दसवां प्रवचन-(जीवन ही आनंद है)
लेकिन कभी आप अपने साथ रहे हैं कभी एकाध क्षण को? अपने साथ मुश्किल से कोई रहता है--मित्रों के साथ लोग रहते हैं, कल्पनाओं के साथ लोग रहते हैं, कामनाओं के साथ लोग रहते हैं, अपने साथ कोई भी नहीं रहता। अपने साथ कभी रहे हैं कभी एकाध क्षण को भी, जब आप ही हों और कोई न हो; कोई भविष्य न हो, कोई अतीत न हो, कोई मित्र न हो, कोई शत्रु न हो, आप ही हों अकेले। कभी रहे हैं? अगर रहे हों, तो फिर आनंद को कहीं और नहीं खोजेंगे। फिर हंसेंगे अपने पर कि मैं कहां खोजता था? जो मौजूद था, उसे खोजता था। जो निरंतर साथ था उसे खोजता था। लेकिन उस तरफ, उस तरफ हमने कोई ध्यान नहीं दिया है। धर्म का संबंध है आपके उस अकेलेपन से जहां आप बस अकेले हैं। लेकिन हम तो सदा किसी के साथ हैं, अगर अकेले जंगल में भी आपको छोड़ दें, तो भी मन किसी के साथ होगा, कहीं आगे, कहीं पीछे, कहीं और। वहां नहीं होगा, जहां आप हैं।जापान में एक छोटी सी पहाड़ी के पास एक साधु खड़ा हुआ था और तीन मित्र सुबह-सुबह घूमने निकले थे। तो उन्होंने पहाड़ी पर खड़े उस साधु को देखा और मन में सोचा कि यह साधु सुबह-सुबह यहां क्या करता होगा? क्या कर रहा है? और जैसे कि हम सब विवाद में पड़ जाते हैं, फिजूल की बातों पर, वे तीन भी विवाद में पड़ गए। और उनमें से एक ने कहा, ऐसा मालूम पड़ता है, उसकी गाय कभी-कभी खो जाती है, तो वह पहाड़ी पर खड़े होकर देखता होगा कि मेरी गाय कहां है, जंगल में? वह उसी को खोजता हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन दूसरे मित्र ने कहा कि उसे देख कर ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि वह कुछ खोज रहा है। उसे देख कर तो ऐसा मालूम पड़ता है कि कोई मित्र उसके साथ आया होगा, वह पीछे छूट गया होगा, वह उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन तीसरे ने कहा कि उसे देख कर ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो, क्योंकि प्रतीक्षा करने वाला लौट-लौट कर पीछे देखता है। वह तो खड़ा ही है, ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता कि खोज रहा है, क्योंकि बिलकुल थिर मालूम होता है, उसी आंखें कहीं भटकती हुई, कुछ खोजती हुई नहीं मालूम पड़ती। तो मैं तो समझता हूं कि वह परमात्मा का स्मरण कर रहा है, प्रार्थना कर रहा है।
तीनों में विवाद हो गया और तब कोई रास्ता नहीं रहा तय करने का, तो उन्होंने कहा कि चलो हम थोड़ा चढ़ें और चलें और उससे ही पूछ लें कि तुम यहां क्या कर रहे हो? वे तीनों गए और उस साधु के पास पहुंचे। और पहले मित्र ने उस साधु से पूछाः आप क्या कर रहे हैं? क्या आपकी गाय खो गई है, आप उसे खोज रहे हैं? उस साधु ने कहाः कैसी गाय? किसकी गाय? मेरा कुछ भी नहीं है, खोएगा कैसे? मेरा कुछ भी नहीं है, खोएगा कैसे? मैं कुछ भी नहीं खोज रहा हूं। दूसरे मित्र ने कहा कि तब ठीक कोई आपके साथ आया होगा, कोई आपका मित्र, वह पीछे छूट गया, आप उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? उसने कहा कैसा मित्र, कैसा शत्रु? मेरा न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है, और कैसा साथ? मैं बिलकुल अकेला आया, और बिलकुल अकेला हूं, और अकेला जाऊंगा। मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा। तब तो निश्चित ही था कि तीसरा सही है। और उस तीसरे ने पूछा तब तो ठीक है, निश्चित ही आप परमात्मा का स्मरण कर रहे हैं। उस आदमी ने कहा, कैसा स्मरण? किसका स्मरण? यदि परमात्मा है, तो मैं परमात्मा हूं। तो परमात्मा, परमात्मा का कैसे स्मरण करे? किसका स्मरण? किसकी प्रार्थना? मैं किसी का स्मरण नहीं कर रहा हूं, किसी की प्रार्थना नहीं कर रहा हूं। वे तीनों बड़ी हैरानी में हो गए, उन्होंने पूछा, फिर आप क्या कर रहे हैं? उस साधु ने क्या कहा? उस साधु ने कहा, मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, मैं केवल हूं। साधु ने कहाः मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, मैं केवल हूं। मैं मात्र हूं अभी और कुछ कर नहीं रहा हूं।
