कुल पेज दृश्य

रविवार, 4 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(जीवन की दिशा)

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
कोई पच्चीस सौ वर्ष पहले एक छोटे से गांव में एक सुदास नाम का व्यक्ति था, बहुत गरीब, उसकी एक छोटी सी तलई थी, उसमें कमल का एक फूल बेमौसम खिल गया था। उसे बहुत खुशी हुई। उसने पांच रूपये निकाल कर उस सुदास को देने चाहे, सुदास हैरान हुआ, पांच रूपये कोई देगा इस फूल के, लेकिन इसके पहले कि वह रूपये लेता, पीछे से नगर का जो सबसे बड़ा धनपति था, उसका रथ आकर रुका। उसने कहा सुदास ठहर जा, बेच मत देना। पांच रूपये देगा वह सेनापति, तो मैं पांच सौ रूपये दूंगा। सुदास तो बहुत हैरान हो गया, यह बात तो सपने जैसी हो गई कि एक फूल के कोई पांच सौ रूपये देगा। सुदास बढ़ा उस धनपति की ओर अपने फूल को लेकर, लेकिन तभी पीछे धूल उड़ाता राजा का स्वर्ण रथ भी आ गया। और उसने कहा, सुदास ठहर जा, धनपति जो देता होगा, उससे दस गुना मैं तुझे दूंगा। सुदास की समझ के बाहर थी यह बात, इतनी धनराशि कोई एक फूल के लिए देगा!

राजा के स्वर्ण रथ की तरफ वह बढ़ा, रुपये लेने को नहीं, बल्कि राजा से यह पूछने को कि इस एक फूल के इतने दाम देने की क्या जरूरत आ पड़ी है? और सारा नगर ही क्या फूल को खरीदने को उत्सुक हो आया है? राजा ने कहा शायद तुझे पता नहीं, नगर में बुद्ध का आगमन हुआ है, हम उनके स्वागत को जाते हैं। और धन्य होगा वह व्यक्ति, जो इस फूल को उनके चरणों में चढ़ाएगा। फूल मुझे दे दे और धन थोड़ी ही देर में तेरे घर पहुंच जाएगा।


सूदास ने कहाः क्षमा करें, यह फूल अब मैं बेचूंगा नहीं। मैं भी उसी तरफ चलता हूं, जिस तरफ आप सब जाते हैं। राजा हैरान हो आया। कल्पना न थी कि गरीब व्यक्ति भी, इतने बड़े मोह को छोड़ सकेगा। सुदास ने फूल बेचने से इनकार कर दिया। राजा का रथ तो पहले ही बुद्ध के पास पहुंच गया, सुदास बाद में पैदल पहुंचा। बुद्ध के चरणों पर उसने उस फूल को रखा, बुद्ध को खबर हो गई कि राजा ने कहा था, हजारों स्वर्णमुद्राओं को ठुकरा कर एक दीन-हीन चमार ने आज मुझे चकित कर दिया है। बुद्ध ने कहा सुदास को, पागल है तू, पीड़ियों तक के लिए तेरी जीवन की चिंता, आजीविक की चिंता समाप्त हो जाती। फूल बेच क्यों न दिया? सुदास ने कहा, जो आनंद उस धन से मुझे मिलता, आपके चरणों में फूल को रख कर उससे बहुत अनंत गुना आनंद मुझे मिल गया है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओं ये दीन-हीन मनुष्य नहीं है, ये बहुत सुसंस्कृत और सुशिक्षित व्यक्ति है। सुसंस्कृत और सुशिक्षित कहा उस सुदास को, जो न पढ़ा था, न लिखा था, दीन-हीन था। जूते सीकर ही जीवन जिसने यापन किया था। किसी विद्यालय मंे कोई प्रवेश नहीं पाया था, किसी गुरु के पास बैठ कर कोई शिक्षा न पाई थी। लेकिन बुद्ध ने कहा, सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है, ये दीन-हीन चमार। और भिक्षुओं इससे शिक्षा लो, उनके एक भिक्षु ने पूछा, किन अर्थों में इसे सुशिक्षित कहते हैं? बुद्ध ने कहा इसमें ऊंचे मूल्यों को देखने की क्षमता है। हाइयर वैल्यूज जिन्हें हम कहें, जीवन के ऊं चे मूल्यों को देखने की इसमें क्षमता है। शिक्षा का और कोई अर्थ ही नहीं है। जीवन में उच्चतर मूल्यों का दर्शन हो सके, तो ही मनुष्य शिक्षित है। पैसे का दर्शन तो सुदास को भी हो सकता था, लेकिन नहीं पैसे की जगह प्रेम को उसने वरन किया। धन तो उसे भी दिखाई पड़ सकता था, एक फूल के लिए उसे जो धन मिलने को था, वह बहुत था। लेकिन नहीं उसने धन को ठुकराया। और धर्म को वरन कि या। उसने साहस किया क्षुद्र को छोड़ देने का, और विराट के प्रति समर्पण का। शिक्षित मनुष्य का और कोई अर्थ नहीं होता।
