छठवां प्रवचन-(क्षण में भगवान)
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से भीड़ का लगना शुरू हुआ और फिर भीड़ बढ़ती ही गई। धीरे-धीरे सारा नगर ही उस महल के द्वार पर इकट्ठा हो गया। जो भी आया, फिर भीड़ से वापस नहीं लौटा, वह खड़ा ही हो गया। कुछ बड़ी अजीब बात उस द्वार पर घट गई थी। और सभी उत्सुक थे कि अंतिम परिणाम क्या होता है? सुबह ही सुबह एक भिखारी ने आकर अपना भिक्षापात्र राजा के सामने किया था। और राजा से एक शर्त रखी कि मैं तभी भिक्षा स्वीकार करूंगा, जब मेरा पूरा पात्र भर दिया जाए। चाहे मिट्टी से, चाहे सोने से। लेकिन एक ही शर्त पर भिक्षा लूंगा कि मेरा पूरा पात्र भर दिया जाए।
राजा ने कहाः बहुत भिखारी आए, लेकिन शर्त के सहित मांगने वाले तुम पहले व्यक्ति हो। और राजा के द्वार पर तुमने मांगा है, तो मिट्टी से भरे जाने का तो सवाल नहीं, सोने से ही तुम्हारे इस छोटे से भिक्षापात्र को भर देंगे। शर्त स्वीकार हो गई। और राजा ने अपने मंत्री को आज्ञा दी, स्वर्ण-मुद्राओं से भिक्षुक का पात्र भर दिया जाए। लेकिन राजा वचन देकर बहुत कठिनाई में पड़ गया, स्वर्ण-मुद्राएं जो भी डाली गईं उस भिक्षापात्र में, उसे भरने में असमर्थ रहीं। मुद्राएं मंत्री लाकर डालते गए और भिक्षापात्र अधूरा का अधूरा रहा। दोपहर हो गई, राजा के खजाने खाली होने लगे।
भिक्षापात्र न मालूम कैसा था कि भरता नहीं था। और सांझ करीब आ गई और राजा के खजाने खाली हो गए। खजाने कितने ही बड़े हों, आखिर उनकी सीमा है। लेकिन भिक्षापात्र कुछ ऐसा था कि भरने का उसने नाम न लिया। और तब राजा घबड़ाया।
उस भिक्षु ने कहा कि क्षमा मांग लें, मैं वापस चला जाऊं। अपना वचन वापस ले लें। मजबूरी में राजा को क्षमा मांगनी पड़ी। और प्रार्थना करनी पड़ी कि मुझे क्षमा कर दें, मेरी सामथ्र्य कम थी और मेरी समृद्धि कम थी; और मैं तुम्हारे भिक्षापात्र को न भर सका। लेकिन मान लूंगा कि क्षमा कर दिया गया हूं अगर इस रहस्य को बता दें कि यह भिक्षापात्र किस जादू से बना है? उस भिक्षुक ने जो कहा, वही महत्वपूर्ण है, उसी को मैं चर्चा का प्रारंभ बनाना चाहता हूं। उस भिक्षुक ने कहा कोई जादू नहीं है, कोई आश्चर्य नहीं है। मरघट से निकलता था, एक मनुष्य की खोपड़ी मिल गई, उससे ही इस भिक्षापात्र को बनाया है। और मनुष्य की खोपड़ी कभी भी नहीं भरी, इसलिए भिक्षापात्र भी कभी भरेगा नहीं। बहुत साधारण सा भिक्षापात्र है। मनुष्य की खोपड़ी से बनाया है।
पता नहीं कहानी कहां तक सच है। कहानी के सच होने का कोई सवाल भी नहीं है। लेकिन यह बात निश्चित ही सच है मनुष्य का मन कुछ ऐसा बना है कि उसे भरना असंभव है। इस मनुष्य के मन को भरने में ही जीवन का सारा आनंद तिरोहित हो जाता है। इस मनुष्य के मन को भरने में ही जीवन की सारी शांति समाप्त हो जाती है। और इस मनुष्य के मन को नहीं भर पाने से जो पीड़ा पैदा होती है, जो चिंता और दुख पैदा होता है, जो अवसाद जो असफलता पैदा होती है, वही जीवन को नरक बना देती है।
जो अशांति है हमारे जीवन की वह यही है कि जो भी हम करना चाहते हैं, वह पूरा नहीं हो पाता। और जिस दिशा में भी हम दौड़ते हैं, कहीं पहुंच नहीं पाते। और जो भी हमारा उपक्रम है, वह हमेशा हमारी मनोकांक्षा को अपूर्ण ही छोड़ देता है, पूर्ण नहीं कर पाता। यह जो निरंतर हर दौड़ के आगे दीवाल मिल जाती है, और हर महत्वाकांक्षा असफल हो जाती है और हमारी कोई कामना तृप्त नहीं हो पाती। इससे, इससे ही जीवन अशांति और दुख से भर जाता है।
क्या करें? मन को भरने की सब कोशिश अंशात कर जाती हैं। और मन की बड़ी कामनाएं हैं। और मन की बड़ी इच्छाएं हैं। और कोई भी इच्छा पूरी नहीं होती। स्वाभाविक है कि मनुष्य का छोटा जीवन निरंतर असफलताओं से पीड़ित हो जाए, दुखी हो जाए।
यह क्यों नहीं मन भर पाता है? अगर इस बात को हम समझ लें, तो आनंद को कहीं खोजने नहीं जाना होगा, यदि यह बात हमें दिखाई पड़ जाए कि मन को भरने की चेष्टा में ही सारा आनंद छिन जाता है, तो आनंद तो निरंतर उपलब्ध है। जीवन स्वतः ही आनंद है। लेकिन मन, मन दुख है।
जीवन आनंद है, मन दुख है।
और हम सारे लोग जीवन को समर्पित कर देते हैं मन के लिए और इसलिए जीवन भी दुख हो जाता है। जीवन समर्पित न हो मन के लिए, मन ही समर्पित हो जाए जीवन के लिए, तो जीवन आनंद हो जाता है। और दो ही सूत्र हैं, अगर जीवन को हम मन के प्रति समर्पित कर दें, तो दुख के अतिरिक्त और कोई परिणति नहीं हो सकती। और यदि मन को हम जीवन के प्रति समर्पित कर दें, तो आनंद को कहीं खोजने नहीं जाना है, वह निरंतर हमारे साथ है।
क्यों? मन अपूर्ण क्यों है? भरा क्यों नहीं जा सकता? क्यों भरना चाहते हैं? मन को क्यों भरना चाहते हैं? धन से, यश से, पद से क्यों मन को भरना चाहते हैं?
सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था। और तब डायोजनीज नाम के एक फकीर से उसका मिलना हुआ। वह मिलने गया। डायोजनीज मार्ग में था, नंगा फकीर था। और एक टीन के बहुत बड़े पोंगरे में रहता था, पोंगरे में इसलिए कि उसे धक्का देकर कहीं भी ले जा सकता था। तो मकान के साथ बंधने की उसे कोई जरूरत न थी, मकान उसके पीछे चलता था। सिकंदर ने सुना कि डायोजनीज यहां मार्ग में है, तो वह मिलने गया। तो उसने खबर पहुंचाई और जाकर खबर की कि महान सिकंदर तुमसे मिलने आया है। डायोजनीज ने कहा, कि जो अपने को महान कहता है, वह बहुत छोटा आदमी होगा। छोटे आदमियों को महान होने का पागलपन पैदा हो जाता है।
मनुष्य के भीतर जो हीनता की ग्रंथी है। वही उसके भीतर महत्वाकांक्षा को पैदा करती है, वही एंबीशन पैदा करती है। भीतर जितनी हीनता होती है, उतना उस हीनता को छिपाने के प्रयास में, हम बड़े होने की चेष्टा करते हैं। वह हीनता मिट जाए भीतर से, वह जो इनफीरियरिटी है, वह जो ना-कुछ होने का, नोबडी होने का भीतर बोध है, वह हम समबडी होकर, कुछ होकर, कोई होकर, उसे भर लेना चाहते हैं।
डायोजनीज ने कहा कि जिसे यह खयाल है कि मैं महान हूं, वह जरूर छोटा आदमी होगा। फिर भी तुम कहते हो कि वह मिलने आना चाहते हैं, तो जरूर आएं। सिकंदर आया मिलने। इसके पहले कि सिकंदर कुछ पूछता, डायोजनीज ने ही उससे पूछा कि तुम्हारी ये बड़ी यात्रा किसलिए चल रही है? देखता हूं महीने से फौजे निकल रही हैं, युद्ध का सामान निकल रहा है, कहां जा रहे हो? क्या इरादे हैं? किस यात्रा पर निकले हो? सिकंदर ने कहा कि एशिया जीतना है, हिंदुस्तान जीतना है, सारी दुनिया जीतनी है। उसी यात्रा पर हूं। डायोजनीज ने पूछा कि सब जीत लोगे, तो फिर क्या करोगे? उसने कहाः फिर आराम करूंगा, फिर आनंद से रहूंगा। डायोजनीज खूब हंसने लगा, सिकंदर ने पूछा, इसमें हंसने की कौन सी बात है? डायोजनीज ने कहाः बड़े पागल हो, अगर आनंद से ही रहना है और आराम ही करना है, तो मैं आराम कर रहा हूं और आनंद से रह रहा हूं। तो मेरे इस झोपड़े में दो के लायक काफी जगह है, रुक जाओ। तुम भी आनंद से रहो और आराम करो।
अगर सारी दौड़ के बाद आराम से रहना और आनंद से ही जीना है, तो सारी दौड़ के बाद क्यों, पहले क्यों नहीं? यह भी तो हो सकता है कि दौड़ में जीवन समाप्त ही हो जाए। और जिसके लिए दौड़े थे, वह आनंद कभी उपलब्ध न हो? और डायोजनीज ने कहा कि अब तक ऐसा ही हुआ है, तुम अकेले नहीं हो, इस यात्रा पर निकले हुए, सभी लोग इसी यात्रा पर निकले हुए हैं, सभी छोटे-मोटे सिकंदर हैं, सभी दुनिया को जीतने को निकले हुए हैं। सिकंदर ने कहाः बात तो तुम ठीक कहते हो, लेकिन अब तो मैं आधी यात्रा पर निकल भी आया, अब कैसे आधी यात्रा से वापस लौटूं। उस नंगे फकीर ने कहा, जो आधे से नहीं लौट सकता, वह कभी नहीं लौट सकता। क्योंकि यात्रा तो कभी पूरी नहीं होगी, तुम पूरे हो जाओगे। मन की कोई यात्रा कभी पूरी नहीं होती। विजय की कोई यात्रा कभी पूरी नहीं होती।
और यही हुआ। सिकंदर वापस नहीं लौट पाया। बीच यात्रा में मर गया। और तब एक कहानी यूनान में प्रचलित हो गई, किसी बहुत उर्वर मस्तिष्क ने वह कहानी गढ़ी होगी, और बड़ी मधुर है।
संयोग की ही बात थी कि जिस दिन सिकंदर मरा, उसी दिन डायोजनीज भी मरा। और तब यूनान में एक कहानी प्रचलित हो गई कि बैतरणी पार करते वक्त, स्वर्ग में जाते समय, दोनों का फिर से मिलना हो गया। सिकंदर आगे था, थोड़ी देर पहले मरा था..ड़ायोजनीज पीछे था। सिकंदर ने पीछे आवाज सुन कर लौट कर देखा कि कौन है, तो डायोजनीज था। आज उसे बड़ी शर्म मालूम होने लगी। क्योंकि जब पहली दफा मिला था, तो वह बादशाह के वस्त्रों में था और डायोजनीज नंगा था। और आज भी डायोजनीज नंगा था और सिकंदर भी नंगा था। उसे बड़ी बेचैनी हुई। डायोजनीज हंसने लगा और उसने कहा कि तुम नंगे किए गए हो, मैं नंगा हुआ था। तुम से वस्त्र छीने गए हैं, मैंने वस्त्र छोड़े थे। उस दिन तुम्हें खयाल रहा होगा, तुम्हारे पास कुछ है और तुमने सोचा होगा इसके पास कुछ भी नहीं। जो मेरे पास उस दिन था, आज भी मेरे पास है। औैर जो तुम्हारे पास उस दिन था आज तुम्हारे पास नहीं है। जो मेरे पास था, जो मेरे पास सदा हो सकता था, उसको ही मैंने बचा लिया था, जो तुम्हारे पास था, और सदा तुम्हारे पास नहीं हो सकता था उसको ही पाने का तुमने श्रम किया था। बातचीत करके सिकंदर ने टालना चाहा, सिकंदर ने कहा कि बड़ी खुशी है, आज फिर एक बादशाह और एक फकीर का मिलना हो गया। डायोजनीज हंसा और उसने कहा कि यही भूल उस दिन भी हुई थी वही भूल फिर हो रही है। तुम ठीक ही कहते हो कि एक बादशाह और एक फकीर का मिलना, लेकिन थोड़ी भूल करते हो कि कौन बादशाह है, कौन फकीर? बादशाह पीछे है, फकीर आगे है। सिकंदर आगे था, डायोजनीज पीछे था। क्योंकि मैं सब कुछ पाकर लौट रहा हूं और तुम सब कुछ गंवा कर लौट रहे हो।