कभी आपने ऐसा कोई क्षण जाना, जब आप केवल हैं और कर कुछ भी नहीं रहे हैं। अगर जाना होता, तो आप यहां नहीं आए होते, क्योंकि आनंद को फिर आपका कोई सवाल ही नहीं रह जाता, समझने के लिए। आप यहां नहीं होते। क्योंकि जो आदमी उस क्षण को जान लेता है, जब वह है और कुछ भी नहीं कर रहा है, उस शांति को जब सारी डूइंग, सारा करना सारी बीकमिंग, सारा होना नहीं है, सिर्फ बीइंग है, सिर्फ होना है, मात्र हम हैं। जो व्यक्ति उस क्षण को जान लेता है, वह आनदं को जान लेता है, वही जीवन को भी जानता है, जीवन और आनंद दो बातें नहीं हैं। जीवन का आनंद ऐसी बात बोलना गलत है, जीवन ही आनंद है। आनंद ही जीवन है यह एक ही बात की, दो, एक ही तथ्य को कहने वाले दो शब्द हैं, जिसने जीवन को जान लिया, वह आनंद को भी जान लेता है। जीवन तो आनंद है। जिसने आनंद को जान लिया वह जीवन को जान लेता है। अगर आपने आनंद नहीं जाना, तो आप भ्रम में होंगे आपने जीवन को नहीं जाना। आप जीवित भी नहीं हो सकते हैं।
बुद्ध के समय में अपने भिक्षुओं की उम्र वे जन्म से नहीं गिनते थे। और यह घटना शुरू हुई, एक बूढ़ा आदमी बुद्ध के पास आया और बुद्ध ने पूछा तेरी उम्र कितनी है? भिक्षु तेरी उम्र कितनी है? उसने कहा केवल चार वर्ष। वह था कोई सत्तर वर्ष का। बुद्ध ने कहा, चार वर्ष! क्या कहते हो? उसने कहा चार वर्ष के पहले मैं जीवित था, यह कहना ठीक नहीं होगा। मैं जीवन को जानता ही नहीं था, तो जीवित कैसे कहूं? इधर चार वर्षों से मैंने जाना कि जीवन क्या है? जीवन का सौंदर्य और सत्य और जीवन का आनंद, और शांति। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि भिक्षुओं! याद रखो, आगे से किसी भी अच्छे मनुष्य की उम्र जन्म से मत गिनना। यह ठीक कहता है।
क्राइस्ट एक दफा एक झील के पास से निकले, एक मछुआ मछलियां मारता था। क्राइस्ट ने उसके कंधे पर हाथ रखा, और कहा कि मित्र कब तक तू मछलियां ही फांसता रहेगा, जीवन को नहीं फांसना है? वह मछुआ बहुत हैरान हुआ, उसने कहाः जीवन? क्राइस्ट ने कहाः हम तुझे ऐसा जाल फेंकना सिखा सकते हैं कि जीवन फंस जाए, और तू है कि मछलियां फांस रहा है। मछुआ बड़ी हिम्मत का आदमी रहा होगा। उसने जाल वहीं फेंक दिया, क्राइस्ट के पीछे हो लिया। लेकिन गांव के बाहर नहीं निकल पाया था कि एक आदमी ने आकर खबर दी कि तुम कहां जा रहो हो? पता तुम्हारे पिता की मृत्यु हो गई, पिता बीमार था और मर गया था अभी-अभी। तो उस मछुए को किसी ने खबर दी कि तुम्हारा पिता मर गया है। घर चलो। उस मछुए ने क्राइस्ट से कहा कि क्षमा करें, और दो-चार दिन की मुझे छुट्टी दे दें, मैं थोड़े पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं । क्राइस्ट ने क्या कहा? क्राइस्ट ने कहाः लेट दि डेड, वरि दि डेड। गांव के मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना लेंगे, तू मेरे पीछे आ। क्राइस्ट ने कहाः गांव के मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे, तू बहुत फिकर मत कर, तू मेरे पीछे आ।
