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सोमवार, 5 नवंबर 2018

सुख और शांति-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा-(आदर्श नहीं, तथ्य )

जीवन की समस्याओं पर कुछ कहूं, उसके पहले एक छोटी सी बात निवेदन कर दूं। मेरे देखे जीवन में कोई समस्या नहीं होती है। समस्याएं होती हैं, मनुष्य के चित्त में। जीवन में कोई समस्या नहीं है, समस्याएं होती हैं, चित्त में, मन में। जो मन समस्याओं से भरा होता है, उसके लिए जीवन भी समस्याओं से भर जाता है। जो मन समस्याओं से खाली हो जाता है, उसके लिए जीवन में भी कोई समस्या नहीं रह जाती। फिर भी उन्होंने मुझसे कहा कि जीवन की समस्याओं पर कुछ कहूं, तो मैं थोड़ी अड़चन में पड़ गया हूं। क्योंकि जीवन तो यही है, कुछ लोग इसी जीवन में इस भांति जीते हैं, जैसे कोई समस्या न हो, और कुछ लोग इसी जीवन को अत्यंत उलझी हुई समस्याओं में बदल लेते हैं। इसलिए मूलतः सवाल, मूलतः प्रश्न व्यक्ति के चित्त और मन का है। फिर भी कैसे चित्त में समस्याएं जन्म लेती हैं, और कैसे मनुष्य के जीने की विधि, सोचने के ढंग, जीवन का दृष्टिकोण, उसके विचार की पद्धतियां; कैसे जीवन को निरंतर उलझाती चली जाती हैं, और बजाय इसके कि जीवन एक समाधान बने, अंततः, अंततः हम पाते हैं, जीवन के सारे धागे उलझ गए। बचपन से ज्यादा सुखद समय फिर जीवन में दोबारा नहीं मिलता। इससे ज्यादा दुखद और कोई बात नहीं हो सकती। क्योंकि बचपन तो प्रारंभ है, अगर प्रारंभ ही सबसे ज्यादा सुखद है, तो शेष सारा जीवन क्या होगा?

 अगर जीवन सम्यकरूपेण जीआ जाए, तो अंत सुखद होना चाहिए। बचपन से बुढ़ापा ज्यादा आनंदपूर्ण होना चाहिए। अगर जीवन सम्यकरूपेण ठीक-ठीक दिशा में गति करे, तो हर आने वाला दिन, जाने वाले दिन से ज्यादा आनंद को लाने वाला होना चाहिए। तभी तो हम कहेंगे कि हम जीए। अभी तो जिसे हम जीवन कहते हैं, उचित होगा यही कहना कि हमने कुछ खोया, और हम मरे। क्योंकि हर दिन और दुख, और पीड़ा से भरता जाए, यहां इतने मित्र उपस्थित हैं, अगर वे सोचेंगे तो उन्हें दिखाई पड़ेगा, बचपन के दिन सर्वदा सर्वाधिक सुख के और आनंद के दिन थे। बड़े-बड़े कवियों ने गीत गाए हैं, बड़े-बड़े विचारकों ने बचपन के गौरव में, गरिमा में गीत, स्वागत में बातें कहीं हैं, लेकिन शायद ही कोई यह विचार करता हो कि बचपन की इतनी प्रशंसा किस बात का प्रमाण है? इस बात का प्रमाण कि बाद का जीवन गलत जीया जाता है। अन्यथा बचपन तो प्रारंभ है जीवन का, निरंतर और आनंद की, और संगीत की और भी सुख की दिशाएं उन्मुक्त होनी चाहिए। लेकिन जरूर कुछ गलत विधियों से हम जीते होंगे, जरूर ही कुछ हम ऐसा करते होंगे कि जिससे जीवन एक संगीत नहीं बन पाता, वरन चिंताओं और बोझों और ऐसी दूभर समस्याओं का भार बन जाता है, कि हम तो टूट जाते हैं और समस्याएं नहीं टूट पातीं, हम समाप्त हो जाते हैं और समस्याएं बनी रह जाती हैं।
इस संबंध में सबसे पहले तो एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे ही बात को शुरू करूंगा। उस कहानी से ही कहना चाहूंगा कि मनुष्य के चित्त में और जीवन में सबसे पहली कौन सी अड़चन है, जो उसे समाधान नहीं बनने देती और समस्याएं बना देती है। आपने सुना होगा, निरंतर यह कहा जाता है, निरंतर यह समझाया जाता है कि जो लोग धर्मों से विमुक्त हो गए हैं, जिन लोगों ने संस्कृति से अपनी जड़ें अलग कर ली हैं, जिन लोगों ने शास्त्रों और आगमों में जो कहा है, उससे अपने जीवन को विरोध में ले गए हैं। वे सारे लोग दुख से भर गए हैं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जीवन के दुख में यह कारण नहीं है वरन जो लोग शास्त्रों और सिद्धांतों के अनुकूल जीवन को जीने की कोशिश करते हैं, वे ही लोग जीवन को समस्या में परिणित कर देते हैं। यह मैं समझाना चाहूंगा, एक छोटी सी कहानी से शुरू करूं ।
चार मित्र सारी दुनिया के भ्रमण के लिए निकले थे। वे चारों ही सब भांति विचारशील और पंडित थे। उन चारों ने उस समय जो बड़ी से बड़ी उपाधियां थीं, उपलब्ध की थीं। उन चारों के पास शास्त्रों के बड़े प्रमाण पत्र थे, लेकिन जीवन, जीवन उनमें से किसी ने भी नहीं जिया था। वे सभी उस समय के विश्वविद्यालयों से स्नातक होकर निकले थे। और इसके पहले कि वे अपने घरों को वापस लौट जाएं, उन्होंने सोचा कि वे वृहत्तर दुनिया का दर्शन भी कर लें। उन्होंने गुरुकुल छोड़ा, गांव के बाहर पहुंच कर वर्षा के दिन थे, और नदी पूर पर थी। उन्होंने सोचा कि नदी को पार करें, नाव उस पार थी और उसके आने में देर थी, उन चारों में से, जिसने धर्मशास्त्र को पढ़ा था, उसने कहा, मैंने तो पढ़ा है, आज मौका भी मिल गया है कि हम उसका प्रयोग कर लें, मैंने पढ़ा है कि राम के नाम से तो भवसागर पार हो जाता है। यह तो छोटी नदी है, इसे पार करना तो कठिन नहीं, तो हम राम का नाम लें और नदी पार हो जाएं। उसके मित्रों ने कहा तुम चलो, तो पीछे हम भी चलें। वह युवक राम का नाम लिया और नदी में गया। लेकिन राम के नाम से नाव नहीं बन सकी। डूब गया, तीनों मित्र घबड़ाये, क्या करें? उनमें से एक मित्र ने, जिसने अर्थशास्त्र पढ़ा था, इकाॅनामी पढ़ी थी, उसने कहा मित्रों मैंने पढ़ा है, अगर सब कुछ डूबता हो, तो जो कुछ बचाया जा सके, बचा लिया जाए। उस डूबते हुए मित्र की चोटी भर थी, उस चोटी को उन्होंने खींच कर तोड़ लिया। मित्र तो डूब गया, चोटी उन्होंने बचा ली, इकाॅनामिक्स उसने पढ़ी थी, अर्थशास्त्र उसने पढ़ा था। जो थोड़ा बचाया जा सके, वह तो कम से कम बचा ही लिया जाए, वे प्रसन्न हुए कि मित्र गया तो गया, कम से कम चोटी तो हमने बचा ली है। नदी तो ऐसे पार नहीं हो सकी, एक मित्र उन्होंने खो दिया।
लेकिन उन्होंने एक पाठ भी न लिया, वह पाठ यह था कि जिंदगी शास्त्रों में जो लिखा है, उससे बड़ी है। और जो आदमी शास्त्रों में लिखे हुए शब्दों की लकीर पर चलता है, वह शास्त्रों की नाव नहीं बनाता, शास्त्र उसके लिए डूबने का कारण हो जाते हैं। लेकिन यह पाठ उन्होंने नहीं लिया। नाव आई, वे नदी पार हो गए। वे उस पार गए, दूसरे गांव में पहुंचे, और उन्हें भूख लगी और उन्होंने सोचा हम भोजन बनाएं, एक मित्र को उन्होंने बाजार भेजा कि वह सब्जियां खरीद लाए। उसने वैद्यक आयुर्वेद का अध्ययन किया था, इसलिए उचित था कि वह वनस्पतियों का ज्ञाता है, वह सब्जियां खरीदे, वह मित्र गया, बाजार पहुंच कर उसने अपनी किताब झोले से खोली, और हर एक सब्जी के संबंध में विचार करने लगा, कौन सी सब्जी में कौन से गुण हैं, और कौन से दुर्गुण। सुबह थी, सांझ होने आ गई, तय करना कठिन था, आखिर में उसने पाया कि आयुर्वेद में लिखा है नीम की पत्तियों से ज्यादा गुणवान और कुछ भी नहीं। अंततः उसने सब्जियां नहीं खरीदीं, वह एक झाड़ पर चढ़ा, उसने नीम की पत्तियां तोड़ीं और वापस लौटा। नीम की पत्तियों में कोई भी दुर्गुण नहीं है, इसलिए स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक आरोग्यप्रद वे ही थीं।