यह जो वैतरणी पर बात हुई होगी, पता नहीं किसने सुनी। लेकिन किसी ने सुन ली होगी इसलिए खबर यहां तक आई है। दो ही तरह के लोग हैं, एक वे जो जीवन की संपदा कमा लेते हैं और आंनद को उपलब्ध हो जाते हैं। और एक वे जो मन की दौड़ में पड़ते हैं, जीवन को गंवा देते हैं और आनंद को भी। और केवल दुख और अशांति को उपलब्ध कर पाते हैं।
सिकंदर उस दिन रो रहा था। डायोजनीज पहले दिन हंस रहा था, अब भी हंस रहा था।
असल में क्या है इस मन की दौड़ में? ऐसा प्रतीत तो होता है कि कुछ मिल रहा है, छोटा मकान बड़ा बन जाता है; छोटी जमीन बड़ी हो जाती है; छोटा राज्य बड़ा हो जाता है। थोड़ी मुद्राएं ज्यादा हो जाती हैं। थोड़े लोग फूलमालाएं नहीं, बहुत लोग फूलमालाएं पहनाते हैं। छोटे गांव के चुनाव में नहीं, बड़े गांव के चुनाव में जीत हो जाती है। लेकिन क्या होता है इस सबमें कि मन वहीं के वहीं अधूरा दुखी और पीड़ित रह जाता है। कोई बात है। बात यह है हमारा खालीपन भीतर है; वह जो एंप्टीनेस है, वह जो खालीपन है जिसको हम भरना चाहते हैं, वह भीतर है। और मन जो भी कमा कर लाता है, वह बाहर होता है। खालीपन है भीतर और मन की सारी कमाई होती है, बाहर। एक तरफ मन इकट्ठा करने लगता है, और भीतर का खालीपन भीतर बना रहता है, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। उसमें कोई भेद नहीं पड़ता है। इसलिए एक छोटा मकान बड़ा मकान हो जाता है, वह जो आदमी छोटे मकान में रहता था, वह बड़ा नहीं हो पाता बड़े मकान में जाने से। वह भीतर का खालीपन भीतर बना रहता है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
अमरीका का करोड़पति एण्ड्रू कारनेगी मरा, तो उसके पास कोई चार अरब रूपये थे। संभवतः सर्वाधिक संपत्ति उसके पास थी, उन दिनों। उसके एक मित्र ने पूछा कि एण्ड्रू तुम तो शांति से और आनंद से मर रहे होओगे। एण्ड्रू ने कहा कैसी शांति और कैसा आनंद? कुछ भी तो नहीं कर पाया, दस अरब कमाने की मेरी योजना थी, कुल चार ही कमा पाया हूं। चार! और दस की थी योजना। क्या सोचते हैं? चार उसने ऐसे कहा जैसे चार रूपये, चार अरब रूपये थे। कुल चार ही कमा पाया हूं, दस की योजना थी। क्या सोचते हैं, दस कमा लेता तो फर्क पड़ता? नहीं पड़ता क्योंकि जब तक दस कमाता तो योजना सौ की हो जाती। योजना हमसे आगे चलती है, मन हमसे आगे चलता है। हम जहां होते हैं, मन हमसे बहुत आगे होता है। हम जितना आगे बढ़ते हैं, मन और आगे बढ़ जाता है। हम जहां भी पहुंचते हैं, पाते हैं मन से हमेशा पीछे हैं। और पीछे होना दुख से भर देता है, पीड़ा से भर देता है। और फिर सारा श्रम करके जो हम कमा पाते हैं, चाहे वह धन हो, चाहे यश, सबको कमाकर हम पाते हैं, भीतर का खालीपन मौजूद है, वैसा का वैसा मौजूद है।
छोटी बच्चों की किताब हैः अलाइस इन वंडरलैंड। अलाइस नाम की लड़की परियों के मुल्क में चली गई। जमीन से परियों के देश तक यात्रा करने में थक गई, भूख लग आई। वह जैसे ही परियों के मुल्क में पहुंची, उसने देखा बड़ी शीतल हवाएं हैं, सूरज निकल रहा है, सुबह हो रही है। और दूर एक वृक्ष के नीचे घनी छाया में परियों की रानी खड़ी है। हाथ में मिठाइयां हैं, फल हैं और बुला रही है, पास ही, थोड़ी ही दूर पर। जरा भी देर नहीं कि अलाइस वहां पहुंच सकती है। वह बुला रही है, भूखी है अलाइस। उसने भागना शुरू किया। वह दौड़ी, दौड़ती गई, दौड़ती गई।
थोड़ी देर में उसे एक अजीब अनुभव होने लगा। वह दौड़ रही है, तेजी से दौड़ रही है, लेकिन फासला कम नहीं होता। डिस्टेंस उतने का ही उतना। वह रानी अब भी उतनी ही दूर दिखाई पड़ती है, जितनी दूर तब थी, जब उसने दौड़ना शुरू किया था। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया। वह थक कर पसीने से चूर होकर गिर पड़ी। और उसने चिल्ला कर पूछा कि क्या बात है? मैं सुबह से दौड़ रही हूं दोपहर हो आई, लेकिन तुम्हारा वृक्ष, तुम्हारी घनी छाया, तुम्हारे फूल, तुम्हारे फल, तुम, तुम्हारे मिलने की आशा दूर क्यों होती जाती है? उतनी की उतनी दूर होती जाती है? अब भी मैं देखती हूं कि फासला उतना ही है। फासला बहुत कम होगा, उसने चिल्ला कर पूछा।
रानी ने कहाः सोच-विचार में मत पड़ो। समय है कम, सूरज ढलने को हुआ, दौड़ो। समय है कम, सोच-विचार में मत पड़ो, सूरज ढलने का वक्त हुआ जाता है। सूरज उतरने लगा पश्चिम में, दौड़ो, भागो। कोशिश करो। वह लड़की फिर दौड़ने लगी।
समय था कम, सांझ हो जाएगी, सूरज डूब जाएगा, अंधेरा घिर आएगा, फिर कैसे दौड़ेगी। अभी कम से कम दिखाई पड़ता है। फासला है, लेकिन फिर भी पैरों में ताकत है, बाहर रोशनी है। फिर दौड़ने लगी। सांझ भी हो गई, सूरज भी डूबने लगा, अब तो वह घबड़ाई और उसने चिल्ला कर कहा कि कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से सांझ हो गई दौड़ते-दौड़ते, फासला खत्म नहीं होता, अंतर मिटता नहीं। कैसी दुनिया है, कैसी अजीब दुनिया है? क्या पागलपन है यह?
