बारहवां प्रवचन-(विश्वास नहीं, विवेक
थोड़ी सी अपने हृदय की बातें आपसे कह सकूंगा। आनंदित इसलिए और भी ज्यादा हूं, क्योंकि जिनकी उम्र अभी थोड़ी है, जो अभी बूढ़े नहीं हो गए हैं, उनसे कुछ आशा भी की जा सकती है। युवकों के बीच, जिनके चित्त पर अभी जीवन का भार नहीं है और जो अतीत के ज्ञान के बोझ से भी नहीं दबे है, वे कुछ समझ और सोच सकते हैं, यह भी आशा बंधती है। लेकिन कोई मात्र शरीर से युवा होने से युवा नहीं होता है। और हमारे इस देश में तो एक बड़ा दुर्भाग्य और दुर्घटना घटी है, हमारे देश में मुश्किल से कोई युवा होता हो। हम या बच्चे होते हैं, या बूढ़े हो जाते हैं। बीच के युवा मन के क्षण आते ही नहीं।उस व्यक्ति को जो सदा भविष्य के संबंध में सोचता हो, बचपन में कहना चाहिए। और जो निरंतर बीते हुए के संबंध में विचार करने लगे, बूढ़ा हो जाता है। युवा मस्तिष्क वह है, जो निरंतर वर्तमान में जीने की क्षमता रखता है। यह मैं आशा करता हूं कि आप में से बहुतों का मन अभी युवा होगा। आशा इसलिए कि बहुत कम इसकी संभावना है। समाज, सभ्यता और संस्कार, इसके पहले कि हमारा मस्तिष्क पूरी ताजगी का उपलब्ध हो, उसे बूढ़ा करना शुरू कर देते हैं। फिर भी, कुछ संभावना इस बात की है कि सोच-विचार आपके भीतर चलता होगा। उस सोच-विचार को ध्यान में रख कर मैं कुछ थोड़ी सी बाते आपसे कहूंगा।
पहली बात तो मुझे यह कहनी है कि मनुष्य-जाति का इतिहास अत्यंत दुख, अत्यंत पीड़ाओं से भरा रहा है और इस बात का जिम्मा युवकों के ऊपर है, इस बात का दोष, इस बात का दोष युवकों के ऊपर है कि उन्होंने अब तक ऐसी दुनिया को बदलने की कोशिश क्यों नहीं की। कोई पांच हजार वर्षों के इतिहास में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं। यह संख्या भी घबड़ा देने वाली बात है। पांच हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध--जमीन के किसी न किसी कोने पर लड़ाई चलती रही है और आदमी की हत्या चलती रही है। प्रति वर्ष तीन युद्धोें का आंकड़ा है। और यह जान कर और भी हैरानी होगी, पांच हजार वर्षों में केवल तीन सौ वर्षों का ऐसा काल-खंड है, जब युद्ध नहीं हुए। वे तीन सौ वर्ष भी इकट्ठे नहीं, टुकड़े-टुकड़ों में हैं। यह अुनपात उतना ही है जितना चैबीस घंटे में एक घंटे शांति रहे और तेईस घंटे युद्ध चले।
जरूर ही मनुष्य-जाति का मन कुछ रुग्ण रहा होगा, बीमार रहा होगा और हम ऐसी दुनिया बनाने में भी सफल नहीं हो सके हैं,जहां मनुष्य का व्यक्तित्व अपने पूरे सौंदर्य और आनंद को उपलब्ध हो सके। न ही हम ऐसी दुनिया बना सके हैं, जिसमें वापस लौटने का मन करे। शायद इसीलिए तथाकथित धर्म, दुनिया से आवागमन से छुटकारे की योजना और विचार करते रहे हैं और इसीलिए जीवन को छोड़ कर भाग जाने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती गई है। उसे हम संन्यास कहें, जीवन का त्याग कहें, या कुछ और। एक बात तय है, जीवन बहुत लोगों को ऐसा नहीं लगता की जीइा जाए--छोड़ा जाए, उससे भागा जाए। और कुछ ऐसे मोक्ष की खोज की जाए कि फिर वापस जीवन में न लौटना पड़े। ऐसा मोक्ष है या नहीं, यह तो दूसरी बात है, एक बात तय है, हम जीवन को अभी इस योग्य बनाने में सफल नहीं हो पाए हैं कि उसे जीने में आनंद हो सके और उसमें वापस लौटने की प्रार्थना की जा सके।
किस पर यह जिम्मा है, कौन इसके लिए जिम्मेवार है? युवकों के अतिरिक्त और कोई भी नहीं क्योंकि युवकों से ही आशा हो सकती है कि विद्रोह करेंगे, जीवन के बंधे हुए ढांचे तोड़ेंगे, क्रांति करेंगे और जीवन को बदलने की दिशा में कोई प्रयास करेंगे। लेकिन कौन यह प्रयास कर सकता है? किस तरह का मस्तिष्क, किस तरह का चित्त क्रांति कर सकता है? उस चित्त के संबंध में ही थोड़ी सी बात आपसे कहूंगा।
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी उस बात को शुरू करूं।
रोम में राजधानी पर हमला हुआ और रोम के जितने प्रतिष्ठित नागरिक थे, वे सब कैदी बना लिए गए और उन सबके हाथों में जंजीरें और पैरों में बेड़ियां डाल कर, आस-पास के और दूर के खंदकों और खड्ढों में उन्हें फेंक दिया गया। वे सब दुखी थे, क्योंकि जीवित बचने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। लेकिन एक आदमी ऐसा भी था उन सौ नागरिकों में, जो सौ प्रतिष्ठित नागरिक मार डाले जाने के लिए चुने गए, उनमें एक ऐसा भी था जिसके ऊपर न तो दुख का भाव था, न जिसकी आंखों में उदासी थी, बल्कि जो प्रसन्न ही था। उसके साथी कैदियों ने पूछा कि तुम इतने प्रसन्न क्यों हो? उसने कहाः मैं एक लोहार हूं और जिंदगी भर मैंने लोहे की जंजीरें ही बनाई हैं, इसलिए मैं जानता हूं कि कोई न कोई उपाय खोज लूंगा, अपनी जंजीर को तोड़ने का और फिर मुझे यह भी ज्ञात है कि जंजीर कितनी ही मजबूत हो, एक कड़ी उसमें जरूर कमजोर होती है, जहां से जंजीर जोड़ी जाती है। इसलिए कोई न कोई कड़ी कमजोर होगी और मैं उसे तोड़ने में सफल हो जाऊंगा।
उस लोहार को भी एक बड़े खड्ड में फेंक दिया गया। जैसे वह नीचे गिरा, उसने सबसे पहला काम यह किया कि अपनी जंजीरें देखीं। अब तक वह प्रसन्न था, लेकिन जंजीर देखते ही उसकी आंखों में आंसू आ गए। और उसके मुंह से निकल गया, हे भगवान! अब क्या होगा? उसने जंजीरों में क्या देखा? उसने जंजीर के एक कोने पर अपना हस्ताक्षर देखा। वह जो भी चीज बनाता था, उस पर अपना हस्ताक्षर भी कर देता था। वह जंजीर उसकी खुद अपनी बनाई हुई थी और इसलिए अब वह जानता था कि उसमें कोई कमजोर कड़ी नहीं है। उसने कमजोर चीजें कभी बनाई ही नहीं। उसने हमेशा मजबूत चीजें बनाई हैं और इसलिए वह प्रसिद्ध हुआ था और इसीलिए दूर-दूर तक उसका नाम था और इसलिए उसने बहुत धन भी कमाया था। अब उसकी आंखों में आंसू आ गए। उस जंजीर को तोड़ना संभव नहीं था। वह उसकी खुद की बनाई हुई थी। और तभी पास से एक लकड़ी काटने वाला बूढ़ा निकला और उसने कहा कि क्यों रोते हो?
