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सोमवार, 5 नवंबर 2018

सुख और शांति-(प्रवचन-03

तीसरा प्रवचन

परिधि नहीं, केंद्र है महत्वपूर्ण

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं सोचता था कि क्या आपसे कहूं। सच ही कोई उपदेश देने का सवाल नहीं है। और न ही उपदेश से कभी कोई लाभ हुआ है। वरन उपदेशों के कारण ही मनुष्य विभाजित हुआ है, खंडित हुआ है, संप्रदाय और पंथ बने हैं। मैं जो कह रहा हूं वह कोई उपदेश नहीं है, बल्कि मेरे अंतःकरण का आपके सामने खोलना है। ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है कि मैं जो कहूं, उसे आप सत्य मानें। वरन यही मैं कहना चाहता हूं कि कोई भी दुनिया में कुछ कहे, उस किसी को भी सत्य मानना उचित नहीं है, जब तक कि खुद उसका अनुभव न हो जाए। यदि हम दूसरों की बातों को सत्य मान लेंगे, तो स्वयं सत्य को जानने से वंचित रह जाएंगे। जो भी विश्वास बना लेता है, और दूसरों को स्वीकार कर लेता है, वह खुद के उदघाटन से अपने ही हाथों, अपने ही हाथों, अपने उदघाटन से दूर हो जाता है। लेकिन हम सारे लोग ही विश्वास किए हुए हैं, हम सारे लोग ही किसी धर्म को, किसी पंथ को, किसी शास्त्र को अंगीकार किए हुए हैं, और यही कारण है कि हम सत्य को जानने में समर्थ नहीं हो पाएंगे।

सत्य को जानने के लिए जरूरी है कि मन दूसरों को स्वीकार करने की घातक प्रवृत्ति से मुक्त हो जाए। लेकिन हमें सिखाया गया है कि हम अनुकरण करें। दूसरों को आदर्श मानें और उनको स्वीकार करें। मेरी कोई वैसी प्रवृत्ति नहीं है। बल्कि मेरी दृष्टि यही है, कि जब तक कोई मनुष्य किसी दूसरे का अनुसरण करे, तब तक स्मरण रखे कि वह सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा है। और क्या कारण हैं, उस पर मैं आपसे चर्चा करूंगा।


किस दृष्टि से...मैं अभी बैठा सोचता रहा कि कौन सी बात आपसे कहूं, जो संभव है, आपके लिए विचार का, विवेक का, सोचने का मौका दे सके। विश्वास का नहीं, स्वीकार करने का नहीं बल्कि विचार का, सोचने का मौका दे सके। तो मुझे दिखाई पड़ता है, और हमें सभी को विचार में भी आता होगा, ऐसा कोई मनुष्य मुझे आज तक नहीं मिला जो अपने जीवन से संतुष्ट हो। जो जैसा है वैसा ही रहने से तृप्त हो। जैसा उसे जीवन मिला है, जो उतने पर ही रुक जाना चाहता हो, ऐसा कोई मनुष्य मुझे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता है। फिर चाहे वह असंतोष कोई भी दिशा पकड़ ले, चाहे वह छोटे मकान की जगह बड़ा मकान बनाना चाहता हो, और चाहे वह थोड़े धन की जगह ज्यादा धन इकट्ठा करना चाहता हो; चाहे बीमारी की जगह स्वस्थ होना चाहता हो, या छोटे पद से बड़े पद पर जाना चाहता हो; लेकिन जो जहां है, वहां कोई भी रहने को राजी नहीं है।
 इस सारी जमीन पर और सारे मनुष्य के इतिहास में जो जहां है, वहां कोई भी रहने को राजी नहीं है। हम सारे लोग उस जगह को छोड़ना चाहते हैं, जहां हैं और उस जगह होना चाहते हैं जो हमारी कल्पनाओं में है और सोचते हैं कि वहां होने से सुख होगा, शांति होगी, आनंद होगा, संतोष होगा। लेकिन एक और अदभुत अनुभव है कि आज तक जमीन पर किसी भी व्यक्ति ने, चाहे किसी भी स्थान को उपलब्ध कर लिया हो, और चाहे किसी पद को पा लिया हो, और चाहे किसी धन को पा लिया हो, कोई संपत्ति पा ली हो, कोई साम्राज्य पा लिया हो, यह आकांक्षा और आगे जाने की उसी भांति कायम बनी रहती है, यह आकांक्षा नष्ट नहीं होती है। इससे कोई कहेगा कि आकांक्षा ही छोड़ देनी चाहिए, मैं नहीं कहूंगा। इससे कोई कहेगा कि आकांक्षा की ही जरूरत नहीं है, जब वह कहीं तृप्त ही नहीं होती, यह मैं नहीं कहूंगा। मैं तो यह कहूंगा कि अगर हम इस आकांक्षा को समझें, तो एक अदभुत बात हमारे सामने स्पष्ट हो जाएगी। अगर मनुष्य अपनी वासना को, अपनी डिजायर को, अपनी आकांक्षा को समझ ले, तो उसके जीवन में एक अदभुत सत्य का उदघाटन हो जाएगा।
सिकंदर इधर पूरब की तरफ मुल्कों को जीतने आता था। एक फकीर से उसने बातचीत की और उस फकीर ने कहा कि मित्र, अगर तुमने सारी दुनिया जीत ली, तो फिर क्या करोगे? यह ठीक ही था पूछना, क्योंकि सिकंदर ने कहा, सारी दुनिया को मैं जीत लेना चाहता हूं। तो एक फकीर ने उससे कहाः तुमने अगर सारी दुनिया जीत ली, तो फिर क्या करोगे? कभी इस पर सोचा है? सिकंदर एक क्षण को ठहर गया, और उसने कहा यह तो बड़ी मुसीबत का प्रश्न खड़ा कर दिया! यह तो मुझे कभी खयाल में ही नहीं आया। निश्चित ही अगर सारी दुनिया जीत ली तो मैं बहुत मुश्किल में पड़ जाऊंगा, क्योंकि दूसरी दुनिया कोई जीतने को है नहीं, एक ही दुनिया है। तो उस फकीर ने कहा कि तुम सारी दुनिया जीत कर भी मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि जीत की आकांक्षा इतनी की इतनी ही बनी रहेगी, वह नष्ट नहीं होगी।
जीवन में हम कुछ भी पा लें, फिर भी ऐसा लगता है कि पाने की आकांक्षा खाली रह गई है। हम कुछ भी उपलब्ध कर लें, फिर भी पाया जाता है कि भीतर प्राण अधूरे हैं। भीतर प्राणों को मिलना नहीं हुआ। इसका अर्थ, इसका अर्थ बहुत ही स्पष्ट है अगर थोड़ा हम अपने भीतर खोजें, तो अर्थ दिखाई पड़ेगा। आकांक्षा जहां पैदा होती है, वह तो हमारा अंतर आत्मा है। और उस आकांक्षा को पूरा करने के लिए जहां हम खोज करते हैं, वह बाहर की दुनिया है। इन दोनों के बीच असंगति है। जहां प्यास लगी है, वहीं पानी को खोजना पड़ेगा। और जहां आकांक्षा अनुभव हुई है, वहीं तृप्ति को खोजना होगा। आकांक्षा प्राणों में उठती है और खोज पदार्थों में चलती है, तो यह कैसे संभव होगा कि आकांक्षा पूरी हो जाए। आकांक्षा प्राणों में स्पंदित होती है, तो खोज भी प्राणों में करनी होगी। और अगर खोज हम पदार्थ में करेंगे और आकांक्षा प्राणों में होगी, तो इस खोज को हम कितना ही पा लें, हम पाएंगे कि प्राण उतने के उतने प्यासे रह गए हैं, हमारी खोज व्यर्थ हो गई है। सबसे बुनियादी बात, जो प्रत्येक मनुष्य को अपनी वासना को ध्यान में विचार करने से ज्ञात होगी, वह यह ज्ञात होगी कि वासना हमारे प्राणों के किसी केंद्र पर है।
मैं एक छोटी सी कहानी कहा करता हूं, शायद उससे आपको खयाल में आए।
एक सूफी फकीर औरत हुई, राबिया। एक दिन सांझ को लोगों ने देखा कि वह अपने घर आकर अंधेरे में कुछ खोजती है। राहगीरों ने पूछा कि क्या बात है? उसने कहा कि मैं बूढ़ी औरत हूं, कपड़ा सीती थी, मेरी सुई गिर गई है, उसे मैं खोजना चाहती हूं। तो लोगों ने पूछाः वह सुई गुमी कहां है। उसने कहाः यह मत पूछें, मैं बहुत गरीब स्त्री हूं, मेरा अपमान न करें। उन्होंने कहाः इसमें अपमान की कौन सी बात है? इस पूछने में कि सुई गुमी कहां हैं? उसने कहाः मत पूछें, मेरे घर में कोई दीया नहीं है, सुई तो भीतर गुमी है। सांझ को कपड़ा सीती थी, सुई गिर गई, मैंने उसे खोजा लेकिन तब तक सूरज डूब गया, बाहर की दलान में थोड़ी रोशनी थी, तो मैं खोजती हुई दलान में आ गई, फिर मैंने दलान में खोजा, तब तक सूरज बिलकुल डूब गया, तब सड़क पर रोशनी थी, तो मैं सड़क पर खोजने आ गई। तो उसने कहा, कि सड़क पर ही खोजें क्योंकि घर में तो रोशनी नहीं है, मेरे पास कोई दीया नहीं है, कोई तेल नहीं है। उन्होंने कहा कि पागल बूढ़ी औरत, तुझे यह भी पता नहीं है, कि सुई जहां गुमी है, उसे वहीं खोजनी होगी। उसे बाहर खोजने से कुछ भी न होगा, चाहे वहां कितनी ही रोशनी हो। चाहे वहां कितना ही प्रकाश हो, चाहे खुद सूरज वहां मौजूद हो, तो भी खोजने से उपलब्ध नहीं होगा। खोजने के पहले जानना जरूरी है कि खोया कहां है? खोजने के पहले जानना जरूरी है कि चीज खोई कहां गई है? और इसके पहले कि मैं दूसरों के मकानों में खोजने चला जाऊं, क्या यह उचित नहीं होगा कि मैं अपने मकान में खोजूं।