बड़ी अजीब बात कही, मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे! निश्चित ही जिसने जीवन को नहीं जाना वह मुर्दा है। केवल श्वास लेने से कोई जीवित होता है? जीवन इतनी सरल बात है? क्या भोजन पचा लेने से कोई जीवित होता है? रात को सो जाने से, सुबह आंख खोल लेने से कोई जीवित होता है? नहीं, नहीं। शायद विज्ञान समर्थ हो जाएगा ऐसी पुतलियां बनाने में, जो श्वास लें, भोजन पचाएं, रात को सोएं, सुबह उठ कर काम करें। इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। आज नहीं कल विज्ञान यंत्र बना लेगा जो ये सब काम कर सकेंगे, जो आप कर रहे हैं। क्योंकि आपका काम कोई भी ऐसा नहीं है, जो यंत्र न कर सके। सारा काम यांत्रिक है, जो आप कर रहे हैं। चाहे ब्रह्ममुहुर्त में उठते हों, चाहे आठ बजे उठते हों। दोनों काम यंत्र कर सकेगा। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता, भोजन भी पचा सकता है। दफ्तर में जाकर फाइल भी जांच सकता है। स्कूल में पढ़ा भी सकता है। ये सब काम यंत्र कर सकता है। दि
जिसे हम अभी जीवन कह रहे हैं, वह तो इतना मैकेनिकल है कि आज नहीं कल मशीन उसे कर सकेंगी। क्या नहीं कर सकता यंत्र? जिसको बुद्ध ने जाना होगा, जिसको महावीर ने जाना होगा, जिसको कृष्ण ने, क्राइस्ट ने जाना होगा; वह यंत्र नहीं जान सकता। यंत्र कर तो कुछ भी सकता है, यंत्र जान नहीं सकता। कर तो कुछ भी सकता है, जान नहीं सकता। वह जो जानना है, वह कहां है हमारा अभी। उसकी मौजूदगी नहीं है, इसलिए हम दुख में हैं। उसकी मौजूदगी हो जाए, दुख विलीन हो जाएगा। हम सारे लोग दुख को हटाने में लगे हैं, लेकिन हमें इस बात का पता नहीं है कि दुख हटाया नहीं जा सकता।
यहां कमरे में अंधकार भरा हो,और हम सारे लोग अंधकार को धक्के देकर हटाने में लग जाएं, तो क्या हम अंधकार को हटा पाएंगे? नहीं। हम मिट जाएंगे, अंधकार यहीं रहेगा। अंधकार ऐसे नहीं हटाया जा सकता कि उसे धक्के दें। कितनी ही ताकत लगाएं, अंधकार यहीं रहेगा, हटाया नहीं जा सकता। लेकिन एक दीया जला लिया जाए, फिर अंधकार को हटाना नहीं पड़ता, वह पाया ही नहीं जाता है। वह होता ही नहीं है। असल में अंधकार है ही नहीं। अंधकार की अपनी कोई सत्ता, अपना कोई एक्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार केवल प्रकाश के न होने का नाम है। एब्सेंस का नाम है, अनुपस्थिति का नाम है। अंधकार किसी चीज की उपस्थिति का नाम नहीं है। कोई चीज मौजूद नहीं है, कोई चीज केवल अनुपस्थित है। कोई चीज है नहीं, कोई चीज नहीं है। प्रकाश नहीं है, बस इससे ज्यादा अंधकार और कुछ भी नहीं है। तो जो अंधकार से लड़ता है, वह अंधकार को कभी नहीं हटा पाएगा। जो प्रकाश को जलाता है, वह अधंकार को पाता ही नहीं।
सूरज इतने दिन से खोज रहा है अंधकार को अभी तक उसका मिलना नहीं हो सका, अभी तक खोज नहीं पाया अंधकार। और कभी नहीं खोज पाएगा, जब तक कि खुद अंधकार न हो जाए। तब तक खोज नहीं पाएगा, तब वह सूरज नहीं रहेगा। सूरज कभी अंधकार नहीं खोज पाएगा। दीये ने कभी अंधकार नहीं जाना। हमारे जीवन में जो दुख है, वह दुख वास्तविक नहीं है, वह केवल हमारे जीवन के प्रति बोध की अनुपस्थिति है, आनंद के प्रति बोध की अनुपस्थिति है। तो आप दुख को कितना ही हटाएं, कितना ही बड़ा मकान बनाएं, कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लें, कैसे ही वस्त्र ले आएं, दुख को हटाने का कोई प्रयास सफल नहीं होगा। क्योंकि दुख है ही नहीं। आनंद लाया जा सकता है, आनंद का दीया जल जाए, तो दुख नहीं पाया जाता है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं, दुख से लड़ने वाले लोग, और दुख में ही टूट जाने वाले लोग। और आनंद को जगाने वाले लोग और आनंद को पा लेने वाले लोग। और आनंद मैंने कहा कहीं और नहीं है, साथ है हमारे, हमारे प्राणों का स्पंदन है। तो कभी अकेले हों, चैबीस घंटे में कुछ क्षण के लिए अकेले हो जाएं। थोड़ी देर के लिए अपने साथ हों। अपने से इतने डरते क्यों हैं? और अपने साथ होने को जो राजी नहीं