पहला प्रवचन-(चित्त का निरीक्षण)
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक बहुत बड़े नगर में एक बहुत बड़े विशाल भवन के सामने बहुत भीड़ इकट्ठी थी। सत्रहवीं मंजिल से एक युवक उस भवन पर से कूद कर आत्महत्या करने को था। लोग उसे समझा रहे थे। सोलहवीं मंजिल पर भी लोग इकट्ठे थे और उस युवक को बचाने की कोशिश कर रहे थे। उस युवक ने अपने मकान के सब तरफ से द्वार बंद कर रखे थे और ऐसा प्रतीत होता था कि वह आज कूदे बिना नहीं मानेगा। और सत्रहवीं मंजिल से कूदने का क्या अर्थ हो सकता था? सोलहवीं मंजिल पर जो लोग इकट्ठे थे उनमें से एक बूढ़े ने उस युवक को समझाने की कोशिश की। उस वृद्ध ने कहाः बेटे, अपने मां-बाप का खयाल करो, यह तुम क्या कर रहे हो? वह युवक ऊपर से चिल्लायाः मेरे कोई मां-बाप नहीं हैं। उस बूढ़े ने कहाः तो अपने बच्चे, अपनी पत्नी का स्मरण करो, उनके जीवन का खयाल करो, यह तुम क्या कर रहे हो? उस युवक ने कहाः माफ करें, न मेरी कोई पत्नी है और न मेरे कोई बच्चे। लेकिन वृद्ध भी हार मानने को राजी न था। उसने अंतिम कोशिश की।
उसने कहाः तुम किसी को तो प्रेम करते हो, अपनी प्रेयसी का ही खयाल करो, उसके जीवन का। उस युवक ने कहाः मुझे स्त्रियों से घृणा है। अंतिम बार समझाने की कोशिश में वह वृद्ध आदमी चिल्लायाः तो अपना ही खयाल करो, अपने ही जीवन का। वह मृत्यु के लिए तैयार युवक हंस पड़ा और बोला, काश! मुझे यही पता होता कि मैं कौन हूं, तो आत्महत्या का सवाल ही नहीं होता। लेकिन मुझे पता नहीं है कि मैं कौन हूं, मैं किसका खयाल करूं?
आज करीब-करीब सारी मनुष्य-जाति इस हालत में आकर खड़ी हो गई है। चाहे हम किसी भवन की सत्राहवीं मंजिल से खड़े होकर आत्महत्या करने को तैयार न हों, लेकिन जीवन में, जीवन का सारा आनंद खो दिया है और हम जहां भी खड़े हैं, सिवाय मृत्यु की प्रतीक्षा के हमारे खड़े होने का और कोई अर्थ नहीं रह गया है। और कोई हमसे कहे कि जीयो। मां-बाप के लिए जीयो, पत्नी के लिए जीयो। पुत्रों के लिए जीयो। दूसरे के लिए जीना कभी भी बहुत गहरे में अर्थपूर्ण नहीं हो सकता, जो अपने लिए जीने में समर्थ नहीं उसके लिए। जो अपने लिए जीने में समर्थ है, वह दूसरे के लिए भी जी सकता है, जी पाता है। जो अपने भीतर आनंद को उपलब्ध होता है, वह दूसरों के जीवन में भी आनंद की सुगंध पहुंचाता है। लेकिन जो अपने भीतर ही इस प्रश्न से भरा हो कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। जिसे अपने जीवन का भी कोई बोध न हो। उसके जीने में कितना अर्थ हो सकता है, कितना आनंद हो सकता है?
एक मनुष्य ऐसी जगह होता, तो भी एक बात थी। सारी मनुष्यता ऐसी जगह आकर खड़ी हो गई है, जहां उसके सामने या तो व्यर्थ जीने का एक विकल्प है या इस जीवन को समाप्त कर लेने का। इन दो विकल्पों के बीच हम आज खड़े हैं। कोई राह, कोई मार्ग खोज लेना जरूरी है और इसके पहले कि हम उस मार्ग के संबंध में थोड़ा विचार करें, जो मनुष्य के जीवन को आनंद से और आलोक से भर देता है। इसके पहले कि हम उस दिशा में आंखें उठाएं, जहां से जीवन का दुख विलीन हो जाता है और आनंद की वर्षा शुरू होती है। यह जान लेना जरूरी होगा कि मनुष्य इस स्थिति में कैसे पहुंच गया है। बिना इस बात को समझे शायद हम उस रास्ते को ही नहीं खोज सकेंगे। यह पूछ लेना, पहचान लेना बहुत जरूरी है कि इतने विशाद की, इतने सन्ताप की, इतने चिन्ताओं की और दुख की यह स्थिति कैसे पैदा हो गई है।
एक और छोटी सी कहानी से मैं इस स्थिति को समझाने की कोशिश करूंगा और फिर जो मुझे आपसे आज कहना है, वह कहूंगा। बहुत पुराने दिनों की घटना है। एक राजमहल के सामने सुबह ही सुबह जब सूरज उगता था, एक भिक्षु ने आकर भिक्षा मांगी। राजा द्वार पर ही था। राजा ने पास खड़े नौकरों को कहाः जाओ, भिक्षु का पात्रा भर दो। लेकिन उस भिक्षु ने कहाः ठहरो, मेरी एक शर्त है। मैं तभी भिक्षा स्वीकार करता हूं, जब कोई मेरे पूरे पात्र को भरने का आश्वासन दे देता है। क्या आप मेरे पूरे पात्रा को भर सकेंगे? मैं अधूरे पात्रा को भरा हुआ लेकर न जा सकूंगा। राजा ने कहा: तुम पागल हो क्या? इतना छोटा सा पात्र लिए हो। इतने बड़े सम्राट के द्वार पर खड़े हो, क्या तुम्हें संदेह होता है कि तुम्हारा पात्र हम पूरा न भर सकेंगे। उस भिक्षु ने कहाः मैं और भी राजाओं के द्वार पर खड़ा हुआ हूं। और आज तक मैंने इतना समृद्ध मनुष्य नहीं देखा, जो मेरा पूरा पात्र भर सके। इसलिए मैं यह शर्त पहले रख देता हूं। पीछे आपको पछताना न पड़े। सोच ले, मैं वापस लौट सकता हूं। भिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भिक्षा यदि देनी है, तो पात्र पूरा भरना पड़ेगा। राजा हंस पड़ा। उसके राज्य की सीमाएं इतनी बड़ी थीं कि संभवतः उस समय किसी के राज्य की सीमाएं उतनी बड़ी नहीं थीं। उसकी तिजोरियों में इतना धन था कि उसकी कोई गणना न थी। उसके विजय की कथा बहुत बड़ी थी। वह हंस पड़ा और उसने अपने मंत्रियों को कहाः अब अन्न से भरना ठीक न होगा। जाओ, स्वर्ण-अशर्फियों से इसके पात्रा को भर दो। और इतना भर दो कि पात्र से बाहर भी स्वर्ण-अशर्फियां गिर जाएं।
कोई बात न थी। खेल था राजा के लिए यह सब। मंत्री गया, स्वर्ण-अशर्फियां भर कर लाया झोली में और भिक्षु के पात्रा में डाली। लेकिन भिक्षु के पात्र में स्वर्ण-अशर्फियां पड़ते ही राजा को पता चला, सौदा महंगा पड़ने का मालूम होता है। भिक्षु के पात्रा में पड़ी अशर्फियां कहीं खो गईं। पात्र खाली का खाली रहा। राजा के चेहरे पर घबड़ाहट आ गई, लेकिन हार मानने को कौन इतनी जल्दी राजी होता है। फिर वह राजा था, बहुत बड़ा विजेता था। उसके अहंकार की कोई सीमा न थी। उसने मंत्रियों को कहाः चाहे सारा राज हार जाऊं बा.जी पर, लेकिन इसके पात्र को तो भरना ही होगा। फिर दोपहर हो गई। भिक्षु का पात्रा खाली का खाली रहा, मंत्री भागते रहे। तिजोरियों से धन समाप्त होता चला गया। फिर सांझ हो गई और राजा के वे खजाने जिन्हें वह सोचता था, अकूत हैं, जिनकी कोई माप नहीं, उनकी भी सीमा आ गई। कोई खजाना इतना बड़ा नहीं होता कि उसकी सीमा न आ जाए। लेकिन भिक्षु का पात्र खाली था, खाली ही रहा।
सांझ राजा को लगा, हार मान जाने के सिवाय अब कोई मार्ग नहीं है। बड़ी पीड़ा की बात थी। जो बड़े सम्राटों के सामने नहीं हारा था, एक भिखारी के सामने हारना पड़ेगा क्या उसे!
सूरज ढलने को हो गया। सारे राजमहल में उदासी और दुख छा गया। कोई दीया उस रात जलने को नहीं था, वहां। राजा भिक्षु के पैरों पर गिर पड़ा और कहा, मुझे माफ कर दें। आज मुझे ज्ञात हुआ कि भिक्षु का पात्र सम्राटों के राज्य से भी बड़ा है। भिखारी की भूख समृद्ध की तिजोरियों से बहुत बड़ी है। मैं नहीं भर सकूंगा इसे, माफ कर दें। सुबह अहंकार में मैंने जो कह दिया था, उसे मैं वापस लेता हूं। लेकिन जाने के पहले एक बात बताए जाएं। क्या रहस्य है इस पात्रा का। क्या जादू है इसमें, किन मंत्रों से यह सिद्ध किया गया है।
भिक्षु बोला कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं। बड़ी सीधी सी, सरल सी बात है। मैं खुद चकित हुआ था इसे पहली बार देख कर। एक मरघट से निकलता था। वहां एक आदमी की खोपड़ी पड़ी मिल गई। उससे ही मैंने यह पात्रा बना लिया। लेकिन जब भी इसे भरा, तो पाया कि वह खाली रह जाता है। तब मुझे समझ में आया, मनुष्य का मन कभी नहीं भरता है। इसलिए यह खोपड़ी भी भरने को तैयार नहीं है।
कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं है। मनुष्य के मन का ही यह पात्रा है। मनुष्य का सारा विशाद, मनुष्य के इस भिक्षापात्र से पैदा होता है। मनुष्य की सारी चिंता और दुख, मनुष्य के जीवन की सारी उदासी और पीड़ा, मनुष्य के जीवन का सारा दुर्भाग्य, मनुष्य के मन के इस भिक्षापात्र में छिपा है। और हम निरंतर इसे भरने के श्रम में, निरंतर इसे भरने के संकल्प में, निरंतर इसे भरने की यात्रा में संलग्न रहते हैं। कौन, कब, मनुष्य अपने मन को भर पाया है?
मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास, लम्बा इतिहास है। करोड़-करोड़ लोगों ने आकांक्षाएं की हैं मन को भर लेने की, लेकिन क्या कभी कोई सफल हो पाया है आज तक, क्या कोई अपवाद हो पाया है? क्या, कोई मनुष्य कह सका कि मैंने भर लिया अपने मन को? मैं तृप्त हूं, मैं संतुष्ट हूं, मैंने पा लिया, जो मैंने चाहा था। अब मेरी कोई चाह नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, क्या कभी कोई कह पाया है? आज तक तो नहीं कोई कह पाया। लेकिन हर मनुष्य को यह भ्रम है कि मैं अपवाद सिद्ध हो जाऊं। मैं कह सकूं। हर मनुष्य को यह भ्रम हमेशा रहा है, हर मनुष्य को यह खयाल रहा है, न कर पाए होंगे दूसरे लोग तृप्त, लेकिन मैं कर लूंगा। मैं एक्सेप्शन, मैं अपवाद सिद्ध होने को हूं। और इस भ्रम में हर मनुष्य का जीवन चुक जाता है और मन खाली का खाली रह जाता है।
जिस मनुष्य का यह भ्रम टूट जाता है, उसके जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। जिस मनुष्य का यह इलुजन, यह भ्रम बना रहता है, उसके जीवन में धर्म का कोई मार्ग कभी नहीं खुलता है। वह चाहे मंदिरों के द्वार खटखटाए, वह चाहे शास्त्रों को सिर पर ढोए, वह चाहे कुछ भी करे, पूजा और प्रार्थना। नहीं, वे पूजा और प्रार्थना, वे मंदिर और तीर्थों की यात्राएं भी उसके मन को न भर सकेंगी। जब तक उसे यह स्मरण न आ जाए कि मन कुछ ऐसा है कि वह भरा ही नहीं जा सकता। जब तक वह इस सत्य का साक्षात न कर ले कि मन स्वभावतः दुष्पूर है, उसे भरा नहीं जा सकता, उसे पूरा नहीं किया जा सकता।
सिकंदर मरा था, जिस राजधानी में, उसकी अरथी निकली, लोग हैरान हो गए। ऐसी अरथी कभी किसी ने न देखी थी। बड़ी अजीब बात थी। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। लोग सोचे, क्या कोई भूल हो गई है। लेकिन सिकंदर की अरथी भूल हो सकती थी क्या। कोई भिखारी न मर गया था, कि लोग उसे घसीटें और मरघट पर डाल आएं। सिकंदर की मृत्यु थी, वह कोई सामान्य मृत्यु न थी। क्यों हाथ बाहर लटके हुए थे। हर कोई यही पूछने लगा। सारे नगर में एक ही चर्चा थी, एक ही बात, सिकंदर के हाथ अरथी के बाहर क्यों लटके हुए हैं। सांझ होते-होते धीरे-धीरे खबर उठी, लोगों को पता चला, सिकंदर ने मरते वक्त कहा था। मेरे हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, ताकि हर आदमी देख ले, मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। पता नहीं, लेकिन इन खाली हाथों को देख कर सिकंदर का यह संदेश किसी तक पहुंचा या नहीं पहुंचा, क्योंकि सिकंदर को मरे बहुत वक्त हो गया। उसके खाली हाथ हजारों लोग, करोड़ों लोग देख चुके हैं, लेकिन वे भी अपने हाथ भरने की उसी कोशिश में संलग्न हैं। मालूम होता है, सिकंदर की अरथी के बाहर लटके हुए हाथ व्यर्थ चले गए, वे किसी को दिखाई नहीं पड़े। लोग शायद हंस लिए होंगे, लोग शायद सोचे होंगे कि सनकी था, जीवन भर सनक रही और यह अंत में सनक आई कि अपने हाथ बाहर लटका लिए। लेकिन हर आदमी ने सोचा होगा, तुम खाली गए तो क्या, मैं भरा होकर जाने को हूं। मेरे हाथ अरथी के भीतर होंगे और मुट्ठियां मेरी भरी होंगी।
शायद इसलिए हर मरते आदमी के हाथ हम अरथी के भीतर सम्हाल के रख देते हैं, ताकि कोई देख न ले कि उसकी मुट्ठी खाली है या भरी। लेकिन हम सब भलीभांति जानते हैं, कोई भी हाथ भरा हुआ नहीं जाता, न ही जा सकता है। शायद यह असंभावना है कि किसी के हाथ भर सकें। शायद यह संभव नहीं है। संभव न होने के पीछे कोई कारण होगा, कोई वजह होगी, कोई बुनियादी बात होगी। अन्यथा अब तक क्या हर आदमी असफल हो जाता। और एक ही श्रम और एक ही संकल्प है सबका, एक ही अभीप्सा, एक ही आकांक्षा करोड़-करोड़ जन जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं। और एक ही उनके प्राणों की उत्सुकता है कि किसी भांति उस भरेपन को पा लें, जिसके आगे कोई चाह न रह जाए। उस जगह पहुंच जाएं, जिसके आगे जाने को कोई मार्ग न रह जाए और वह मंजिल मिल जाए जो अंतिम हो, जिसके आगे फिर कोई यात्रा न करनी पड़े। लेकिन हर कदम नई यात्रा को खोल देता है। और हर आकांक्षा की तृप्ति नई आकांक्षाओं के आकाश के दर्शन कराती है। हर तृप्ति मिलते ही नई अतृप्तियों को खोलने की कुंजी मिल जाती है। और नई अतृप्तियों के द्वार खुल जाते हैं। और फिर वही दौड़। जन्म से लेकर मृत्यु तक। एक ही दौड़ और एक ही परिणाम। बड़े आश्चर्य की बात है। और फिर भी किसी को दिखाई न पड़ता हो। एक ही दौड़, एक ही परिणाम, एक ही असफलता, फिर भी किसी को दिखाई न पड़ता हो। तो शायद सोचना पड़े कि मनुष्य बड़ा अंधा है।
क्राइस्ट ने एक दिन लोगों से कहा थाः अगर तुम्हारे पास आंखें हों तो देखो। और अगर तुम्हारे पास कान हों, तो सुनो। किसी ने पूछाः क्या आप सोचते हैं हमारे पास कान और आंखें नहीं हैं। क्राइस्ट ने कहाः मैं सोचता नहीं, मैं देखता हूं कि नहीं है। काश! मनुष्य के पास आंखें होतीं, तो उन शक्तियों को देख पाता, जो निरंतर मौजूद हैं, लेकिन फिर भी दिखाई नहीं पड़तीं। सबसे बड़ा सत्य, जो मनुष्य के पास रोज खड़ा है वह है, मनुष्य के मन की दुष्पूरता, मनुष्य के मन के न भरे जाने का सत्य। लेकिन नहीं उसे हम देखना नहीं चाहते हैं।
एक फकीर था। एक सुबह एक व्यक्ति ने आकर उससे कहाः मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं। सत्य के दर्शन करना चाहता हूं। क्या यह हो सकता है? किसी ने कहा है, आपके पास जाऊं। शायद आपका इशारा मुझे उस यात्रा पर गतिमान कर दें। उस फकीर ने कहाः हो सकता है मैं तो इशारा करूंगा, लेकिन तुम्हारे पास आंखें हैं कि तुम इशारे को देख सको? और जो जिंदगी के इशारे को नहीं देख पाया, मुझ गरीब फकीर के इशारे देख सकेगा क्या? फिर भी तुम आए हो, तो सम्राटों के द्वार से तो लोग खाली लौट जाते हैं, लेकिन फकीरों के द्वार से कब कौन खाली लौटता है। इसलिए चलो, मैं इशारा कर दूं, शायद तुम देख सको। और उसने उठाई एक बाल्टी और एक बड़ा ड्रम और कहा कि आओ मेरे साथ कुएं की तरफ।
आदमी कुछ समझा नहीं कि कुएं पर जाने और परमात्मा के दर्शन में और सत्य की खोज का क्या सम्बन्ध हो सकता है। लेकिन फिर भी धीरज रखना जरूरी था। उस फष्कीर ने रास्ते में कहाः अगर लौटते वक्त भी तुम कुएं से मेरे साथ रहे, तो शायद कुछ बात हो सके। उस आदमी ने सोचा, कैसा पागल है, लौटते वक्त मैं क्यों साथ न रहूंगा। जरूर रहूंगा। मैं खोज करने आया हूं। कुएं पर वह फकीर गया। फकीर ने ड्रम नीचे रखा, तो वह आदमी देख कर हैरान रह गया कि पागल मालूम पड़ता था। उस ड्रम में कोई बाॅटम न थी, कोई तलहटी न थी। वह दोनों तरफ से पोला था। क्या इसमें यह पानी भरने को आया हुआ है। फिर उसने बाल्टी कुएं में डाली और पानी खींचा और उस ड्रम में डाला। पानी तो नीचे बह गया। उसने बाल्टी फिर कुएं में डाल दी। वह आदमी चकित खड़ा देखता रहा। उसने सोचा, मैं भी किस पागल आदमी के पास परमात्मा की खोज करने आ गया हूं। भूल हो गई। यह आदमी ठीक ही कहता था कि कुएं से अगर लौटते वक्त तुम मेरे साथ रहे, कौन इसके साथ रहेगा। मुझे घर चला जाना चाहिए। लेकिन जाने के पहले उचित है कि इस फकीर को चेता दूं कि यह क्या पागलपन करते हो, ऐसे पानी नहीं भरने वाला।