यह जमीन बहुत बड़ी है, और अगर मैं इस में खोजने निकल गया, तो मेरे मकान का नंबर मेरे जीवन में शायद ही आ पाए। इसलिए उचित है कि मैं पहले मकान में खोज लूं, फिर बाहर की यात्रा पर जाऊं। लेकिन हम सारे लोग, बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, बिना उसमें खोजे, जो कि हमारा मकान है, जहां कि हम हैं। तो उस बूढ़ी स्त्री ने कहा कि मैं तो जैसी दुनिया कहती है, वैसा ही मैंने सोचा, सारी दुनिया बाहर खोजती है, और कोई भी तो यह नहीं पूछता कि खोया कहां है? तो मुझसे ही क्यों व्यर्थ की बातें पूछ रहे हो, कि सुई कहां खोई है? जहां खोज सकती हूं, वहां खोज रही हूं। खोने का सवाल ही कहां है? कोई पूछता ही नहीं कि खोने का कोई सवाल है। लेकिन हमें लगेगा कि बूढ़ी स्त्री गलती कर रही है, असल में बूढ़ी स्त्री दिखाना चाहती है कि हम गलती कर रहे हैं।
उसने उन युवकों से कहा कि मित्रो, तुम भी यही कर रहे हो। और सभी लोग बाहर खोज रहे हैं, बिना यह पूछे कि कहां खोया है? हम सारे लोग खोजेंगे धन में, यश में और तरह की संतुष्टियों में, और तरह के सुखों में और अंततः हम पाऐंगे कि हाथ रीते रह गए हैं, खाली रह गए। क्योंकि हमने एक बुनियादी प्रश्न अपने से नहीं पूछा कि हम जिसकी खोज कर रहे हैं, उसे खोया कहां है? निश्चित आप कहेंगे अगर हम यह भी पूछे कि उसे कहां खोया है, तो भी क्या होगा? बहुत कुछ होगा। अगर हम यह पूछें कि हम किस बात की खोज कर रहे हैं, बहुत कम लोग हैं, जो अपने से ठीक-ठीक स्पष्ट पूछते हों कि वे जीवन में क्या खोज रहे हैं? क्या खोज रहे हैं हम? और अगर हमें यह भी ज्ञात नहीं कि हम क्या खोज रहे हैं, तो यह दौड़ बिलकुल अंधी और पागल है। यह बिलकुल विक्षिप्त दौड़ है, यह बिलकुल मेडनेस है, जो हम कर रहे हैं। और इसके अंत में कोई हल नहीं हो सकता, कोई समाधान नहीं हो सकता। इसलिए बहुत लोग जीते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जीवन के अर्थ को उपलब्ध हो पाते हैं।
बहुत लोग दौड़ते हैं, लेकिन बहुत कम लोग मंजिल को उपलब्ध हो पाते हैं। बहुत लोग चलते हैं, लेकिन बहुत कम लोगों का चलना सार्थक हो पाता है। कोई कहीं पहुंचते हैं, ऐसे बहुत थोड़े लोग होते हैं। जब कि सबकी संभावना है कि प्रत्येक पहुंच जाए। फिर अगर कभी हमारे मन में आकांक्षा भी उठती है, जानने का खयाल भी उठता है कि हम जानें कि जीवन किसलिए है? जीवन के सत्य को जानें, अगर यह प्रश्न भी उठता है, एक तो बहुत लोगों को यह प्रश्न उठता नहीं, जब तक कि मौत करीब न आने लगे। मौत करीब आने लगती है, लोग धार्मिक होने लगते हैं। इससे ज्यादा धर्म का और कोई अपमान हो सकता है कि जब मौत करीब आने लगे, तो कोई आदमी धार्मिक होने लगे! जब जीवन छूटने लगे और हम घबड़ाने लगें, और जब हाथ की शक्तियां जाने लगें और प्राण कंपित होने लगें, और अंधकार छाने लगे, तब हम धर्म का विचार करने लगें, भय में कंपित, मंदिरों में जाने लगें और शास्त्रों पर सिर झुकाने लगें, और गुरुओं के पैर पकड़ने लगें कि यह कोई धर्म का सम्मान है! लेकिन सारी जमीन पर मंदिर और चर्च बूढ़े आदमियों से भरे रहते हैं। और सारी जमीन पर धर्म के जो संगठन हैं, उनमें सिवाय बूढ़ों के और कोई भी उत्सुक नहीं होता है। यह नहीं है कारण दुनिया में धर्म के अपमान का कि नास्तिक हैं दुनिया में, कारण यह है कि धर्म में केवल बूढ़े लोग उत्सुक हैं और मरने के करीब उत्सुक हैं। धर्म इस कारण अपमानित हो गया, उसकी जीवन से जड़ें खो गईं। उसका कोई मूल्य नहीं है, लेकिन अगर कुछ लोग, उत्सुक भी होते हैं, युवा होते हैं, सोचते हैं, विचारते हैं, या बूढ़े होते हैं, और उत्सुक होते हैं, तो उनकी उत्सुकता एक बहुत गलत दौड़ पकड़ लेती है।
जब भी कोई व्यक्ति सत्य को जानने को या जीवन के अर्थ को जानने को उत्सुक होता है, तो वह क्या करता है? तब उसके मन के सामने कौन से विकल्प खड़े होते हैं। तब उसके मन के सामने पहला विकल्प तो यह खड़ा होता है कि वह किसी धर्म में पैदा हुआ है। दुनिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि हम पैदा किसी धर्म में हो जाते हैं। और इसलिए धर्म में जन्म पाना मुश्किल हो जाता है, दुनिया में बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में एक दुर्भाग्य यह है कि हर आदमी किसी धर्म में पैदा हुआ है। कोई आदमी स्वतंत्र पैदा नहीं हो पाया है कि सत्य के संबंध में खोज कर सके। इसके पहले कि वह विचार करे, कुछ संस्कार, कुछ विश्वास, कुछ विचार उसके मस्तिष्क में डाल दिए जाते हैं; कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है; और यह होना बिलकुल झूठा है, क्योंकि यह हमें सिखाया जाता है, बचपन से, एक प्रचार किया जाता है, एक हवा पैदा की जाती है, और कुछ बातें हम पकड़ लेते हैं, और जीवन भर उन बातों को दोहराते रहते हैं। तो जब भी कोई आदमी उत्सुक होता है कि मैं जानूं कि सत्य क्या है? तो उसकी खोज शुरू भी नहीं हो पाती, उसके भीतर बैठाए गए शास्त्र उत्तर दे देते हैं कि सत्य यह है। आत्मा सत्य है, परमात्मा सत्य है। परलोक सत्य है, ये सब संसार असार है और मोक्ष की खोज सत्य है। यह झूठा उत्तर होता है, क्योंकि उसकी आत्मा से नहीं आता, उसकी बुद्धि से आता है, उसके ऊपर डाले गए प्रचार से आता है। उसके ऊपर डाले गए संस्कारों से आता है।
मैं एक छोटे से अनाथालय में गया। वहां कोई सौ-डेढ़ सौ बच्चे होंगे। वहां के संयोजकों ने मुझसे कहा कि यहां हम इन्हें धर्म की शिक्षा देते हैं, मैं थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि मैं आज तक समझ ही नहीं पाया कि धर्म की कोई शिक्षा हो सकती है। धर्म की साधना तो हो सकती है, लेकिन शिक्षा नहीं हो सकती। और शिक्षा अगर धर्म की होगी, तो साधना मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि वे सीखी हुई बातें, मन में बैठ जाएंगी और जानने के द्वार बंद हो जाएंगे। मन क्लोज्ड हो जाएगा। सीखा हुआ ज्ञान, वह जो लर्निंग होती है, वह मन पर बैठ जाती है, और जानने के द्वार बंद कर देती है। इसलिए पंडित स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता चाहे और कोई भी कर जाए। उसके जाने का कोई रास्ता नहीं है।