उस लोहार ने कहाः जिस जंजीर में मैं मरूंगा, वह जंजीर अपने हाथ की बनाई हुई है। वह बूढ़ा लकड़हारा हंसने लगा और उसने कहाः एक बात स्मरण रखो, तुमने जो भी बनाया, यह तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। और यह भी स्मरण रखो कि अगर तुम बनाने वाले हो तो तुम तोड़ने वाले भी हो सकते हो। और यह भी ध्यान रहे कि जो बनाने में इतना कुशल है, वह तोड़ने में और भी कुशल हो सकता है। क्योंकि बनाना कठिन काम है, तोड़ना तो आसान बात है।
क्या हुआ उस लोहार का, मुझे पता नहीं। लेकिन यह कहानी मैं इसलिए कहा कि मनुष्य के ऊपर भी जो जंजीरे हैं, वह भी उसकी अपनी बनाई हुई हैं। और यह मैं कहानी इसलिए कहा कि वे जंजीरें चाहे कितनी ही बड़ी हों, वे चाहे उसके मन को और उसकी आत्मा को कितने ही कसे हों, मनुष्य से बड़ी वे जंजीरें कभी भी नहीं हो सकती हैं। और इसलिए मैं यह कहानी कहा कि यदि हम सकंल्प करें, तो मनुष्य के चित्त कि सारी जंजीरों को किसी भी क्षण तोड़ा जा सकता है। क्योंकि उनके निर्माता हम हैं और जो भी निर्मित होता है वह निर्माता से कभी बड़ा नहीं हो पाता है।
सारी जमीन पर मनुष्य बहुत-बहुत किस्म की जंजीरों में है। राजनीतिक जंजीरों की मैं बात नहीं कर रहा हूं, और न ही सामाजिक जंजीरों का उतना मूल्य है और न ही आर्थिक जंजीरों का उतना मूल्य है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, जो भी जंजीरें मनुष्य के ऊपर हैं, उन सबसे भी बहुत गहरे में वह आध्यात्मिक रूप से गुलाम है। उससे भी बहुत गहरे में उसकी आत्मा कड़ियों में हैं, कारागृह में है। और जिस मनुष्य की आत्मा कारागृह में हो, उसे किसी भी तरह की स्वतत्रंता उपलब्ध हो जाए, वह सब स्वतंत्रता आत्मघाती सिद्ध होती है। क्योंकि जिसकी आत्मा गुलाम है, उसके हाथ में सारी स्वतंत्रता स्वच्छंदता के अतिरिक्त और कुछ भी सिद्ध नहीं होती। और जिसकी आत्मा गुलाम है, उसे मिली सारी स्वतंत्रता, ऐसे हाथों में मिली शक्ति होती है, जिन हाथों को उस शक्ति के उपयोग करने का कोई पता नहीं है।
इसके पहले कि मनुष्य स्वतंत्र हो किन्हीं और अर्थों में उसकी आत्मा स्वतंत्र हो जानी चाहिए। इसलिए, हमने हर तरह की स्वतंत्रता को पिछले दो हजार वर्षों में उपलब्ध करने की कोशिश की है--राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बड़ी क्रांतियां हुई हैं, लेकिन मुनष्य के जीवन में विकास नहीं हुआ, उलटा ह्रास हुआ। एक बात हमारे ध्यान में नहीं रही है कि मनुष्य की आत्मा परतंत्र हो तो किसी भी दूसरी भांति की स्वतत्रंता का कोई मूल्य नहीं है। और मुनष्य की आत्मा परतंत्र है।
किन बातों में परतंत्र है? कौन से जाल हैं जो मनुष्य की आत्मा पर हैं? पहली बात--जिसके आधार पर मनुष्य बहुत आंतरिक गुलामी में है, वह है हमारी निरंतर सिखाई गई, समझाई गई, हमें निरंतर दिया गया उपदेश, हमें निरंतर समझाई गई बात--वह है श्रद्धा और विश्वास। निरंतर मनुष्य को कहा गया है कि श्रद्धा करो, विश्वास करो। मैं आपसे कहना चाहूंगा, इस विषाक्त उपदेश ने ही मनुष्य की आत्मा को गुलाम बनाया है। जब तक भी कोई विश्वास करता है और श्रद्धा करता है तब तक उसके प्राणों की वह शक्ति जाग्रत नहीं होती, जिसे हम विचार कहें, विवेक कहें, प्रजा कहें। और जिस मनुष्य के भीतर विवेक नहीं जागता है उस मनुष्य की आत्मा सदा-सदा के लिए परतंत्र बनी रह जाती है।
इधर तीन हजार वर्ष का मनुष्य-जाति का इतिहास विश्वास की शिक्षाओं का इतिहास है। धर्मों ने, धर्म-गुरुओं ने, राजनयिकों ने और उन सभी लोगों ने जिनके हाथ में सत्ता और अधिकार रहा है, यही समझाने की कोशिश की है कि प्रत्येक मनुष्य को विचार करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे श्रद्धा करनी चाहिए। यह बात उनके पक्ष में है क्योंकि श्रद्धालु भेड़ों की भांति अंधे होते हैं और उन्हें कहीं भी ले जाया जा सकता है। और उनके आगे के एक व्यक्ति को भी गतिमान कर दिया जाए तो पीछे वे केवल अंधों की भांति अनुगमन कर सकते हैं।
एक छोटे से स्कूल में एक शिक्षक ने अपनी छोटी कक्षाओं के बच्चों से पूछाः एक खेत के बाड़े में दस भेड़ें बंद हैैं, अगर पांच उनमें से कूद जाएं, तो भीतर कितनी बचेंगी? एक छोटे से बच्चे ने खड़े होकर कहाः एक भी नहीं। उस शिक्षक ने कहाः तुम बिलकुल पागल हो, तुम्हे गणित का कोई पता भी नहीं। जब पांच भेड़ें कूद जाएंगी तो कितनी पीछे बचेंगी? उस छोटे से लड़के ने कहाः मैं गड़रिए का लड़का हूं, आपको गणित का पता होगा, मुझे भेड़ों का पता है। और गणित भला कुछ कहे लेकिन भेड़ें वहां एक भी नहीं बचेंगी। क्योंकि जब पांच भेड़ें कूद जाएंगी तो बाकी पांच भी बाहर हो जाएंगी उनके साथ ही। और यह भी याद रखें कि भेड़ों को गणित का कोई पता नहीं है। इसलिए पीछे पांच रुकना चाहिए, इसका भी उन्हें पता नहीं है।
इधर तीन हजार वर्षों में श्रद्धा और विश्वास के आधार पर मुनष्य को भी भेड़ें बनाने की कोशिश की गई है और मनुष्य भेड़ सिद्ध हुआ है। अन्यथा जीवन जैसा बना, जिस भांति जीवन को गलत दिशाओं में ले जाया गया उस भांति जाने को मनुष्य राजी नहीं होता। और अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी भी मारने को राजी नहीं होता और अपने हाथों से जीवन के सारे सौंदर्य को, जीवन के सारे आनंद को भी नष्ट करने को राजी नहीं होता। हम सारे लोगों को, हमको ही, हमारे जीवन को नष्ट करने के लिए उपयोग में ले जाया जाता रहा है। जरूर कुछ शोषक स्वार्थों के हित में यह बात रही होगी, लेकिन पूरी मनुष्य जाति को उसका दुख भुगतना पड़ा है।
