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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(प्रेम है दान स्वयं का)

मेरे प्रिय आत्मन्!
उस कहानी का संबंध कल मैंने जो आपसे कहा है उससे बहुत गहरा है। कल मैंने जो आपसे कहा है, वह उस कहानी में पूरा का पूरा वापस आपके सामने खड़ा हो सके, इसीलिए उसे दोहराऊंगा।
एक सम्राट के दरबार में एक दिन एक बहुत आश्चर्यजनक घटना घटने को थी। सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई। शाही दरबार के सारे सदस्य मौजूद थे और सभी बड़ी आतुर प्रतीक्षा से ठीक घड़ी का इंतजार कर रहे थे। एक व्यक्ति ने आज से छह महीने पहले सम्राट को कहा था, तुम इतने बड़े सम्राट हो, तुम्हें साधारण आदमी के वस्त्र शोभा नहीं देते। तुम चाहो, तो मैं देवताओं के वस्त्र स्वर्ग से तुम्हारे लिए ला सकता हूं। सम्राट के लोगों को यह बात पकड़ गई थी। और उसने सोचा, उचित होगा यह, कि मनुष्य-जाति के इतिहास में मैं पहला मनुष्य होऊंगा, जिसने देवताओं के वस्त्र पहने।

संदेह तो उसके मन को हुआ कि देवताओं के वस्त्र कैसे लाए जा सकेंगे? लेकिन, हर्ज भी क्या था। थोड़े-बहुत रुपयों का खर्च ही हो सकता था। वह आदमी धोखा भी क्या दे सकता था। सम्राट ने कहाः मैं राजी हूं, जो भी खर्च हो, करो और देवताओं के वस्त्र ले आओ। कब ला सकोगे? उस आदमी ने छह महीने का समय मांगा और कई लाख रुपये मांगे, क्योंकि देवताओं तक पहुंचने में द्वारपालों से लेकर बीच के सभी अधिकारियों को बहुत रिश्वत देनी जरूरी थी। जमीन पर ही रिश्वत चलती हो ऐसा नहीं है, वहां स्वर्ग में भी चलती थी।


उसे रुपये दे दिए गए। और वह हर माह और रुपये की मांग करने लगा। उतने से कुछ नहीं हो सकता, और रुपये चाहिए। दरबारियों को संदेह था, वजीरों को संदेह था कि वह आदमी धोखा दे रहा है, लेकिन राजा अपने लोभ के कारण संदेह को दबाए बैठा था। और प्रतीक्षा कर रहा था कि आखिर वह कितने लेगा और छह महीने पूरे होने को आ गए।
जिस दिन सुबह उसे वस्त्र लेकर दरबार में उपस्थित होना था, उस रात उस आदमी के महल पर चारों तरफ पुलिस का पहरा लगा दिया गया था कि कहीं वह रात भाग न जाए। लेकिन वह भागा नहीं, वह अपने वचन का पूरा सिद्ध हुआ और सुबह लोगों ने देखा कि वह एक बहुमूल्य पेटी में वस्त्रों को लेकर राजमहल की तरफ चल पड़ा।
स्वभावतः सभी की उत्सुकता थी। उसने पेटी जाकर राजदरबार में रखी। अब तो संदेह का कोई कारण न था। वह वस्त्र ले आया था। राजा ने अपने वजीरों की तरफ देखा, जो निरंतर कहते रहे थे कि यह आदमी धोखेबाज मालूम होता है। देवताओं के वस्त्र न कभी देखे गए, न सुने गए। उस आदमी ने पेटी खोली और पेटी खोलने के बाद, उसने कहा राजा को: अपने वस्त्र उतार दें और नये वस्त्र सबके सामने पहन लें। लेकिन इसके पहले कि मैं वस्त्र आपको दूं, देवताओं ने एक शर्त रख दी है, वह बता देना जरूरी है। ये वस्त्र केवल उसी को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही पिता से पैदा हुआ हो।
उसने पेटी खोली और खाली हाथ बाहर निकाला, कहाः यह पगड़ी सम्हालो। राजा को हाथ खाली दिखाई पड़ रहा था, लेकिन पूरे दरबारी तालियां बजा रहे थे और कह रहे थे, ऐसी सुंदर पगड़ी हमने कभी देखी नहीं। सभी दरबारियों को हाथ खाली दिखाई पड़ रहा था, लेकिन शेष सारे लोग जब तालियां बजा रहे हों, तो कौन पागल बने और कौन अपने पिता पर संदेह की अंगुली उठवाए। इसलिए हर आदमी बहुत जोर से प्रशंसा कर रहा था, ताकि पड़ोसी यह समझ ले कि मुझे बिलकुल ठीक-ठीक दिखाई पड़ रही है, पगड़ी बहुमूल्य थी, ऐसी कभी देखी नहीं गई थी।
राजा हतप्रभ खड़ा था, अगर इनकार करता था, तो इससे ज्यादा असम्मान की और कोई बात नहीं हो सकती थी। हां भरना ही उचित था। उसने अपनी पगड़ी, जो कि थी, उस आदमी के हाथों में दे दी और वह पगड़ी ले ली, जो कि बिलकुल नहीं थी और सिर पर रख ली। लेकिन पगड़ी तक ही बात होती तो मामला चल जाता। फिर कोट भी उतर गया, फिर कमीज भी, फिर धोती भी और फिर अंतिम वस्त्र के उतरने का समय आ गया।
एक-एक वस्त्र वह आदमी निकालता गया और बोलता गया यह लें। और राजा एक-एक वस्त्र छोड़ता गया। अंतिम वस्त्र छोड़ने में उसे बहुत घबड़ाहट मालूम हुई, वह बिलकुल नग्न हुआ जा रहा था। लेकिन सारे दरबारी ताली बजा रहे थे कि धन्य हैं हमारे महाराज! इतने सुंदर वस्त्र! वे इतने सुंदर कभी नहीं दिखाई पड़े थे। ऐसे वस्त्र पहली दफे मनुष्य को उपलब्ध हुए हैं।
राजा इनकार भी करता तो क्या? उसने सोचा, उचित है कि मैं नग्न ही हो जाऊं। अंतिम वस्त्र भी छोड़ दिया गया, राजा बिलकुल नग्न खड़ा था। हर आदमी देख रहा था राजा नंगा है, लेकिन कौन कहता। और तब वह आदमी जो देवताओं के वस्त्र लेकर आया था, उसने कहाः उचित होगा देवताओं के वस्त्र पृथ्वी पर पहली बार उतरे हैं, तो आपकी शोभायात्रा निकले, जुलूस निकले, सारा नगर देख ले। इनकार करना कठिन था। मजबूरी थी, राजा को राजी होना पड़ा।
नग्न राजा रथ पर बैठ कर नगर में चला, लाखों लोगों की भीड़ दोनों तरफ इकट्ठी है। हर आदमी देख रहा है कि राजा नंगा है, लेकिन कौन कहे। भीड़ तालियां बजा रही थी और वस्त्रों की प्रशंसा कर रही थी। सारे नगर में वस्त्रों की प्रशंसा थी और एक भी आदमी यह कहने वाला नहीं था कि मुझे वस्त्र दिखाई नहीं पड़ते। राजा नंगा है।
एक छोटे से बच्चे ने, जो अपने बाप के कंधे पर सवार होकर भीड़ में वस्त्रों को देख रहा था, उसने कहाः अपने पिता से कहा, लेकिन मुझे तो वस्त्र दिखाई नहीं पड़ते। उसके पिता ने कहाः चुप नासमझ, अभी तुझे कोई अनुभव नहीं है। मैं अनुभव से कहता हूं जीवन भर के, कि वस्त्र हैं और मैंने अपने बाल धूप में नहीं पकाए। चुप रह इस तरह की बात मुंह से मत निकाल। जब तू भी अनुभवी हो जाएगा, तो तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ने लगेंगे। शायद और छोटे कुछ बच्चों ने शक पैदा किया हो, लेकिन बच्चों की कौन सुनता है, बूढ़े बहुत समझदार हैं। और बूढ़ों ने बच्चों की जबानें बंद कर दी होंगी। अनुभवी लोग गैर-अनुभवी लोगों की .जबान हमेशा बंद कर देते हैं।
वह शोभा यात्रा निकल गई, गांव भर में उस दिन, उस रात उन्हीं वस्त्रों की चर्चा होती रही और हर आदमी अपने मन में सोचता रहा कि राजा नंगा था, फिर ये सारे लोग वस्त्रों की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?
इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं अपनी बात को कि मनुष्य के जीवन में ऐसा ही हो गया है। हजारों असत्यों पर हम केवल इसलिए स्वीकृति दे रहे हैं कि भीड़ उन असत्यों के लिए ताली बजा रही है और हां कर रही है। हजारों असत्यों को हम इसलिए मानने को राजी हो गए हैं क्योंकि हममें अकेेले होने की हिम्मत नहीं है, हम हमेशा भीड़ के साथ खड़ा होना पसंद करते हैं, ज्यादा सुरक्षित अनुभव करते हैं। किसी व्यक्ति में व्यक्ति होने का साहस नहीं है, इसलिए असत्य हमारे जीवन में सत्य बन कर बैठ गए हैं। और फिर हजारों वर्ष तक जब असत्य दोहराए जाते हैं और हजारों वर्षों की परंपरा जब उन असत्यों को सत्य की प्रतिभा दे देती है, सत्य की प्रतिष्ठा दे देती है और जब बचपन से बच्चे के अबोध मन पर उनकी छाप डालनी शुरू कर दी जाती है, तो शायद हमें स्मरण ही नहीं रह जाता कि असत्य सत्य जैसे कब प्रतीत होने लगे।
एक छोटे से बच्चे को हम मंदिर में ले जाते हैं और एक पत्थर की मूर्ति के सामने उससे कहते हैंः भगवान हैं ये, इनको प्रणाम करो। बच्चे के मन में वही होता होगा, कहां हैं भगवान! यहां तो एक पत्थर की मूर्ति रखी हुई है। वही होता होगा जो उस नगर में बच्चों के मन में हुआ था कि राजा तो नंगा है, लेकिन बड़े-बुजुर्ग कह रहे थे कि वस्त्र पहने हुए हैं। वह बच्चा भी देखता है और उसके पिता झुक रहे हैं, उसके पिता के पिता भी झुकते रहे हैं और हजारों वर्षों से इस मूर्ति को भगवान मानने वाले लोग रहे हैं और मैं नासमझ, मैं अबोध हूं। वह शायद स्वीकार कर लेता है और राजी हो जाता है। और जब तक उसका बोध जागता है, तब तक इस आदत का वह इतना आदी हो जाता है कि फिर शक करने का, संदेह करने का उसे खयाल भी नहीं उठता। वह भी अपने बच्चों को इसी झूठ को सिखा जाएगा, जो उसके मां-बाप ने उसे सिखा दिए हैं।
इस तरह झूठ यात्रा करते हैं हजारों साल की। और फिर उन हजारों साल के प्रतिष्ठित झूठों से मनुष्य बंध जाता है। जो आदमी इन बंधनों को न तोड़े, इन झूठी खूंटियों से अपने को मुक्त न कर ले, उस आदमी के जीवन में सत्य का कभी आगमन नहीं हो सकता। जो असत्य को उघाड़ कर असत्य की भांति देखने में समर्थ नहीं है, सत्य के दर्शन की भी संभावनाओं को बंद कर रहा है। सत्य को जानने के पहले असत्य को असत्य की भांति जान लेना बहुत जरूरी है, जो असत्य से नहीं छूटता सत्य से उसका कोई संबंध नहीं हो सकता है।
इसलिए सत्य की दिशा में जहां-जहां असत्य हैं, परंपरा से पूजित हजारों वर्ष की प्रतिष्ठा से मंडित, हजारों सदियों से हजारों लोगों के द्वारा उच्चरित उन सब पर संदेह की एक दृष्टि और विचार की एक प्रक्रिया से, उन सबको फिर से देख लेना, हर व्यक्ति के लिए जरूरी है। जो आदमी ठीक से संदेह करना नहीं सीख पाता, वह कभी फिर धार्मिक नहीं हो सकता, क्योंकि संदेह किए बिना, राइट डाउट किए बिना, ठीक-ठीक संदेह किए बिना, कोई मनुष्य असत्यों की असत्यता को कैसे देख सकेगा।
संदेह का सत्य, संदेह की शक्ति यही है कि वह असत्य के असत्य होने को प्रदर्शित कर देती है। संदेह असत्य की हत्या का उपकरण है, लेकिन हमें तो हजारों वर्षों से सिखाया जा रहा है कि विश्वास करो।

पूछे हैं प्रश्न, कोई दस-पांच मित्रों ने पूछे हैं कि बिना श्रद्धा और बिना विश्वास के तो धर्म नष्ट हो जाएगा?

सच्चाई उलटी है, विश्वास और श्रद्धा के कारण धर्म का जन्म ही नहीं हो पाया है। ठीक-ठीक धर्म पैदा होगा सम्यक संदेह से, तर्क और विचार से, चिंतन और मनन से स्पष्ट और निष्पक्ष विचार की ऊर्जा ही ठीक-ठीक धर्म को जन्म देती है, क्योंकि जो विश्वास कर लेता है, वह अंधा हो जाता है। सब विश्वास, विश्वास मात्र अंधे होते हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि अंधी श्रद्धा तो बुरी बात है, हम मान सकते हैं, लेकिन श्रद्धा ही बुरी बात है, यह हम नहीं मान सकते।

शायद उन्हें पता नहीं है, श्रद्धा यानी अंधापन, अंधी श्रद्धा जैसी कोई चीज नहीं होती। श्रद्धा मात्र अंधी होती है। श्रद्धा का मतलब क्या है? विश्वास का, बिलीव का अर्थ क्या है? उसका अर्थ है जो मैं नहीं जानता हूं उसे मैंने मान लिया है। जिससे मैं परिचित नहीं हूं उसे मैंने स्वीकार कर लिया है। जो मुझे अज्ञात है उसे मैंने दूसरों की बातों के कारण ज्ञात मान लिया है। क्या यह अंधापन नहीं है?