उस रानी ने कहाः तुम अभी बच्ची हो, जो ब.ूढे हैं वे जानते हैं, जिस दुनिया से तुम आ रही हो, उस दुनिया में भी फासले मिटते नहीं है। उसने कहा तुम अभी बच्ची हो, जानती नहीं हो। तुम जिस दुनिया से आ रही हो, उस दुनिया में जो बूढ़े हैं, वे जानते हैं फासले वहां भी मिटते नहीं है।
दौड़ता है आदमी सुबह से सांझ तक, बचपन से बुढ़ापे तक। घनी छाया दिखाई पड़ती है आगे। आशा आगे दिखाई पड़ती है, सब हो जाएगा, आ जाओ। सोचो मत, समय है कम, दौड़ो, लेकिन अंत में पाया जाता है, फासला उतना ही है, जितना जब यात्रा शुरू की थी। मरते वक्त आदमी आंनद से उतना ही दूर होता है, जितना जन्म के समय। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ‘अलाइस इन वंडरलेंड’ वाली यात्रा है। कहीं कोई पहुंचता नहीं है, कभी कोई कहीं नहीं पहुंचा। और किसी दुनिया में, परियों की दुनिया में ही नहीं, मनुष्यों की दुनिया में कभी कोई कहीं नहीं पहुंचा।
कोई रास्ता कहीं नहीं ले जाता। कोई रास्ता कहीं नहीं ले जाता है। सब रास्ते केवल रास्ते हैं, उनके पीछे कोई मंजिल नहीं है, चलते हैं जीवन चुक जाता है। पहंुचते नहीं हैं, पहंुचना असंभव है। और इस न पहंुचने में पीड़ा बढ़ती जाती है। इस न पहंुचने में पीड़ा बढ़ती जाती है, और जैसे-जैसे यह स्पष्ट होने लगता है कि सूरज ढलने लगा और मौत करीब आने लगी, शक्ति क्षीण होने लगी, और दौड़ कहीं ले जाती नहीं मालूम पड़ती। अशांति गहन से गहन होती चली जाती है।
तो जो युवा हैं, वे तो फिर भी भ्रम में दौड़ लेते हैं, लेकिन जो बूढ़े हो गए, जिनका युवा होने का भ्रम टूट गया, उनकी कठिनाई और गहरी हो जाती है। और गहरी हो जाती है। और जिस चीज से दौड़ते हैं, जिस चीज से बचते हैं, वह खालीपन, वह ना कुछ होना, वह भीतर का शून्य, वह भरता नहीं, वह वहीं का वहीं खड़ा रहता है, इसलिए बच्चे ज्यादा सुखी मालूम होते हैं। क्योंकि उन्हें अपने भीतर के शून्य का कोई पता नहीं, भीतर के अभाव का कोई पता नहीं। बूढ़े दुखी मालूम होते हैं, उन्हें अपने भीतर के अभाव का भी पता चल गया और इस बात का भी पता चल गया कि उसे भरना असंभव है।
बीच में जवान हैं, वे बेचारे दौड़ते हैं। उनमें थोड़ा बचपन है अभी, अभी प्रौढ़ता नहीं है, अभी वे दौड़ेंगे, दौड़ेंगे, परीक्षण करेंगे, दौड़ कर देखेंगे।
मनुष्य-जाति अनुभव से बहुत कुछ सीखी नहीं है। कोई बहुत बड़ी बात हमने सीखी नहीं है, और इसीलिए आदमी जब बूढ़ा हो जाता है, तब भी याद करता है बचपन के दिन बहुत अच्छे थे, कवि गीत गाते हैं, बचपन बहुत अच्छा था। ये कवि निश्चित ही वे ही असफल लोग होंगे जिन्होंने बुढ़ापे में जाकर आनंद की सारी संभावनाओं को समाप्त हुआ पाया। नहीं तो बचपन आनंद होना चाहिए? बचपन तो शुरुआत है। तो जीवन आगे जाना चाहिए या नीचे जा रहा है? जो बूढ़ा आदमी याद करता है, बचपन सुंदर था, सुखद था, वह असफल है। वह बूढ़ा आदमी असफल हो गया, इसलिए तो नहीं तो बचपन को कोई संुदर और सफल कहता, और आनंद कहता?