मैं आपसे कहना चाहूंगा, इस बात को समझ लेना बहुत जरूरी है कि किस भांति मनुष्य का मन श्रद्धाओं से मुक्त हो जाए और विचार के प्रति जागरूक और सचेत और सक्रिय हो जाए। श्रद्धा से मेरा अर्थ है, जिन बातों को हम नहीं जानते हैं, जीवन के गहरे सत्यों को, उन सत्यों को बिना जाने स्वीकार कर लेना। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि बिना जाने जब हम स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे समक्ष वह चुनौती, वह चैलेंज खड़ा नहीं हो पाता, जिस चुनौती में ही भीतर की सोई हुई विवेक की शक्ति जाग्रत होती है। क्या आपको पता है कि जीवन में केवल वे ही शक्तियां विकसित होती हैं जिनके लिए हम चुनौती खड़ी करते हैं? जिनके लिए चुनौती नहीं होती, वे शक्तियां सोई रह जाती हैं। और जीवन में केवल वे ही शक्तियां सक्रिय होती हैं और सतेज होती है जिनका हम उपयोग करते हैं, और जिनका हम उपयोग नहीं करते हैं, वे निर्जीव हो जाती हैं, और सुप्त हो जाती हैं।
अगर एक आदमी दो चार वर्षों तक आंख बंद रखे, तो फिर आंखें देखना बंद कर देंगी। और एकाध मनुष्य अगर दो चार वर्षों तक बैठा रहे और पैरों की गति न करे, तो फिर पैर चलना बंद कर देंगे। लेकिन क्या हमने विवेक का उपयोग किया है हजारों वर्षों से? क्या हमने विचार किया है? क्या जीवन के संबंध में हमने चिंतन किया है? और यदि नहीं, और यदि मनुष्य के भीतर विवेक की शक्ति बिना जागी रह गई हो, सोई रह गई हो तो इसमें कौन सा आश्चर्य हैं? विश्वास का अर्थ है, तुम्हें स्वयं विचार करने की जरूरत नहीं है। किन्हीं ने जाना है, किन्हीं ने सत्य को जाना है, तुम उसे स्वीकार कर लो, चाहे वह पैगंबर हो, चाहे वह तीर्थंकर हों, चाहे वह भगवान के अवतार हों या ईश्वर के पुत्र हों। चाहे वह वेद हो, कुरान हो या बाइबिल हो या कोई और ग्रंथ हों।
इन ग्रंथों पर, इन वचनों पर विश्वास करने की जो गहरी शिक्षा है उसने मनुष्य के मन को, मनुष्य की आत्मा को ऐसा कड़ियों में जकड़ा है जिनसे छूटें बिना हम जीवन को इस योेग्य नहीं बना सकेंगे कि जीवन को पाना एक धन्यता और कृतार्थता हो। फिर यह विश्वास किसी भी प्रकार का हो सकता है जाए। यह हो सकता है कि कोई मनुष्य माने कि ईश्वर है, आत्मा है--विश्वास करे। यह भी हो सकता है कोई विश्वास करे कि कोई ईश्वर नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। आस्तिक का भी विश्वास होता है और नास्तिक का भी। और मेरे देेखे, सभी तरह के विश्वास अंधे होते हैं।
आंख तो केवल वही आदमी पैदा कर पाता है जो किसी भी तरह के विश्वास में आबद्ध होने को तैयार नहीं होता। और जो जिज्ञासु होता है, जिसकी इंक्वायरी होती है, जिसकी खोज होती है और जो इस दूर तक जाने को तैयार होता है कि मैं अज्ञानी मरना ही पसंद करुंगा, लेकिन दूसरों के उधार ज्ञान को स्वीकार करके मेरी ज्ञानी बनने की, मेरी नियति और मेरी तैयारी नहीं है।
विश्वास करने को हम इसलिए राजी हो जाते हैं, मुफ्त में ज्ञान मिल जाता है। जिसे हमने नहीं जाना,हमने नहीं जीया, जो हमारे प्राणों में स्पंदित नहीं हुआ और जिसकी हमारे हृदय ने जिसकी लहरें नहीं छुईं, और जिस प्रकाश को हमारी आंखों ने नहीं देखा, उसे भी हम मानने को राजी हो जाते हैं। मानते ही खोज बंद हो जाती है। स्वीकार करते ही जिज्ञासा समाप्त हो जाती है, और भीतर एक संतोष, जो हमने मान लिया है, वह पैदा हो जाता है। और स्मरण रहे, संतोष से ज्यादा सुसाइडल, संतोष से ज्यादा स्वयं की हत्या करने वाली और कोई बात नहीं है। केवल वे ही लोग खोज सकते हैं जिनके भीतर जलता हुआ असंतोष हो। केवल वे ही लीग खोज सकते हैं--केवल वे ही लोग--जिनके भीतर किसी भांति दूसरों के ज्ञान से तृप्त होने की आकांक्षा न हो। जो आदमी भी दूसरों की आंखों से तृप्त हो जाएगा, उसकी अपनी आंखें कभी पैदा नहीं होगी।
एक पुरानी कथा है, एक बूढ़े आदमी की आंखें खराब हो गई। उसके घर में उसके आठ लड़के थे। उन आठ लड़कों की आठ बहुएं थीं। उसकी अपनी पत्नी थी। उन सबने उसे समझाया, गांव के चिकित्सकों ने कहा, आंखें ठीक हो सकती है। लेकिन वह बूढ़ा आदमी बोलाः मुझें आंखें की क्या जरूरत? मेेरे आठ लड़के हैं, उनकी सोलह आंखें हैं। मेरी आठ बहुएं हैं, उनकी सोलह आंखें हैं। मेरी पत्नी है, उसकी दो आंखें हैं। मेरे घर में चैतीस आंखें हैं, तो मुझ अकेले को भी क्या, चैंतीस आंखें भी काम नहीं दे सकेंगी? उसका तर्क दुरुस्त था, उसका गणित बिलकुल ठीक था। जिस घर में चैंतीस आंखें हों, उसमें दो आंखें हुई या न हुई, क्या फर्क पड़ता है? गणित तो ठीक था, लेकिन जीवन इस तरह के गणितों को मानता नहीं है।
कुछ ही दिनों बाद उस भवन में आग लग गई। वे चैंतीस आंखें आग लगते ही मकान के बाहर हो गई, वे दो अंधी आंखें भीतर रह गई। उन चैंतीस आंखों को, भागते वक्त स्मरण भी न आया कि एक आदमी ऐसा भी घर में है जिसके पास आंख नहीं हैं। जब प्राणों पर संकट थे तो प्रत्येक आंख ने अपने प्राण बचा लिए। वे जब बाहर पहुंच गए, सुरक्षा में, अग्नि और लपटों के बाहर, तब उन्हें जरूर स्मरण आया कि घर में एक बूढ़ा आदमी भी छूट गया, पिता उनका छूट गया। और उसके पास आंखें नहीं है। लेकिन तब कुछ भी होना संभव नहीं था। और उस बूढ़े आदमी को भी जब भीतर लपटों ने पकड़ा तब उसे ज्ञात हुआ कि आग लगी हो तब अपनी ही आंखें काम दे सकती हैं, किसी दूसरे की नहीं। लेकिन तब बहुत देर हुई थी और फिर कुछ भी होना संभव नहीं था।
मनुष्य को अपना ही विवेक काम दे सकता है, अपना ही ज्ञान, दूसरे का ज्ञान नहीं।
लेकिन हमारा तो सारा ज्ञान उधार और दूसरों का है। हम तो जीवन के संबंध में जो भी जानते हैं, वह सब ग्रंथों और शास्त्रों से हैं। हम तो जो भी मानते हैं वह सब कहीं से आया है। हमारा अपना जाना हुआ क्या है? प्रत्येक व्यक्ति को, जिसे अपनी आत्मा को स्वतंत्रता की ओर ले जाना हो और सत्य की ओर और आनंद की ओर, उसे यह पूछना ही होगा स्वयं से कि मैं जो जानता हूं वह मेरा जाना हुआ है या कि उधार है। और यदि मेरा जाना हुआ नहीं है तो अपना अज्ञान भी दूसरे के ज्ञान से बेहतर होता है। कम से कम वह अपना होता है, एक बात और अज्ञान हो, और उसे छिपाया न जाए तो अज्ञान की पीड़ा ज्ञान की खोज में ले जाती है, दूसरी बात। लेकिन अगर हम दूसरे के ज्ञान को अपना मान लें तो अज्ञान दब जाता है, उसकी पीड़ा मिट जाती है, उसका दंश मिट जाता है, उसका असंतोष मिट जाता है कि मैं अपने अज्ञान को मिटाऊं और दूसरों का ज्ञान बातचीत में काम आ सकता है। किताब लिखनी हो तो काम आ सकता है, उपदेश देना हो तो काम आ सकता है, लेकिन जहां जीवन में आग लग जाए वहां दूसरे की आंखें काम नहीं पड़ती।