दूसरी बाल्टी तब तक फकीर डाल चुका था। वह भी बह गई थी, ड्रम खाली था। तीसरी बाल्टी भरी जाती थी। उस आदमी का धीरज टूट गया। उसने कंधे पर हाथ रखा और कहाः सुनो, पागल हो, देखते नहीं हो, उसमें कोई तलहटी नहीं है, कोई बाॅटम नहीं है। उसमें कहीं पानी भरेगा। उस फकीर ने कहाः लो, तुम मुझसे सीखने आए थे और मुझे तुमने सिखाना शुरू कर दिया। अक्सर ऐसा होता है, शिष्य के नाम से जो लोग आते हैं बहुत जल्दी गुरु बन जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है, अनुयायी के नाम से जो लोग पीछे आते हैं, बहुत जल्दी नेता के भी नेता बनने की कोशिश में लग जाते हैं। सारी दुनिया में अनुयायी नेताओं के नेता बन गए हैं। शिष्य गुरुओं के गुरु बन गए हैं। भक्त साधुओं के मालिक बन गए, अकारण थोड़े ही। कुछ वजह से।
उस फकीर ने कहाः क्षमा करो, यहीं नाता-रिश्ता तोड़ दो। तुम जाओ। वह आदमी बोलाः तुम्हारे कहने की जरूरत नहीं, मैं खुद ही जाने को था लेकिन जाते वक्त चेता देना जरूरी है कि मर जाओ तुम भर-भर कर, यह कुआं खाली हो जाए, लेकिन यह ड्रम नहीं भरेगा। उस फकीर ने कहाः तुम बड़े पागल मालूम पड़ते हो। ड्रम क्यों नहीं भरेगा, जब मैं भरने की कोशिश कर रहा हूं, तो जरूर भरेगा। आखिर भरने की कोशिश से चीजें भरती हैं, मैं भरने की कोशिश कर रहा हूं, पूरे प्राणधन से कोशिश कर रहा हूं, पूरी ताकत लगा रहा हूं, फिर क्यों नहीं भरेगा। उस आदमी ने कहाः सिर्फ कोशिश काफी नहीं है, यह भी देख लेना जरूरी है; जिसमें तुम भर रहे हो वह भरा भी जा सकता है या नहीं। उसमें तलहटी नहीं है।
वह फकीर बोलाः मुझे तलहटी से क्या लेना-देना? मुझे तलहटी से क्या संबंध? मैं ड्रम को भरना चाहता हूं, तो उसके ऊपर के किनारे पर अपनी आंखें लगाए हुए हूं कि जब वह ऊपर तक भर जाएगा, उठा कर घर चला जाऊंगा, नीचे देखने से मुझे प्रयोजन? मैं ऊपर देख रहा हूं, जहां पानी आना चाहिए। फकीर की ये बातें सुन कर उस आदमी ने हाथ जोड़े और कहाः माफ करो, भूल से मैं आ गया। मेरे गांव के और लोग भी तुम्हारे पास आना चाहते थे, उनको जाकर चेता दूंगा।
वह आदमी वापस लौट गया। लेकिन रात उसने सोचा, इतनी सीधी सी बात भी क्या उस फकीर को दिखाई नहीं पड़ती थी कि जिस बर्तन में वह पानी भर रहा है, उसमें कोई तलहटी नहीं है। उसमें कोई पेंदी नहीं है, उसमें पानी नहीं भरा जा सकता। क्या उसे यह सीधी सी बात दिखाई नहीं पड़ती थी! जरूर उसे भी दिखाई तो पड़ती होगी। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस घटना से उसने मुझसे कुछ कहना चाहा हो? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैं जल्दी वापस लौट आया? क्या उचित न हुआ होता कि मैं उसके साथ लौटते में भी चला जाता? हर्ज क्या था?
वह रात को उठा और फकीर के घर पहुंच गया। सोते से फकीर को जगाया और कहा: मुझे माफ कर दें। मैंने जल्दी की। शायद आप मुझे कोई शिक्षा देना चाहते थे, जो मैं नहीं समझ सका। शायद मैं आपके इशारे को नहीं पहचान पाया, मैं पूछने आया हूं।
वह फकीर खुश हुआ। उसने कहाः मुश्किल से कभी कोई आता है। यह तो मेरी रोज की परीक्षा है। जब भी कोई परमात्मा को खोजने आता है, तो पहले मैं कुएं पर ले जाता हूं, लेकिन तुम लौट के आए, तुम पहले आदमी हो। मैं भी तुमसे यही पूछना चाहता हूं कि जिस मन को तुम भरना चाहते हो, उसमें कोई तलहटी है? कोई बाॅटम है? कभी खोजा मन के पात्रा को कि भीतर कोई उसमें जगह है जहां चीजें रुक जाएं। लेकिन तुम भी ऊपर की तरफ आंखें लगाए हो कि मन भर जाए, लेकिन यह देखते नहीं कि भीतर मन को भरने के लिए कोई स्थान है, रोकने के लिए कोई जगह है, कोई बाॅटम है। तुम भी यही देख रहे हो कि मैं मेहनत कर रहा हूं, तो मन भर जाएगा। बिना इस बात को देखे हुए कि हो सकता है, मन का पात्रा पोला हो। तो इसके पहले कि कोई समझदार आदमी जीवन को आनंद से भरने निकले, वह मन के पात्रा की खोज कर लेता है। तो मेरे मित्र कुएं पर मैंने तुम्हें इशारा किया था। इशारा तो तुम नहीं समझे, उलटे मुझे शिक्षा देने लगे। लेकिन ठीक है कि तुम वापस लौट आए हो। अब आगे कुछ बात हो सकती है।
वह आदमी उस फकीर के पास सदा के लिए रुक गया। और वह आदमी जिस दिन मरा उस दिन वह गांव के लोगों से कह सका, मेरे हाथ खाली नहीं हैं। आज तक जमीन पर कुछ थोड़े से लोग, जिन्होंने मन को समझा है, यह कह सके हैं कि हमारे हाथ खाली नहीं हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि उनके हाथ भर गए। इसका यह अर्थ है कि जैसे ही उन्होंने हाथों को भरने की इस सारी दौड़ को समझा, उन्होंने भीतर देखा तो पाया, इस दौड़ के कारण, भीतर जहां कि वे सदा ही भरे हुए थे, इस दौड़ के कारण इस भरे हुए को नहीं देख पाते थे। इस दौड़ में उलझे रहते थे। और भीतर की संपदा, भीतर के साम्राज्य का कोई अंत होने को न था। यह दौड़ में जीवन चुक जाता था। भरने की कोशिश में, और वे यह जान ही नहीं पाते थे कि इस कोशिश के पीछे जो खड़ा है, वह निरंतर भरा हुआ है कि उसे भरने की कोई जरूरत नहीं। वह जो निरंतर भरा ही हुआ है हमारे भीतर, उसका ही नाम आत्मा है। और जो हमारे भीतर निरंतर खाली है, उसका नाम मन है।
दो तरह की दौड़ें हैं। एक मन की दौड़ है और दो ही तरह के मनुष्य हैं। मन के पीछे यात्रा करते हुए लोग और मन की यात्रा की व्यर्थता को जान कर, स्वयं में ठहर गए हुए लोग। जो स्वयं में ठहर जाता है, वह भर जाता है। और जो मन के पीछे दौड़ता है, वह निरंतर खाली से खाली होता चला जाता है। आखिर में यह खालीपन इतना घबड़ा देता है, यह एंप्टीनेस इतना घबड़ा देती है, यह निरंतर भीतर कुछ भी नहीं कर पाता, सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है। इतना फ्रस्ट्रेशन, इतनी पीड़ा इससे पैदा होती है, इतनी विफलता का विषाद पैदा होता है कि उस क्षण अगर किसी मनुष्य को लगता हो कि मैं अपने को समाप्त ही कर लूं, तो कोई आश्चर्य की बात तो नहीं है। कोई आश्चर्य की बात तो नहीं है कि कोई देख ले कि सब व्यर्थ हो गया है, तो जीऊं किसलिए! और एक दिन सारा जीवन ही राख मालूम पड़ने लगे। उसमें सब ज्योति बुझ जाए। कोई भी अपने को समाप्त कर लेने के ख़याल से भर सकता है।
आप में भी यहां शायद ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसने जिंदगी में कई बार खुद को खत्म कर लेने के खयाल का अनुभव न किया हो। कई बार जिसे ऐसा न लगा हो कि सब व्यर्थ है। इसमें क्या करूं? इसमें आगे जाने में कौन सी सार्थकता है? ऐसा विचारशील मनुष्य खोजना कठिन है, जिसके मन में आत्मघात का खयाल कभी न कभी न आ गया हो। सिर्फ दो तरह के लोगों में आत्मघात का खयाल नहीं आता। एक तो वे, जो नितांत जड़ बुद्धि हैं, जिनकी बुद्धि में कुछ भी नहीं आता। और एक वे, जिनके जीवन में आत्मा का आलोक प्रकाशित हो जाता है। बीच के तो सारे लोगों के मनों में आत्मघात के खयाल का आ जाना विचारशीलता का लक्षण है।
स्वभावतः आ जाएगी यह बात, कि क्या, अगर जीवन एक व्यर्थ का खेल है, अगर हम ताश के पत्तों का घर बनाएं, पैदा हो जाएगा। और इस तथ्य को बिना देखे आदमी जीवन की चिकित्सा करने की कोशिश करता है, निदान करता है। उसके सारे निदान भ्रांत सिद्ध होते हैं। और बीमारी से भी ज्यादा औषधियां खतरनाक सिद्ध होती हैं।