क्राइस्ट ने एक वचन कहा है कि सुई के छेद से ऊंट निकल जाए लेकिन धनी नहीं निकल सकेगा। मैं आपसे कहता हूं कि सुई के छेद से धनी भी निकल जाए, लेकिन पंडित नहीं निकल सकेगा। क्योंकि धनी का धन बिलकुल बाहर फैला हुआ है और पंडित का धन भीतर बैठा हुआ है। धनी का धन चोर भी ले जा सकते हैं, लेकिन पंडित का धन कोई भी नहीं ले जा सकता। वह धनी बहुत गहरे अर्थों में है। धनी ने रुपये इकट्ठे किए, सिक्के इकट्ठे किए, पंडित ने संस्कार, विचार और सिद्धांत इकट्ठे किए हैं। जो उसके प्राण पर इकट्ठे हैं, जो धूल की भांति, ईंटों और पत्थरों की भांति उसके प्राण को रोके हुए हैं। वह उनसे मुक्त नहीं हो पाता। इस दुनिया में सबसे जटिल व्यक्ति वह होता है, जिसने बहुत सी बातें सीख रखी हैं। सबसे सरल व्यक्ति वह होता है, जिसने एक भी बात जान ली, सबसे सरल व्यक्ति वह होता है, जिसने एक भी बात जान ली है और सबसे जटिल व्यक्ति वह होता है, जिसने बहुत सी बातें सीख रखी हैं। सीखना बड़ी जटिल बात है।
तो मैंने उनसे कहा कि शिक्षा तो धर्म की हो नहीं सकती। कैसे आप सिखाते होंगे? उन्होंने कहाः आप क्या बात करते हैं? हमने सारी बातें सिखा दी हैं, आप कुछ भी पूछिए, तो उत्तर मिल जाएगा। मैंने कहा, आप पूछें मैं सुनूंगा, उन्होंने खुद ने सारे बच्चों से पूछा, सारे बच्चे इकट्ठे किए। और उनसे पूछा आत्मा है, उन सारे बच्चों ने हाथ उठाया और कहा कि आत्मा है। उन्होंने पूछा आत्मा कहां है? उन सारे बच्चों ने हृदय पर हाथ रखा, और कहा यहां। मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? वह सोचने लगा और बोला यह तो हमें सिखाया नहीं गया। मैंने उनको कहा कि ये बातें आप इनको सिखा कर इनके साथ सबसे बड़ा अन्याय कर रहे हैं। बच्चों के साथ इससे बड़ा कोई अन्याय नहीं हो सकता कि सत्य के संबंध में कुछ सिद्धांत उन्हें सिखा दिए जाएं। क्योंकि जब भी उनका जीवन प्रश्न खड़ा करेगा, तो यह झूठी सीखी हुई बातें उत्तर दे देंगी और वह तृप्त हो जाएंगे। खतरा क्या है? खतरा यह है कि उत्तर भीतर से नहीं आएगा, शास्त्र से आएगा। सीखा हुआ होगा। सीखा हुआ उत्तर कोई उत्तर हो सकता है? और सीखे हुए उत्तर कितने दूर तक ले जा सकते हैं? सीखे हुए उत्तर कितने दूर तक ले जा सकते हैं? जीवन जानना होता है, सीखना नहीं होता। जीवन जीवंत वस्तु है, सीखे हुए उत्तर गणित में हो सकते हैं, जीवन में नहीं हो सकते। जीवन को जीने से जानना होता है।
मैं, एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है, वह आपसे कहूं।
जापान में एक गांव में दो मंदिर थे। एक दक्षिण का मंदिर कहलाता था, एक उत्तर का मंदिर कहलाता था। दोनों में बड़ी प्रतिस्पर्धा थी, बड़ा विरोध था। और आप जानते होंगे, दुनिया में सभी मंदिरों में बड़ा विरोध है, बड़ी प्रतिस्पर्धा है। दुनिया में जितनी बड़ी शत्रुता मंदिर और मंदिर के बीच है, उतनी बड़ी शत्रुता किसी के बीच नहीं है। और दुनिया में जितनी शत्रुता और जितनी हिंसा मंदिर और मंदिर के कारण पैदा हुई है, और किसी चीज से पैदा भी नहीं हुई। मंदिरों के नाम पर मनुष्य का जितना पतन हुआ है, उतना किसी और चीज के नाम पर हुआ भी नहीं।
उन दो मंदिरों में बड़ा विरोध था। और एक-दूसरे के प्रति निरंतर विरोध की कुछ बातें उनके पुरोहित प्रचारित करते रहते थे। दोनों पुरोहितों के पास दो छोटे बच्चे थे, जो उनकी साग-सब्जी लाने के और छोटे-मोटे काम करते थे। उनको भी मनाही था कि वह आपस में बात-चीत न करें। लेकिन बच्चे, बच्चे हैं और बड़ों की दुश्मनी नहीं जानते। और अगर दुनिया बच्चों के हाथ में छोड़ दी जाए, दुनिया में कोई दुश्मनी नहीं होगी, कोई युद्ध नहीं होगा। लेकिन बड़ों के हाथ में दुनिया है, और बड़े मरने के पहले छोटे बच्चों को भी सब बातें सिखा जाते हैं, सारी दुश्मनी, सारा संघर्ष, सारा द्वंद्व, सारी राजनीति, सारा धर्म उनको बड़ा डर रहता है कि हम मर जाएंगे, लेकिन हमारे झगड़े न मर जाएं। हजारों साल की मूर्खताएं वे बच्चों को सिखा देते हैं ताकि वे तैयार रहें, और दुश्मनियां कायम रहें, और आदमी आदमी दूर बना रहे।
उनको डर था कि वे बच्चे आपस में न मिलें, लेकिन बच्चे, बच्चे हैं। उनका मन होता था कि वे आपस में मिलें। एक दिन उन्होंने देखा कि दोनों पुजारी भीतर हैं, वे बाजार सब्जियां लेने जाते थे, तो उत्तर के मंदिर के लड़के ने दक्षिण के मंदिर के लड़के से पूछा, मित्र कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहाः जहां हवाएं ले जाएं। वह बड़ा हैरान हुआ, यह उत्तर सुन कर। उसे कुछ सूझ न पड़ा कि क्या उत्तर दे? वापस लौट कर उसने अपने गुरु को कहा कि आज मैं बड़ी दिक्कत में पड़ गया। मैंने उस मंदिर के लड़के से पूछा कि कहां जा रहे हो? वह बोला कि जहां हवाएं ले जाएं। उसके गुरु ने कहाः देखो उस मंदिर के बच्चे से भी हारना बहुत बुरी बात है। कल तुम जाना और फिर यही पूछना, कहां जा रहे हो? वह कहेगा जहां हवा ले जाएं, तो तुम उससे कहना कि अगर हवाऐं न होती, तो तुम कहां जाते? तुम उससे यह कह देना अगर हवाएं न होती तो तुम कहां जाते?
वह बच्चा दूसरे दिन तैयार। सीखा हुआ उत्तर भीतर था, वह गया। उसने जाते से पूछा कि मित्र कहां जा रहे हो? उसने सोचा कि अब वह कहेगा कि जहां हवा ले जाएं। उसने सोचा कि वह कहेगा कि जहां हवाएं ले जाएं। लेकिन वह लड़का बोला, जहां पैर ले जाएं। अब उसका उत्तर तो यह था, सीखा हुआ, कि अगर हवाऐं न हों, तो तुम कहां जाओगे? वह बड़ी दिक्कत में पड़ा। कि क्या करे? वह वापस लौट कर आया, गुरु से उसने कहा कि वह लड़का तो बदल गया है। वह आज कहने लगा कि जहां पैर ले जाएं। उसके गुरु ने कहाः देखो उससे हारना ठीक नहीं है। कल तुम कहना कि अगर तुम्हारे पैर न होते और तुम लंगड़े होते, तो जिंदगी में कहां जाते? दूसरे दिन फिर तैयार पहुंचा, उसने लड़के से पूछा कि कहो मित्र कहां जा रहे हो? वह बोला सब्जी खरीदने।
वे उत्तर जो सीखे हुए होते हैं, इतने ही हस्यास्पद हो जाते हैं। लेकिन हमारे सब उत्तर सीखे हुए हैं। अगर मैं आपसे पूछूं आत्मा है? और अगर आप कहें कि है, तो जरा विचार करना, कि क्या यह उत्तर, उत्तर के मंदिर वाले लड़के का उत्तर नहीं है। अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? और आप कहें, है, तो जरा विचार करना कि ये सीखा हुआ तो नहीं है? अगर आप कहें नहीं है, अगर आप कम्युनिस्ट मुल्क में पैदा हुए हों, नास्तिक घर में पैदा हुए हों, तो आप कहें नहीं है, तो भी विचार करना, यह उत्तर सीखा हुआ तो नहीं है? क्योंकि आस्तिकता भी सीखी जा सकती है, नास्तिकता भी सीखी जा सकती है। लेकिन जीवन को जानना होता है। इसलिए न आस्तिक जीवन को जान पाता है, न नास्तिक जीवन को जान पाता है। जो जानते हैं, उनका मार्ग कुछ और होता है। हम सारे लोग सीखे हुए उत्तरों से बेचैन और परेशान हैं। लेकिन हम सारे लोग उत्तर सीखे हुए बैठे हैं। और इन उत्तरों को पकड़ रखने में एक रस है, एक आनंद है, इसलिए पकड़े हुए हैं। नहीं तो कौन पकड़ेगा? रस है ज्ञानी होने के दंभ का। बिना जाने हुए, ज्ञानी होने का मजा आ जाता है। अगर हम कुछ उत्तर सीख लें, इसलिए हम सारे लोग सीखना चाहते हैं।