जिंदगी में, जीवन की गहरी समस्याओं में दूसरे का ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। यही तो कारण है कि जिन देशों के पास बहुत ग्रंथ हैं, बहुत गुरु हैं, बहुत उपदेश हैं, उनके पास भी जीवन एकदम दरिद्रता से भरा हुआ है। और जीवन एकदम अज्ञान से भरा हुआ है। और उनसे अगर परमात्मा और मोक्ष की उलझनें सुलझवानी हों तो उनका पूरा देश विवाद कर सकता है। लेकिन अगर जीवन की कोई समस्या सुलझानी हो तो उनका पूरा देश बैठा रह जाता है। कोई समस्या सुलझती नहीं।
यह बात, यह स्थिति विश्वास की अति शिक्षा के कारण हुई है। इसलिए मैं निवेदन करूं, विश्वास से मुक्त होना चाहिए, और विचार को जन्म देना चाहिए। विचार का क्या अर्थ है? विचार का अर्थ है, जीवन की प्रत्येक समस्या को मैं अपनी आंखों से देखना शुरू करूं, खुद सीधा उसका साक्षात करूं। जीवन की कोई भी समस्या को और स्वयं के बीच उधार विचारों को, उधार संस्कारों को न लूं। जब भी जीवन प्रश्न उठाए तो उत्तर मेरे प्राण खोजें, मैं किसी का उत्तर स्वीकार न करूं। लेकिन हम तो सब सीखे हुए हैं। अगर मैं आप से पूछूं, ईश्वर हैं? तो आप जो उत्तर देंगे, वह सीखा हुआ होगा। हो सकता है, आपने सीख लिया हो ईश्वर है, यह भी हो सकता है कि आपने सीख लिया हो, ईश्वर नहीं है। लेकिन दोनों उत्तर सीखे हुए होंगे। और जो मनुष्य सीखे हुए उत्तर मान लेता है, उसकी आत्मा कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती। उसका चित्त कभी मुक्त नहीं हो सकता है।
यह तो पहली बात है, जो मैं आपसे कहना चाहता हूं--विश्वास नहीं, विचार को स्वयं में जन्म दें। इससे यह न समझें कि मैं यह कह रहा हूं कि जिन लोगों ने दुनिया में कुछ जाना है उन्होंने गलत जाना है। इससे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गीता, कुरान, बाइबिल गलत हैं, इसलिए विश्वास न करें। नहीं, मैं इसलिए कह रहा हूं कि विश्वास न करें, विश्वास करना गलत है। गीता, कुरान, बाइबिल गलत नहीं है यह नहीं कह रहा हूं। कृष्ण या राम या बुद्ध गलत हैं, यह मैं नहीं कर रहा हूं। मैं यह कह रहा हंू, विश्वास करना गलत है, और जो विश्वास कर लेता है, वह सदा के लिए अपनी आंखों से देखने के लिए वंचित रह जाएगा। और इससे बड़ा दुख कोई भी नहीं हो सकता कि हम जीवन को अपनी आंखों से न देख सकें।
जो व्यक्ति भी जीवन को अपनी आंखों से देखने में समर्थ हो जाता है; यह जीवन ही उसके लिए मुक्तिदायी हो जाता है, यह जीवन ही उसके लिए परमात्मा बन जाता है। इस जीवन में ही अलौकिक आनंद और अलौकिक संगीत का अनुभव शुरू हो जाता है, लेकिन जिसके पास अपनी आंखें ही नहीं; वह रोएगा, चिल्लाएगा, प्रार्थना करेगा, मंदिरों में। हाथ जोड़ेगा उन मूर्तियों के समक्ष, जो उसने खुद ने ही बनाई और उन तीर्थंकरों और पैगंबरों के पैर पकड़ेगा, जो उसकी अपनी ही कल्पना से निर्मित हैं और चिल्लाएगा मोक्ष के लिए। लेकिन, मोक्ष अगर कहीं भी हो सकता है तो खुली हुई आंखों में और जाग्रत विवेक में होता है।
एक पहाड़ी सराय में, एक तोता बंद था, एक पिंजड़े में। उस पहाड़ी सराय के मालिक को स्वतंत्रता से बड़ा प्रेम था। उसने अपने तोते को सिखा रखा था, वह तोता दिन-रात चिल्लाया करता था, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। सुबह से शाम तक उस पहाड़ी घाटी में उस तोते की आवाज गूंजती रहती थी। एक युवक एक रात वहां मेहमान हुआ। उसने रात उसकी दर्द से भरी हुई मार्मिक आवाज सुनी। स्वतंत्रता के लिए वह पक्षी दीवाना था। उस युवक के मन को बड़ी दया आई। जब रात सराय का मालिक सो गया तो वह मेहमान उठा और गया। उसने तोते का दरवाजा खोला, उसके पिंजड़े का दरवाजा खोला और तोते को बाहर निकालने की कोशिश की, लेकिन उस तोते ने अपने पिंजड़े के सींखचों को जोर से पकड़ लिया और चिल्लाया, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
वह युवक उसे निकालने लगा, लेकिन तोता तड़फड़ाने लगा और भीतर, भीतर से भीतर उस पिंजड़े को पकड़ने लगा। युवक भी जिद्दी रहा होगा, उसने जबरदस्ती तोते को खींच कर बाहर उड़ा दिया और निशिं्चत आकर सो गया। सुबह जब उसकी नींद खुली, उसने देखा, तोता उसके पिंजड़े में वापस बैठा और वही राग लगा रहा है, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।
ये अधिक लोग जो मोक्ष के लिए चिल्ला रहे हैं और किसी आत्मिक स्वतंत्रता के लिए, साथ ही विश्वास और श्रद्धा में पिंजड़े के सींखचों को भी पकड़े हुए हैं, उन्हें छोड़ने का भी राजी नहीं है। और इन विश्वासों नेे मनुष्य को कितना लड़ाया है और कितने उपद्रवों में ले गया है, इसका कोई हिसाब नहीं है। हिंदू और मुसलमान और जैन और ईसाई क्या है? क्या विश्वासों के आधार पर विभक्त मनुष्य-जाति ही नहीं। जब तक विश्वास प्रबल है तब तक दुनिया से हिंदू मुसलमान और ईसाई का मिटना संभव नहीं है। और जब तक दुनिया हिंदू, मुसलमान और ईसाई में बंटी है तब तक एक अखंड मानव-जाति का जन्म भी नहीं होगा, और तब तक हमारे बीच शत्रुता मिटेगी नहीं। तब तक हमारे बीच दीवालें भी रहेंगी। और दीवालें कितनी खतरनाक सिद्ध हुई हैं और इन्होंने कितना अहित किया है, उसे कोई भी जिसके पास थोड़ी भी समझ है, आंख खोले और देख सकता है।
