नौवां प्रवचन-(अमृत-मंथन)
मेरे प्रिय आत्मन्!बहुत से प्रश्न आपके दो दिनों में बाकी रह गए हैं, कुछ के संबंध में मैंने चर्चा की है। जो शेष हैं, उनमें सबसे पहले पूछा हैः मैंने आपको कहा प्रेम को विकसित करें--स्वयं पर, अन्य पर और परमात्मा पर। क्यों? क्योंकि मैं प्रेम को ही प्रार्थना मानता हूं। और साथ ही मैंने यह भी कहा कि शून्य हो जाएं।
तो प्रश्न पूछा है कि एक ओर मैं कहता हूं प्रेम करें और दूसरी ओर मैं कहता हूं शून्य हो जाएं, तो इन दोनों में संबंध क्या है?
निश्चित ही प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। और किसी को भी दिखाई पड़ेगा कि प्रेम करने में और शून्य होने में विरोध है। लेकिन मैं आपको कहूंगा, जो प्रेम करता है, वही केवल शून्य हो सकता है। और जो शून्य हो जाता है, वही केवल पूर्ण प्रेम को करने में समर्थ हो पाता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि प्रेम मनुष्य का स्वभाव है और शून्य भी मनुष्य का स्वभाव है। जब हम शून्य हो जाते हैं तो आत्मा का दर्शन होता है, और जब अपनी आत्मा का दर्शन होता है, तो चारों ओर अपनी ही आत्मा का सबमें दर्शन होने लगता है, वही प्रेम है। और यदि हम सबके भीतर प्रेम को फैला दें, तो भी उसका दर्शन प्रारंभ हो जाता है, जो भीतर बैठा हुआ है। दुनिया में सत्य को जानने के दो रास्ते हैं, एक रास्ता है, खुद शून्य हो जाएं तो भी सत्य जान लिया जाता है। क्योंकि शून्य हो जाने पर, सब चुप हो जाने पर, मौन हो जाने पर भीतर जो है, उसकी अनुभूति शुरू हो जाती है। लेकिन इस भांति जो शून्य होगा, शून्य के बाद पाएगा कि उसके जीवन में प्रेम के अनंत झरने फूट रहे हैं।
एक दूसरा रास्ता है सबके प्रति प्रेम से भर जाएं। इतने प्रेम से भर जाएं कि आपको स्मरण ही न रह जाए कि आप भी हैं। क्योंकि जब हम प्रेम में होते हैं, तो स्वयं का बोध विलीन हो जाता है। अगर स्वयं का बोध बना रहे तो आप प्रेम में नहीं हैं। जब स्वयं का बोध विलीन हो जाता है, और जब आप इतने प्रेम से भर जाते हैं कि आपको खयाल भी नहीं होता है कि मैं हूं, तब आप पुनः शून्य हो जाते हैं। प्रेम के विस्तार से भी व्यक्ति शून्य हो जाता है, और शून्य की गहराई में भी जाकर व्यक्ति प्रेम के विस्तार को उपलब्ध हो जाता है। कहीं से भी जाएं, असल में महत्वपूर्ण बात शून्य होना है। और जैसा मैंने आपको कहा, प्रेम का अर्थ ही है अहंकार के ऊपर उठ जाना, या अहंकार से शून्य हो जाना। जिसके भीतर अहंकार प्रगाढ़ है, वह कभी प्रेम नहीं कर पाता। जिसके भीतर जितना कम अहंकार और दंभ है, वह उतना ही ज्यादा प्रेम कर पाता है, जो जितने ज्यादा प्रेम को करेगा, उतना उसका अहंकार विलीन हो जाएगा और शून्य हो जाएगा। तो प्रेम को और शून्य को अलग न समझें, ये एक ही बात के दो नाम हैं। एक ही बात के दो नाम हैं, अपने से शुरू करें तो शून्य से करना होगा, और अन्यों से शुरू करें तो प्रेम से करना होगा। फिर यह भी स्मरण रखें, पदार्थ को जानना हो तो बुद्धि के द्वारा पदार्थ जाना जाता है।
इसलिए वैज्ञानिक केवल बुद्धि के माध्यम से पदार्थ का विश्लेषण करता है, खोज करता है। लेकिन आत्मा को जानना हो, चेतना को जानना हो, तो बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जाता, उसे जानना हो तो प्रेम के द्वारा जाना जाता है। इसलिए वैज्ञानिक की बजाय प्रेमी और कवि कहीं मनुष्य की आत्मा को ज्यादा जान लेते हैं। प्रेम भी जानने का एक द्वार है, जैसे बुद्धि जानने का एक द्वार है। लेकिन बुद्धि से केवल पदार्थ पकड़ में आता है, प्रेम से वह भी पकड़ में आ जाता है, जो पदार्थ नहीं है।