पांच हजार वर्षों से हजारों निदान प्रस्तुत किए गए, हजारों चिकित्साएं बताई गईं। यह करो, उपवास करो, प्रार्थना करो, सिर के बल खड़े हो जाओ, कपड़े छोड़ दो, नंगे हो जाओ, घर छोड़ दो, भाग जाओ, हजार-हजार उपाय बताए गए हैं कि यह करो इनके करने से सब ठीक हो जाएगा। लेकिन बुनियादी बात पर जिसका खयाल नहीं है, वह कुछ भी करे, किसी भी बात से कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि मन रहेगा मौजूद। आज दो उपवास करेंगे, मन कहेगा, इससे तो कुछ भी नहीं हुआ, कल तीन करें। कल तीन करेंगे और पाएंगे, इससे तो कुछ भी नहीं हुआ, कल सात करें। कल सात करेंगे, मन कहेगा, सात। इससे तो कुछ भी नहीं हुआ, कल पंद्रह करें। वह वही दौड़ है, एक लाख रुपये हैं, तो मन कहता है कि कुछ भी नहीं हुआ, दो लाख चाहिए। दो लाख होते हैं, तो कहता है, तीन लाख चाहिए। चार लाख चाहिए, वह कहता ही चला जाता है, एक उपवास करो, दो उपवास करो, तीन करो, वह कहता ही चला जाता है। इससे भी कुछ नहीं हुआ, आगे शायद कुछ होगा। दौड़ वही है, चाहे उपवास करो, चाहे रुपये इकट्ठा करो। मन वही है, उस मन में कोई फर्क नहीं पड़ा।
एक आदमी एक भवन बनाता चला जाए। एक मंजिल बनाता है, मन कहता, इससे कुछ भी नहीं हुआ, दूसरी मंजिल बनाओ, तीसरी मंजिल बनाओ, बनाते चले जाओ। आकाश छू लो, तब भी मन कहेगा कि कुछ नहीं हुआ। एक आदमी धन इकट्ठा करना शुरू करता है, तो मन कहता है और, और चाहिए और चाहिए तब कुछ होगा। एक आदमी त्याग करना शुरू करता है, तो मन कहता है और छोड़ो, और छोड़ो, और त्याग करो, तब कुछ होगा। लेकिन और की भाषा कायम रहती है। और की भाषा का नाम मन है। और चाहिए, चाहे छोड़ो, चाहे पाओ। लेकिन मन कहता है और करो। इससे कम पर राजी नहीं होता। उतने पर पहुंच जाते ही मन आगे फिर खड़ा हो जाता है और कहता है और करो।
न कोई त्यागी तृप्त होता है और न कोई भोगी। चूंकि दोनों के पीछे मन की यात्रा कायम रहती है। इसलिए ह.जारों साल से प्रस्तावित निदान व्यर्थ हो गए हैं। हजारों साल से बताई गई चिकित्साएं सार्थक नहीं हुईं। आदमी वहीं का वहीं खड़ा है।
मैंने सुना है, न्यूयाॅर्क के एक स्कूल में, एक छोटे से बाल मंदिर में, एक बच्चे के सम्बन्ध में वहां के शिक्षक बहुत चिंतित हो गए। बच्चे में कुछ ऐसे लक्षण दिखाई पड़ रहे थे कि चिन्ता स्वाभाविक थी। वैसे लक्षण बूढ़े में दिखाई पड़ें, तो कोई चिंता नहीं करता, क्योंकि वह अब जाने को है। उसके बाबत चिंता की जरूरत नहीं। लेकिन बच्चा तो अभी आने को है जगत में। और वह कुछ बूढ़ों जैसे लक्षण दिखाने लगा था। लक्षण की खबर इसलिए मिली थी कि उस बच्चे में इधर पंद्रह दिनों से देखा गया था कि वह कोई भी चित्र बनाता था, तो काले रंग से बनाता था। फूल बनाता तो काले रंग का, गाय बनाता तो काले रंग की, लड़का बनाता तो काले रंग का। सभी कुछ काले रंग का बनाता था।
उसके शिक्षक को खयाल गया इस बात पर। बात क्या है, काले रंग का इतना आग्रह इसमें क्यों है? काला रंग तो मौत का सबूत है, जिंदगी का नहीं। काले रंग का इतना प्रेम तो उदासी की खबर है, दुख की खबर है, चिंता की खबर है, प्रफुल्लता की तो नहीं, आनंद की तो नहीं।
और एक दिन तो हद हो गई, वह लड़का एक चित्रा बना कर लाया था, जो पूरा का पूरा काला था, जिसमें पहचानना मुश्किल था, क्या बनाया है। उसके शिक्षक ने पूछा कि यह क्या है। उस बच्चे ने कहाः देखते नहीं हैं, यह काला समुद्र है। यह काली नाव, यह काला आदमी बैठा हुआ है। ये काले दरख्त लगे हुए हैं। यह काला सूरज निकला हुआ है, ये काले फूल लगे हुए हैं। देखते नहीं ये काले पहाड़ हैं, काली बदलियां हैं, सब-कुछ काला था। पहचानना बहुत मुश्किल था।
उसके शिक्षक ने सोचा कि यह खबर मनोवैज्ञानिक को कर देनी उचित है। इस बच्चे की जिंदगी के भीतर कुछ गड़बड़ हो गई है। इसका इलाज होना जरूरी है। मनोवैज्ञानिक बुला लिया गया। उस मनोवैज्ञानिक ने पंद्रह दिन खोज-बीन की। पंद्रह दिन की, यही बहुत कम है। हिंदुस्तान का मनोवैज्ञानिक होता और कोई कमीशन बैठता, तो पंद्रह साल करते। फिर पंद्रह दिन थोड़ा ही वक्त लिया, कोई ज्यादा वक्त नहीं लिया। फिर विशेषज्ञ जितना ज्यादा वक्त ले, उतना ही थोड़ा है। बड़े-बड़े ग्रंथों के उद्धरण देकर उसने सिद्ध किया कि बच्चे की क्या-क्या तकलीफें हैं। बच्चे के जन्म से लेकर अब तक का उसने सारा इतिहास लिखा। बच्चे के मां-बाप आपस में लड़ते हैं, इसलिए बच्चा उदास है। उसके परिवार की स्थितियां अच्छी नहीं हैं। आर्थिक स्थितियां बुरी हैं। पड़ोस गंदा है। सारी बातें उसने लिखी। मनोविज्ञान के जितने भी दुख के कारण हो सकते थे, सबका ब्यौरा लिखा। वह रिपोर्ट आई।
रिपोर्ट आई, स्कूल का जो चपरासी था, वह भी हैरान था कि बच्चे की इस इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा तूफान किया जा रहा है। इतना अध्ययन किया जा रहा है। उसने उस बच्चे को एकांत में पकड़ा और पूछाः बेटे तुम मुझे तो बताओ कि तुम काले रंग से चित्रा क्यों बनाते हो। उस बच्चे ने कहाः असल बात यह है कि मेरी डब्बी के और सारे रंग खो गए हैं। सिर्फ काला रंग बचा हुआ है। उस बूढ़े चपरासी ने दूसरे रंग लाकर उसे दे दिए। दूसरे दिन से उसने काले चित्र बनाने बंद कर दिए। फिर वह लाल फूल बनाने लगा और पीला सूरज उगाने लगा।
एक बुनियादी बात जो किसी ने भी उससे नहीं पूछी। सब उसके अध्ययन में लग गए। लेकिन उससे किसी ने भी सीधा नहीं पूछा कि बात क्या है।
आदमी की चिकित्सा भी इसी तरह की चल रही है और बहुत बड़े-बड़े विशेषज्ञों के हाथ में आदमियों की जान बड़ी मुश्किल में पड़ गई है। बड़े-बड़े धर्मज्ञों ने, धर्म पुरोहितों ने, धर्म पुरोहितों के भी अलग-अलग संप्रदाय हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं, ईसाई हैं और न मालूम कितने तरह के रोग हैं सारी दुनिया में। और उन सबने इतने उपचार उपस्थित कर दिए हैं आदमी के साथ कि यह करो, यह करो! और उनके उद्धरण हैं। उनके ग्रंथ हैं समर्थन में कि यह करने से यह होगा और वह करने से वह होगा। क्या आदमी बहुत विधृत खड़ा होकर रह गया है कि क्या करे और क्या न करे। और शायद कुल जमा बात इतनी है कि मनुष्य के मन को सीधा देखने की बात हम सब में से सभी भूल गए हैं। वह मन सीधा देखा जाना चाहिए कि जिसकी सब दौड़ दुख में ले जाती है। उस मन के साथ अभी कुछ करने का सवाल उतना बड़ा नहीं है, क्योंकि बिना मन को जाने, जो कुछ भी किया जाएगा, उसका परिणाम गलत होना निश्चित है, चाहे दुकान चलाई जाए और चाहे प्रार्थना की जाए।
मन को बिना जाने जो कुछ भी किया जाएगा, उसका परिणाम खतरनाक होने वाला है, क्योंकि मन को बिना जाने, मन को बिना पहचाने किए गए कृत्य समाधान पर ले जाने वाले नहीं हो सकते। लेकिन हम सब यही पूछते फिरते हैं। हम जाकर किसी को पूछते हैं, मन अशांत है, क्या करें? तो वह कहता है, माला जपो। अशांत आदमी अगर माला भी जपेगा, तो अशांत आदमी ही तो माला जपेगा न। और अशांत आदमी की माला जपने का क्या मूल्य हो सकता है। कोई उसे कह देता है, जाकर उपवास करो, वह अशांत आदमी उपवास कर लेता है, वह और अशांत हो जाता है, और क्रोधी हो जाता है। जानते हैं भलीभांति हम धार्मिक लोगों को, उनका क्रोध और बढ़ता चला जाता है। जिस-जिस मात्रा में धर्म बढ़ता है, उस-उस मात्रा में क्रोध बढ़ता है।
