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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(परिस्थिति नहीं मनःस्थिति)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं अत्यंत आनंदित हूं कि अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करूंगा।
बहुत वर्षों पहले, यूनान में एक बादशाह बीमार पड़ा। उसका जितना इलाज हुआ, बीमारी बढ़ती गई। बीमारी उस जगह पहुंच गई, जहां कि बादशाह का मरना करीब-करीब तय हो गया। मरने की प्रतीक्षा शुरू हो गई। महल उदास हो गए और राजधानी फीकी पड़ गई। आज या कल, कल या परसों बादशाह मर जाएगा, इसकी संभावना, इसकी उदासी ने पूरी राजधानी को घेर लिया। लेकिन तभी गांव में एक फकीर आया। और राजमहल तक यह खबर पहुंची कि एक फकीर गांव में आ गया है, जिसके बावत कहा जाता है कि वह मुर्दों को भी छू दे तो वे जी जाएं, तो राजा तो अभी जीवित है, अगर उस फकीर की कृपा हो जाए, तो राजा ठीक हो सकता है।

राजा जो कि महीनों से बिस्तर पर पड़ा था और उठ भी नहीं सकता था, वह उठ कर बैठ गया और उसने कहाः जल्दी उस फकीर को बुलाओ। वह फकीर बुलाया गया और उस फकीर ने आकर कहाः इस राजा को कोई भी ऐसी बीमारी नहीं है कि यह मर जाए। एक छोटा सा इलाज इसे ठीक कर सकेगा, इलाज का इंतजाम करो।

उसके वजीरोें ने कहाः कोई भी इलाज हो, हम व्यवस्था कर सकेंगे, लेकिन वह फकीर बोलाः इलाज बहुत छोटा सा है। तुम्हारी राजधानी में अगर कोई सुखी और समृद्ध व्यक्ति हो, तो उसके कपड़े ले आओ, उसके कपड़े लाके राजा को पहना दो, पहनते ही यह ठीक हो जाएगा। उसने कहाः यह कौन सी कठिन बात है। वे भागे गए, राजधानी समृद्ध लोगों से भरी थी। आकाश को छूने वाले भवन उस राजधानी में थे।
वे नगर के सबसे बड़े धनपति के पास गए और उन्होंने कहा कि राजा बीमार है और मरने के कष्रीब है। और किसी फकीर ने कहा है कि कोई समृद्ध और सुखी व्यक्ति अगर अपने कपड़े दे दे, तो राजा ठीक हो जाएगा। उस धनपति ने कहाः राजा को बचाने के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं, लेकिन मेरे कपड़े काम नहीं पड़ेंगे। समृद्धि तो मेरे पास है, लेकिन सुख, सुख से मैं अपरिचित हूं, सुख मैंने कभी नहीं जाना।
फिर वे एक महल से, दूसरे महल में गए और खाली हाथ ही हर महल से वापस लौटे, क्योंकि सभी ने यह कहा कि हम अपने प्राण दे सकते हैं, लेकिन हमारे वस्त्र किसी काम के नहीं, समृद्धि हमने जानी है, लेकिन सुख, सुख से हमारा कोई परिचय नहीं हुआ। हमने जीवन भर कोशिश की है कि हम सुख को पा लें, समृद्धि तो इकट्ठी होती गई है, लेकिन सुख हमसे दूर होता चला गया है।
सांझ होने लगी और सूरज ढलने लगा। और वे वजीर निराश हो गए और उन्होंने सोचा, अब राजा को किस मुंह को ले जाकर हम दिखाएं। और तो उनमें से एक बूढ़े वजीर ने कहाः मित्रो, मैं तो पहले ही समझ गया था कि यह प्रयास असफल हो जाएगा, यह दवा नहीं मिल सकेगी, क्योंकि तुम और मैं, हम जो कि राजा के व.जीर हैं और हमारे पास अपार संपत्ति है, जब हमारे कपड़े ही देने का हमें खयाल पैदा नहीं हुआ, तभी मैं समझ गया था कि किसी और के कपड़े कैसे काम पड़ेंगे। और अगर धन वाले के कपड़े ही काम पड़ जाएंगे, तो राजा बीमार ही क्यों पड़ता। राजा के पास तो सबसे ज्यादा धन है, उसके ख़ुद के कपड़े ही काम आ जाते। तो मैं तो समझ गया था कि यह दवा नहीं मिल सकेगी और राजा मरेगा।
वे दुखी वापस लौटते थे, यह सोच कर कि अंधेरा हो जाए तो हम जाएं। नदी के किनारे महल के पास आकर उन्होंने किसी आदमी की बांसुरी की आवाज सुनी। कोई नदी के किनारे बांसुरी बजाता था। उसके स्वरों में कुछ ऐसी शांति थी, कुछ ऐसे आनंद की झलक थी कि उन्होंने सोचा, जाएं और उससे पूछ लेें, हो सकता है यह आदमी सुखी हो। इसके गीत में सुख की गंध है। वे गए। और अंधेरे में उस आदमी से कहा कि मित्र, मालूम होता है, तुम सुख को उपलब्ध हो गए। तुम्हारी बांसुरी की आवाज किसी बड़े गहरे आनंद से निकलती हुई मालूम पड़ती है। क्या यह सच है। हमारा राजा बीमार है, और हमें एक सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र चाहिए, तो उसे हम बचा सकेंगे। उस आदमी ने बांसुरी बजाना बंद किया और उसने कहा कि मैं अपने प्राण दे दूं, तुम्हारे राजा को बचाने को। और निश्चित ही मैं सुख को उपलब्ध हो गया हूं, लेकिन अंधेरे में तुम देख नहीं पा रहे हो, मैं नंगा बैठा हुआ हूं मेरे पास कपड़े नहीं हैं।
दूसरे दिन सुबह वह राजा मर गया, क्योंकि उस बड़ी राजधानी में एक भी ऐसा आदमी नहीं खोजा जा सका, जो सुखी भी हो और समृद्ध भी। समृद्ध लोग थे, लेकिन वे सुखी नहीं थे। और एक सुखी आदमी मिला था, तो उसके पास वस्त्र ही नहीं थे, वह नंगा था।
यह कहानी किसी विशेष कारण से मैंने कहनी चाही है। मैं यह कहना चाहता हूं, आज तक दुनिया में कोई ऐसी संस्कृति पैदा नहीं हो सकी, जो सुख को और समृद्धि को संयुक्त कर सके। आज तक कोई ऐसा धर्म पैदा नहीं हो सका, जो मनुष्य के जीवन में सुख और समृद्धि दोनों ला सके। एक तरफ पूरब के मुल्कों ने, इस तरह की संस्कृति पैदा की, जिसने कपड़े छीन लिए, आत्मा की तलाश में शरीर को खो दिया। और पश्चिम के लोगों ने, एक ऐसी संस्कृति पैदा की, जिसने वस्त्रों की खोज में और शरीर की रक्षा में आत्मा को खो दिया। ये दोनों संस्कृतियां अधूरी और खंडित हैं। अब तक समग्र और पूर्ण संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। इसका परिणाम यह हुआ, पूरब के लोग गरीब होते गए, भिखमंगे और नंगे होते गए। पूरब के लोग बीमार और दरिद्र होते गए, गुलाम होते गए। और पूरब से जीवन की सारी रौनक उड़ गई। पूरब एक महामारी की भांति दिखाई पड़ने लगा। एक बीमार मनुष्य का आविर्भाव पूरब में हुआ।
आत्मा की बात, परमात्मा की बात चलती रही और हम जीवन से अपनी जड़ों को खोते गए। दूसरी तरफ पश्चिम में एक समाज पैदा हुआ, जिसने धन के अंबार लगा दिए। और जिसके मकानों ने आकाश छू लिया। और जिसके वस्त्र सोने के हो गए। लेकिन मकानों की इस खोज और तलाश में मनुष्य की आत्मा मर गई। अब तक यह हुआ। और आज भी जो लोग विचार करते हैं, वे इन दो विकल्पों में से किसी एक को चुनने का खयाल करते हैं, वे या तो पूरब की बातें करते हैं या पश्चिम की। या तो वे पूरब की आत्मवादी बातें दोहराते हैं या पश्चिम की शरीरवादी। लेकिन आज भी जमीन पर कोई ऐसा विचार नहीं है, जो इन दोनों के बीच एक समन्वय का सेतु बन सके। और जो यह कह सके कि मनुष्य न तो केवल शरीर है, और न मनुष्य केवल आत्मा है। मनुष्य दोनों का एक अदभुत जोड़ है। इसलिए कोई भी संस्कृति और कोई भी धर्म, और कोई भी जीवन-व्यवस्था, जो दोनों बातों पर समवेत, साथ-साथ एक सा बल न देती हो, वह अधूरी और खंडित होगी। और अधूरी संस्कृति और धर्म से हम पीड़ित रहे हैं। क्या यह हो सकता है कि समग्र जीवन को स्वीकार करने वाला एक धर्म जन्म ले सके। क्या यह हो सकता है कि जीवन की एक ऐसी दृष्टि हो, जो भूत को और चैतन्य को, जो जड़ को और आत्मा को, दो विरोधों की तरह न देखे। बल्कि दो समवेत स्वरों की तरह देखे, जिन दोनों से जीवन का संगीत पैदा होता है।