प्रेम को जितना विकसित करेंगे, उतना यह जगत चैतन्य से चिन्मय, परमात्मा से भरा हुआ प्रतीत होने लगेगा। एक पत्थर को भी प्रेम करें, एक पौधे को भी प्रेम करें, धीरे-धीरे पाएंगे कि प्रेम आपकी आंख खोल रहा है, और उस पौधे में या पत्थर में अब केवल पत्थर और पौधा दिखाई नहीं पड़ता, वहां भी प्राण के दर्शन होने शुरू हो गए हैं।
असीसी में एक फकीर हुआ, फ्रांसिस। वह जंगलों में जाता तो पौधों से गले मिलता और पक्षियों से बात करता, और पक्षियों से चर्चाएं करता, और उनसे प्रेम के संदेश भेजता। धीरे-धीरे पक्षी उसकी बातें सुनने लगे। और फ्रंासिस जहां भी जाता, कोई भी पक्षी अचानक उसके पास इकट्ठे हो जाते। लाखों लोगों ने यह देखा कि पक्षी फ्रांसिस की बात सुनते हैं। लोग बोले पागलपन है, ये कैसे सुनते होंगे? और फ्रांसिस किस भाषा में इनसे बोलता होगा? जब संत फ्रांसिस से पूछा, तुम किस भाषा में बोलते हो? तो उसने कहा, दुनिया में और सब भाषाएं तो अलग-अलग हैं, प्रेम की भाषा एक ही है। अगर दूसरी भाषाओं में बोलें तो, जो उन भाषाओं को नहीं समझ सकेंगे, वे नहीं समझते, लेकिन प्रेम की भाषा अकेली भाषा है, जिसे सब समझते हैं।
सारे मनुष्य जमीन के प्रेम की भाषा को समझते हैं, और जो जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि मनुष्य के अतिरिक्त भी जो प्राणी हैं, वे भी प्रेम की भाषा को समझते हैं। और जो और गहरा जानते हैं, वे जानते हैं कि पदार्थ के भीतर भी जो परमात्मा व्याप्त है, वह भी प्रेम की भाषा को समझता है।
तो स्मरण रखें, और सब भाषाएं मनुष्य की हैं, प्रेम परमात्मा की भाषा है, क्योंकि उसे सब समझते हैं, सब जानते हैं। जब तक आप दूसरी भाषाओं में ही बोलते रहेंगे, तब तक आप मनुष्य के घेरे के ऊपर नहीं उठ सकते। और जब आप प्रेम की भाषा में बोलने लगेंगे, आप पाएंगे आपने परमात्मा में प्रवेश कर लिया, क्योंकि आप एक नई भाषा सीख रहे हैं, जो केवल परमात्मा की है। और यह भी स्मरण रखें, कभी खयाल किया है, जब आप किसी के प्रति प्रेम से भर जाते हैं तो जो भाषा आप बोलते हैं, एकदम बंद हो जाती है। कभी यह खयाल किया है, अगर मेरे पास आएं, सैकड़ों लोग मेरे पास आते हैं, और जब मैं उनको देखता हूं, वे प्रेम से भर जाते हैं, तो सिर्फ उनकी आंख से आसूं निकलने लगते हैं और बोल बंद हो जाता है।
मैं बहुत हैरान हुआ, जब प्रेम भरता है, तो भाषा बंद क्यों हो जाती है? असल में प्रेम दूसरी भाषा है, जब एक भाषा बोलना शुरू करेंगे, तो दो भाषाएं साथ कैसे चल सकती हैं? इसलिए जो भाषा हम रोज-रोज बोलते हैं, एकदम बंद हो जाती है, प्रेम जब जागता है। इसलिए प्रेम एकदम मौन हो जाता है और कुछ नहीं बोल पाता। प्रेम इसलिए कुछ नहीं बोल पाता क्योंकि प्रेम तो खुद ही भाषा है, वह तो खुद ही बोलना है, उसे और किसी भाषा की कोई जरूरत नहीं है। इस प्रेम को फैलाने के लिए इसलिए कहा कि वह अकेली भाषा है, जो सारे जगत से आपको जोड़ देती है। और शून्य को इसलिए कहा, कि जितना आप शून्य होंगे, क्योंकि शून्य होंगे किससे? मैंने कहा विचार से शून्य हो जाएं, शब्द से शून्य हो जाएं अर्थ हुआ, मनुष्य की भाषा से शून्य हो जाएं। विचार और शब्द और शास्त्र ये मनुष्य की भाषाएं हैं, इनसे शून्य हो जाएं।
जब मनुष्य की सारी भाषाओं से शून्य हो जाएंगे तो फिर कौन सी भाषा शेष रह जाएगी? वही भाषा जो मनुष्य की बनाई हुई नहीं है। जो परमात्मा की है। शून्य हो जाएंगे, तो प्रेम शेष रह जाएगा और प्रेम से भर जाएंगे तो शून्य हो जाएंगे, ये दोनों एक ही बातें हैं, इनमें कोई भी भेद नहीं है। ऊपर से देखने में भेद दिखता हो, थोड़ा गहरा देखेंगे, समझेंगे तो कोई भेद उसमें दिखाई नहीं पड़ेगा। मैं समझता हूं मेरी बात खयाल में आई होगी।
यह भी पूछा है कि मैं कहता हूं प्रेम करें, लेकिन वीतराग पुरुष तो किसी को प्रेम नहीं करते?