दुनिया में अधार्मिकों ने इतना बुरा नहीं किया, और दुनिया में नास्तिकों के ऊपर कोई इतना पाप नहीं है जितना इन तथाकथित आस्तिकों के ऊपर है, हिंदू, मुसलमानों, ईसाइयों और जैनों के ऊपर है। बौद्धों और पारसियों के ऊपर है। मनुष्य को विश्वासों ने खंडित किया है, तोड़ा है। सत्य जोड़ सकता है, विश्वास तोड़ते हैं और तोड़ते रहेंगे। इसलिए विश्वास से मुक्त हो जाना स्वतंत्र जीवन की ओर, वास्तविक जीवन की ओर पहला कदम है। और जैसे ही आंखें विश्वास से मुक्त होती है वैसे ही आंखें देखने में समर्थ हो जाती हैं, वैसे उनमें देखने की ऊर्जा शुरू हो जाती है, वैसे ही उनमें वह जिज्ञासा जगती है जो प्राणों को दांव पर लगा सकती है और सत्य को बिना जाने रुकने को राजी नहीं होती।
युवक मन का पहला लक्षण हैः विश्वास नहीं, विचार।
और जो आदमी विश्वास में गिर गया, मैं कहता हूं, वह बूढ़ा हो गया। उसने जिंदगी से पकड़ छोड़ दी है। उसने साहस छोड़ दिया, उसने खोजने की हिम्मत छोड़ दी, उसने किसी और का सहारा पकड़ लिया और उसने किसी और की लकड़ी को पकड़ लिया। उसने अपनी आंखों की जो खोज चलनी चाहिए, वह उसकी बंद हो गई।
बूढ़े आदमी का लक्षण हैः विश्वास। और युवा मन का लक्षण हैः विचार।
जरूरी नहीं है कि कोई आदमी मन से बूढ़ा हो। कोई अनिवार्यता नहीं है। अगर व्यक्ति सजग हो, शरीर तो जरूर बूढ़ा होगा, लेकिन आत्मा के बूढ़े होने का कोई भी कारण नहीं हैं और जो आदमी युवा मर सकता है, उस आदमी की मृत्यु भी एक अदभुत आनंद बन जाती है। और जो आदमी बूढ़ा होकर जीता है उसका जीवन भी दुख बन जाता है। मैं फिर से दोहरता हूं, जो आदमी युवा होते ही, युवा रहते ही, चित्त और आत्मा के तल पर रहते ही मर सकता है, उस आदमी की मृत्यु भी आनंद बन जाती है। और जो आदमी बूढ़ा होकर, चित्त के तल पर गुलाम होकर जीता है उसका जीवन भी मृत्यु से बदतर हो जाता है। उसका जीवन दुख और पीड़ाओं से भर जाता है।
जीवन के आनंद की खोज का पहला सूत्र हैः चित्त की स्वतंत्रता। और इस संदर्भ में, दूसरा सूत्र और आपसे कहना चाहूं--पहला सूत्र हैः श्रद्धा और विश्वास से मुक्ति और विचार का जन्म। दूसरा सूत्र हैः आदर्श से मुक्ति और आत्मा की खोज। हम सबको यह भी सिखाया गया है, वह उसी श्रद्धा का अनुगामी तत्व है आदर्श।
हम सबको बताया जाता है, किसी और जैसे बनो--बुद्ध जैसे बनो, महावीर जैसे बनो, गांधी जैसे बनो, या किसी और जैसे बनो। निरंतर यह बताया जाता है, हम किसी और जैसे बने। इससे ज्यादा खतरनाक, इससे ज्यादा झूठी, इससे ज्यादा बुनियादी गलत दूसरी कोई बात नहीं होगी।
कोई मनुष्य कभी दूसरे जैसा न बन सका है, न बन सकेगा।
कोई दूसरा बुद्ध पैदा होता है? ढ़ाई हजार वर्ष से कितने लोग कोशिश करते हैं, बुद्ध जैसा बन जाने की। कोई दूसरा क्राइस्ट पैदा होता है? दो हजार वर्ष से कितने पागल इस कोशिश में लगे हैं कि क्राइस्ट जैसे बन जाए। हां, यह हो सकता है कि क्राइस्ट जैसी दाढ़ी बढ़ा ले और क्राइस्ट जैसे कपड़े पहन लें या महावीर जैसे नग्न खड़े हो जाएं या गांधी जैसे कपड़े पहन ले, यह हो सकता है। लेकिन यह हो जाना और भी खतरनाक है, क्योंकि इससे एक झूठा व्यक्तित्व पैदा होता है। इससे एक वास्तविक आत्मा और व्यक्तित्व का जन्म नहीं होता।
मैं यह निवेदन करना चाहूंगा, मनुष्य की शिक्षा में और संस्कृति में जो बहुत बुनियादी भूलें रही है, उनमें सबसे बड़ी बुनियादी भूल यह रही है कि हमने एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति जैसे होने की शिक्षा दी है। हर व्यक्ति को अपने जैसा होना है। किसी और जैसा नहीं। और जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे जैसा होने की कोशिश में लग जाता है तो दूसरे जैसा तो कभी नहीं हो पाता, एक बात तय हो जाती है, जो वह होने को पैदा हुआ था, वह भी कभी नहीं हो पाता है। जब हम और जैसे होने की कोशिश में लगते हैं तो अपने जैसे होने से वंचित रह जाते हैं। और अगर हम दूसरे जैसे हो भी जाएं तो वह वैसे ही होगा जैसे रामलीला के राम होते हैं। राम तो कोई नहीं हो पाता, लेकिन रामलीला के राम हो जाने में कोई कठिनाई नहीं है।
दुनिया में इतना पाखंड है, इतना झूठा व्यक्तित्व है, दुनिया में जो इतना अपने ही साथ वंचना है और धोखा है, उसके पीछे यह आदर्शों की शिक्षा है कि हम किसी और जैसे हो जाएं। अगर किसी बगिया में इस तरह का कोई उपदेशक चला जाए और फूलों को समझाने लगे कि गुलाब चमेली जैसा हो जाए और चमेली चंपा जैसी ही जाए, तो क्या होगा? हालांकि यह बात तय है कि फूल इतने नासमझ नहीं है जितना मनुष्य है कि उस उपदेशक की बातें मान ले। फूल मानेंगे नहीं, पहली बात। लेकिन अगर कोई पागल फूल हो और मान ले तो क्या होगा? एक बात होगी, अगर गुलाब चंपा जैसा होने में लग जाए, चंपा तो कभी नहीं हो पाएंगा। हां, उसमें गुलाब के फूल आने भी बंद हो जाएंगे, क्योंकि उसकी सारी शक्ति चंपा जैसी होने में लग जाएंगी वही शक्ति जो कि गुलाब के फूल बन सकती है।
यह जो मनुष्य का व्यक्तित्व इतना उजड़ा हुआ, इतना दीन-हीन हैं, यह जो मनुष्य के व्यक्तित्व में कोई संगीत और शांति नहीं है, उसके पीछे यह बुनियादी पागलपन काम कर रहा है कि किसी और जैसे हो जाने का पागलपन। और स्मरण रखे यह विक्षिप्त मन का लक्षण है कि वह किसी और जैसा होना चाहेगा। कोई स्वस्थ मनुष्य किसी और दूसरे जैसा कभी नहीं होना चाहेगा। यह स्वस्थ मन का लक्षण है कि वह किसी और जैसा नहीं होना चाहता है।
चर्चिल को किसी ने पूछा कि आपको यह कब पता चला कि आप महान व्यक्ति हो गए हैं? चर्चिल ने कहा, जब कुछ पागल यह दावा करने लगे कि हम भी चर्चिल हैं। तब मैं समझ गया कि मैं महान आदमी हो गया। चर्चिल जब था जिंदा, तो इंग्लैंड में कोई पांच सात पागल, पागलखानों में बंद थे, जिनको विंस्टन चर्चिल होने का खयाल था। स्टैलिन जब हुकूमत में था, तो रूस में कई पागल बंद थे, जिनको स्टैलिन होने का खयाल था। यहां नेहरू जब थे, तो कई पागल थे जिनको नेहरू होने का खयाल था। एक पागल से तो मैं परिचित हूं जिसको यह खयाल था कि वह नेहरू है। और एक पागल से खुद नेहरू का भी मिलना हो गया था, यह भी मैं आपको बता दूं।