कल ही मुझे किसी ने कहा कि शास्त्रों के बड़े अध्ययन में मैं लगा हूं, मैंने कहा , किसलिए? इसीलिए ना कि कुछ उत्तर सीखे जा सकें। लेकिन उत्तर सीख कर क्या कोई जीवन की समस्या हल होती है? मैं कितने ही उत्तर सीख लूं, दुनिया की सारी समस्याओं के उत्तर सीख लूं, तो भी मेरे जीवन की समस्या हल होगी? जीवन की समस्या कुछ बातें सीखने से हल नहीं होती, बल्कि जीवन में प्रवेश करने से हल होती हैं। तो जब कोई व्यक्ति उत्सुक होता है, सत्य को या जीवन को जानने को, तो सबसे बड़ी बाधा जो खड़ी हेा जाती है, वह खड़ी हो जाती है कि वह कुछ बातों को सीखने लगता है, जानने नहीं, बल्कि सीखने की दिशा में चला जाता है। लर्निंग की अलग दिशा है, नोईंग की अलग दिशा है। जानने की अलग दिशा है, सीखने की अलग दिशा है। विज्ञान सीखा जा सकता है, धर्म सीखा नहीं जा सकता। इसलिए विज्ञान के विद्यालय हो सकते हैं, धर्म का कोई विद्यालय नहीं हो सकता। विज्ञान के ग्रंथ हो सकते हैं, धर्म का कोई ग्रंथ नहीं हो सकता। इसलिए विज्ञान में उपाधियां हो सकती हैं, डिग्रियां हो सकती हैं, परीक्षाएं हो सकती हैं, धर्म की कोई उपाधियां, कोई डिग्रियां और परीक्षाएं नहीं हो सकती। हालांकि होती हैं, हालांकि चलती हैं। और जब कोई धर्म की परीक्षा पास कर लेता है, तो सोचता है कि मैं धार्मिक हुआ, इससे ज्यादा नासमझी की और कोई बात हो सकती है? धर्म इतनी जीवंत बात है, तो स्मरण रखें, पदार्थ के संबंध में सीखा जा सकता है, पदार्थ को जाना नहीं जा सकता। क्योंकि जानने के लिए भीतर प्रवेश करना होगा।
 हम पदार्थ में कितने ही भीतर प्रवेश करें, बाहर ही खड़े रहेंगे भीतर नहीं जा सकते। पदार्थ में भीतर प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए पदार्थ से ज्यादा से ज्यादा परिचय हो सकता है, पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता। किसी भी पदार्थ को हम कितना ही जान लें, वह परिचय मात्र है, ज्ञान नहीं है। इसलिए विज्ञान रोज बदलता जाता है, जब परिचय गहरा होता है, तो हमें पुराने सिद्धांत छोड़ देने होते हैं और नये सिद्धांत पकड़ लेने होते हैं। लेकिन नये सिद्धांत को भी बताने वाला कहता है, हाइपोथेटिकल है। हमारी परिकल्पना है। हम पदार्थ को अभी जानते नहीं। न्यूटन भी कहता है, हम पदार्थ को नहीं जानते। इतना परिचय हमें मिला। आइंस्टीन भी कहता है, इतना परिचय हमें मिला, आगे भी हम कहेंगे, इतना परिचय मिला; ऐसा कोई भी दिन कभी भी नहीं होगा कि पदार्थ का ज्ञान हो सके क्योंकि ज्ञान के लिए अंतः प्रवेश चहिए, हम पदार्थ के बाहर ही रहेंगे, लाख उपाय करें, तो भी पदार्थ के भीतर नहीं प्रवेश कर सकते। भीतर प्रवेश तो केवल स्वयं में हो सकता है। स्वयं के अतिरिक्त और किसी में नहीं हो सकता।
असल में स्वयं में हम प्रविष्ट हैं ही। हम वहां मौजूद हैं। हम वहां घुसे हुए हैं। हम वहां खड़े हुए हैं। इसलिए ज्ञान तो केवल स्वयं का हो सकता है, पर का केवल जानकारी हो सकती है। इनफाॅर्मेशन हो सकती है, जानकारी हो सकती है, परिचय हो सकता है। लेकिन ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए पर के संबंध में शास्त्र हो सकते हैं, स्वयं के संबंध में कोई शास्त्र नहीं हो सकता। और स्वयं के संबंध में जो शास्त्र हैं, उनसे उपद्रव, उनसे झंझट खड़ी हुई, उनसे कोई ज्ञान खड़ा नहीं हुआ है। स्वयं के संबंध में अगर हमने जानकारी की या लर्निंंग की दिशा पकड़ ली, तो हम गलत रास्ते पर चले गए। तो हो सकता है आप पंडित होकर समाप्त हो जाएं, लेकिन प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होंगे। प्रज्ञा का मार्ग, ज्ञान का मार्ग अन्यथा है।
रमन महर्षि को किसी जर्मन विचारक ने पूछा कि मैंने बहुत शास्त्र पढ़े हैं, अब मैं और कौन से शास्त्र पढ़ूं कि मुझे ज्ञान उपलब्ध हो जाए? रमन ने कहा, कृपा करो, जिनको पढ़ा है उनको भूल जाओ। और अब कृपा करो, अब शास्त्रों पर दया करो। शास्त्रों को छोड़ो अगर स्वयं को जानना है। क्योंकि शास्त्र की जानकारी होगी, और जानकारी मन को परतंत्र करती है, बांधती है, विश्वास खड़े करती है। बिलिव्स पैदा होती हैं कि हम मानने लगते हैं कि ईश्वर है या नहीं है। और यह मानना अगर बहुत गहरा हो जाए, तो जानने का कोई सवाल नहीं रह जाता। हम खुद खोज से, खुद की खोज की आकांक्षा बंद हो जाती है, उधार ज्ञान से हम तृप्त हो जाते हैं। जैसे कोई किसी दूसरे की आंखों को अपनी आंखें मान ले, और किसी दूसरे के पैरों को अपना पैर समझ ले; ऐसा हम दूसरों के ज्ञान को अपना ज्ञान समझ लेते हैं और तब भ्रांति में जीवन नष्ट हो सकता है। उनका जीवन भी नष्ट होता है, जिनकी जिज्ञासा ही नहीं जागती कि हम जीवन के सत्य को जानें। उनका जीवन भी नष्ट होता है, जिनकी जिज्ञासा जगती है, और जो लर्निंग की दिशा में चले जाते हैं। नोइंग की, ज्ञान की दिशा में जाना बिलकुल दूसरी बात है। और ज्ञान की दिशा में जाने का मार्ग न तो शास्त्र हैं, न सिद्धांत हैं, न संप्रदाय हैं, बल्कि कुछ और है, वह क्या है, उसके संबंध में थोड़ी सी बात मैं आपसे कहूं। और यह भी आपसे कहूं, जो व्यक्ति भी सीखने की दिशा को पकड़ लेगा, वह जानेे-अनजाने जो काम करेगा, वह भी आपके खयाल में होने चाहिए। तभी आपको यह भी खयाल में आ सकता है कि ज्ञान की दिशा के व्यक्ति को क्या करना होगा?
जो व्यक्ति सीखने की दिशा में जाता है, उसका पहला काम होगा वह अपने आचार को परिवर्तित करने में लग जाएगा। वह अपने आचरण को बदलने में लग जाएगा। क्योंकि जो बातें वह सुनेगा और सीखेगा, उनके अनुसार अपने को ढालने की, अपने को व्यवस्थित करने की कोशिश करेगा। यह स्वाभाविक है। अगर मैंने सीख लिया, मैंने जान लिया कि महावीर को ज्ञान उपलब्ध, हुआ, परम ज्ञान उपलब्ध हुआ, तो मैं महावीर के आचरण जैसा आचरण अपना ढालने की कोशिश करूंगा। अगर महावीर नग्न रहते थे, तो मैं भी कपड़े छोड़ कर नग्न रहने का अभ्यास करूंगा। और स्मरण रखें, महावीर की नग्नता में और मेरी अभ्यास जनित नग्नता में जमीन-आसमान का भेद होगा।
एक गांव में गया, एक मित्र हैं, पीछे संन्यासी हुए, उनसे मिलने गया। उनके झोपड़े के पास से पहुंचा, खिड़की में से मैंने देखा, कि वह नंगे अंदर टहल रहे हैं। मुझे हैरानी हुई, वह नग्न क्यों टहल रहे हैं? द्वार पर जाकर दस्तक दी, दरवाजा खुला, तो वे चादर लपेट कर आए। मैंने उनसे पूछा कि खिड़की से मैंने देखा, आप नग्न थे, दूर गांव के बाहर रहते हैं। दरवाजा खोला तो आप चादर लपेट कर आए, वे बोले कि मैं नग्न होने का अभ्यास कर रहा हूं। बहुत जल्द ही मुझे नग्न साधु हो जाना है। मैंने उनसे कहा, किसी सर्कस में भर्ती हो जाइए। संन्यास की क्या जरूरत है? नग्न होने का अभ्यास, उसका अभ्यास करने से तो कोई भी नग्न हो सकता है। महावीर कोई नग्न होने के अभ्यास से थोड़े ही नग्न हुए होंगे, चित्त सरल हो गया। इतना निर्दोष, इतना इन्नोसेंट हो गया कि स्मरण भी रहा कि शरीर नग्न है, या वस्त्र पड़े हैं। शरीर के वस्त्र इतनी निर्दोषिता में गिर गए होंगे, तो ये नग्नता बहुत और बात है, और यह नग्नता कि मैं वस्त्रों को छोड़ कर नंगे होने का अभ्यास करूं; पहले अकेले में नग्न घूमूं, फिर जो मेरे बहुत प्रिय हैं, परिचित हैं, उनके बीच नग्न रहूं, फिर गांव में जाऊं, फिर शहर में जाऊं, फिर बड़ी दुनिया में नग्न खड़ा हो जाऊं। तो यह अभ्यास जनित नग्नता, और वह नग्नता जो कि एक आंतरिक निर्दोषता और सरलता से उत्पन्न हुई हो, क्या ये दोनों एक सी बातें हैं? यद्यपि दोनों के शरीर नग्न होंगे। और दोनों ऊपर से देखने पर नग्न प्रतीत होंगे।