यह मैं इसलिए निवेदन करना चाहता हूं कि जीवन की सारी विकृति इस विरोध के कारण पैदा हुई है, जीवन की सारी विकृति, मनुष्य के जीवन को दो खंडों में तोड़ लेने से, सारा का सारा जीवन एक अजीब उलझन में पड़ गया है। जो लोग आत्मवादी अपने को समझते हैं, वे जाने-अनजानेे शरीर के शत्रु हो जाते हैं। वे शरीर के साथ दमन और हिंसा करने लगते हैं और वे यह रस लेने लगते हैं कि जितना शरीर को सताएंगे जैसे उतने ही ज्यादा उन्हें आत्मा की उपलब्धि हो जाएगी। यह निपट पागलपन और नासमझी है।
शरीर की हिंसा से, शरीर के दमन से, शरीर की शत्रुता से कोई आत्मा को उपलब्ध नहीं होता। यह एक दूसरी एक्सट्रीम की प्रतिक्रिया है, रिएक्शन है। दूसरी प्रतिक्रिया यह है कि जिस व्यक्ति को भी शरीर के सुख पाने हैं, जिस व्यक्ति को भी शरीर के रस पाने हैं, उसे आत्मा को इंकार कर देना चाहिए, उसे आत्मा की हत्या कर देनी चाहिए। लोग सोचते हैं कि आत्मा की यदि हमने बातें की, परमात्मा और सत्य और धर्म का विचार किया, तो शायद हम जीवन के रस-भोग से वंचित हो जाएंगे। इसलिए आत्मा को छोड़ दो, उसकी बात को छोड़ दो, उसे भूल जाओ और शरीर को भोगो। यह एक एक्सट्रीम है, एक अति है।
दूसरी अति यह है कि आत्मा की बात करने वाला शरीर का शत्रु हो जाए, और शरीर की शत्रुता के इतने उपाय पैदा हुए हैं कि जिनका कोई हिसाब नहीं है। सारा धर्म शरीर की शत्रुता से पीड़ित हो गया है। और सारी सभ्यता, आत्मा की शत्रुता से पीड़ित है।
इन दो अतियों ने, इन दो एक्सट्रीम ने, जीवन को इतने तनाव और इतने टेंशन से भर दिया है कि कोई आदमी शांत नहीं हो सकता। जो शरीर का मित्र है और आत्मा का शत्रु है, वह कभी शांत नहीं हो सकता, क्योंकि जीवन के केंद्र को अस्वीकार कर रहा है। जो आत्मा का मित्र है और शरीर का शत्रु है, वह भी कभी शांत नहीं हो सकता, क्योंकि जीवन की परिधि को अस्वीकार कर रहा है। केंद्र और परिधि संयुक्त हैं, शरीर और आत्मा जीवन में संयुक्त हैं। क्या इन दोनों के साहचर्य से, इन दोनों के कोआॅपरेशन पर कोई धर्म खड़ा नहीं हो सकता? अब तक जो हुआ है, वह शत्रुता है, सहयोग नहीं। अब तक जो है, वह मित्रता नहीं है और इस मित्रता के न होने के क्या-क्या फल हुए हैं, वे हमारी आंखों के सामने हैं।
धार्मिक लोग कहते हैं, शांति चाहिए। भौतिकवादी लोग भी कहते हैं, सुख चाहिए। लेकिन न तो भौतिकवादियों को सुख मिलता हुआ मालूम पड़ता है और न तथाकथित धार्मिक लोगों को शांति मिलती हुई दिखाई पड़ती है। यह मिलेगी भी नहीं, क्योंकि उन्होंने जीवन में एक अंतद्र्वंद्व, एक कांफिलिक्ट को स्वीकार कर लिया है, जीवन को दो टुकड़ों में तोड़ लिया है, जो कि अविभाजित है, जो कि इंटिग्रेटेड है, इकट्ठा है, उसको दो हिस्सों में तोड़ने से सारी तकलीफ और परेशानी पैदा हो गई। इन दोनों के बीच जब तक मध्य बिंदु नहीं खोजा जा सकेगा, तब तक हम दुनिया में शांत, स्वस्थ आदमी का निर्माण नहीं कर सकते।
कनफ्यूशियस एक छोटे से गांव में गया था, उस गांव के बाहर ही, गांव के लोगों ने उसे बताया कि हमारे गांव में भी एक बहुत बड़ा विचारशील पंडित है। आप हमारे गांव में आए हैं, तो हमारे पंडित से जरूर मिलें।
कनफ्यूशियस ने कहाः मैं जरूर मिलूंगा, लेकिन क्या मैं यह जान लूं कि उस पंडित की क्या खूबी है, जिसकी वजह से तुम आदर देते हो। उन लोगों ने कहा कि हमारा जो विचारशील आदमी है हमारे गांव का, वह किसी भी काम को करने केे पहले तीन दफा विचार करता है। वह इतना विचारशील है। कनफ्यूशियस ने कहाः यह ज्यादा हो गया, जो एक दफा विचार करता है, वह कम विचार करता है, जो तीन दफे विचार करता है, वह ज्यादा विचार कर गया। ये दोनों अतियां हैं। जो दो दफे विचार करता है वह सम्यक है, वह ठीक है, वह शान्त है। कनफ्यूशियस ने कहा कि जो बीच में ठहर जाता है, एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत आसान है, जैसे घड़ी का पेंडुलम एक कोने से दूसरे पेंडुलम पर चला जाता है, यह बिलकुल आसान है, लेकिन बीच में वह कभी नहीं ठहरता। दूसरी अति से पहली अति पर चला जाता है। मनुष्य का मन ऐसा है। पापी से महात्मा हो जाना बिलकुल आसान है, लेकिन बीच में ठहरना बहुत कठिन है। महात्मा से वापस पापी हो जाना एकदम आसान है, लेकिन बीच में ठहरना बहुत कठिन है। और बीच में ठहरना सबसे बड़ी कला है, क्योंकि जीवन का सारा रहस्य मध्य में है, अतियों पर नहीं है।
एक आदमी जो भोजन का बहुत प्रेमी है, अगर बदल जाए, तो उपवास का प्रेमी हो जाएगा, यह बहुत आसान है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। जो आदमी बहुत वस्त्रों का शौकीन है, अगर बदल जाए तो नंगा खड़ा हो जाएगा, यह कोई कठिन नहीं है, यह बिलकुल आसान है। यह वही आदमी है, जो आदमी स्त्रियों के पीछे भागता है, अगर यह बदल जाए, तो स्त्रियों से भागने लगेगा, यह वह ही आदमी है, इसमें कोई फर्क नहीं हुआ है। दूसरी एक्सट्रीम, दूसरी अति पर, दूसरे रिएक्शन पर यह पहुंच गया है। जिस आदमी की लार टपकती है धन को देख कर, वह धन की तरफ आंख बंद कर ले, इसमें कठिनाई नहीं है।
एक बड़े महात्मा के लिए मुझे अभी किसी ने कहा है कि उनके सामने कोई पैसे ले जाए, तो वह आंख बंद कर लेते हैं। मैंने कहा कि उनको लार टपकने का डर होगा तभी, नहीं तो क्यों आंख बंद करेंगे। आंख बंद करने में लार टपकने का डर होगा, नहीं तो क्यों आंख बंद करेंगे। लार टपकती है यह भी आसान है, आंख बंद कर लेना यह भी आसान है। लेकिन आंख खुले हुए शांत रह जाना, बहुत कठिन है। घर में रह कर, गृहस्थी में रहना, एक आसानी है, गृहस्थी छोड़ कर साधु और संन्यासी हो जाना भी बिलकुल आसान है। ये दो एक्सट्रीम हैं, ये दो अतियां हैं, लेकिन जीवन में रहते हुए संन्यस्त हो जाना बहुत कठिन है, वही मध्य है।
हमने जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया है, शरीर और आत्मा के। इसलिए समाज दो हिस्सों में टूट गयाः गृहस्थ और संन्यासी।