नेहरू एक पागलखाने को देखने गए और उन्होंने पूछा वहां कि कभी इस पागलखाने से कुछ लोग ठीक भी होते हैं या नहीं उस पागलखाने के अधिकारियों ने कहा, जरूर ठीक होते है और आज ही प्रमाण स्वरूप हम एक पागल को छुटकारा दे रहे हैं। वह ठीक हो गया है। और चूंकि आप आने वाले थे। इसलिए हमने उसे रोक रखा है कि आपके हाथ से ही उसे मुक्ति दिलवाई जाए। उस पागल को लाया गया। नेहरू ने उससे प्रेम से हाथ मिलाया और पूछा कि क्या तुम ठीक हो गए हो? उसने कहा, मैं ठीक हो गया हूं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि यह जगह बहुत अच्छी है, अगर दो-तीन वर्ष आप भी यहां रह जाए तो आप भी ठीक हो जाएंगे। क्योंकि पहले मुझे भी यही भ्रम था कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू हूं और आपको भी यही भ्रम है क्योंकि मुझे बताया गया है कि आप पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। अगर आप तीन-चार वर्ष यहां रह जाए तो आप भी ठीक हो जाएंगे। मैं ठीक हो ही गया हूं, यह जगह बड़ी अच्छी है।
चर्चिल ने कहाः जब भी कोई पागल दावा करने लगे किसी के होने का, तो समझ लो, वह आदमी बड़ा हो गया। क्योंकि पागलों को, अपने को विकसित करने का खयाल पैदा नहीं होता है, जल्दी से किसी के व्यक्तित्व को ओढ़ लेने का खयाल पैदा होता है। स्वस्थ मन अपने को विकसित करता है, किसी दूसरे जैसा नहीं होना चाहता है।
लेकिन संस्कृति एक बहुत गहरे भंवर में फंसी है। पूरी मनुष्य-जाति एक गहरे चक्कर में है और निरंतर समझाया जा रहा है, किसी और जैसे हो जाओ। इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके दुष्परिणाम यह हुए हैं कि पांच हजार वर्ष के इतिहास में दस-पांच व्यक्ति गिने जा सकते हैं जो ठीक-ठीक फूलों को उपलब्ध हुए हों। बाकी लोग, कितनी हैरानी की बात है, अगर किसी बगीचे में लाखों-लाखों पौधे लगाए जाएं और दो-चार पौधों पर फूल आएं तो क्या हम कहेंगे कि यह कोई फूल आना हुआ? इससे तो यही सिद्ध होता है कि माली के बावजूद, यानी माली की कोशिश तो यही रही होगी कि फूल न आएं, फिर भी फूल आ गए भूल-चूक से, यह बात अलग है। लेकिन फूल लाने की कोशिश नहीं रही होगी।
अगर बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट और कृष्ण जैसे दस-पांच नाम हम छोड़ दें, तो मनुष्य के पास क्या है? कौन कितने लोग हैं जिनके जीवन में सुबास आई, संगीत आया, सुगंध आई, आनंद आया परमात्मा अवतरित हुआ। कितने लोग है? बहुत थोड़े से अंगुलियों पर गिने जाने वाले लोग हैं। क्या पूरी मनुष्य-जाति इन थोड़े से लोगों को भर पैदा कर पा रही है? तब तो यह बड़ा असफल प्रयोग है परमात्मा का कि तीन साढ़े तीन अरब लोगों में एक दो लोग अगर कभी सुगन्ध को उपलब्ध होते हों, तो यह तो बड़ी अजीब बात है। निश्चित ही कोई भूल है। और वह भूल यह है कि हम सारे लोग अपने जैसे होने की कोशिश में नहीं है।
हम इस बात की खोज नहीं कर रहे हैं कि मेरा व्यक्तित्व और मेरी आत्मा क्या है। हम इस बात की खोज नहीं कर रहे हैं कि मेरा निजी जीवन, मेरे निजी जीवन का विकास क्या हो और कैसा हो? हम इसकी कोशिश कर रहे हैं कि मैं दूसरे जैसा कैसे हो जाऊं और जब भी कोई व्यक्ति दूसरे जैसा होने की कोशिश करेगा तेा एक अभिनय, एक एकिं्टग पैदा होगी। यह भी हो सकता है कि यह अभिनय इतना तीव्र और इतना कुशल हो कि असली आदमी भी फीका मालूम होने लगे। यह हो सकता है कि रामलीला के राम के सामने असली राम थोड़े फीके मालूम पड़े, क्योंकि इतने तैयार नहीं होंगे वह, जितना यह तैयार होगा। हो सकता है, और ऐसा हुआ एक दफा।
चार्ली चैप्लिन का नाम सुना होगा। वह हंसोड़ अभिनेता था। उसके जन्म-दिन पर उसके मित्रों ने सोचा कि एक नई प्रतियोगिता की जाए। अनूठा खयाल था, और इंग्लैंड में एक प्रतियोगिता की गई जिसमें आमंत्रित किए गए दूसरे अभिनेता और उनसे यह कहा गया कि जो व्यक्ति चार्ली चैप्लिन का पार्ट ठीक से अदा कर सकेगा उसे पुरस्कार दिया जाएगा। बड़ा पुरस्कार रखा गया। सौ लोगों ने प्रतियोगिता में भाग लिया। चार्ली चैप्लिन ने सोचा कि बड़ा अच्छा मौका है, मैं भी दूसरे के नाम से फार्म भर कर प्रतियोगिता में सम्मिलित क्यो न हो जाऊं। एक हंसी भी होगी और पुरस्कार का पुरस्कार भी मिल जाएगा। उसे यह कभी कल्पना भी न थी कि वह हार सकता है। चार्ली चैप्लिन झूठे नाम से प्रतियोगिता में सम्मिलित हो गया। जिस दिन पुरस्कार बंटे, उस दिन वह हैरान हो गया। उसे दूसरे नंबर का पुरस्कार मिला। पहले नंबर का किसी और आदमी ने पुरस्कार जीता।
यह हो सकता है कि राम के सामने रामलीला का राम जीत जाए। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। क्योंकि असली और जिंदा आदमी में भूल-चूक होती है, नकली और अभिनेता में बिलकुल भूल-चूक नहीं होती, क्योंकि उसका तो सब गणित से चलता है, उसके पास कोई जिंदगी तो होती नहीं। कोई लिविंग, कोई जीवित तत्व तो उसके पास कोई होता नहीं। सब सीखा हुआ, झूठा अभिनय होता है। अभिनय में वह कुशल हो सकता है। जीवन में तो खुरदरापन होता है, जीवन में तो भूलें होती हैं। बड़े से बड़ा आदमी भूल करता है। हां, एक फर्क होता है, वह छोटी भूलें नहीं करता, बड़ी भूलें करता है। और भी एक फर्क होता है, वह एक ही भूल दुबारा नहीं करता। और भूल करता है तो नई करता है। जो आदमी जितनी नई भूलें करता है, जिंदगी में उतना अनुभव लाता है।
लेकिन, ठीक जिंदा आदमी में तो भूल-चूक होगी, गल्तियां होंगी। नकली और झूठे आदमी में कोई भूल-चूक नहीं होती। अगर कोई आदमी बिलकुल ठीक-ठीक मालूम पड़े तो समझ लेना, वह कुछ झूठा आदमी है। जिंदगी में भूल-चूक होंगी। बड़े आदमी में बड़ी भूल-चूक होंगी। एक बात तय होगी, दुबारा कोई वैसी भूल नहीं करेगा, इतना होश से जीएगा कि एक भूल जिसका अनुभव ले लिया, उसकी पुनः करने का कोई सवाल नहीं रह जाता। लेकिन, झूठा आदमी तो बिलकुल ही अभिनय कर सकता है, और बिलकुल एक तस्वीर खड़ी कर सकता है, जो कि वह नहीं है।