बचपन तो शुरुआत है। विकास होना चाहिए था आनंद का। बुढ़ापे तक पहुंचते-पहुुंचते आनंद के शिखर उपलब्ध होने चाहिए थे, तो आनंद के कोई शिखर उपलब्ध नहीं हुए। इसलिए कवि गीत गाते हैं बचपन के, सुखी होने के। यह असफल जीवन का परिणाम होगा। नहीं तो बचपन की कौन याद करेगा? बचपन में क्या था, कुछ भी तो नहीं था। सिर्फ अभाव का बोध नहीं था। युवा होते-होते अभाव का बोध पैदा होता है। बूढ़े होते-होते अपनी असामथ्र्य का पता चलता है, कोई अभाव पूरा नहीं होता। और तब पूरा जीवन एक फ्रस्टेªशन, एक, एक अशांति।
पश्चिम में इधर पिछले पचास वर्षों में कुछ बहुत विचारशील लोगों ने आत्मघात किए। आत्मघात तो दुनिया में हमेशा से होते रहे हैं, लेकिन आत्मघात किए थे उन लोगों ने जो विचारशील नहीं थे। इधर पचास वर्षों में एक नई घटना घटी है मनुष्य के इतिहास में, आत्मघात किए हैं उन्होंने जो विचारशील हैं। स्टेफिंग जेक और उसकी पत्नी दोनों ने आत्मघात किया, और आत्मघात के पहले एक मित्र को एक पत्र में लिखा कि हम जीवन को इसलिए छोड़ रहे हैं, कि हम इसमें कोई भी सार्थकता नहीं पाते। कोई मीनिंगफुलनेस नहीं है। कोई अर्थ नहीं है।
निजिंस्की नाम के एक, एक नृत्यकार ने आत्मघात किया, और अपने मित्रों को लिखा कि तुम भी कर लेना। जो लोग जिंदा हैं, उनके जिंदा होने का सिवाय कायरता के और कोई कारण नहीं है। निजिंस्की ने लिखा, जो लोग जिंदा हैं, उनके जिंदा होने का सिवाय कायरता के, कावर्ड होने के और कोई कारण नहीं है। क्योंकि जिंदगी में न तो कोई अर्थ है और न कोई आनंद है।
हम सोचते थे कि जो कायर हैं वे आत्मघात कर लेते हैं, निजिंस्की सोचता है, जो जिंदा हैं वे कायर हैं। जो आत्मघात कर लेते हैं, वे साहसी लोग हैं।
बात तो कुछ अर्थपूर्ण मालूम पड़ती है। क्या है जिंदगी में जिसके लिए जीते हैं? क्या है? कौन सी ऐसी बात है, जिसके लिए जीएं? और अगर कुछ भी नहीं है जिंदगी में फिर क्यों जी रहे हैं? मरने का एक भय है, इसलिए जी रहे हैं। मरने से एक डर है इसलिए जी रहे हैं, और क्या है जीने में? कोई आनंद नहीं है, कोई कृतार्थता नहीं है, कोई धन्यता का भाव नहीं है। कोई संगीत नहीं भीतर फूटा है, कोई फूल नहीं खिले है आत्मा में, कोई सुगंध नहीं, कोई प्रकाश नहीं। फिर किसलिए जी रहे हैं? लेकिन निजिंस्की की बात थोड़ी दूर तक ही सही है। अगर यह तय हो जाए कि जीवन में आनंद संभव नहीं है, तो बात सही है। लेकिन मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं--जीवन तो आनंद है, हम आनंद को किसी गलत दिशा में खोज रहे हैं, इसलिए आनंद उपलब्ध नहीं होता है।
मैंने सुना है कि पेकिंग के पास से एक यात्री निकलता था। उसने एक छोटे से बच्चे को पूछा, जिस रास्ते पर जा रहा था उस तरफ से एक बच्चा आता था, उससे पूछा, कि मैं पेकिंग जा रहा हूं, कितनी यात्रा करनी पड़ेगी? उस बच्चे ने कहा बहुत लंबी यात्रा, हजारों-हजारों मील की लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। पेकिंग बहुत दूर है। उस व्यक्ति ने कहा लेकिन, हजारों-हजारों मील की? मुझे तो किसी ने कहा था कि कुछ ही मील पर है। उस बच्चे ने कहाः जिस तरफ आप जा रहे हैं, उस तरफ से पूरा जमीन का चक्कर लगाइएगा, तब पेकिंग पहुंच पाइएगा। ऐसे तो पेकिंग पीछे है, और डेढ़ मील का फासला है। लेकिन उस तरफ आपकी पीठ है।
आनंद तो बहुत निकट है, लेकिन अगर हमारी पीठ हो उसकी तरफ तो क्या हो सकता है? तो पेकिंग तो हजारों-हजारों मील के बाद आ भी जाएगा, आनंद नहीं आ पाएगा। हजारों-हजारों मील के बाद भी नहीं आ पाएगा। पीठ उसकी तरफ हमारी हो, तो कैसे आ पाएगा? हमारी पीठ है, आनंद की तरफ। जिस आदमी का ध्यान मन की तरफ है, उसकी पीठ आनंद की तरफ है। और हमारा सारा ध्यान मन को भरने की तरफ है।
यह जो हमारे मन को भरने की आकांक्षा है, इसे थोड़ा समझना जरूरी है, तो शायद हमारा ध्यान जीवन की स्फूर्णा की तरफ आ जाए, जहां आनंद है। आनंद को पाना नहीं है, जो भी चीज पाने के जैसी मालूम पड़े वह मन की आकांक्षा है। आनंद हमारा स्वभाव है, उसे पाना नहीं है। अगर हम पाने की दौड़ छोड़ कर देख सकें, तो आनंद निरंतर उपलब्ध है।
इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं आपसे कि आप आनंद पाने में लग जाएं, पाने की दौड़ में। कुछ धार्मिक लोग यह समझाते हुए पाए जाते हैं, वे कहते हैं कि आनंद को खोजो, परमात्मा को खोजो, वे कहते हैं मोक्ष को खोजो; यह जो भाषा है, खोजने की गलत है। खोजते उसे हैं, जिसे हम खो सकते हों। परमात्मा को खोया नहीं जा सकता है। परमात्मा को खोना असंभव है। इसलिए खोजने की बात नासमझी से भरी है। खोजते उसे हैं, जो हमारा स्वरूप न हो, हमारा स्वभाव न हो। इसलिए संसार खोजा जाता है, परमात्मा पाया जाता है। उसे खोजा नहीं जाता, वह है, वह निरंतर है। और जिसे हम खोज कर पा लेंगे, वह एक दिन फिर खो सकता है। उसके होने की कोई निश्चय नहीं है।
सिकंदर ने आखिर बादशाहत पा ही ली थी, लेकिन वह खो गई। मन जो भी खोज कर पा लेता है, वह खो जाएगा। मन स्वरूप को नहीं जान पाता और सब कुछ जान लेता है और सब कुछ खोज लेता है। इसलिए मैं यह नहीं कहता हूं आनंद को खोजें, परमात्मा आनंद है,यह मैं नहीं कहता हूं। मोक्ष को खोजें यह मैं नहीं कहता हूं। क्योंकि जिस चीज को आप खोज बना लेंगे, वह आपके मन की आकांक्षा हो जाएगी। इसलिए जिन्हें हम संन्यासी कहते हैं, जो ईश्वर को खोज रहे हैं, मोक्ष को खोज रहे हैं, ये उसी भांति मन के बीमार हैं, जिस भांति वे लोग जो धन को खोज रहे हैं, यश को खोज रहे हैं।
