ग्यारहवां प्रवचन-(सुख नहीं, आनंद)
मेरे प्रिय आत्मन्!मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव में गए थे। बहुत बार उस गांव से निकले थे। एक आदमी ने आकर उनसे पूछाः तीस वर्षों से समझा रहे हैं लोगों को शांति की बात, कितने लोग शांत हो गए? देखता हूं, सुबह से शाम तक समझाते रहते हैं सत्य की खोज के लिए, कितने लोगों को सत्य मिल गया है? श्वास-श्वास में एक ही बात है आपकी--मोक्ष की, मुक्ति की। कितने लोग मोक्ष में प्रवेश कर गए हैं?
उसकी बात का बुद्ध ने कुछ उत्तर नहीं दिया, बल्कि उससे कहाः कल शाम को आकर मिलना। छोटा सा तो तुम्हारा गांव है। हर आदमी से पूछकर एक छोटे से कागज पर लिख लेना--गांव में कोई है जो शांत होना चाहता है।
वह आदमी सोचता था कि सभी शांत होना चाहते हैं। उसने कहाः यह भी कोई पूछने की बात है? सभी शांत होना चाहते हैं। कौन है जो अशांत होना चाहता है?
बुद्ध ने कहाः पूछ कर लिख लाना कि कितने लोग सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं?
उसने कहाः कौन है जो सत्य को उपलब्ध करना न चाहेगा?
बुद्ध ने कहाः ठीक से लिख लाना, कौन हैं जो मोक्ष की मुक्ति को पाना चाहते हैं।
वह आदमी गया दूसरे दिन। सोचा था कि व्यर्थ है पूछना, सभी लोग सत्य चाहते हैं, सभी लोग शांति चाहते हैं, सभी लोग बंधन नहीं चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं। लेकिन जब वह गांव में निकला, तब उसे भूल समझ में आई। सांझ तक भटका।
एक भी आदमी न मिला, जिसने कहा हो कि मैं शांति चाहता हंू। किसी ने कहा, धन चाहता हंू; किसी ने कहा, यश चाहता हंू; किसी ने कहा, स्वास्थ्य चाहता हंू; किसी ने कहा, और लंबी उम्र चाहता हंू। वह खोजता रहा उस आदमी को, मगर वह आदमी न मिला जिसने कहा हो कि मैं शांति चाहता हंू।
उसने बुद्ध को आकर कहाः बड़ा अजीब गांव है। एक भी आदमी नहीं मिला।
बुद्ध ने कहाः यही गांव ऐसा नहीं है। सभी गांव ऐसे हैं। अगर कोई शांति न चाहता हो, तो जबरदस्ती तो शांति मिल नहीं सकती। कोई अगर सत्य न चाहता हो तो सत्य के मंदिर में जबरदस्ती तो प्रवेश हो नहीं सकता।
मैं सोचता था, वह गांव कुछ गलत रहा होगा। जब पहली दफा यह कहानी पढ़ी थी, तब मैं सोचता था कि बुद्ध किसी गलत गांव ठहर गए होंगे। लेकिन अब तो मैं भी बहुत गांवों में घूम चुका। मुझे लगता है कि वह बहुत प्रतिनिधि गांव था; गलत गांव नहीं था। सभी गांव ऐसे ही हैं।
फिर भी सोचता रहा कि ढाई हजार साल पुरानी बात हो गई। ढाई हजार साल पहले ऐसे लोग रहे होंगे। सोचता था, आदमी बदल गया होगा। लेकिन अब लगता है, आदमी वहीं का वहीं है। वस्तुएं बदल जाती हैं, मकान बदल जाते हैं, सब बदल जाता है। आदमी वही का वही रह जाता है। अब भी वही बात है।
शायद आपको भी मेरी बात सुन कर ऐसा लगेगा कि होंगे और लोग जो न चाहते हों, हम तो चाहते हैं। लेकिन कभी कोई भूल होती है, इसलिए ऐसी भ्रांति पैदा होती है। हममें से अधिकतम सभी लोग सुख चाहते हैं, शांति नहीं। यह बड़े मजे की बात है कि सुख को जो चाहता है, वह शांति से विपरीत मार्ग पर यात्रा करने लग जाता है। जो सुख चाहता है, वह अशांति ही चाह रहा है। हम चाहते हैं सुख, लेकिन हम इतने ईमानदार भी नहीं हैं कि हम किसी से कहें कि हम सुख चाहते हैं।
एक मित्र मेरे पास आए, उन्होंने कहाः मैं रमण आश्रम गया, लेकिन सब बेकार है। अरविंद आश्रम गया, कुछ भी मुझे मिला नहीं। अब मैं आपके पास आया हंू। किसी ने मुझे कहाः उनके पास चले जाओ।
तो मैंने उनसे कहाः इसके पहले कि मैं बेकार हो जाऊं, आप कृपा कर इस कमरे के बाहर हो जाएं; जल्दी कीजिए कि बेकार न हो जाऊं मैं भी।
उन्होंने कहाः मैं बड़ी आशा से आया हूं।
मैंने कहाः इसलिए डर और भी ज्यादा बढ़ जाता है। किस लिए गए थे रमणाश्रम, किस लिए गए थे अरविंद आश्रम?
उस आदमी ने कहाः मुझे शांति चाहिए।
मैंने उन मित्र को पूछाः अशांति सीखने किसके पास गए थे?
उसने कहाः किसी के पास नहीं गया था।
मैंने कहाः जब अशांति तक सीखने में इतने समझदार और कुशल थे, तो शांति जैसी सरल बात को कैसे सीख पाओगे? अशांति बहुत जटिल है। अशांति बहुत दुखदायी है। उसे भी तुमने सीख लिया। अशांति बड़ी तपस्या है, जब वह भी तुम कर लेते हो तो शांति तो तुम कर ही लोगे। जब अशांति के लिए तुम किसी के पास पूछने नहीं गए, कोई गुरु नहीं बनाना पड़ा और जब मेरे पास अशांति सीखने नहीं आए, तो फिर शांति सीखने कैसे चले आए?
फिर मैंने उनसे पूछा कि ‘क्या सच में ही शांति चाहिए?’
तो वे कुछ रोज मेरे पास टिके थे। रोज-रोज उनसे बात करता था। मैंने उनसे पूछाः कठिनाई क्या है? शांति के पीछे क्यों पड़े हो?
