सातवां प्रवचन-(अनूठी दिशा)
मेरे प्रिय आत्मन!अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं, और न ही मेरी कोई शिक्षाएं हैं, जो आपको स्वीकार करनी हैं। उपदेशकों से तो मनुष्य-जाति पीड़ित और परेशान रही है, बहुत उपदेशों का यह फल हुआ है, जो हम हैं। इन उपदेशों और शिक्षाओं में कुछ और जोड़ने की जरूरत नहीं है, जरूरत है कि कोई इस सारे बोझ को अलग कर ले। और मनुष्य का मन निर्दोष और ताजा हो सके।
मैं कोई शिक्षा आपको देने को नहीं हूं।
एक मित्र ने अभी-अभी कुछ दिन पहले मुझे बाहर के किसी देश से एक पत्रिका भेजी। उस पत्रिका में एक छोटा सा लेख था और उस लेख पर निशान लगा कर उन्होंने मुझसे पूछा कि एक-दो प्रश्न हैं, वे मैं आपसे पूछना चाहता हूं। क्या आप उत्तर देंगे?
उस लेख में दुनिया भर की अलग-अलग जातियों के संबंध में कुछ तथ्य दिए हुए थे। उसमें दिया हुआ था कि अगर इंग्लैंड का आदमी शराब पी ले, तो शराब पीने के बाद वह एकदम से बहुत-बहुत भोजन करने में लग जाता है। और अगर फ्रांस का आदमी शराब पी ले, तो रात भर नाचने-गाने को उत्सुक हो जाता है। और अगर डच शराब पी ले, या रूसी शराब पी ले तो वह क्या करते हैं? लेकिन भारत के संबंध में कोई बात नहीं कही गई थी, शायद उन्होंने सोचा हो कि भारत में लोग शराब नहीं पीते हों। या शायद उन्हें भारतीय चरित्र का कोई पता न हो, तो मेरे मित्र ने मुझसे पूछा था कि अगर कोई भारतीय शराब पी ले, तो वह क्या करेगा? तो मैंने कहाः इसमें कुछ पूछने की जरूरत नहीं है, शराब पीते ही वह उपदेश देगा। इसमें कोई भी विचार करने की जरूरत नहीं है।
भारत जैसा मुल्क तो उपदेशों से बहुत पीड़ित है। इधर पांच हजार वर्ष हमने सिर्फ उपदेश दिए हैं, और यह भी स्मरण रखें, जो कौम उपदेश देने में कुशल हो जाती है, वह सुनने में असमर्थ हो जाती है। उपदेश उन्होंने दिए हैं, लेकिन सुना उन्हें किसी ने भी नहीं है। सलाहें हमने दी हैं, लेकिन सलाहें स्वीकार नहीं की गई हैं। वे की भी नहीं जा सकतीं हैं। क्योंकि जहां उपदेश देने का बहुत आग्रह शुरू हो जाता है, वहां उपदेशों के जीवंत होने की सारी खोज बंद हो जाती है। वहां उपदेशों का एक अपना मजा पैदा हो जाता है, विचारों की एक अपनी दौड़ है, और अपनी संगति है, विचारों का अपना कोहरेंस होता है, जीवन से उसका कोई संबंध होना जरूरी नहीं है। बल्कि अक्सर यही होता है जो देश, जो जातियां और जो लोग विचारों में खो जाते हैं, जीवन से उनके संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। सच तो यह है कि जिनके जीवन से संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं, वे ही विचारों में खोने की इच्छा से भरते हैं, इसके पीछे कुछ कारण हैं। विचार जीवन का परिपूरक है, सब्स्टीट््यूट है। जिस चीज को हम जीवन में नहीं पूरा कर पाते, उसे हम विचारों में, और कल्पना में और सपनों में पूरा करने लगते हैं। दिन में जो आदमी उपवास करता है, वह रात में सपने देखता है भोजन कर लेने के; दिन में जो आदमी भीख मांगता है, वह रात में सपने देखता है, बादशाह हो जाने के; और हर एक की जो अतृप्त आकांक्षा होती है, उसके ही सपने उसमें पैदा हो जाते हैं।
मैंने सुना है, एक रात एक बिल्ली ने सपना देखा। और उसने सुबह उठ कर अपने पड़ोसी कुत्ते को कहा, कि मैंने रात एक सपना देखा है, और देखा कि वर्षा हो रही है, और वर्षा में पानी नहीं चूहे गिर रहे हैं। उस कुत्ते ने कहा, तू बिलकुल नासमझ है। सपने तो मैंने भी बहुत देखे, लेकिन आज तक हड्डियों के सिवाय, चूहे मैंने कभी गिरते नहीं देखे। निश्चित ही कुत्तों के सपनों में हड्डियां गिरेंगी और बिल्लियों के सपनों में चूहे गिरेंगे। दिन में जो कम रह जाता है, रात सपने में पूरा हो जाता है। सपने और विचार परिपूरक हैं, जो कौम जीवन खो देती है, वह विचार करने में ही पूर्ति कर लेती है। जिनके पास जीवन होता है, उन्हें बहुत विचार में उलझने की जरूरत नहीं रह जाती।
इधर पांच हजार वर्षों में हमने अपनी भूमि पर विचार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं किया है। और यह बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है, जो किसी के ऊपर गिरे। यह बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है, और दुर्घटना जो किसी कौम के ऊपर गिरे। कोई कौम विचार ही करती रह जाए और उसके भीतर जीवन लुप्त हो जाए, तो आज की सुबह मैं आपसे यह कहना चाहूंगा, विचार का बहुत मूल्य नहीं है, मूल्य जीवन का है। जिसे हम जीते हैं, वही केवल सार्थक और सत्य बनता है। और जिसे हम मात्र सोचते हैं, वह सोचना एक एस्केप, एक पलायन भी हो सकता है। अक्सर वह पलायन ही होता है। हम सोचते हैं, जो भी परमात्मा के संबंध में और आत्मा, और मोक्ष, और हमारा जीवन, जीवन से हमारी सारी जड़ें टूटती जाती हैं।
हम सोचते हैं आकाश की बातें और पृथ्वी बिलकुल बर्बाद होती चली जाती है। और हम सोचते हैं दूर की बातें और निकट पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। लेकिन स्मरण रखें, जिसे दूर जाना हो, उसे करीब से यात्रा शुरू करनी पड़ती है। और जिसे दूर पहुंचना हो, उसे कदम तो निकट ही उठाना पड़ता है। और जिसे दूर के जीवन को हल करना हो, उसे निकट के जीवन को हल कर लेना जरूरी है। लेकिन हमारा निकट का जीवन तो बिलकुल उलझा हुआ है। उसमें हम कुछ भी नहीं सुलझा पाते हैं। जीवन की क्षुद्रतम समस्याएं भी नहीं सुलझा पाते हैं, वे ही जीवन को छोड़ मोक्ष की आकांक्षा करते हों, तो पागल हैं। जीवन के क्षुद्रतम मसले भी समझाने का जिनके पास चित्त पैदा नहीं हुआ, तो वे परमात्मा और सत्य की गुत्थियां सुलझाना चाहते हों, तो गलती में हैं। लेकिन अक्सर ऐसे ही लोग जीवन से भाग खड़े होते हैं, जो सत्य की खोज में और मोक्ष की खोज में। जो जीवन में अपने को असमर्थ और असफल पाते हैं।
धर्म की दिशा में असफल और असमर्थ लोग इकट्ठा हो जाएं, तो वे तो डूबते ही हैं, साथ ही धर्म की नौका को भी डुबा देते हैं। दुनिया में जो धर्म डूबा, वह उन असफल लोगों की वजह से डूबा है, जो जिदंगी में सफल नहीं हो सके और धर्म की तरफ चले गए। मैं आपसे निवेदन करूंगा, अगर धर्म की तरफ जाने का कभी भी खयाल उठे, तो सबसे पहले यह देख लेना कि जीवन में सफलता उपलब्ध हुई या नहीं और जीवन की समस्याएं हल हुईं या नहीं।