इससे ज्यादा झूठी और कोई बात नहीं हो सकती। वीतराग पुरुष ही केवल प्रेम करते हैं। बाकी लोग कोई प्रेम नहीं करते। आप इस भूल में न रहें कि आप प्रेम करते हैं। प्रेम करना इतना आसान नहीं, प्रेम से और बड़ी कोई ऊंचाई नहीं है। और जिन घाटियों में हम पड़े हुए हैं, वहंा प्रेम की क्या खबर होगी? वहां कोई प्रेम की खबर नहीं है। जिसको हम प्रेम कहते हैं, वह प्रेम जरा भी नहीं है। धोखा है। क्यों? जब तक राग है, तब तक प्रेम नहीं हो सकता। साधारणतः लोग समझते हैं, राग और प्रेम एक ही है, राग और प्रेम विपरीत है। जहां राग है वहां प्रेम नहीं होता। क्योंकि राग का अर्थ ही है कि मैं कुछ मांगता हूं और पाना चाहता हूं। दूसरे से कुछ पाना चाहता हूं। और जहां पाने की इच्छा है, जहां दूसरे से कुछ पाने की इच्छा है, वहंा प्रेम कैसे होगा?
प्रेम तो केवल देना जानता है। मांगना नहीं जानता। प्रेम तो सहज दान है, मांग नहीं है। जहां मांग है, वहां प्रेम नहीं होता। जहां मांग बीच में आ जाती है, प्रेम विलीन हो जाता है, आप अपने प्रेम को पहचानें, खयाल करें, वहां सिवाय मांग के और कुछ भी नहीं होगा। जहां मांग आ जाती है, वहां प्रेम भी बंद हो जाता है। और जहां मांग आ जाती है वहां प्रार्थना भी बंद हो जाती है, क्योंकि प्रार्थना भी प्रेम है। जब आप मंदिर में खड़े होकर भगवान से कुछ मांगते हैं, तो समझ लें आपको भगवान से कोई प्रेम नहीं होगा, जो आप मांग रहे हैं, उससे आपको प्रेम होगा, भगवान से कैसे प्रेम होगा? अगर धन मांग रहे हैं, तो धन से प्रेम है। और भगवान से इसलिए मांग रहे हैं कि शायद वह दे सके, अगर भगवान धन नहीं देगा, तो आप वहां मांगेंगे जहां धन मिलता है, भगवान को छोड़ देंगे। अगर पुत्र मांग रहे हैं, तो पुत्र से प्रेम है, भगवान से क्या प्रेम होगा? जो हम मांगते हैं, वह बता देता है हमारा प्रेम कहां है? जहां आपकी मांग है, वहंा आपका हृदय है।
तो आप सोचें, मानवीय संबंधों में जब आप किसी से कुछ मांग रहे हैं तो आपका प्रेम उससे नहीं है, अगर आप किसी तरह की कामुक तृप्ति चाहते हैं, किसी तरह की वासना की तृप्ति चाहते हैं, तो आपका प्रेम वासना से होगा, कामना से होगा, सेक्स से होगा, उससे कैसे होगा, जिससे आप मांग रहे हैं। वह तो गौण है और साधन मात्र है। जिसे आप प्रेम कहते हैं उसमें आप दूसरे मनुष्य को साधन बना रहे हैं, अपनी इच्छाओं की तृप्ति का, यह शोषण है, प्रेम नहीं है। इसलिए मेरा मानना है, जो प्रेम से भर जाएगा, वह सेक्स से तत्क्षण मुक्त हो जाएगा। प्रेम की परिपूर्णता ब्रह्मचर्य है। लेकिन ऐसे पागल लोग हैं, जो समझते हैं कि प्रेम को हटा लो तो सेक्स से मुक्त हो जाएंगे। जो लोग प्रेम को हटा लेते हैं, वे सेक्स से ही भर जाते हैं, उनका चिंतन सिवाय उसके और कहीं नहीं जाता। इसलिए पापी जो पाप करते हैं, संन्यासी रात सपनों में वही करते रहते हैं, उससे कुछ बहुत भेद नहीं होता। पापियों के दिन में और संन्यासियों की रातों में समानता होती है। पापियों के कामों में और संन्यासियों के सपनों में समानता होती है। क्योंकि दिन भर जिसे वे दबाते हैं, रात भर उसको अनुभव करते हैं, इसलिए संन्यासी सोने से डरते हैं। और सारी दुनिया में संन्यासी यह कहते हैं, सोना बड़ी बुरी चीज है, नींद बहुत बुरी चीज है। नींद से क्यों डरते हैं? नींद से डरते हैं कि जिसको दिन भर दबाया है, वह रात को नींद में गर्दन दबाने लगता है। उस वक्त ताकत नहीं पड़ती, नींद में बेहोश होते हैं, वही सारी वासनाएं मन को पकड़ने लगती हैं। वे ही सारी कामनाएं घेरने लगती हैं, इसलिए नींद से संन्यासी डरते हैं, और ऐसे संन्यासी तो चाहते हैं कि बिलकुल नींद न आए। किसी तरह नींद से बच जाएं, तो सबसे बच गए। लेकिन इस तरह बचने से कोई बच सकता है? यह कोई बचना है?