संन्यासी वह है, जो आत्मा-आत्मा की बातें कर रहा है; गृहस्थ वह है, जो शरीर-शरीर की बातें कर रहा है। मनुष्य को तोड़ लिया है शरीर और आत्मा में। और समाज को तोड़ लिया, गृहस्थ और संन्यासी में। न तो आत्मा और शरीर टूटे हुए हैं जीवन में और न तो गृहस्थ और संन्यासी टूटा हुआ हो सकता है। ये अतियां हैं, बीमारियां हैं। एक ऐसा मनुष्य चाहिए जो गृहस्थ होते हुए, संन्यासी हो, तो हम दुनिया को धर्म से भर सकेंगे, नहीं तो नहीं भर सकेंगे। एक ऐसा मनुष्य चाहिए, जो घर में, दुकान में, धर्म में हो। हमने दो-दो हिसाब बना लिए हैं। दुकान अलग, मंदिर अलग। यह बेईमानी है। यह वह ही अति का खंडन है। हमने सोच लिया है, एक तरफ दुकान बना ली है और उसी दुकानदार ने एक तरफ मंदिर बना लिया है, जो घंटे भर के लिए मंदिर आता और तेईस घंटे दुकान में रहता है और सोचता है, हम दोनों काम संभाल रहे हैं, धर्म भी सम्हाल रहे हैं और दुकान भी सम्हाल रहे हैं।
मैं आपको कहूं, जिस दिन मकान-मकान मंदिर बनेगा, उस दिन दुनिया में धर्म आ सकेगा, उसके पहले धर्म नहीं आ सकता। जब तक रहने का मकान अलग और पूजा का मकान अलग, तब तक दुनिया में धर्म कभी नहीं आ सकता। यह जिंदगी टूटी हुई नहीं है। जिंदगी इकट्ठी है। जिंदगी बिलकुल इकट्ठी है। और अगर आप सोचते हों कि मैं तेईस घंटे दुकान पर बैठूंगा और घर का काम करूंगा और घंटे भर के लिए मंदिर में भी आकर बैठ जाऊंगा, तो आप सोचते हैं, क्या तेईस घंटे का आदमी घंटे भर के लिए बदल जाएगा, दूसरा हो जाएगा? यह कैसे संभव है। जो आप तेईस घंटे थे, चेतना अविछिन्न है, कंटिन्युअस है। जो आप तेईस घंटे थे वही मंदिर में बैठ कर भी, आप घंटे भर में होंगे। आप माला फेरते हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; आप नमोकार पढ़ते हों; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; आप गीता पढ़ते हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; पढ़ने वाला व्यक्ति वही है, जो दुकान पर बैठा था। उसका चित्त वही है, उसके जीवन की दृष्टि और ढंग वही है। वह माला पढ़े, वह मंदिर में आए, वह जप करे, वह कुछ भी करे, इससे कुछ होने वाला नहीं है। नहीं होने वाला इसलिए है कि इन सारी बातों से चेतना परिवर्तित नहीं होती।
लेकिन इससे एक तरकीब, एक आसानी हो जाती है और वह आसानी यह हो जाती है कि बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने की सुविधा और मजा आ जाता है और रस आ जाता है। सस्ती तरकीबें हमने निकाल ली हैं धार्मिक होने की। मजा यह है कि जब तक पूरा जीवन धार्मिक न हो, तब तक कोई आदमी कभी धार्मिक नहीं होता। लेकिन हमने सस्ती तरकीबें निकाल ली हैं। हमने कई रास्ते निकाल लिए हैं, सस्ते नुस्खे निकाल लिए हैं। हम बैठ कर थोड़ी देर के लिए कोई तरकीब से आसन लगाके बैठ जाते हैं, कोई मंत्र पढ़ने लगते हैं, किसी प्रतिमा का ध्यान करने लगते हैं, कोई शास्त्र खोल कर बैठ जाते हैं, और सोचते हैं कि हम धार्मिक हो गए।
अगर इस भांति दुनिया धार्मिक होती होती, तो अब तक सारी दुनिया धार्मिक हो जानी चाहिए थी। कितने मंदिर हैं, कितने मस्जिद हैं, कितने शिवालय, कितने गिरजे और सारे लोग उनमें जाने वाले हैं, सारे लोग उनमें आने वाले हैं, लेकिन दुनिया अधार्मिक की अधार्मिक ही है। कहीं कोई भूल है।
और वह भूल, मैं आज की सुबह आपसे निवेदन करना चाहता हूं; इस बात में है कि हम धर्म को और जीवन को तोड़ कर देखते हैं। जब तक हम तोड़ कर देखेंगे, तब तक जीवन कभी धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म और जीवन जिस दिन हमें एक ही चीज दिखाई पड़ेंगे, उस दिन जीवन में कोई क्रांति हो सकती है। जिस दिन मेरा उठना-बैठना, मेरा खाना-पीना, मेरा बोलना, मेरा चलना, मेरा सोना, मेरा सपना देखना भी जिस दिन मेरे लिए धर्म होगा, जिस दिन मेरा धर्म और मेरा जीवन ओतप्रोत होंगे, संयुक्त होंगे, इकट्ठे होंगे उस दिन, उस दिन मेरे जीवन में एक रूपांतरण हो सकता है, एक क्रांति हो सकती है, एक परिवर्तन हो सकता है।
लेकिन यह नहीं हो पा रहा है, क्योंकि हमने दो कंपार्टमेंट बना लिए हैं। धर्म का कंपार्टमेंट अलग है और जीवन का अलग। हम कहते हैं कि हम धर्म मंदिर में जा रहे हैं, इसका मतलब क्या हुआ, आप जरूर अधार्मिक आदमी हैं, नहीं तो धर्म मंदिर में जाते कैसे।
एक मुसलमान फकीर था। वह कोई अपने जीवन के पचास वर्षों तक रोज नमाज पढ़ने मस्जिद में जाता रहा। एक भी दिन नहीं चूका। एक भी नमाज नहीं चूका। पांच दफा जाता था। कभी अपने गांव को नहीं छोड़ा उसने। कहीं जाऊं, रास्ते में मस्जिद न हो तो फिर कहां नमाज पढ़िएगा, इसलिए वह अपने गांव को छोड़ कर साठ सालों से कहीं नहीं गया था। वहीं जड़ हो गया था उसी गांव में। उसी मस्जिद से बंध गया था, जैसे सभी धार्मिक लोग बंध गए हैं, कोई किसी मंदिर से, कोई किसी मस्जिद से, ऐसा वह भी बंध गया था। जैसे सभी लोगों की धार्मिक लोगों की यात्रा बंद हो जाती है, वे हिलते-डुलते नहीं हैं, इधर-उधर नहीं जाते। ऐसे वह भी कहीं नहीं गया था। उसी गांव में ठहर गया था, जड़ हो गया था। साठ साल! बीमार हो तो भी मस्जिद गया था। कभी चूका नहीं था।
एक दिन सुबह लोगों ने देखा, वह नहीं आया। तो एक ही कारण हो सकता था कि वह मर गया हो। और किसी कारण की कल्पना नहीं हो सकती थी। मस्जिद से लोग उठे और उसके घर गए। वह अपने सामने दरख्त के नीचे बैठा हुआ खंजड़ी बजा कर गीत गा रहा था, तो लोग बहुत हैरान हुए और उन्होंने कहाः अब बुढ़ापे में अधार्मिक हो रहे हो? जिंदगी भर नमाज पढ़ी, प्रार्थना की, अब बुढ़ापे में अधार्मिक हो रहे हो? उस आदमी ने कहाः मैं अधार्मिक था, इसलिए मस्जिद आता था। अब तो मैं जहां भी हूं, वहीं मस्जिद है। कल तक इस घर में मुझे धर्म नहीं मालूम पड़ता था और मस्जिद में धर्म मालूम पड़ता था, इसलिए मैं मस्जिद जाता था। आज तो मैं जहां हूं, वहां मंदिर है। साठ साल मैंने एक भूल की, मैंने जिंदगी को धर्म न जाना और एक छोटे से मकान में धर्म को केंद्रित कर दिया। मैंने जीवन में परमात्मा को न जाना और एक मकान में परमात्मा को बांध कर रख दिया और अब मुझे समझ में आया कि वह मेरी तरकीब थी, वह तरकीब, अधार्मिक बने रहने की तरकीब थी। घंटे भर के लिए धर्म और बाकी दिन अधर्म। एक मकान में धर्म और बाकी मकानों में धर्म नहीं। एक मकान में भगवान और बाकी जगह संसार। तो मैंने एक तरकीब बना ली थी। दोनों तलों पर जीने का मैंने एक हिसाब कर लिया था।
हम सारे लोग दो तलों पर जी रहे हैं। मेरा कहना है, जीवन में कोई तल नहीं है और दो तल मनुष्य के मन की तरकीब है, ईजाद है, टेक्नीक है, होशियारी है, कनिंगनेस है, चालाकी है कि जीवन को दो तलों में बांट दिया है।