जो व्यक्ति भी सीखने की दिशा में जाएगा, वह अनुकरण करना शुरू कर देता है। वह आचरण का अनुकरण करेगा, जो बाह्य आचरण है, उसको देखेगा और उसके भांति अपने जीवन को ढालने की कोशिश करेगा। वह ढाल भी सकता है, लेकिन अंततः उसे कोई उपलब्धि नहीं होगी, क्योंकि बाहर से अभिनय को थोपा जा सकता है, लेकिन बाहर से अंतस को जगाया नहीं जा सकता। एक आदमी नग्न हो सकता है, लेकिन इससे यह अर्थ नहीं है कि वह नग्न रहने की निर्दोषता को उपलब्ध हो गया।
एक आदमी देख सकता है कि महावीर पैर फूंक-फूंक कर रखते हैं। एक कीड़ा भी न मर जाए। उसकी भी चिंता करते हैं। एक आदमी देख सकता है बुद्ध की करुणा को, बुद्ध के प्रेम को, या क्राइस्ट को या राम को या कृष्ण को और उनके चारों तरफ देख सकता है कि वे क्या करते हैं? और ठीक वैसा ही अभ्यास खुद भी कर सकता है। अगर महावीर एक-एक पैर फंूक कर रखते हों, तो उनके भीतर किसी प्रेम का उदय हुआ होगा, इसलिए किसी भी प्राणी को दुख न पहुंचे इसका विचार है। लेकिन आप भी पैर फूंक-फूंक कर रख सकते हैं और बिना किसी कीड़े को चोट पहुंचाए पैर रख सकते हैं, लेकिन इससे आपके भीतर प्रेम उत्पन्न हो गया है, इसका कोई सबूत नहीं है। यह बिलकुल थोथा आचरण हो सकता है, और यह भी हो सकता है कि आप इतने निष्णात हो जाएं इसमें कि अगर महावीर और आप दोनों परीक्षा में बैठें, तो आप पास हो जाएं, महावीर फेल हो जाएं। यह इसलिए कि अभिनय इतना कुशल हो सकता है कि वास्तविक से ज्यादा ठीक मालूम पड़े।
ऐसा हुआ है। पिछले महायुद्ध में चीन में एक युवक एक सैनिक एकेडेमी में अध्ययन कर रहा था। उस समय चीन का एक बहुत प्रसिद्ध सेनापति था, और उसने सोचा कि मैं भी अध्ययन के बाद, किसी दिन ऐसा ही सेनापति बन जाऊं। सेनापति की बड़ी प्रसिद्धि थी, तो जो भी बच्चे सैनिक का शिक्षण ले रहे थे, सबके मन में आकांक्षा होनी स्वाभाविक थी कि वे वैसे सेनापति बन जाएं। लेकिन दुर्भाग्य से वह सारी परीक्षाओं में तो प्रथम उत्तीर्ण हुआ, और घुड़सवारी की परीक्षा में घोड़े पर से गिर पड़ा और उसकी टांग टूट गई। तो वह सेना में नहीं लिया जा सका। उसके दिल में एक पीड़ा रह गई। वह चीन छोड़ कर बाद में अमरीका चला गया। भाग्य ने संयोग ने उसे फिल्म की दुनिया में पहुंचाया, वह अभिनेता बन गया। और पहले महायुद्ध के बाद उस सेनापति के जीवन पर एक फिल्म बनी, उसमें उसने उस सेनापति का काम किया। तब वह सेनापति जिंदा था, और अपने बूढ़े दिनों में अपने जीवन पर बनी हुई फिल्म को देखने गया। और उसने कहा, आश्चर्य है! यह तो मुझसे भी ज्यादा निष्णात है, जो अभिनय कर रहा है। और उसने एक पत्र लिखा अभिनेता को, कि अगर तुम और मैं दोनों जीवन में उतरें तो तुम जीत जाओगे और मैं हार जाऊंगा। वह जो अभिनय है, ज्यादा कुशल हो सकता है। क्योंकि बिलकुल व्यवस्थित गणित और यांत्रिक सुव्यवस्था उसमें लाई जा सकती है।
जीवन उतना सुगढ़ नहीं होता, जीवन अनगढ़ होता है। जीवन स्पांटेनियस होता है। जीवन में सहज स्फूर्णा होती है, और अभिनय बंधा हुआ दायरा होता है, ढांचा होता है। मशीन जितनी कुशल हो सकती है, उतना मनुष्य कभी नहीं हो सकता। मनुष्य में चेतना है। मशीन में कोई चेतना नहीं है। इसलिए मशीन बिल्कुल नियमित होती है, बिलकुल कुशल होती है, मनुष्य नहीं होता। महावीर हार जाएं, अगर उनका अनुयायी उनके सामने खड़ा हो जाए। क्योंकि वह सारी की सारी व्यवस्था बाहर से बैठा सकता है। जो भी लोग सीखने की दिशा में जाते हैं, वेए बाहर से आरोपण करने लगते हैं, भीतर से जागरण नहीं। और तब एक झूठी साधना पैदा होती है, जिसका कोई भी मूल्य नहीं है, सिवाय इसके कि एक पाखंड पैदा हो; एक झूठ पैदा हो, एक मिथ्या आचरण पैदा हो।
धर्म का पतन अनुकरण से हुआ है, बाह्य अनुकरण से। और तब धर्म के नाम पर इतने लोग दिखाई पड़ते हैं, इतने संन्यासी, इतने साधु, इतने मंदिर, इतने पुरोहित, इतने पादरी, इतने टीचर, इतने उपदेशक लेकिन दुनिया में धर्म की ज्योति करीब-करीब बुझ गई है। ये इतने लोग उस धर्म की ज्योति को जगाने में सहयोगी नहीं हैं, बल्कि उस ज्योति पर धुएं की भंाति छा गए हैं, उसका दर्शन भी नहीं होने देते। और यह होगा थोथा आचरण, ऊपर से थोपा जाता है। वास्तविक आचरण अंतस से प्रकट होता है, और निकलता है। झूठे फूल कागज के ऊपर से लगाए जाते हैं, असली फूल नीचे से आते हैं, जड़ों से निकलते हैं, पौधे पर खिलते हैं। असली फूल ऊपर से नहीं लगाए जा सकते। असली आचरण भी ऊपर से नहीं चिपकाया जा सकता, उसे भी भीतर से लाना होता है। लेकिन लर्निंग, सीखने की जो दृष्टि है कि हम सीख लें, वह अनुकरणात्मक होती है, वह जो होती है, इमिटेटिव होती है। वह पीछे चलती है, किसी के और उसके चारों तरफ देखती, उसने कैसा किया, वैसा मैं कर लूं।
मैं आपको कहूं जो भी अनुकरण करेगा, वह स्वयं के सत्य को भीतर कभी नहीं पा सकेगा। क्योंकि अनुकरण घातक है। अनुकरण नहीं, अंतः प्रवेश। किसी के पीछे जाना नहीं, बल्कि अपने भीतर जाना। धर्म का संबंध किसी के पीछे जाने से नहीं, बल्कि अपने भीतर जाने से है। और धर्म का मूल संबध्ंा आचरण को बदलने से नहीं, अंतस की क्रांति करने से है, यद्यपि यह सच है कि जब अंतस बदलता है, तो आचरण अपने आप बदल जाता है। आचरण अपने आप बदलना चाहिए, तो ही इस बात का प्रमाण है कि भीतर अंतस में ट्रांसफाॅर्मेशन हो गया। वहां क्रांति हो गई।
अंतस जब बदलता है, तो आचरण सूचना देता है। जैसे हम किसी घर के बाहर जाएं और हमें उस घर के भवन से, खिड़कियों से अंधेरा मालूम पड़े, अंधेरा दिखाई पड़े। तो हम क्या समझेंगे, हम समझेंगे, घर का दीया बुझा हुआ है। और घर में दीया जल जाए, तो उसके भवन के दरवाजों से, उसकी खिड़कियों से, उसके झरोखों से रोशनी बाहर आने लगेगी। वैसे ही जब व्यक्ति के भीतर का अंतस जागता और जलता है, तो उसके जीवन के सारे झरोखों से जो रोशनी आने लगती है, वही आचरण है। लेकिन अगर कोई बाहर से आचरण को थोपे तो भीतर तो अंधकार बना रहता है, और बाहर एक अभिनय पैदा हो जाता है। पर सीखने की बुद्धि यही कर सकती है, इसलिए मैं सीखने की बुद्धि के पक्ष में नहीं हूं। जानने की बुद्धि के पक्ष में हूं। जानने की बुद्धि इस बात को अनिवार्य रूप से अनुभव करेगी कि किसी का आचरण थोप लेना उचित नहीं है, हम दूसरों के वस्त्र पहनना पसंद नहीं करते, और न दूसरों के जूते पहनना पसंद करेंगे, लेकिन दूसरों का आचरण ओढ़ना हमेशा पसंद कर लेते हैं। यह गलत बात है। अगर दूसरों का वस्त्र पहनना अपमानजनक है, दूसरों के जूते पहनना अपमानजनक है, दूसरों का झूठा भोजन करना अपमानजनक है, तो इस सबसे बहुत गहरा अपमान इस बात में है कि हम दूसरे के आचरण को ओढ़ें। अपने अंतस को जगाएं। कोई किसी का अनुकरण करने को पैदा नहीं हुआ है।