दो मित्र थक गए और परेशान हुए, दिन भर प्रतीक्षा करते-करते, एक को उन्होंने भेजा था कि वह बाजार से घी खरीद लाए, वह लाॅजिक, तर्कशास्त्र का विद्यार्थी था। उसने जाकर बाजार से घी खरीदा, पुरानी न्याय की किताबों में लिखा है, बड़ी-बड़ी समस्याएं लिखी हैं, वे समस्याएं जिंदगी की समस्याएं नहीं हैं। किताबों की समस्याएं हैं और स्मरण रखें, किताबों की समस्याएं और जिंदगी की समस्याएं अलग-अलग होती हैं। उनकी मैं बात करूं, न्याय की किताबों में एक उल्लेख है, तर्कशास्त्री यह सोचता है कि जब हम किसी पात्र में घी को रखते हैं, तो घी पात्र को सम्हालता है या पात्र घी को? उस मित्र ने घी खरीदा, सोचा मैंने किताबों में तो बहुत पढ़ा, कौन किसको सम्हालता है, पात्र घी को या घी पात्र को? आज मौका मिला है, प्रयोग करके देख लूं। उसने पात्र को उलटा कर देखा, घी जमीन पर गिर गया, उसने कहा निश्चित ही किताबों में जो लिखा है, वह ठीक लिखा है, पात्र ही घी को सम्हालता है। लेकिन वह खुश और नाचता हुआ, खाली पात्र को लिए वापस आ गया। उसने आकर घोषणा की कि ठीक ही लिखा है किताबों में, पात्र ही घी को सम्हालता है, घी पात्र को नहीं सम्हालता। अब तक प्रयोग नहीं किया था, आज मैंने प्रयोग किया है।
जिस मित्र को वे छोड़ गए थे, उससे कहा था कि वह थोड़ी आग जलाए और थोड़ा पानी चढ़ा दे। थोड़ी दाल उनके पास थी, चावल उनके पास था, उसे डाल दे, उसने चावल और दाल डाली थी और पानी डाला था; और आग के पास बैठ कर प्रतीक्षा करता था, पानी भीतर बुद-बुद की आवाज किया, वह हैरान हुआ। वह ग्रामेरियन था, व्याकरणाचार्य था। हैरान हुआ कि यह बुद-बुद शब्द तो कभी पढ़ा नहीं, सोचा नहीं, सुना नहीं, यह कौन सा शब्द है, उसने अपनी किताब खोली, और वह खोज में लग गया किस धातु से इसका जन्म होता है? कैसे यह शब्द बनता है? वह जब तक शास्त्र को खोजता था, तब तक उसके दाल और चावल जल गए। ऐसे वे चार मित्र थे, उनकी कथा तो बहुत लम्बी है। उससे मुझे प्रयोजन नहीं। लेकिन जिंदगी में बहुत से लोग यही करते हैं। यह कथा हंसने जैसी लगेगी। यह बहुत पुरानी कथा है, और इस छोटी सी कथा में और ऐसी बहुत सी कथाओं में जो हजारों वर्षों में मनुष्य ने वि.जडम अर्जित की है, जो ज्ञान अर्जित किया है, वह प्रकट हुआ है।
जो लोग जीवन में शास्त्रों, शब्दों और सिद्धांतों को मानकर जीना शुरू करते हैं, वे हजारों समस्याएं खड़ी कर लेते हैं। वे समस्याएं जीवन की नहीं हैं, उनके चित्त से पैदा हो जाती हैं। क्यों? जो व्यक्ति शास्त्रों और सिद्धांतों को मान कर जीना शुरू करता है, वह जीवन को जैसा जीवन है, वैसा नहीं देखता। बल्कि वैसा देखता है, जैसा उसके सिद्धांतों के द्वारा देखा जाना चाहिए। उसकी आंखें पक्षपातग्रस्त हो जाती हैं, उसका विचार प्रिज्युडिस्ड हो जाता है, वह बंध जाता है किसी धारणा में, उस धारणा के द्वारा जीवन को देखना शुरू करता है। जबकि जीवन इतना बड़ा है, कोई धारणा, कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडिआलाॅजी, उसे बांधने में समर्थ नहीं है।
 जीवन है विराट, सिद्धांत हैं बहुत क्षुद्र और छोटे; लेकिन हम सारे लोग, जीवन को, जैसा जीवन है, फैक्चुअल, वस्तुतः वैसा देखने में तैयार नहीं होते, वरन जीवन को उन आंखों से देखते हैं, जो पक्षपातग्रस्त हैं। कोई जैन की आंखों से, कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई की आंखों से जीवन को देखता है। जीवन न तो हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन; जीवन तो बस जीवन है और उस पर कोई छाप नहीं, कोई सिद्धांत और कोई शास्त्र नहीं, जीवन निपट जीवन है। लेकिन हम सारे लोग, जीवन की निपटता को उसकी वस्तुता को देखने में समर्थ नहीं होते। हमारे कुछ विचार हैं, हजारों वर्षों की परम्पराएं हैं, हजारों वर्षों के सिद्धांत हैं, हजारों वर्षों के विचार हमारे मन पर हैं, उनका बोझ हमारे ऊपर है, उनके माध्यम से हम जीवन को देखने की कोशिश करते हैं। और तब अगर जीवन से हमारे सारे संबंध टूट जाते हों, और जीवन की समस्याओं का हम ठीक-ठीक उत्तर न दे पाते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं, क्यों? हम पहले से कुछ समाधान तैयार किए हुए हैं, उनको हम जीवन पर बैठाना चाहते हैं। हमने कुछ कपड़े तैयार कर लिए हैं, बच्चा पैदा नहीं हुआ। और हम उस बच्चे के ऊपर उन कपड़ों को बैठाना चाहते हैं। और अगर कपड़े ठीक न पड़ते हों, तो कपड़ों को काटने की हमारी तैयारी नहीं। बच्चे के ही हाथ-पैर छांटने को हम तैयार हैं। हम सारे लोग, जीवन को छांटने को तैयार हैं, तथाकथित सिद्धांतों, शब्दों और विचारों ने जो हमारे ऊपर परंपराएं लादी हैं, उनको दूर करने की हमारी तैयारी नहीं। इसलिए जीवन उलझता चला जाता है, जीवन जो कि बहुत सरल है, स्मरण रखें, पशुओं और पक्षियों और पौधों का जीवन भी मनुष्य से ज्यादा सरल है।
पुरानी बाइबिल में कथा है, मनुष्य ने ज्ञान का फल चखा और उसे स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाल दिया गया। अजीब बात है, ज्ञान का फल चखा और स्वर्ग के बाहर निकाल दिया गया। ज्ञान के फल ने मनुष्य को बड़ी तकलीफें दी हैं, जिन सिद्धांतों की मैं बात कर रहा हूं, वे हमें ज्ञानी बना देते हैं, और जितनी मात्रा में हम ज्ञानी होते चले जाते हैं, उतनी ही मात्रा में हम जीवन जैसा है, उसे देखने में असमर्थ होने लगते हैं। तब जीवन के साथ हमारा एक संघर्ष शुरू हो जाता है। तब जीवन को मोड़ने की, जीवन को दबाने की, जीवन को जबरदस्ती किसी ढांचें में बांधने की हम चेष्टा करने लगते हैं। स्वाभाविक है कांफ्लिक्ट पैदा होगी। स्वाभाविक है द्वंद्व पैदा होगा। स्वाभाविक है समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। स्वाभाविक है, बहुत स्वाभाविक है कि जीवन को हम उलझा लेंगे, जीवन के विरोध में कोई भी खड़ा नहीं हो सकता। एक छोटे से मनुष्य की सामथ्र्य क्या है?
 जिस जीवन से मनुष्य पैदा होता है, उसी जीवन में विलीन हो जाता है। वह अगर जीवन के विरोध में खड़ा होगा, तो सिवाय इसके कि अपने लिए दुख, और पीड़ाएं और चिंताएं मोल ले ले, और कुछ भी नहीं हो सकता है। तो मैं यह निवेदन करना चाहता हूं, यह जो जीवन का विराट शास्त्र है, यह स्वयं परमात्मा का बनाया हुआ है, आदमी कि किसी किताब को मान कर इस जीवन को सुलझाने जो जाएगा, उसका उलझ जाना स्वाभाविक है। यह परमात्मा का खुद का शास्त्र है, यह जो विराट जीवन है। इसे सीधा देखें, खुली आंखों से, बीच में किताबें न हों, बीच में शब्द न हों, बीच में सिद्धांत न हों, तो इस जीवन से अदभुत समाधान उपलब्ध होने शुरू हो जाते हैं। लेकिन हम, हम तो उधार समाधान लेकर आते हैं, और जो सतत प्रवाहशील जीवन है, उसमें जड़ सिद्धांतों को लेकर खड़े हो जाते हैं, जीवन और उसका कहीं मेल नहीं होता।
एक छोटी सी कहानी और कहूं, मुझे बहुत प्रीतिकर है।