दो तलों में बांटने से बड़ी सुविधा हो गई है, बहुत सुविधा हो गई है। मन को समझाने के लिए रास्ता मिल गया है कि हम तो संसारी लोग हैं, हम तो गृहस्थ हैं, इसलिए जब हम संन्यासी हो जाएंगे और सब छोड़ देंगे तब धार्मिक भी हो जाएंगे। हम तो गृहस्थ हैं, हम तो संसारी हैं, इसलिए संन्यासी का हम पैर छूते हैं, क्योंकि हम तो संसारी हैं, आप संन्यासी हो, इसलिए आपका पैर छूते हैं, आदर करते हैं, जिस दिन हम भी हो जाएंगे संन्यासी, तो हमको भी आदर मिलेगा। अभी तो हम आदर देते हैं, अभी तो हम गृहस्थ हैं, अभी हमें पापी होने की सुविधा है, अधार्मिक होने की सुविधा हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि धार्मिक का हम आदर करते हैं, हम तो कोई आदर मांगते नहीं। हम अपने को अधार्मिक होने के लिए सुविधा मानते हैं। अभी हम अधार्मिक हो सकते हैं। थोड़ा-बहुत मंदिर आ जाते हैं, थोड़ा-बहुत धर्म भी करते रहते हैं, ताकि परलोक भी न बिगड़ जाए, इस लोक को भी संभालते हैं, परलोक को भी संभालते हैं। यहां भी बड़ा मकान बना रहे हैं, थोड़ा दान-पुण्य करते हैं, स्वर्ग में भी मकान की व्यवस्था कर रहे हैं, वहां भी मरेंगे तो एक मकान मिलेगा।
ये हमारी तरकीबें हैं, और जब तक हम इन तरकीबों के प्रति सचेत न हों और उन्हें तोड़ें न और जब तक हम इस होश से न भरें कि कोई आदमी कभी अचानक संन्यासी नहीं हो सकता है। और जो अचानक संन्यासी हो जाएगा, वह धोखे की बातें हैं। वह कपड़े बदल सकता है, संन्यासी नहीं हो सकता। संन्यास जीवन में ग्रोथ है। संन्यास वैसे ही एक विकास है, जैसे कि एक बच्चा जवान होता है, जवान बूढ़ा होता है। एक बच्चा एकदम से सुबह आकर खबर नहीं कर देता कि हम जवान हो गए, एक जवान एकदम से खबर नहीं कर देता कि बूढ़े हो गए। पता भी नहीं चलता कौन कब बूढ़ा हो जाता है। किस दिन, किस क्षण में। नहीं, एक ग्रोथ है। संन्यास भी एक ग्रोथ है। लेकिन हमने जीवन में कंपार्टमेंट बना रखे हैं। तो हमारे हिस्से से एक आदमी कपड़े बदल देता है, दूसरे ढंग के कपड़े पहन लेता है, गेरुआ वस्त्र पहन लेता है, कुछ और पहन लेता है दूसरे कंपार्टमेंट में खड़ा हो जाता है। हम कहते हैं महाराज, तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, तुम संन्यासी हो गए।
हुआ क्या है? कपड़े बदल गए हैं। अभी वही संन्यासी कपड़े बदल ले हम कहते हैं, अरे वापस भ्रष्ट हो गए, लौट आओ। अपने इस तरफ लौट आओ। आदर-वादर सब बंद कर देते हैं। सब खत्म, आदर-वादर सब गया।
यह जो सारा हमारा हिसाब है। इस हिसाब में हम चेतना के परिवर्तन पर कोई खयाल भी नहीं कर रहे हैं, कोई जरा सा भी खयाल नहीं कर रहे हैं। मैं आपसे निवेदन करता हूं, कपड़े बदलने से कोई बदलता नहीं और मकान बदल लेने से कोई धार्मिक नहीं होता। घर छोड़ कर भाग जाने से भी कोई धार्मिक नहीं होता है। धार्मिक होता है चेतना में आमूल परिवर्तन से और चेतना में आमूल परिवर्तन वहीं है, जहां जीवन है, जहां पूरा जीवन है। लेकिन चूंकि हमने जीवन को खंड-खंड में किया है।
एक अमरीकन विचारक थाइलैंड गया। थाइलैंड में एक संन्यासी की खबर फैलनी शुरू हो गई थी, कि उसके आश्रम में ध्यान बड़ी आसानी से सीख लिया जाता है। अमरीका से उड़ कर थाइलैंड आया, सोचता था कि किसी एकांत रमणीक पहाड़ के किनारे, किसी झील के पास आश्रम होगा, वहां ध्यान सिखाया जाता होगा। लेकिन जब वह उतर कर पहुंचा आश्रम में, तो देखते ही दंग रह गया, एक छोटे से गांव के बाजार में आश्रम था। बीच बाजार में, चारों तरफ दुकानें थीं, बीच में आश्रम था। वह बहुत हैरान हुआ। अंदर गया, तो देखा कि कोई सौ-पचास कुत्ते उस आश्रम के आस-पास घूम रहे थे, लड़ रहे थे, झगड़ रहे थे। वह बहुत हैरान हुआ। सांझ होने को थी, देखा सैकड़ों कौए उस आश्रम के झाड़ों पर आकर चीख-पुकार कर रहे थे, बैठ रहे थे।
वह बहुत परेशान हुआ। उसने आश्रम के गुरु को जाकर कहा कि मैं बड़ा हैरान हूं। किसी झील के किनारे, किसी पहाड़ पर एकांत में आश्रम होना चाहिए। यह क्या जगह चुनी है, यह बाजार।
उस गुरु ने कहाः बहुत मुश्किल से यह जगह मिली है। बाजार में जमीन बहुत महंगी थी, लेकिन हमने जानकर बा.जार चुना है।
और ये कुत्ते कैसे इकट्ठे हैं?
ये इकट्ठे नहीं हैं, ये हमारे आश्रम के अंतःवासी हैं, इनको हमने निमंत्रित किया है, इनको हम रोज भोजन खिलाते हैं, तब ये यहां रहते हैं, नहीं तो भाग जाते।
और ये कौए?
उन्होंने कहाः ये भी आमंत्रित हैं, रोज चावल फेंकते हैं, तब ये आते हैं। उसने कहाः यह सब क्या पागलपन है, यहां शांति कैसे मिलेगी। उस गुरु ने कहाः यहां शांत मिल जाए तो ही जीवन में शांति मिल सकती है। पहाड़ पर शांति मिल जाए वह झूठी है, क्योंकि पहाड़ के एकांत में शांत कोई भी हो सकता है। वह शांति आपकी चेतना का परिवर्तन नहीं है, वह पहाड़ की करतूत है। समुद्र के किनारे एकांत में शांति मिल सकती है, वह आपकी आत्मा का परिवर्तन नहीं है, समुद्र का प्रभाव है। घर छोड़ कर भागे हुए आदमी को शांति मिल सकती है, इसलिए नहीं कि उसकी चेतना बदल गई, बल्कि जीवन की वे परिस्थितियां वह छोड़ कर भाग गया, जहां अशांति पैदा होती थी। लेकिन अशांति पैदा नहीं होती, अशांति भीतर होती है। बाहर मौके होते हैं, जिनमें दिखाई पड़ती है। आप मौके छोड़ कर भाग सकते हैं। आपको दिखाई नहीं पड़ेगी कि अशांति है अब। लेकिन वह अशांति का मिट जाना नहीं है।
अगर मैं एक ऐसी जगह रहूं, जहां सब मुझे आदर करें और कोई मेरा अनादर न करे, तो मुझे अपमान का दुख न होता हो, तो इसमें आश्चर्य क्या है। अपमान कोई करता नहीं है। मैं एक ऐसी जगह रहूं, जहां मुझे क्रोध में लाने का कोई उपाय न करे और मुझे क्रोध न आए तो इसमें कौन सा आश्चर्य है, किसी को भी न आएगा। नहीं, लेकिन जीवन में जहां क्रोध के मौके हैं, जहां अशांति के लिए सारी व्यवस्था है, जहां चिंताएं पैदा होती हैं, जहां संताप मन को पकड़ता है, वहीं जो शांत होने की प्रक्रिया है, वहीं जो जीवन को बदल लेना है, वही धर्म है। धर्म जीवन को छोड़ कर भाग जाने का नाम नहीं है। जो भाग जाते हैं, वे कमजोर हैं। धर्म जीवन से पलायन कर जाने का नाम नहीं है। जो पलायन कर जाते हैं, वे अपने को धोखा देते हैं।
धर्म है जीवन में संघर्ष। धर्म है जीवन के घनीभूत संग्राम में खड़ा होना और साथ ही अपने को परिवर्तित भी करना। और मैं आपसे निवेदन करूंगा, वहीं वास्तविक परिवर्तन फलित हो सकता है। क्यों? क्योंकि वही अवसर हैं अशांत होने के। धार्मिक आदमी अवसर को छोड़ कर भागता नहीं है, लेकिन अवसर के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलता है। और जो कमजोर है, वह भाग जाता है, अवसर को छोड़ कर। वह दृष्टिकोण बदलने से बच जाता है।
मैं यहां हूं, आप सारे लोग अपमानित करने लगें और गालियां देने लगें, मैं भाग जाऊं यहां से। यह भाग जाना तो बहुत आसान है। सवाल यह नहीं था कि मैं वहां से भाग जाऊं, जहां लोग गाली देते थे; सवाल यह था कि गालियों से जो मेरे मन में पीड़ा पैदा होती थी, क्या उस पीड़ा के रुख को मैं बदल सकता हूं?
बुद्ध का एक शिष्य था, पूर्ण। वह जब, उसकी शिक्षा पूरी हो गई, तो बुद्ध ने उससे कहाः अब तुम क्या करोगे। उस पूर्ण ने कहाः मैं जाऊंगा किसी इलाके में और वहां पहुंचा दूंगा आपके प्रेम के सन्देश को।
किस जगह जाओगे?