है, वह निश्चित अपने से घृणा करता होगा, अपने को इस योग्य न समझता होगा कि अपने से मित्रता की जाए। दूसरों को इस योग्य समझता है कि उनके साथ घंटों रहा जाए। इस योग्य भी नहीं समझता कि अपने साथ कुछ देर रहा जाए। कोई अपने साथ रहने को राजी नहीं है। थोड़ी देर मौका मिले तो रेडियो खोल लेगा, अखबार उठा लेगा, भागेगा, क्लब में जाएगा; मित्र को खोजेगा, पड़ोसी के पास जाएगा; कोई उपाय नहीं मिलेगा, तो सो जाएगा। लेकिन अपने साथ होने को नहीं है, अपने साथ होने को नहीं है। सारा धर्म, एक ही सूत्र है, अपने साथ होने की प्रक्रिया। और जो व्यक्ति थोड़ी देर को भी अपने साथ होना सीख जाता है, थोड़े दिनों में पाता है, थोड़े दिनों में पाता है एक नई झलक जीवन की उसे उपलब्ध होनी शुरूे हो जाती है।
सब थोड़ी देर को करना छोड़ दें, विचार करना, काम करना थोड़ी देर को छोड़ दें; थोड़ी देर को चुपचाप पड़े रह जाएं। आप हैं और कुछ भी नहीं है। कोई काम नहीं है। लेकिन अगर किसी तरह दुकान से बचते हैं, तो रामायण उठा लेते हैं, अगर किसी तरह मित्रों से बचते हैं, तो राम-राम, राम-राम जपने लगते हैं, लेकिन काम जारी रखते हैं, काम बंद नहीं करते। राम-राम भी मत जपें, वह भी एक काम है। वह भी मन की व्यस्तता है। वह भी आकुपेशन है। कुछ भी न करें थोड़ी देर को, बस पड़े रह जाएं, सिर्फ हैं, और करने को कुछ भी नहीं रहे। ऐसी दशा को मैं ध्यान कहता हूं, जब आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। इसलिए अगर कोई कहता हो कि मैं ध्यान कर रहा हूं, तो समझना कि बड़ी गड़बड़ बात कह रहा है, ध्यान किया नहीं जा सकता।
एक फकीर ने एक आश्रम बनाया हुआ था, तिब्बत में। और तिब्बत का दलाईलामा उस आश्रम को देखने गया। बहुत बड़ा आश्रम था। बीच में एक बहुत बड़ा भवन था, आस-पास, बहुत दूर-दूर तक फैले हुए, छोटे-छोटे भवन थे। हजारों भिक्षु वहां रहते थे। तो दलाईलामा को, उसने एक-एक, एक-एक मकान बताया, यहां हम यह करते हैं, भोजन बनाते हैं, यहां स्नान करते हैं, यहां ये करते हैं, यहां वे करते हैं; लेकिन बीच में जो बड़ा भवन था, दलाईलामा ने कई बार पूछा, और यहां? इसको सुनते से वह चुप रह जाए। दलाईलामा बहुत हैरान हुआ, उसने जाकर पखाने भी बतलाए, स्नानगृह भी बतलाए कि यहां ये करते है। उसने कहा कि ठीक है, लेकिन ये जो बीच में बड़ा भवन है, यहां क्या करते हो? उस फकीर ने कहा कि आप मानते ही नहीं है, बार-बार यही पूछे जाते हैं। उसको मत पूछिए। वह बड़ा हैरान हुआ, कि जो सबसे बड़ा विशाल भवन है, तुम्हारा केंद्र है, उसके बाबत कुछ नहीं कहते हो? उसने कहा मैं मजबूरी में हूं। हम क्या बताएं कि वहंा क्या करते हैं, वहां जाकर हम कुछ भी नहीं करते हैं। वह हमारा ध्यान भवन है। वहां हम कुछ करते नहीं, वहां हम सब करना छोड़ कर सिर्फ रह जाते हैं। वहां हम होते हैं, वहां हम करते नहीं हैं। इसलिए मैं क्या कहूं आपसे कि अगर हम कहें कि ध्यान करते हैं, तो गलती होगी, आप जाकर लोगों से कहेंगे कि वे भवन में ध्यान करते हैं।
ध्यान प्रार्थना, प्रेम कोई करने की बातें नहीं हैं। अगर कोई कहे कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, समझना कि नहीं करता। क्योंकि प्रेम करने की बात नहीं है, प्रेम होने की बात है। मैं आपके प्रति प्रेम में हो सकता हूं, लेकिन आपको प्रेम नहीं कर सकता। मैं प्रेम में हो सकता हूं, लेकिन प्रेम कर नहीं सकता, मैं प्रार्थना में हो सकता हूं, प्रार्थना कर नहीं सकता। मैं ध्यान में हो सकता हूं, ध्यान कर नहीं सकता। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह किया नहीं जाता, उसमें हुआ जा सकता है।