सफलता से मेरा मतलब नहीं है कि आप बहुत बड़े धनपति हो जाएं, या बहुत बड़े पद पर पहंुच जाएं; सफलता से मेरा मतलब नहीं है कि आपका बहुत बड़ा मकान हो, अक्सर तो यह होता है कि जो सफल नहीं हो पाते, वे जीवन की असफलता से छिपाने को बड़े मकान बनाने में लग जाते हैं। और जो सफल नहीं हो पाते, वे बड़े पदों पर पहुंचने में लग जाते हैं। और जो सफल नहीं हो पाते, वे धन इकट्ठा करने में लग जाते हैं ताकि इन क्षुद्र चीजों को इकट्ठा करके वे अपने को यह धोखा दे लें कि उनका जीवन सफल हो गया है। ये सब असफ ल लोगों की वृत्तियां हैं।
एक बहुत अजीब घटना घटी, नादिरशाह हिंदुस्तान की तरफ आता था। उसने बीच में एक छोटे से राजा को जीत लिया। उस राजा का नाम बैजद था। उसने जीत लिया बैजद को। बैजद हार गया। जैसे ही बैजद को लाया गया हथकड़ियों में डाल कर, जैसे ही वे खींच कर दुश्मनों से लाए, और तैमूर के सामने खड़ा किया गया, वैसे ही तैमूर जोर से हंसने लगा। बैजद ने कहाः मुझे देख कर हंसते हो, तो नासमझी है। हारे हुए आदमी को देख कर जो हंसता है, वह याद रखे कि एक दिन हार उसको भी उपलब्ध होगी और सारी दुनिया उस पर हंसेगी। और पराजित व्यक्ति को देख कर हंसना किसी शिष्ट और सुसंस्कृत व्यक्ति का लक्षण भी नहीं है। स्मरण रखो, आज मुझ पर हंसते हो, कल अपने लिए रोओगे। लेकिन तैमूर ने कहा कि मैं तुम पर हंसता नहीं, मैं तो...किसी और बात पर मुझे हंसी आ गई। तुम्हारी हार से नहीं हंसता हूं, मुझे तो हंसी इसलिए आ गई, परमात्मा के इस न्याय पर मुझे हंसी आ गई, मैं तो हूं लंगड़ा (तैमूर लंगड़ा था)मैं तो हूं लंगड़ा, तुम हो कांने (वह बैजद काना था)मुझे इसलिए हंसी आ गई कि परमात्मा भी कैसा पागल है, इसे कांनों और लंगड़ों के सिवाय और कोई बादशाह बनाने को नहीं मिलता। यह क्या बात है कि कानों और लंगड़ों को बादशाहत दे दी जाती है?
तैमूर लंगड़ा इस पर हंसा था, मैं वहां मौजूद नहीं था, होता तो उससे कहता, और वह कहीं अगर अभी भी हो, तो उसे मैं यह कहना चाहता हूं कि इसमें बादशाह का, परमात्मा का कोई कुसूर नहीं है, कांने और लंगड़ों के सिवाय बादशाहत कोई मांगता ही नहीं है, तो परमात्मा भी क्या करे। जिसके भीतर कोई हीनता न हो, वह कभी बादशाह न होना चाहेगा।
दुनिया के सारे राजनैतिक हीनग्रंथी से पैदा होते हैं, जिनके भीतर इनफिरियरिटी कांपलेक्स होता है, जिनके भीतर ऐसा लगता है, मैं नाकुछ हूं; जिनके भीतर ऐसा लगता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं और जीवन मेरा ना-कुछ है, उनके भीतर एक पागल दौड़ शुरू होती है, कुछ हो जाने की। फिर चाहे वह धन इकट्ठा करके कुछ हो जाए, और चाहे राजनैतिक पद पर पहुंच कर कुछ हो जाएं, या कोई और रास्ता इख्तियार करें, लेकिन जिस आदमी के भी भीतर आत्मा हीन होती है, उस आदमी के भीतर उसकी पूर्ति करने के लिए बाहर दौड़ शुरू हो जाती है। जिनके चित्त हीन होते हैं, वे महत्वाकांक्षी हो जाते हैं, वे एंबीशियस हो जाते हैं। स्वस्थ्य चित्त महत्वाकांक्षी नहीं होता। इसलिए मैं यह नहीं कहता हूं कि आपके पास बड़ा मकान आप बना रहे हों, और आपका राज्य बड़ा होता जाता हो, आप कोई सफल व्यक्ति हैं, यह असफल व्यक्ति की खबर हैं, असफलता को ढांकने का उपाय चल रहा है। सफल व्यक्ति का यह लक्षण नहीं, सफल व्यक्ति का क्या लक्षण है? सफल व्यक्ति का पहला लक्षण है, और वह यह है कि उसके चित्त में कोई समस्या, कोई उलझन कोई कांफ्लिक्ट नहीं होगी। उसका चित्त समस्याओं से मुक्त होगा। उसके चित्त में कोई उलझाव नहीं होगा, उसका चित्त सुलझा हुआ, एकदम साफ-सुथरा होगा। उसके चित्त में चीजें द्वंद्वग्रस्त नहीं होंगी, उसके भीतर कोई अंतद्र्वंद्व नहीं होगा, उसके भीतर घनीभूत शांति होगी। उसके प्राण एक आनंद की थिरक में निरंतर नाचते होंगे, उसका जीवन एक धन्यता होगी। उसका जीवन प्रतिक्षण आशीषों, प्रार्थनाओं से भरा होगा। उसके जीवन से प्रेम बहता होगा, घृणा नहीं; उसके जीवन से प्रकाश निकलता होगा, अंधकार नहीं; वैसा व्यक्ति ही सफल व्यक्ति है। हो सकता है उसके पास और कुछ भी न हो, लेकिन उसके पास ऐसी आत्मा होगी। सफलता से मेरा अर्थ है, ऐसा व्यक्ति और जो ऐसा जीवन में सफल न हो पाए, वह मोक्ष की कामना करे और परमात्मा की, और सत्य की खोज की, तो नासमझ है। जिसने अभी अपने को भी नहीं सुलझाया, वह विश्व की समस्या के रहस्यों में छिपे हुए सत्य को जानने चल पड़ा हो, तो उसने बड़ी गलत यात्रा शुरू कर दी है।
पहली बात है सत्य की खोज में, परमात्मा की खोज में, जीवन के रहस्य की खोज में, जीवन को जान लेने की दिशा में, पहली बात है अपने जीवन को अत्यंत सुलझा हुआ बना लें। लेकिन हमारे जीवन तो बहुत उलझे हुए हैं। हम तो अपने भीतर ही बहुत मनुष्यों में टूटे हुए हैं। हम तो पोलिसाइटिक हैं, हमारे एक-एक आदमी के भीतर न मालूम कितने मन हैं? अगर ठीक से कहें तो एक-एक आदमी एक भीड़ है, एक क्राउड; कोई आदमी अकेला नहीं है, एक आदमी के भीतर न मालूम कितने आदमी बैठे हुए हैं? न मालूम कितनी शक्लें बैठी हुई हैं।
एक-एक आदमी ने ही अपने ही मन के न मालूम कितने खंड और टुकड़े कर दिए हैं। वे सारे टुकड़े आपस में लड़ रहे हैं, वे सारे टुकड़े आपस में जंग कर रहे हैं। कभी अपने भीतर झांक कर देखें, वहां एक बाजार लगा हुआ पाएंगे। वहां एक भीड़ मालूम पड़ेगी। वहां न मालूम कितनी आवाजें सुनाई पड़ेंगी? उनमें से कौन सी आवाज आपकी है? उसमें कौन सा स्वर आपका है? उसमें कौन हैं आप? जो सुबह से उठ कर प्रेम जाहिर करता है, वह घड़ी भर बाद क्रोध से भर जाता है; जो थोड़ी देर पहले गले लगाता था, वह थोड़ी देर बाद घृणा से भर जाता है। जो थोड़ी देर पहले मित्र था, वह थोड़ी देर बाद शत्रु हो जाता है। कितने हैं हमारे भीतर स्वर, और कितने हैं हमारे भीतर रूप, और कितने हैं हमारे भीतर व्यक्ति? इसमें कौन आप हैं? ये सारे स्वर आपस में लड़ते हैं, और एक विसंगीत पैदा कर देते हैं। उस विसंगीत का नाम ही अशांति है।