खोजना बीमारी है। धन खोजना नहीं--खोजना।
क्योंकि खोजना हमेशा भविष्य में होता है, और जीवन हमेशा वर्तमान में है। जी तो मैं अभी रहा हूं, और खोज, खोज हमेशा कल के लिए होती है, कल पाऊंगा। खोज हमेशा भविष्य में है, और जीवन सदा वर्तमान में है। इसलिए जो खोजता है, वह खो देता है, जीवन को खो देता है। जीवन को पाना नहीं है, जीवन है। जीवन के प्रति जागना है।
जब भी हम पाने की भाषा में सोचते हैं, तो पाने की भाषा में हमेशा टाइम, समय लगता है। कल, परसों, अगले वर्ष, अगले जन्म में हमेशा समय लगता है। बीच में समय का अंतराल होता है, और क्या आपको पता है, कल कभी नहीं आता, कभी आया नहीं, कभी आएगा भी नहीं। जो आता है वह आज है, अब अभी। जो आता है इसी क्षण का क्षण है। आने वाला क्षण कभी नहीं आता। उस आने वाले क्षण की खोज में हम उस क्षण को गवां देते हैं, जो है। भविष्य की खोज में वर्तमान को खो देते हैं।
तो स्मरण रखिए धर्म, सत्य, आनंद या परमात्मा भविष्य में नहीं है, मोक्ष भविष्य में नहीं है, है तो इसी क्षण है, अभी और यहां।
तो यदि मेरा मन कुछ भी न खोजे, और मैं केवल उसे जानूं जो है, तो वह उपलब्ध हो जाएगा जिसे हम खोज कर भी नहीं खोज पाते हैं। जो है अगर मैं उसे जानूं, अगर मैं उसमें जाग जाऊं । लेकिन नहीं, हम जीते हैं आगे की तरफ। कुछ लोग जीते हैं पीछे की तरफ, कुछ लोग जीते हैं आगे की तरफ इसलिए ये दोनों तरह के लोग कभी भी जीते नहीं हैं।
जो पीछे की तरफ जीता है, वह अतीत में जीता है, पास्ट, जो बीत गया। स्मृति में। बूढ़ा आदमी अतीत में जीता है, पीछे की तरफ। उसके आगे कुछ भी नहीं बचता, अब आगे होती है मौत। इसलिए पीछे की स्मृतियों में जीता है। बूढ़ा आदमी हमेशा लौट-लौट कर पीछे देखता रहता है। बूढ़ी कौमें, बूढे देश भी पीछे की तरफ जीते हैं।
हमारा ही मुल्क है, बूढ़ा देश है, वह पीछे की तरफ जीता है। पूछो स्वर्णयुग कब था? वह कहता है पीछे बीत गया, राम के समय में था। सतयुग बीत गया, आगे? आगे कुछ भी नहीं है, सब पीछे था। गीता लिखी जा चुकी, रामायण लिखी जा चुकी; सतपुरुष हो चुके आगे, आगे...कुछ भी नहीं है। सब पीछे था। बूढ़ा आदमी, बूढ़ा मन पीछे की तरफ जीता है, बूढ़ी कौमें पीछे की तरफ जीती हैं। तो जब भी आप पीछे की तरफ जीने लगें, समझ लेना बूढ़े हो गए। जिस दिन भी पता चल जाए कि अब मैं पीछे की तरफ जीने लगा हूं, समझ लेना बूढ़े हो गए।
बच्चे, बच्चे भविष्य की तरफ जीते हैं। आगे, उनका सारा सब कुछ, आगे होता है। बच्चे भविष्य की तरफ जीते हैं। नई कौमें भविष्य की तरफ जीती हैं, अमरीका जैसी कौमे भविष्य की तरफ जीती हैं,और आगे, और आगे अच्छा होगा, अच्छा होगा। बच्चे भविष्य की तरफ जीते हैं, बूढ़े अतीत की तरफ। और जवान तो मुश्किल से कभी कोई होता है। जवान मुश्किल से कोई कभी होता है। जवान का ठीक-ठीक अर्थ होना चाहिए जो वर्तमान के प्रति जीता है।
और वर्तमान के प्रति तो मुश्किल से कोई कभी जीता है। बच्चे से आदमी बूढ़ा हो जाता है, जवान हो ही नहीं पाता। जो आदमी जवान हो जाए, जो मौजूद है उसके प्रति जीने लगे, वही यंग माइंड है, जो मौजूद है, उसके प्रति जीने लगे, जो है, उमसें जीने लगे। वह आदमी आनंद को उपलब्ध हो जाए।
युवा मन आनंद को उपलब्ध हो सकता है, सिर्फ युवा मन ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और कोई, बूढ़े का मन कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता। बच्चे का मन कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता। लेकिन बचपन और बुढ़ापे...उम्र की बातें नहीं कर रहा हूं। मन की दिशा की बात कर रहा हूं। एक बूढ़ा आदमी अगर वर्तमान में जीता हो, तो युवा है। और एक युवा आदमी अगर अतीत में जीता हो, तो बूढ़ा है, भविष्य में जीता हो, तो अभी बच्चा है।
यंग माइंड ही धार्मिक मन है--युवा मन। और युवा मन का अर्थ हैः वर्तमान के प्रति जो है। क्या है? उसके प्रति हम कैसे जी सकते हैं?
एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात खयाल में आ सके। बहुत पुरानी कथा है, एक युवक गुरुकुल से वापस लौटा। उसकी शिक्षा पूरी हो गई, उसके साथी भी सब वापस हुए। उसके साथियों ने अपने गुरु को बहुत तरह की भेंटें दीं, कोई राजपुत्र था, कोई बहुत बड़े धनी का पुत्र था, लेकिन वह युवक बहुत ही दरिद्र और गरीब था। उसके पास देने को कुछ भी नहीं था। उसके मन को बहुत पीड़ा हुई, उसने गुरु के पैरों पर सिर रखा, आंसू गिराए और कहा, मुझे क्षमा कर दें। मेरे पास तो भेंट देने को कुछ भी नहीं है। गुरु ने कहाः तुम प्रेम देते हो, और प्रेम में गिरे आंसुओं से मूल्यवान क्या है? लेकिन फिर भी वह युवक माना नहीं, और उसने कहा कि मुझे एक वचन दें, तब ही मैं यहां से उठूंगा। कि जब भी मेरे पास कुछ भेंट करने को हो, और मैं देने आऊं तो आप अस्वीकार नहीं करेंगे। जब भी, कभी भी मेरे पास कुछ होगा और मैं देेने आऊंगा, तो आप उसे स्वीकार कर लेंगे, यह आश्वासन दें, तो ही मैं यहां से जाऊंगा। गुरु को आश्वासन देना पड़ा।
वह युवक चलता हुआ अपने देश की राजधानी में पहुंचा और रात एक मित्र के घर ठहरा। उसने अपने मित्र से कहा कि मैं बहुत दुखी हूं, मैं अपने गुरु को कुछ भेंट नहीं कर पाया। उस मित्र ने पूछाः क्या भेंट करना चाहते हो? गरीब का लड़का था, इसलिए उसका गणित ज्यादा नहीं जा सका। उसने कहा पांच स्वर्ण-मुद्राएं मुझे मिल जाएं, तो मैं गुरु को भेंट कर दूं। पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी इकट्ठी उसने कभी नहीं देखी थीं। उसके मित्र ने कहाः तुम निशिं्चत सो जाओ, सुबह थोड़े जल्दी उठ आना, यहां का जो राजा है, वह पहले याचक को, उसके द्वार पर जो पहला भिखारी होता है, जो भी मांगता है, देता है। तो तुम थोड़े जल्दी चले जाना। और राजा से पांच स्वर्ण-मुद्राएं मांग लेना।