तो थोड़ी देर को सब करना छोड़ें और वहां रह जाएं, जहां कोई करना नहीं है। तो उस शांति में, उस साइलेंस में, उस मौन में, उस निशब्द में उसका अनुभव होगा शुरू, जिसे चाहें तो आनंद कहें, चाहें तो जीवन कहें। और जैसे ही उसकी थोड़ी सी स्फूर्णा होगी, और उसका बोध होगा तो पाएंगे कि अंधकार की भांति दुख गया। और पाएंगे कि दुख के साथ मन गया। तब जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। और जब तक दुख है, तब तक जो दिखाई पड़ता है, वहीं संसार है। संसार को छोड़ कर कोई परमात्मा को नहीं पा सकता है। लेकिन परमात्मा को पा ले, संसार है ही नहीं, उसे छोड़ना नहीं पड़ता है।
एक संन्यासी हैं मेरे मित्र। मुझसे बोले कि मैं अपनी पत्नी, बच्चों को छोड़ कर आया हूं। मैंने कहा कि तुम संसार के बाहर कभी नहीं जा सकोगे। क्योंकि जो छोड़ कर आया है, वह भी मानता है कि पत्नी-बच्चे मेरे हैं। छोड़ कर आया है।
एक बहुत बड़े संन्यासी भारत के बाहर बड़ी ख्याति पाए और हिंदुस्तान वापस लौटे। उनकी पत्नी उनसे मिलने गई, तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया। उनके एक मित्र ने कहा कि आप यह क्या करते हैं? आपने तो कभी किसी स्त्री को मिलने से इनकार नहीं किया। और निरंतर कहते थे, सबके भीतर ब्रह्म है, इस स्त्री में क्या बाधा हो गई है, इसमें कैसे ब्रह्म नहीं है? उन्होंने कहा, वह मेरी पत्नी थी। उनके मित्र ने कहा, थी नहीं, वह है। क्योंकि अगर थी तो बात गई। लेकिन आप द्वार बंद करते हैं।
एक संन्यासी अभी-अभी मरे, उनकी आत्म-कथा निकली, उसमें लिखा हुआ है कि पंद्रह वर्ष बाद, पत्नी को छोड़ने के पंद्रह वर्ष बाद उनकी पत्नी मर गई, तो वे काशी में थे। उन्होंने पंद्रह वर्ष बाद पत्नी के मरने की खबर मिली तो कहा कि झंझट छूटी। मैं बहुत हैरान हुआ, झंझट थी? पंद्रह वर्ष पहले पत्नी को छोड़ आए थे।
एक संन्यासी को मैं मिलता था, उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने लाखों रुपयों पे लात मार दी है। मैंने उनसे पूछा ये लात कब मारी? उन्होंने कहा कि कोई तीस वर्ष हुए। मैंने कहा कि लात ठीक से लग नहीं पाई। तीस वर्ष हो गए और अभी याद है? किस बात की याद कर रहे हैं? लात लग नहीं पाई। रुपये जहां के तहां है, आप भी वहीं के वहीं है, कोई फर्क नहीं पड़ा। तीस वर्ष पहले सड़क पर अकड़ कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास लाखों रुपये हैं, अब तीस साल से फिर अकड़ कर चल रहे हैं कि मैंने लाखों को लात मार दी। पहली अकड़ फिर भी ठीक थी, दूसरी अकड़ बहुत खतरनाक है। क्योंकि पहली अकड़ सबको दिखाई पड़ती थी, ये दूसरी अकड़ किसी को दिखाई नहीं पड़ेगी। बहुत सूक्ष्म है।
ये भागने वाले लोग परमात्मा को नहीं पाते। जो संसार से भागता है, वह संसार को मान लेता है। जो संसार से भागता है, वह संसार को मान लेता है कि वह है। और उससे भागने लगता है। संसार से भागने वाला कभी परमात्मा को नहीं पाता। और जो परमात्मा को पा लेता है, वह पाता है कि संसार है ही नहीं। जो भी है, परमात्मा है। पत्नी उसे छोड़नी नहीं पड़ती। पत्नी परमात्मा हो जाती है। उसे किसी से भागना नहीं पड़ता, क्योंकि भागेगा किससे? जो भी है परमात्मा है, तो भागेगा किससे? परमात्मा को पा लेना विधायक धर्म है, पाजिटिव रिलीजन है, जीवंत धर्म है; और संसार से भागने वाला धर्म निषेधात्मक, निगेटिव धर्म है। मुर्दा धर्म है। इस मुर्दा धर्म ने दुनिया को अंधेरे में धकेला है, और मनुष्य को नीचे लाया है। मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी बुरा घटित हुआ है, वह विधायक धर्म के अभाव के कारण और निषेधात्मक धर्म के प्रचार के कारण। तो मैं आपसे निवेदन करता हूं कि परमात्मा, आत्मा, आनंद की, जीवन की खोज बड़ी विधायक खोज है, कोई निषेधात्मक नहीं