आस्तिक भी अंधे होते हैं और नास्तिक भी। आस्तिक मान लेते हैं सुनी हुई इन बातों को कि ईश्वर है, और नास्तिक मान लेता है सुनी हुई इन बातों को कि ईश्वर नहीं है। दोनों अंधे हैं। दोनों ने सुने हुए को स्वीकार किया है और दोनों ने देखने की कोई कोशिश नहीं की, कोई प्रयास नहीं किया। देखने के प्रयास में तो श्रम पड़ता है, देखने के प्रयास में तो कुछ करना पड़ेगा, मानने के प्रयास में कुछ भी नहीं करना पड़ता। जितने आलसी लोग हैं पृथ्वी पर, इसलिए वे मानने के लिए रा.जी हो जाते हैं, जानने की फिकर छोड़ देते हैं।
मानना आलसी चित्त का लक्षण है। मैं न मानने को नहीं कह रहा हूं, क्योंकि न मानना मानने का ही एक रूप है। मैं कह रहा हूं, जानने की फिकर होनी चाहिए भीतर, और वह तभी हो सकती है, जब हम मानने को या न मानने को, विश्वास करने को या अविश्वास करने को बहुत जल्दी तत्पर न हो जाएं।
वह व्यक्ति, जो यह कहने में समर्थ है कि मुझे ज्ञात नहीं है कि ईश्वर है, मुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि ईश्वर नहीं है, मैं बिलकुल अज्ञान में हूं, मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है, ऐसा व्यक्ति ठीक स्थिति में है। इसकी यात्रा हो सकती है सत्य के प्रति। इसने कुछ भी माना नहीं है, और अपने अज्ञान को स्वीकार किया है। अज्ञान सत्य है। इस सत्य अज्ञान को, जो स्वीकार करता है, वह तो सत्य तक पहुंच सकेगा। लेकिन इस सत्य अज्ञान को जो दूसरों की बातों से ढांक कर ज्ञान बना लेता है, वह आदमी कैसे सत्य तक पहुंच पाएगा।
आपको पता है ईश्वर के संबंध में? आप जानते हैं? पहचानते हैं? है वही या नहीं है? दोनों बातें आपको पता नहीं हैं। लेकिन बचपन से हम कुछ सुन रहे हैं और उस सुने को हमने स्वीकार कर लिया है। और उस स्वीकृति पर ही हमारी खोज की मृत्यु हो गई, हत्या हो गई। जो आदमी स्वीकार कर लेता है, वह आदमी अंधा हो गया।
एक मित्र ने पूछा हैः लेकिन यदि हम इस भांति स्वीकार न करें; अगर हम इस भांति, जो लोग जानते हैं उनकी बात स्वीकार न करें, तो हम खोजेंगे कैसे?
नहीं, जो लोग जानते हैं कि यह भी हमारी स्वीकृति है। हमें कैसे पता है कि वे जानते हैं। यह भी हमारा विश्वास है कि वे जानते हैं और फिर उन्हें मिला है कुछ, इसलिए हम थोड़े ही खोज करते हैं; हम खोज इसलिए करते हैं कि हमारे प्राणों में एक रिक्तता है। हमारे प्राणों में एक दुख है, एक अंधेरा है। और वह अंधेरा मांग करता है प्रकाश की, वह दुख मांग करता है आनंद की। हमारे भीतर एक अज्ञान है, वह ज्ञान की अभीप्सा हमारे अंदर पैदा करता है। हमारे भीतर एक प्यास है, जो हमें सरोवर की तरफ ले जाती है।
पानी के संबंध में दूसरे लोगों की कही हुई बातें थोड़ी किसी को सरोवर तक ले जाती हैं। भीतर की प्यास ले जाती है सरोवर की खोज में। कोई कितना ही पानी के संबंध में बातें करे और जल पर ग्रंथ लिखे, उसके ग्रंथ पढ़ कर थोड़ी कोई सरोवर की खोज में जाएगा। सरोवर की खोज में तो तभी कोई जाता है, जब उसके प्राण प्यासे हो उठते हैं।
इसलिए कोई दूसरा किसी को परमात्मा की खोज में न कभी ले गया है और न ले जा सकता है। परमात्मा की खोज में तो ले जाता है जीवन का दुख, जीवन का अज्ञान, जीवन की अपूर्णता, जीवन की पीड़ा और चिंता, वह जो जीवन का संताप है, वह जो एंग्विस है, वह जो प्रतिपल सब अंधकारपूर्ण है, वह हमसे कहता है, प्रकाश को खोजो। लेकिन जो व्यक्ति दूसरों की प्रकाश की कही गई बातों को मान लेता है, वह एक बड़े खतरे में पड़ जाता है। वह खतरे में इसलिए पड़ जाता है कि दूसरे की प्रकाश की बातें, जिसके पास अपनी आंखें न हों, उसके लिए बहुत अजीब अर्थ लेकर स्पष्ट होती हैं।
एक अंधे आदमी को उसके मित्रों ने दावत दी थी। बहुत मिष्ठान्न बनाए थे। उसने मिठाइयां खाकर पूछाः किससे बनी हैं, कैसे बनी हैं, क्या है वह? उसे मैं जानना चाहता हूं। मित्रों ने कहाः दूध से बनी हैं ये मिठाइयां। उस अंधे आदमी ने कहाः दूध कैसा होता है, कैसा है उसका रंग? नासमझ होंगे मित्र। अंधे का पूछना तो उचित था, जिज्ञासा ठीक थी। एक मित्र ने कहाः सफेद, शुभ्र। उस अंधे आदमी ने पूछाः शुभ्र क्या होता है, सफेद क्या होता है? उसे तो किसी रंग का, कोई प्रकाश का कभी कोई अनुभव नहीं था। उसकी तो आंखें बंद थीं। शुभ्र और सफेद शब्द मात्र थे, इनसे कुछ भी स्पष्ट न होता था। आंख वाले मित्रों में से एक ने कहाः बगुला देखा है? बगुला के पंखों जैसा सफेद होता है दूध। उस अंधे आदमी ने कहाः पहेलियों पर पहेलियां पैदा कर रहे हैं आप। मुझे दूध का ही पता नहीं है, अब यह बगुला क्या होता है और यह बगुले का रंग कैसा होता है? यह और एक कठिनाई हो गई, तो पहले कृपा करके बगुले के संबंध में समझा दें, फिर मैं दूध के संबंध में भी समझ लूंगा।