हम सारे लोग भी यह करने में लगे हैं। हम सारे लोग भी किसी जैसे होने में लगे हैं। यह गलत है। एकदम गलत है। पहली बात जानना चाहिए, एक-एक व्यक्ति का अपना अनूठा व्यक्तित्व है--यूनिक, बेजोड़ हैं। एक छोटे से कंकड़ को भी लेकर निकल जाएं, तो सारी जमीन पर दूसरा कंकड़ वैसा नहीं मिलेगा। तो एक मनुष्य जीवित मनुष्य जैसा दूसरा कहां होगा? हर आदमी अनूठा है और हर आदमी के व्यक्तित्व की अपनी गरिमा है, अपना गौरव है। और यह आत्मघाती बात है कि वह किसी और जैसे होने की नकल में पड़ जाए। उसे अपने व्यक्तित्व को खोजना चाहिए। उसे अपनी आत्मा को खोजना चाहिए। उसे कोशिश करनी चाहिए कि उसके भीतर जो छिपा है, वह विकसित हो। उसके भीतर जो गुण छिपे हों, वे विकसित हों। उसके भीतर जो-जो राज छिपे हैं; वह जागें, उसके भीतर जो-जो शक्तियां छिपी हैं, वह अपनी चरम अवस्था तक पहुंचे, इसकी कोशिश में लगना चाहिए।
कोई दूसरा किसी के लिए आदर्श नहीं है। इसलिए किसी का अनुसरण मत करना, किसी को फालो मत करना, किसी के पीछे मत जाना। किसी को नेता मत मानना, किसी को गुरु मत मानना। कोई तुम्हारे लिए आदर्श नहीं है। हां, एक बात है। जब बुद्ध, महावीर या गांधी जैसा कोई व्यक्ति तुम्हें दिखाई पड़े तो तुम इसके पीछे मत पड़ना। एक बात जरूर अपने मन में स्मरण करना कि अगर एक मनुष्य की देह में ऐसा व्यक्तित्व पैदा हो सका है तो मेरी देह में भी कुछ पैदा हो सकता है। तुम आदर्श मत बनाना उसे, बल्कि अपने लिए चुनौती समझ लेना। तुम आदर्श मत बनाना उसे, बल्कि अपने लिए अपमान समझ लेना। वह तुम्हारे लिए अपमान हो जाए और तुम्हें लगने लगे पीड़ा उनकी मौजदूगी तुम्हें आत्मग्लानि से भर दें। उसका खयाल, उसमें आए हुए फूल तुम्हें अपने कांटों के प्रति दुख से भर दें, और इस स्मरण से भी कि जब एक व्यक्ति में इतने फूल पैदा हो सकते हैं तो मुझमें भी हो सकते हैं। यह खयाल और स्मरण पैदा हो जाए तो काम पूरा हो गया।
लेकिन, हम बहुत होशियार लोग हैं और हमने बहुत-बहुत चालाकी की है। जिन-जिन लोगों से हमें जीवन में अपमान मिलना चाहिए, हमने उलटी उनकी पूजा शुरू कर दी। हम खुद तो अपमानित तो नहीं हुए, उलटे हमने उनकी पूजा शुरू कर दी। जिसकी भी पूजा करते हैं उससे हमारा छूटकारा हो जाता है। क्योंकि जिसकी भी हम पूजा करते हैं, उसे हम मनुष्य मानना बंद कर देते हैं। फिर उससे जो हमें अपमान पैदा होना चाहिए वह पैदा नहीं होता। इसलिए तो सारे दुनिया के धर्म आग्रह करते हैं, क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र हैं, वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वह कोई साधारण मनुष्य नहीं है। अगर वे साधारण मनुष्य हैं तो हम सारे लोग फिर कहां होंगे। हम सारे लोगों के प्राण फिर कैसे तृप्त हो सकेंगे। फिर तो एक बैचनी पैदा होगी, एक असंतोष पैदा होगा जो हमारे प्राणों को खा जाएगा। लेकिन हम उन्हें ईश्वर का पुत्र बना कर छुटकारा पा जाते हैं। महावीर तीर्थंकर हैं, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। राम और कृष्ण भगवान हैं, वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं।
हम बहुत होशियार लोग हैं। हमने मनुष्यों के भीतर जो भी श्रेष्ठतम चीजें पैदा हुईं और श्रेष्ठतम व्यक्तित्व आए, उन सबको मनुष्य-जाति से अलग कर दिया। किसलिए? ताकि उनके कारण हमारे भीतर अपमान पैदा न हो पाए और हम उनकी पूजा करने लगें। पूजा नहीं चाहिए, खुद के भीतर उनकी मौजूदगी में, उनके खयाल से, उनकी तुलना में एक अपमान का बोध चाहिए, अपने व्यक्तित्व के प्रति।
और अगर यह बोध पैदा हो जाए तो अनुसरण करने आप नहीं जाइएगा। क्योंकि अनुसरण करना फिर दूसरा अपमान हैं, खुद के भीतर छिपे हुए परमात्मा का। खुद की आत्मा का, खुद की चेतना का। तब आप एक आत्मसृजन में लगिएगा। तब निरंतर कौन-कौन तत्व मुझे आनंद की तरफ ले जा सकते हैं और संगीत की तरफ, उस तरफ जीवन का विकास होगा और खोज होगी। और कोई अगर संकल्पपूर्वक श्रम करे तो असफल होने का कोई भी कारण नहीं है।
शायद हेनरी बबर्कि का नाम सुना हो। अमरीका में एक अदभुत वनस्पति-शास्त्री हुआ है, बबर्कि। वह मरुस्थली पौधों पर अध्ययन करता रहा है, जीवन भर। वह एक रेगिस्तान से एक कैक्टस का पौधा ले आया जिसमें कांटे ही कांटे थे। और उस पौधे में कभी बिना कांटे की कोई जाति नहीं हुई। वह उस पौधे को सुबह सांझ पानी देता, उससे बातें करता, उसकी पत्नी घबड़ाई। उसकी पत्नी बहुत परेशान हुई, क्योंकि पौधे से बात करना बड़ी अजीब और पागलपन की बात हुई। उसकी पत्नी ने कहा, यह क्या करते हैं? उसने कहा, मैं एक कोशिश कर रहा हूं, इस पौधे के भीतर किसी संकल्प को जगाने की कोशिश कर रहा हूं। मैं प्रार्थना कर रहा हूं इस पौधे से कि तुम अपने में एक ऐसी शाखा पैदा करो जिसमें कांटे न हों। उसकी पत्नी ने कहा, आप पागल हो गए! पौधा और सुनेगा, और सुन लेगा तो क्या पौधे में इतना बल होगा, इतना संकल्प होगा, क्या इतनी आत्मा होगी कि वह अपने समस्त इतिहास के विरोध में और एक ऐसी शाखा पैदा कर ले जिसमें कांटे न हों? बबर्कि ने कहा, एक कोशिश करके देखनी जरूरी है।
वह सात साल तक पौधे की सेवा भी करता रहा। उसको पानी भी देता रहा, उसको प्रेम भी करता रहा, उससे बातें भी करता रहा। उसके घर के लोगों ने, मित्रों ने समझा कि वह पागल हो गया है। और अक्सर ऐेसा होता है। चूंकि दुनिया में अधिकतम लोग पागल हैं, इसलिए जब भी कोई ठीक आदमी होता है तो बाकी लोग उसको पागल समझ लेते हैं। नहीं तो क्राइस्ट को सूली देने की कोई जरूरत पड़े, या गांधी को गोली मारने की कोई जरूरत पड़े या सुकरात को जहर देना पड़ें? जरूर दुनिया में अधिक लोग पागल होंगे।