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा की अनूठी कृति है। यूनीक है। अद्वितीय है। क्षुद्र से क्षुद्र व्यक्ति भी परमात्मा की अनूठी कृति है, और इसलिए पैदा नहीं हुआ कि वह किसी दूसरे का अनुकरण करे। बल्कि इसलिए पैदा हुआ है कि वह अपनी सारी संभावनाओं को विकसित करे। अपनी कली को फूल बनाए, अपने बीज को वृक्ष तक पहुंचाए। उसके भीतर पूरा जीवन खिले और विकसित हो, इसलिए पैदा हुआ है। लेकिन सारे हमारे चिंतन के ढंग, अनुकरण के ढंग हैं, इमिटेशन के ढंग हैं, फाॅलोविंग के ढंग हैं। इसको थोड़ा समझें, फाॅलोविंग, इमिटेशन, अनुकरण दूसरे के पीछे जाना और चीजों को थोपना, जैसा दूसरा करता हो, वैसा ही करना यह हमारे मीडियाकर माइंड का लक्षण है, यह हमारी जड़ बुद्धि का लक्षण है। ये बहुत विवेक के नहीं हैं, ये लक्षण बहुत विचार के नहीं हैं, दूसरा कैसा कर रहा है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि मेरे भीतर क्या हो? और मैं ऊपर से थोप लूं चीजें यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि वे मेरे भीतर से विकसित हों, और बाहर तक आएं। इसलिए आचरण नहीं, अंतस परिवर्तन करना होता है। जिसे जानना है सत्य को, उसे आचरण नहीं थोपना होता, बल्कि अंतःकरण बदलना होता है।
अंतःकरण कैसे बदलेगा? शास्त्र से नहीं बदलेगा। मैंने कहाः अनुगमन से नहीं बदलेगा, आचरण से नहीं बदलेगा, तो आप कहेंगे फिर बदलेगा कैसे? जगह-जगह लोग मुझसे पूछते हैं कि आपने यह सब तो निषेध कर दिया, फिर बदलेगा कैसे? अंतःकरण कैसे बदलेगा? अंतःकरण निश्चित बदलेगा, अगर यह भूमिका खयाल में हो, तो अंतःकरण बदला जा सकता है और बदलने का कुछ उपाय है। बदलने का कोई मार्ग है, वही मार्ग वास्तविक धर्म है, वही मार्ग योग है, वही मार्ग ध्यान है। अंतःकरण बदला जा सकता है । पहली बात अंतःकरण बदलने के लिए, अंतःकरण की शक्ति को अनुभव करना होगा। हमें खयाल भी नहीं है कि हमारे भीतर कोई अंतस चेतना जैसी चीज है। हम जीवन में इतने ज्यादा संलग्न, इतने ज्यादा तल्लीन, इतने डूबे हुए हैं, कि हमें फुरसत भी नहीं है इस बात की कि हम आंखें उठाएं और उसकी तरफ देखें, जो हमारे भीतर खड़ा है। हम ऐसे लोग हैं, जो खजाने पर खड़े हों और खजाने का खयाल भूल गए हैं। हम ऐसे लोग हैं जो अपना ही नाम भूल गए हैं।
एक अमरीका में वैज्ञानिक हुआ, एडीसन। उसके बाबत बहुत से भुलक्कड़पन की, फाॅरगेटफुलनेस की, विस्मरण की घटनाएं हैं। लेकिन एक घटना बहुत अदभुत है। और बड़ी सूचक है। हमें हंसी आएगी। लेकिन हम सब भी उसी हालत में हैं। पहले महायुद्ध में अमरीका में पहली दफा राशन हुआ। एडीसन गरीब आदमी था, यद्यपि बड़ा वैज्ञानिक था, लेकिन बड़ी दरिद्रता में और दुख में जीवन बिता रहा था। फिर बाद में उसकी ख्याति होनी शुरू हुई, बड़े आविष्कार हुए, बहुत धन आया। लेकिन तब वह गरीब हालत में था। एक नौकर भी उसके पास नहीं था, तो उसने खुद ही पहली दफा अपना राशन लेने एक दुकान पर जाना पड़ा। क्यू लगाकर वह खड़ा हुआ है। अपना कार्ड जमा कर दिया। जब उसका नंबर आया और उस आदमी ने चिल्ला कर कहा कि थाॅमस एडीसन कौन है? आ जाए। तो वह आगे खड़ा रहा और सुनता रहा। उसने दुबारा कहाः महानुभव थाॅमस एडीसन कौन हैं? आ जाऐं। तब भी वह खड़ा रहा और सुनता रहा। बगल के आदमी ने कहा कि मैं समझता हूं, कि ये सज्जन जो सामने खड़े हैं, ये ही थाॅमस एडीसन हैं, वह एकदम चैंका और उसने कहा, क्या मेरा ही नाम थाॅमस एडीसन हैं, क्षमा करें, मुझे जरा खयाल नहीं रहा। क्योंकि कोई बीस वर्षों से, मेरे बच्चे जो हैं, विद्यार्थी जो हैं, वे मुझे मेरा नाम नहीं लेते, मुझे लोग आदर करते हैं, मेरा किसी ने नाम नहीं लिया मेरे सामने। मैं अपनी लेबोरेट्री में बैठा काम करता रहता हूं, मैं असल में भूल गया, क्षमा करें। मैंने कोई चिट्ठी नहीं लिखी, बीस साल से चिट्ठी लिखने की मेरी आदत नहीं, दस्तखत नहीं किया। यह पहला ही मौका है कि मुझसे किसी ने पूछा कि आपका नाम, तो मैं जरा घबरा गया, एकदम से मुझे खयाल नहीं आ सका, मुझे क्षमा कर दें।
दूसरे लोगों ने बताया कि यही सज्जन एडीसन हैं। वह अपना कार्ड और सामान लेकर वापस लौटा, उसने अपनी पत्नी से कहा कि आज मैं बड़ी दिक्कत में पड़ गया, अपना नाम भूल गया।
सारे अमरीका में उसकी हंसी हुई। लेकिन बहुत खयाल करिए, हम भी करीब-करीब अपना नाम भूले हुए खड़े हैं। हम भी एक क्यू में खड़े हैं, जिदंगी की, हमें कोई पता नहीं हमारा नाम क्या है? जिंदगी में इतने व्यस्त हैं, फुर्सत किसको रही कि हम जानें कि भीतर कोई चेतना भी खड़ी है। हम व्यस्त हैं, हम इतने व्यस्त हैं कि खुद को चूक गए हैं। हम इतने ज्यादा काम में लगे हैं कि उसे जानना मुश्किल हो गया है, जो हम हैं। थोड़ा सा वह अंतस चेतना है हमारे भीतर, इसका अनुभव करना होगा। इसका अनुभव कैसे होगा? जीवन के भीतर अनुभवों से सजग गुजरने से इसका अनुभव होगा। हम सोए हुए गुजरते हैं। होशपूर्वक नहीं गुजरते हैं। आप भोजन करते हों, या कपड़े पहनते हों, या उठते हों, या चलते हों या रास्ते पर जाते हों, या झगड़ा करते हों, या प्रेम करते हों, आप जो भी करते हैं, सारी क्रियाएं करीब-करीब सोई हुई, मूच्र्छित, नींद में हो रही हैं। सोमनाम्बुलिज्म जिसको कहते हैं।
सारी दुनिया करीब-करीब सोई हुई चल रही है। हम करीब-करीब सोए हैं। हमें ठीक-ठीक होश भी नहीं कि हम चल रहे हैं, हम क्या कर रहे हैं? अगर मैं आपसे अभी पूछूं कि क्या आप मुझे सुन रहे हैं? तो एकदम आपको खयाल आएगा कि भीतर तो बहुत कुछ और चल रहा है, मैं तो कहीं और हूं। अगर कोई आपसे, रास्ते पर आप चले जा रहे हैं, पकड़ ले और पूछे कि महानुभाव! आप इस वक्त चल रहे थे, आप कहेंगे क्षमा करें! चल तो जरूर रहा था, लेकिन मैं कहीं और था। अगर आप मंदिर में प्रार्थना कर रहे हैं और कोई आपको पकड़ ले और पूछे कि क्या सचमुच प्रार्थना कर रहे हैं? तो हो सकता है कि आप किसी जूते की दुकान पर जूते खरीद रहे हों, किसी सब्जी बाजार में खड़े हों, या किसी दुश्मन की गर्दन पकड़ ली हो, या किसी अदालत में किसी पर मुकदमा चला रहे हैं, नामालूम क्या कर रहे हैं? और आपके हाथ प्रार्थना कर रहे होंगे और मुंह जाप जप रहा होगा और हाथ में घंटी होगी और आपका मन कहीं और होगा। यह सोया हुआ पन है। यह एक बहुत गहरी निद्रा है। यह निद्रा हमें स्वयं की चेतना को नहीं जानने देती है, और अंतःकरण में प्रवेश नहीं करने देती। इस निद्रा को तोड़ने का सतत उपाय करना जरूरी है।
 जो भी हम करें, वह बहुत होशपूर्वक होना चाहिए। जो भी मैं करूं, छोटे से छोटा काम, चाहे घर में हम बुहारी लगाते हों, या चरखा कातते हों, या कपड़े धोते हों, या रोटी बनाते हों, या खाना खाते हों, या दुकान पर काम करते हों, जो भी हम कर रहे हैं, उसके प्रति परिपूर्ण होश होना चाहिए, और चित्त समग्र रूप से उस क्रिया में संलग्न होना चाहिए। तो जैसे-जैसे चित्त क्रिया में संलग्न होगा, कर्म और ध्यान संयुक्त होंगे, वैसे-वैसे आपको अदभुत बोध होगा कि आपके भीतर एक बहुत चेतना की ज्योति है। लेकिन चेतना की ज्योति तब ही जलेगी, तभी जगेगी जब हम चैतन्य का प्रयोग करेंगे। हम मूर्छा का प्रयोग करेंगे, तो चैतन्य कैसे जगेगा?