है। कोई नेगेटिव नहीं, कुछ छोड़ने की और भागने की खोज नहीं है। और यह खोज भी कोई भविष्य की खोज नहीं है कि कल मैं पाऊंगा। जो है वह अभी मौजूद है, अगर मैं आंख फिराऊंगा तो अभी और इसी क्षण पा सकता हूं। उसे मैं पाया ही हुआ हूं, उसे मैंने कभी खोया नहीं है। दुख हमने कमाया है। आनंद हमने कभी खोया नहीं है। दुख हमारी कमाई है। आनंद हमारा स्वभाव है। अगर हम आंख उठाएं और स्वयं को देखें, दुख विलीन हो जाएगा और तब सारा जीवन आनंद है। तब जिन्हें हम दुख की घटनाएं समझते थे, वे भी दुख की घटनाएं नहीं हैं।
क्राइस्ट को सूली पर लटकाया तो लोगों ने समझा कि बहुत दुख दे रहे हैं, उन्हें पता नहीं था, ऐसे आदमी को दुख नहीं दिया जा सकता। क्योंकि ऐसा आदमी आनंद को जानता है। तो क्राइस्ट सूली पर लटक गए, और अंत में उन्होंने प्रार्थना की कि हे परमात्मा! ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं? इनको माफ कर देना। मैं नहीं समझता कि क्या मतलब है इसका? इसका मतलब है, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं, इनको माफ कर देना। ये नहीं जानते कि जिस आदमी को ये दुख दे रहे हैं, उसको दुख नहीं दिया जा सकता। ये भूल में हैं। ये नासमझी में हैं, ये गलती में हैं।
एक बार आनंद की झलक जीवन को घेर ले, फिर कोई दुख नहीं है, फिर मृत्यु भी नहीं है, दुख भी नहीं है। तब हम जानते हैं उसे, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। जानते हैं उसे जो अमर है, जो अमृत है। लेकिन यह खयाल मत करना कि तब आप बच रहेंगे, आप नहीं बचेंगे। जो बच रहेगा वह आपसे बहुत भिन्न बात है। आपका नाम-धाम नहीं है वह। आपकी उपाधि नहीं है वह। आपकी कमाई या आपकी संपत्ति और पद नहीं है वह। आपके भीतर कुछ है, जो आपसे ज्यादा बड़ा है। आपके भीतर कुछ है, जो आपसे बहुत ऊपर है। आपके भीतर कुछ है, जो आपसे बहुत गहरा है। वही परमात्मा है। उसे जाना जा सकता है, उसे जिया जा सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है उसे पाने और जीने का। जो खोते हैं अधिकार उनका जिम्मा खुद उनके ऊपर है किसी और के ऊपर नहीं है। एक-एक बीज से वृक्ष पैदा होता है; और हर बीज समर्थ है कि वृक्ष को पैदा कर सके। लेकिन एक-एक मनुष्य से परमात्मा पैदा नहीं हो पाता। जबकि हर मनुष्य समर्थ है कि परमात्मा को जान सके, जी सके। अधिक मनुष्य व्यर्थ ही जीते और समाप्त हो जाते हैं।
तो मैं निवेदन करूंगा, थोड़ा अपने साथ जीएं। और जो भी बाधा देता मालूम प.ड़े अपने साथ जीने में उसको विदा करें। उसको कहें कि तुम जाओ, मुझे थोड़ा अकेला छोड़ दो। कठिनाई होगी, मुश्किल पड़ेगा क्योंकि आदत, क्या आपको पता है कि उन चीजों की भी आदत पड़ जाती है, जो हमें दुख देती हैं? बहुत लंबा बीमार अपनी बीमारी छोड़ने में भी थोड़ा घबड़ाता है। क्योंकि बीमारी से इतने दिन का साथ हो जाता है, संग हो जाता है, बीमारी छोड़ने में फिर अकेलापन लगता है। लंबे बीमार बहुत गहरे मन से बीमारी छोड़ना नहीं चाहते। बहुत दिन तक कारागृह में रहा हुआ आदमी जंजीर छोड़ने में घबड़ाता है। जंजीर से भी प्रेम हो जाता है। तो हम अपने दुख से भी प्रेम करते हैं, बातें करते हैं उसे छोड़ने की। लेकिन उसे हम प्रेम करने लगते हैं। और जिन-जिन बातों से हमारा चित्त गहरे से गहरे दुख में जाता है, उन्हीं पर निरंतर विचार करते हैं, उन्हीं को पकड़े रहते हैं। उनको थोड़ा छोड़ें, थोड़ा उनको हटाएं, थोड़ा उनसे दूर हटें; थोड़ा उनको विदा करें और एक सूत्र जीवन में खयाल रखें, सबके साथ रहें लेकिन अपना साथ न छोड़ें। अपना साथ पकड़े रहें।