शिक्षित चित्त का अर्थ है, जो क्षुद्र को विराट के लिए छोड़ सके। और अशिक्षित का अर्थ है, जो क्षुद्र को पकड़े रहे और विराट को छोड़ दे। लेकिन इन अर्थों में क्या हम आज की शिक्षा को शिक्षा कह सकेंगे? शायद नहीं, कोई कारण नहीं है इस अर्थ में शिक्षा को शिक्षा कहने का। क्योंकि सारे जगत में जो मूल्य शिक्षा से हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो मूल्य हमें प्रेम को छोड़ने को कहते हैं, पकड़ने को नहीं; वे हमें धर्म को छोड़ने को कहते हैं, धन को पकड़ लेने को; वे जीवन में जो कुछ स्थूल और पार्थिव है, जो अत्यंत शुभ है, उसके ही इर्द, उसकी हत्या के लिए हमें तैयार करते हैं। जो जीवन का विराट है, जीवन में चिन्मय है, जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वो क्षुद्र सी वेदी के सामने...किया जाता हो, तो नहीं किया जा सकता; जिसे हम शिक्षा समझ बैठे हैं, वह शिक्षा है। होगी आजीविका को उत्पन्न कर लेने की विधि, लिविंग उससे आ जाती होगी, लाइव, आजीविका मिल जाती होगी, लेकिन जीवन, जीवन उससे छिन जाता है।
इमर्सन अपने गांव के एक युवक के स्नातक हो जाने पर विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट होकर लौटने पर उसके स्वागत में कहा था, मैं इस युवक का स्वागत करता हूं। इसलिए नहीं कि यह हमारे नगर का पहला व्यक्ति है, जो विश्वविद्यालय की श्रेष्ठतम डिग्री लेकर लौटा है, बल्कि इसलिए कि ये विश्वविद्यालय से लौट आया है, और अपने को बचा कर लौट आया है। विश्वविद्यालय इसे बिगाड़ने में समर्थ नहीं हो सका। इसलिए स्वागत करता हूं इस युवक का। हैरानी की बात इमर्सन ने यह कही, लेकिन बहुत सच है, आजिविका की शिक्षा में हम सब जीवन को गवां आते हैं, खो आते हैं। जरूरी है आजिविका, रोटी मिलनी अत्यंत आवश्यक है, वस्त्र मिलने अत्यंत आवश्यक हैं, जरूरी है बहुत, लेकिन जीवन को खोने के मूल्य पर जरूरी नहीं। और आजीविका इसलीए हम खोजते हैं ताकि जीवन मिल सके। हम एक वृक्ष की जड़ों को पानी देते हैं, जड़ों के लिए नहीं बल्कि इसलिए कि किसी दिन फूल आ सकें, लेकिन वे फूल आने बंद ही हो जायें, और हम जड़ों को ही पानी देते रहें, देते रहें, देते रहें तो कोई हमें पागल कहेगा। जड़ों को पानी देना बहुत जरूरी है, लेकिन जड़ों के लिए ही नहीं, किन्हीं फूलों की आशा में, अपेक्षा में; किसी दिन फूल प्रकट होंगे, और हवाएं उनकी सुगंध से भर जाएंगी, और उनकी सुगंध का संदेश दूर-दूर तक आकाश में व्याप्त होगा। उस आशा में उस प्रतीक्षा में जड़ों को हम पानी देते हैं। जड़ें न तो सुंदर हैं, न...हैं, जमीन में कहीं छिपी रहती हैं, उन कुरुप जड़ों को हम सींचते रहते हैं, इस आशा में कि किसी दिन सुंदर फूलों का जन्म होगा, लेकिन अगर फूल जन्मने बंद ही हो जाएं, और कोई उन जड़ों को ही इतना पानी देता रहे कि सारा जीवन गवां दे, फिर हम क्या कहेंगे?