जापान में ऐसा हुआ, एक गांव में दो छेाटे मंदिर थे। और यह तो आप जानते हैं, दो मंदिरों में दोस्ती कभी नहीं होती। दो शराबघरों में दोस्ती हो सकती है, दो जुआघरों में हो सकती है, दो मंदिरों में दोस्ती कभी नहीं होती। दुर्भाग्य है यह, लेकिन यह अब तक संभव नहीं हुआ कि मंदिर दोस्त हो सकें। उन दोनों मंदिरों में भी झगड़ा था। एक गांव के पूरब में बना था, एक पश्चिम में बना था। पूरब में जब एक मंदिर बन गया, तो फिर दूसरा मंदिर पूरब में कैसे बन सकता था? वह पश्चिम में बना। उनके सब रिवाज एक-दूसरे के विरोधी थे। यहां तक भी बात न थी, उनके पुजारी आपस में कभी बोलते नहीं थे। किन मंदिरों के पुजारी कब बोले हैं? दुनिया में सभी मंदिरों के पुजारी, एक-दूसरे के मंदिर के पुजारियों से बोलते नहीं। दो धर्मों के साधु एक दूसरे के निकट नहीं आते। दो पंथों को मानने वाले संन्यासियों के बीच कोई संबंध नहीं होता।
उन दो मंदिरों के बीच भी कोई संबंध नहीं था। मंदिरों के पुजारी तो बूढ़े हो गये थे। लेकिन उनके पास दो छोटे-छोटे लड़के थे, ऊपरी काम के लिए। बाजार से कुछ ले आने के लिए, कुछ सेवा करने के लिए। अभी बूढ़ों की बीमारी बच्चों को नहीं लगी थी। अभी दोनों मंदिरों के बच्चे कभी-कभी मिल लेते थे, रास्ते पर और बात भी कर लेते थे। हालांकि बूढ़े पुजारी बहुत चिंतित थे। दुनिया के सभी बूढ़े बहुत चिंतित होते हैं, अपनी सब बीमारियां अपने बच्चों को जल्दी से जल्दी दे देने को। डर है बच्चे भिन्न न हो जाएं। डर है बच्चे बिगड़ न जाएं। हालांकि इसका अब तक पता नहीं कि बूढ़े ठीक थे! अगर बूढ़े ठीक थे, तो ये दुनिया बहुत दूसरे किस्म की होती। यह दुनिया तो बिलकुल खराब है, फिर भी बूढ़ों को यह भ्रम होता है कि वे ठीक हैं। तो बच्चों को अपना ठीकपन सिखा जाना चाहते हैं, उनके बिगड़ने से डर लगता है।
वे दोनों बूढ़े पुजारी भी बहुत डरे हुए थे। उनको भी भय था कि बच्चे कहीं बिगड़ न जाएं, इसलिए दोनों मंदिरों के पुजारियों ने बच्चों को हिदायत दी हुई थी, कभी बाजार जाओ, काम को जाओ, तो दूसरे मंदिर के बच्चे से बोलना मत। लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं और उनको बिगाड़ना एकदम आसान नहीं होता, धीरे-धीरे तो बिगड़ जाते हैं, एकदम बिगाड़ना आसान नहीं होता। बच्चे कभी-कभी रास्ते पर मिल जाते थे और एक-दूसरे से बात कर लेते थे। एक दिन ऐसा हुआ, पूरब के मंदिर का बच्चा आया और पश्चिम के मंदिर वाले बच्चे से पूछा, कहां जा रहे हो? वह बच्चा बड़ा होशियार होगा, बड़ा तेज। उसने कहा, जहां हवाएं ले जाएं। पूरब का मंदिर का लड़का थोड़ा हैरान हुआ, अब क्या बात आगे बढ़े? बात ही टूट गई, इसके आगे बात करने को कुछ उपाय न रहा। वह वापस आया। उसने बूढ़े पुजारी को कहाः आज तो बहुत बुरा हो गया, मैं हार कर लौटा हूं। बूढ़ा बहुत नाराज हुआ, उसने कहा, यह तो बहुत अशोभन है, उस मंदिर के किसी भी आदमी से हार खानी, हजारों साल से हम जीतते रहे हैं, और कभी भी नहीं हारे। और झंडा हमारा उस मंदिर से हमेशा ऊपर रहा है, और हमारे मानने वालों की संख्या हमेशा ज्यादा रही है। तुम कल फिर जाना, और फिर उस बच्चे से पूछना कि कहां जा रहे हो? और जब वह कहे जहां हवाएं ले जाएं, तो उस बच्चे से कहना कि यदि हवाएं नहीं होतीं तो फिर कहीं जाते या नहीं। तब उसका मुंह बंद हो जाएगा। और दुनिया के सब पुरोहित एक-दूसरे का मुंह बंद करने को सदा उत्सुक रहे हैं। उसी को वे समझाना कहते हैं। उसी को वे विचार कहते हैं, मुंह बंद कर देने को। उनके सारे विवाद मुंह बंद कर देने से ज्यादा नहीं हैं। इसलिए समस्याएं वहीं की वहीं खड़ी हैं, और आदमी का मुंह हजारों तरह से बंद कर दिया गया है। समझाया उसने कि जाकर मुंह बंद कर देना।
दूसरे दिन वह बच्चा फिर गया, पूछा खड़ा हो गया। जब पश्चिम के मंदिर का लड़का वहां से निकला, तो उसने पूछा कहां जाते हो? उस लड़के ने कहाः जहां पैर ले जाएं? यह लड़का तो बहुत हैरान हुआ, बंधा हुआ उत्तर बेकार हो गया, अब क्या करे? कल उसने कहा था, जहां हवाएं ले जाएं, यह तो बड़ा बेईमान और धोखेबाज निकला। इसने तो उत्तर बदल लिया। वह वापस लौटा, उसने अपने गुरु को कहा कि वह तो बहुत बेईमान है। उसने कहा, वह मंदिर हजारों साल से बेईमान है, और बेईमान ही वहां जाते हैं। वह बदल गया उत्तर। उसके गुरु ने कहाः तुम कल फिर पूछना और जब वह यह कहे कि जहां पैर ले जाएं। तो तुम कहना, अगर पैर न होते, तो जीवन में कहीं जाते कि नहीं? तब फिर उसका मुंह बंद हो जाएगा।
वह दूसरे दिन फिर गया, फिर द्वार के बाहर खड़ा रहा। उधर से वह लड़का निकला, इसके तो प्रश्न उत्तर तैयार थे, उसने फिर पूछा मित्र कहां जाते हो? उस लड़के ने कहा, सब्जी खरीदने। अब बहुत मुश्किल हो गई।
जिंदगी भी रोज बदल जाती है। और जिनके बंधे हुए उत्तर हैं वह ऐसी ही मुश्किल में पड़ जाते हैं। जिंदगी रोज बदल जाती है, जिंदगी तो गतिशील है। जिंदगी तो स्वतंत्र जीवंत प्रवाह है। वहां कुछ भी ठहरता नहीं, प्रतिपल सब बदल जाता है। लेकिन हमारे उत्तर बंधे हुए हैं, स्थिर हैं, बहुत पुराने गुरुओं ने बताए हैं, वे तय हैं। उन उत्तरों को लेकर जो जीवन के पास जाता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है। प्रश्न पूछता है बंधे हुए, लेकिन जिंदगी जो जवाब देती है, वे बहुत नये होते हैं। जिदंगी रोज नये प्रश्न खड़े करती है। जिंदगी रोज-रोज नये अवसर देती है। जिंदगी में सब कुछ नया है। कल जो सूरज उगा था, अब दुबारा फिर कभी नहीं उगेगा। हालांकि अगर भूगोलविदों से पूछें या ज्योतिषशास्त्रियों से पूछें, वे कहेंगे वही सूरज रोज उगेगा। लेकिन मैं निवेदन करता हूं जो सूरज कल उगा, वह अब कभी नहीं उगेगा। और मैं निवेदन करता हूं, जिस वृक्ष के पास से आज आप निकले थे, उसी वृक्ष के पास से दोबारा निकलना असंभव है। क्योंकि वृक्ष भी बदल जाएगा, और आप भी बदल जाएंगे।
जिंदगी प्रतिक्षण बदली जा रही है, वहां कोई ठहराव नहीं है। वहां कुछ रुका हुआ नहीं है। जहां ठहराव हो जाता है, वहीं मौत आ जाती है। मौत है ठहराव। जिंदगी है गति। लेकिन हमारे उत्तर हैं, ठहरे हुए। अगर दुनिया मुर्दों की हो, तो मरे हुए और बासे उत्तर काम कर देते और समस्याएं खड़ीं न होती। लेकिन जिंदगी है उनकी जो जिंदा हैं और उत्तर हैं मुर्दा, बासे और मरे हुए, डेड। और इसलिए सब उत्तर रोज नई परेशानियां खड़ी कर देते हैं, रोज नई समस्याएं खड़ी कर देते हैं, जीवन में समाधान संभव नहीं हो पाता।