वह युवक रात भर नहीं सो सका। बहुत जल्दी द्वार पर पहुंच गया राजा के। राजा निकला, तो वह अकेला ही था। उस युवक ने कहा कि मैं पहला याचक हूं, क्या आप मुझे वचन देंगे कि मैं जो भी मागूंगा वह आप देंगे? उस राजा ने कहाः न केवल आज के बल्कि मेरे पूरे जीवन के तुम पहले याचक हो, अब तक कोई आया ही नहीं। देश बहुत समृद्ध है, कोई मांगने आता नहीं। तुम पहले ही याचक हो, तुम जो भी मांगोगे, मैं दूंगा।
युवक सोच कर आया था पांच स्वर्ण-मुद्राएं मांग लूंगा। उसने पूछा जो भी मैं मांगूगा, वही देंगे? उस राजा ने कहाः जो भी तुम मांगोगे। पांच की संख्या बड़ी हो गई, उसने सोचा जब राजा कहता है, जो भी मैं मागूंगा वही दे देगा, तो क्यों न पांच सौ मांग लूं? या पांच हजार, या पांच लाख? गणित का जाल तो बड़ा है, वह चिंता में पड़ गया कि क्या मांगूं? क्योंकि जो भी मांगने को हुआ, ज्ञात हुआ कि संख्याएं और भी आगे शेष हैं। राजा ने देखा चिंतित हो, तो उसने कहा कि तुम सोच लो, मैं बगिया का एक चक्कर लगा आऊं । तुम विचार कर लो। राजा गया, संख्याएं अपनी अंतिम सीमा पर पहंुच गईं, जहां तक उसने गणित सीखा था, वहां तक। और तब उसे बहुत दुख होने लगा कि मैंने गणित की संख्याएं और क्यों न सीख लीं? आज उसे तकलीफ मालूम हुई कि और ज्यादा संख्याएं आती होतीं। यह मौका हाथ से जाता है।
राजा करीब आने लगा, वह बहुत बेचैनी में था, वह भूल गया, पांच स्वर्ण-मुद्राएं भूल गया, गुरु भूल गया देना। तो संख्याएं थीं और संख्याएं थीं, तभी उसे अचानक खयाल हुआ कि संख्याओं में न पडूं तो ही अच्छा है, मैं कितना ही मांगूंगा पता नहीं पीछे कितना शेष रह जाए, जो जीवन भर दुख दे। क्योंकि जो हमारे पास होता है वह सुख नहीं देता, जो हमारे पास नहीं होता, वह दुख देता है। तो उसने सोचा कि मैं सभी मांग लूं कि जो भी तुम्हारे पास है सब दे दो। पीछे कुछ शेष नहीं रहेगा। गणित में झंझट नहीं रहेगी। जैसा मैं आया हूं, दो कपड़े पहने हुए वैसे दो कपड़े पहने हुए आप बाहर हो जाएं। सारा राज्य, सारी संपत्ति मुझे दे दें।
राजा आया, वह खुश हुआ, उसने कहाः मालूम होता है तुमने निश्चय कर लिया। बोलो। उस युवक ने नीचे आंख करके बहुत संकोच में कहा कि सब मुझे दे दें। जो भी आपके पास है, उसमें से कुछ भी बचाएं नहीं। दो कपड़े आप पर छोड़े देता हूं, वह भी बड़ी कठिनाई से मन में छोड़ा होगा, दो कपड़े! दो कपड़े जाते हैं, लेकिन थोड़ा शिष्टाचार भी तो खयाल में रहा होगा कि नंगा भेजे राजा को, तो थोड़ा ठीक नहीं। ऐसे तो इतना शिष्टाचार भी जब रुपये मिलते हों, तो कौन खयाल रखता है। नहीं तो दुनिया में इतना नंगापन कैसे होता, इतनी गरीबी कैसे होती? इतना कौन खयाल रखता है जब पैसे आते हों। फिर भी युवक बहुत विचारवान रहा होगा, बहुत शिष्ट, इसलिए दो कपड़े उसने छोड़े, नहीं तो दुनिया में कितने लोग हैं, जिनके पास कपड़े नहीं हैं। हममें से हम लोगों ने कपड़े भी नहीं छोड़े हैं।
खैर, उसने राजा को कहा कि सब छोड़ जाएं, ये दो कपड़े पहने आप निकल जाएं, जैसे मैं द्वार से भीतर आया, आप बाहर हो जाएं। सोचा था, राजा घबड़ा जाएगा। लेकिन घबड़ाने की नौबत लड़के को ही आ गई। राजा ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और कहा, हे परमात्मा! जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी वह आ गया। कितनी प्रार्थनाएं की, कितनी प्रार्थनाएं की, तब तूने उस आदमी को भेजा है। उस युवक को गले लगा लिया और कहा कि भीतर जाओ, और मैं बाहर जाता हूं। परमात्मा तुम्हें सुखी रखे।
वह युवक बहुत घबड़ाया। इसकी कल्पना न थी। इसका कोई खयाल भी नहीं था। उसने राजा को रोका, बाहर जाते राजा को कि ठहरें एक मिनट। क्या आप जाते हैं सब छोड़ कर? राजा ने कहाः छोड़ दिया और मैं जा चुका। तुम भीतर जाओ। वह युवक बोलाः रुक जाएं, एक मौका मुझे सोचने का और दें। मैं अनुभवी नहीं हूं, मैंने जीवन नहीं देखा। लेकिन जो आप कर रहे हैं, मुझे एक क्षण और सोचने का दें। आप एक बार और बगीचा घूम आएं। उस राजा ने कहाः मुश्किल है। मैं नहंी जा सकूंगा घूमने अब। और सोच-विचार के लिए जीवन पड़ा है, इतनी जल्दी क्या है? सम्हालो इस सबको, सोचते-विचारते रहना और मुझे जाने दो। इतनी जल्दी क्या है? अभी तो तुम...उम्र भी कम है, सोचना-विचारना। आखिर मैंने भी जिंदगी सोचा-विचारा, तुम भी सोचना-विचारना। उस युवक ने कहा कि नहीं, पैर पकड़ लिए उसने राजा के और कहाः आप एक मौका मुझे दें।
राजा फिर गया। जो होना था वही हुआ। लौट कर युवक को वहां नहीं पाया, वह भाग गया था, वह पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी छोड़ गया था। वह घर पहुंचा तो बहुत खुश था, उसके मित्रों ने कहा मिल गईं, मुद्राएं? उसने कहा कि मुद्राएं तो नहीं मिलीं, लेकिन मुद्राएं पाने का खयाल ही चला गया। और तब जो मुझे मिल गया है, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। आज जीवन में मैं पहली दफा शांत हूं आज मन पर कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, आज चीजें एकदम जैसे सन्नाटे से भर गई हैं। भीतर सब मौन हो गया है, भीतर कोई दौड़ नहीं है। आज मैंने आंख खोल कर जो देखा और जाना है, उसने मेरी सारी दौड़ तोड़ दी। लेकिन कितने लोग हैं जो आंख खोल कर इस भांति देखेंगे और जानेंगे?