मैं निरंतर जगह-जगह कहता हूं अगर हम यहां नीचे एक फीट चैड़ी और सौ फीट लंबी लकड़ी की पट्टी रख दें, और आप सारे लोगों से मैं कहूं कि इस पट्टी पर चलें, तो आप करीब-करीब सभी लोग चल जाएंगे, बूढ़ा भी चल जाएगा, बच्चे भी चल जाएंगे, स्त्रियां भी चल जाएंगी, कोई भी गिरेगा नहीं एक फीट चैड़ी हो, सौ फीट लंबी हो, कोई गिरेगा नहीं, सब चल जाएंगे। लेकिन अगर हम दो बड़े मकानों की ऊपर छत पर सौ फीट लंबी और एक फीट चैड़ी लकड़ी की पट्टी रख दें और आपसे कहें, आप चलें। तो फिर जवान भी डरेगा कि उसको जाना कि नहीं जाना है। और जाना तो उस पार पहुंचना मुश्किल है। क्यों? जमीन पर भी पट्टी एक फीट चैड़ी थी, सौ फीट लंबी थी। छत पर भी पट्टी एक फीट चैड़ी, सौ फीट लंबी है। पट्टी उतनी है, आप भी वही है, कठिनाई क्या है? दिक्कत क्या है? कठिनाई यह है कि जमीन पर आप सोए हुए चल सकते थे, कोई डर नहीं था। वहां जाग कर चलना पड़ेगा, तो बचेंगे। जाग कर चलने की कोई आदत नहीं है, कोई खयाल नहीं है, सोए हुए चलने की आदत है, तो जमीन पर चल लेंगे कोई डर नहीं है, क्योंकि गिरेंगे तो कहंा जाएंगे? इसलिए आप बराबर चल जाएंगे। लेकिन वहां भय आपको सजग कर देगा। और लगेगा कि अगर जरा ही नींद लगी, तो नीचे चले जाएंगे। और नींद से चूकना तो मुश्किल है, वह तो एक घड़ी नहीं छोड़ रही पीछा, तो आप कहेंगे ,कृपा करें, इस पर मैं नहीं जाऊंगा। क्यों? पट्टी वही है, आप वही हैं, जाने में कठिनाई क्या है? कठिनाई है भीतर चलने वाली नींद। वह भीतर चूक जाना, पूरे वक्त चूकते चले जाना।
हम भीतर कहीं और उपस्थित हैं। इसलिए जो भीतर है, उसका अनुभव नहीं हो पाता है। हम हमेशा कहीं और उपस्थित हैं। हमारी प्रेजेंस, हमारी मौजूदगी भीतर नहीं है, हमेशा कहीं और है। कोई मंदिर का चिंतन कर रहा है, कोई दुकान का चिंतन कर रहा है, कोई संसार का चिंतन कर रहा है, कोई मोक्ष का चिंतन कर रहा है, लेकिन प्रजेंस कहीं और है। कहीं दूर है। वहां नहीं है, जहां हम हैं। जहां हम हैं अगर वहीं हमारी चेतना की उपस्थिति हो, तो आपको आत्म-बोध होना शुरू हो जाएगा। और इसके लिए किसी शास्त्र में और किसी से पूछने जाने की बहुत जरूरत नहीं है।
सबको जीवन मिला है, सबको चेतना मिली है, केवल जीवन और चेतना को जोड़ने की बात है। जीवन भी पास है, चेतना भी पास है, जैसे किसी आदमी के पास तेल भी हो, बाती भी हो, माचिस भी हो, लेकिन न तेल को बाती से जोड़े, न माचिस को बाती से जोड़े और बैठा रोता रहे, कि बड़ा घना अंधकार है, मैं क्या करूं? हम उससे कहेंगे सब तेरे पास है, लेकिन संयुक्त नहीं है, वियुक्त है। तेरे पास दीया है, तेरे पास तेल है, तेरे पास बाती है, तेरे पास आग को भड़काने और जलाने का उपाय है, लेकिन तू उन सबको जोड़ नहीं रहा, प्रत्येक मनुष्य के पास उतना ही सामान, उतना ही साधन है, जितना महावीर के पास हो, बुद्ध के पास हो, कृष्ण के पास हो, क्राइस्ट के पास हो या किसी और के पास हो।
 प्रत्येक मनुष्य को जीवन से, परमात्मा से उतना ही मिला है, जितना किसी और को मिला है। परमात्मा ने कोई कंजूसी या कोई पक्षपात नहीं किया हुआ है। सबके लिए बराबर मिला हुआ है, लेकिन आश्चर्य है कि कुछ के दीये जलते हैं और कुछ अंधेरे में बैठे रोते रह जाते हैं। उसका संयोग नहीं है। कर्म का और ध्यान का संयोग मनुष्य को आत्मा में ले जाता है। कर्म का और ध्यान का संयोग मनुष्य को भीतर ले जाता है, अंतस में ले जाता है। कर्म और ध्यान का वियोग मनुष्य को भटकाता है, अंधेरे में और निद्रा में, और जीवन में पीड़ा और दुख, और चिंता के अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं होता।
तो मैं आज की संध्या यह छोटी सी बात ही आपसे कहना चाहता हूं। बड़ी छोटी है, जैसे अणु छोटा सा होता है। लेकिन अणु का विस्फोट घातक हुआ। इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा पैदा हुई कि मनुष्य चकित हो गया। इतनी शक्ति और इतनी ऊर्जा पैदा हुई कि हम चाहें तो पूरी पृथ्वी को नष्ट कर दें, एक छोटे से अण्ुा में इतना राज छिपा था, हमें कभी पता नहीं था। ऐसी एक छोटी सी बात है, कर्म को और ध्यान को संयुक्त कर देना। बड़ी एटामिक है, बड़ी छोटी है, लेकिन अगर इसका संयोग हो जाए, तो विराट ऊर्जा पैदा होती है। इसी छोटे से बिंदु में परमात्मा तक की उपलब्धि संभव है। जो हम करें, वह बोधपूर्वक हो। जो हम करें वह ध्यानयुक्त हो। जो हम करें वह हमारी प्रजेंस, हमारी मौजूदगी, हमारी उपस्थिति पूरी-पूरी उसमें हो।
एक फकीर हुआ, नागार्जुन। एक गांव से निकलता था, अदभुत फकीर था। कुछ थोड़े से ऐसे अदभुत लोग हुए हैं, उनमें से एक था। नंगा ही रहता था। एक लकड़ी का भिक्षापात्र ही उसकी कुल संपत्ति थी। जिस गांव से निकला, उस गांव की साम्राज्ञी ने उसे बुलाया और कहा कि तुम जैसे अदभुत फकीर के हाथ में लकड़ी का यह भिक्षा पात्र शोभा नहीं देता। मैंने एक भिक्षापात्र बनाया सोने का, उसमें बहुत बहुतमूल्य जवाहरात जड़े हैं। वह तुम्हें मैं भेट करती हूं, इतनी कृपा करो इनकार मत करना। नागार्जुन ने कहाः मैं क्यों इनकार करूंगा? जैसी लकड़ी, वैसा सोना। हमें भीख मांगने से मतलब, रोटी खाने से मतलब। कोई साधारण संन्यासी होता, वह कहता क्षमा करें, हम सोने को छू सकते हैं? सोना और हम छुएंगे? आंख फेर लेता, भागता वहां से कि सोना कहीं पकड़ न ले। लेकिन जो जानता है, उसे सोना और मिट्टी में भेद नहीं। जो नहीं जानता, वह सोने से भागता है या सोने के लिए भागता है।
ये दोनों अज्ञानियों के दो तल हैं। एक सोना पाने के लिए भागता है, एक सोने से घबड़ा कर भागता है। अज्ञानियों के दो तल हैं। लेकिन जो जानता है, उसे सोने से भागना नहीं है, सोने के लिए भी भागना नहीं। उसने कहा अगर तुझे इससे सुख मिलता है, तो ठीक है, ये ही ठीक, हमें तो रोटी खानी है, हम इसमें ही मांगकर खा लेंगे। वह लेकर चला, लेकिन चलते वक्त उसने रानी को कहा कि देख इसमें एक खतरा है, लकड़ी का था, तो कोई चुराता नहीं था, इसको कोई न कोई ले जाएगा। थोड़ी देर में हम बिना पात्र के हो जाऐंगे। तो इतना खयाल रखना मेरा पात्र फेंक मत देना, कल मैं उसको मांग लूंगा। रानी ने कहा कि इतनी जल्दी? उसने कहा कि बहुत मुश्किल है, यह पात्र मेरे पास बचे। वह वहां से निकला, लेकिन गांव में एक नंगा आदमी, एक सोने का चमकता हुआ पात्र! उसमें जवाहरात जड़े हुए हैं, तो सबकी आंखें गईं। गांव का जो बड़ा चोर था, वह पीछे हो लिया। नागार्जुन ने बार-बार उसके पैर की आवाज सुनी, उसने कहा कि ठीक है, जिसको चाहिए वह आ गया। वह गांव के बाहर एक खंडहर में ठहरा हुआ था। वहां न कोई द्वार थे, न खिड़की थी, न कोई दरवाजा था। वह अंदर गया, दोपहर का वक्त था, वह भोजन करके दोपहर को सो जाएगा। उसने सोचा कि वह आदमी तो आ ही गया है, वह बाहर आकर दीवाल के पीछे छिपकर बैठ गया। और उसने सोचा इसे व्यर्थ बाहर बैठाए रखूं, दोपहरी है, मैं तो भीतर बैठा हुआ हूं, वह धूप में बैठा हुआ है, फिर थोड़ी-बहुत देर में ले ही जाएगा, तो इतनी देर बैठलाने का पाप मैं क्यों मोल लूं? और फिर जिसे ले ही जाना है, उसे दे देना उचित है, कम से कम दान का तो मजा रहेगा। और उसको भी चोरी का कष्ट न होगा। उसने पात्र को उठाया खिड़की के बाहर फेंक दिया। बाहर पात्र गिरा तो, चोर हैरान हो गया। पहले ही हैरान था कि एक नंगा फकीर और हाथ में लाखों की कीमत की चीज लिए हो। अब और हैरान हुआ कि इस पागल ने फेंक क्यों दिया? उसे कुछ बड़ी हैरानी हुई, अभी तक तो सोच रहा था कि इसको ले पा जाऊंगा, तो बहुत कुछ मिल जाएगी, बहुत उपलब्धि हो जाएगी, अब ऐसा लगा कि एक आदमी ने जब इसे फेंक दिया, तो इसको मैंने पा भी लिया तो कौन सी उपलब्धि हुई?