मैं आपको कहता हूं कि जितना प्रेम प्रगाढ़ होगा, उतना ही ज्यादा काम और सेक्स विलीन हो जाएगा और राग विलीन हो जाएगा। उस समय आपकी कोई मांग नहीं होगी, और तब आपका प्रेम उस पर होगा, जिससे आपकी कोई मांग नहीं है।
मैंने सुना है, एक फकीर एक बादशाह से मिलने गया। उसके गांव के लोगों ने उस फकीर से कहा कि बादशाह तुम्हें प्रेम करता है, तुम जाओ और उससे कहना कि हमारे गांव में एक स्कूल खोल दे। तो वह गया। जब वह गया तो बादशाह नमाज पढ़ रहा था मस्जिद में, वह पीछे खड़ा हो गया, वह नमाज पढ़ ले, तो मैं फिर कहूं। बादशाह ने नमाज पढ़ी और कहा हे परमात्मा! मेरे राज्य को और बड़ा कर। मेरे धन को और बढ़ा, मेरे यश के क्षितिज और बड़े कर, मुझे और ऊपर उठा। बादशाह यह कह कर उठा, उसने देखा फकीर वापस लौट रहा है। उसे फकीर की पीठ दिखाई पड़ी। उसने चिल्ला कर कहा कि आए भी और चले भी, बात क्या है?
उसने कहाः मैं तो सोचा कि तुम प्रार्थना कर रहे होंगे, मैं तो समझा परमात्मा से तुम्हें प्रेम है, लेकिन मैंने जो सुना उसने मेरी आंखें खोल दी, मैंने पाया कि तुम भी भिखारी हो और मांग रहे हो। जो भिखारी हैं, वे प्रेम नहीं कर सकते, और न प्रार्थना कर सकते हैं, स्मरण रहे, वे केवल भीख मांग सकते हैं, चोरी कर सकते हैं, छीन सकते हैं; लेकिन प्रेम नहीं कर सकते क्योंकि प्रेम तो दान है, वह तो देना है। प्रेम तो केवल वही लोग कर सकते हैं, जो भिखमंगे नहीं हैं, सम्राट हैं, जो बादशाह हैं। जो किसी से कुछ मांगते नहीं, जिन्हें सब उपलब्ध है और जो केवल बांटते हैं।
एक भारतीय संन्यासी अमरीका में था, वहां के प्रेसीडेंट ने आकर उससे पूछा कि मैंने सुना है, कि तुम अपने को बादशाह कहते हो? उस संन्यासी ने कहा निश्चित ही, क्योंकि केवल संन्यासी ही बादशाह हैं। उसने कहा यह तो बड़ी हैरानी की बात है, दो लंगोटी तुम्हारे पास मुश्किल से हैं, और अपने को बादशाह कहते हो। उस संन्यासी ने कहाः जिसकी कोई मांग नहीं वह बादशाह है, और जो मांगता है वह भिखारी है।
संन्यासी कुछ मांगता नहीं। और स्मरण रखें जो मांगता नहीं, वही केवल देने में समर्थ हो पाता है। जो मांगता है, वह कैसे देने में समर्थ होगा? जिसकी अभी मांग बाकी है, वह देगा कैसे? देते कैसे उससे बन पड़ेगा? जिसकी मांग खत्म हो जाती हो, वह देता है। प्रेम दान है।
महावीर या बुद्ध जिनको हम कहते हैं वीतराग पुरुष थे। यह मत समझें कि वे प्रेम से खाली हो गए। जब वे सबसे खाली हो गए तो अकेला प्रेम ही शेष रह गया, और जब उन्होंने सब मांगना बंद कर दिया, सब रागों के ऊ पर और मांगों से ऊपर उठ गए, तब उनसे दान होने लगा, तब वे देने लगे। जैसे सूरज से प्रकाश झरता है, वैसे ही ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति से प्रेम झरता है। प्रेम परीक्षा है, प्रेम कसौटी है, अगर प्रेम न झरता हो तो समझना ज्ञान किताबों और शास्त्रों से आया है। ज्ञान सच्चा नहीं है। अगर ज्ञान भीतर से आया हो तो उसकी परीक्षा और कसौटी प्रेम होगी। इसलिए जगत में जब भी कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो उसका जीवन और आचरण प्रेम को उपलब्ध हो जाता है। प्रेम ही नीति है, क्योंकि जब प्रेम होता है, तो किसी के साथ अनीति करनी असंभव हो जाती है। प्रेम ही अहिंसा है, क्योंकि जब प्रेम होता है तो किसी को दुख देना असंभव हो जाता है। और प्रेम ही अपरिग्रह है, और प्रेम ही सत्य है, और प्रेम ही सब कुछ है; क्योंकि प्रेम हो तो सब ठीक हो जाता है।