पिछला प्रश्न अपनी जगह खड़ा रहा, समझाने की कोशिश ने नया प्रश्न खड़ा कर दिया, और समझाने की कोशिश और नया प्रश्न खड़ा कर देगी। पांच हजार सालों से दार्शनिक समझाते जाते हैं, उनके हर समझाने की कोशिश नये प्रश्न खड़े कर देती है, पुराने प्रश्न अपनी जगह मौजूद हैं। उनमें कोई अंतर नहीं पड़ता, नये प्रश्न खड़े करते जाते हैं। बट्र्रेंड रसेल ने पीछे एक जगह कहा कि पहले जब मैं बच्चा था, तो मैं सोचता थाः फिलासफी ने, दर्शन ने, दार्शनिकों ने, विचारकों ने, दुनिया के प्रश्न हल किए हैं। अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूं, तो मैं समझता हूं, उन्होंने केवल नये प्रश्न खड़े किए हैं, क्योंकि पुराने प्रश्न तो अपनी जगह खड़े हुए हैं। कोई प्रश्न आज तक, कोई दार्शनिक हल नहीं कर पाया है। प्रश्न अपनी जगह खड़ा है, उसने जो उत्तर दिया है, उससे नये प्रश्न जरूर खड़े हो गए हैं।
उस अंधे आदमी की भी वही मुश्किल हो गई। लेकिन मित्र समझाने के पीछे दीवाने थे, उन्हें इसकी फिकर ही न थी कि आदमी अंधा है। उन्हें अपने समझाने की फिकर थी, उनको अपना रस आ रहा था समझाने का। उन्हें समझा कर छोड़ना था।
एक आदमी ने उस अंधे की बगल में हाथ किया और कहाः मेरे हाथ पर हाथ फेरो। जैसा मेरा हाथ तुम्हें लंबा और सुडौल मालूम पड़ता है, ऐसे ही बगुले की गर्दन होती है। थोड़ा-बहुत तो इससे तुम्हें बगुले की समझ आ ही जाएगी। उस आदमी ने उसके हाथ पर हाथ फेरा और वह खुशी से नाच उठा। और उसने कहाः मैं समझ गया, दूध कैसा होता है। आदमी के हाथ की तरह दूध होता है।
ठीक है उसकी समझ। दूध के लिए प्रश्न उठा था। यह सारी कथा से इस सारे अनुमान से, उस अंधे आदमी ने निष्कर्ष निकाला कि दूध आदमी के झुके हुए हाथ की तरह होता है।
ईश्वर के संबंध में हमारे सब निष्कर्ष ऐसे ही हैं। और चूंकि अलग-अलग मुल्कों में अंधों ने अलग-अलग निष्कर्ष ले लिए हैं, तो किन्हीं अंधों ने मस्जिद बना ली है, किन्हीं अंधों ने मंदिर, किसी ने भगवान की एक शक्ल, किसी ने दूसरी, क्योंकि किसी को बगुले की तरह समझ में आया है, किसी को किसी और तरह समझाया गया है। और फिर इन अंधों ने हद कर दी आखिर में, न केवल यह कहते हैं कि दूध झुके हुए हाथ की तरह होता है, बल्कि यह भी कहते हैं कि अगर कोई और तरह के दूध को मानता है, तो हम हत्या कर देंगे, वह गलत बात कहता है।
तो फिर उन अंधों ने सारी दुनिया में उपद्रव किए हैं। धर्म के नाम पर जो उपद्रव हुए हैं, वे अंधे आदमियों के उपद्रव हैं। नहीं तो धर्म के नाम पर उपद्रव हो सकते हैं, धर्म के नाम पर हत्याएं हो सकती हैं, धर्म के नाम पर मकान और मंदिर जलाए जा सकते हैं और बच्चे और औरतें मारी जा सकती हैं, धर्म के नाम पर खून हो सकता है? निश्चित ही धर्म के नाम पर कुछ अंधे लोग काम कर रहे होंगे, अन्यथा धर्म के नाम पर यह सब-कुछ कैसे हो सकता है।
पिछले मनुष्य-जाति के धर्मों का इतिहास, अंधों की लड़ाइयों का इतिहास है। और हम आज भी यही पूछते चले जा रहे हैं, कैसे विश्वास करें, विश्वास करेंगे तो अंधे हो जाएंगे। विश्वास का सवाल नहीं है। उस अंधे आदमी के मित्रों में अगर मैं भी रहा होता, तो मैं उसको दूध को समझाने की कोशिश न करता। मैं उस आदमी को कहताः यह प्रश्न तुम्हारा गलत है। वह जिसके पास आंख नहीं है, वह प्रकाश, रंग और रूप के संबंध में प्रश्न करे, यह व्यर्थ है। तुम्हें इसके संबंध में प्रश्न नहीं, तुम्हें पूछना चाहिए कि मेरी आंख कैसे ठीक हो सकती है? वह तुम्हारा ठीक प्रश्न होगा, वह राइट क्वेश्चन होगा। और तब मैं तुम्हें उत्तर नहीं दूंगा, ले चलूंगा किसी चिकित्सक के पास कि तुम्हारी आंख का इलाज हो, तुम्हारी आंख का उपचार हो। जिस दिन तुम्हारी आंख ठीक हो सकेगी, उस दिन तुम जान सकोगे कि प्रकाश कैसा है, दूध कैसा है, रंग कैसे हैं, रूप कैसे हैं। उस दिन बिना किसी के समझाए तुम देख सकोगे और जब तक तुम समझाए हुए को मानोगे, तब तक तुम्हारे अनुमान बहुत असंगत, बहुत काल्पनिक, बहुत झूठे होने वाले हैं, और उन अनुमानों पर अगर तुम रुक गए, तो शायद तुम्हारी अपनी आंख खोलने की जो पीड़ा और खोज होनी चाहिए, वह समाप्त हो जाएगी।
वह अंधा आदमी नाच उठा था खुशी से कि मैंने जान लिया है कि दूध कैसा है। अब, अब उसे आंख की खोज का कोई सवाल ही न रहा। बिना आंख के ही दूध जान लिया गया है। अगर उसे यह अनुभव होता कि बिना आंख के दूध नहीं जाना जा सकता, तो शायद यह पीड़ा कि मैं जानना चाहता हूं, उसे अपनी आंख की चिकित्सा में ले गई होती।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि विश्वास मत करें, ताकि आप अपनी आत्मा की चिकित्सा में जा सकें। विश्वास मत करें, ताकि आप अपनी भीतर की आंखों को खोलने के प्रति आतुर हो सकें, व्याकुल हो सकें। जो विश्वास कर लेगा, उसकी व्याकुलता समाप्त हो जाएगी। इसलिए मैंने कहा कि विश्वास अंधा है। विश्वास नहीं, चाहिए अत्यंत सतेज विचार, चाहिए अत्यंत जागरूक चिंतन, चाहिए खोज, अनुसंधान, चाहिए इनक्वायरी। और ये जब किसी व्यक्ति में पैदा होनी शुरू होती हैं, तो उसके भीतर एक आलोक का रास्ता धीरे-धीरे खुलने लगता है।
लेकिन किसी मित्र ने पूछा है कि सारे धर्मगुरु, धर्मशास्त्र तो यही कहते हैं कि विश्वास करो। और आप यह कैसी अनूठी बात कह रहे हैं कि विश्वास नहीं करना चाहिए?