उन्होंने कहाः आप मानते ही नहीं, तो सच बात मैं आपसे बता दंू। संतान नहीं है, संतान चाहिए। उससे सदा मन बड़ा दुखी रहता है। सोचता हंू, चलो शांति ही मिल जाए तो ठीक है।
लेकिन हम इतने ईमानदार नहीं हैं कि हम ठीक-ठीक कह सकें कि सुख चाहिए। सुख बहुत रेस्पेक्टेबल शब्द नहीं है, बहुत आदर योग्य नहीं है। शांति बहुत रेस्पेक्टेबल है। चाहते हैं सुख, तो कहते हैं शांति चाहिए। और जो-$ लोग सीधा-सीधा कह देते हैं कि सुख चाहिए, उनकी हम निंदा करते हैं। वे लोग--चार्वाक है, एपिकुरस है, माक्र्स है, वे कहते हैं सुख चाहिए आदमी को, हमें सुख चाहिए। हम कहते हैं वे सुखवादी हैं, भौतिकवादी हैं।
हमें भी सुख चाहिए। लेकिन हमने सिर्फ शब्द बदल लिए हैं। सुख की जगह हम कहते हैं शांति, कहते हैं आनंद। ऐश्वर्य चाहिए, लेकिन कहते हैं ईश्वर चाहिए। हालांकि दोनों का मतलब भी एक ही होता है।
कठिनाई इसलिए है कि हम यह भी साफ नहीं कर पाए कि हमें चाहिए क्या! जिस आदमी को इतना भी साफ मालूम न हो कि उसे क्या चाहिए, उसकी जिंदगी गलत हो जाए और भटक जाए, तो आश्चर्य नहीं है। सुख चाहिए, हमें तेा अच्छा है कि यह हमारे सामने स्पष्ट हो जाए कि हमें सुख चाहिए। हम सब चार्वाकवादी हैं, हम सब भौतिकवादी हैं। इसमें अस्वाभाविक भी कुछ नहीं है। हमें सुख चाहिए, अगर यह स्पष्ट बात हमें समझ में आ जाए, तो हम सुख की खोज में लग सकते हैं, सुख की पहचान में लग सकते हैं। सुख मिले, तो हम सोच सकते हैं कि क्या मिला!
जो व्यक्ति ठीक से समझ लें कि उन्हें सुख चाहिए, तो उन्हें यह दिखाई पड़ने में बहुत देर न लगेगी कि सुख के चाहने के पीछे दुख का निमंत्रण है। जो यह ठीक से समझ ले कि उसे सुख चाहिए, उसे यह जानना कठिन न होगा कि सुख की चाह अशांति की जन्मदात्री है।
असल में सुख और दुख, दो विरोधी चीजें नहीं हैं। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम सुख चाहते हैं, साथ दुख चला जाता है। वह उसी का दूसरा पहलू है। जिस आदमी को दुख से मुक्त होना हो, उसे सुख से मुक्त होने की हिम्मत जुटानी पड़ती है, सुख की दौड़ से मुक्त होना हो, उसे सुख से मुक्त होने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। लेकिन हम एक असंभव आकांक्षा में लगे रहते हैं कि सुख बच जाए और दुख खत्म हो जाए। हम ऐसी कोशिश में लगे रहते हैं कि दिन बच जाए और रात मिट जाए, प्रकाश बच जाए और अंधेरा मिट जाए। हम एक असंभव चेष्टा में नष्ट होते रहते हैं। अधिक लोगों का जीवन असंभव चेष्टा में टूटता है और बिखर जाता है। इसलिए सुख और दुख को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
जिसे हम सुख कहते हैं, उसमें और दुख में कोई फासला नहीं है। शायद इंच भर का भी फासला नहीं है। शायद जो नहीं मिलता है वह सुख मालूम पड़ता है, और जो मिल जाता है वह दुख हो जाता है। बस इतना ही फासला है। मिलने और न मिलने के बीच का फासला है। क्या आपको कभी खयाल आया है कि जो सुख मिल जाते हैं, वे व्यर्थ हो जाते हैं? जब तक नहीं मिलता है, तब तक मन दौड़ता है, खोजता है। मिलते ही पता चलता है, कुछ और चाहिए। इस चाह से कुछ भी न होगा, इससे कुछ भी न होगा।
अमरीका का एक धनपति एण्ड्रू कारनेगी मरते वक्त कोई दस अरब रुपया छोड़ कर मरा। मरने के कोई दो-तीन दिन पहले उसके किसी मित्र ने पूछाः कारनेगी, तुम तो तृप्त हो गए होगे, तुम तो सुखी हो गए होगे? तुम्हारे मन ने तो मंजिल पा ली। शायद पृथ्वी पर इतना रुपया कोई आदमी नहीं छोड़ गया। दस अरब रुपये तुमने इकट्ठा कर लिए।
कारनेगी ने इस तरह उस मित्र को देखा, जैसे कोई बड़े दुख की बात कह रहा हो। फिर उस मित्र ने कहाः सिर्फ दस अरब रुपये। मेरे इरादे तो सौ अरब रुपये इकट्ठा करने के थे। सिर्फ दस अरब! मैं बिलकुल हारा हुआ आदमी हंू। मैं कुछ भी नहीं पा सका, जो मुझे चाहिए था।’
लेकिन जिसके पास दस अरब हैं, अगर उसे कुछ भी न मिला, तो सौ अरब होने से कुछ और क्या मिल जाएगा? जो दस अरब में खरीदा सकता है, उससे ज्यादा सौ अरब में भी नहीं खरीदा जा सकेगा। दस अरब में सब कुछ तो खरीदा जा सकता है, जो भी खरीदा जाने लायक है। सौ अरब में सिर्फ दस गुणा हो जाएंगे रुपये, लेकिन दस गुणा खरीदने का क्या है? एण्ड्रू कारनेगी को सौ अरब भी मिल जाते तो मरते वक्त यही कहता कि सिर्फ सौ अरब? तब इरादे हजार अरब के हो जाते।
इरादे हमसे आगे चलते हैं। वे सदा हमसे फासले बनाए रखते हैं। लेकिन दस अरब रुपये मिल जाएं आदमी को, वह सुखी क्यों नहीं होता? ऐसी कितनी रातें चिंता में उसने बिताई होंगी कि यदि मुझे मिल जाएंगे तो सुखी हो जाऊंगा।
बायरन ने शादी की थी। देर से शादी की। बड़ा चुनाव किया, बड़ी मेहनत की स्त्री खोजने में। और जिस स्त्री से शादी की, उससे बड़ी मुश्किल से शादी हुई। बड़ी मुश्किल से स्त्री को झुका पाया, राजी कर पाया। जब चर्च से उतर रहा था हाथ में हाथ डाल कर, और चर्च में दीये जल ही रहे थे उसी खुशी में घंटियां बजाई जा रही थीं, मेहमान विदा हो रहे थे, शादी हो गई और वह घर की तरफ वापसी के लिए बग्घी की तरफ जा रहा था, और जब वह सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था पत्नी का हाथ थामे--जिस हाथ को हाथ में लेने के लिए न मालूम कितना श्रम, कितनी पीड़ा उठाई थी--तभी रास्ते पर दूसरी तरफ एक स्त्री गुजर रही थी और एक क्षण के लिए वह स्त्री भूल गई जिसका हाथ उसके हाथ में था, मन दौड़ गया उस स्त्री के पीछे जो रास्ते पर थी और जिसका हाथ किसी और के हाथ में था।
बायरन ईमानदार आदमी था। उसने बग्घी में बैठ कर अपनी पत्नी से कहाः तुझे आश्चर्य होगा, लेकिन जैसे तेरा हाथ मेरे हाथ में आया, सब ठंडा-ठंडा हो गया। जब तुम नहीं मिली थीं, तब सोचता था कि मिल कर न मालूम कितनी खुशी मिल जाएगी। जब तुम मिल गई हो, तो इन सीढ़ियों पर ही एक दूसरी औरत मेरे मन को पकड़ चुकी है। तब तुम भूल ही गई मन से कि तू थी ही नहीं मेरे लिए।
ऐसा होता तो सभी हो है, लेकिन इसका स्वीकार कम लोग कर पाते हैं। पत्नी भौचक्की रह गई होगी। उसने कहाः यह क्या कह रहे हैं आप? इसीलिए मुझसे शादी की है?