जर्मनी में इकहार्ट नाम का साधु हुआ। वह जंगल में था, एक वृक्ष के नीचे बैठा था। उसके कुछ मित्र शिकार करने को गए। उन्होंने सोचा कि अकेला बैठा है बहुत परेशान होगा कि चलो इसे कंपनी दें, इसे थोड़ा साथ दें। और ऐसे कई दयालु लोग हैं जो दिन-रात दूसरों को कंपनी दे रहे हैं। कई दयालु लोग हैं, जो यही काम कर रहे हैं, दूसरों को साथ देने का। वे बेचारे गए और उन्होंने इकहार्ट से कहा कि मित्र! तुम अकेले बैठे हो, बहुत बुरा लगता होगा? हमने सोचा कि चलो तुम्हें साथ दें। इकहार्ट ने उनकी तरफ देखा और कहा मित्रों! मैं अपने साथ था। तुमने आकर मुझे मुझसे दूर कर दिया है।
इकहार्ट ने कहा कि मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे मुझसे दूर कर दिया है। इसको थोड़ा समझें, थोड़ा अपने साथ रहें। कुछ क्षण खोजें चैबीस घंटे में, वे ही क्षण अंत में बचाए हुए क्षण सिद्ध होंगे। शेष सारे क्षण खोए हुए सिद्ध होंगे। वे ही क्षण अंत में सिद्ध होंगे, मेरे थे। जिन्हें मैंने बचाया और जीया, और जाना। और उन्हीं क्षणों से वह सुगंध आनी शुरू होगी, जो मनुष्य के जीवन को धार्मिक बनाती है, मंदिर जाने से कोई धार्मिक नहीं होता। न कोई मस्जिद जाने से धार्मिक होता। न कोई गीता पढ़ने से धार्मिक होता है, न कोई कुरान पढ़ने से धार्मिक होता है। अपने एकांत में, स्वयं में डूबने से वह सुगंध आनी शुरू होती है, जो धर्म की है। और जो व्यक्ति जितना अपने में डूबता है, बड़ी आश्चर्य की बात है, उतना ही उसके जीवन में प्रेम, उतनी ही उसके जीवन में अहिंसा, उतना ही उसके जीवन में आनंद न केवल उसे मिलता है, बल्कि बटना शुरू हो जाता है।
एक अंतिम बात और मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
जितने हम दुखी होते हैं, उतना ही हम दूसरों को दुख देते हैं। क्योंकि जो हमारे पास है,वही हम दे सकते हैं। इसलिए दुखी मनुष्य कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता। वह कितनी ही अहिंसा की बातें करे। वह अहिंसक नहीं हो सकता, दुखी मनुष्य हिंसक होगा ही। क्योंकि दुखी मनुष्य एक ही सुख जानता है, दूसरे को दुख देने का सुख, और कोई सुख नहीं जानता है। दुखी मनुष्य और कोई सुख नहीं जानता है। इसलिए दुनिया जब तक दुखी है, तब तक, तब तक प्रेम नहीं हो सकता दुनिया में, घृणा होगी, हिंसा होगी, क्योेंकि दुखी आदमी क्या करेगा? जो उसके पास है, वही दूसरों को देगा। चाहे वह आपसे कहे कि मैं आपको प्रेम करता हूं, और गले लगाए लेकिन थोड़ी देर में आप पाएंगे कि गले लगाना घातक हो गया। पत्नी कहती है, मैं पति को प्रेम करती हूं, पति कहता है मैं पत्नी को प्रेम करता हूं; वे दोनों जानते हैं कि एक-दूसरे के लिए नरक पैदा कर दिया है। पिता अपने लड़के को कहता है, मैं प्रेम करता हूं, लड़का कहता है, मैं पिता को प्रेम करता हूं, दोनों जानते हैं कि एक-दूसरे का जीवन लिए ले रहे हैं। हमारा प्रेम झूठा होगा क्योंकि हम भीतर दुखी हैं। प्रेम तो वह दे सकता है, जो भीतर आनंदित है, प्रेम तो आनंद की सुगंध है।
एक अच्छी दुनिया नहीं बन सकती अगर मनुष्य व्यक्तिगत रूप से भीतर आनंदित न हो। तब जो दुनिया पैदा होगी, बनेगी वह वायलेंस की होगी, हिंसा की होगी, युद्ध की होगी, हत्या की होगी। अभी हमने कितनी तैयारी कर रखी है? हमने तैयारी कर रखी है, सारे मनुष्यों को समाप्त करने की। सारी मनुष्य-जाति को समाप्त करने की। दो महायुद्धों में दस करोड़ लोग हमने हत्या की है। जिन लोगों ने हत्या की है, बड़े दुखी होंगे तभी तो इतनी हत्या हुई, नहीं तो कैसे होतीं? और अब हमने तैयारी की है कि हम पूरी मनुष्य-जाति को ही समाप्त करके रहेंगे। दुख हमारा अंतिम चरम स्थिति पर पहुंच रहा है। अब हम राजी नहीं हैं कि कोई जिंदा रहे। क्योंकि हम जीवन का कोई मजा नहीं पा रहे हैं, तो हम जीवन को नहीं रहने देंगे, हम उसे नष्ट करेंगे।