निश्चित ही, विश्वास से कुछ हित होगा तभी तो वे ऐसा कहते हैं, उन्होंने पूछा है। हित है, आपका नहीं धर्मगुरुओं का। स्वार्थ है, आपका नहीं धर्मगुरुओं का।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा विचारक एक छोटे से गांव में रहता था। वह एक दिन सुबह-सुबह अपने गांव के तेली के पास तेल खरीदने गया था। तेली की दुकान लगी थी, तेली अपनी दुकान पर बैठा तेल बेचता था। उस विचारक ने तेल देने को कहा। तेल तोला जाने लगा। तभी उसने देखा कि पीछे तेली का बैल दुकान के पीछे ही कोल्हू को चला रहा है। तेल पेर रहा है। लेकिन कोई उसे चलाने वाला नहीं था, बैल खुद ही चल रहा था। उसने उस तेली को पूछाः बड़े आश्चर्य की बात है, आदमी जब बैल को जबरदस्ती चलाता है, तब वह चलता है। अरे आदमी को ही कोई जबरदस्ती न चलाए, तो आदमी नहीं चलता। तो यह तो बैल है, यह अपने आप चल रहा है स्वेच्छा से। बड़ी खूबी की बात है। ऐसा बैल मैंने कभी नहीं देखा। वह तेली हंसा और उसने कहा कि यह स्वेच्छा से नहीं चल रहा है, इसमें तरकीब काम कर रही है। देखते नहीं हैं, मैंने उसकी आंखें बंद कर रखी हैं, बैल की दोनों आंखों पर पट्टी थी। तेली ने कहाः बैल को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि पीछे कोई है या नहीं। वह मान रहा है कि कोई पीछे है।
लेकिन उस विचारक ने कहा कि कभी रुक कर भी तो जांच कर सकता है कि कोई पीछे है या नहीं, कभी जांच नहीं करता रुक कर? बड़ा विश्वासी बैल है, बड़ा श्रद्धालु बैल है। उसे तेली ने कहाः नहीं, श्रद्धा का सवाल नहीं है, देखते नहीं गले में घंटी बांध रखी है मैंने। चलता रहता है, तो घंटी बजती रहती है, मुझे आवा.ज सुनाई पड़ती रहती है। जब खड़ा होता है। मैं फौरन जाकर फिर उसे हांक देता हूं, उसको खयाल बना रहता है कि पीछे कोई है और घंटी बजती है, तो मुझे पता रहता है कि बैल चल रहा है।
उस विचारक ने कहाः अरे कभी ऐसा नहीं कर सकता बैल कि खड़ा हो जाए, गर्दन हिलाता रहे, ताकि घंटी बजती रहे और तुमको धोखा दे दे। उस तेली ने कहा: महाशय आप जल्दी दुकान से जाइए, कहीं आपकी बातें बैल न सुन ले। ये बड़ी खतरनाक बातें हैं। मेरी सारी दुकान बंद करवाने का इरादा करते हैं आप। किसी तरह अपनी रोटी-रोजी चला लेता हूं, तुमसे मेरी क्या दुश्मनी है। क्यों ऐसी बातें करते हो। आइंदा किसी और दुकान से तेल लेना, यहां मत आना। क्या भरोसा बैल सुन ले, तो सब मुश्किल हो जाए।
धर्मगुरु भी आदमी को चला रहा है बहुत दिनों से। और बिलकुल नहीं चाहता कि मेरा जैसा आदमी उसकी दुकान पर जाए और तेल खरीदे, क्योंकि उसको डर है कि मेरी बातें अगर सुन ले बैल तो बड़ी मुश्किल। आदमी का शोषण किया जा रहा है, उसकी आंख पर पट्टियां बांध कर, उसके गले में घंटियां बांध कर विश्वास की, अंधे विश्वास की। आदमी का शोषण किया जाता रहा है। निरंतर आदमी का शोषण हुआ है।
हमारे बीच जो सबसे ज्यादा चालाक और कनिंग आदमी हैं, उन्होंने बहुत पहले यह बात समझ ली कि धर्म के नाम पर आदमी का बहुत अदभुत रूप से शोषण किया जा सकता है। वे सिर्फ शोषण कर रहे हैं, इसमें उनका हित है। किस-किस भांति उन्होंने शोषण किया है, अगर यह कथा किसी दिन पूरी स्पष्ट हो जाए, तो हम घबड़ा जाएंगे। तब हमको दिखाई पड़ेगा कि शायद धर्मगुरुओं से ज्यादा अधार्मिक लोग जमीन पर और कोई नहीं रहे। वे तो निश्चित ही कहेंगे कि विश्वास करिए। लेकिन उनके कारण आपका शोषण होता तो भी ठीक था। उनके कारण ठीक-ठीक धर्म का जन्म नहीं हो पाया, जो और भी बड़ी कठिन बात है, और भी दुर्भाग्य की बात है। आदमी का शोषण भी ठीक था, कि वे आदमी का शोषण करते रहते, लेकिन उनके इस सारे उपद्रव के कारण, उनके इस सारे षड्यंत्र के कारण आदमी के जीवन में सच्चे धर्म का जन्म नहीं हो सका, क्योंकि सच्चे धर्म से उनकी इस दुकान का अंत हो जाएगा, क्योंकि सच्चा धर्म होगा विचार पर खड़ा, सच्चा धर्म होगा चिंतन की बुनियाद पर खड़ा, सच्चा धर्म होगा वैज्ञानिक, वह होगा साइंटिफिक। उसमें सुपरस्टीशन, उसमें अंधेपन, अंधविश्वास, विश्वास इन सबके लिए कोई जगह रह जाने वाली नहीं है। इसलिए निरंतर उन पुरोहितों का हम, चाहे वह किसी धर्म के हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे वे किसी तरह के मत से संबंधित हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका वर्ग निरंतर विचार के विरोध में रहा है और विश्वास के पक्ष में रहा है।
जरूर उनका हित है, लेकिन आपका हित नहीं है, मनुष्यता का कोई हित नहीं है। और न ही धर्म का ही कोई हित है, इसलिए हम रोज पिछड़ते चले गए। विज्ञान तो बढ़ता गया रोज, क्योंकि विज्ञान विश्वास पर खड़ा हुआ नहीं है। विज्ञान है खड़ा हुआ विचार पर, चिंतन पर, मनन पर। विज्ञान तो रोज गति करता गया और धर्म रोज पिछड़ता चला गया। क्यों? अगर धर्म भी विचार और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर खड़ा होता, तो धर्म तो परम विज्ञान बन जाता, वह तो सुप्रीम विज्ञान बन गया होता कभी का। जीवन में उसकी वैज्ञानिकता हरेक के हृदय में पहुंच गई होती। लेकिन नहीं, एक वर्ग है शोषकों का, जो उसे नहीं पहुंचने देगा, नहीं वैज्ञानिक बनने देगा। क्योंकि उसका वैज्ञानिक बनना, उनकी मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
एक बहुत अदभुत घटना हुई है। दोस्तोवस्की एक रूसी लेखक था। उसने अपनी किताब में अठारह सौ वर्ष बाद कल्पना की है कि क्राइस्ट को स्वर्ग में रहते-रहते अठारह सौ वर्ष हो गए और तब उन्हें खयाल आया कि अब मैं एक बार जाकर जमीन पर फिर से देखूं, अब तो करोड़ों लोग क्रिश्चियन हो गए हैं, अब तो मेरे मानने वाले जमीन पर आधे लोग हैं, अब तो मेरा बड़े खुले हृदय से स्वागत होगा। और अब जो मैं कहूंगा, वह तो लोगों के प्राणों में पहुंच जाएगी बात। अब तो लोग मुझे सूली पर नहीं चढ़ाएंगे। अब तो राज-सिंहासन पर बिठाएंगे। आधी जमीन मेरी है। जमीन पर हर गांव में मेरे चर्च हैं, हर गांव में मेरा पादरी है, मेरा पुरोहित, गांव-गांव में मेरा क्राॅस लगा हुआ है। अब तो मैंने जमीन जीत ली है। मैं जाऊं एक दफा देखूं। पिछली बार तो जब गया था, तो बहुत बुरा स्वागत हुआ था, पत्थर मारे लोगों ने और अंत में मेरी हत्या कर दी। लेकिन तब पुरोहित दूसरों के थे, यहूदी थे, अब तो अपने पुरोहित हैं।
क्राइस्ट जेरुसलम के बाजार में एक दिन सुबह उतरे। रविवार का दिन था और लोग चर्च से घर लौट रहे थे। वे झाड़ के नीचे खड़े हो गए। लोग भी उधर से निकले, तो उन्होंने देखा, अरे यह कौन आदमी एकिं्टग कर रहा है क्राइस्ट की! यह कौन आदमी अभिनय कर रहा है, बिलकुल क्राइस्ट जैसा मालूम पड़ता है। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई और उन्होंने कहा: महानुभाव, कौन हो तुम, बड़ा गजब किया है, बिलकुल शकल मिला ली है, बिलकुल वैसे मालूम पड़ते हो? क्राइस्ट हंसे और उन्होंने कहाः तुम भूलते हो, मैं वही हूं। लोग हंसे और उन्होंने कहाः ऐसी गलती मत करना, नहीं तो पादरी अगर सुन लेगा, तो मुसीबत में पड़ जाओगे। और पीछे से महापुरोहित आ गया और उसने कहा: यह कौन बदमाश यहां गड़बड़ कर रहा है, नीचे उतरो...