लेकिन बायरन ने ठीक कहा था। आदमी को जो मिल जाता है, मिलते ही वह व्यर्थ हो जाता है। इसीलिए तो प्रेयसी में रस और है। पत्नी में वह रस नहीं रह जाता। पत्नी ‘मिली हुई प्रेयसी’ है। सब व्यर्थ हो गया है। जो हमें मिल जाता है, एकदम व्यर्थ हो जाता है।
जिसे हम सुख मान कर चलते हैं, वह मिलते ही दुख हो जाता है।
वह कौन सा ऐसा सुख है, जिसे आप बहुत देर तक झेल सकें? थोड़ी देर झेलें और वह दुख में बदलने लग जाता है। सुख और दुख बड़े कनवर्टेबल हैं, एक-दूसरे में बदल जाते हैं। आप मुझे बरसों बाद मिले और मैं आपको गले से गला लूं। कितनी खुशी मालूम होगी! और फिर मैं छोडूं ही न। बस, आप थोड़ी देर में आस-पास देखने लगेंगे कि कोई पुलिसवाला दिखाई पड़ता है कि नहीं। वही सुख एक क्षण में किस भांति दुख में बदल गया है, इसका पता भी नहीं चलता। वह जो हृदय आनंद से भर गया था, वह कहां खो गया? दुख है, ‘मिला हुआ सुख’--जो मिल गया है, जो पा लिया गया है, जहां हम पहुंच गए हैं। और सुख है, ‘न मिला हुआ दुख’--जिसकी हम आकांक्षा कर रहे हैं, जिसे हम खोज रहे हैं, जिसे हम पुकार रहे हैं, जिसके लिए हम रो रहे हैं।
रवींद्रनाथ ने एक बहुत अदभुत बात लिखी है। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि परमात्मा की खोज की जन्मों-जन्मों से, और परमात्मा मुझे सदा सुखदायी लगा, क्योंकि कभी मिला नहीं। फिर एक बार ऐसा हुआ इस जन्म में कि खोजने में मैं उसके दरवाजे पर पहुंच गया। सांकल उसकी हाथ में ले ली, दरवाजा बजाने को ही था, तभी मुझे खयाल आया कि कहीं ऐसा न हो, जो सदा से हुआ कि जो भी मिला दुख हो गया! कहीं परमात्मा भी मिल कर दुख न सिद्ध हो जाए! तो डर से सांकल आहिस्ता से छोड़ दी कि कहीं आवाज न हो जाए। जूते हाथ में निकाल लिए कि कहीं सीढ़ियों पर आवाज न हो और फिर जो भागा हंू, उस दिन से फिर लौट कर उस मकान की तरफ नहीं देखा। खोज अब भी रहा हंू और लोगों से पूछता हूं, भगवान का मकान कहां है? हालांकि मुझे पता है कि कहां है! अब मैं उस गली से नहीं निकलता, क्योंकि बहुत डर मन में घर कर गया है कि सदा का अनुभव तो यह है कि जो मिल गया, वह दुख हो गया। कहीं परमात्मा भी मिल जाए और दुख हो जाए, तो फिर?
शायद परमात्मा भी इसी कारण कुशलता से छिपा रहता है। एक आशा बनी रहे, जिसमें आप अपने सुख खोजने में लग जाते हैं। भगवान का सुख ज्यादा देर तक टिक सकता है; क्योंकि पता नहीं कि कहां है। मिलता नहीं कि कहां है। मिलता नहीं है। मिल जाए तो वह भी दुख हो जाए। सिर्फ वे ही सुख चिरस्थायी हो सकते हैं, जो कभी नहीं मिलते। जो सुख मिल जाता है, वह दुख हो जाता है।
दुख भी एक उत्तेजना है और सुख भी एक उत्तेजना है।
दोनों में अशांति रहती है। फर्क यह है कि जिस उत्तेजना को हम प्रीतिकर समझ लेते हैं, वह सुख मालूम होती है।
जिस उत्तेजना को हम अप्रीतिकर समझ लेते हैं, वह दुख मालूम होती है।
कोई भी अप्रीतिकर चीज कल प्रीतिकर हो सकती है। अब जो प्रीतिकर है, वह कल अप्रीतिकर हो सकती है। लेकिन दोनों उत्तेजित अवस्थाएं हैं, उत्तेजना शांति नहीं है।
हम सब उत्तेजना खोज रहे हैं। हम शांति नहीं खोज रहे हैं। हमें शांति की आकांक्षा ही नहीं है। शांति की आकांक्षा बड़ी असाधारण आकांक्षा है। हम नई-नई उत्तेजना खोज रहे हैं। शायद हम ईश्वर के पीछे इसलिए पड़ते हैं कि एक नया सेंसेशन होता है, एक नई उत्तेजना होती है कि ईश्वर से भी मिल लें। हम ध्यान के लिए भी खोज रहे हैं, प्रार्थना के लिए भी जा रहे हैं--शायद नई उत्तेजना की तलाश में।
अभी पश्चिम में ध्यान, योग और प्रार्थना के लिए बहुत जोर से मांग हो रही है। पश्चिम अपनी उत्तेजनाओं से ऊब गया है। स्त्री को उसने सब तरह से खोज किया है। सेक्स को सब विधाओं से जान लिया है। शराब को सब तरह से पी लिया है। नाच, गीत, गान, सब कर डाले। अब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। अब उनके सामने सवाल है कि कोई नई उत्तेजना चाहिए, कोई नया सेंसेशन चाहिए। चलो ध्यान और योग भी मिल जाए, जिससे कुछ नई उत्तेजना आ जाए। थोड़ी सी थ्रिल आ जाए जिंदगी में। फिर ऐसा लगे कि हां, कुछ हैं।
लेकिन हम खोज रहे हैं उत्तेजना को ही।
उत्तेजना को खोजने वाला चित्त न तो शांत हो सकता है और न कभी सत्य को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि जो उत्तेजित है, उसकी उत्तेजना के कारण ही वह जो देखता है, वह सब डिस्टाॅर्ट हो जाता है, सब परवर्ट हो जाता है, सब विकृत हो जाता है। तो ग्रस्त मन सत्य को कैसे जान सकता है?
उत्तर है लहर को खोना चाहिए, मन शांत होना चाहिए। जैसे झील शांत हो जाए, लहर न उठती हो, लहर न कंपती हो, तो फिर चांद का प्रतिबिंब झलकने लगता है। ऐसे ही मन हो जाए, तो हम शायद जान सकें उसे, जो है।
लेकिन हम उत्तेजना की तलाश में हैं। इस उत्तेजना की तलाश में कभी-कभी हम शांति की भी खोज में निकल जाते हैं कि शायद कोई नई उत्तेजना इससे मिल जाए।
यह समझ लेना उपयोगी है कि सुख प्रीतिकर उत्तेजना है, ऐसी उत्तेजना है जिसे हम प्रेम कर सकें। एक फिल्म आप और मैं देखने जाएं। आज हमें प्रीतिकर लगेगी। कल भी उसे देखने जाऊं तो आंख दुखने लगेगी। परसों भी उसी को देखने जाऊं तो सिर भारी हो जाएगा। चैथे दिन भी यदि मुझे जाना पड़े तो सिर घूमने लगेगा, विकृत होने लगेगा। पहले दिन भी यही हुआ था। पहले दिन भी आंख पर उतना ही जोर पड़ा था, जितना दूसरे दिन पड़ा, लेकिन पहले दिन मैं मान कर चला था कि उत्तेजना प्रीतिकर होगी। जान लिया तो अप्रीतिकर हो गया।
जिसे हम जानते हैं, वह अप्रीतिकर हो जाता है।
मैंने सुना है कि एक आदमी पिछले इलेक्शन में हार गया। उसके गांव के लोग उससे भलीभांति परिचित थे। दो-दो चुनाव उसने जीते थे। एक नया आदमी अभी-अभी गांव में आया था और वह चुनाव जीत गया। नया आदमी भी हैरान हुआ। उसने पुराने नेता को पूछाः आश्चर्य है मुझे, मैं नया-नया आया और चुनाव जीत गया, और आप हार गए?