वह मस्तिष्क जो उधार और बासे विचारों से भरा है, जिसने जीवन को अपनी आंखों से नहीं देखा, जिसने जीवन को पराई आंखों से देखने की कोशिश की है, जिसने जड़ और बंधे हुए और मुर्दा सिद्धांतों को अपने और जीवन के बीच में लिया है, वह मनुष्य निरंतर समस्याएं खड़ी करेगा, उसके जीवन में प्राॅब्लम्स ही खड़े होंगे, समाधान उसके जीवन में असंभव है। इसका कारण यह नहीं है कि जीवन ऐसा है, इसका कारण यह है उसका मन मुर्दा है और जीवन जिंदा। मुर्दा मन को लेकर जीवन को हल नहीं किया जा सकता। किस मन को मैं मुर्दा कह रहा हूं, डेड माइंड किसको कह रहा हूं? उस मन को मुर्दा कह रहा हूं, जो अतीत के भार से, बीते विचारों के भार से बोझिल है, और जिसके पास अपनी कोई दृष्टि नहीं। अपना कोई विचार नहीं। अपनी कोई समझ, अपनी कोई अंडरस्टेंडिग नहीं। आपने जिदंगी की किसी समस्या को, अपनी समझ से हल करने की कोशिश की है? अपनी समझ से। नहीं, अपने पिताओं की समझ से हल करने की कोशिश की होगी, और उनके भी पिताओं की और उनके भी पिताओं की। लेकिन अपनी समझ, अपनी समझ कहां है? और जिसके पास अपनी समझ नहीं है, उसके जीवन में समस्याएं न हों, यह एक मिरेकल होगा, यह एक चमत्कार होगा। उसके जीवन में समस्याएं होंगी ही, जिसके पास अपनी समझ है, और जिसने अपनी समझ को पैदा किया है, और जिसने केवल कुछ सिद्धांतों पर विश्वास नहीं कर लिया, बल्कि अपने विवेक को जगाया है और जाग्रत किया है, उसके जीवन में प्रति क्षण समस्याएं जरूर आती हैं, लेकिन समस्याओं के उत्तर में उसका विवेक भी जागता है, और समस्याएं हल हो जाती हैं। उसके लिए समस्याएं अपने विवेक के जागरण के लिए उपाय बन जाती हैं, माध्यम बन जाती हैं, मौका बन जाती हैं, और वह अंत में समस्याओं को धन्यवाद देता है, क्योंकि उन्होंने ही उसे मौका दिया, उसके भीतर जो सोया हुआ विवेक था, वह जागे, लेकिन हम तो विश्वास किए हुए लोग हैं। विचार करने की हमारी कोई आदत नहीं। विचार करना न हमने सीखा है, और न हमें सिखाया गया है।
एक यहूदी फकीर अपने छोटे से बच्चे के साथ एक बगीचे में खेल रहा था। उसका छोटा सा बच्चा बहुत चंचल था। बच्चे चंचल होने चाहिए। जो बच्चे चंचल नहीं होते वे जड़बुद्धि होते हैं, इडियाटिक होते हैं। लेकिन मां-बाप उन बच्चों से प्रसन्न होतेे हैं, जो चंचल नहीं होते। उन बच्चों से तो मां-बाप परेशान होते हैं, जो चंचल होते हैं। मां-बाप चाहते हैं ऐसे बच्चे जो मिट्टी के लौंदे हों--उनसे वे कहें, बैठ जाओ, तो बैठ जाएं; उनसे कहें, लेफ्ट टर्न, तो वे बाएं घूम जाएं; उनसे कहो, भागो, तो भागें; उनसे कहो, रुको, तो रुके। जिनके भीतर अपना कोई प्राण न हो, जिनके भीतर अपना कोई विद्रोह न हो। लेकिन वह फकीर अपने उस बच्चे को बहुत प्रेम करता था। और जब भी कोई उससे बात करता, तो वह कहता कि यह बच्चा बहुत विद्रोही है, मुझसे भी टक्करें लेता है, मेरे भी विरोध में खड़ा हो जाता है। इस बच्चे से बड़ी आशाएं हैं। लोग कहते, तुम पागल हो, बच्चे को बिगाड़े जा रहे हो।
बगीचे में खेलने गया था बच्चा उसका, एक छोटे से झाड़ पर चढ़ गया। और झाड़ पर से उसने कहा, अपने पिता को, क्या आप मुझे संभालेंगे, मैं कूद पड़ूं? उसने दुबारा पूछा, क्या आप मुझे संभाल लेंगे, मैं कूद पड़ूं? पिता ने कहाः तुम्हारी मर्जी है, तो कूद पड़ो, वह लड़का कूद पड़ा, लेकिन वह फकीर हट कर खड़ा हो गया। छोटा सा बच्चा था, जमीन पर गिरा, उसके पैर में चोट आई। आस-पास के लोग इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा उस फकीर को कि तुम कैसे क्रूर आदमी हो? उस फकीर ने कहाः क्रूर नहीं, दुख तो मुझे भी हुआ कि उसके पैर में चोट लगी, लेकिन उसे मैं यह सिखाना चाहता हूं, अपने बाप पर भी निर्भर मत होना। उसे मैं यह सिखाना चाहता हूं कि अपने बाप पर भी विश्वास मत करना। उसे मैं यह सिखाना चाहता हूं कि उसमें अपना बल हो, अपनी समझ हो, और वह कूदना चाहे तो पहाड़ से कूदे, लेकिन किसी और के भरोसे नहीं। आज तो उसके पैर में छोटी चोट लगी है, लेकिन जिंदगी भर के लिए मैं उसे एक पाठ देता हूं, भरोसे का खयाल छोड़ दे। और इसलिए दुख तो मुझे हो रहा है कि उसके पैर को चोट लगी, लेकिन उससे मैं इतना प्रेम करता हूं कि उसे मैं अपने भरोसे नहीं रख सकता। आज हूं, कल नहीं रहूंगा। फिर वह किसके भरोसे कूदेगा?
अदभुत रहा होगा वह पिता। प्रेम उसका अदभुत रहा होगा। उसने सिखाया बाप पर भी भरोसा मत करना। लेकिन हम सब को सिखाया गया है, विश्वास करना, बिलीफ, श्रद्धा, श्रद्धा और विश्वास हमारे जीवन को विवेक में विकसित नहीं होने देते। चाहिए उलटा, होना चाहिए यह कि हमें सिखाया जाए, विश्वास नहीं, मान्यता, श्रद्धा और आस्था नहीं; बल्कि विवेक का जागरण। और यदि हमारे भीतर विवेक का और विचार का जागरण हो, तो जीवन में हर समस्या, एक आनंद की घड़ी होगी। क्योंकि विचार उसे सुलझाने का मजा लेगा। विवेक उस समस्या को पार करने में एक चैलेंज, एक चुनौती अनुभव करेगा। लेकिन हमारे सामने समस्या खड़ी होती है और हम मुश्किल में पड़ जाते हैं। हमारे पास अपनी कोई समझ नहीं है, हमारी सब समझ उधार, बाॅरोड है। और यह कठिनाई है, चित्त उधार है, बासा है; ताजा, फे्रश नहीं। ताजे चित्त के लिए कोई समस्या जीवन में नहीं है, जो हल न हो जाए। समस्याएं हैं, तो उनके समाधान भी हैं। लेकिन समाधान उस हृदय से उठेंगे, जिसने खुद के जीवन को जीने की कोशिश की है। और जिसने अपने विचार को जगाने का सतत प्रयास किया है। उसके जीवन में विचार नहीं जगेगा, जो चुपचाप आंख बंद करके, किन्हीं के पीछे चलता रहा है। इसलिए मैं कहना चाहता हूं पहली बात विश्वास करने वाले मन के लिए जीवन में बहुत समस्याएं होंगी। उसके विश्वास, उसकी आस्थाएं, उसकी श्रद्धाएं समस्याएं पैदा करेंगी।
 विचार करें और उधार विचारों से मुक्त हो जाएं। बासे विचारों से मुक्त हो जाएं, जिदंगी आपकी है, आदतें भी आपकी होनी चाहिए। चलने वाले पैर भी आपके होने चाहिएं। कठिनाई होगी, मुश्किल होगी, दूसरों का सहारा लेकर चलना बहुत आसान है। लेकिन जो दूसरों का सहारा लेकर चलता है, उसकी अपनी चलने की क्षमता क्रमशः क्षीण होती जाती है। और जो सदा ही दूसरों का सहारा लेकर चलता हो, उसके जैसा अभागा व्यक्ति संसार में दूसरा नहीं है। जरूर कठिनाई होगी, अपने पैरों से चलने में, अपनी आंखों से देखने में; लेकिन वह सारी कठिनाई तपश्चर्या है, स्वयं के विवेक के जगाने के लिए। और स्मरण रखें, खुद का विवेक तभी जागृत होता है, जब हम दूसरों के विवेक से और विचार से काम करना बंद कर देते हैं।
जिंदगी में केवल वही शक्तियां जागती हैं, जिनके लिए चुनौतियां खड़ी हो जाती हों। अगर हम सदा ही दूसरों की तरफ देखें, जब जीवन में समस्या आए हम गीता को खोलें, कुरान को और बाइबिल को खोलें, और महावीर के और बुद्ध के दरवाजे खटखटाएं, या कोई और छोटे-मोटे आदि महात्मा को खोजें, उसके पैर पड़ें और उससे पूछें; जो आदमी भी दूसरे से पूछने जाता है, वह अपना दुश्मन है। जो आदमी भी किसी और पर निर्भर करता है, वह अपने भीतर विचार के जगने का एक मौका मिला था, उसे खोता है। और जो बार-बार मौका खोता है, धीरे-धीरे उसके भीतर विचार की सोई हुई शक्ति, सोई हुई रह जाती है; उसके भीतर विचार की शक्ति जागती नहीं। हर एक के भीतर है शक्ति, हर एक के भीतर छिपा है विवेक; हर एक के भीतर वह ज्योति छिपी है, जो सारे अंधकार को मिटा दे। और हर एक के भीतर वह शक्ति छिपी है, जिसके सामने कोई समस्या खड़ी नहीं हो सकती। और जिसके सामने सारी समस्याएं जल जाती हैं और राख हो जाती हैं। लेकिन उसे जगने का, उसे उठने का, उसे उभरने का मौका हमने कब दिया है? जो मौका नहीं देते उसे, वे उसे कैसे पैदा कर सकेंगे?