एक फकीर था, अगस्तीन। एक गांव से गया और लोगों ने उसे पूछा, हम क्या करें? मुझसे लोग पूछते हैं जगह-जगह हम क्या करें? अभी मुझसे पूछा है कि साधुओं को हम कैसे आहार दें? और भी पूछा है कि हम कैसे उठें, कैसे बैठें, क्या पहनें, क्या खाएं? जगह-जगह लोग पूछते हैं, अगस्तीन से भी उस गांव के लोगों ने पूछा, हम क्या करें? अगस्तीन ने कहा एक छोटा सा काम करो, उन्होंने कहा क्या? अगस्तीन ने कहाः प्रेम करो और बाकी की फिकर छोड़ दो। अगर तुमने प्रेम किया, तो प्रेम के बाद तुम जो भी करोगे, वह ठीक होगा, और अगर तुमने प्रेम नहीं किया तो तुम जो भी करोगे वह ठीक कभी हो नहीं सकता है।
यही मैं कहता हूं। स्वयं के भीतर ज्ञान को उपलब्ध हों और बाहर के जगत के लिए प्रेम को उपलब्ध हों। बाहर प्रेम को फैलने दें और भीतर स्वयं को जगने दें। ज्ञान और प्रेम जब दोनों संतुलित होते हैं, तो जीवन संगीत बन जाता है। जब दोनों संतुलित होते हैं, तो जीवन संगीत बन जाता है। जहां ज्ञान और प्रेम की ज्योति साथ चलती है, वहां जीवन परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए यह मत सोचें कि वीतराग व्यक्ति जो है, उसमें प्रेम नहीं होता, उसमें ही प्रेम होता है। और जो राग से भरा व्यक्ति है, उसमें प्रेम नहीं होता है। प्रेम बड़ी दूसरी चीज है, प्रेम से पावन और पवित्र और कुछ नहीं, और मनुष्य के अनुभव में प्रेम से ज्यादा डिवाइन और दिव्य और कुछ नहीं है।
फिर एक प्रश्न पूछा है कि मैं कहता हूं ध्यान करें, तो पूछा है किसका ध्यान करें?
यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल ठीक ही है कि जब भी हम कहेंगे ध्यान करें, तो खयाल उठता है किसका ध्यान करें? जब मैं कहूं प्रेम करें, तो खयाल उठता है किससे प्रेम करें। जब मैं कहूं ज्ञान को उपलब्ध हों, तो प्रश्न उठेगा किसके ज्ञान को उपलब्ध हों? असल में हमको यह पता नहीं है कि प्रेम, ज्ञान या ध्यान संबंध, रिलेशनशिप नहीं है। अवस्थाएं हैं, स्टेट्स आॅफ माइंड हैं। इसे थोड़ा समझना होगा। साधारणतः हम सोचते हैं कि जब भी मैं प्रेम करूंगा, तो किसी से करूंगा; यह गलती है। समझ लो कि मैं प्रेम करने वाला हूं, और मुझे जंगल में छोड़ दिया, तो आप पूछेंगे कि फिर कैसे प्रेम करेंगे? निश्चित ही यह लगता है कि जब भी हम प्रेम करेंगे, तो किसी से करेंगे। लेकिन यह समझिए कि जब मैं किसी से प्रेम करूंगा, तो प्रेम करने के पहले प्रेम मेरे भीतर होना चाहिए ना। प्रेम मेरी अवस्था होनी चाहिए, तब तो मैं प्रेम करूंगा।
एक कुएं से हम पानी खींचते हैं, लेकिन कुएं में पानी होना चाहिए ना खींचने के पहले। और हम न खींचे तो कुएं में पानी नहीं रह जाएगा? हम न खींचें तो भी पानी रहेगा, हम खींचें तो भी पानी रहेगा। खींचने के पहले भी पानी है, खींचने के बंद होने के बाद भी पानी है। पानी तो कुएं के भीतर है, आपके खींचने से उसका कोई संबंध नहीं है। अगर मेरे भीतर प्रेम है, आप आएं तो आपको प्रेम मिलेगा, आप न आएं तो प्रेम शून्य में झरता रहेगा। लेकिन प्रेम मेरे भीतर नहीं रह जाएगा, ऐसा मत समझें। अगर कोई भी न रह जाए और मेरे भीतर प्रेम हो, तो झरता रहेगा। एक दीये को हम जलाएं, उसके आस-पास से लोग निकलेंगे तो दीये का प्रकाश उनके ऊपर पड़ेगा, अगर कोई नहीं निकलेगा तो क्या समझते हैं, दीया बुझ जाएगा, दीया जलता रहेगा, प्रकाश खाली जगह में पड़ता रहेगा।
प्रेम एक अवस्था है, रिलेशनशिप नहीं। संबंध नहीं, उसका किसी से कोई संबंध नहीं है, वह तो भीतरी अवस्था है। कोई उसके सामने आ जाता है, तो उस पर पड़ जाता है, कोई नहीं आता है, तो नहीं पड़ता। ऐसे ही ध्यान भी एक अवस्था है। यह मत सोचें कि राम का ध्यान करें, कृष्ण का करें, महावीर का करें, बुद्ध का करें, इसका करें, उसका करें, ध्यान का संबंध किसी से नहीं है।