उसने कहाः घबड़ाओ मत, पुराने भर हो जाओ; तुम भी हार जाओगे। लोग मुझे जानने लगे। तुम्हें अभी जानते नहीं हैं। बस, इतनी-सी बात है।
जो हम जान लेते हैं उसका रस, उसकी उत्तेजना, उसका सुख विदा हो जाता है। इसीलिए आदमी जानने की खोज में पागल की तरह लगा रहता है ताकि नया जानने में थोड़ा रस मिल जाए। हां, कभी-कभी सुखपूर्ण उत्तेजना भी अगर इकट्ठी ही जोर पकड़ जाए तो प्राण भी ले सकती है। दुख में बहुत कम लोग मरते देखे गए हैं, लेकिन सुख में बहुत लोग मर जाते हैं। क्योंकि, दुख की उत्तेजना हम जन्म से झेलते-झेलते बधिर हो जाते हैं। अगर सुख भारी उत्तेजना लेकर एकदम से सिर पर आ जाए, तो सम्हालना मुश्किल हो जाए। तब टूटने की स्थिति बन जाती है।
एक आदमी को पांच लाख रुपये लाॅटरी में मिल गए। वह बहुत घबड़ा गया। उसके पिता ने भरी थी लाॅटरी। पिता अभी लौटा नहीं है, वह दफ्तर से लौटता ही होगा। बेटा बहुत परेशान है। वह यह सोच रहा है कि पिता को कैसे खबर दूं कि पांच लाख की लाॅटरी मिली है। यह खबर एकदम से कहीं प्राण न ले ले उनके! कुछ न कुछ उपाय करना चाहिए। वह पास के चर्च में गया। पादरी को उसने कहाः आप हमेशा समझाते हैं, आप कोई रास्ता निकालें। पांच लाख मिल गए हैं, बड़ी मुश्किल हो गई है। नहीं मिले थे तो ठीक था। आसानी से सोते थे। अब मिल गए हैं पांच लाख, एकदम से हम सम्हाल न पाएंगे। गरीब चित्त है, और यह पांच लाख! पिता दफ्तर से लौटने वाले हैं।
पादरी ने कहाः घबड़ाओ मत। सुख बड़ी तीखी उत्तेजना है। उसे टुकड़े-टुकड़े में, इंस्टालमेंट में, किस्त में लेना चाहिए। एकदम से लिया गया, तो मुश्किल में पड़ सकते हैं। मैं आता हूं, मैं सम्हाल लूंगा।
पादरी आया। उसने सोचा कि पांच लाख इकट्ठा बताने से खतरा हो सकता है। एक लाख से शुरू किया जाए। जो आदमी पांच लाख की आशा बांध रहा है बरसों से, वह एक लाख सह ही सकेगा। बूढ़ा आदमी भी घर आ गया। पादरी ने इधर-उधर की बात करके कहा कि ‘सुना है मैंने, एक लाख रुपये मिल गए हैं तुम्हें लाॅटरी में?’
उस आदमी ने कहाः क्या कह रहे हैं आप? एक लाख! सच कह रहे है?
पादरी ने कहाः बिलकुल सच कह रहा हूं। एक लाख तुम्हें मिल गए हैं। पादरी खुश है कि आदमी खत्म नहीं हो गया, जिंदा है।
बूढ़े ने फिर पूछाः बिलकुल ठीक कह रहे हो?
पादरी ने कहाः बिलकुल ठीक कह रहा हंू भाई, एक लाख तुम्हें मिल रहे हैं।
उस आदमी ने कहाः अगर सचमुच में एक लाख मिल रहे हैं, तो उसमें से पचास हजार तुम्हें दान कर दूंगा।
सुनते ही पादरी का हार्ट फेल हो गया। उसने पांच रुपये मिलने की भी बात नहीं सोची थी, और मिल गए पचास हजार। आखिर लाॅटरी की आशा करनेवाला फिर भी सोच रहा था।
जिसे हम सुख कहते हैं, अगर वह भी तीव्रता से पूरी तरह हम पर लद जाए तो हम टूट जाएंगे। दुख इस बुरी तरह नहीं तोड़ता है। इसलिए नहीं तोड़ता है बुरी तरह कि एक तो हम बचपन से दुख के आदी हो जाते हैं; और इसलिए भी नहीं तोड़ता है कि दुख से बचने के लिए हम हमेशा सुख की आशा बनाए रहते हैं और दुख किसी तरह झेल लेते हैं।
महावीर और बुद्ध भी सुखी घरों के लड़के थे। उनसे सुख झेलना मुश्किल हो गया। दुखी घरों में भी बहुत लड़के हैं, लेकिन उन्होंने दुख झेल लिया। जैनियों के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे थे। हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे थे। बुद्ध भी राजा के बेटे थे।
हिंदुस्तान में कोई गरीब अवतार, कोई गरीब तीर्थंकर नहीं हुआ। गरीबी और दुख को तो आदमी झेल लेता है, सुख को ही नहीं झेल पाता और उससे निकल भागता है।
इसका मतलब हुआ यह हुआ कि आज भी हिंदुस्तान में हम इतने परेशान नहीं हैं, जितने लोग अमेरिका में हैं। वे सुख से परेशान हैं। वहां सुख आ गया है जोर से। अगर हमारी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं और सारे दुख मिट जाएं, फिर हम क्या करेंगे? फिर सिवाय मरने को बचता क्या है?