सूखा नाम की एक जगह थी। उसने कहाः मैं वहां जाऊंगा। बुद्ध ने कहाः वहां मत जाओ, वहां के लोग बहुत बुरे हैं। वहां के लोग बहुत बुरे हैं। हो सकता है कि वे तुम्हारा अपमान करें और गालियां दें, तो तुम क्या करोगे? तो उस पूर्ण ने कहाः जब वे मुझे गालियां देंगे और अपमान करेंगे तो मैं जानूंगा, कितने भले लोग हैं, मारते नहीं हैं, केवल गालियां देते हैं, मार भी तो सकते थे।
बुद्ध ने कहाः यह भी हो सकता है कि उनमें से कुछ दुष्टजन तुम्हें मारें, तुम्हें सताएं, तो तुम्हें क्या होगा। तो उस पूर्ण ने कहा कि मैं जानूंगा, कितने भले लोग हैं, सिर्फ मारते हैं, मार भी डाल सकते थे।
बुद्ध ने कहा और यह भी हो सकता है पूर्ण कि कोई तुम्हें मार ही डाले। तो तुम्हें क्या होगा? तो उस पूर्ण ने कहाः जब वे मुझे मार ही डालेंगे, तब भी मैं जानूंगा, कितने भले लोग हैं, उस जीवन से मुझे छुटकारा दिला दिया, जिस जीवन में कोई भूल-चूक हो सकती थी।
जिस जीवन में कोई भूल-चूक हो सकती थी। यह धार्मिक व्यक्ति का दृष्टिकोण है। धार्मिक व्यक्ति का संबंध परिस्थितियों के परिवर्तन से नहीं, दृष्टिकोण के परिवर्तन से है। और हजारों साल से हम परिस्थितियां बदलने को धर्म समझ रहे हैं, इससे सारी कठिनाई हो गई। आदमी वहीं के वहीं बने रहते हैं, परिस्थितियां बदल जाती हैं और दृष्टिकोण वही का वही बना रहता है। दृष्टिकोण का परिवर्तन। संन्यास वस्त्रों में नहीं है, और न धर्म दृष्टिकोण के परिवर्तन में है। और दृष्टिकोण के परिवर्तन के लिए जरूरी है कि आप जहां हैं, वहीं दृष्टि को बदलने के प्रयास में संलग्न हों।
एक रात एक साध्वी एक छोटे से गांव में मेहमान होना चाहती थी। उसने जाकर गांव के दरवाजे खटखटाए, लेकिन लोगों ने दरवाजे बंद कर दिए। क्योंकि उस गांव के लोग दूसरे धर्म को मानते थे और साध्वी दूसरे धर्म की थी।
यह धार्मिक लोगों ने ऐसा पागलपन पैदा किया है दुनिया में कि उन्होंने आदमी-आदमी के बीच बहुत दीवालें खड़ी करवा दी हैं। और इस पागलपन को भी वे धर्म कहे जाते हैं, वे कहते हैं, हम जैन हैं तुम हिंदू हो, वह मुसलमान है। ये बीमारियों के नाम होंगे--जैन, हिंदू और मुसलमान। धर्म का इससे क्या संबंध?
धर्म तो प्राणों की एक ही अनुभूति है, उसका जैन, हिंदू, मुसलमान और ईसाई से क्या वास्ता?
स्वास्थ्य तो एक ही प्रकार का होता है, बीमारियां हजार तरह की होती हैं। धर्म एक ही तरह का होता है, अधर्म ह.जार तरह के होते हैं।
उस गांव के लोग दूसरे धर्म को मानते थे, जैसे कि दो धर्म हो सकते हैं, वह साध्वी दूसरे धर्म की थी। उन गांव के लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए। उन्होंने कहाः यहां नहीं ठहरो और दूसरे गांव में चली जाओ। औरत थी, रात ऊपर आ गई थी। दूसरा गांव दूर था, वह कहां जाए, लेकिन गांव के लोगों ने दरवाजे बंद कर लिए। धार्मिक लोग, तथाकथित धार्मिक लोग बड़े कठोर हैं, ये किसी के लिए भी दरवाजा बंद कर सकते हैं। इन्होंने अपनी दुष्टता को धार्मिक नाम उढ़ा दिए हैं। और इसलिए इनको तरकीब भी मिल गई है बचने की। अपने को धार्मिक भी समझते हैं। नहीं तो दुनिया में अगर धार्मिक लोग कठोर न होते, तो कौन हिंदू-मुसलमान को लड़ाता है, कौन जैन-हिंदू को लड़ाता है, कौन हत्या करता है? बहुत कठोर हैं, इनसे ज्यादा हिंसक लोग जमीन पर दूसरे नहीं हैं। धार्मिक लोगों पर कितनी हिंसा है इसका पता है।
पांच हजार साल में जितना पाप हुआ है दुनिया में उसका आधे से ज्यादा धार्मिक लोगों ने किया है।
धार्मिक लोग बड़े अजीब हैं। इन्होंने मकान जलाए, मूर्तियां तोड़ीं, मंदिर तोड़े, मस्जिदें तोड़ीं, ये धार्मिक लोग बड़े अजीब हैं। और इनको हम समझते हैं कि बड़े सरल हृदय लोग हैं। उस गांव के लोग भी धार्मिक थे, जैसे कि सारी दुनिया में धार्मिक लोग होते हैं, उन्होंने दरवाजे बंद कर लिए। उन्होंने कहाः जाओ दूसरे धर्म की साध्वी हो, तो दूसरे गांव में डेरा डालो, यहां नहीं रुक सकतीं।
वह बेचारी औरत उस रात गांव के बाहर एक झाड़ के नीचे सो गई। अकेली औरत जंगल में झाड़ के नीचे, चेरी का कोई दरख्त था, उसके नीचे वह सो गई। रात, पूरे चांद की रात थी, कोई आधी रात उसकी नींद खुली, ऊपर पूरा चांद आ गया था और चेरी के फूल चटक-चटक कर खिलना शुरू हो गए थे। उसने आंख खोली, आकाश में छोटी बदलियां भटकती थीं। चांद था, चेरी के फूल खिलते थे। उसका हृदय आनंद से भर गया, वह उठ कर नाचने लगी और वह वापस गांव में गई।
और आधी रात में उसने लोगों के दरवाजे खटखटाए और कहाः मित्रो, दरवाजा खोलो, मैं तुम्हें धन्यवाद देने आई हूं। कहीं तुमने सांझ मुझे अपने घर में ठहरा लिया होता, तो मैं आज की रात के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाती। तुम बड़े प्यारे लोग हो। तुम बड़े अच्छे लोग हो, तुमने मुझे घर में नहीं ठहराया, तो मैंने रात चांद को और चेरी के फूलों को बातें करते देखा। आकाश में बादल उड़ते देखे। आज जैसी रात मैंने जीवन में कभी नहीं देखी थी। आज जैसा सौंदर्य मैंने कभी अनुभव नहीं किया था। तो मैं तुम्हें धन्यवाद देने आई हूं कि तुमने मुझे घर में नहीं ठहराया, अगर तुम ठहरा लेते तो मैं तुम्हारे घर की दीवालें जानती, आकाश का असीम सौंदर्य देखने से वंचित रह जाती।
यह धार्मिक व्यक्ति की दृष्टि है। जिन लोगों ने घर से बाहर निकाल दिया था, उनके प्रति भी उसके मन में धन्यवाद का भाव उठता है। जिन लोगों ने द्वार बंद कर लिए थे, उनके प्रति भी उसके मन में धन्यवाद का भाव उठता है।
जीवन है। दृष्टि का परिवर्तन है धर्म। हिंदू और मुसलमान होना धार्मिक होना नहीं है। धार्मिक होने का अर्थ है, वह जो मेरे देखने की दृष्टि है, जो एटिट्यूड है, वह जो मेरी एप्रोच है, चीजों को मैं कैसे लेता हूं, उससे धर्म का संबंध है।
एक गांव में एक सुबह एक यात्री आया। उसने अपने घोड़े को रोका। गांव के दरवाजे पर बैठे हुए एक बूढ़े आदमी से उसने पूछा कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में ठहरना चाहता हूं। इसी गांव में निवास करना चाहता हूं। उस बूढ़े आदमी ने कहाः मेरे मित्र, पहले मैं तुमसे यह पूछूंगा, तुम जिस गांव को छोड़ कर आ रहे हो, उस गांव के लोग कैसे थे? उसने कहाः उस गांव के लोगों का नाम भी न लें! उनका नाम लेते मेरे हृदय में आग की लपटें जलने लगती हैं। और मेरा बस चले तो उनकी हत्या कर दूं। उस गांव के लोग इतने बुरे हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं। जमीन पर उतने बुरे लोग खोजना कठिन है। उस बूढ़े आदमी ने कहाः मित्र, घोड़े को आगे बढ़ा लो, मैं पचास साल से इस गांव में रहता हूं। इस गांव के लोग, उस गांव से भी ज्यादा बुरे हैं। तुम इस गांव के लोगों को, उस गांव से भी बदतर पाओगे। तुम आगे जाओ। तुम कोई दूसरा गांव खोज लो। यह बहुत बुरा गांव है।
वह आदमी गया भी नहीं था कि एक बैलगाड़ी आकर रुकी और एक आदमी अपने परिवार को लिए उसमें आया। और उसने भी उस बूढ़े आदमी से पूछाः मैं इस गांव में रहना चाहता हूं। इस गांव के लोग कैसे हैं? उस बूढ़े ने कहाः पहले मुझे बता दो, जिस गांव से तुम आते हो, उस गांव के लोग कैसे थे? उसने कहाः उनका नाम भी मेरे हृदय को आनंद से और कृतार्थता से भर देता है। बड़े भले थे वे लोग। उन्हें छोड़ना पड़ा। इससे आंसू अब तक मेरे गीले हैं। लेकिन मजबूरी थी कुछ कि छोड़ कर आना पड़ा। इस गांव के लोग कैसे हैं? उसे बूढ़े ने कहाः आओ, तुम्हारा स्वागत है, पचास साल से इस गांव में रहता हूं, इस गांव के लोग तो उस गांव से बहुत बेहतर हैं जिस गांव को तुमने छोड़ा। तुम इस गांव के लोगों को इतना अदभुत पाओगे कि कभी छोड़ कर न जा सकोगे। आ जाओ, गांव तुम्हारा स्वागत करता है।