...और न बचने चाहिए उनके कारण मनुष्य, मनुष्य से टूट गया है और जो बात मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देती हो, क्या वह बात मनुष्य को प्रभु से जोड़ सकती है। जो मनुष्य को मनुष्य से भी नहीं जोड़ पाती, वह मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी। नहीं, यह कोई संभावना नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या मंदिर, पूजा, प्रार्थना-गृह इनकी क्या कोई जरूरत नहीं है? क्या धर्म के लिए यह अनिवार्य नहीं है?
एक छोटी सी कहानी कहूं तो शायद खयाल आ सके।
एक रात एक चर्च के द्वार पर एक आदमी ने दस्तक दी। चर्च के पुरोहित ने द्वार खोला। देखा एक नीग्रो, एक काला आदमी खड़ा हुआ है। देखते ही उसके मन में आग लग गई। वह चर्च सफेद लोगों का चर्च था। वहां सफेद चमड़ी के लोगों को भीतर आने की आज्ञा थी। काला आदमी कैसे वहां आ गया? कोई चर्च, कोई मंदिर सभी आदमियों के लिए नहीं है। किन्हीं आदमियों के लिए है, बाकी के लिए द्वार बंद है। पुराने दिन होते, तो उसने कहा होता, शूद्र, हट यहां से, तेरी छाया पड़ गई, साफ कर सीढ़ियों को, अपवित्र हो गई हैं मंदिर की सीढ़ियां तेरे कारण।
धर्मगुरु ने बहुत दिनों बहुत बार ऐसी भाषा बोली है कि जिसके भीतर परमात्मा छिपा है, उसको भी अपवित्र और शूद्र कहा है और निरंतर वह ग्रंथों में यह लिखता रहा है कि सबके भीतर परमात्मा है। लेकिन काली चमड़ी के भीतर, गरीब आदमी के भीतर, शूद्र के भीतर, उसके भीतर परमात्मा नहीं है, वह तो अपवित्रता की खान है। लेकिन जमाना बदल गया है, अब ऐसी भाषा नहीं बोली जा सकती।
लेकिन आदमियों के दिल थोड़े ही बदले हैं। भाषा बदल जाती है, तरकीबें वही हैं, उस पादरी ने कहाः मेरे मित्र, झूठा था यह सब। मित्रता उसके मन में जरा भी न थी, उस आदमी के प्रति। लेकिन कहा उसनेः मेरे मित्र! आए हो तुम मंदिर में किसलिए, परमात्मा को खोजने। लेकिन क्या तुम्हें पता है, जब तक हृदय पवित्र न हो और जब तक मन शांत न हो और जब तक प्राण मौन न हो, तब तक परमात्मा को कैसे पा सकोगे, चर्च में आना फिजूल है। जाओ, पहले मन को पवित्र करो, शांत करो फिर आना। सोचा उसने अपने मन मेंः न होगा मन पवित्र, न यह दुबारा यहां आएगा। द्वार बंद कर दिया।
वह आदमी सीधा-सादा था, वापस लौट गया। सीधा-सादा न होता, तो परमात्मा को खोजने चर्च में जाता? इतनी बड़ी दुनिया छोड़ कर चर्च में परमात्मा को खोजने जाता। सीधा-सादा आदमी होगा। लौट गया, मान गया बात। उसी दिन से मन प्रार्थनाओं से भर लिया उसने। उसी दिन से प्रतिपल रोने लगा। प्रार्थना करने लगा। हृदय को उसकी ही आतुरता से भरने लगा। एक वर्ष बीत गया, वह आदमी नहीं आया और न दिखाई पड़ा।
एक दिन चर्च के पास से निकलता पादरी ने उसे देखा। सोचा कि कहीं वह आज आ तो नहीं रहा है, नहीं तो फिर एक मुसीबत हुई। वह सोचने लगा कि आज किस तरकीब से इसको रोकूंगा। लेकिन नहीं, वह सोचता ही रह गया, वह आदमी तो आगे निकल गया चर्च को छोड़ कर। जाते हुए उस आदमी को उसने गौर से देखा, तो हैरान हुआ। वह आदमी तो जैसे बदल गया, जैसे ट्रांसफार्म हो गया था। उसकी छाया में एक शांति आ गई, उसके आस-पास जैसे एक पवित्रता छा गई थी। उसकी आंखों में एक मौन दिखाई पड़ रहा था। उसके चेहरे पर कोई आलोक आ गया था। वह पादरी भागा। उसे रोका और कहाः मित्र, फिर तुम दुबारा आए नहीं। वह आदमी हंसने लगा और उसने कहाः मैं तो आता था, लेकिन एक गड़बड़ हो गई और मैं नहीं आ सका, और अब कभी नहीं आ सकूंगा।
क्या गड़बड़ हो गई?