बट्र्रेंड रसल की मृत्यु हो गई। वह बढ़िया आदमी थे। लेकिन वे एक चीज से बहुत डरते थेे। और भगवान न करे, वे वहां पहुंच गए हों। वे डरते थे मोक्ष से। आदमी इस योग्य थे कि दुनिया में अगर कोई आदमी मोक्ष को प्राप्त हो सकता है, तो रसल को होना चाहिए था। यह भी उनके बुद्धिमान होने का बड़ा सबूत था, क्योंकि वे जानते थे कि मोक्ष में हम करेंगे क्या? वहां पहले ही सब हो चुका है। वहां करने को अब कुछ भी नहीं है। वहां कोई दुख नहीं है जिसे हम मिटाएं। वहां कोई पीड़ा नहीं है जिसे हटाएं। वहां कोई कमी नहीं है जिसे हम पूरा करें। वहां कुछ करने को नहीं है। जो मोक्ष में चले गए होंगे, उन पर क्या बीत रही होगी? या तो आप भाग खड़े होंगे, या कोई रास्ता निकालेंगे कि सोचेंगे। हालांकि धर्मग्रंथों में रास्ता लौटने का नहीं है; सिर्फ एंट्रेंस, प्रवेश है; एक्झिट, निकास का कोई उपाय नहीं हो सकता। आप भीतर जा सकते हैं, बाहर निकल नहीं सकते। नरक में कम से कम दोनों रास्ते हैं--आप भीतर जा सकते हैं, बाहर भी निकल सकते हैं।
सुख वास्तव में कोई रास्ता नहीं है। लेकिन हम दुखी हैं, इसीलिए सुख की मांग करते चले जा रहे हैं और आशा में जी लेते हैं। जब सुख आता है, तब दुख हो जाता है। फिर हम आगे के सुख की आशा में जीने लग जाते हैं।
लेकिन अगर हम पिछली जिंदगी में लौट कर देखें, तो क्या मिलेगा? हर आदमी ने जी लिया है--किसी ने बीस साल, किसी ने चालीस साल, किसी ने साठ साल। हम पिछले साठ साल के लंबे रास्ते को खोजें, तो उस रेगिस्तानी रास्ते पर एक भी मरूद्यान नहीं दिखाई पड़ता है। अगर लौटकर हम देखें कि कब है वह क्षण जब हमें सुख मिला? कब है वह मौका जबकि किरण फूटी सुख की? हमें पता लगता है कि बहुत बार लगता था कि अब मिला, अब मिला। लेकिन मिलते ही किरण अंधेरी साबित हुई। मिलते ही मरुद्यान झूठा निकला। दूर से दिखता था कि यहां बहुत है जल। पास आने पर पता चला रेत का धोखा है।
लेकिन हम पीछे लौटकर देखते ही नहीं हैं। हम आगे देखते हैं, जहां दूसरे मरुद्यान दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसे ही मरुद्यान कल भी दिखाई पड़ते थे। उनको हम पार कर आए हैं। वे झूठे साबित हुए। अब हम फिर आगे देख रहे हैं। हम आगे ही देखते रहेंगे और वे मरुद्यान झूठे साबित होते चले जाएंगे। फिर भी हम और आगे देखने लगेंगे।
पहली बात तो यह जानना जरूरी है कि हम शांति के आकांक्षी नहीं, हम सुख के आकांक्षी हैं। एक तथ्य को ठीक से समझ लेने के बाद ही दूसरी खोज की जा सकती है कि यह सुख क्या है जिसकी हम तलाश में हैं? और अगर यह मिल जाएगा, तो क्या होगा? और यह भी सोच लेना चाहिए कि जब यह मिला है पीछे कभी, तब क्या हुआ? वह हर बार खाली निकल गया। उसमें से कभी कुछ हाथ आया नहीं। वह फूल खिला नहीं, वह बीज फूटा नहीं। वह झरना सूखा था, उसमें पानी की एक लहर न थी, एक बूंद न थी।
सुख रोज दुख सिद्ध होता है। लेकिन हम आगे के सुख में फिर लग जाते हैं, इसलिए शांति की आकांक्षा पैदा नहीं हो पाती। जो सुख के मरुद्यान के धोखे में हैं, वे शांति की आकांक्षा से नहीं भर सकते। शांति की आकांक्षा सिर्फ उस व्यक्तित्व में पैदा होती है, जिसका सुख का भ्रम टूट जाता है, डिसइलुजनमेंट जिसे आ जाता है, जिसे लगता है कोई सुख नहीं है, सब दुख के रूप हैं। मिला हुआ दुख और न मिला हुआ दुख, दोनों तरह के दुख ही हैं। दुख जो मिल गया है वह, और जो मिलेगा, दो तरह के दुख हैं। जिस व्यक्ति के सुख और दुख की भेद-रेखा मिट जाती है और दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हो जाते हैं, उस व्यक्ति के जीवन में एक नई आकांक्षा का जन्म होता है, जो शांति की आकांक्षा है। ऐसा व्यक्ति ही सिर्फ धार्मिक हो सकता है। कोई दूसरा व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता।
धार्मिक होने का मतलब है--शांति की खोज में गई चेतना। अधार्मिक होने का मतलब है--सुख की खोज में गई चेतना।
बड़े मजे की बात है कि जो सुख की खोज में जाता है, वह अशांत हो जाता है; और जो शांति की खोज में जाता है, वह सुखी हो जाता है। लेकिन वह बहुत दूसरी बात है। असल में सुख से कभी किसी को शांति नहीं मिलती; लेकिन शांति से सुख मिल जाता है। इसलिए जो सुख खोज रहा है, वह अशांति में जीएगा और शांति खोज रहा है, वह सुख में जीना शुरू कर देगा, क्योंकि वह सुख खोजता नहीं है। सुख तो शांति की छाया की तरह, उपलब्ध होता है।
लेकिन उस सुख को सुख कहना शायद ठीक न होगा, क्योंकि भ्रांति हो जाएगी। जिसे हम सुख कहते हैं, वह सुख नहीं है। उसके लिए हमने एक नया शब्द घड़ रखा हैः आनंद। पर हमारे मन में आनंद भी सुख का ही अर्थ रखता है। हमारे शब्दकोश में लिखा होता है आनंद यानि सुख। जब कोई आदमी कहता है कि हां, हमें आनंद चाहिए, तो वह प्राणों की गहराई में से यह कह रहा होता है कि सुख चाहिए।
ध्यान रहे, जिसे सुख चाहिए, उसे आनंद नहीं मिलेगा।
जिसे आनंद चाहिए, उसे सुख की चाह से मुक्त होना पड़ेगा।
लेकिन सुख की चाह से मुक्त होने का क्या मतलब है? क्या सुख को छोड़ कर भाग जाएं? क्या जहां सुख है, वहां से आंख बंद कर लें? सुख के रास्ते से निकल भागें?