सवाल आपका है, सवाल गांव का नहीं है। आप कैसे हैं, गांव वैसा हो जाएगा। सवाल आपका है, सवाल गृहस्थ होने का और संन्यासी होने का नहीं है। आप कैसे हैं, वैसा घर हो जाएगा। और अगर आप गलत हैं, तो आप संन्यासी होकर भी दुनिया में गलती करते चले जाएंगे। संन्यासी कितनी गलतियां कर रहे हैं, जिसका कोई हिसाब है। संन्यासियों ने कितने मतभेद खड़े कर दिए हैं, कितने पंथ खड़े किए हैं, कोई हिसाब है? संन्यासियों ने आदमी-आदमी को कितना तोड़ दिया है कोई हिसाब है? दो संन्यासियों के अहंकार कितने खतरे ला सकते हैं, इसका कोई हिसाब है? बहुत मुश्किल हो गया है। वही बीमार गृहस्थ संन्यासी हो जाएगा तो और खतरनाक है, क्योंकि गृहस्थ था, तो कम से कम उपदेश तो नहीं करता था। संन्यासी होकर और उपदेश करेगा और न मालूम कितने लोगों के दिमाग में कीटाणु भेजेगा खतरे के, बीमारियों के।
आप, आप पर सवाल है कि आप किस गांव में रहते हैं, इसका सवाल नहीं है। आप गृहस्थ रहते हैं कि संन्यासी हो जाते हैं, इसका सवाल नहीं है। आप आप आपकी दृष्टि है क्या जीवन को देखने की। आप जीवन को कैसे लेते हैं, आनंद से लेते हैं या दुख से? अगर दुख से लेते हैं? तो आप जीवन के प्रति जो भी करेंगे, वह सुखद नहीं हो सकता। जीवन को आनंद से लें, जीवन को धन्यता से लें, ग्रेटिट्यूड, जीवन को कृतार्थता से लें। और जीवन के प्रति प्रेमपूर्ण, शांतिपूर्ण, जीवन के प्रति अत्यंत निर-अहंकार के भाव से व्यवहार करें, तो आपके भीतर धार्मिक व्यक्ति का जन्म होगा। और हो सकता है कि इस जन्म का परिणाम यह हो कि आप जहां हैं, वहीं आपके जीवन में संन्यास आ जाए। संन्यास आपका आत्मिक परिवर्तन है।
घृणा से भरा हुआ मनुष्य, भेदभाव से भरा हुआ मनुष्य, क्रोध से भरा हुआ मनुष्य, दुख और चिंता से भरा हुआ मनुष्य गृहस्थ है, चाहे वह कैसे ही कपड़े पहने हो। शांति से भरा हुआ व्यक्तित्व, आनंद जिसके हृदय में वीणा बजाता हो, कृतार्थता और धन्यता की सुगंध जिसके जीवन से निकलती हो, शांति से, प्रेम से जो जीता हो, ऐसा मनुष्य कहीं भी हो, कैसा भी हो, किन्हीं भी कपड़ों में हो, वह संन्यासी है, वह धार्मिक है।
धार्मिक होना चित्त का परिवर्तन है। ट्रांसफाॅर्मेशन आॅफ माइंड है। लेकिन हम अभी धर्म को और जीवन को तोड़ कर देखते हैं, इसलिए यह ट्रांसफाॅर्मेशन नहीं हो पाता। इस सुबह और बहुत बातें आपसे नहीं कह सकूंगा। इतनी ही थोड़ी सी बात आपसे मुझे कहनी है, धर्म को जीवन से अलग करके मत देखना। धर्म और जीवन को एक ही जानना। धर्म को और जीवन को दो हिस्सों में खंडित मत करना। धर्म को वस्त्रों के, मकानों के परिवर्तन का नाम मत जान लेना, चेतना का परिवर्तन। और जो लोग वस्त्रों इत्यादि पर बहुत आग्रह रखते हों बदलाहट का, उन्हें शायद इस बात का पता नहीं है कि क्या बदलना है, किसको बदलना है। परिस्थिति नहीं बदलनी है, मनःस्थिति बदलनी है। परिस्थिति नहीं मनःस्थिति, बाहर नहीं भीतर और जब भीतर कोई बदल जाता है, तो बाहर सब अपने आप बदल जाता है और जब भीतर एक ज्योति जगती है शांति की और प्रेम की, तो बाहर का जीवन दूसरा हो जाता है।
वह शांति और प्रेम की ज्योति कैसे जग सकती है, वह तो आज मैं नहीं कह सकूंगा, कल सुबह, परसों सुबह दो चर्चाएं हैं, उनमें मैं उस संबंध में बात करने को हूं कि भीतर शांति की और प्रेम की ज्योति कैसे जग सकती है। उसकी बात तो मैं वहां करूंगा, किसी का खयाल हो तो वह वहां आ सकता है। अभी तो इतना ही मुझे कहना था कि अगर मनुष्य के जीवन में, मनुष्यता के जीवन में धर्म नष्ट हुआ है, तो इस कारण हुआ है कि हमने जीवन और धर्म को तोड़ दिया। हमने संन्यासी और गृहस्थ को तोड़ दिया। हमने दो हिस्से बना दिए। हमने अखंड जीवन की धारा को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।
जीवन की धारा है अखंड। उसमें कौन है संन्यासी, कौन है गृहस्थ, यह ऊपर से तय नहीं किया जा सकता। यह तो प्राणों की ऊर्जा निर्णित करती है और प्राणों की ऊर्जा का परिवर्तन दृष्टिकोण का परिवर्तन है। उसको, उस दृष्टिकोण के परिवर्तन पर ध्यान दें। मुझे नहीं लगता कि हमारे खयाल में यह बात है। हमारे खयाल में बाहरी परिवर्तन हैं, भीतरी परिवर्तन नहीं हैं। लेकिन जो भीतर से बदलता है, वही केवल बदलता है। और जो बाहर से बदलाहट है, ओढ़ लेता है वह बदलता नहीं, बदलने का धोखा देता है। यह धोखा दूसरों के लिए खतरनाक नहीं है, खुद के लिए खतरनाक है। सेल्फ डिसेप्शन, यह आत्मप्रवंचना है। और मनुष्य बहुत होशियार है, अपने को धोखा देने में।
मैं प्रार्थना करूंगा कि धर्म के नाम पर अपने को धोखा मत देना। लोग दे रहे हैं, चारों तरफ चल रहा है यह, इसलिए यह प्रार्थना करता हूं। अगर धर्म के नाम पर अपने को धोखा नहीं दिया, तो हर मनुष्य अपने जीवन में एक क्रांति ला सकता है।
जो महावीर के जीवन में हुआ हो, बुद्ध के जीवन में हुआ हो या किसी के भी जीवन में हुआ हो, वह मेरे और आपके जीवन में भी हो सकता है, क्योंकि बीज रूप में हम सबकी क्षमताएं समान हैं। मेरी और महावीर की, आपकी और महावीर की क्षमताओं में भेद नहीं है। भेद हो सकता है इस बात में कि मैं अपने बीज को बीज ही बना रखता हूं, महावीर अपने बीज को विकसित कर लेते हैं और फूलों तक पहुंचा देते हैं। प्रत्येक मनुष्य के भीतर परमात्मा है जो श्रम करता है, वह उसेे उपलब्ध कर लेता है। लेकिन जो धोखा देता है, वह कभी उपलब्ध नहीं कर पाता। परमात्मा करे, आत्मवंचना से वे लोग बच सकें जो अपने को धार्मिक समझते हैं। तो दुनिया दूसरी हो सकती है, मनुष्य दूसरा हो सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, हो सकता है, उनमें ऐसी बातें हों, जिनसे चित्त बेचैन हो और चोट लगे। चोट लगने वाली बात को भी प्रेम से सुना इसलिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। चोट मैं देना चाहता हूं, इसलिए उसके लिए क्षमा नहीं मांगूंगा। चाहता हूं कि जितनी चोट पहुंचा सकूं आपको पहुंचाऊं, क्योंकि जीवन ऐसा मृत और मुर्दा हो गया है कि कोई चोट पहुंचाए तो ही शायद थोड़े जीवन की लहर पैदा हो सकती है।

मेरी बातों को प्रेम से सुना उसे पुनः धन्यवाद। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम को स्वीकार करें।

मैं अत्यंत आनंदित हूं, क्योंकि जो मैं चाहता था वह हुआ। यह होना चाहिए। केवल वे लोग जो चुपचाप सुन लेते हैं, मुर्दा हैं। जिनके मन में विरोध उठता है, जिनके मन में यह खयाल उठता है कि शायद यह बात गलत हो, उन सभी लोगों का मेरे मन में स्वागत और आदर है, क्योंकि उन्हें मैं जीवित समझता हूं। मुनि जी ने यह कहा कि अनेकांतवाद के विरोध में हैं, उन्होंने भली बात कही। लेकिन जहां तक मेरा संबंध है, मैं खुश हूं उन मित्रों से, जिन्होंने विरोध उठाया और नाखुश हूं उन लोगों से, जो चुपचाप बैठे हैं। उसका कारण है।