ये सारे स्वर आपस में लड़ते हैं, और हमारे भीतर एक बेचैनी, एक तनाव, एक टेंशन पैदा करते हैं। उस तनाव, उस बेचैनी में सारे जीवन की सारी व्यवस्था उलझ जाती है, फिर हम परेशान होते हैं, और दुखी होते हैं। और किसी मंदिर की शरण जाते हैं, और किसी गुरु की शरण जाते हैं, और किसी शास्त्र से पूछते हैं कि रास्ता बताओ। जीवन को हम उलझाते हैं और रास्ता किसी और से पूछते हैं। जिंदगी को हम उलझाते हैं और शरण किसी और की हम लेते हैं। जिंदगी को अशांत करते चले जाते हैं, और फिर पूछते हैं कि शांति कैसे मिले? मैं आपसे निवेदन करूं, जो शांति को खोजेगा, वह कभी शांति नहीं पा सकता है। लेकिन जो अशांति के कारण की खोज करेगा, वह निश्चित शंात हो सकता है, क्योंकि शांति कहीं आकाश से मिलने वाली बात नहीं है, कहीं किसी और से प्राप्त नहीं होगी। अशांति मैंने पैदा की है, तो मुझे खोज करनी होगी कि कौन से कारण हैं, जिनसे मैं आशांति पैदा कर लेता हूं।
कौन से कारण हैं, जिनसे मेरे भीतर विकृति पैदा हो जाती है? कौन से कारण हैं, जिससे मैं खंड-खंड हो जाता हूं? मेरा इंटिग्रेटिड, मेरा इकट्ठा, मेरा एक कोई रूप नहीं रह जाता, मेरा कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। कोई इंडिविजुअलिटी नहीं रह जाती। कौन से कारण हैं, जिनमें मुझे सारे उपद्रवों में भर देता है, मेरे मन को? और मेरा जीवन एक समस्या हो जाता है, एक समाधान नहीं। फिर इस समस्या से बचने के लिए आप उपाय करते हैं। उनको आपने धर्म समझा हुआ है, वे धर्म नहीं हैं। वह सब अफीम का नशा है। एक आदमी की जिंदगी उलझ जाए, तो वह शराब पीने लगता है। भूलने को, फारगेटफुलनेस को। दूसरा आदमी ताश खेलने लगता है, जुआ खेलने लगता है, तीसरा आदमी इलेक्शन लड़ने लगता है, उसमें अपने को भूल जाता है। चैथा आदमी मंदिर में चला जाता है, पूजा करने लगता है, प्रार्थना करने लगता है, भजन गाने लगता है, उसमें अपने को भूल जाता है। भूलने का उपाय धर्म नहीं है। क्योंकि आप लाख भूल जाएं, उससे कोई समस्या हल नहीं होगी। जैसे ही होश आएगा, समस्या फिर वहीं की वहीं खड़ी मिल जाएगी। जब नशा उतरेगा सुबह, तो आप पाएंगे समस्याएं वहीं खड़ी हैं, और भी मजबूत हो गईं हैं समस्याएं, क्योंकि इस नशे में आप और कमजोर हो गए। रात जहां समस्याएं थीं, और भी मजबूत हो गईं, क्योंकि रात आप जहां थे नशे ने और कमजोर कर दिया। रोज नशा करिएगा, समस्याएं सख्त और मजबूत होती जाएंगी और आप कमजोर होते जाएंगे। उनसे कोई सुलझाव नहीं हो सकता। और चाहे कितने ही भजन गाइए, और कितने ही मंदिरों में प्रार्थना करिए, जहां भी आप अपने को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं आप गलती कर रहे हैं।
समस्याएं भूलने से नहीं मिटती हैं, रास्ता करीब-करीब उलटा है, समस्याएं जानने से मिटती हैं। समस्याएं भूलने से नहीं, खुद को भुला देने से नहीं, बल्कि खुद के स्मरण से मिटती हैं। इसलिए मैं कहता हूं धर्म विस्मरण नहीं है, धर्म आत्म-स्मरण है। और ऐसे कोई भी रास्ते जो हमें विस्मृति में ले जाते हों, वे कोई भी रास्ते धर्म नहीं हैं। वे सब अफीम के नशे हैं। धर्म है आत्म-स्मरण। और आत्म-स्मरण का क्या अर्थ है कि आप बैठ कर कहीं सोचने लगें कि अहं ब्रह्मास्मि! कि आप बैठ कर सोचने लगें कि आत्मा सत-चित्त-आनंद है? कि आप बैठ कर सोचने लगें कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं तो आत्मा हूं, मैं तो मरणधर्मा नहीं हूं, मैं तो अमृत हूं; ये बातें सोचने लगें, तो यह कोई आत्म-स्मरण हुआ? नहीं यह आत्म-स्मरण नहीं हुआ। इस स्मरण का तो अर्थ ही यह है कि अभी आत्मा का कोई पता नहीं है, इस तरह इसलिए इस तरह की बातें आप सोच रहे हैं। जिस आदमी को पता है कि आत्मा ब्रह्म है, वह क्या बैठ कर रोज सुबह-सबह यह दोहराएगा कि आत्मा ब्रह्म है? दोहराने का क्या अर्थ? दोहराने का अर्थ है कि उसे पता नहीं है,और जो उसे पता नहीं है, वह दोहरा-दोहरा कर सोचता है कि पता हो जाएगा।
एक आदमी रोज-रोज दोहराता है कि आत्मा शरीर नहीं है। अभी एक साध्वी से मेरी बात होती थी, तो वे कह रहीं थी कि आत्मा शरीर नहीं है, इसका ही चिंतन करते-करते धीरे-धीरे लगने लगता है कि आत्मा शरीर नहीं है। मैंने कहा वह भ्रम होगा, चिंतन करने से जो लगेगा, वह असत्य होगा, वह केवल बार-बार सोचने का आत्म-सम्मोहन है, वह बार-बार किसी बात को सोच लेने से पैदा हो गया भाव है। वह अनुभूति नहीं है, वह साक्षात नहीं है, वह खुद की प्रतीति और खुद का कोई अनुभव नहीं है। तो इसको मैं आत्म-स्मरण नहीं कहता कि आप रोज बैठ कर परमात्मा और आत्मा को स्मरण करते हों, आत्म-स्मरण का कुछ और ही अर्थ है। आत्म-स्मरण का अर्थ है, मैं जो भी हूं बेईमान, अशांत, दुखी, चिंतित; मैं जो भी हूं, मेरा यह जो पूरे का पूरा व्यक्तित्व जो भी है, चोर, बेईमान, झूठ बोलने वाला, सच बोलने वाला, प्रेम करने वाला या घृणा करने वाला; मेरा यह जो पूरा व्यक्तित्व है, इस पूरे व्यक्तित्व को उघाड़ कर देखना, आत्म-स्मरण है। इस पूरे व्यक्तित्व को बड़ी सरलता से, सहजता से उघाड़ कर देखना।
हम न केवल अपने को दूसरों से छुपाते हैं, अपने से भी छिपा लेते हैं। और इसमें बहुत खतरा नहीं है कि हम दूसरों से अपने को छिपा लें, खतरा इसमें है कि हम अपने से अपने को छिपा लें।
इंग्लैंड में शेक्सपीयर का एक नाटक चल रहा था। और वहां के एक बहुत बड़े आर्च बिशप ने, बड़े पादरी ने भी उस नाटक को देखना चाहा, तो उसने मैनेजर को लिखा, अब आर्च बिशप बहुत बड़ा पादरी, बहुत बड़ा संन्यासी, नाटक देखने जाए तो अशोभन होगा, क्योंकि ये संन्यासी ही तो नाटक के खिलाफ हजारों साल से बोलते रहे हैं, तब कोई संन्यासी नाटक देखने चला जाए, तो बड़ा अभद्र मालूम होगा। और लोग पकड़ लेंगे, और लोग कहेंगे कि तुमने ही तो समझाया था। और तुम खुद यहां कैसे मौजूद हो? पर उसके मन में बड़ी इच्छा थी कि उस नाटक को देखे, उसकी बड़ी प्रशंसा थी। तो उसने मैनेजर को लिखा, उस थिएटर के मैनेजर को एक पत्र लिखा कि क्या तुम्हारे थिएटर में कोई ऐसा दरवाजा नहीं है, पीछे से आने का, कि मैं पीछे से आ जाऊं , मैं नाटक देखूं और लोग मुझे न देख सकें?