संसारी वहां-वहां भाग रहा है, जहां-जहां दुख है। संन्यासी वहां-वहां से भाग रहा है जहां-जहां सुख है। दोनों भाग रहे हैं। दोनों का मार्ग का एक है। एक एक तरफ भाग रहा है, दूसरा दूसरी तरफ भाग रहा है। दोनों के बीच में सुख है। संसारी उसे हम कहते हैं जो सुख की तरफ उन्मत्त होकर भाग रहा है। कह रहा है कि वह रहा सुख! संन्यासी उसे कहते हैं जो सुख को देख कर पीठ करके भाग खड़ा हुआ है। वह कहता है, वह रास्ता सुख का है, हम भागेंगे। लेकिन दोनों भाग रहे हैं।
जो भी भाग रहा है, वह शांति नहीं पा सकता।
जो भी भाग रहा है, वह अशांत होता चला जाएगा। भागना अशांति है। जो भी भाग रहा है, वह उत्तेजित हो जाएगा, क्योंकि बिना उत्तेजित हुए भागना असंभव है। भागने के लिए उत्तेजना जरूरी है। संन्यासी भी उत्तेजित है क्योंकि वह सुख के भय से उत्तेजित है। संसारी भी उत्तेजित है कि सुख कहीं चूक न जाए।
ऐसा समझ लें कि शीर्षासन करते हुए सांसारिक का नाम संन्यासी है। वह सिर के बल खड़ा होगा। लेकिन है वह वही आदमी का आदमी। अगर कोई उससे पूछे कि तुम सुख से क्यों भागे जा रहे हो? तो वह यही कहेगा कि सुखी होने के लिए। सुख से क्यों भागे जा रहे हो? तो वह यही कहेगा कि सुख दुखी कर देता है, इसीलिए मैं भाग रहा हंू, मुझे सुखी होना है।
लेकिन अगर सुख भ्रांत है, मरुद्यान है, तो जो उसकी तरफ पानी पीने जा रहा है, वह भी गलती में है। जो उसे देख कर भाग खड़ा हुआ है, वह भी गलती में है। तो संसार में दो तरह की गलतियां हैं--एक सांसारिक की गलती है और दूसरी संन्यासी की गलती है। दोनों तरह की गलतियां भगाती हैं, उत्तेजित करती हैं, अशांत करती हैं।
और भी एक रहस्य की बात समझ लेनी चाहिए कि अगर हम संसारी हैं, तो हमारे भीतर संन्यास छिपा रहता है जो बार-बार कहता है--भागो सुख से; क्या रखा है इसमें! अगर हम संन्यासी हैं तो हम संन्यासियों के भीतर संसारी छिपा रहता है जो कहता है--कहां भागे जा रहे हो? तनिक रुक जाओ, थोड़ा सुख लो।
मैंने सुना है, एक गांव में ऐसा हुआ कि एक वेश्या और एक संन्यासी आमने-सामने रहते थे। अक्सर ऐसा होता है; क्योंकि दो छोर सदा आमने-सामने रहते हैं। वेश्या सामने रहती, संन्यासी सामने रहता। दोनों साथ रहते थे, सामने रहते थे। इसमें कोई गड़बड़ी नहीं थी। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है।
स्वाभाविक घटना एक दिन ऐसी घटी कि दोनों मर गए और यमदूत उन्हें लेने आए। यमदूतों ने जब आॅर्डर्स दिखाए उनको ले जाने के, तो वे बड़े हैरान हुए कि कुछ गलती हो नई मालूम होती है। क्योंकि संन्यासी को नरक ले जाना था और वेश्या को स्वर्ग ले जाना था। उन्होंने कहाः मालूम होता है, कोई गड़बड़ी हो गई है। आॅफिस की कोई भूल है। और जब अपने हिंदुस्तान के आॅफिस की बात हो, तो भूल हो ही जाती है।
यमदूत भाग के वापस पहुंचे। उन्होंने कहाः ऐसा कैसे हो सकता है कि संन्यासी नरक जाए और वेश्या स्वर्ग जाए? जाकर उन्होंने कहा होगा अपने अधिकारी को कि कोई गलती हो गई। उस अधिकारी ने कहाः नहीं, कुछ गलती नहीं हुई है इसमें, यह आॅर्डर ठीक है। उन्होंने कहाः क्या कह रहे हैं आप? पढ़िए तो इसे। स्वर्ग लाने की आज्ञा मिली है वेश्या को और संन्यासी को नरक ले जाने की। उस अधिकारी ने कहाः तुम नये-नये इस काम में लगाए गए होगे। तुम्हें पता नहीं, ऐसा सदा से होता रहा है। ये आॅर्डर रोज-रोज थोड़े ही छापे जाते हैं? ये तो छपे हुए रहते हैं, सिर्फ दे दिए जाते हैं उठा कर। उन्होंने कहाः क्या कह रहे हैं? सदा से ऐसा हुआ और सदा ऐसा होता रहेगा? उनका तो हमें जरा राज समझ देना होगा, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। जो मेरे हैं, वे तो ठीक हैं; हम मुश्किल में पड़ जाएंगे।
उस अधिकारी ने कहाः बात यों हुई कि संन्यासी जब सुबह-शाम अपनी पूजा को बैठता था और अपने मंदिर का दीया जलाता, धूप जलाता, झंाझ बजाता और जब अपनी वीणा छेड़ कर भजन गाने लगता था, तब वेश्या रोती थी और रोज कहती थी, कब होगा वह सौभाग्य जब प्रभु-मंदिर में मैं भी प्रवेश कर सकूंगी? कब आएगा वह दिन? पता नहीं, संन्यासी किस आनंद को भाग रहा है, जिसकी हमें खबर भी नहीं! और जब रात वेश्या के घर में नृत्य-गीत चलते, उसके घुंघरू बजते और नशे में लोग मस्ती में आ जाते, तब संन्यासी रात भर बिस्तर पर करवट बदलता सोचता था कि पता नहीं, उस घर में क्या आनंद बांटा जा रहा है? लोग पागल ही तो नहीं हो गए? आखिर लोग जा क्यों रहे हैं? सारी दुनिया रोक रही है, सारे संन्यासी रोक रहे हैं, फिर भी लोग जा रहे हैं। कहीं मैं ही तो नहीं चूका जा रहा हंू? कब होगा वह दिन? कई बार संन्यासी आस-पास से चक्कर भी लगा आता था। कहीं से झांक कर देख भी आता था कि आखिर हो क्या रहा है वहां? जरूर कोई आनंद बंटता होगा वहां। मरते वक्त संन्यासी वेश्या के घर में प्रवेश करने के ख्याल से मरा था, मरते वक्त वेश्या संन्यासी के मंदिर में जाने के लिए आतुर थी। स्वाभाविक है।
एक वे लोग हैं, जो सुख की तरफ भाग रहे हैं। एक वे लोग हैं, जो सुख से उलटे भाग रहे हैं। दोनों भाग रहे हैं।
शांत व्यक्ति तो सिर्फ वही है जो भाग नहीं रहा है। अगर उसे यह दिखाई पड़ता हो कि सुख मृग-मरीचिका सिद्ध हुआ है, तो न वह सुख की तरफ जाएगा, न सुख से भागता हुआ उलटा जाएगा। वह ठहर जाएगा।
फिर वह आदमी कहेगा, भागने को कोई जगह ही नहीं रही। जाऊं, तो फिर कहां जाऊं? सुख की तरफ दौड़ कर देख लिया, वह दुख सिद्ध हुआ। अब कहां दौडूं किसके लिए दौडूं? जो सुख खोजने पर दुख सिद्ध हुआ, उससे भागने से भी क्या मिल जाएगा? जिसके पाने से कुछ नहीं मिला, उससे अब भागने से कैसे कुछ मिल सकता है? ऐसा व्यक्ति तो खड़ा हो जाएगा, ठहर जाएगा। जो व्यक्ति ठहर जाता है, वह शांत हो जाता है।
अगर मैं एक कैमरा लेकर दौड़ता चला जाऊं, तो मेरे कैमरे के लेंस को कुछ भी पकड़ में नही आएगा। हमारी चेतना में भी कुछ भी पकड़ में नहीं आता, जीवन का भी सत्य पकड़ में नही आता; क्योंकि हम दौड़ते ही रहते हैं। एक आदमी को चित्र भी उतरवाना होता है, तो वह ठहर जाता है। ठहरे बिना इस जीवन का चित्र हमारे भीतर नहीं उतर सकता है।