हजारों साल से चीजों को चुपचाप सुन लेने की वृत्ति के मैं विरोध में हूं। हजारों साल से चीजों को चुपचाप स्वीकार कर लेने और विश्वास कर लेने की वृत्ति के भी मैं विरोध में हूं। मेरी तो समझ ही यही है कि कोई कौम धीरे-धीरे मर जाती है, जो कौम चीजों को चुपचाप सुन लेती है और स्वीकार कर लेती है। विरोध विचार का लक्षण है। लेकिन विरोध नासमझी से भरा हो जाए, अशिष्ट हो जाए, असभ्य हो जाए, तो अविचार का लक्षण बन जाता है। मैं इस बात से तो खुश हूं कि आपके मन को कोई चोट पहुंचे। जैसा मैंने कहा है कि मैं तो चाहता हूं कि चोट पहुंचे। रह गई बात यह, यह मेरी भावना भी नहीं है कि मैं जो कहूं, उसे आप स्वीकार करें। मेरी तो समझ ही यही है कि जो भी मैं कहूं, आप जितना उसे अस्वीकार कर सकें उतना शुभ है, जितना उस पर संदेह कर सकें उतना शुभ है, जितना उस पर विचार और मंथन कर सकें उतना शुभ है। विश्वासों ने मनुष्य के मन में जड़ता पैदा कर दी है।
तो विश्वास के मैं पक्ष में नहीं हूं। जो बात कही जाए, उस पर श्रद्धा करें, उसके पक्ष में भी नहीं हूं। उस पर विचार करें, लेकिन अविश्वास करना विचार करना नहीं है, अश्रद्धा करना विचार करना नहीं है। विचार करने वाला व्यक्ति न तो श्रद्धा करता है और न अश्रद्धा करता है। चीजों को समझता है खुले मन से, ओपन माइंड से, समझने की कोशिश करता है, तोड़-फोड़ करता है, विश्लेषण करता है, पहचानने की कोशिश करता है, क्या सही है और क्या गलत है।
तो मैंने जो भी कहा है और जो भी कहता हूं रोज, निरंतर यह निवेदन करता हूं कि मेरी बात को मान मत लेना, क्योंकि जो लोग मानने के लिए आग्रह करते हैं, वे लोग शत्रु हैं मनुष्य के। मैं तो कहता हूंः सोचना और विचारना। तो आपमें विचार पैदा हो यह तो शुभ है। दो-तीन बातें पूछी हैं, समय तो बहुत हुआ, लेकिन दो शब्द उस संबंध में आपसे कहूं।
मैंने कहाः संन्यास एक ग्रोथ है, एक विकास है। पूछा है, कि संन्यास का यह विकास, यह ग्रोथ क्या वैसे ही है जैसे गृहस्थी का। नहीं, इन दोनों में फर्क है। गृहस्थी का जो विकास है, वह वासनापूर्ण है; संन्यास का जो विकास है, वह विवेकपूर्ण है। जो केवल वासना में ही जिएगा, वह गृहस्थ ही रह कर समाप्त हो जाएगा। उसके जीवन में संन्यास का जन्म नहीं होगा। लेकिन जो गृहस्थी का वासनापूर्ण जीवन विवेक के साथ जिएगा, वह धीरे-धीरे पाएगा, विवेक जीतता जाएगा और वासना हारती जाएगी। और एक दिन जिस दिन विवेक का पलड़ा वासना से ज्यादा भारी हो जाएगा, उस दिन वह पाएगा कि संन्यास का प्रारंभ हो गया है। जिस दिन वासना शून्य हो जाए और विवेकपूर्ण, उस दिन संन्यास पूर्ण हो जाता है।
मैंने जो कहा कि ग्रोथ है, उससे मेरा मतलब यह है, यह कोई एक क्षण में होने वाला परिवर्तन नहीं है, यह कोई रेवोल्यूशन नहीं है, एवोल्यूशन है। यह कोई क्रांति नहीं है, गृहस्थ से संन्यासी हो जाना। यह एक विकास है। क्रांति का मतलब यह कि मैं एक गृहस्थ हूं और मैंने आज तय किया है कि संन्यासी हो जाना है, तो मैं संन्यासी हो गया। मैं नहीं मानता कि ऐसे कोई संन्यासी हो सकता है।
जीवन के निरंतर अनुभवों, वासना के साथ निरंतर विवेक का संघर्ष, निरंतर वासना का हारता जाना और विवेक का जीतता जाना, यह लंबी प्रक्रिया है, यह कोई एक क्षण में होने वाली बात नहीं है। यह कोई ऐसी बात नहीं है कि एक क्षण में हो जाए, इसलिए मैंने कहा, ग्रोथ है।
उन्होंने पूछा कि क्रोध, घृणा, हिंसा इनकी भी तो ग्रोथ होती है, निश्चित। और मेरा जो इस संबंध में बुनियादी विचार है, वह यह कि, वह आपके मानने के लिए नहीं, आपके सोचने के लिए है। मेरा बुनियादी खयाल यह है कि क्रोध की क्षमता जिसके भीतर है, क्रोध की क्षमता ही विकसित और विवेक के द्वारा परिवर्तित होकर क्षमा बन जाती है। सेक्स जिनके भीतर है, सेक्स ही विवेक से संयुक्त और परिवर्तित होकर ब्रह्मचर्य बन जाता है। तो क्रोध, हिंसा, लोभ, ये सभी शक्तियां हैं, इनका अगर सम्यक विकास हो, तो आप हैरान हो जाएंगे, इनका ही सम्यक विकास इनसे बिलकुल विपरीत दिखने वाली शक्तियों में परिवर्तित होता है।
जिस व्यक्ति के भीतर क्रोध नहीं है, उस व्यक्ति के भीतर क्षमा का कभी जन्म नहीं होगा और जिस व्यक्ति के भीतर सेक्स नहीं है, कामवासना नहीं है, उसके भीतर ब्रह्मचर्य का कभी जन्म नहीं होगा। तो ये विरोधी दिखने वाली चीजे, विरोधी नहीं हैं। मेरी दृष्टि में इनके भीतर एक इनर ग्रोथ है। अगर कोई व्यक्ति अपने क्रोध पर विवेकपूर्ण उपयोग करे और अपने क्रोध के साथ विवेक को जगाए और क्रोध से परिचित हो, तो वह पाएगा कि क्रोध क्रमशः क्षीण होता जाएगा और वही क्रोध की शक्ति क्षमा में परिवर्तित होती चली जाएगी।
हम खाद ले आते हैं अपने घर में और रख लें, तो खाद दुर्गंध से भर देगा, सारे भवन को। और उसी खाद को हम बगीचे में डाल देते हैं और बीज बो देते हैं। फूल आते हैं और सुगंध से घर भर जाता है। वह जो खाद की दुर्गंध थी, वही फूलों में प्रविष्ट होकर परिवर्तित होकर सुगंध बन जाती है।
जीवन में जो बुरा है, वह शत्रु नहीं, मेरी दृष्टि में, वह केवल अभी काम में न लाया गया मित्र है। अगर हम उसे काम में ले आएं, तो वह मित्र सिद्ध होगा। तो जीवन की सारी शक्तियां हैं--क्रोध, घृणा, सभी जीवन की शक्तियां हैं। और मैं सभी जीवन की शक्तियों का स्वागत करता हूं, क्योंकि उन्हीं शक्तियों को निश्चित विकास के द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है।
धन्य हैं वे लोग, जो लोग क्रोधी हैं, क्योंकि उनके भीतर विवेक के द्वारा क्षमा का जन्म हो सकता है। क्रोध का भी स्वागत है, क्योंकि क्रोध ही परिवर्तित होकर क्षमा बनेगा, नहीं तो क्षमा क्या बनेगा। क्षमा क्या पैदा होगी आपके भीतर। तो इसलिए जीवन में मुझे तो सभी चीजों में ग्रोथ दिखाई पड़ती है।
दो तरह की ग्रोथ हैः वासना की ग्रोथ है। वासना की ग्रोथ पर आदमी गृहस्थी पर अटका रह जाता है, यह एक एक्सट्रीम है, जैसा उन्होंने पूछा कि क्या यह भी एक एक्सट्रीम है। वह गृहस्थ होकर ही अटका रह जाता है। अगर वासना के साथ जीवन की ग्रोथ हो और यदि विवेक के साथ ग्रोथ हो, तो संन्यास का जन्म होता है। लेकिन गृहस्थी के विरोध में अगर कोई संन्यास हो जाए, तो वह दूसरी एक्सट्रीम है। लेकिन अगर गृहस्थी के साथ जीवन में विवेक है तो जिस संन्यास का जन्म होता है, वह संन्यास न तो संन्यास है और न गृहस्थी है, वह मध्यबिंदु है। वही बीच का बिंदु है। अभी मुनि जी ने कहा, वीतराग शब्द का प्रयोग किया, तो अंत में मैं आपसे यह कह दूं, राग एक एक्सट्रीम है, विराग एक एक्सट्रीम है, वीतराग एक्सट्रीम नहीं है। वीतराग मध्य का बिंदु है। जहां न चित्त में राग रह जाता है और न विराग। वहां वीतरागता का फूल फलित होता है।
महावीर विरागी नहीं हैं, महावीर संन्यासी नहीं हैं, उन अर्थों में जिन अर्थों में संन्यासी हमें दिखाई पड़ता है। न महावीर गृहस्थ हैं उन अर्थों में जिस अर्थों में गृहस्थ दिखाई पड़ता है। महावीर न तो तथाकथित गृहस्थ हैं, न तथाकथित संन्यासी हैं; महावीर के चित्त में न राग है, न विराग है; महावीर वीतराग को उपलब्ध हुए हैं। वीतराग का अर्थ है मध्यबिंदु। जहां राग और विराग क्षीण हो जाते हैं और चित्त समता को, मध्य को उपलब्ध हो जाता है, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाता है। आज तो ज्यादा और बात आपसे नहीं कर सकूंगा, लेकिन धन्यवाद करता हूं उनको...