जब जीवन दुख से भरता है, तो डिस्ट्रेक्टिव हो जाता है, विनाश, विध्वंस। और जब भीतर आनंद होता है, तो जीवन सृजनात्मक हो जाता है, क्रिएटिव हो जाता है। धार्मिक व्यक्ति वह है, जिसने आनंद को पाया और जिसका सारा जीवन एक सृजन, एक सृजनात्मकता बन गया है, जो निरंतर सृजन कर रहा है और सबके लिए आनंद बांट रहा है। लेकिन आनंद हो, तभी तो आनंद बांटिएगा, लोग तो कहते हैं, दूसरों को आनंद दो, लोग तो कहते हैं, दूसरों को प्रेम करो, लेकिन यह असंभव है, जब तक भीतर आनंद न हो। जब तक भीतर प्रेम न हो, तब तक यह असंभव है।
अपना आनंद खोजिए और उसके द्वारा आप सारी दुनिया के लिए आनंद खोजते हैं, अपने भीतर आनंद का दीया जलाइए, उसके द्वारा आप सारी दुनिया में प्रेम के दीये जलाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कोई दूसरा यह नहीं कर सकेगा, आपका पड़ोसी यह नहीं कर सकेगा, आपको ही करना होगा। परमात्मा करे; न केवल आपके भीतर आनंद की ज्योति जगे, बल्कि वह ज्योति संक्रामक हो जाए और और दूसरे लोगों तक भी फैल जाए, क्योंकि शायद अगर हम थोड़े से मनुष्यों में भी आनंद की ज्योति जगाने में समर्थ न हो सके तो मनुष्य जाति समाप्त हो सकती है। समाप्त हो सकती है, पागल राजनीतिज्ञों के हाथ में बड़ी ताकत आ गई है। एटम है, हाइड्रोजन बम हैं, और राजनैतिक सबसे ज्यादा दुखी लोग हैं। क्योंकि जो बहुत दुखी नहीं होता, वह राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता है। नहीं हो सकता इसलिए कि जो दुखी नहीं होता, वह किसी का मालिक नहीं होना चाहता। दुखी आदमी दूसरों का मालिक बनना चाहता है। क्यों? क्योंकि मालिक बन कर उनकी गर्दन पर कब्जा कर लेता है। उसकी मुट्ठी बांध लेता है।
हिटलर ने पंद्रह लाख लोग मार डाले जर्मनी में, स्टैलिन ने कोई पचास लाख लोग मारे रूस में। ताकत, ताकत वही पाना चाहता है, जो किसी को मारना चाहता है, सताना चाहता है, वह ताकत पाना चाहता है। राजनीति ताकत लाती है, इसलिए दुनिया में जितने पागल हैं, जितने दुखी हैं, जिनका दिमाग खराब है, वे सब राजनीतिज्ञ हो गए हैं। और उनके हाथ में ताकतें बढ़ती गईं, उनके हाथ में हाइड्रोजन बम हैं, एटम बम हैं, और न मालूम क्या-क्या है? पचास हजार हाइड्रोजन बम तैयार हैं। और ये बहुत ज्यादा हैं, आपको पता है? इतनों की जरूरत नहीं है। तीन अरब आदमियों को मारने के लिए इतनों की बिलकुल जरूरत नहीं है, इक्कीस अरब आदमी मारे जा सकते हैं, इतने बम से। यह जमीन बहुत छोटी है, इस तरह की सात जमीनें नष्ट की जा सकती हैं इतने बमों से। तब बड़ी हैरानी होती है कि इतना इंतजाम, ज्यादा इंतजाम किसलिए किया है? शायद कोई आदमी एक दफा मरने से बच जाए तो हम दुबारा मार सकें, दुबारा बच जाए, तीसरी बार मार सकें। सात बार हम एक-एक आदमी को मार सकते हैं दुनिया में, इसका हमने इंतजाम कर लिया। भगवान के कानून में एक दफा मारने से आदमी मर जाता है, दुबारा मारने की जरूरत नहीं होती, लेकिन हमने अतिरिक्त सुरक्षा कर ली। और जरूरत हो तो हम मार सकते हैं, सात-सात बार मार सकते हैं।
यह जो पागलपन है, यह खतरे में ले जाएगा। इस वक्त धर्म और इस वक्त वैयक्तिक आनंद की ऊर्जा का जग जाना न केवल एक-एक व्यक्ति का कल्याण है, बल्कि समस्त मनुष्य, समस्त जीवन के कल्याण में है। परमात्मा करे उस दिशा में आपको ले जाए, जहां आप हैं, परमात्मा करे आपको अपने साथ होने का मौका दे, परमात्मा करे आप थोड़ा अपने में डूब सकें, और आपकी भविष्य और आगे की योजना नहीं, बल्कि जो आप हैं, जहां आपकी सत्ता है, आत्मा है उसका दर्शन आपको हो सके, इसकी कामना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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