वह मैनेजर बहुत अदभुत आदमी रहा होगा, जरूर उस पादरी से ज्यादा समझदार रहा होगा। और अक्सर ऐसा हुआ है कि पादरियों से तो नाटक और सर्कस के दिखाने वाले भी ज्यादा समझदार रहे हैं। उसने एक पत्र लिखा, उसने उत्तर में लिखा कि मेरे मित्र, मेरे थिएटर में पीछे का दरवाजा है। और अनेक लोग और अनेक साधु और पादरी उससे आते हैं। लेकिन एक बात मैं पहले बता देता हूं उनको, फिर वह आएं उनकी खुशी। ऐसा दरवाजा तो है कि लोग न देख सकें, लेकिन ऐसा कोई दरवाजा नहीं जो परमात्मा न देख सके। फिर आपकी मर्जी आप आ सकते हैं। मुझे पता नहीं कि वह देखने आया या नहीं आया। लेकिन जिंदगी में हम सबको धोखा दे दें, लेकिन अपने को धोखा देना कैसे संभव हो पाएगा? मैं किसी भी पीछे के दरवाजे से जाऊं कम से कम मैं तो देखने वाला मौजूद रहूंगा ही।
धर्म की पहली सीढ़ी है, स्वयं को हमने जो धोखे दिए हैं, उनको तोड़ देना। दूसरों को धोखा देना तो गौण हैं, और तथाकथित धार्मिक यह समझाते हैं किसी को धोखा मत देना, लेकिन शायद ही किसी ने आज तक कहा हो कि दूसरों को धोखा देना तो गौण है, और दूसरों को धोखा देना तो अपने को धोखा देने से पैदा होता है, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है।
जो आदमी अपने को धोखा देना बंद कर देता है, वह दुनिया में किसी को धोखा देने में असमर्थ हो जाता है। इसलिए दूसरों को धोखा देने की बहुत फिकर मत करना, वह तो केवल इस बात की सूचना है, जो आदमी दूसरों को धोखा दे रहा है, उसने उसके बहुत पहले अपने को धोखा दे लिया होगा। नहीं तो दूसरों को धोखा नहीं दे सकता है। अपने को जो हमने धोखे दिए हैं, उनको तोड़ देना आत्म-स्मरण का अर्थ है। हमने अपने को जो धोखे दिए हैं, उनको तोड़ देना और हमने बहुत तरह के धोखे दिए हैं, अपने को, हम अपने बाबत ही न मालूम कैसे-कैसे झूठे खयाल पैदा कर लिए हैं। हर आदमी अपने को न मालूम क्या-क्या समझ रहा है? अगर वह थोड़ी भीतर झांकेगा तो पाएगा कि बिलकुल झूठ समझ रहा है, अगर वह थोड़ी ही अपनी खोज-बीन करेगा, तो पाएगा कि यह मैंने जो अपनी तस्वीर बना रखी है, यह बिलकुल झूठी है। ऐसा मैं नहीं हूं। कैसा हूं मैं? उसकी नग्नता में स्वयं को देख लेना धर्म की पहली सीढ़ी है। कैसा हूं मैं? और इसकी बिलकुल फिकर न करें कि आप बुरे हैं या भले हैं। क्योंकि जब इसकी फिक्र आप बहुत ज्यादा करते हैं, इसीलिए अपने को नग्न नहीं देख पाते हैं। इसलिए तो वस्त्र ढांक लेते हैं, अच्छे-अच्छे। और उन्हीं वस्त्रों में अपने को देखते हैं।
एक बात बहुत बुनियादी है, सत्य की खोज में जो व्यक्ति भी निकला हो, उसे अपने भीतर की सारी सच्चाइयों को जान लेना चाहिए। चाहे उसे दिखाई पड़े कि मैं पागल हूं, चाहे उसे दिखाई पड़े कि मैं धोखेबाज हूं, चाहे उसे दिखाई पड़े कि मैं पापी हूं और अंधकार से भरा हूं। जो भी उसे दिखाई पड़े यह पहली भलाई होगी, यह पहली अच्छाई होगी, वह अपने भीतर की सारी बातों को खोल कर देख ले, क्योंकि तब उसके सामने एक यथार्थ, खुद के होने की वास्तविकता प्रकट हो जाएगी। उसी वास्तविकता पर पैर रख कर कोई छलांग ली जा सकती है। कल्पनाओं पर पैर रख कर छलांग नहीं ली जा सकती। और कल्पनाओं में खड़े होकर कोई गति नहीं की जा सकती। व्यक्तित्व का यथार्थ, जो बिलकुल-बिलकुल वास्तविक है, उसे खोल लेना बहुत जरूरी है। इसको मैं आत्मस्मरण कहता हूं। इसे आप खोल सकते हैं। कोई आपको रोक नहीं रहा है, कोई बाधा नहीं दे रहा है। कोई मार्ग में अवरोध खड़े नहीं कर रहा है। अगर सिर्फ आप ही अवरोध खड़े न करें, अगर आप ही बाधा न बन जाएं, अगर आप ही भयभीत न हो जाएं, खुद को जानने से।
इसलिए फीयर के अतिरिक्त, खुद के भीतर जो भय है, उसके अतिरिक्त और आत्मा के स्मरण में दूसरी कोई बाधा नहीं है। भयभीत हम किस बात से हैं? हम भयभीत हैं इसी बात से कि कहीं सच्ची शक्ल मेरे सामने न आ जाए। क्योंकि हमने एक झूठी शक्ल बना रखी है, जो कि एकदम गिर जाएगी। हमने एक मूर्ति बना रखी है बहुत सुंदर जो एकदम विकृत हो जाएगी।
मार्क ट्वेन का एक मूर्तिकार उसकी मूर्ति बना रहा था। समझदार आदमी था मार्क ट्वेन। और इसलिए मैं उसे समझदार कहता हूं कि वह बहुत बार अपने ऊपर हंसा। दुनिया में दूसरों के ऊपर तो बहुत से लोग हंसते हैं, वह नासमझ है। जो आदमी अपने पर हंसना शुरू कर देता है, उसकी समझदारी का प्रारंभ हो जाता है। मार्क ट्वेन समझदार आदमी रहा होगा, बहुत बार, हजारों बार अपने पर हंसा। जिंदगी के आखिर में तो उसने कहा कि मैंने दूसरों पर हंसना शुरू किया था और अपने पर समाप्त हो रहा हूं, अपने हंसने पर समाप्त हो रहा हूं। यह जीवन का विकास था। मरने के कुछ दिन पहले उसकी मूर्ति किसी मूर्तिकार ने बनाई जैसे-जैसे मूर्ति बनती गई, मार्क ट्वेन उदास होने लगा। उस मूर्तिकार ने कहा कि मैं देखता हूं कि जैसे-जैसे मूर्ति बनती जाती है, आप उदास होते चले जा रहे हैं। मार्क ट्वेन ने कहाः उदास हो जाने का कारण है, जैसे-जैसे मूर्ति बनती जाती है, वैसे-वैसे कुरूप होती जाती है। जैसे-जैसे वह मेरी जैसी होने लगी, वैसे-वैसे कुरूप हुई जा रही है। इससे तो अंदर पत्थर ही बेहतर था। जिसमें कोई रूप नहीं उघड़ा था। कम से कम उसमें कोई कुरूपता तो नहीं थी।