हर आदमी, हर घर में हर आदमी पहचानता है कि अगर कोई आदमी धार्मिक हो रहा है, तो उसका बढ़ता क्रोध इसकी खबर देता है कि वह आदमी धार्मिक होता चला जा रहा है। इसने पूजा शुरू कर दी, इसने मंदिर जाना शुरू कर दिया, यह धर्मशास्त्र पढ़ने लगा है। उसका कोई कसूर नहीं है, कसूर है चिकित्सकों का। जो बिना इस बात की फिकर किए कि यह आदमी अशांत हुआ है, तो अशांत होने वाले मन में झांकने के लिए उपाय हो, अशांत आदमी को कहते हैं कि यह करो, वह करो। अशांत आदमी जो भी करेगा उससे अशांति और भी बढ़ जाएगी। सबसे अच्छा तो यह होगा कि अशांत आदमी अगर कुछ भी न करे, कोने में बैठ जाए, तो भी शायद कुछ हो सकता है।
नादिरशाह अपनी विजय यात्राओं पर था। एक गांव में ठहरा और उसने सुन रखा था कि एक बहुत बड़ा चिकित्सक, एक बहुत बड़ा ज्योतिषी उस गांव में है। उसने उसे बुलवाया। नादिर को बहुत नींद आती थी। बहुत सोता था। उसने उस चिकित्सक को पूछा कि लोग कहते हैं कि आप बहुत सोते हैं, यह बुरी बात है। इसकी वजह से आपको सब तकलीफें होती हैं। क्या मैं कम सोना शुरू कर दूं? लोग मुझे ग्रंथ लाकर बताते हैं कि कम सोना अच्छा है, ज्यादा सोना बुरा, क्या मैं कम सोऊं। उस ज्योतिषी और चिकित्सक ने, जो अदभुत रहा होगा, कहाः नहीं महानुभाव, आप चैबीस घंटे सोएं तो बहुत अच्छा। आपका जागना बहुत खतरनाक है। आप जैसे खतरनाक आदमी जितनी देर सोए रहें, उतना अच्छा है। अगर आप चैबीस घंटे सोए रहें, तो बहुत अच्छा। आप जितनी देर जागेंगे, उतना ही ज्यादा उपद्रव जगत में होगा। नादिरशाह ने उसको मरवा डाला।
सच्ची बातें आदमी कभी भी नहीं सुन सका है। सच्ची बात कहने का एक ही पुरस्कार हो सकता है कि जिसके लिए आप कहने गए थे, वह ही आप को मार डाले। लेकिन उस चिकित्सक ने बात तो बड़ी अदभुत कही थी। उसने कहाः ग्रंथों को एक तरफ रख दो। अच्छे आदमी का जागना अच्छा होता है, बुरे आदमी का सोना। ग्रंथों का सवाल नहीं है।
तो अशांत आदमी पूछता फिरता है, मैं क्या करूं कि मैं शांत हो जाऊं? और जो भी उससे कहता है, तुम यह करो, वह गलत सलाह दे रहा है, क्योंकि अशांत आदमी जो भी करेगा, उसे करने से अशांति और बढ़ जाने वाली है। अशांत आदमी को, अशांत मन को करने का सवाल नहीं है, जानने का सवाल है। करना और जानना दोनों बड़ी बुनियादी, अलग बातें हैं। अशांत मन क्यों है? इस तथ्य का पूरा साक्षात होना जरूरी है। इसके भीतर प्रवेश होना जरूरी है, इसका पूरा का पूरा ज्ञान होना जरूरी है, इस पर आंखें ले जानी जरूरी है कि अशांत क्यों हूं मैं, क्यों हूं पीड़ित, क्यों हूं चिंतित, क्यों हूं दुख से भरा हुआ।
भीतर की तरफ एक यात्रा जरूरी है मन को जानने के लिए। लेकिन अगर कभी आप भीतर की तरफ उत्सुक भी होते हैं, तो आत्मा को जानने के लिए उत्सुक होते हैं, जो बिलकुल गलत बात है। मन को जाने बिना कोई कभी आत्मा को नहीं जान सकता है।
तो अगर आप उत्सुक भी होते हैं भीतर के लिए, तो इसलिए कि भीतर आत्मा है क्या। नहीं, आत्मा की बात भी करनी ठीक नहीं। अभी तो सवाल मन का है, जिसका मन बिलकुल शांत हो जाता है, जिसके मन की दौड़ चली जाती है, तभी और तभी उसे उसका अनुभव हो सकता है, जो आत्मा है। उसके पहले आत्मा की सारी बातचीत बकवास है। उसके पहले आत्मा की बातचीत व्यर्थ है। उसके पहले आत्मा की बातचीत में भटकने वाला तरकीबें खोज रहा है इस मन से बचने की, जो उसे परेशान किए हुए है; और इसकी परेशानी से भागा नहीं जा सकता। इसकी परेशानी को जानना होगा, पहचानना होगा। और हम सब तो अपने आप से भागते हैं, अपने आप को कोई भी जानना नहीं चाहता। हम बातें जरूर करते हैं कि हम आत्मा को जानना चाहते हैं। आत्मा को जानना चाहते हैं, लेकिन अपने को नहीं। आत्मा शब्द से कुछ पता नहीं चलता।
आप हैं असली, आत्मा नहीं, आप! और आप क्या हैं? क्रोध हैं, हिंसा हैं, वैमनस्य हैं, द्वेष हैं, घृणा हैं, यह सब हैं आप। इसको नहीं जानना चाहते, आत्मा को जानना चाहते हैं, अमृत आत्मा को, जिसकी मृत्यु नहीं होती। ऐसी आत्मा को जिसमें आनंद ही आनंद है। ऐसी आत्मा को जहां कोई भय नहीं है। ऐसी आत्मा को जानना चाहते हैं, लेकिन अपने को नहीं। और जो अपने को नहीं जानता, वह आत्मा को कैसे जान सकेगा। और मैं यह कह रहा हूं, ये दोनों बातें बहुत अलग हैं। अपने को जानना अलग बात है, आत्मा को जानना बिलकुल अलग।
जो अपने को जान लेता है, वह आत्मा को जानने का द्वार खोलता है। अपने से मेरा मतलब है ठोस व्यक्ति, जो मैं हूं। लेकिन ठोस व्यक्ति से हम बिलकुल परिचित नहीं होना चाहते। बल्कि हम उस ठोस व्यक्ति को छिपाते हैं अच्छे-अच्छे वस्त्रों में कि न तो हम उसे जान पाएं, न दूसरा उसे जान पाए। जो आदमी हिंसक होता है, वह अपनी हिंसा को नहीं जानना चाहता। वह यही दिखलाना चाहता है कि मैं अहिंसक हूं।
तो अहिंसक होने के लिए वह कोई सस्ती तरकीबें खोज लेता है। वह पानी छान कर पीता है, रात को खाना बंद कर देता है। ये बहुत ही सस्ती तरकीबें हैं।
अहिंसा इतनी सस्ती बात नहीं। धर्म इतना सस्ता नहीं है, धर्म बहुत महंगा है। वह दिन में पानी छान कर पी लेता है। रात खाना नहीं खाता। वह कहता है, मैं अहिंसक हूं। बहुत होशियार आदमी है, सारी हिंसा को उसने भीतर छिपा लिया इस सस्ती अहिंसा में। भीतर है घृणा, लेकिन वह कहता है, मैं बहुत प्रेम से भरा हुआ हूं। वह प्रेम की बातें करता है, भीतर की घृणा को छिपाता है। अपनी पत्नी को वह कहता है, मैं तुझे प्रेम करता हूं। और अगर वह एक बार गौर से देखे, तो उसे पता चलेगा, ये शब्द निहायत झूठे हैं। अपने बेटों से वह कहता है, अपने बच्चों से, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। और अगर वह .गौर से देखे, तो उसे पता चलेगा, ये शब्द सिर्फ किसी फिल्म से सुने गए, सीखे गए हैं। ये शब्द सच्चे नहीं हैं।
अगर बाप अपने बेटों को प्रेम करते हैं, भाई अपने भाइयों को प्रेम करते हैं, मां अपने बच्चों को प्रेम करती है, पति पत्नी को, पत्नी पति को प्रेम करती है, तो सारी दुनिया में इतना प्रेम है, तो फिर हिंसा कहां से आती है, घृणा कहां से आती है, क्रोध कहां से आता है? युद्ध कहां से पैदा होते हैं? जब हर आदमी प्रेम कर रहा है; क्योंकि हर आदमी किसी का भाई है, किसी का पति है, किसी का बाप है, किसी का बेटा है; जब हर आदमी प्रेम कर रहा है हजार-हजार रास्तों से, तो दुनिया तो प्रेम से भर जानी चाहिए! साढ़े तीन अरब लोग हैं जमीन पर। कितना प्रेम होता जमीन पर अगर ये सबकी बातें सच होतीं। इस साढ़े तीन अरब का हजार-हजार गुना प्रेम हो जाता, क्योंकि एक-एक आदमी हजारों नाते-रिश्तों से बंधा है। जिनसे वह कह रहा है कि मैं तुम्हें प्रेम कर रहा हूं। साढ़े तीन अरब हैं, इसमें हम कितना गुना कर देते प्रेम का, दुनिया एक प्रेम का सागर हो जाती, लेकिन नहीं, सच्चाई उलटी है। दुनिया घृणा का एक सागर है।
पिछले तीन ह.जार वर्षों में चैदह हजार युद्ध हुए। चैदह ह.जार युद्ध तीन हजार वर्षों में! यह आदमी प्रेम करता है? चैबीस घंटे कलह और संघर्ष है और यह आदमी प्रेम करता है? निश्चित ही एक बात तय है, यह प्रेम की बातें करता है, प्रेम नहीं करता, क्योंकि प्रेम अगर यह करता, तो दुनिया बिलकुल दूसरी होती। पूरी दुनिया तो गवाह है इस बात की कि दुनिया घृणा का सबूत है, हिंसा का सबूत है, प्रेम का सबूत नहीं है। कौन बना रहा है इस दुनिया को? मैं और आप। मैं भी प्रेम करता हूं, आप भी प्रेम करते हैं, फिर यह घृणा कहां से आ रही है? हिंसा कहां से आ रही है? कौन युद्ध में मर रहा है और मार रहा है? कौन हत्या कर रहा है, कौन हत्या की तैयारियां करवा रहा है?