फरीद नाम का एक फकीर था। एक छोटी सी नदी के किनारे रहता था। एक युवक ने आकर पूछा कि मैं ईश्वर को खोजता हूं। फरीद ने कहाः मैं स्नान करने जाता हूं, मेरे साथ चले चलो। स्नान के बाद तुम्हें बताऊंगा ईश्वर की खोज, यह भी हो सकता है कि स्नान करने में ही बता दूं। वह थोड़ा हैरान हुआ, यह फकीर कुछ पागल सा मालूम पड़ा। स्नान करने में बताने की क्या बात हो सकती थी, लेकिन गया। उसके साथ नहाता था, जैसे ही पानी में उसने डुबकी ली, उस फरीद ने बहुत ताकत से उसके सिर को पानी के नीचे पकड़ लिया। उसके प्राण झटपटाने लगे। फरीद बहुत तगड़ा और मजबूत फकीर था। बहुत बलिष्ठ फकीर था। जो पूछने आया था, जिज्ञासु, बड़ा दुबला-पतला, बड़ा कमजोर आदमी था। लेकिन उसके भीतर प्राण छटपटाने लगे, बलिष्ठ और मजबूत फकीर के भी हाथ धीरे-धीरे ऊपर उठने लगे। वह कमजोर आदमी अपनी सारी प्राणों की ताकत इकट्ठी करके ऊपर उठ रहा था। आखिर वह ऊपर निकल आया, फरीद उसे नीचे नहीं दबा पाया।
जब वह ऊपर आ गया, घबड़ा गया। उसने कहा, कि आप तो मुझे मार ही डालते थे! मैं तो ईश्वर को खोजने आया और आप मुझे मृत्यु के दर्शन कराये देते थे। आप पागल तो नहीं हैं? फरीद ने कहा इसका विचार तो बाद में करेंगे कि कौन पागल है, क्योंकि अब तक यह तय नहीं हुआ। क्योंकि पागल समझते हैं कि बाकी लोग पागल हैं, बाकी लोग समझते हैं पागल, पागल हैं। अभी तक यह तय नहीं हो सका कौन पागल है, इसका तो विचार बाद में कर लेंगे। कहना मुझे यह है, पूछना मुझे यह है कि जब मैंने तुम्हें दबाया, तुम तो बहुत कमजोर हो, ऊपर कैसे उठ आए? उसने कहाः फिर कमजोरी का कोई खयाल भी न रहा, जब प्राणों पर बन आई, और जब श्वासें घुटने लगीं, और ऐसा लगने लगा कि एक क्षण और कि मौत हो जाएगी। तो न मालूम किन कोनों से, मेरे भीतर अपूर्व शक्ति का जागरण हो गया। सब तरफ से मुझमें ताकत आ गई और मैंने पाया कि अब मुझे कोई ताकत उठने से नहीं रोक सकती। आप मजबूत थे, लेकिन मेरे भी प्राणों की बन आई थी, इसलिए सारे प्राण इकट्ठे हो गए थे, समग्र हो गए थे और मैं उठा।
फरीद ने कहा, जब तुम ऊपर उठ रहे थे, तुम्हारे मन में कितने विचार थे? उसने कहाः यह क्या पूछते हैं, कितने विचार? एक ही विचार था कि किस भांति फिर से श्वांस ले सकूं, धीरे-धीरे वह विचार भी खो गया। फिर तो एक प्राणों में अभीप्सा थी, विचार नहीं था, सारे प्राण श्वास लेने को प्यासे थे; फिर मैं उठ आया, फिर मुझे पता नहीं, सब कैसे हुआ? फरीद ने कहाः जिस दिन परमात्मा को पाने की इतनी ही आकांक्षा, तुम्हारे सारे प्राणों में भर जाएगी, उस दिन दुनिया की कोई ताकत तुम्हें ईश्वर से मिलने से नहीं रोक सकती। कमजोर कितने ही हों, बड़ी ताकत भीतर लिए हुए हो, लेकिन उसे मौका दो। सारे प्राण प्यासे हो उठें, तो वह ताकत उठनी शुरू होती है। हम में से अधिक लोग, अपने भीतर छिपी हुई विवेक की शक्ति को अपने भीतर छिपी हुई ऊर्जा को उठने का कोई मौका ही नहीं देते। और हजारों साल से यह जघन्य अपराध चल रहा है, मनुष्य के खिलाफ कि हर मां-बाप, हर शिक्षक और हर गुरु उसके भीतर जो विवेक है, उसे जगाने के विरोध में हैं, उसे सुलाने के पक्ष में हैं। कुछ फायदा है, गुरुओं को कुछ फायदा है, विवेक सोया रहे, तो मनुष्य का सहज शोषण संभव है। हजार-हजार तरह से उसका शोषण किया जा सकता है। इसलिए राजनैतिक, धर्मपुरोहित कोई भी इस पक्ष में नहीं है कि मनुष्य का विवेक जागे, वे सभी इस पक्ष में हैं कि विश्वास करो और सोए रहो। विश्वास करो और कभी सोचो मत, कभी खुद खोजो मत, आस्था करो, श्रद्धा करो, संदेह नहीं।
जब कि जो भी सत्य को खोजना चाहता है, उसे संदेह की अग्नि से गुजरना ही होगा। क्योंकि संदेह की पीड़ा में ही विवेक जागता है। और कोई रास्ता नहीं है। जो अतिशय संदेह से भर जाता है, उसके प्राणों में वह पीड़ा पैदा होती है, जीवन उसके लिए एक समस्या की भंाति खड़ा होता है, एक चुनौती, और वह चुनौती उसके प्राणों को छेदने लगती है। और तब उसकी सारी शक्तियां इकट्ठी होती हैं, तब इंटिग्रेटिड, समग्र होकर उसके प्राण जगने शुरू होते हैं, इसके अतिरिक्त कभी प्राणों की ऊर्जा और विवेक का जागरण नहीं होता।
 सबसे पहली बात, जीवन की समस्याओं के प्रति जो मैं कहना चाहता हूं, वह यह है, आप, मेरी और हमारी, और हम सबकी विवेकहीनता ने जीवन को एक समस्या बनाया, अन्यथा जीवन तो एक अदभुत आनंद है, अन्यथा जीवन तो विजय का एक पर्व है, वहां रोज-रोज मौके हैं, हम जीतें और आगे बढ़ें। समस्याएं आएं और चुनौती दें, धन्य हैं वे लोग, जिनके ऊपर समस्याएं आती हैं, क्योंकि उन्हें मौके मिलते हैं कि वे जीतें और उनके भीतर का विवेक, उनके भीतर की आत्मा जागे और सबल हो, जिनको मौके नहीं मिलते, उनकी आत्मा तो जागेगी नहीं और सबल नहीं होगी। मौके तो हम सबको मिलते हैं, लेकिन हम मौके खो देते हैं, क्योंकि हम उधार विश्वासों से मान जाते हैं। और तब स्वयं का विवेक पैदा नहीं हो पाता। इसलिए पहली बात विश्वास से मुक्त हो जाएं, और विवेक को, स्वयं के विवेक को जगने का मौका दें। केवल वही मनुष्य जीवन की समस्याओं को हल करने में समर्थ हो सकता है, जिसके पास अपने विवेक, अपने विचार की शक्ति उपलब्ध हो गई हो।
क्या आपको खयाल आता है कि आपके पास अपना विचार और विवेक है? अगर मैं आपसे पूछूं ईश्वर है? तो आप क्या उत्तर देंगे? कोई कहेगा, है, कोई कहेगा नहीं है; जो कहेगा है, वह भी दूसरों का उत्तर दोहरा रहा है, जो कहेगा नहीं है, वह भी। एक ने गीता पढ़ी होगी, दूसरे ने माक्र्स को पढ़ा होगा, लेनिन को पढ़ा होगा। किसी ने आस्तिकों को पढ़ लिया होगा, किसी ने नास्तिकों को पढ़ लिया होगा, दोनों उत्तर दोहरा रहे हैं, दोनों के पास अपना समाधान नहीं है।
अगर आप सच में चाहते हैं कि जीवन में वह शक्ति आपके भीतर जाग जाए, जिससे उत्तर मिलते हैं, समाधान मिलते हैं, तो पहला काम तो अपने मन की सफाई का करिए। घर तो रोज साफ करते हैं, कचरा रोज बाहर फेंक आते हैं, और पड़ोसी अगर आपके घर में कचरा फेंके तो उससे झगड़ा करेंगे, लेकिन आपके दिमाग में पड़ोसी रोज कचरा फेंक रहे हैं, वे पड़ोसी भी जो बहुत हजारों साल पहले मर चुके, वे भी कचरा फेंक रहे हैं। तो हजारों साल का कचरा मनुष्य के मन में इकट्ठा होता चला जाता है। उसकी सारी ताजगी नष्ट हो जाती है, उसका सारा सोच-समझ नष्ट हो जाता है, वह उधार विचारों में जीने लगता है, दूसरों की बातें दोहराने लगता है। वह एक यंत्र की भांति हो जाता है, जिसका काम है दोहराना, सोचना नहीं।
अगर आप दोहराने वाले इस यंत्र से मुक्त नहीं होते, कोई रास्ता नहीं है कि आपके जीवन की समस्याएं हल हो सकें। गीता नहीं हल कर सकती, न कुरान हल कर सकता, न बाइबिल हल कर सकती; न महावीर, न बुद्ध, न कोई; कोई दूसरा आपकी समस्याएं हल नहीं कर सकता। कोई कैसे आपकी समस्याएं हल करेगा? अगर दूसरा हल करने में समर्थ होता, तो चैबीस जैनों के तीर्थंकर हुए, हिंदुओं के भी चैबीस में एक कम तेईस अवतार हो गए, मुसलमानों के ईश्वर ने भी मोहम्मद को भेज दिया, पैगंबर बना कर; और ईसाइयों के ईश्वर ने तो, क्योंकि सबके ईश्वर अलग-अलग मालूम होते हैं, आपस में लड़ते-झगड़ते दिखते हैं, इसलिए मैं अलग-अलग नाम ले रह--ईसाइयों के ईश्वर ने तो अपने इकलौते लड़के क्राइस्ट को ही भेज दिया। लेकिन मसले कोई हल नहीं हुए। अगर ये मसले हल होने होते, ये कभी के हो गए होते, और अब आगे तो कोई गंुजाइश नहीं है, क्योंकि पच्चीसवां तीर्थंकर पैदा नहीं हो सकता। और मोहम्मद के बाद कोई पैगम्बर का अब कोई सवाल नहीं है। और ईसा के बाद ईश्वर का कोई दूसरा लड़का नहीं है, जो पैदा हो जाए।
तो बड़ी कठिनाई है, अगर दूसरों से हमारी जीवन की समस्याएं हल हो सकती, हल हो गई होतीं, कितने शास्त्र हैं, कितने सिद्धांत हैं, लेकिन कुछ हल नहीं हुआ। रोज एक हजार ग्रंथ छपते हैं, सारी दुनिया में; प्रति सप्ताह सात हजार किताबें बढ़ती जाती हैं, शास्त्र बढ़ते जाते हैं, आदमी डूबता जाता है और मरता जाता है। और आदमी की समस्याएं भी बढ़ती जाती हैं, तो थोड़ा चिंतनीय है, थोड़ा विचारणीय है। जितना मनुष्य की यह उधार ज्ञान की संपदा बढ़ रही है, उतना ही मनुष्य उलझा हुआ, परेशान और बेचैन होता जा रहा है, उतना ही कनफ्यूजन ज्यादा हुआ है। क्यों? ताजगी नष्ट हो गई, मन ताजा नहीं है। कैसे ताजे हों?