ध्यान की अवस्था का मेरा जो अर्थ है, वह है चित्त की परिपूर्ण शांत और निष्तरंग स्थिति। अगर किसी का ध्यान कर रहे हैं तो वह तो तरंग हो गई, उसमें निष्तरंगता कैसे होगी? वह तो स्वयं एक तरंग हो गई, अगर आप किसी का ध्यान कर रहे हैं, किसी के ध्यान का अर्थ हो गया आप विचार कर रहे हैं, ध्यान नहीं। ध्यान और विचार में अंतर है। विचार का अर्थ है, किसी का होगा, विचार बिना किसी के हुए कभी नहीं हो सकता। विचार हमेशा रिलेशनशिप है। विचार कभी भी स्टेट आॅफ माइंड, चित्त की दशा नहीं है, हमेशा संबंध है। विचार हमेशा किसी का होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि आप विचार कर रहे हों, और कहें कि मैं किसी का विचार नहीं कर रहा, सिर्फ विचार कर रहा हूं। ऐसा नहीं हो सकता। विचार तो हमेशा किसी का होगा। उसका तो संबंध किसी से होगा। लेकिन ध्यान में आप हो सकते हैं, बिना किसी के। क्योंकि ध्यान का अर्थ ही है कि सब विचार बंद। राम का, और कृष्ण का, और महावीर का भी बंद। सब विचार जहां बंद हो गए हैं, उस निर्विचार अवस्था में जो चित्त की दशा है, उसका नाम ध्यान है।
तो ध्यान को ऐसा मत सोचें कि किसी का ध्यान करना है। प्रचलित बातें ऐसी हैं कि हम राम का ध्यान कर रहे थे, कहना चाहिए कि हम राम का विचार कर रहे थे, ध्यान नहीं। ध्यान का अर्थ ही हुआ जहां कोई नहीं है,और मैं अकेला हो गया।
मैं एक कहानी कहता रहा हूं, मुझे प्रीतिकर रही है। वहां एक साधु हुआ है रिंझाई, एक पहाड़ के किनारे खड़ा था, सुबह-सुबह। और कुछ लोग उसके भिन्न वहां घूमने गए हैं। और मित्रों ने देखा कि रिंझाई वहां खड़ा क्या करता होगा? तो एक मित्र ने कहा कि कभी-कभी वह वहां खड़ा होकर देखता है, उसकी गाय खो जाती है, तो उसे खोजता है कि गाय कहां है, तो पहाड़ी पर चढ़ कर देख लेता है। शायद गाय खो गई है और वह देख रहा है।
उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं, नहीं ऐसा नहीं मालूम होता, उसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि कुछ खोज रहा है, उसे देख कर लगता है वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। कभी-कभी कोई मित्र साथ आते हैं और घूमने में पीछे छूट जाते हैं, तो वह रुक कर उनकी राह देखता है। तीसरे ने कहा मुझे तो ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। क्योंकि एक भी दफा उसने लौट कर पीछे नहीं देखा। और मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि वह कुछ खोज रहा है, क्योंकि उसकी आंखें कुछ खोजती सी मालूम नहीं होतीं। मुझे तो ऐसा लगता है कि वह परमात्मा का ध्यान कर रहा है। वे तीनों सहमत नहीं हो सके, उन्होंने कहा उचित हो कि हम चलें और उस साधु रिंझाई से पूछें कि तुम यहां क्या कर रहे हो? वे उसके पास गए, वे उसके पास गए और उन्होंने, एक-एक ने पूछा, पहले ने पूछा कि क्या आपकी गाय खो गई है, और उसको खोज रहे हैं? उस रिंझाई ने कहाः नहीं, मेरी गाय नहीं खोई, असल में मेरी कोई गाय ही नहीं है। असल में मेरा कुछ है ही नहीं। खोएगा क्या? खोता उनका है, जिनके पास कुछ हो, मेरा कुछ है ही नहीं।
दूसरे ने पूछा तो फिर क्या आप किसी मित्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं? रिंझाई ने कहा नहीं किसी मित्र की प्रतीक्षा नहीं कर रहा। असल में मेरा कोई मित्र ही नहीं है, क्योंकि जिसका कोई शत्रु न हो, उसका मित्र कैसा? तीसरे ने पूछा, तब तो निश्चित है कि आप परमात्मा का ध्यान कर रहे हैं? उसने कहा बिलकुल नहीं। क्योंकि जब तक किसी का ध्यान हो, तब तक परमात्मा की...परमात्मा में पहुंचना ही कैसे हो सकता है? जब तक किसी का ध्यान हो तब तक परमात्मा में पहुंचेंगे कैसे? परमात्मा में तो तब ही पहुंचा जाता है, जब सबका ध्यान छूट जाता है। जब सबका विचार छूट जाता है, जब सबका खयाल छूट जाता है और जब चेतना विश्राम में पहुंच जाती है, परम विश्राम में; तब वह परमात्मा में पहुंचती है। तो मैं परमात्मा का ध्यान नहीं कर रहा।
तो उन्होंने कहा कि तुम क्या कर रहे हो? कुछ तो जरूर कर रहे होओगे?