नहीं, यह बात सच नहीं हो सकती। यह बात निहायत झूठी है कि हम प्रेम करते हैं। लेकिन हम प्रेम की बातें जरूर करते हैं। और हम जितने सभ्य होते जाते हैं, हमारी बातें उतनी ही सुंदर होती चली जाती हैं। और जितनी हमारी बातें सुंदर होती चली जाती हैं, उतनी हम यह बात भूलते चले जाते हैं कि भीतर बहुत कुरूप व्यक्ति छिपा हुआ है, सुंदर बातों के पीछे, सुंदर वस्त्रों के पीछे हमने बहुत नंगे और कुरूप आदमी को छिपा रखा है।
वह है ठोस व्यक्ति उसको जानना है, आत्मा वगैरह को नहीं। वह जो ठोस आदमी है भीतर, जो सब तरफ से झूठ से घिरा हुआ है, जिसने सब झूठे अभिनय ओढ़ रखे हैं, जिसने सब भांति के वस्त्रों में अपने को सब तरह से छिपा लिया है और सुरक्षित कर लिया है, और बड़ा कठिन और बड़ा मजा तो यह है कि जब एक आदमी दूसरों को धोखा देने के लिए झूठे वस्त्र ओढ़ लेता है, तो धीरे-धीरे वह खुद भी उन वस्त्रों के धोखे में आ जाता है।
अमेरिका में जिस आदमी ने सबसे पहला बैंक खोला। जब वह सौ वर्ष का हो गया, वह आदमी सौ वर्ष का होके मरा, तो उसकी सौवीं जन्म-तिथि पर बहुत बड़ा जलसा मनाया गया। और उससे किसी ने पूछा कि आप अमरीका के पहले बैंक के बनाने वाले हैं, क्या आप बताएंगे कि आपने अपने बैंक की शुरुआत कैसे की? तो उस आदमी ने कहाः यह आप न पूछो तो अच्छा है। बैंक की मैंने शुरुआत की बड़ी अजीब तरह से। मैंने एक पेटी रख ली और दरवाजे पर ‘यहां बैंक है’ इसकी तख्ती लगा दी। और खाते-बहियां लेकर मैं बैठ गया कि शायद कोई आदमी रुपया जमा करवाए बैंक में। मुझे विश्वास नहीं था कि कोई करवाएगा। लेकिन घंटे भर बाद एक आदमी आया और डेढ़ सौ रुपये जमा करवा दिए। फिर घंटे भर बाद एक आदमी आया उसने भी दो सौ रुपये जमा करवाए, तब तक मेरी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि मेरे पास जो पचास रुपये थे, वे भी मैंने बैंक में जमा करवा दिए। तब तक विश्वास बढ़ गया। कांफिडेंस आ गया कि हां यह चलेगा काम। अभी तक मैंने अपने पचास रुपये जमा नहीं किए थे। अभी मैं देख रहा था, दो-चार लोग जमा करें, तो मैं भी हिम्मत करूं। बैंक मेरा ही था। फिर तो काम चल पड़ा।
लेकिन उसने बात बड़ी सच्ची कही। हम पहले चारों तरफ देख लेते हैं कि लोग विश्वास कर रहे हैं क्या, जो बात मैं कह रहा हूं, और अगर लोगों में दिखाई पड़ता है, वे लोग विश्वास कर रहे हैं, तो हम भी विश्वास कर लेते हैं कि बात सच्ची होनी चाहिए।
मैंने दो-चार लोगों से कहाः मैं तुमको बहुत प्रेम करता हूं, और उनकी आंखों में मुझे झलक दिखाई पड़ी, उन्होंने विश्वास किया। फिर धीरे-धीरे मैं भी विश्वास कर लेता हूं कि मैं प्रेम करता हूं।
और भीतर की जो घृणा थी, वह इस झूठे विश्वास में छिप गई। हमने भीतर इस तरह एक असली जो आदमी है हमारा, उसे छिपा रखा है, एक नकली आदमी को चारों तरफ से गढ़ लिया है। यह धोखा बहुत गहरा है, जिस व्यक्ति को भी जीवन के सत्य को जानना है, उसे इस धोखे को उघाड़ना पड़ेगा। यह बात बड़ी तपश्चर्यापूर्ण है, यह बहुत आरडुअस है कि हम इसको उघाड़ें और देखें। दूसरे को तो उघाड़ना बहुत आनंदपूर्ण है, लेकिन खुद को उघाड़ना उतना ही कष्टपूर्ण है। हम सब दूसरों को निरंतर उघाड़ते रहते हैं। निंदा करते हैं, सुबह से शाम तक चर्चा करते हैं कि फलां आदमी बुरा है, फलां आदमी ऐसा है, फलां आदमी वैसा है।
नीचे से लेकर ऊपर तक, असाधु से लेकर साधु तक निरंतर चर्चा कर रहा है कि कौन आदमी को किस तरह उघाड़ कर देख ले। किस आदमी की दीवाल के छेद में से झांक कर देख ले कि भीतर क्या हो रहा है। पड़ोसी के छप्पर में से देख ले कि पड़ोसी क्या कर रहा है। हर आदमी एक-दूसरे में झांकने की कोशिश में लगा हुआ है। लेकिन बहुत विरल हैं वे लोग जो अपने छप्पर को उघाड़ते हैं और अपनी दीवाल के छेद में से देखने की कोशिश करते हैं कि मेरे भीतर क्या हो रहा है।
एक स्कूल में एक सुबह ही सुबह एक इंस्पेक्टर निरीक्षण के लिए पहुंचा। वह जैसे ही स्कूल में पहुंचा, उसने पहली कक्षा में प्रवेश किया। और उसने कहा कि इस कक्षा में जो तीन बच्चे सबसे ज्यादा होशियार हों, सबसे ज्यादा मेधावी व चुस्त हों, पहला लड़का जो सबसे ज्यादा होशियार हो वह आगे आए और तख्ते पर जो मैंने सवाल लिखा है उसको हल करे। एक लड़का उठा और धीरे से आकर उसने तख्ते पर सवाल हल किया और अपनी जगह बैठ गया। फिर दूसरा लड़का उठा, उसने भी जो सवाल दिया गया था, हल किया और अपनी जगह बैठ गया। फिर तीसरा लड़का उठा, वह कुछ झिझका और आने में कुछ डरा। लेकिन आया और तख़्ते पर सवाल हल करने लगा, तो इंस्पेक्टर ने उसे गौर से देखा, तो पाया कि यह तो पहले ही वाला लड़का है, जो पहली दफा आकर हल कर गया था।
उसने उसे रोकाः क्यों तुम धोखा दे रहे हो? तुम तो पहले ही सवाल हल कर चुके हो। तीसरा लड़का कहां है तुम्हारी कक्षा का, उस लड़के ने कहाः माफ करें तीसरा लड़का तो सुबह से क्रिकेट का खेल देखने चला गया है। और मुझसे कह गया है कि उसकी जगह कोई भी काम आए तो मैं कर दूं। इंस्पेक्टर आगबबूला हो गया। उसने कहाः हद हो गई। परीक्षाएं भी कोई किसी की जगह दे सकता है। धोखे की सीमा टूट गई। तुम दूसरे ही जगह परीक्षा दे रहे हो। यह बर्दाश्त के बाहर है। क्या नाम है तुम्हारा।
लड़का कंपने लगा, घबड़ा गया और शिक्षक की तरफ मुड़ा। वह इंस्पेक्टर, उसने कहा कि तुम खड़े हुए देख रहे हो। तुम्हें कहना चाहिए था, यह लड़का धोखा दे रहा है, तुम भी धोखे में सम्मिलित मालूम होते हो। उस शिक्षक ने कहाः माफ करें, मैं इस क्लास के लड़कों को पहचानता नहीं हूं। इंस्पेक्टर बोला: हद हो गई, तो तुम यहां किसलिए खड़े हो? तुम इस क्लास के शिक्षक नहीं हो क्या। उसने कहाः नहीं, इस क्लास का शिक्षक सुबह से क्रिकेट देखने चला गया है। वह मुझसे कह गया है कि मैं उसकी जगह जरा क्लास देख लूं।
तब तो हद हो गई बात की। इंस्पेक्टर पूरी तरह से गुस्सा हो आया, जोर से चिल्लाने लगा, टेबल ठोकने लगा और जितने भी नीति के वचन उसे मालूम थे, सब उसने कहे। कोई मौका नहीं छोड़ता है किसी को उपदेश देने का। मौका मिल जाए, कौन छोड़ता है? उसने भी नहीं छोड़ा। बहुत चिल्लाया। शिक्षक भी पसीना-पसीना हो गया। लड़के भी घबड़ा कर रह गए। पता नहीं अब क्या होगा और क्या न होगा। फिर इंस्पेक्टर जाने को हुआ और हंसने लगा और अंतिम बात उसने यह कही। उसने कहाः मेरे मित्रो, आज तुम बच गए मुसीबत से। वह तो तुम्हारा भाग्य है कि असली इंस्पेक्टर सुबह से क्रिकेट का खेल देखने चला गया। मैं उसका दोस्त हूं। अगर आज असली इंस्पेक्टर होता तो तुम्हें इसका बहुत बुरा परिणाम भोगना पड़ता।
हमारी पूरी दुनिया ऐसी हो गई है। हर आदमी नहीं देख रहा है कि वह क्या कर रहा है और हर आदमी दूसरे की जगह खड़ा हुआ है। और हर आदमी दूसरे का अभिनय कर रहा है जो वह है नहीं, और हर आदमी ने इस तरह की एकिं्टग और इस तरह की प्रतिमाएं अपने चारों तरफ खड़ी कर ली हैं खुद की। एक बड़े झूठ में हर आदमी घिर गया है।
