पर है—चेष्टा, साधना।
भक्ति की
आस्था प्रसाद
पर है—उसकी
अनुकंपा। दरस
दया करि दीजिए,
तो निकसै
सब साल।
एक गिरया
है मुस्कराना
भी
मुस्कराकर
भी हमने देखा
है
हम तही
दामनी पै
नाजाँ हैं
तेरी
चश्मे—करमने
देखा है
और जब
भक्त को
परमात्मा की
कृपा मिलती है, तब भक्त
कहता है—हम अब
खुश हैं अपने
उस दुःख पर—
एक गिरया
है मुस्कराना
भी
मुस्कराकर
भी हमने देखा
है
हम तही
दामनी पै
नाजाँ हैं.....
लेकिन
अब तो हम अपने
रिक्त हाथों
पर, अपने
खाली दामन पर
नाज से भरे
हैं :
हम तही
दामनी पै
नाजाँ हैं
तेरी
चश्मे—करमने
देखा है
क्योंकि
जितना हम रोए, उतनी ही
तेरी नजर हम
पर पड़ी। जितना
हमने पुकारा,
उतनी तेरी
नजर हम पर
पड़ी। जितने हम
अपात्र थे, उतनी तेरी
दया हमें
मिली।
हम तही
दामनी पै
नाजाँ हैं
तेरी
चश्मे—करमने
देखा है
तुझे
हमने पाया
रोकर, पुकारकर। जब भक्त को
भगवान मिल
जाता है तब तो
भक्त कहता है—आ
हा ह! धन्य थे
वे दिन जब मैं
रोया! धन्य
थीं वे रातें
जब विरह में तड़फा—ज्यों
मछली बिन नीर।
लौटकर पीछे की
यात्रा बड़ी
मधुमय हो जाती
है। सब ऑंसू
फूल हो जाते
हैं। सब रुदन
गीत हो जाता
है। सब पीड़ाएँ
अपूर्व संपदाएँ
मालूम होने
लगती हैं। मगर
जब पीड़ा से
गुजरते हैं, तब बड़ी अड़चन
होती है।
और
खयाल रखना, इस दुनिया
में बहुत लोग
हैं जो
तुम्हारी
पीड़ा को
सांत्वना
देने का उपाय करेंगे।
उनसे सावधान
रहना।
क्योंकि पीड़ा
की गहनता से
परमात्मा
मिलता है। अगर
किसी ने सांत्वना
दे दी, दुःख—दर्दी
मिल गए
तुम्हें और
सहानुभूति दिखानेवाले
मिल गए और
उन्होंने
तुम्हें समझा—बुझाकर
ठीक कर दिया, उन्होंने
तुम्हें
परमात्मा से
वंचित कर
दिया। यह पीड़ा
ऐसी नहीं है
कि इसका इलाज
करवा लेना। यह
दर्द ऐसा नहीं
है कि जिसकी
दवा खोजो। यह
दर्द ऐसा है, जो बढ़ जाए तो
स्वयं ही दवा
हो जाता है।
तुम्हारी
जफाओं का
तो जिक्र क्या
है
तुम्हारी
वफाओं ने
भी कहर ढाए
मेरे
हाल पर रश्क
आया जहाँ को
मेरे
हाल पर जब भी
तुम
मुस्कुराए
तेरे लम्स का फैज हासिल
हो जिसको
वह
जर्रा भी
तारों से ऑंखें
लड़ाए
यह ग़म
तो बड़ी दिलनशीं
आफियत है
खुदा ग़म—गुसारों
से मुझको बचाए
उनसे
बचाए
परमात्मा
मुझे जो
सांत्वना
देने में बड़े
कुशल हो गए
हैं :
यह ग़म
तो बड़ी दिलनशीं
आफियत है
खुदा ग़म—गुसारों
से मुझको बचाए
हमें
जब भी धोखा
दिया दोस्तों
ने
हमें
अपने दुश्मन
बहुत याद आए
इस जगत
में जहाँ—जहाँ
से तुम्हें
पीड़ा मिली है
और जहाँ जहाँ
काँटे मिले
हैं, लौटकर
तुम पाओगे—वे
सब उपयोगी थे।
वे सब दुःख न
होते यदि तो
तुम परमात्मा
तक कभी आते
नहीं। वे
काँटे अगर न
पड़ते, तो
ये फूल कभी न
खिलते।
इसे
ध्यान में
रखना। विरह की
गहरी रात्रि
में इस बात को
ध्यान में
रखना, सांत्वना
मत खोजना।
संताप को गहरा
होने दो। ऐसा
गहरा कि तुम
टूट ही जाओ
उसमें, कि
तुम बिखर ही
जाओ उसमें, कि तुम
समाप्त ही हो
जाओ उसमें कि
तुम बचो ही न।
यह आग विरह की
तुम्हें जला दे,
तो
तुम्हारी राख
पर ही नए जीवन
का
प्रादुर्भाव
है। तुम्हारी
राख पर ही
परमात्मा का
मंदिर उठता
है। तुम्हारी
राख ही उसकी
नींव बनती है।
और फिर बड़ी
मस्ती है! और
फिर बड़ा रस है!
संतो, मगन भया मन
मेरा।
अहनिस
सदा एकरस लाग्या, दिया दरीबै
डेरा।।
कुल
मरजाद मैंड
सब त्यागी, बैठा भाठी
नेरा।
जात—पाँत
कछु समझौ
नाहीं, किसकूँ करै परेरा।।
रस
की प्यास आस
नहिं औराँ, इहि मत किया
बसेरा।
ल्याव ल्याव ऐही
लय लागी, पीवै फूल
घनेरा।।
सो
रस माँग्या
मिलै न
काहू, सिर
साटे
बहुतेरा।
जन
रज्जब तनमन दे
लीया होइ
धनी का चेरा।।
हो जाओ
किसी धनी के चेरे। पा
लो तुम भी।
रास्ता सुगम
नहीं, दुर्गम
है। ऑंसुओं
से पाटना
पड़ेगा रास्ते
को। यह रास्ता
पैरों से तय
नहीं होता, ऑंसुओं से तय होता
है। यह रास्ता
सिद्धांतों
से, शास्त्रों
से तय नहीं
होता, सरल
पुकार से तय
होता है। और
सबकी क्षमता
है सरल पुकार।
और सबकी
क्षमता है वह
आत्यंतिक
प्यास।
तुम्हारे
भीतर वह जीवन—यज्ञ
जलने को तैयार
है, ज़रा उकसाहट
चाहिए। ज़रा
उकसाना है, लपटें
तुम्हें पकड़
लेंगी।
उन्हीं लपटों
में मंदिर का
निर्माण है।
और उन्हीं
लपटों के पार उस
अमृत का अनुभव
है—उस फूल का
अनुभव, उस
शराब का अनुभव,
जिसका नशा
एक बार चढ़ता
है तो फिर
उतरता नहीं।
आज
इतना ही।
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