जब कोई स्वस्थ आदमी पैदा होता है, वह गड़बड़ मालूम होता है। बबर्कि भी गड़बड़ मालूम हुआ। उसके मित्रों ने आना छोड़ दिया। उसके मित्र रास्तों पर मिलते तो रास्ता काट जाते, क्योंकि बबर्कि के साथ होने का मतलब है कि आपका दिमाग ही कुछ गड़बड़ है। उससे मित्रता कौन रखे? लेकिन, सात वर्षों के बाद उस कैक्टस के पौधे में एक शाखा निकली, जिसमें कांटे नहीं थे। एक पौधे के प्राणों में भी संकल्प पैदा किया जा सकता है, एक पौधे ने भी सुना, एक पौधे तक भी खबर गई ।
अगर एक पौधे तक भी प्राणों के संक्रमण हो सकते हैं, तो हम सब जीवित लोग, अगर किसी संकल्प से भर जाए, स्वयं के निर्माण के, तो दुनिया की कोई ताकत बीच में रोकने को नहीं है। हमारे अतिरिक्त और हमें कोई भी नहीं रोकता है। और हमारे हस्ताक्षरों के अतिरिक्त हम पर कोई जंजीरें नहीं हैं। हमारे सिवाय हम पर कोई बाधा नहीं है, लेकिन हमारे भीतर कोई संकल्प नहीं है, जो हमारी बाधाओं को तोड़ दे, और हमारे भीतर कोई गहरी अभीप्सा नहीं है, जो कि सारी सीमाएं तोड़ दे और पार निकल जाए। अगर प्राण एक जलती हुई अभीप्सा बन जाए, खुद के सृजन की तो कोई बाधाएं नहीं है, कोई बंधन नहीं है। और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर, चाहे वह कितने ही अंधकार में हो, एक ज्योति जग सकती है, जो उसके जीवन को तो प्रकाश से भर ही दे, औरों के जीवन में प्रकाश की प्ररेणा बन जाए। जो उसके जीवन को तो ज्योति से भर ही दे, उस छोटे से कोने को भी प्रकाशित करने लगे, जिस दुनिया के कोने में संयोग से वह पैदा हुआ है।
ये दो छोटे से सूत्र मैं आपसे कहता हूं। एकः श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं; विचार। दूसराः अनुगमन नहीं, आदर्श नहीं; वरन स्वयं की आत्मा की खोज। और तीसरी बातः जिस छाया में ये विकसित हो सकते हैं, एक आत्म संकल्प। खुद के सृजन की एक गहरी अभीप्सा अगर पैदा हो तो जीवन में, आपके ही नहीं, आपके द्वारा और सबके जीवन में भी कोई क्रांति हो सकती है।
मनुष्य जैसा आज तक है, उसमें कुछ होना जरूरी है, कोई बहुत गहरा परिवर्तन उसके सारे सांस्कृतिक आधारों में, उसके व्यक्तित्व में, उसकी पूरी संगठना में, उसके जीवन में। इन दो छोटे से सूत्रों को मैंने आपसे कहा, इन पर विचार करेंगे, इसलिए नहीं कहा है कि मेरी बात मान लेंगे। क्योंकि मैं मानता हूं, वह व्यक्ति शत्रु है, जो आपसे कहे कि मेरी बात मान लें।
मैंने अपने हृदय की बात कही। उस पर आप विचार करेंगे। सोचेंगे, मानने और न मानने की जल्दी नहीं करेंगे। न तो मानने की जरूरत है; न न मानने की जरूरत है। सोचने और विचार करने की और खोजने की। और अगर खोज से स्पष्ट हो कोई सत्य तो वह फिर आपका अपना हो जाता है। वह आपके खून का आपके व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाता है, और वैसे सत्य के केंद्र में आपके जीवन में एक क्रांति आनी शुरू हेाती है, और आपके भीतर मनुष्य का एक अभिनव रूप पैदा होना शुरू होता है जो शरीर से बहुत पार ले जाता है और जीवन के दुखों से बहुत ऊपर ले जाता है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
एक व्यक्ति मर गया था। उसकी पत्नी ने किसी प्रेतात्मविद से जाकर पूछा कि क्या मैं अपने मरे हुए पति से बात कर सकती हूं? उस प्रेतात्मविद् ने कहा कि निश्चित ही। उस पत्नी ने आग्रह किया। उसके पति की आत्मा किसी पर बुलाई गई। उसकी पत्नी ने पूछा कि तुम जहां हो क्या वहां बहुत आनंदित हो, सुखी हो? उस व्यक्ति ने कहा, बहुत ही बहुत आनंदित हूं, बहुत ही बहुत सुखी हंू। उसकी पत्नी ने कहाः क्या इस जमीन से भी ज्यादा सुखी हो? उसने कहाः जमीन! जमीन पर ऐसा कोई सुख मैंने कभी नहीं जाना। पूछना स्वाभाविक था, उसकी पत्नी ने पूछा, क्या मेरे साथ जितने सुखी थे उससे भी ज्यादा सुखी हो? उसके पति ने कहा, अब तो भय का कोई कारण नहीं, क्योंकि मैं तुमसे बहुत दूर हूं, इसलिए सच्ची बात कह सकता हूं। उससे भी ज्यादा सुखी हूं, जितना मैं तुम्हारे साथ था।
उसकी पत्नी ने कहाः तब कुछ स्वर्ग के संबंध में और कुछ बताओ? उस व्यक्ति ने कहाः स्वर्ग! तुम गलत समझ रही हो, मैं तो नरक में हूं। उस व्यक्ति ने कहाः स्वर्ग, तुम गलत समझ गई, मैं नरक में हूं।
यह कहानी मैं पढ़ रहा था। ऐसे तो मजाक ठीक है। लेकिन यह हो सकता है कि नरक हमसे ज्यादा आनंद की स्थिति में हो गया हो। और यह भी हो सकता है कि परमात्मा को कुछ फर्क करने पड़े हों। पहले जो लोग पाप करते थे पृथ्वी पर उनको नरक भेज देते थे। अब शायद बदलाहट करनी पड़ी हो। नरक में जो लोग पाप करते हों उनको पृथ्वी पर भेज देते हों। जीवन को हमने नरक बनाया हुआ है और इस नरक से छुटकारा पाने के लिए जो लोग भी मोक्ष जाने की कोशिश कर रहे हैं, वह गलती में हैं। इस नरक से छुटकारे का अगर कोई मार्ग हो सकता है तो वह यहीं और अभी। और जो उसे कल पर छोड़ता है, वह इस दुनिया के नरक होने को बरदाश्त करता है और स्वीकार करता है। और इस दुनिया की नारकीयता में वह कोई फर्क नहीं लाता।
तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, कहीं और मोक्ष को खोजने की जीवन में कोशिश मत करना। अगर कहीं भी कोई मोक्ष हो सकता है तो इसी पृथ्वी पर और यहीं। जहां हम है, वहीं। अगर हम जीवन को बदलें और जीवन को सुगंध और सुवास तक ले जा सकें तो जीवन एक मुक्तिदायी तत्व बन जाता है। और फिर, जीवन से छुटकारे का प्रश्न नहीं है, फिर जीवन से भागने का, दूर हट जाने का प्रश्न नहीं है।
परमात्मा करे, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो छिपा है, उसकी गूढ़तम आत्मा वह प्रकट हो सके, और प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ऐसा संकल्प घनीभूत हो सके कि वह अपने को पा ले, स्वयं को खोज ले।
मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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