शायद यह मानते हों कि झूठ जो है वह सत्य का एक रूपांतर है या सत्य जो है झूठ का रूपांतर है। जैसे क्रोध क्षमा का रूपांतर है।

नहीं, सत्य असत्य झूठ का रूपांतर नहीं है।

प्रश्न यह है कि जो क्रोध है, हिंसा है वह क्या अहिंसा में और क्षमा में बदलता है या दोनों समानांतर हैं या एक-दूसरे की अस्तित्वहीनता है, अगर क्षमा के साथ-साथ चलता है तो समय पर चेतावनी का और कुछ समय के बाद बदल जाता है। हम लोग ऐसा मानते हैं, जहां क्रोध है वह फिर क्षमा का अब तक विरोध है और जहां क्षमा है वह क्रोध की अत्यंत अभाव स्थिति है। वह दोनों की समता नहीं है, जैसे कि जहां सत्य है, वहां असत्य हो नहीं सकता; और जहां असत्य है, वहां सत्य नहीं रह सकता। इसी तरह जहां क्रोध है, वहां क्षमा करने वाली बात नहीं है, वह तो अभाव है, अत्यंत अभाव।

समझा आपकी बात को, क्रोध और क्षमा में जो संबंध है, वह सत्य और असत्य में नहीं है। क्रोध एक शक्ति है, असत्य एक शक्ति नहीं है। क्रोध हमारी एक शक्ति है, असत्य हमारी एक शक्ति नहीं है। सेक्स हमारी एक शक्ति है, असत्य हमारी एक शक्ति नहीं है। तो असत्य, सत्य का अभाव है, क्रोध क्षमा का अभाव नहीं है, क्रोध क्षमा की अविकसित स्थिति है, असत्य सत्य का अभाव है, एब्सेंस है। इसलिए सत्य और असत्य, इसीलिए मैंने असत्य की बात नहीं की, असत्य हमारी कोई शक्ति नहीं है, बल्कि सच तो यह है कि असत्य उनमें ही होता है, जिनमें सत्य की कोई शक्ति नहीं होती। सत्य की शक्ति का अभाव है। इसलिए सत्य को मैं कोई गुण नहीं मानता, अब लम्बी बात करनी पड़ेगी।
असत्य सूचना है, लक्षण है, इस बात का कि मनुष्य के भीतर उसकी शक्तियां विकसित नहीं हो पाईं। और सत्य इस बात का लक्षण है कि मनुष्य की शक्तियां विकसित हो गईं। असत्य और सत्य लक्षण हैं, मनुष्य के पूरे विकास के या अविकास के। क्रोध और घृणा उसकी शक्तियां हैं। जिस मनुष्य के भीतर क्रोध क्षमा में परिवर्तित हो जाता है, ट्रांसफाॅर्म हो जाता है, घृणा प्रेम में ट्रांसफाॅर्म हो जाता है, जिसके भीतर सारी नीचे की ची.जें, लोहे की चीजें सोना बन जाती हैं, उसके जीवन में सत्य का उदय होता है। और जिसके जीवन में क्रोध क्रोध बना रहता है, घृणा घृणा बनी रहती है, उसके जीवन में असत्य का प्रदर्शन होता है। असत्य लक्षण है कि व्यक्ति के भीतर का विकास शक्तियों में नहीं हो सका। सत्य लक्षण है कि व्यक्तित्व का विकास परिपूर्णता को उपलब्ध हुआ। और यह जो खयाल में है कि क्रोध विरोधी है क्षमा का, यह उसी तरह की बात है, जैसे कोई कहे ठंड विरोधी है गर्मी की। दीखती है विरोधी, लेकिन विरोध नहीं है। ठंड और गर्मी के बीच डिग्रीज का एक फासला है, विरोध नहीं है। किस जगह चीज ठंडी है और किस जगह गर्म है, यह कहना मुश्किल है। शून्य डिग्री से लेकर सौ डिग्री तक जहां पानी भाप बनता है, एक ग्रोथ है। शून्य डिग्री पर जो पानी है, सौ डिग्री पर जो पानी है, उनके बीच में विरोध नहीं है, कमोबेश अंतर है, रिलेटिव अंतर है, सापेक्ष अंतर है।
क्रोध और क्षमा के बीच सापेक्ष अंतर है, इसलिए क्रोध परिवर्तित हो सकता है क्षमा में। क्रोध की शक्ति रूपांतरित हो सकती है क्षमा में। घृणा रूपांतरित हो सकती है प्रेम में। दोनों शून्य हो जाएं ऐसी स्थिति भी है, जहां कि क्रोध और घृणा दोनों शून्य हो जाएं। उस स्थिति को हम जीवन की स्थिति नहीं कहते, उस स्थिति को हम जीवन से मुक्त हो जाने की स्थिति कहते हैं। उस स्थिति को हम मोक्ष कहते हैं। मोक्ष में, उस स्थिति में, उस अवस्था में न क्रोध है और न क्षमा है। क्रोध और क्षमा की दोनों शक्तियां शून्य हो जाएं, घृणा की और प्रेम की दोनों शक्तियां क्षीण हो जाएं, समाप्त हो जाएं, तो जो शून्य बचता है वह मुक्ति है, वह मोक्ष है; फिर वह जीवन नहीं है, जीवन का अतिक्रमण है। लेकिन उसके बावत बात करनी कठिन होगी।
अभी दो दिन मैं यहां हूं, किसी मित्र को खयाल हो बात करने का तो मैं उपलब्ध हूं। वे जरूर आएं और खुशी से इस संबंध में कोई शंका हो, कोई विरोध हो, तो उसे प्रकट करें। और अगली बार आऊं, तो अभी तो आपने मुझे निमंत्रण देकर बुलाया था, इसलिए थोड़ी शिष्टता रखी एक ही व्यक्ति ने, दो व्यक्ति ने कुछ बातें कहीं। अगली दफा मैं आपको निमंत्रण दूंगा कि मैं स्थानक में आता हूं, फिर शिष्टता रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि मैं खुद अपनी तरफ से आऊंगा, फिर आप सबको निमंत्रण करता हूं कि सबको जो-जो विरोध सूझे, जो-जो शंका सूझे वे करें, एक जिंदा समाज होगा, जिंदा सभा होगी, हम कुछ बात करेंगे। शायद उससे कुछ समझ निकले, कोई विकसित हो तो अगली बार मैं निमंत्रण दूंगा आपको कि आ जाएं स्थानक में। इतनी ही कृपा करना कि मुझे आ जाने देना; और फिर कुछ बात कर लेंगे।

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