आजिविका मनुष्य की जड़ हैं। रुट्स हैं वहां। उसके बिना जीवन खड़ा नहीं हो सकता। लेकिन आजीविका अपने आप में अर्थहीन है, जीवन के फूल न हो तो हम जड़ों को लेकर क्या करेंगे? सारे जगत में आज जो शिक्षा है, वह जड़ों को तो बहुत मजबूत कर देती है, लेकिन फूल उससे पैदा होते दिखाई नहीं पड़ते। एक बहुत अजीब और बेचैन कर देने वाली बात पैदा हुई है। इसे हम अपने खयाल में कैसे लें? यह शिक्षा नहीं है, शिक्षा कें अंतर्गत कुछ और निराकांक्ष, कुछ और असीमित स्वीकृत होना चाहिए। नहीं है क्यों यह शिक्षा? इससे श्रेष्ठतर मूल्यों का हमारे जीवन में कोई अविर्भाव नहीं होता।
मैंने सुना है, किसी बहुत पुराने गुरुकुल से तीन युवक अपनी शिक्षा पूरी करके वापस लौटते थे। गुरु ने बार-बार उन्हें कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है, लेकिन अंतिम दिन आ गया, दीक्षांत समारोह भी हो गया, गुरु ने आशीर्वाद भी दे दिया, आज सांझ वो विदा हो जायेंगे। बार-बार उनके मन में यह ख्याल उठता था, गुरु ने बहुत बार कहा था, अंतिम परीक्षा शेष रह गई है, क्या वह परीक्षा कभी नहीं होगी? और आज तो विदा का दिन भी आ गया, और आज तो उन्हें उपाधियों भी दे दी गई और गुरु ने आशीर्वाद भी दे दिया। और जीवन की पात्रता के लिए जो गुरु को कहना था, वह भी कह दिया। वे गुरु के चरण भी छू आए थे। उन्होंने अपना बोरी-बिस्तर भी बांध लिया था, अब तो वे जाने को ही थे। अंतिम परीक्षा शेष रह गई थी, क्या वह शेष ही रह जाएगी? और संध्या वे विदा भी हो गए। वे अपने घर की तरफ लौट पड़े, सूरज ढलता था और घना अंधेरा धीरे-धीरे उतरने लगा, उनकी पगडंडी पर, जल्द ही उन्हें जंगल को पार कर जाना था, ताकि वे नगर में पहुंच जाएं। शीघ्रता से वे भागे चले जाते थे कि राह में एक झाड़ी के किनारे जहां पगडंडी बहुत संकरी हो आई थी, देखा बहुत से कांटे पड़े हैं। एक युवक जो आगे था, छलांग लगा कर निकल गया था पार; दूसरा युवक जो उसके पीछे था, पगडंडी से नीचे उतर कर राह को छोड़, कांटों से बच आगे हो गया। लेकिन तीसरा जो युवक था, उसने अपने ग्रंथों को नीचे रख, अपने वस्त्रों को नीचे रख, अपनी चटाई को नीचे रख उन कांटों को बीनना शुरु किया, दो युवकों ने कहा, पागल हो, जल्दी करो। रात उतरी आती है, नगर दूर है, जंगल भयानक, एक क्षण भी छोड़ना उचित नहीं है, जल्दी चलो। यह क्या पागलपन करते हो? उस युवक ने कहाः इसीलिए कि रात उतरी आती है, घना अंधेरा थोड़ी देर में घेर लेगा, हम अंतिम पथिक हैं, जिन्हें ये कांटें दिखाई पड़ रहे हैं, हमारे बाद अब ये कांटें किसी को दिखाई नहीं पड़ेंगे। न कांटों को हटा देना अत्यंत जरूरी है। कल्पना भी न थी उन्हें, कि उस झाड़ी में उनका गुरु, पहले से आकर छिप कर बैठ गया होगा। वह गुरु बाहर आ गया, और उसने कहा कि अंतिम परीक्षा तुम्हारी ले ली गई, तुम जो दो आगे निकल गए