जिस दिन हमारे जीवन का चित्र हमारे भीतर उतरता है, उसी दिन हम जानते हैं कि परमात्मा है। परमात्मा जीवन का चित्र है। जिस दिन हमारी चेतना उसके चित्र को पकड़ लेती है, उसी दिन हम जानते हैं। लेकिन हम ठहरते ही नहीं हैं। हम भागते हैं और हमारी गति अत्यंत तीव्र है, क्योंकि लोग कहते हैं कि धीरे भागोगे तो पहुंच नहीं पाओगे। संसारी भी तेजी से भाग रहा है और संन्यासी भी तेजी से भाग रहा है। तेजी से भागना हमारी जिंदगी है, क्योंकि हम सोचते हैं कि भागे बिना हम पहुंच नहीं पाएंगे।
किंतु, जितनी तेजी से हम भाग रहे हैं, उतने ही रोगग्रस्त, उतने ही चित्ताग्रस्त होते चले जा रहे हैं। फिर दिन और रात भागना ही रह जाता है। फिर जन्म से लेकर मरने तक एक लंबी दौड़ है, जिस दौड़ मे रोज गति बढ़ती चली जाती है। रोज लगता है, तीस साल निकल गए, चालीस साल निकल गए, पचास साल निकल गए, अब तक तो कुछ नहीं मिला। शायद मैं बहुत धीमे चल रहा हूं। मुझे थोड़ी तेजी से चलना चाहिए; क्योंकि आस-पास दिखाई पड़ता है कि दूसरों को शायद मिल गया। वे शायद तेजी से दौड़ रहे हैं।
एण्ड्रू कारनेगी को लगा कि दस अरब मिलने से कुछ भी नहीं मिला। लेकिन एण्ड्रू कारनेगी के आस-पास के, पड़ोस के, मोहल्ले के लोगों से पूछें तो वे कहेंगे कि उसे मिल गया। इसलिए कि वह तेजी से दौड़ा, हम जरा धीरे गए। हम गलती कर गए, हम चूक गए। वह जो पहुंच गया, उससे कोई नहीं पूछ रहा है कि वह कहां पहुंच गया? वह कहीं नहीं पहुंच गया। बस, आस-पास की शक्लें ऐसी खबरें देती हैं कि दूसरे लोग पहुंचते जा रहे हैं और हम हारते चले जा रहे हैं।
बड़े रहस्य की बात यह है कि पहुंचते सिर्फ वे ही हैं जो ठहर जाते हैं। जो दौड़ते हैं वे कहीं भी पहुंच नहीं पाते। अगर कहीं भी नहीं पहुंचना है तो सरल उपाय है कि दौड़ते रहें।
अगर कहीं पहुंचना हो तो एक ही मार्ग है कि ठहर जाएं। उलटी लगेगी यह बात, क्योंकि तर्क तो यही कहता है कि जो दौड़ता है, वह पहुंच जाता है। ठीक भी है। अगर वहां पहुंचना हो जहां हम नहीं हैं, तो दौड़ कर भी पहुंच सकते हैं। अगर वहां पहुंचना हो जहां हम हैं, तो दौड़ कर भी कैसे पहुंच सकते हैं? वहां तो ठहर कर ही पहुंचना होगा।
परमात्मा कोई मंजिल नहीं है कि कहीं और है। परमात्मा वहीं है, जहां हम हैं। लेकिन हम ठहरें, तो पता चल जाएगा। हम सोचते रहेंगे, तो पता नहीं चलेगा।
शांति कोई यात्रा नहीं है। शांति के ऊपर ही हम खड़े हैं। लेकिन हम इतने अशांत हैं, कांप रहे हैं कि हमारे नीचे जो शांति दबी पड़ी है, वह दिखाई नहीं पड़ती।
जिस दिन बुद्ध को ज्ञान हुआ तो किसी ने बुद्ध से पूछाः आपको क्या मिल गया है? बुद्ध ने कहाः मिलने की भाषा में मत पूछो, क्योंकि जो मिला है, वह मिला ही हुआ था। इसलिए अब मैं यह नहीं कह सकता कि कुछ मिल गया है। मिलने पर पता चला कि मैं भी कैसा पागल था! मैं जो खोज रहा था, उसकी खोज ही फिजूल थी। तुम मुझसे पूछो कि क्या-क्या खो गया है? खो गया बहुत-कुछ, मिला कुछ भी नहीं। उन लोगों ने कहाः अजीब धंधा किया आपने! खोने का काम हम नहीं करेंगे। कुछ मिलता हो तो बताएं। बुद्ध ने कहाः मिला वही जो मिला हुआ था। खो गया वह जो था ही नहीं और सोचते थे कि है। करने को भी कुछ नहीं बचा। दो ही करने की बातें हैंः या तो सुख खोओ या सुख से भागो। दोनों ही खत्म हो गई। कुछ भी नहीं मिला। अब मैं क्या करूं?
वे इस हालत में आ गए, जहां करने को कुछ भी नहीं बचा।
जिस दिन करने को कुछ भी नहीं बचता, उस दिन हम तो बच जाते हैं, होना तो बच जाता है। करने को न बचे, मैं तो बच जाऊंगा। एक घड़ी ऐसी आ जाएंगी कि करने को कुछ भी न बचे, पाने को कुछ भी न बचे, फिर भी तो मैं होऊंगा। तो उस सांझ बुद्ध तो थे, पर करने को कुछ भी नहीं बचा। धन की दौड़ पहले खत्म हो चुकी थी। अब धर्म की दौड़ भी खत्म हो गईं। वे उस रात में उस वृक्ष के तले शांति से सो गए, क्योंकि अशांति का कोई उपाय न था। कल सुबह पाने को कुछ भी न बचा।
ठीक पांच बजे उनकी नींद खुली। आंखें खोले चुपचाप देखते रहे। आज कैमरा स्थिर है। अब कोई दौड़ नहीं है। आज कुछ पाने को नहीं है। न धन पाने को है और न धर्म पाने को है। कैमरा स्थिर है। उनकी चेतना सुबह के आखिरी तारे को देखती रही, देखती रही, और वे हैरान हो गए कि मैं जिसको खोज रहा हूं, वह तो यह रहा। मैं किस शांति की तलाश में हूं? जिस शांति की तलाश में हंू, वह तो यह रही! मैं किस परमात्मा के लिए दौड़ रहा हूं? जिस परमात्मा के लिए दौड़ रहा हंू, वह तो यह रहा! उसी दिन उन्होंने लोगों से कहा कि कुछ मिला नहीं। जो था, वह भी खाली हो गया। हमने उसे भी खो दिया है, जिसे हम खो नहीं सकते। हमने उसे पा लिया है, जिसे पाने का कोई उपाय ही नहीं था। हम मुश्किल में पड़ गए हैं।
धर्म एक नई तरह की दौड़ नहीं है। धर्म है सब दौड़ों से मुक्त हो जाना। धर्म एक नई तरह की यात्रा नहीं है। धर्म है सभी यात्राओं से थक जाना। धर्म कोई मंजिल नहीं है, जहां दूर कहीं और जाना है। सब मंजिलें जब व्यर्थ हो जाती हैं, तब जहां हम खड़े रह जाते हैं, धर्म वहीं है। लेकिन हम कहां हैं, इसका हमें पता न चल पाएगा, क्योंकि हम सदा दौड़ते रहे हैं। स्वयं को खोजना बहुत मुश्किल है। जहां हम सुबह थे, वहां घड़ी भर बाद नहीं हैं। जहां घड़ी भर पहले थे, वहां घड़ी भर बाद नहीं हैं। जहां कल थे, वहां आज नहीं हैं। हम चैबीस घंटे भाग रहे हैं। यह खोजना बहुत मुश्किल है कि हम कहां हैं। कुछ भी स्थिर नहीं, सब दौड़ता हुआ है।
मैंने सुनी है एक कहानी कि एक गांव में एक आदमी बड़ा अविश्वासी था, बड़ा संदेहशील था। ताला भी लगाता था तो बार-बार लौट-लौट कर देख लेता था कि बंद है या नहीं। चिट्ठी लिखता था, तो दूसरों से बार-बार पता पढ़वा लेता था कि वही लिखा है न जो लिखा था। सुन लेता था, तब विश्वास होता था।
एक दिन वह आदमी नाई-बाड़े में बाल बनवाने गया था। बाल बनवा कर जब बाहर निकल रहा था, तब रुपया दिया। उसके आठ आने वापस देने के लिए नाई के पास नहीं थे। इस पर नाई ने कहा कि ‘कल लौटा दूंगा, पैसा नहीं है।’ उस आदमी ने सोचा, कल का क्या भरोसा? आजकल कोई पक्का नहीं है। नाई कल नाई रहे कि न रहे! शर्मा हो जाए, वर्मा हो जाए, कुछ पता नहीं है। तख्ती बदल ले, दुकान दूसरी खोल ले, कुछ पक्का नहीं है। कुछ ऐसा भी पक्का नहीं है कि यही आदमी मिलेगा यहां। कुछ ऐसी चीज का पक्का कर लें, जिस यह नहीं बदल सके। एक भैंस बैठी हुई थी पास में। उसने सोचा, यह पक्की निशानी है। इसको क्या पता, भैंस यहां पास में बैठी है। यह पक्का रहा। बोर्ड बदल लेगा, नाम बदल लेगा, लेकिन उसे क्या पता कि भैंस बाहर बैठी हुई है!