हमारी सारी शिक्षा, हमारा सारा समाज दौड़ सिखाता है। हमारी सारी संस्कृति दौड़ सिखाती है, पूरब की भी पश्चिम की भी। इससे फर्क नहीं पड़ता। दौड़ सिखाती है। मन को दौड़ सिखाती है। छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी और बड़ी कुर्सी की तरफ यात्रा करवाती है। और जो सबसे ऊपर की कुर्सी पर पहंुच जाता है, चाहे जीवन खो देता हो, वहां पहुंचने में, फिर हम उसे फूल की मालाएं पहनाते हैं और खूब ताली बजाते हैं और शोरगुल मचाते हैं। उसको ऊपर खड़े देख कर बाकी सारे लोगों के मन में भी वहीं पहुंचने की आकांक्षा जगती है और दौड़ पैदा होती है। इस दौड़ में न कभी कोई शांत हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि शांति थी भीतर, अभी और यहीं। और दौड़ ले गई बाहर, कभी और कहीं। कहीं दूर ले गई।
ोीश ारींींशी रषींशी ींहळी ळप ऊरीळूर ऊशज्ञहश गरपळूश ंच्6.
नोटः दरिया देखे जानिए नंबर 6 को पढ़ने से ऐसा लगता है कि यह प्रवचन आपने आप में पूरा है ऊपर वाला हिस्सा। नीचे वाला हिस्सा किसी और प्रवचन का टुकड़ा लगता है।
प्लीज चेक दरिया देखे जानिए ओल्ड बुक नंबर 6। बुक में थोड़ा और मैटर है जो टाइप नहीं है।
नोटः नीचे वाला मैटर नंबर दस बन गया इसी सीरिज का।
दरिया देखे जानिए ओल्ड बुक नंबर 6 लास्ट पार्ट
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हंू। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
शांति से बैठ जाएं। शरीर ढीला छोड़ दें। देखें, बहुत बढ़िया रात है, बहुत शांति की। अगर थोड़ा सा भी ठीक से प्रयोग किया, तो अभी, इसी क्षण अनुभव होगा। जरा सी बातों से खोया जा सकता है, जरा सी ना समझी से। बिलकुल शांत बैठें, एक प्रयोग करने के लिए भूमिका बनाएं मन की, बिलकुल शांत।
आंख बंद करें। शरीर को ढीला छोड़ें, जैसे शरीर में कोई प्राण नहीं है। शरीर बिलकुल ढीला होता जा रहा है। अब मैं सुझाव दूंगा दो मिनट तक, ठीक वैसा कही भाव करें। अपने आप थोड़ी देर में जो मैं कह रहा हूं वैसा ही होने लगेगा। शरीर के हम मालिक हैं, हम जैसा चाहें वैसा शरीर में हो सकता है।
अनुभव करें शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...भीतर ऐसा अनुभव करें पूरी शक्ति से कि शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर रिलैक्स हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर एकदम शिथिल और शांत होता जा रहा है। देखें, कोई किसी दूसरे की फिकर जरा भी न करें। शरीर एकदम शिथिल और शांत होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...एकदम छोड़ दें जैसे शरीर पर हमारी कोई ताकत नहीं। सारी शक्ति छोड़ दें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर एकदम शिथिल और शांत होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो गया। अनुभव करें शरीर शिथिल हो गया है। पूरे शरीर में शिथिलता अनुभव होगी। शक्ति जैसे चली गई। शरीर में कोई शक्ति नहीं है। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया...बिलकुल छोड़ दें, शरीर से अलग हो जाएं। शरीर शिथिल हो गया...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया...शरीर शिथिल हो गया...।
श्वास शांत हो रही है...श्वास को भी ढीला छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास एकदम शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...एकदम शांत छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...एकदम शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो गई। अनुभव करें श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...मन शून्य हो रहा है...मन एकदम शून्य होता जा रहा है जैसे मन में कुछ भी न हो। मन बिलकुल खाली और शून्य होता जा रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन बिलकुल शून्य होता जा रहा है...मन शून्य हो रहा है...अनुभव करें मन बिलकुल शांत और शून्य हो गया।
मन शांत और शून्य हो गया...मन शांत और शून्य हो गया...मन शांत और शून्य हो गया...मन बिलकुल शांत हो गया...मन बिलकुल शांत हो गया...मन शांत हो गया...मन शांति हो गया...मन शांत हो गया...मन शांत हो गया...मन शांत हो गया...मन शांत हो गया...।
मन दस मिनट के लिए बिलकुल शांत हो गया। मन दस मिनट के लिए बिलकुल शांत हो गया। मन शांत हो गया। मन बिलकुल शांत हो गया है। भीतर देखें, मन बिलकुल शांत हो गया। मन शांत हो गया।
सब शांत हो गया। इस शांति में और गहरे डूब जाएं। और गहरे डूब जाएं...और गहरे डूब जाएं...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...और गहरे डूब जाएं, मन शिथिल हो रहा है...।
शरीर शिथिल हो गया...बिलकुल छोड़ दें, शरीर से अलग हो जाएं। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास शांत हो रही है...श्वास को भी ढीला छोड़ दें...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास एकदम शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...एकदम शांत छोड़ दें...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...एकदम शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो गई है...अनुभव करें, श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...।
मन शून्य हो रहा है...मन एकदम शून्य होता जा रहा है...जैसे मन में कुछ भी न हो। मन बिलकुल खाली और शून्य होता जा रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...मन शून्य हो रहा है...।
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