सारे पीछे मन पर जो भी उधार है, उसे बाहर कर दें। उसे हटा दें, उसे विदा दे दें, उसे मित्रतापूर्वक नमस्कार कर लें, और कहें कि मुझे खाली कर दो। मैं अपने ढंग से जीना शुरू करूंगा। भूलें होंगी, निश्चित ही भूलें होंगी, लेकिन जो आदमी दूसरे के ढंग से जीता है और कोई भूलें नहीं करता, उससे वह आदमी लाख गुना बेहतर है, जो अपने ढंग से जीता है, और भूलें करता है। क्यों? क्योंकि जो अपने ढंग से जीने का कष्ट करता है, जो संकल्प करता है कि मैं अपनी बुद्धि और विवेक से जीऊंगा, वह एक ही भूल को बहुत बार नहीं कर सकता है। उसका विवेक उसे उसी भूल को दोहराने से मना करेगा। हां वह रोज-रोज नई भूलें करेगा, लेकिन नई भूलें करना, बहुत शुभ है; एक ही भूल को दोबारा करना बुरा है। नई-नई भूलें करना बहुत शुभ है। जो जितनी ज्यादा भूलें करता है, उसके जीवन में उतने ही परिपक्व अनुभव उपलब्ध होते हैं। जो आदमी भूलों से बच जाता है, वह आदमी अनुभव से भी बच जाता है। कांटों के डर से फूल नहीं छोड़े जा सकते, लेकिन जो कांटों में घुसने की हिम्मत करता है, वह एक फूल को पाने का सौभाग्य भी पाता है। इस भय से कि सिर्फ अपनी ही बुद्धि से जीने से तो बड़ी भूलें हो जाएंगी, तो मैं आपसे यह पूछता हूं कि दूसरों की बुद्धि से जीकर आपने कौन सा ऐसा जीवन बना लिया है, जिसमें भूलें न हों।
मैं यह सारे मुल्क में अनेक-अनेक मित्रों से पूछता हूं, वे मुझसे कहते हैं कि हम अपनी बुद्धि से जीएंगे तो बड़ी भूलें हो जाऐंगी, तो मैं यह पूछता हूं कि दूसरों की बुद्धि से जीकर आपने ऐसी कौन सी जिंदगी बनाई, जिसमें भूलें नहीं हो रही। सारी दुनिया और हमारी सारी जिंदगी तो भूलों से भरी है। हां, एक फर्क है, उन्हीं-उन्हीं भूलों को बार-बार करने से भरी हैं, जो व्यक्ति अपनी बुद्धि से जीना शुरू करेगा, जरूर भूलें करेगा, भूलें करना बुरा भी नहीं है, लेकिन हर भूल नई करेगा। हर भूल जो उसने की है, उसके विवेक में दिखाई पड़ेगी, छोड़ेगा, भूल तो कष्ट देती है, और अगर विवेक को जगाने की सतत चेष्टा हो, तो उसी भूल को दोबारा करना असंभव है।
यह भय छोड़ दें कि अगर मैं अपनी बुद्धि से जीयूं तो बहुत भूलें होंगी, इस कारण हम कृष्ण की बुद्धि से जीते हैं, क्राइस्ट की बुद्धि से जीते हैं, लेकिन आपको पता है कि दूसरे की बुद्धि से आप जी कैसे सकते हैं? दूसरे की बुद्धि से न कभी कोई जीया है, न कभी जी सकता है; जीने का एक ही रास्ता है, अपने प्राणों और अपनी बुद्धि से जीना। लेकिन हजारों साल से एक गलत शिक्षा है, और उस गलत शिक्षा ने जीवन को उलझाया है, जीवन में समस्याएं खड़ी की हैं। पहली तो बात यह निवेदन करता हूं स्वयं के विवेक को जगाने की सतत चेष्टा होनी चाहिए और पराए विचारों से मुक्त होने की। और दूसरा निवेदन जो इससे ही जुड़ा हुआ है, जो इससे ही संबंधित है, वह मैं यह करना चाहता हूं, जो लोग आदर्शों के आधार पर जीने की कोशिश करते हैं, वे भी जीवन को समस्याओं में बदल लेते हैं।
कोई महावीर के जैसा जीने की कोशिश करता है, कोई बुद्ध के जैसा, कोई क्राइस्ट के जैसा। और हमें सिखाया जाता है, बचपन से छोटे-छोटे बच्चों को यहीं से शुरुआत की जाती है कि महावीर जैसे बनो, राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो। अभी तक वह सौभाग्य की घड़ी नहीं आई कि हम हर आदमी से कह सकें कि तुम अपने जैसे बनने की कोशिश करना। अभी तक हम यही कहते रहे हैं कि तुम किसी और के जैसे बनो। क्या कभी कोई मनुष्य किसी और के जैसा बन सकता है? क्या कभी इस पर सोचा है, कभी विचारा, कभी गंभीरता से इस पर प्राणों की दृष्टि दी? कभी आंखें इस पर गड़ाईं कि क्या मनुष्य, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य जैसा बन सकता है? या कभी बना है? राम को मरे कितना वर्ष हुए, कृष्ण को मरे कितने वर्ष हुए, कोई साढ़े तीन हजार वर्ष, बुद्ध को गए भी काफी दिन हुए कोई ढाई हजार वर्ष, महावीर को भी, क्राइस्ट को भी दो हजार, मोहम्मद को भी चैदह सौ वर्ष; लेकिन कोई दूसरा राम, या दूसरा मोहम्मद या कोई दूसरा कृष्ण पैदा क्यों नहीं हो पाता? कितने लोग कोशिश करते हैं, उन जैसे बन जाने की। लेकिन क्या फल होता है? कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा बन ही नहीं सकता।
प्रत्येक मनुष्य अद्वितीय है, यूनीक है, बेजोड़ है। हर मनुष्य की अपनी गरिमा है। अपनी विशिष्टता है। हर मनुष्य अलग है। हर मनुष्य अपनी ही तरह का है। ठीक उस जैसे दूसरे मनुष्य को खोजना असंभव है। लेकिन यह कोशिश, यह प्रयास कि मैं दूसरे जैसा बन जाऊं, बहुत आत्मघाति, बहुत सुसाइडल सिद्ध होता है। आत्मघाति इसलिए कि जब मैं दूसरे के जैसा बनने की कोशिश करता हूं, दूसरे जैसा तो कभी नहीं बन पाता, अपने जैसा जो मैं बन सकता था, वह बनने से वंचित रह जाता हूं। क्योंकि सारा श्रम दूसरे के जैसा बनने में व्यय हो जाता है।
अगर किसी बगीचे में कोई सदगुरु पहुंच जाए, कोई उपदेशक पहुंच जाए और फूलों को समझाने लगे, चम्पा को समझाए, गुलाब जैसी बन जाओ, और चमेली को समझाए, चंपा जैसी बन जाओ। और अगर फूल पागल हों, और उसकी बात मान लें तो बगीचा उजड़ जाएगा, फिर उसमें फूल कभी पैदा नहीं होंगे। क्योंकि चमेली गुलाब नहीं बन सकती, चम्पा, चमेली नहीं बन सकती। हां, चंपा, चमेली बनने की कोशिश में खुद बनने से रह जाएगी। फिर उसमें फूल नहीं आएंगे। और उस उलटी चेष्टा में सब सिकुड़ जाएगा, कुंठा पैदा हो जाएगी, सब जकड़न पैदा हो जाएगी। भीतर व्यक्तित्व मर जाएगा, दब जाएगा। जो व्यक्ति भी दूसरे जैसा बनने की कोशिश करेगा वह अपना, अपने ही हाथ अपना नुकसान कर रहा है। वह अपने को नष्ट कर रहा है।
तो मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं, इस पर थोड़ा सोचना, प्रत्येक मनुष्य को वही बनना है, जो वह है, और जो वह बन सकता है, किसी दूसरे जैसा नहीं। किसी दूसरे जैसा आदर्श की शिक्षा जीवन को समस्याओं में बदल देगी। ज्यादा से ज्यादा एक ही काम हो सकता है कि कोई राम बनने की बहुत कोशिश करे, तो रामलीला का राम बन जाए। और दुनिया में रामलीला के राम जितने कम हों, उतना अच्छा है। क्योंकि उससे बेईमानी, धोखा और पाखंड पैदा होता है। रामलीला के राम तो कोई भी बन सकता है, लेकिन राम वह जरा कठिन बात है। कोई दूसरा नहीं बन सका। रामलीला का राम झूठा व्यक्ति है, झूठा, नाटकीय है। हां यह हो सकता है कि कभी अगर असली राम भी सामने खड़े हों, तो धोखा हो सकता है, रामलीला का राम ही ज्यादा अच्छा राम मालूम हो सकता है। यह हो सकता है। क्योंकि जो एक्टिंग करता है, वह परफेक्ट कर सकता है, वह पूरी कर सकता है। जीवन कभी पूरा नहीं होता, जीवन में बड़ी भूल-चूक सदा होती हैं, असली राम में भूल-चूक मिल जाएगी। लेकिन नकली राम में भूल-चूक नहीं मिलेगी। तो जब किसी आदमी में बिलकुल भूल-चूक न मिले तो समझ लेना नाटक का आदमी है। असली जिंदगी में भूल-चूकें हैं। जिंदगी बड़ा उबड़-खाबड़ रास्ता है, ऊं चा-नीचा रास्ता है।