जब ऐसे लोग भी जमीन पर हैं, जो इसे फेंक सकते हैं, और मैंने पा भी लिया तो कौन सी उपलब्धि हुई, जरूर इससे भी ऊपर कोई उपलब्धि की चीजें होनी चाहिएं नहीं तो इसको फेंकने वाले लोग नहीं हो सकते। उसने खिड़की से खड़े होकर कहा कि भिक्षु मैं धन्यवाद करता हूं। मैं आया था, चोरी करने तुमने भेंट कर दिया। क्या इतनी आज्ञा और दोगे कि मैं भीतर आऊं और पांच क्षण तुम्हारे पास बैठ जाऊं । नागार्जुन ने कहा कि मित्र, इसीलिए पात्र बाहर फेंका कि तू भीतर आ सके। तू भीतर तो आता, लेकिन चोर की तरह आता, तो तेरा चित्त भीतर न आ पाता, तेरा चित्त बाहर रहता। घबड़ाया हुआ आता, चित्त तेरा बाहर ही जाने का रहता, लेता और भागता, अब तू आएगा, तो निश्चिंत आ सकता है। तुम भीतर आ जाओ। वह चोर भीतर आया। यह आदमी अदभुत था, हैरानी का था, वह बैठा, उसने पूछा कि कई बार मेरे मन में भी होता है कि ऐसी समता, ऐसी शंाति, ऐसा आनंद, ऐसा अदभुत अपरिग्रह मुझे भी कभी उपलब्ध हो, लेकिन मैं हूं चोर, और इस नगर में बड़े से बड़ा चोर हूं, और सभी साधु मुझे जानते हैं,क्योंकि चोरों और साधुओं का गहरा संबंध है। वे एक-दूसरे के दुश्मन है, तो सभी साधु मुझे जानते हैं, जब भी मैं उनके पास जाता हूं तो वे मुझे पहला उपदेश यही देते हैं कि तू चोरी छोड़, तब फिर कुछ हो सकता है। यह मुझसे छूटती नहीं, इसलिए बात वहीं रुक जाती है। आप कुछ अदभुत मालूम पड़ते हैं, क्या आपसे मैं पूछूं कि क्या मेरे जीवन में भी कोई क्रांति हो सकती है? क्या मैं भी कभी उस दशा को पा सकता हूं, जो आपको है? नागार्जुन ने कहा पहली तो बात तू यह समझ ले कि अब तक तू किसी साधु के पास नहीं गया। क्योंकि साधु को चोरी से क्या मतलब? वह क्यों कहेगा कि चोरी छोड़? साधु को चोरी से मतलब ही नहीं। मैं तुझसे नहीं कहूंगा कि चोरी छोड़। क्योंकि मैं जानता हूं कि जैसा तेरा अंतःकरण है, वैसा तेरा आचरण है। आचरण में चोरी है, तो अंतःकरण में भूल है।
सवाल आचरण का नहीं है, सवाल अंतःकरण का है। अंतःकरण ठीक होगा , आचरण बदलेगा। इसलिए मैं तुझसे नहीं कहता कि तू चोरी छोड़, तू चोरी खूब कर, मैं तुझसे सिर्फ एक बात कहता हूं कि चोरी तू होशपूर्वक कर। अजीब शिक्षा थी, नागार्जुन ने उससे कहा कि तू चोरी होशपूर्वक कर। जैसे ही मूर्छा आए, तू चोरी मत करना। होशपूर्वक करना। अगर तू किसी का दरवाजा तोड़े, तो बहुत सजग होकर तो.ड़ना, और तेरा चित्त वहीं रहे। तेरा ध्यान वहीं रहे कि मैं दरवाजा तोड़ रहा हूं। जब तू भीतर जाए और तिजोरी खोले, तो तेरा ध्यान पूरा का पूरा तिजोरी तोड़ने में रहे। और जब तू रुपये निकाले तो तेरा ध्यान पूरा का पूरा रुपये निकालने में रहे। बस इतना तू करना। इससे तुझे चोरी में बड़ी कुशलता भी आ जाएगी, बड़ा ठीक से तू चोरी कर सकेगा, तेरा साहस भी बढ़ेगा और सब अच्छा होगा। तू जा।
उस चोर ने पैर छुए, उसने कहा कि ऐसा उपदेशक मुझे कभी मिला नहीं, तो बड़ी अजीब बात आप कह रहे हैं, चोरी में कुशलता मेरी बढ़ाने के लिए उपाय बता रहे हैं, इससे क्या होगा? उसने कहा कभी कुछ हो, तो मेरे पास आना। वह दस दिन बाद आया। उसने पैर नागार्जुन के पकड़े और उसने कहा कि आपने मुझे धोखा दे दिया। जैसे ही मैं चोरी करने जाता हूं और होश से जाता हूं तो मेरे पैर आगे नहीं बढ़ते। होश से जाता हूं तो पैर आगे नहीं बढ़ते। और कल तो मैं एक भवन में घुस गया, निश्चित मूच्र्छा में घुस गया। फिर मुझे एकदम खयाल आया कि मैं तो होश में नहीं हूं। तो मैं तिजोरी के सामने खड़ा था, तिजोरी मैंने खोल ली थी, संपत्ति बहुत मेरे हाथ में थी, इतनी कभी मेरे सामने नहीं थी, सारा घर सोया हुआ था, लेकिन मैं जागा हुआ था, यह मुश्किल हो गई। सारा घर सोया हुआ था, सम्पत्ति मेरे सामने थी, लेकिन मैं जागा हुआ था, यह मुश्किल हो गई। संपत्ति छोड़ कर वापस लौट आया, तब मैंने जाना कि दूसरों के सोने से चोरी नहीं हो रही है, मेरे सोने से चोरी हो रही है। और चोरी गई। क्योंकि जागकर मैंने अपने भीतर वह संपदा पा ली, जो सोकर मैंने बाहर बहुत खोजी और मुझे नहीं मिल सकी। भीतर एक ज्योति का, एक चैतन्य का अनुभव हुआ। तो मैं कहूं कुछ और जीवन में बहुत करने जैसा नहीं है, करने जैसा है, कर्म में ध्यान हो संयुक्त। जो भी हम कर रहे हैं, जो भी! चाहे कोई जूते सी रहा हो, चाहे कोई चोरी कर रहा हो, चाहे कोई कुछ भी कर रहा हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं कि कौन क्या कर रहा है? जो भी हम कर रहे हैं, वह परिपूर्ण ध्यान से इंटिग्रेटिड हो। वह पूरा संयुक्त हो।
 ध्यान से संयुक्त होकर सब कर्म प्रार्थना बन जाते हैं। सब कर्म पवित्र हो जाते हैं। जो अपवित्र है, वह होना बंद हो जाएगा। जो पवित्र है, वह शेष रह जाएगा। और क्रांति यह होगी कि भीतर इस ध्यानपूर्वक कर्म के प्रवेश से उसका बोध होगा, जो चेतना है, वह जो आत्मा है। उसका बोध, उसके बोध का बिंदु उपलब्ध हो जाए, तो सब उपलब्ध हो जाता है। सारे धर्मों ने जो कहा, सारे ज्ञाताओं ने जो कहा; सारे संतों ने, साधुओं ने जो कहा; सारे तीर्थंकरों ने, ईश्वर पुत्रों ने, अवतारों ने जो कहा; वह उस एक बिंदु के उपलब्ध होने से, उपलब्ध हो जाता है।
परिधि को बदलने की बात नहीं, केंद्र को जानने और जीतने की बात है। और जो उसे जीतता और जानता है, वह इस जीवन में जो भी जानने जैसा है, और जो भी जीतने जैसा है, उसे जीत लेता और जान लेता है। धन्यता उसे उपलब्ध होती है। आनंद और शांति उसे उपलब्ध होती हैं। उसे ज्ञात होता है कि मैं अमृत हूं, क्योंकि वह जो चैतन्य की शिखा है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। और उसे ज्ञात होता है कि मैं देह से पृथक और अलग हूं। और उसे ज्ञात होता है कि कोई बंधन मेरे ऊपर नहीं, मैं परम स्वतंत्र हूं, और उसे ज्ञात होता है कि कोई कड़ियां मेरे ऊपर नहीं, मैं परम मोक्ष हूं। जो उस एक बिंदु को जानता है, वह परमात्मा के सारे रहस्य को, राज को जान लेता है। वह बिंदु प्रत्येक के भीतर है। और वह ज्योति सबके भीतर है, लेकिन कुछ, कुछ ज्योति को और तेल को जोड़ने की, दीये को जलाने की बात है। यह जग सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कहीं, यह अधिकार है हमारा कि हम इसे जलाएं। यह अपमान होगा हमारा कि हम इसे बिना जलाए मर जाएं। मरने के पहले अगर कोई व्यक्ति परमात्मा से संयुक्त नहीं होता है तो उसने जीवन के बहुमूल्य अवसर को बिल्कुल व्यर्थ खो दिया। बिल्कुल मिट्टी में खो दिया। उसने मिट्टी के सिक्के गिने और खराब कर लिया जीवन। जब कि सोने के सिक्के पाए जा सकते थे। जबकि पाए जा सकते थे वे सिक्के जो कि वास्तविक संपदा के हैं। और जिनके आधार पर ही हम वस्तुतः खड़े हो सकते हैं। और अनुभव कर सकते हैं कि जीवन क्या है? और तब एक धन्यता मालूम होती है, एक कृतार्थता मालूम होती है। एक संगीत से, एक प्रार्थना से, एक पवित्रता से और शांति से और एक निर्दोषता से चित्त भर जाता है। और तब हम संयुक्त होते हैं समस्त से। जो स्वयं को जानता है, वह समस्त से संयुक्त हो जाता है। जो आत्मा से परिचित होता है, वह परमात्मा से इकट्ठा जुड़ जाता है। तब बूंद सागर से एक हो जाती है। और तभी कुछ अर्थ है, और तभी कुछ जीवन का उपयोग है। उस उपयोग के लिए प्रार्थना करता हूं, उस उपयोग के लिए प्यास जगे, इसकी परमात्मा से आकांक्षा करता हूं। ईश्वर आपके दीये को जलाए, आपके अंतःकरण को ज्योतिपूर्ण करे कि आपका आचरण भी क्रांतिपूर्ण हो जाए, यह कामना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम से और शांति से सुना है, बहुत सी ऐसी बातों को जिन्हें शांति से सुनना कठिन है, जिन्हें प्रेम से सुनना मुश्किल हो गया, उनको भी प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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