मार्क ट्वेन ने बड़ी हैरानी की बात कही और इसलिए उदास भी होता चला गया। जैसे-जैसे मूर्ति बनने लगी, कुरूप होने लगी। क्योंकि उसने कहा वह मेरी जैसी होने लगी। इसको मैं साहस कहता हूं, इस बात को समझने का कि मेरे भीतर कैसी अग्लिनेस है, कैसी कुरूपता है? लेकिन हम सब अजीब लोग हैं, हम बाहर सुंदर होने की तलाश में सारा समय समाप्त कर देते हैं। और भीतर की कुरूपता को कभी देख नहीं पाते। और भीतर की कुरूपता को छिपाने के लिए हम बाहर सौंदर्य के सारे उपकरण इकट्ठे करते हैं। हम बाहर सुंदर होना चाहते हैं। और भीतर? और स्मरण रखें कि जो आदमी बाहर सुंदर होना चाहता है, वह निश्चित ही जानता होगा कि भीतर कुरूप है, नहीं तो बाहर सुंदर क्यों होना चाहेगा? भीतर कुरूपता का एहसास बाहर सुंदर होने की प्रेरणा बन जाता है। लेकिन बाहर से हम कितने ही संुदर हो जाएं, भीतर की कुरूपता इससे नष्ट नहीं होगी। भीतर की कुरूपता का तो मुकाबला करना होगा। उससे तो आंखें मिलानी होंगी। उसके तो सामने खड़ा होना होगा।
और एक बड़े रहस्य की बात मैं आपसे कहना चाहूंगा, जो व्यक्ति अपनी आंतरिक कुरूपता के दर्शन करने के लिए तैयार हो जाता है, उसकी कुरूपता वैसे ही पिघलने और बहने लगती है, जैसे सूरज के उगने पर बर्फ पिघलने लगे और बहने लगे। और जो मनुष्य अपने भीतर की कुरूपता के सामने आंखें खड़ी करके, खोल कर खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि उसके भीतर कुरूपता वैसे ही विसर्जित होने लगती है, जैसे कोई दीया जला ले और घर के कोने-कोने में अंधेरा खोजने चला जाए। दीया जला कर अंधेरा खोजने को जाएगा तो अंधेरा तो विलीन हो जाएगा। जो व्यक्ति अपने भीतर सजग होकर खोज में संलग्न होता है, अपने भीतर आंख खोल कर देखने की तैयारी करता है, उसके भीतर प्रकाश फैलना शुरू हो जाता है। और प्रकाश में कोई कुरूपता नहीं दिखती है, कोई असौंदर्य नहीं दिखता है, और प्रकाश में कोई असत्य नहीं दिखता है, और प्रकाश में कोई प्रवंचना नहीं दिखती, सारा अंधकार विलीन होने लगता है।
धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है इस तरह की तैयारी आत्म-स्मरण की। एक बात स्मरण रखें, जब तक शुभ में और अशुभ में, बुरे में और भले में, नीति में और अनीति में आप बहुत-बहुत फासला किए हुए बैठे हैं, तब तक आप कभी आत्मनिरीक्षण नहीं कर सकेंगे। क्योंकि बुरे को देखने में डर लगेगा, और भले को साथ लेने में खुशी होगी, तब तक पूरा व्यक्तित्व उघड़ नहीं सकता। नैतिक शिक्षाएं मनुष्य को धार्मिक नहीं होने देतीं हैं। नैतिक शिक्षाएं इतना भेद खड़ा कर देती हैं, शुभ और अशुभ के बीच कि आदमी की इच्छा होती है कि मैं शुभ दिखाई पडूं और अशुभ दूर हट जाए। तो अशुभ को ढांकने लगता है, और शुभ को ओढ़ने लगता है। सारा जीवन विकृत हो जाता है।
पहली बात है अपने चित्त में अगर सचमुच खोज करनी हो तो चित्त के भीतर नैतिकता की धारणाओं से मुक्त हो जाएं, वह जो माॅरेलिटी, वह जो समाज ने सिखाया उससे मुक्त हो जायें। वहां न कुछ शुभ है और न वहां कुछ अशुभ है। वहां तो दो बातें हैं, या तो अंधकार है या प्रकाश। प्रकाश है तो सब शुभ है, और अंधकार है तो सब अशुभ है। वहां शुभ और अशुभ का कोई फासला अंधकार में नहीं हो सकता। अंधकार की स्थिति में आप जो भी करेंगे वह अशुभ होगा। लेकिन हमें सिखाया यह जाता है कि अंधकार में भी शुभ हो सकता है। हम कहते हैं एक आदमी कितना ही अज्ञानी लेकिन मंदिर बनाया उसने तो शुभ कार्य किया। मैं आपसे कहता हूं, अज्ञानी मंदिर बनाएगा तो अशुभ कार्य ही होगा। नहीं तो ये मंदिर दुनिया में इतने उपद्रव के कारण नहीं बनते। नहीं तो ये मंदिर झगड़ाने वाले और लोगों को तोड़ने वाले, और युद्ध कराने वाले नहीं बनते, जरूर ये मंदिर किसी अज्ञान से निर्मित हुए होंगे। ये केंद्र बन गए युद्ध और उत्पात, हिंसा और उपद्रव के।
अज्ञान से जो भी निकलेगा, वह चाहे कितना ही शुभ मालूम पड़े बहुत गहरे में वह अशुभ परिणाम लाएगा। अज्ञान से शुभ का जन्म नहीं हो सकता। इसलिए अपने भीतर शुभ और अशुभ का फासला छोड़ दें, और अपने पूरे व्यक्तित्व के बीच बिना किसी च्वाइस के, बिना किसी चुनाव के; अपने पूरे व्यक्तित्व के प्रति जागने की कोशिश करें। कोई चुनाव न करें कौन सी अच्छी बात है और कौन सी बुरी बात? प्रेम को न बचाएं कि प्रेम अच्छा है, और घृणा को न हटाएं कि घृणा बुरी है। क्योंकि आपको पता नहीं है कि यह प्रेम और घृणा जिसको आप जानते हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें से एक को बचाइएगा, दूसरा भी बच जाएगा। इनमें से एक को फेंकिएगा, दूसरा भी फिंक जाएगा। और इनमें से अगर एक को बचाना चाहा और दूसरे को फेंकना चाहा, तो जीवन उलझन हो जाएगी, समस्या बन जाएगी फिर उसमें कोई सुलझाव नहीं हो सकेगा। फिर उसमें कोई मार्ग नहीं मिल सकेगा।
शुभ और अशुभ के द्वंद्व ने मनुष्य के चित्त को उलझाया है। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जिदंगी में शुभ या अशुभ का भेद छोड़ दें। मैं आपसे यह कह रहा हूं कि चित्त के भीतर इस निर्णय को स्पष्ट रूप से समझ लें कि शुभ और अशुभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और अगर मुझे पूरे व्यक्तित्व के प्रति जागना है, तो मुझे अशुभ की निंदा छोड़ देनी चाहिए मन में और शुभ की प्रशंसा छोड़ देनी चाहिए। बिना किसी चुनाव के मैं दोनों के प्रति जागने की कोशिश करूं, समझने की कोशिश करूं कि मेरा व्यक्तित्व क्या है, कैसा है? बिलकुल नग्न और सीधा, कोई छिपाव नहीं कोई दुराव नहीं,कम से कम मेरी आंख के सामने तो मेरा व्यक्तित्व पूरा उभर जाए। और क्या आपको पता है कि फिर अगर आप इतना ही करने में समर्थ हो जाएं, तो शेष सारा काम अपने से होना शुरू हो जाता है।