एक दफा लंदन में ऐसा हो गया, चार्ली चैप्लिन का नाम सुना होगा। हंसोड़ नेता है, अभिनेता है। भूल से नेता निकल गया, हालांकि अभिनेता में और नेता में कोई फर्क नहीं होता। भूल से निकल गया। ऐसे कोई फर्क नहीं होता है। एक छोटा सा फर्क होता है, अभिनेता ज्यादा खतरनाक नहीं होते, नेता ज्यादा खतरनाक होते हैं। वह चार्ली चैप्लिन की बड़ी ख्याति थी, उन्नीस सौ चालीस के करीब, लंदन में उसके मित्रों ने एक प्रतियोगिता आयोजित की। और सारी दुनिया से उन लोगों को आमंत्रित किया, जो चार्ली चैप्लिन का पार्ट कर सकें, चार्ली चैप्लिन का पार्ट दूसरे लोग कर सकें, तो जो कुशलता से चार्ली चैप्लिन बन जाएगा, उसको प्रथम पुरुस्कार वे देंगे। उन्होंने प्रतियोगिता की। चार्ली चैप्लिन को एक मजाक सूझा, उसने सोचा मैं भी दूसरे नाम से क्यों न भर्ती हो जाऊं? प्रथम पुरुस्कार तो मुझे मिल ही जाएगा। पक्का ही है, इसमें तो कोई शक ही नहीं। तो उसने दूसरे नाम से उसने भी प्रतियोगिता में फार्म भर दिया। उसके मित्रों को पता नहीं। वह जो उस नाटक की प्रतियोगिता में जज होने को थे, उनको भी पता नहीं कि खुद चार्ली चैप्लिन भी नकली नाम से आ रहा है। सौ लोगों ने भाग लिया, प्रतियोगिता हो गई, तीन लोग जीत गए, लेकिन चार्ली चैप्लिन नंबर दो आए। एक दूसरा आदमी नंबर एक आया। यह तो बाद में दुनिया को पता चला कि चार्ली चैप्लिन ने भी भाग लिया था। और तब चार्ली चैप्लिन में अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं एकदम दंग रह गया, जब दूसरा आदमी प्रथम आ गया, मेरी ही नकल में, इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी।
अभी राम को भी पता नहीं, महावीर को भी पता नहीं, बुद्ध को भी पता नहीं अगर कोई प्रतियोगिता हो, तो उनके कई साधु-संन्यासी उनसे आगे नंबर ले सकते हैं। लेकिन जिदंगी में दुबारा कोई व्यक्ति नहीं दोहरता। बड़े नये रूप, बड़े नये विकास, बड़ी नई ऊर्जाएं, बड़ी नई-नई शक्तियां निरंतर प्रकट होती हैं। अपने साथ यह अनाचार कभी भूल कर न करें, कि किसी दूसरे जैसा बनना है। फिर दूसरे जैसा बनने से उपद्रव शुरू होंगे, कठिनाइयां शुरू होंगी, आप नहीं बन पाएंगे, समस्याएं खड़ी होंगी और जीवन उलझता चला जाएगा। अपने जैसे बनने का साहस करें। इससे बड़ा कोई करेज नहीं है। दुनिया में यह कहने का सबसे बड़ा साहस कि मैं अपने जैसा हूं, बुरा या भला, सुंदर या कुरूप, और मैं अपने ही जैसा हो सकता हूं, और मुझे अपने ही भीतर जो बीज छिपे हैं, उन्हीं को विकसित करना है। लेकिन इसके अदभुत परिणाम होंगे। जो आदमी यह साहस करता है वह आदमी अपने व्यक्तित्व को गंभीरता से लेता है। वह अपने जीवन को गंभीरता से लेता है। वह अपना मूल्य करता है, वह अपनी इज्जत करता है। और मैं आपसे निवेदन करता हूं बहुत कम लोग हैं, जो अपनी इज्जत करते हैं। और जो आदमी अपनी इज्जत नहीं करता, वह दुनिया में किसी और की इज्जत कर ही कैसे सकता है? वह आदमी अपनी इज्जत करता है, जो यह कहता है कि मैं दुनिया में पैदा हुआ हूं, तो मेरे भीतर जो छिपा है उसे मैं विकसित करूंगा और मैं किसी आदर्श की नकल करने को, और किसी की ट्रुकाॅपी होने को नहीं हूं।
यह दृष्टि यह संकल्प क्या करेगा? यह ये करेगा, जो लोग आदर्श को मानकर चलते हैं, वे अपने ऊपर चीजों को थोपने लगते हैं, भीतर क्रोध होता है, आदर्श होता है, अक्रोध का। भीतर घृणा होती है, आदर्श होता है प्रेम का। भीतर अहंकार होता है, आदर्श होता है, विनय का, ह्युमिलिटी का। वे क्या करेंगे, भीतर अहंकार छिपा रहेगा, ऊपर से विनय के वस्त्र ओढ़ लेंगे, झुक कर हाथ जोड़ कर कहेंगे कि मैं तो बिलकुल कुछ भी नहीं हूं, मैं तो ना-कुछ हूं। लेकिन उनके ना-कुछ कहने में भी वे घोषणा करेंगे कि मैं कुछ हूं। उनकी विनय में भी, उनकी अहंता और अहंकार के दर्शन होंगे।
साक्रेटीज के पास एक फकीर आया। उसे कल ही एक नया कपड़ा भेंट किया था किसी ने, जब उसे कपड़ा भेंट किया जा रहा था, तो साक्रेटीज उस गली से निकल रहा था, एक नया कुर्ता उसे भेंट किया। दूसरे दिन वह आदमी मिला तो साक्रेटीज ने देखा उसका कुर्ता बिलकुल फटा चिथड़ा हो रहा है, वह बहुत हैरान हुआ, उसने पास से जाकर गौर से देखा, वही कपड़ा था, जो कल भेंट किया गया था। रात भर में इतना चिथड़ा कैसे हो गया? उसने वह हंसने लगा देखकर, वह आदमी बोला क्यों हंसते हो? उसने कहा मित्र, तुम्हारे चिथड़ों में से भी, तुम्हारी असलियत झांकती है। यह नया का नया कपड़ा तुमने फाड़ कर फकीर का बना लिया। इसको टुकड़े-टुकड़े करके गंदा कर लिया।
फकीरी इस भांति भी ओढ़ी जा सकती है? चीजें ऊपर से ओढ़ी जा सकती है। दरिद्र दिखने के लिए, फकीर दिखने के लिए नये कपड़े को फाड़ा जा सकता है, छेद करके उसे ओढ़ा जा सकता है, पहना जा सकता है, फिर उसका मजा लिया जा सकता है। फिर कोई फर्क न रहा, एक आदमी बहुमूल्य कपड़े पहनने में रस ले रहा है, घोषणा कर रहा है कि मेरे पास ये कपड़े हैं, और एक फकीर कपड़े को फाड़ कर घोषणा कर रहा है कि मैं कोई छोटा-मोटा फकीर नहीं हूं, बिलकुल फटा कपड़ा पहनता हूं, बड़ा फकीर हूं। साधारण फकीर नहीं हूं।
ये सारी चेष्टाएं मनुष्य के ऊपर जबरदस्ती आरोपण बनती हैं। भीतर हिंसा होती है, ऊपर से अहिंसा को ओढ़ लेते हैं, भीतर हिंसा की आग जलती है, लेकिन छोटी-मोटी अहिंसा ऊपर से ओढ़ लेते हैं, रात खाना नहीं खाते या पानी छान कर पी लेते हैं। भीतर हिंसा की आग जलती है। उस आग को छिपाने के लिए सस्ती तरकीब खोज ली, बहुत सस्ती तरकीब खोज ली, इससे दुनिया में अहिंसा नहीं आ जाएगी। और कोई कितना ही सारी दुनिया भी पानी छानकर पीने लगे, तो भी युद्ध बंद नहीं होंगे। नहीं होंगे इसलिए कि युद्ध इसलिए नहीं हो रहे हैं कि आप पानी बिना छना पी रहे हैं, युद्ध हो रहें है कि भीतर आग जल रही है, हिंसा की, दूसरे को दुख देने की और कष्ट देने की। और दूसरे के दुख में रस लेने की। उस आग को छिपा लिया, सस्ते उपाय खोज लिए। सस्ते उपाय खोज कर फिर आदमी अपने को धोखा देता है, औरों को धोखा देता है। जो व्यक्ति आदर्श से छुटकारा पा लेगा, उसे अपने तथ्य, अपने नैतिक फैक्ट्स, अपने नग्न तथ्य देखने को मजबूर होना पड़ेगा। उसके पास छिपने के लिए कोई उपाय न रहा। अगर उसके भीतर हिंसा है, तो उसको हिंसा ही देखनी पड़ेगी, फिर अहिंसा ओढ़ने का कोई रास्ता नहीं रहा। और अगर उसके भीतर अहंकार है, तो उसे अहंकार के साथ ही जीना पड़ेगा। फिर विनीत बनने की और थोथी कोशिश करने की कोई सुविधा न रही, फिर कोई एस्केप न रही। फिर कोई तरकीब न रही, अपने भीतर की चीजों को छिपाने के लिए। क्या होगा तब?