और यह आदमी कहता है कि मुझे आत्मा को पाना है, मुझे शांति चाहिए, मुझे मोक्ष चाहिए, मुझे परमात्मा के दर्शन करने हैं। यह आदमी कह रहा है कि मुझे यह चाहिए। इस आदमी को सबसे पहले यही चाहिए कि वह अपने झूठे वस्त्रों को उतार दे, वह जो भीतर सच्चाई है, वह जो सच्चा आदमी है, उसको देखने के लिए राजी हो जाए। जिस दिन भी कोई आदमी अपने सच्चे आदमी को देखने के लिए राजी हो जाता है, उसी दिन उसके जीवन में एक क्रांति घटित होनी शुरू हो जाती है। उसी दिन एक परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। उसी दिन एक नई, एक नये जगत का द्वार जैसे खुलने लगता है। क्योंकि जब हम देखते हैं अपने भीतर सच्चे आदमी को, जो हम हैं, झूठे आदमी को नहीं, जो हमने दूसरों को दिखा रखा है कि जो हम हैं। जिस दिन हम सच्चे और ठोस और सच्चे आदमी की परख करना शुरू करते हैं, उसी दिन मन का रहस्य हमारे सामने खुलना शुरू हो जाता है कि यह मन क्या है। फिर इस मन को भरने का सवाल नहीं रह जाता, फिर इस मन को पूरा करने का सवाल नहीं रह जाता; क्योंकि जो मन क्रोध है, उसे कौन पूरा करना चाहेगा; क्योंकि जो मन द्वेष है, उसे कौन पूरा करना चाहेगा; क्योंकि जो मन चिंता है, दुख है, पीड़ा है उसे कौन पूरा करना चाहेगा।
जो मन इतना कुरूप है, उसकी सहायता में, उसके साथ, उसे पाने के लिए कौन यात्रा करना चाहेगा? तब इस मन के साथ अनिवार्यरूपेण, एक अनासक्ति फलित होती है। इस मन के दर्शन से, इस मन को देखने से, एक अनिवार्य वैराग्य इस मन के प्रति उदित होता है, उसे पैदा करना नहीं पड़ता। इस मन की कुरूपता को देखने से वह अपने आप सहज पैदा हो जाता है। और तब, तब इस मन को जानने के, इस मन को पहचानने के, इस मन से पूरी तरह परिचित होने की संभावना पैदा होती है। जब तक हम इस मन को भरने की कोशिश में हैं तब तक कौन, जानने की फुरसत किसे है, समय किसे है, अवकाश किसे है, ठहरने की सुविधा किसे है? मन कह रहा है, भागो-भागो इसको पाओ, उसको पाओ, यह लाओ, वह लाओ, यह मन क्यों कह रहा है? यह मन इसलिए कह रहा है, ताकि मन को आप न देख पाओ। भागते रहो, ताकि मन को न देख पाओ, क्योंकि जिस दिन भी आप रुकोगे, उसी दिन इस मन का दर्शन हो जाएगा।
और मन का दर्शन मन की मृत्यु है। मन को जो पूरी तरह देख लेगा, मन का नाश हो जाएगा। मन विलीन हो जाएगा। मन को पूरी तरह देख लेना वैसा ही है जैसे कोई जहर की प्याली को पूरी तरह जान ले कि यह जहर है। और इसको पीने से मृत्यु होने वाली है। बात खत्म हो गई फिर जहर को छोड़ना थोड़े ही पड़ेगा। जाकर किसी साधु के चरणों में बैठ कर प्रतिज्ञा थोड़े ही लेनी पड़ेगी, कि मैं जहर को छोड़ने का व्रत लेता हूं। कि लेना पड़ेगा? कि जाके किसी मंदिर में भगवान को साक्षी रख कर कहना पड़ेगा कि हे भगवान, मेरी सहायता करना। मैं जहर को छोड़ने का व्रत लेता हूूं। आजीवन अब जहर न पिऊंगा। नहीं, फिर कोई व्रत लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। व्रत उसको लेना पड़ता है, जो अपने को धोखा दे रहा है। जो अपने को देखता है, उसके लिए कोई व्रत नहीं रह जाता।
वह देखना ही, परिणाम में, परिवर्तन हो जाता है। इस बात को ठीक से देखना कि यह मन कैसा अग्ली, कैसा कुरूप, कैसा गंदा, कैसा रोगग्रस्त, कैसा दुष्पूर है। मन की इस बाॅटमलेस पिट को, यह जो खड्ढ है मन का, जिसको भरना संभव नहीं। इस अनंत खड्ढ को ठीक से देखना ही इससे छुटकारा बन जाता है।
इसलिए पहली बात है, आत्मा को देखने की नहीं, मनुष्य की सच्चाई को, जैसा मनुष्य है, चाहे वह भीतर पशु हो, चाहे वह भीतर कितना ही कुरूप, कितना ही घिनौना हो, इस सीधे मनुष्य को पूरी तरह देखना जरूरी है। लेकिन हम, हम तो इसे कैसे देखेंगे, हम तो इसे छिपाने की कोशिश में संलग्न हैं। हम तो सब भांति फिर इसको ढांक रहे हैं कि यह दिखाई न पड़ जाए किसी को। हम तो इसे अच्छे-अच्छे शब्दों में, सभ्यता में, संस्कार में, समाज की बातों में, शिक्षा में इस तरह ढांक लेते हैं, जिसका कोई पता चलना ही मुश्किल हो जाता, पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि असली आदमी कहां है।
अगर हम खुद भी अपने भीतर जाएं, तो हमें वस्त्रों पर वस्त्रों की कतार-कतार, पर्त-पर्त मिलेगी। मुश्किल हो जाएगा, भीतर असली आदमी कहां है! इतने वस्त्र हमने ओढ़ लिये हैं। और कोई भी थोड़ा सा भी सजग होकर देखेगा, तो उसे दिखाई पड़ेगा कि दिन भर मैं वस्त्रा ओढ़े हूं, दिन भर मैं एकिं्टग कर रहा हूं। सुबह से लेकर सांझ तक। सांझ से लेकर फिर सुबह तक, सपने तक में हम वस्त्र ओढ़े खड़े रहते हैं। जागने की तो बात अलग है। और धीरे-धीरे भूल जाते हैं।
बट्र्रंेड रसेल एक दिन सुबह अपने घर के द्वार पर टहल रहा था। एक आदमी ने उससे आकर कहाः महानुभाव, मैंने आपकी बहुत सी किताबें देखी हैं, लेकिन मैंने उन सबको पढ़ने योग्य नहीं पाया। एक किताब मुझे पढ़ने योग्य मालूम पड़ी, तो मैंने उसे पढ़ा, लेकिन वह मेरी समझ में नहीं आई। केवल एक वाक्य मेरी समझ में आया और जो वाक्य समझ में आया वह निहायत गलत, बिलकुल झूठ है जो तुमने कहा है उस किताब में।
रसेल ने कहाः वह कौन सा वाक्य है? उसे भी उत्सुकता हो गई कि जिस आदमी ने सारी किताबें देखीं, एक किताब पढ़ने योग्य मालूम पड़ी, उस एक किताब को पूरा पढ़ा तो कुछ समझ में नहीं आया। एक वाक्य समझ मेंआया और वह वाक्य भी गलत है। कौन सा है वह वाक्य। उस आदमी ने कहाः तुमने अपनी किताब में लिखा हैः सीजर इ.ज डेड, कि सीजर मर गया। झूठी है यह बात, सीजर को मरे सैकड़ों वर्ष हो चुके हैं।
रसेल भी घबड़ाया, उसने कहा कि क्यों इसका क्या प्रमाण है कि यह झूठी है। उसने कहाः प्रमाण यह कि मैं ही हूं सीजर। और क्या प्रमाण चाहिए। रसेल ने उससे हाथ जोड़े। ऐसे आदमी से बातचीत करने का कोई अर्थ न था। पीछे पता चला, वह आदमी एक नाटक में सीजर का काम किया था और पागल हो गया था। और तब से वह यही समझने लगा है कि मैं सीजर हूं। और वह यही कहता फिर रहा था कि मैं सीजर हूं। मैं फलां हूं, मैं ढिकां हूं। यह आदमी विक्षिप्त है, क्योंकि इसने अभिनय को सत्य समझ लिया।
हिंदुस्तान के एक पागलखाने में, नेहरू तब जिंदा थे, उस पागलखाने को देखने गए। एक पागल उस पागलखाने से मुक्त होने को था। वह स्वस्थ हो गया। अधिकारियों ने रोक रखा था कि कल नेहरू आने को हैं, तो उन्हीं के हाथ से इसे छुटकारा पागलखाने से दिला देंगे। उस दिन उत्सव हुआ। और नेहरू ने उस आदमी को धन्यवाद दिया, उसकी पीठ थपथपाई। और कहा कि बड़ा अच्छा है कि तुम ठीक हो गए। उस आदमी ने पूछा कि महाशय क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है? उन्होंने कहाः मेरा नाम जवाहरलाल नेहरू है। उस आदमी ने जवाहरलाल नेहरू की पीठ थपथपाई और कहाः घबड़ाओ मत! आप भी अगर यहां दो-तीन साल रह जाओ, तो ठीक हो जाओगे। क्योंकि तीन साल पहले मुझे भी यही खयाल था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। अब मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। अब मुझे यह खयाल नहीं है।
हम सारे लोगों को कुछ-कुछ खयाल है कि हम कौन हैं और क्या हैं। अगर कोई धक्का दे दे आपको रास्ते में, तो आप कहते हैं, जानते नहीं मैं कौन हूं? सबको खयाल है कि हम कुछ हैं। और बड़ा मजा यह है कि वह जो कुछ होने का खयाल है, निश्चित ही झूठा होगा। क्योंकि आपको यह तो पता ही नहीं है कि आप कौन हैं। वह कोई ओढ़ा हुआ अभिनय होगा, एकिं्टग होगी। कोई खयाल आपको पकड़ गया होगा कि आप यह हैं। और फिर उसको आप जोर देते चले गए होंगे कि मैं यह हूं, मैं यह हूं।
सारे वस्त्रा उतारकर जो अपने सच्चाई से भरे, ठोस व्यक्तित्व को देखने चलेगा, उसके जीवन में एक क्रांति निश्चित हो सकती है। कैसे हम उसके वस्त्र उतार दें, और कैसे उन वस्त्रों के पीछे गहरे से गहरे आत्मा को, सच्चाई को, सत्य को खोज लें। उसकी बात मैं आने वाले दिनों की चर्चा में आपसे करूंगा। अभी तो मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि झूठे हैं हमारे वस्त्रा, नितांत झूठे हैं। हमने दूसरों को धोखा देने के लिए उन वस्त्रों को ईजात किया है। मैं अच्छा आदमी हूं, भला आदमी हूं मैं, यह हूं, मैं वह हूं।