तो उस आदमी ने कहाः प्रार्थनाओं में मेरे दिन बीते, माह बीते। मुझे याद भी न रहे कि कितने दिन बीत गए। और मेरा मन शांत होता गया। और एक रात जब कि मैं पूरी तरह शांत सो गया, मैंने सपने में देखा कि भगवान आए हैं और वे मुझसे पूछते हैंः तू क्यों रोता है, क्यों दीवाना हुआ जा रहा है, क्या चाहता है? तो मैंने उन भगवान से कहाः तुम्हारा वह जो चर्च है गांव में, उसमें मैं प्रवेश चाहता हूं, ताकि तुम्हारे चरणों में आ सकूं। तो वे भगवान हंसने लगे और बोलेः तू पागल है, कोई और वरदान मांग ले। यह वरदान मैं तुझे न दे सकूंगा, क्योंकि दस साल से मैं खुद ही उस चर्च में घुसने की कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी घुसने नहीं देता। वह पादरी मुझे भीतर नहीं आने देता है। मैं खुद ही हार कर थक गया हूं, तो मैं तुझे कैसे वरदान दूं, कि तू जा सकता है, मेरी ताकत के बाहर है। इस पुरोहित को छोड़ कर मेरी ताकत सब पर चल जाती है, इस पर मेरी ताकत नहीं चलती। वह मुझे घुसने नहीं देता है।
और शायद संकोचवश भगवान ने दस साल की ही यह बात कही होगी। सच्चाई तो यह है कि आज तक किसी मंदिर में और किसी चर्च में किसी पादरी ने, किसी पुरोहित ने उसे घुसने नहीं दिया है, क्योंकि अगर परमात्मा प्रवेश कर जाए, तो फिर चर्च और मंदिर व्यवसाय के स्थान नहीं रह सकते।
जहां प्रेम है वहां व्यवसाय असंभव है। जहां परमात्मा है, वहां व्यवसाय असंभव है। और वे तो सब व्यवसाय के केंद्र बन गए हैं। तो वहां खोजने जाने की नासमझी न करें। इतनी विराट चारों तरफ जीवन की लीला है, इतना बड़ा मंदिर है, इतना बड़ा आकाश, इतने चांद-तारे हैं, इतने पौधे हैं, इतने फूल हैं, इतनी बड़ी दुनिया है, इस बड़ी दुनिया में अगर परमात्मा का सान्निध्य उपलब्ध नहीं होता, तो इस भूल में न पड़ें कि आदमी की बनाई गई चारदीवारों के बीच उसका अनुभव हो सकेगा।
मैं आपसे निवेदन करूंगा कि परमात्मा को खोजना है, तो परमात्मा के ही मंदिर में खोजें। आदमी का बनाया हुआ कोई भी मंदिर उसकी खोज में सहयोगी नहीं हो सकता। आदमी परमात्मा का मंदिर बनाएगा, यही बात पागलपन की और अहंकार की है। आदमी और परमात्मा को गढ़ेगा, मूर्तियां बनाएगा और आदमी की बनाई हुई मूर्तियां परमात्मा हो सकती हैं? आदमी इतना छोटा, इतना क्षुद्र! इतने क्षुद्र मनुष्य से क्या विराट परमात्मा का निर्माण हो सकेगा! इतने छोटे मन से, क्या उसके विराट रूप के लायक मंदिर बन सकेगा, जिसमें वह प्रवेश पा जाए? नहीं, बनाने वाले से, बनाई गई चीज बड़ी कभी नहीं हो पाती। हमेशा बनाने वाले से बनाई गई चीज छोटी होती है।
आदमी जो भी बनाता है, वह आदमी से भी छोटा है। और विराट और अनंत को उसमें कैसे प्रवेश मिल सकता है, किसी मंदिर में नहीं, आदमी के बनाए किसी मंदिर में नहीं। लेकिन एक मंदिर है, जो आदमी का बनाया हुआ नहीं है। चारों तरफ मौजूद है वह मंदिर। चारों तरफ उसके घंटे बजते हैं, उसकी ध्वनि होती है। उसके पक्षी बोलते हैं, उसके पौधे जीवंत होते हैं और उठते हैं। उसके तारों से प्रकाश झरता है, उसका सूरज है, उसका आकाश है। चारों तरफ उसका बनाया हुआ मंदिर है। उसके प्रति हम अंधे हैं और हम कहते हैं, हम मंदिर जा रहे हैं। अपने बनाए हुए मंदिर में। जो इतने विराट मंदिर का अनुभव नहीं कर पाता, वह किसी मंदिर में कभी नहीं पहुंच सकेगा। और जो उसका यहां अनुभव कर लेगा, उसके लिए फिर सारी जमीन मंदिर है, सब-कुछ मंदिर है।
धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो मंदिर जाता है, धार्मिक आदमी वह है कि वह जहां भी होता है, वहीं अनुभव करता है कि मंदिर है। धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो प्रार्थना करता है, धार्मिक आदमी वह है कि जो भी करता है, पाता है कि वह प्रार्थना है। धार्मिक आदमी वह नहीं है जो किसी मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है, धार्मिक आदमी वह है कि जो भी उसके सामने पड़ता है, उसे प्रतीत होता है कि परमात्मा है।
लेकिन हमने बहुत तरकीब निकाल ली है, सस्ती धार्मिक होने की। उठ कर सुबह मंदिर चले जाते हैं और सोचते हैं, धार्मिक हो गए। इतना सस्ता धर्म, इतना सस्ता परमात्मा, इतनी सस्ती प्रार्थना? नहीं, यह संभव नहीं है, इतने सस्ते में नहीं खरीदा जा सकता उसे। जो अपने को ही खोने को राजी होता है, वही केवल उसे पाने में समर्थ हो पाता है।
लेकिन हम तो अपने को खोने को रा.जी नहीं हैं। हम तो चार शब्द सीख लेते हैं तोतों की तरह और प्रार्थना कर लेते हैं। और सोचते हैं, बात पूरी हो गई। किसी मंत्र को दोहरा लेते हैं, किसी शास्त्र के शब्दों को दोहरा लेते हैं, और पाते हैं कि बात पूरी हो गई। नहीं, बात इतनी आसानी से पूरी नहीं हो सकती।
पूरा जीवन, पूरा प्राण, पूरी श्वास-श्वास प्रार्थनापूर्ण हो जानी चाहिए। पल-पल, प्रतिपल, सब-कुछ प्रार्थनापूर्ण हो जाना चाहिए। प्रार्थना कही गई स्तुतियों में नहीं, किए गए प्रेम में है। प्रार्थना बोले गए शब्दों में नहीं, निःशब्द हो गए मौन में है। प्रार्थना हम कर नहीं सकते, लेकिन प्रार्थना में हम हो सकते हैं। प्रार्थना कोई करने की चीज नहीं, प्रार्थना एक मनःस्थिति है, जिसमें हम हो सकते हैं।
कौन सी वह मनःस्थिति है, जिसे हम प्रार्थना कहें? यह भी पूछा किसी मित्र ने, कौन सी मनःस्थिति है, जिसे प्रार्थना कहें? कौन सी मनःस्थिति है, जिसे ध्यान कहें? कौन सी मनःस्थिति है जिसे प्रेम कहें?
कल मैंने प्रेम की चर्चा की थी, उस संबंध में पूछा है कि यह प्रेम क्या है?