वह अलगे दिन पहुंचा, जहां भैंस बैठी हुई थी। अंदर जाकर गर्दन पकड़ ली उस आदमी की। उसने कहाः ‘मैं पहले ही जानता था, लेकिन हद हो गई! आठ आने के पीछे तुमने नाई-बाड़ा बंद कर मिठाई की दुकान खोल ली! आठ आने के पीछे इतनी सारी मुसीबत उठाई! अगर मुझसे कहता, तो मैं आठ आना छोड़ देता, लेकिन मैं तो होशियार हंू। देख, भैंस वहीं की वहीं बैठी है!’
हम भी अपने को नहीं पकड़ पाते, क्योंकि हम वहां हैं ही नहीं जहां घड़ी भर पहले थे। आप कहां पकड़ोगे अपने-आप को? आप भागे हुए हैं अपने से। आप कहीं नहीं हैं। आप पूरे वक्त भाग हुए हैं। जब तक आपको पता लगता है कि यहां हंू, तब तक आपका पांव आगे बढ़ा होता है। जब तक आप पहचान पाते हैं, यहां हंू, तब तक वहां पास्ट हो जाता है, अतीत हो जाता है। जहां आप थे, अब हैं नहीं।
दौड़ता हुआ चित्त न स्वयं को खोज पाता है और न सत्य को खोज पाता है। वह न सत्य को खोज पाता है और न आनंद को खोज पाता है। आनंद है, सत्य है--अभी और यहीं। सत्य होगा नहीं कल, वह है ही, अभी भी है, सिर्फ हम भागे हुए हैं। अगर एक क्षण को भी रुक जाएं, वह जो चेतना का कैमरा है, वह एक क्षण भी अगर ठहर कर देख ले, तो सारा जीवन दूसरा हो जाए।
जिसे मैं ध्यान कहता हूं, वह ठहरने की कला के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह तो बात कही मैंने आपसे। बात से आप नहीं ठहर जाएंगे। इसलिए कल सुबह ध्यान के लिए बैठना है, जहां हम ठहर जाएं थोड़ी देर के लिए, जहां कोई दौड़ न हो, न धन की, न धर्म की, न परमात्मा की, न सत्य की, न शांति की, न आनंद की।
अगर एक क्षण को भी कभी वह दृष्टि उपलब्ध हो जाए, तो आपके भीतर एक नई आत्मा का जन्म हो जाता है। वह नया, आदमी बड़ी प्रतीक्षा कर रहा है कि उसका जन्म हो जाए। क्योंकि, उस नये आदमी के जन्म के बाद ही आपकी जिंदगी में एक रस है, एक अर्थ है। उस नये आदमी के जन्म के बाद ही आपकी जिंदगी में एक आनंद की धारा है। उस नये आदमी के जन्म के बाद फिर मृत्यु नहीं है। हमारी चेतना से जो जन्म लेता है, वह मरता नहीं। उस नये जन्म के बाद ही आदमी द्विज होता है। द्विज की परिभाषा है कि एक जन्म और हो जाए। ब्राह्मण नहीं है द्विज। द्विज का मतलब है ट्वाइस बाॅर्न, जिसका दुबारा भी जन्म हो गया। दुबारा जन्म किसका होता है?
एक बार हम सबका जन्म होता है, जो मां के पेट से होता है। वह शरीर का जन्म हुआ। एक और जन्म है, जो ध्यान से होता है, समाधि से होता है, वह हमारा जन्म है। जिस दिन हम जनमते हैं, उसी दिन यह पृथ्वी और हो जाती है, चांद-तारे कुछ और हो जाते हैं, फूल-कांटे कुछ और हो जाते हैं। सब बदल जाता है। जिस दिन मेरा जन्म होता है, उस दिन इस जीवन में, इस पृथ्वी पर, सृष्टि में पदार्थ जैसी कोई चीज ही नहीं रह जाती। सब परमात्मा हो जाता है।
लेकिन जब तक मेरा जन्म नहीं हुआ है, तब तक तो मुझे सब पदार्थ ही पदार्थ है। जब तक पदार्थ ही पदार्थ है, तब तक दुख ही दुख है। जिस दिन परमात्मा ही परमात्मा रह जाए, उसी दिन आनंद है। लेकिन, आनंद आपका सुख नहीं है। इसलिए आप आनंद की तलाश में, अपने सुख को समझ कर मत निकल जाना। परमात्मा की तलाश में आप इसलिए मत निकल जाना कि बहुत सुख मिल जाएंगा। आपका सुख और आपकी सुख की आकांक्षा बाधा है। अपने सुख की आकांक्षा को ठीक से पहचान लेना, पकड़ लेना। डरना मत, क्योंकि हमारा मन डरने को होता है, और तब हम कहते हैं, मैं नहीं सुख चाहता। सुख दूसरे लोग चाहते हैं, मैं तो शांति चाहता हूं। मैं भौतिकवादी नहीं हूं। मैं शरीरवादी नहीं हंू। मुझे सुख चाहिए नहीं, मुझे तो शांति चाहिए।
आप सुख चाह रहे हैं, इसलिए शांति नहीं मिल रही है। और शांति चाहें, तो चाहने की और जरूरत ही नहीं है। सिर्फ सुख व्यर्थ हो जाए तो शांति उपलब्ध हो जाती है। शांति को चाहना नहीं पड़ता। जब हमारी कोई चाह नहीं होती, तब शांति मिल जाती है।
कैसे हम अचाह हो जाएं? कैसे वह क्षण आ जाए जब कि कोई चाह न हो? कैसे वह क्षण आ जाए जब कि कोई दौड़ न हो? क्या यह सम्भव है कि ऐसा क्षण आ जाए? मुझे लगता है, वह सम्भव है। परमात्मा करें, आपको भी किसी दिन लगे कि न केवल संभव है, सम्भव ही है, वही हो सकता है।

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