उसने कहा कि नहीं, मैं केवल खड़ा हूं और कुछ भी नहीं कर रहा। जस्ट स्टेंडिंग एण्ड डूइंग नथिंग।
यह ध्यान की अवस्था है--कि मैं सिर्फ खड़ा हूं और कुछ भी नहीं कर रहा।
समझें, सोचें, अगर आप सिर्फ खड़े हैं या सिर्फ बैठे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे--चित्त शांत है, उसकी सारी दौड़ बंद है, उसका सारा चक्कर बंद है, कुछ भी नहीं कर रहे, बस हैं; सिर्फ मौजूद हैं और कुछ भी नहीं कर रहे। खयाल करें, स्मृति को दौड़ाएं उस तरफ कि जब आप अकेले रह गए हैं और कुछ कर नहीं रहे हैं, तभी, तभी जहां आप हैं उस अवस्था का नाम ध्यान है।
तो मैं किसी का ध्यान करने को नहीं कहता, ध्यान में जाने को कहता हूं। और ठीक से समझें तो मैं किसी को प्रेम करने को नहीं कहता, प्रेम में जाने को कहता हूं। जब आप चले जाएंगे, प्रेम में तो सब प्रेम हो जाएगा और जब चले जाएंगे ध्यान में तो वहां पहुंच जाएंगे, जो सबका स्रोत है, सबका उदगम और सबका केंद्र है। जहां से सब पैदा होता है, और सब विलीन हो जाता है। तो मेरे ध्यान को समझ लेंगे, वह विचार नहीं है, वह निर्विचार अवस्था है।
फिर पूछा है कि ज्ञान, दर्शन और चरित्र ये रत्नत्रैय रूप, योग, मुक्ति-पथ के प्राप्ति का उपाय तीर्थंकरों ने बतलाया है, क्या आप इससे सहमत हैं? ध्यान इन तीनों रत्नों से युक्त होना आवश्यक है, इस संबंध में आपका क्या मत है?
तीर्थंकरों ने क्या बतलाया है, यह कहना कठिन है। तीर्थंकरों के संबंध में हम सब क्या बतलाते रहते हैं, यही समझना आसान है। तीर्थंकरों ने क्या कहा है, यह बिना तीर्थंकर हुए नहीं समझा जा सकता। असल में जिस चेतना के तल से जो बात कही जाती है, उसी तल पर समझी जा सकती है। और जब नीचे की चेतना के तल पर उस बात को समझने की कोशिश होती है, तो सब विकृत हो जाता है। तीर्थंकरों के सब शब्द जो हमें उपलब्ध हैं, वे ठीक-ठीक उनके नहीं हैं, बल्कि उन लोगों के हैं, जिन्होंने उन्हें रिकाॅर्ड किया है, लिखा है। और ये लोग अत्यंत नीचे तल के लोग थे। और दुनिया में जब भी ईश्वरीय अनुभूति के कोई भी शब्द कहे गए हैं, तो अक्सर वे नीचे के तल के लोगों के द्वारा लिखे गए हैं। और यह भी स्मरण रखें कि जब आप उनको पढ़ते हैं, तब भी आप वही अर्थ नहीं समझ पाते, जो उनमें है, आप वही अर्थ समझ पाते हैं, जो आप समझ सकते हैं। इसे फिर से दोहरा दूं। जब आप गीता को, कुरान को, बाइबिल को, महावीर को या बुद्ध के वचनों को पढ़ते हैं, तो आप वही अर्थ समझ पाते हैं, जो आप समझ सकते हैं। अर्थ आपकी चेतना के तल से ऊपर कभी नहीं हो सकता। शब्द किसी के हों अर्थ आपका ही होता है। वाणी किसी की भी हो, उसमें से जो आप निकालते हैं व्याख्या, वह आपकी ही होती है।
मैं यहां बोल रहा हूं, तो आप सोचते हों कि मैं जो बोल रहा हूं, वही आप सुन रहे हैं तो आप गलती में होंगे, क्योंकि मैं जो बोल रहा हूं, अगर आप वही सुन लें, तो आप सब एक ही बात सुन लेंगे, लेकिन जरा आप एक-दूसरे से विचार करेंगे तो आपको पता चल जाएगा, आपने एक ही बात नहीं सुनी। आप सब विवाद में पड़ जाएंगे कि मैंने क्या कहा। यह इस बात की सूचना है कि आपने वह सुना जो आप सुन सकते थे, दूसरे ने वह सुना, जो वह सुन सकता था। हर आदमी अपनी तईं सुन रहा है और समझ रहा है। इसलिए कृपा करें, तीर्थंकरों को, पैगंबरों को बीच में न घसीटें, उनकी व्यर्थ फजीहत हो जाती है, और कुछ भी नहीं होता। अच्छा हो कि आप अपनी तईं समझें कि बात क्या है? यह जो कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन और चरित्र इन तीन की जो साधना कर लेता है, वह मुक्ति पद को उपलब्ध हो जाता है। यह जरूर कहा होगा, लेकिन जो समझा गया है, वह यह समझा गया है कि ज्ञान का अर्थ है शास्त्रों को याद कर लो, और दर्शन का अर्थ है कि श्रद्धा उत्पन्न कर लो, और चरित्र का अर्थ है, इतना गज कपड़ा रखो, इतना खाना खाओ, इतनी देर सोओ, इस तरह उठो, इस तरह बैठो; यह चरित्र है, इतने-इतने शास्त्रों को याद कर लो; यह ज्ञान है; और श्रद्धा ले आओ, तीर्थंकरों पर, अवतारों पर तो यह दर्शन है।
निश्चित ही अलग-अलग धर्म का अलग-अलग ज्ञान होगा, क्योंकि अलग-अलग धर्म की अलग-अलग किताब हैं। जो मुसलमान के लिए ज्ञान है, वह जैनी के लिए अज्ञान है। और जो ईसाइयों के लिए अज्ञान है, वह हिंदुओं के लिए ज्ञान है। सो दुनिया में बहुत ज्ञान है, जब कि ज्ञान एक ही हो सकता है। शास्त्र अलग-अलग ज्ञान देते हैं, इसलिए पक्का समझ लें शास्त्रों में ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान तो एक ही हो सकता है। शास्त्रों को याद करके जो हम सीख लेते हैं, उसे हम ज्ञान समझ लेते हैं, जब कि वह ज्ञान नहीं मात्र स्मृति है, मेमोरी है, लर्निंग है। यह टेप रिकाॅर्ड यहां किए जा रहे हैं, ये आपसे ज्यादा ज्ञानी है। क्योंकि मैं जो कहूंगा, जितना अच्छा आप रख सकेंगे, उससे ज्यादा अच्छा ये रख लेंगे। ये स्मृति जो आपको पैदा हो जाएगी, भूल से इसको ज्ञान मत समझ लेना। यह केवल रिकाॅर्डिंग है, यह प्राकृतिक मस्तिष्क कर रहा है, यह अप्राकृतिक मस्तिष्क कर रहा है। इसमें कोई बहुत भेद नहीं है, यह ज्यादा उचित है, क्योंकि यह भूल-चूक बिलकुल नहीं करता।
आज नहीं कल सब मशीनें ईजाद हो जाएंगी और आपको स्मरण रखने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाएगी। तब आप बिलकुल ज्ञान से शून्य हो जाएंगे, क्योंकि आपके पास कोई ज्ञान नहीं होगा। किताबों के कचरे को जो ज्ञान समझ लेता है, वह गलती में है। यह ज्ञान नहीं है, और तीर्थंकरों पर श्रद्धा लाना दर्शन नहीं है। क्योंकि मुसलमान कहते हैं कि मोहम्मद पर श्रद्धा ले आओ, तो दर्शन हो गया। और ईसाई कहते हैं कि ईसा पर श्रद्धा ले आओ तो सब ठीक हो गया। और अगर जैनों से पूछें तो वे कहेंगे, ये सब मिथ्या है। श्रद्धा ईसा पर या मोहम्मद पर! यह कोई ज्ञानी है? ये कोई तीर्थंकर हैं, ये कोई सर्वज्ञ हैं? ये तो कुछ भी नहीं है, ये तो मिथ्या ज्ञानी हैं। यही उनके लोग कहेंगे कि ये सब मिथ्या ज्ञानी हैं।
ये जो झगड़े हैं, श्रद्धा के अगर दूसरे पर श्रद्धा लाइएगा, झगड़ा निश्चित है। क्योंकि कौन किस पर लाएगा, वह लड़ने लगेगा। इसलिए श्रद्धा का यह अर्थ भी नहीं हो सकता, श्रद्धा ऐसी होनी चाहिए जिसमें झगड़ा और विवाद खड़ा न हो, तभी वह सम्यक होगी। और ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो एक हो, तभी वह सम्यक होगा। और जिसको चरित्र कहते हैं, वह तो और अदभुत बात हो गई है, चरित्र को तो हम इतने नीचे स्तर पर उतार लाए हैं, कि विवेकानंद को अमरीका में कहना पड़ा कि हिंदुस्तान का सारा धर्म चैके-चूल्हे का धर्म हो गया है। और विवेकानंद को कहना पड़ा, कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो कुछ दिनों में मंदिरों की कोई जरूरत नहीं, पाकशास्त्र काफी होगा। क्या खाना, क्या पीना?
नोटः चेक कहा कहंू उस देस की नंबर चार और सुख नहीं आनंद नंबर दो

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