जैसा मुझे एक घर के बाहर निकलना हो मुझे दिखाई पड़ता है कि दरवाजा है, तो क्या मैं दीवाल से निकलने की कोशिश करता हूं? नहीं मैं दरवाजे से निकल जाता हूं। और न ही मैं कसमें खाता हूं भगवान के मंदिर में जाकर कि मैं रोज दीवाले से न निकलूंगा, दरवाजे से ही निकलूंगा, इसकी कसम भी नहीं खाता हूं। आंख खुली होती है, तो मैं दरवाजे से निकल जाता हूं, ठीक वैसे ही जो व्यक्ति अपने भीतर की पूरी सच्चाई के प्रति जागेगा, उसका निरीक्षण करेगा, उसका आॅब्जर्वेशन करेगा, और किसी चीज को न हटाएगा, न रोकेगा, अत्यंत तटस्थ भाव से जागेगा और देखेगा, उसकी आंखें खुल जाएंगी। और उसे कुछ साधना नहीं पड़ेगा उसके बाद, दरवाजे उसे दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। और वह दरवाजों से निकल जाएगा और दीवालों से न निकलने की कसमें, व्रत और संकल्प उसे नहीं लेने पड़ेंगे। उसे यह नहीं कहना पड़ेगा कि अब मैं चोरी न करने का संकल्प लेता हूं। जो आदमी चोरी न करने का संकल्प लेता है, वह चोर है। उस आदमी के भीतर चोरी की इच्छा है, नहीं तो संकल्प किसके विरोध में लेगा?
जो आदमी ब्रह्मचर्य का संकल्प लेता है, वह कामुक है। नहीं तो ब्रह्मचर्य का संकल्प किसके विरोध में लेगा। और जो आदमी कामुक है और ब्रह्मचर्य का संकल्प लेता है, वह उपद्रव में पड़ जाएगा। जीवन उलझ जाएगा, समस्या खड़ी हो जाएगी। भीतर होगी सेक्सुअलिटी, भीतर होगी कामुकता, ऊपर होगा ब्रह्मचर्य; और इन दोनों में निरंतर संघर्ष होगा, और इस संघर्ष में वह टूटेगा और नष्ट होगा। और इस संघर्ष में उसका जीवन क्षीण होगा, शक्तिहीन होगा। द्वंद्व से भरेगा, अशांत होगा, पीड़ित होगा और ऐसा आदमी मोक्ष चाहेगा, और ऐसा आदमी सत्य चाहेगा, और ऐसा आदमी आत्मा को जानना चाहेगा, जबकि उस सब को जानने की एक शर्त है शांत हो जाना। और ऐसा आदमी कभी शांत नहीं हो सकेगा। मैं नहीं कहता हूं कि कोई संकल्प के माध्यम से, कोई व्रत के माध्यम से जीवन में क्रांति होती है, और मैं कहता हूं केवल दर्शन के माध्यम से, सिर्फ आॅब्जर्वेशन से, सिर्फ निरीक्षण से, तटस्थ निरीक्षण से जीवन में क्रांति होनी शुरू हो जाती है।
क्या आपको पता है कि अभी एटामिक वैज्ञानिकों ने एक बड़े अदभुत सत्य की खबर दी है? उन्होंने खबर दी है कि इलेक्ट्रान को विद्युत को अंतिम कण को, अगर मशीन के द्वारा निरीक्षण किया जाए, तो वह एक तरह से व्यवहार करता है, और अगर दो आंखें मनुष्य की दूरबीन से उसे देखें, तो वह बिलकुल दूसरी तरह का व्यवहार करने लगता है। बहुत हैरानी वैज्ञानिकों को अनुभव हुई है, क्योंकि आज तक यह कल्पनातीत थी बात कि मनुष्य के निरीक्षण से एक विद्युत कण भी अपने व्यवहार को बदल देगा, मात्र निरीक्षण से। हम तो बदल देते हैं।
अगर आप एक रास्ते पर अकेले जा रहे हैं, और वहां से दो आदमी आ जाएं तो आप फौरन बदल जाते हैं, आप दूसरे आदमी हो जाते हैं। अगर आप एक रास्ते से चले जा रहे हैं और रास्ता अकेला है, सन्नाटा है, तो आप दूसरे आदमी होते हैं, आपकी चाल और ढंग की होती है, हो सकता है आप कोई फिल्म का गीत गुनगुना रहे हों, या कुछ और कर रहे हों। या खुद अपने को मुंह बिचका रहे हों; लेकिन वहां से दो आदमी रास्ते पर आ जाएं, आप फौरन बदल जाते हैं। और अगर वे दो औरतें हैं, तो और भी ज्यादा बदल जाते हैं। और अगर वह कहीं आपके धर्मगुरु या संन्यासी हैं, साधु हैं, मुनि हैं, तो आप फिल्म का गीत छोड़ देते हैं और भजन गाने लगते हैं। आप एकदम बदल जाते हैं। जैसे ही दो आंखें आप पर टिकती हैं,आपका व्यवहार बदलता है। आप अपने बाथरूम में कुछ और होते हैं, अपने बैठकखाने में कुछ और होते हैं। आपका व्यक्तित्व फिर और ढंग से आप व्यवहार करते हैं।
यह हम आदमी के बाबत तो जानते थे क्योंकि वह सचेतन है। और उसमें निरीक्षण करने से बदलाहट होती है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस अणु को, जिस इलेक्ट्रान को, जिस विद्युत कण को हम समझते हैं निर्जीव है, वह भी, मनुष्य की आंखें उसका निरीक्षण करने लगें तो उसके व्यवहार में फरक आ जाता है, उसकी गति बदल जाती है। ठीक ऐसे ही जो व्यक्ति अपने-अपने भीतर खुद का निरीक्षक हो जाता है, उसका मन बदलना शुरू हो जाता है। बदलना नहीं पड़ता मन को। जैसे ही दो आंखें हमारे भीतर, जागी हुई दो आंखें चित्त को देखने लगती हैं, चित्त एकदम क्रांति से गुजरने लगता है। एक ट्रांसफार्मेशन चित्त में शुरू हो जाता है। मात्र देखने से, मात्र जाग जाने से, मात्र निरीक्षण से चित्त एक बिलकुल ही नये रूप में परिवर्तित होने लगता है। जो-जो अशुभ है और अंधकारपूर्ण है, वह क्षीण होने लगता है, और जो-जो शुभ है और प्रकाशपूर्ण है, वह विकसित होने लगता है। इसे मैंने कहा आत्म-निरीक्षण।