एक साधु गांधी के पास आया और उसने कहा फिरः मैं जाना चाहता हूं गांव में सेवा करने। गांधी ने कहाः पहली सेवा तुम यह करो, अपने यह गेरुए वस्त्र उतार दो, क्योंकि अगर इन वस्त्रों को पहन कर तुम गांव में गए, तो लोग तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम उनकी सेवा न कर पाओगे। उस आदमी ने कहाः ये वस्त्र मैं कैसे उतार सकता हूं, मैं संन्यासी हूं। जैसे कि गेरुआ वस्त्र पहनना और संन्यासी होना एक ही बात है। जैसे कि गेरुए वस्त्र से संन्यास का कोई भी संबंध है। जैसे कि रंग और वस्त्रों से भी संन्यास का कोई वास्ता है। वह आदमी वापस लौट गया। उसने कहाः और सब-कुछ कहिए तो ठीक, लेकिन गेरुए वस्त्र, यह मैं कैसे उतार सकता हूं। मैं संन्यासी हूं।
हम सब भी कुछ न कुछ होने के वस्त्र पहने हुए हैं। और कोई अगर हमसे यह कहेगा, उतारिए ये वस्त्र, तो हम यह कहेेंगे, मैं ये वस्त्र कैसे उतार सकता हूं, मैं तो मिनिस्टर हूं गुजरात का। ये वस्त्र मैं कैसे उतार सकता हूं, मैं तो फलां हूं। ये वस्त्र मैं कैसे उतार सकता हूं? और सब कहिए, वस्त्र उतारने की बात मत कहिए, क्योंकि यही तो मेरा व्यक्तित्व है, यही तो मेरी पर्सनेलिटी है, यही तो मैं हूं। और बड़ा मजा यह है कि इन्हीं वस्त्रों के कारण जो मैं हूं उसे हम नहीं जान पाते।
एक बात आज सुबह अंतिम रूप से आपसे कहना चाहता हूं।मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, झूठे वस्त्रों का व्यक्तित्व है। और जो आदमी इन झूठे वस्त्रों को पकड़े रहेगा वह आदमी कभी उस सत्य को नहीं जान सकेगा, जो उसके भीतर छिपा है। वह आदमी कभी भी जीवन के अर्थ और आनंद से परिचित नहीं हो सकता, क्योंकि झूठे वस्त्रों में कैसे हो सकता है कोई आनंद? झूठे वस्त्रों में झूठा आनंद ही हो सकता है। झूठे व्यक्तित्व में आनंद की झूठी झलक ही हो सकती है। जब झूठे वस्त्रों के व्यक्तित्व को हम सच्चा समझे हैं, तो परिणाम में हम जिन आनंदों को सच्चा समझे हैं, वे भी सच्चे नहीं हो सकते। हमारा सारा व्यक्तित्व एक बड़ी झूठ है। इसलिए हमारे सुख भी झूठे हैं। हमारे आनंद भी झूठे हैं। हमारे जीवन की प्रफुल्लता और हंसी झूठी है।
किसी भी आदमी की मुस्कुराहट पकड़ कर थोड़ा उसके भीतर जाओ, पाओगे कि मुस्कुराहट ऊपर थी, भीतर सब दुख है, सुबह से किसी आदमी से पूछोः कैसे हैं? खूब मुस्कुरा कर कहता है: बिलकुल अच्छा हूं। बिलकुल झूठी है यह बात। कोई आदमी बिलकुल अच्छा नहीं है, नहीं तो दुनिया और हो जाती। लेकिन सब शब्द हैं, जो हम उपयोग कर रहे हैं और कहे जा रहे हैं।
नीत्शे से किसी ने पूछा कि तुम हमेशा हंसते रहते हो। इतने प्रसन्न। क्या बात है? शायद नीत्शे ने बड़ी अदभुत और सच्चाई की बात कही। उसने कहा कि मैं इसलिए हंसता रहता हूं, ताकि रोने न लगूं, इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लगूं। इससे पहले कि रोना आए, मैं हंसने लगता हूं, ताकि जो रोना है, वह भीतर ही रह जाए और हंसी बाहर से काम कर जाए। और रोने का मौकष न आए। धीरे-धीरे मैं यह तरकीब सीख गया। अब तो मैं दिन भर हंसता रहता हूं, ताकि रोना ऊपर न आए। रोना बाहर आ जाए, तो बहुत कठिनाई हो सकती है।
तो हमने भीतर जो है वह बाहर न आ जाए, उसे भीतर छिपाने के लिए बाहर हंसी, बाहर फूल, बाहर सुन्दर बा.ग, बाहर सब सजा रखा है। भीतर सब कुरूप हो गया, भीतर सब बीमार और रुग्ण हो गया है। इसे हम कैसे जान सकते हैं। और कैसे इसके पार हुआ जा सकता है, उसकी बात मैं आने वाले दो दिनों में आपसे करने को हूं।
एक छोटी सी कहानी अंत में और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक रात एक रेगिस्तानी सराय में एक काफिला आकर ठहरा। उसने अपने ऊंटों को बांधा, खूंटियां गड़ाईं, रस्सियां बांधीं आधी रात हो गई थी बांधते-बांधते। आखिर में ऊंट के मालिकों को पता चला, एक ऊंट की खूंटी और रस्सी रास्ते में कहीं खो गई है। निन्यानबे ऊंट बांध दिए गए थे, सौवां ऊंट अनबंधा रह गया था। रात थी अंधेरी, अनबंधा ऊंट छोड़ा जा सकता था। रात भटक सकता था। बांध देना जरूरी था। वह भागा हुआ सराय के बूढ़े मालिक के पास गया और उसने कहा: खूंटी हो आपके पास एक और थोड़ी रस्सी, तो दे दें! एक ऊंट हमारा अनबंधा रह गया है।
उस मालिक ने कहाः नहीं, खूंटी और रस्सी तो नहीं है, लेकिन रात अंधेरी है, घबड़ाओ मत। जाओ झूठी खूंटी गाड़ दो और झूठी रस्सी बांध दो और ऊंट से कहो, सो जाओ। वह आदमी हंसा। उसने कहाः मेरी जिंदगी हो गई ऊंट बांधते हुए, कहीं झूठी खूंटी से और झूठी रस्सी से ऊंट बंधे हैं? तुम क्या ऊंट को कोई आदमी समझते हो कि झूठी खूंटी और रस्सियों से बंध जाए? लेकिन उस सराय के मालिक ने कहाः घबड़ाओ मत, ऊंट आदमी से ज्यादा समझदार नहीं होते, तुम जाओ कोशिश करो। फिर कोई उपाय भी नहीं है इसके सिवाय। खूंटियां हैं नहीं हमारे पास। मजबूरी थी जाना पड़ा। ऊंट के मालिक ने झूठी खूंटी गाड़ी अंधेरे में, थी नहीं सिर्फ ठोका, आवाज की, जैसी कि असली खूंटी होती, तो आवाज करता। आवाज सुन कर ऊंट खड़ा था, बैठ गया। फिर उसने गले में हाथ डाला और झूठी रस्सी बांधी, जो थी नहीं, लेकिन उस तरह हाथ फेरा, जैसा कि असली रस्सी बांधता, तो फेरता, और रस्सी को बांध दिया। ऊंट से कहाः सो जाओ। और चला गया और देख कर हैरान हुआ कि ऊंट सो गया। सुबह जल्दी ही उनको नई अपनी यात्रा पर निकलना था, सारे ऊंट की खूंटियां उखाड़ दी गईं। उसकी तो कोई खूंटी न थी, कौन उखाड़ता, कैसे उखाड़ता। सारे ऊंट उठ कर खड़े हो गए जाने को, लेकिन बंधा हुआ ऊंट, सौवां ऊंट बैठा रह गया, वह उठा नहीं। उसे बहुत धक्के दिए, कोड़े मारे, लेकिन वह उठता नहीं था। उठता भी कैसे वह? बेचारा बंधा हुआ था। बड़ी मुश्किल हो गई। भागे हुए उस बूढ़े के पास गए कि तुमने कोई मंत्र कर दिया क्या। हमें तो रात ही हैरानी हुई थी कि हद हो गई कि ऊंट झूठी खूंटी से बंध गया। अरे ऊंट कोई आदमी है क्या। लेकिन फिर भी ऊंट भी धोखा खा गया। तुमने कर क्या दिया। ऊंट उठ नहीं रहा है। उस मालिक ने कहाः पहले खूंटी उखाड़ो। पहले रस्सी खोलो। उन्होंने कहाः कौन सी रस्सी, कौन-सी खूंटी? उसने कहाः वही जो रात गाड़ी थी और बांधी थी।
मजबूरी थी ऊंट उठता नहीं था। खूंटी उखाड़नी पड़ी, जो थी ही नहीं। रस्सी खोलनी पड़ी, जिसका कोई अस्तित्व न था। और ऊंट उठ कर खड़ा हो गया।
मैंने यह घटना सुनी है ऊंट के बाबत। मुझे पता नहीं ऊंटों के संबंध में यह सच है या नहीं। लेकिन जितने आदमियों को मैंने अपनी जिंदगी में देखा है, सबको ऐसी खूंटियों से बंधा हुआ, जो हैं ही नहीं। और ऐसी रस्सियों से बंधा हुआ, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन इन खूंटियों को भी उखाड़ना पड़ेगा, चाहे वह हो या न हो, और उन रस्सियों को भी खोलना पड़ेगा, चाहे उनका कोई अस्तित्व हो या न हो।
तो कैसे उन खूंटियों को हम उखाड़ सकते हैं, उसकी मैं आपसे बात करूंगा। मेरी बातों को आज की सुबह इतने प्रेम और शांति से आपने सुना। परमात्मा करे, आप सच में ही मेरी बातों को सुन पाए हों, क्योंकि कान बहुत दुर्लभ हैं और आंखें बहुत मुश्किल। लेकिन फिर भी मैं आशा करता हूं, किसी ने जरूर सुना होगा। और हो सकता है, यह बात उसके भीतर पहुंच जाए और उसके भीतर एक चिंगारी पैदा हो जाए और कुछ हो सके। मैं धन्यवाद देता हूं कि आपने कम से कम सुनने की कोशिश तो की, चाहे सुना हो, चाहे न सुना हो।
और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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