दो-तीन छोटी बातें और अंत में मैं कहूंगा एक--प्रार्थना क्या है? प्रेम क्या है? परमात्मा क्या है? मेरे लिए वे तीनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद मेरी बात समझ में आ सके।
एक भिखारी सुबह-सुबह अपने द्वार से नगर की ओर भिक्षा मांगने के लिए निकला। उसने अपनी झोली में चावल के थोड़े से दाने डाल लिए थे। सभी समझदार भिखारी अपनी झोली में कुछ डाल कर घर से निकलते हैं, ताकि जिसके द्वार पर वे खड़े हो जाएं, उसे ऐसा न लगे कि पड़ोसियों ने कुछ भी नहीं दिया है। पड़ोसियों ने कुछ दिया है, यह खयाल उनके अहंकार को चोट पहुंचाता है, वे भी कुछ देने के लिए राजी हो जाते हैं। वे अपने पड़ोसियों से पीछे नहीं हैं, वे पड़ोसियों से कम धार्मिक नहीं हैं, वे पड़ोसियों से कम दयालु नहीं हैं।
इस खयाल को पैदा करने के लिए समझदार भिखारी झोली में कुछ डाल कर ही चलते हैं। वह भी समझदार भिखारी था, कुछ डाल कर चला। जैसे ही राजपथ पर आया, सुबह का सूरज निकलता था, सुबह की ठंडी हवाएं, सूरज की नई किरणें। राजपथ पर आते ही उसे दिखाई पड़ा, दूर से राजा का स्वर्ण-रथ चमकता हुआ चला आ रहा था। हृदय भर गया खुशी से। अब तक राजा के सामने कभी भिक्षा नहीं मांगी थी। गया था राजद्वार पर, लेकिन द्वारपाल वहीं से भगा देते थे। कौन भीतर घुसने देता, राजा तक कौन पहुंचने देता। आज तो राह पर ही राजा मिल गया है। तो राह छोड़ कर झोली फैला देगा।
हो सकता है, आने वाली पीढ़ियों तक के लिए मुझे भिक्षा मांगने की जरूरत न रह जाए। राजा कुछ भी देगा, वह मेरे लिए तो बहुत हो जाएगा। ऐसे सपने बांधने लगा कि राजा क्या देगा, क्या नहीं देगा। झोपड़े की जगह महल बनाने लगा। हम सभी बनाते हैं। वह भी साधारण मनुष्य था। सोचने लगा कल्पनाओं में कि राजा यह देगा और यह ऐसा होगा। और सोचते-सोचते सपनों में खड़ा था वह, कि राजा का रथ सामने आकर ठिठक कर खड़ा हो गया। इसके पहले कि वह झोली फैलाता, राजा नीचे उतरा और राजा ने अपनी झोली उस भिखारी के सामने फैला दी। कभी-कभी जीवन में ऐसा मजाक भी हो जाता है कि राजा भी एक भिखारी के सामने भीख मांगने लगता है। और उस राजा ने कहाः ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर मैं आज सुबह से जाकर भिक्षा मांग लूं, इतनी दीनता करूं, इतनी विनम्रता दिखाऊं कि भीख मांग लूं; जो पहला आदमी मुझे मिले, उससे भीख मांग लूं, तो शायद देश पर जो आने वाली विपत्ति है, पड़ोसी राज्य हमला करने को है, वह शायद टल जाए। इसलिए मैं भीख मांगने को हूं, तुम्हीं पहले आदमी हो, तो दो मुझे कुछ।
भिखारी का सोच सकते हैं क्या हो गया होगा हाल, सारे सपने तो मिट्टी में मिल गए। पाने की तो बात अलग, देने का सवाल खड़ा हो गया। और उस भिखारी ने जीवन में कभी दिया न था, हमेशा लिया था। देने की कोई आदत न थी, कोई साहस न था। मांगने-मांगने की कामना थी, मांगने-मांगने की आदत थी। खड़ा रह गया, हाथ हिलते न थे। राजा ने कहा: जल्दी करो, समय बीता जाता है और मुझे जाना है। कुछ भी दे दो। और देखो राष्ट्र पर आती विपत्ति का खयाल करो, इनकार मत कर देना, मना मत कर देना।
बड़ी मुश्किल में पड़ गया होगा वह भिखारी। झोली में हाथ डालता था, मुट्ठी बांधता था चावलों की, पर छोड़ देता था। एक मुट्ठी चावल व्यर्थ चले जाने को थे, फिर किसी भांति हिम्मत कर उसने मुट्ठी बांधी, एक चावल निकाल कर लाया और राजा की झोली में डाल दिया। आधा चावल करना उतनी जल्दी संभव न था, इसलिए एक ही उसने डाल दिया। राजा बैठा रथ पर चला गया, धूल उड़ती रह गई, भिखारी रोता रह गया। दिन भर भीख मांगी, सांझ लौटा बहुत उदास था। आज झोली बहुत भरी थी, बहुत भिक्षा मिली थी। लेकिन खुशी इसकी न थी कि जो झोली भर गई थी, दुख इसका था कि एक चावल छूट गया था, खो गया था।
हम सबकी भी वैसी ही सोचने की दशा है, जो हमें मिलता है, उसका हमें खयाल नहीं रहता, जो नहीं मिल पाता या छूट जाता है, वह स्मरण में रह जाता है। वह रोता हुआ घर लौटा, सांझ पत्नी ने कहाः इतने उदास, झोली इतनी भरी है, खुश हो जाओ, आनंदित हो जाओ। लेकिन वह बोलाः कैसे खुश हो जाऊं, कैसे आनंदित हो जाऊं! एक चावल का दाना और हो सकता था, जो नहीं है। खाली है झोली, एक चावल का दाना कम है वहां। उसकी पत्नी कुछ समझ न सकी, झोली खोली पत्नी ने, सारे चावल के दाने नीचे बिखर गए। भिखारी तो छाती पीट कर रोने लगा। अब तक तो धीरे-धीरे मन में रोता था, अब छाती पीट कर चिल्लाने लगा, रोने लगा। झोली खोलते ही दिखाई पड़ा, एक चावल का दाना सोने का हो गया है। तब वह छाती पीट कर रोने लगा कि मैंने सारे चावल के दाने क्यों न दे दिए। वे सब सोने के हो जाते। लेकिन अवसर बीत गया और अब कुछ भी नहीं हो सकता था सिवाय इसके कि वह रोता।
मुझे पता नहीं कि यह कहानी कहां तक सच है। लेकिन आदमी की जिंदगी को जितना मैं समझता जाता हूं, पाता हूं, यह कहानी सच होनी ही चाहिए, क्योंकि दिखाई ही पड़ता है कि जो आदमी अपने जीवन में प्रेम से जितना दे देता है, बांट देता है, उसका जीवन उतना ही स्वर्ण का हो जाता है। और जो आदमी जितना रोक लेता है, उतना ही मिट्टी हो जाता है आखिर में।
प्रेम है दान स्वयं का, बिना शर्त दान, अनकंडीशनल। हम जितना अपने को दे सकें और बांट सकें, जितने बिना शर्त अपने को समर्पित कर सकें और छोड़ सकें चारों तरफ, जो विराट जगत है सबमें, उसके प्रति हम जितने प्रेमपूर्ण दान से भर सकें, उतने ही हम प्रार्थना में प्रविष्ट हो जाते हैं। प्रार्थना आत्मदान है, स्तुति नहीं है। और आत्मदान से जिस हृदय की प्रार्थना उठती है, वह हृदय परमात्मा के स्वर्ण से भर जाता है।
कैसे यह प्रार्थना उठे और कैसे यह जीवन स्वर्णमय हो जाए, जो बिलकुल मिट्टी है, वह कैसे स्वर्ण बन जाए, उसकी बात मैं कल सुबह आपसे करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए अत्यंत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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