आत्मा के संबंध में सीखी हुई बकवास को दोहराना नहीं, आत्मा के संबंध में उपनिषदों और गीताओं, और कुरानों और बाइबिलों, महावीर और बुद्धों ने जो कहा है, उसको बैठ कर रटना नहीं, वरन खुद के व्यक्तित्व की, खुद के चित्त व्यक्तित्व की, खुद की जो माइंड पर्सनेलिटी है, वह जो खुद का जो पूरा मानसिक जगत है, उसके प्रति पूरे रूप से जाग जाना, होश से भर जाना। जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं के प्रति जागता और होश से भरता है, उसके जीवन में एक अनूठा, एक अनूठी दिशा खुलनी शुरू हो जाती है। और एक अत्यंत सहज क्रांति और परिवर्तन उसके जीवन में प्रारंभ हो जाता है।
दो आंखें हमारी जो सारी दुनिया पर लगी हैं, अगर खुद पर लग जाएं, तो आपके जीवन में धर्म शुरू हो जाता है। लेकिन हमारी आंखें सारी दुनिया पर लगी हैं, हम पड़ोसी को गौर से देख रहे हैं। रास्ते पर चलते हुए आदमी को गौर से देख रहे हैं। ट्रेन में जो अजनबी हमारे बगल में बैठा है, उसे गौर से देख रहे हैं। और हमारा बस चलता हो, तो उनके कपड़ों को फाड़ कर देख रहे हैं। अगर हमारा और बस चलता हो तो उनकी हड्डियों और मांस को भी छेद कर देख रहे हैं, हमारी दो आंखें सारी दुनिया को देखने में लगी हैं, एक व्यक्ति को छोड़ कर और वह हम खुद हैं। वे आंखें हम पर खुद गहराई से नहीं लगी हैं।
जितनी गहराई से हम दूसरों को देख रहे हैं, और समझने की कोशिश कर रहे हैं, अगर उससे बहुत थोड़े अंशों में भी हमारी आंखें खुद के व्यक्तित्व के निरीक्षण में लग जाएं, तो आप पाएंगे कि आप दूसरे मनुष्य होना शुरू हो गए। आपको दूसरा मनुष्य होना नहीं पड़ेगा, आप पाएंगे कि आप दूसरा मनुष्य होना शुरू हो गए। आप पाएंगे कि आपने एक दूसरी स्थिति पा ली। आप पाएंगे कि आपके भीतर एक नई चेतना और एक नई ऊर्जा का जन्म हो गया है, जिसका आपको पता भी नहीं था। और आप पाएंगे कि एक अदभुत शांति एक जीवन की अत्यंत सुलझी हुई चित्त की अवस्था, पाएंगे एक बहुत निद्र्वंद्व मन, भीतर जन्म ले रहा है। भीतर एक नये व्यक्ति का उदभव हो रहा है। बहुत से व्यक्ति विदा हो रहे हैं और एक व्यक्ति का जन्म हो रहा है। मन के बहुत से खंड समाप्त हो रहे हैं और एक अखंड चेतना पैदा हो रही है। ऐसी अखंड चेतना ही परमात्मा को जानने में समर्थ होगी। ऐसा अखंड व्यक्तित्व ही सत्य के उदघाटन में सफल होता है। ऐसा पूर्ण और समग्र व्यक्तित्व ही जीवन की पूर्णता को, जीवन के समग्र रहस्यों को, जीवन की गहराइयों और ऊंचाइयों को छू लेने में, और उनके साथ एक हो जाने में समर्थ होता है।
जीवन से भागने वाले लोग नहीं, जीवन से पलायन कर जाने वाले लोग नहीं, जंगलों और पहाड़ों, और हिमालयों में चले जाने वाले लोग नहीं; बल्कि जीवन के घनीभूत संघर्ष में, जीवन के द्वंद्व में, अत्यंत शांत खड़े होकर निरीक्षण करने वाले लोग सत्य को और परमात्मा को उपलब्ध होते हैं। जो धर्म जीवन के प्रति निषेध सिखाता हो, लाइफ निगेशन सिखाता हो, वह धर्म अधर्म को बढ़ाने का सहयोगी रहा है। वह धर्म ही नहीं है।
जो धर्म जीवन की अफर्मेशन में, जीवन की स्वीकृति में, जीवन की विधायकता में प्रतिष्ठा देता हो, वही धर्म केवल मनुष्य-जाति को मुक्त करने में, आनंद की दिशा में, संगीत की दिशा में समर्थ हो सकता है। और उसका बुनियादी सूत्र मैंने आपसे सुबह कहा, वह है आत्म-विस्मरण नहीं, वरन आत्म-स्मरण। और आत्म-स्मरण का अर्थ मैंने आपसे कहा वह किन्हीं पढ़े-पढ़ाए सूत्रों को दोहराना नहीं, अहं ब्रह्मास्मि की रट लगाना नहीं, वरन चित्त जैसा है, बुरा और भला, शुभ और अशुभ उसको उसकी पूर्णता में जानने की तटस्थ चेष्टा आत्म-स्मरण है, और यह तभी हो सकता है, जब हम थोड़े नैतिक, जो तथाकथित नैतिकता हमारे चित्त को कसे हुए हैं, उससे थोड़ा चित्त को भीतर मुक्त करें, इसका यह अर्थ नहीं है कि आप समाज के जीवन में अनैतिक हो जाएं, चोरी करने लगें, और रास्ते पर जहां लिखा है बाएं चलो, वहां दाएं चलने लगें, यह मैं नहीं कह रहा हूं।
समाज की जिंदगी में, समाज जो कह रहा है उसे अत्यंत औपचारिक रूप से निभाए जाएं, उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, लेकिन इस औपचारिकता को, इस शिष्टाचार को भीतर आत्मा में जकड़ और बंधन न बनने दें, भीतर एक मुक्ति को खोजें, सरलता को खोजें, जरूर भीतर एक दिन सचमुच ज्योति का जन्म होगा, तो फिर बाहर किसी औपचारिकता को कायम रखने की जरूरत न रह जाएगी। जब भीतर असली हीरे आ जाएंगे, तो बाहर नकली हीरों को साथ गले में लटका कर घूमने की जरूरत नहीं रह जाएगी। और जब भीतर असली नैतिकता का जन्म हो जाएगा तो समाज की सिखाई हुई नैतिकता को फेंका जा सकता है।
लेकिन इसके पहले कि भीतर असली नैतिकता जन्मे, चित्त के तल पर इस झूठी नैतिकता के द्वंद्व से मुक्त होना, अत्यंत आवश्यक है। भीतर निद्र्वंद्व होकर, निष्पक्ष होकर, तटस्थ होकर, मन का निरीक्षण जो व्यक्ति करता है, वह एक बहुत अदभुत बात को उपलब्ध होता है, जो मैंने आपसे कही, वह इस सत्य को जान पाता है, कि ज्ञान अपने आपमें परिवर्तन है, वह इस सत्य को जान पाता है कि जानने के बाद व्यक्तित्व में परिवर्तन करना नहीं पड़ता, परिवर्तन हो जाता है। जो नहीं जानता उसे परिवर्तन करना पड़ता है। जो जानता है, उसे परिवर्तन हो जाता है। ज्ञान क्रांति है, ज्ञान परिवर्तन है, और ज्ञान अनिवार्य रूप से आचरण है। उसे लाना नहीं पड़ता आचरण में।
एक छोटी सी कहानी और इस चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