कभी अपने भीतर की बुराइयों के साथ सीधे खड़े होकर देखें, जो आदमी भी अपने भीतर की बुराइयों के साथ आंखें मिला कर खड़ा हो जाता है, उसके भीतर बुराइयां ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकती। क्योंकि कोई आदमी बुराईयों के साथ जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए आदमी अच्छाइयां ओढ़ लेता है, बुराइयां छिपा लेता है। और फिर उनके साथ जिंदा रह सकता है। छुपी हुई बुराइयों के साथ जिंदा रहना आसान है, लेकिन प्रकट बुराइयों के साथ जिंदा रहना बहुत कठिन है। असंभव है। जैसे मुझे पता चल जाए, मेरे पैर में फोड़ा है, तो फिर कुछ न कुछ इलाज का उपाय करना ही होगा। और आपको पता चल जाए कि भीतर कोई बहुत बड़ा गहरा घाव है, तो फिर उसका इलाज खोजना होगा। जिस दिन, लेकिन जब तक आप छिपाए रखें, अपने घावों को और अपनी बीमारियों पर फूल बांधे रहें, तब तक आप उनके साथ जी सकते हैं, यह मैं आपसे कहना चाहता हूं, मनुष्य की बुराइयां इसलिए नहीं मिट रही हैं, कि वह आदर्शों की थोथी बातों में अपनी बुराइयों को छिपा कर मजे से जी लेता है। एक आदमी रोज सुबह मंदिर हो आता है, और धार्मिक हो जाता है। बात खत्म। उसके भीतर जो अधर्म है, फिर उसके दंश, उसकी पीड़ा नहीं सालती। फिर भीतर जो अधर्म है, उसकी आग उसको नहीं सताती, वह रोज मंदिर जाता है, और क्या चाहिए? या वह रोज माला फेरता है, और क्या चाहिए? या रोज गीता पढ़ता है, और क्या चाहिए? उसने तरकीबें निकाल लीं, अपनी बुराई के साथ जीने का रास्ता निकाल लिया। बुराई के साथ जीने का एक ही रास्ता है, आदर्श ओढ़ लें, फिर आप बुराई के साथ मजे से जी सकते हैं। भीतर काली आत्मा हो, सफेद वस्त्र इकट्ठे कर लें, फिर मजे से जी सकते हैं। सारे मुल्क में घूम कर देखें, सारी दुनिया में देखें, यही हो रहा है, यही होता रहा है, यह कैसे टूटेगा? टूटने का एक ही रास्ता है, आदर्श नहीं फैक्चुअलिटी।
वह जो हमारी वास्तविकता है, क्या हूं मैं, अगर मैं हिंसक हूं अगर मैं चोर हूं, अगर मैं बेईमान हूं, अगर मैं क्रोधी हूं, अगर मैं अहंकारी हूं; तो मुझे जानना होगा कि मैं यह हूं। और मुझे छिपाने का कोई उपाय नहीं है। अपनी आंख से छिपाने का कोई उपाय करना खतरनाक है। वह इनको बचाने का रास्ता है। इनको मैं देखूं, पहचानूं, और इनके साथ जियूं, अदभुत एक क्रंाति हो जाती है। कभी क्रोध के साथ जीकर देखें, लेकिन आप तो कहेंगे, नहीं, पत्नी कहेगी कि मैंने तो बच्चे पर इसलिए क्रोध किया कि वह गलती काम कर रहा था। उसने क्रोध के लिए जस्टीफिकेशन खोज लिया। पति कहेगा कि मैं तो पत्नी पर इसलिए नाराज हुआ कि उसने रोटी गलत बनाई थी। उसने भी क्रोध के लिए जस्टीफिकेशन खोज लिया। उसने अपने क्रोध को न्यायसंगत ठहरा लिया। उसने यह नहीं कहा कि मैं क्रोधी हूं, इसलिए मैं पत्नी पर क्रोध किया। अगर वह इस तथ्य को देखता कि मैं क्रोधी हूं, इसलिए मैंने पत्नी पर क्रोध किया और अगर मां यह देखती कि बच्चे को मैंने मारा, वह मैंने इसलिए नहीं मारा कि उसने कोई गलती की थी, बल्कि इसलिए कि मेरे भीतर क्रोध भरा है, और जो मौके-बेमौके बाहर निकल आता है, तो शायद उनके भीतर एक क्रांति होनी शुरू हो जाती है, क्योंकि क्रोध के साथ रहना कठिन है।
लेकिन क्रोध को अगर हम न्याय संगत ठहरा लें, तो फिर तो रहना ठीक है, फिर तो मां का कर्तव्य है कि बच्चे पर क्रोध करे। और पति का कर्तव्य है कि पत्नी का सुधार करता रहे। ये कर्तव्य हैं फिर। हम चैबीस घंटे चीजों को न्याय संगत बना रहे हैं, आदर्श बना रहे हैं, ढांक रहे हैं, छिपा रहे हैं, तब जीवन झूठा होता चला जाएगा, जीवन में समस्याएं बढ़ती चली जाएंगी, और जीवन में दुख और चिंता गहरी होती चली जाएंगी। अंतिम रूप से जीवन में जो भी है, जैसा जीवन है, उसके प्रति जागना आवश्यक है और उसके साथ जीना आवश्यक है। अपनी बुराई के साथ जीना आवश्यक है। कुछ मत करिए बुराई के साथ, सिर्फ जीने की हिम्मत करिए। और आपके भीतर क्रोध है, तो समझिए कि मैं क्रोधी हूं। और इसे अक्रोध से मत ढांकिए, झूठी मुस्कुराहट ऊपर मत लाइए। क्रोध को समझाने की, जस्टीफाई करने की कोशिश मत करिए। जानिए कि मैं क्रोधी हूं। अपने भीतर तो जानिए, पूरी तरह जानिए कि मैं क्रोधी हूं, और फिर देखिए कि क्रोध कितने दिन रह सकता है। असंभव है, बहुत असंभव हैै। क्रोध फिर नहीं रह सकता, ज्यादा देर।
यह बोध, यह समझ, यह बीमारी का दर्शन, बीमारी की मृत्यु बनने लगता है। जो बुराई भी देख ली जाती है, चित्त के समक्ष हो जाती है, चित्त की शक्ति उसे मिटाना शुरू कर देती है। जैसे किसी घर में हम दीया जलाएं, और दीया जलाते ही अंधेरा विलीन हो जाए। ठीक ऐसा ही जो व्यक्ति अपनी हर बुराई के समक्ष, अपने विवेक के दीये को जला कर खड़ा हो जाता है, उसकी बुराई जल जाती है, नष्ट हो जाती है।
अब तक जिन लोगों ने भी जीवन में क्रांति की है, कभी भी कोई आदमी क्रांति करेगा, वह आदर्श को बाहर से थोपकर क्रांति नहीं करता, भीतर विवेक के दीये को जलाता है, दीये के जलते ही भीतर का अंधकार टूटने लगता है, और नष्ट होने लगता है। और एक आलोकित, एक नये व्यक्ति का जन्म शुरू हो जाता है।
तीन सूत्र मैंने कहे, विश्वास नहीं विवेक, महापुरुष नहीं स्वयं, आदर्श नहीं तथ्य। अगर इन तीन छोटे से सूत्रों पर जीवन गतिमान हो, तो इस छोटे से छोटे मनुष्य के जीवन में बड़े से बड़े परमात्मा की उपलब्धि हो सकती है। एक छोटे से प्राण में विराट ऊर्जा का जन्म हो सकता है और दर्शन हो सकता है।
मैंने ये छोटी सी बातें कहीं, इन पर विचार करना, मैंने इसलिए नहीं कहीं कि मेरी बात आप मान लेना क्योंकि मैं तो इस बात का शत्रु हूं कि कोई किसी की बात माने। अगर मेरी बात आप मान लें, तो मेरी सारी बात खराब हो गई, व्यर्थ हो गई। मेरी बात मान लेने के लिए नहीं है, मैं आपका गुरु नहीं हूं, न मैं कोई उपदेशक हूं। और न मुझे इससे खुशी होगी कि मेरी बात आपने मानी, मुझे दुख होगा। मुझे परेशानी होगी कि कोई मेरी बात मान ले। मैं चाहूंगा इस पर सोचना, विचारना, समझना जो मैंने कहा, उसके प्रति जागना, उसे जीवन में देखना और अगर आपको दिखाई पड़े कोई सत्य वह फिर आपका होगा, वह फिर मेरा नहीं है, उससे मेरा फिर कोई संबंध नहीं है। वह फिर आपका है, वह फिर अपने खोजा, देखा और समझा और पाया, इसलिए मेरी बात को मानने की भूल मत करना। लेकिन दूसरी भूल भी हो सकती है कि मेरी बात सुनकर जल्दी से न मानने की भूल भी हो सकती है। वह भी गलती है, जो लोग किसी को माने बैठे होते हैं, वे किसी दूसरे की बात सुनकर जल्दी न मानने की पकड़ में आ जाते हैं। दोनों एक सी बातें हैं, किसी पर विश्वास कर लेना या किसी पर अविश्वास कर लेना दोनों एक सी बातें हैं।
किसी को मान लेना, बिना सोचे समझे या किसी को इनकार कर देना बिना सोचे समझे, एक सी बातें हैं। तो मैं निवेदन करूंगा, न तो जल्दी करना मेरी बात पर हटाने की कि यह तो गड़बड़ बात है,यह तो गीता में लिखी नहीं; तो गड़बड़ बात है, यह तो महावीर ने कही नहीं, मोहम्मद पैगंबर इसकी गवाही में खड़े नहीं होते, इसलिए यह तो ठीक नहीं है मामला। कोई इसकी गवाही में न हो, इससे फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मैं मनवाने की कोशिश ही नहीं कर रहा, इसलिए कोई गवाही देने की जरूरत भी नहीं है। कोई विटनेस इकट्ठे करने की जरूरत नहीं है कि महावीर को पकड़ कर लाऊं कि उन्होंने भी ऐसे ही कहा है, गीता में भी ऐसे ही कहा है, फलाने ने भी ऐसे ही कहा है, कोई साक्ष्य दिलाने की जरूरत नहीं, क्योंकि मनवाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैं चाहता हूं, सोचें, विचारें, जो मैंने कहा है उस पर थोड़ा सा निष्पक्ष विचार करना। उस निष्पक्ष विचार करते ही करते भीतर एक सजगता का, एक चेतना का, एक विचार का, एक विवेक का जन्म होता है। और जैसा मैंने कहा, ऐसा कोई भी कहे, तो उस पर विचार करना।
 जिंदगी में चारों तरफ आंख खोल कर रहना जरूरी है, उस पर भी विचार करना जरूरी है, सतत विचार करें, तो फिर विचार की शक्ति जन्मेंगी, जगेगी, और आपके जीवन में एक क्रांति ला सकती है। और उस क्रांति के द्वारा फिर जीवन होगा, आप होंगे, समस्याएं भी होंगी, लेकिन आपके भीतर उनके निरंतर पैदा होने वाले समाधान भी होंगे, तब जीवन एक सतत आरोहण है, तब जीवन सतत पुरुषार्थ की एक खोज है, तब जीवन सतत एक विजय है। और जिसका जीवन समस्याओं की विजय बन जाता है, और जिसके जीवन में समस्याओं के पत्थर सीढ़ियां बन जाते हैं, ऊपर चढ़ने के, उसे वह सब मिल जाता है, जो धन्यता लाता है और सार्थकता लाता है। परमात्मा करे आपके जीवन में वैसी सार्थकता का जन्म हो।

मेरी बातों को और बहुत सी ऐसी बातों को जिनको मीठा नहीं कहा जा सकता, इतने प्रेम, इतनी शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में आपके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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