इस आत्म-निरीक्षण के बाबत कुछ और सूत्र हैं, वे मैं संध्या आपसे कहूंगा। एक कहानी मैंने पढ़ी है, एक जौहरी हुआ। वह मर गया, उसका लड़का और उसकी पत्नी पीछे छूट गए। उसकी पत्नी को इस जौहरी ने एक दफा बहुत से माणिक, और हीरे, और मोती, और बहुत से पत्थर दिए थे सम्हाल कर रखने को, वह पत्नी जीवन भर उन पत्थरों को सम्हाले रखी रही थी।
तो लड़के को एक दिन कहा कि तुम्हारे पिता के मित्र एक बड़े जौहरी हैं, उनके पास ये सारे बहुमूल्य पत्थर लेकर चले जाओ, और उनको कहना कि अब इनको बिकवा दें, और इनका जो रुपया आ जाए, हमारा जीवन सम्यक रूप से चल सके। वह युवा लड़का, उन हीरे-मोतियों को लेकर अपने पिता के मित्र के पास गया। उसके पिता के मित्र ने कहा गठरी तुम खुद ही खोलो, उसने गठरी खोली, उसके मित्र ने कहा कि गठरी बंद कर लो और वापस ले जाओ। अभी बाजार में बहुत अच्छे भाव नहीं हैं। जब भाव अच्छे होंगे, तो मैं तुम्हें बुलाऊंगा। लेकिन एक छोटी सी मेरी प्रार्थना है, और मेरे गुजरे हुए मित्र का मेरे ऊपर कर्ज है, मैंने अपनी सारी कुशलता और कला उनसे सीखी थी, तो मैं चाहता हूं कि मैं इस ऋण से मुक्त हो जाऊं। तुम रोज घड़ी दो घड़ी दुकान पर आने लगो, ताकि जो मैंने तुम्हारे पिता से सीखा था, वह मैं तुम्हें सिखा दूं। वह युवक रोज उस जौहरी की दुकान पर जाने लगा। वर्ष भर बीतने पर वह जौहरी एक दिन सुबह-सुबह उनके घर पहुंचा, और उसने उस युवक को कहा कि अपनी मां को कहो कि वह बहुमूल्य पत्थर सब बाहर निकाल लाए। वह लड़का गया और उसने तिजोरी खोली वह गठरी लेकर आया, उसने खुद गठरी खोली और उसे हंसी आ गई। उसने गठरी वापस बांधी और सड़क के पास जो कूड़ा घर था, उसमें जाकर वह गठरी डाल आया। उसकी मां तो चिल्लाने लगी कि तुम पागल हो गए हो, यह तुम क्या करते हो? लेकिन उसने कहा, ये सब नकली पत्थर हैं, इनका कोई मूल्य नहीं। उस जौहरी ने कहा, यही बात साल भर पहले मैं तुमसे कहता, तो भी इन पत्थरों को छोड़ना आसान नहीं था। यह मैं कहता तो तुम सोचते कि शायद मैं धोखा दे रहा हूं। और अगर तुम इन्हें छोड़ भी देते किसी भांति समझाने-बुझाने से, तो भी छोड़ने का घाव निरंतर पीछे रह जाता, और पछतावा पीछे रह जाता। और निरंतर खयाल होता कि कहीं भूल तो नहीं हो गई। कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई? और छोड़ते तो एक दुख पीछे छूट जाता, लेकिन आज जबकि तुम खुद जानते हो, तुम्हें छोड़ने में क्षण भर भी नहीं लगा। पत्थर दिखाई पड़ गए कि पत्थर हैं, और मोती-माणिक नहीं, तुम उन्हें उठा कर फेंक आए। और पीछे कोई रेखा भी नहीं छूट गई।
ठीक कुछ चीज दिखाई पड़ जाए, तो जो व्यर्थ है, वह अपने आप छूट जाता है, फिर पत्थर हाथ से छूट जाएंगे और जो सार्थक है, वह अपने आप शेष रह जाता है। जो भी श्रेष्ठ है, जो भी संुदर है, और सत्य है उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जो भी अश्रेष्ठ है, असुंदर है, असत्य है उसे पकड़ा नहीं जा सकता। लेकिन एक दफा देखने वाली आंख पैदा होनी चाहिए। इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा कि इस निरीक्षण के माध्यम से वह आंख पैदा हो सकती है। कुछ और इस आंख को पैदा करने के सूत्र मैं संध्या आपसे कहना चाहूंगा।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं, परमात्मा करे सबके पास जो आंखें मौजूद हैं, वे खुलें और परमात्मा करे कि सबके भीतर जो राज छिपे हैं, वे दिखाई पड़ें, क्योंकि अगर एक व्यक्ति अपने भीतर के रहस्य को ही जान ले, तो सारे विश्व के रहस्यों को जानने का द्वार खुल जाता है। हर मनुष्य समग्र सत्य के लिए खुद द्वार है। लेकिन चूंकि वह खुद ही बंद है, इसलिए सब बंद है। और फिर हम पूछते हैं, ईश्वर है, आत्मा है? और हम पूछते हैं जमाने भर के प्रश्न, उन प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं क्योंकि हम खुद जहां से कि सब द्वार शुरू होता है, बंद हैं।
परमात्मा करे, यह द्वार हमारा खुले। यह खुल सकता है और कोई भी व्यक्ति इसे खोलने में समर्थ हो सकता है। एक बार उसे अपनी पूरी स्थिति पर विचार करके अगर वह खोलने में संलग्न हो जाए, तो कोई दूसरी बाधा नहीं है। शायद बहुत सरल है बात, शायद अत्यंत सरल है। लेकिन हमने कभी उस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया, इसलिए बहुत कठिन मालूम पड़ती है।
एक व्यक्ति एक राजधानी के करीब से निकलता था, और उसने एक छोटे से बच्चे से पूछा कि अगर मैं सीधा चला जाऊं तो राजधानी कितनी दूर है? उस बच्चे ने कहा अगर आप सीधे गए, तो लाखों मील दूर। लेकिन अगर आप पीछे लौट आएं, तो केवल एक ही मील के फासले पर राजधानी है। अगर आप सीधे चले जाएं तो लाखों मील दूर है, क्योंकि पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़े, तब आ सकेंगे। और अगर पीछे लौट जाएं तो एक ही मील दूर है।
अगर हम अपने पर लौट कर निरीक्षण करने में संलग्न हो जाएं, तो राजधानी बहुत दूर नहीं है। लेकिन अगर हम दुनिया का निरीक्षण करते हुए खोज करते रहें, तो राजधानी बहुत दूर है। परमात्मा करे राजधानी बहुत दूर न रह जाए और पीछे लौट कर आप देख सकें, इसकी प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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