हो, बिना कांटों को बीने वापस लौट आओ, तुम असफल हो गए। तुम एक वर्ष और रुक जाओ, अभी। तुमने जीवन में प्रेम का पाठ अभी नहीं सीखा है। जीवन में कुछ उच्चतम मूल्य हैं, वे तुम्हारी दृष्टि में अभी दिखाई नहीं पड़े। यदि राह पर पड़े कांटें भी तुम उठाने में असमर्थ हो, तो मैं तुम्हें अभी जीवन में नहीं जाने दूंगा, क्योंकि तुम्हें शायद पता नहीं है कि जो आदमी दूसरे की राह से कांटें उठाने में असमर्थ सिद्ध होता है वह अपने जीवन की राह पर निरंतर कांटों ही कांटों को पाएगा। तुम्हें शायद यह पता नहीं है, कि जो आदमी दूसरे की राह से कांटें उठाने में असमर्थ है, वह आज नहीं कल दूसरे की राह पर कांटे बिछाने में समर्थ हो जाएगा। तुम्हें शायद पता नहीं है कि जिसे कांटों की पीड़ा का, कांटों के दुख का किसी दूसरे के लिए कोई बोध नहीं है, उस आदमी के भीतर अभी मनुष्य का जन्म नहीं हुआ है। तुम वापस लौट आओ। तुम अंतिम परीक्षा में असफल हो गए हो।
हमारी शिक्षाएं अंतिम परीक्षा में सफल हो सकें, हम सफल हो सकें और अगर न हो सकेंगे, तो किस मुंह से कहें कि जिसे हम शिक्षा कह कर जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा व्यय कर रहे हैं, वह शिक्षा है। इस सत्य को बिना स्वीकार किए, शायद शिक्षा में कोई क्रांति नहीं पैदा हो सकेगी। इस तथ्य को स्पष्टतः देखे बिना, शायद हम कोई आमूल परिवर्तन पैदा नहीं कर सकेंगे। पढ़े-लिखे लोग पैदा होंगे, लेकिन शिक्षित नहीं। और पढ़ा लिखा आदमी अगर शिक्षित न हो, तो गैर पढ़े-लिखे आदमी से ज्यादा खतरनाक हो जाता है। क्योंकि उसके पास तर्क होते हैं, लेकिन उसके पास हृदय नहीं होता। उसके पास बौद्धिक क्षमता होती है, लेकिन उसके पास प्रेम करने वाली पात्रता नहीं होती। और प्रेम से पृथक होकर जो तर्क हैं, वे जीवनघातक सिद्ध होते हैं। वे अंधे आदमी के हाथ में दी गई तलवार बन जाते हैं। वे छोटे बच्चे के हाथ में खेलने के लिए दिए गए बम जैसा सिद्ध होगा। उसका विस्फोट होगा और जीवन को नुकसान होगा। इसके पहले कि कोई जीवन तर्कनिष्ठ बने, उसे प्रेम में प्रतिष्ठा मिल जानी चाहिए। क्योंकि प्रेम ही बार-बार तर्क को रोकेगा, जहां तर्क जीवन के विरोध में जाता है और विषाक्त होता है। अकेला तर्क हो मनुष्य के पास, तो उसके पास घोड़ा तो होता है, बहुत तेज; लेकिन लगाम उसके पास नहीं होती। और ये घोड़ा किसी और को हानि देगा यह तो ठीक ही है, लेकिन उसके सवार को जीवन का भी कोई आश्वासन नहीं है। ये उसको कहां ले पटकेगा, इसे भी कहना कठिन है। इधर हजारों वर्षों से पढ़ा-लिखा आदमी शिक्षित नहीं है, इसका बहुत दुष्परिणाम मनुष्य को भोगना पड़ रहा है।
ट्रूमैन अमेरिका का प्रेसिडेंट था, हिरोशिमा और नागासाकी पर उसकी आज्ञा से ही अणुबम गिरे। दूसरे दिन सुबह पत्रकारों ने उसके दरवाजे पर दस्तक दी, भीड़ थी पत्रकारों की और वे एक बड़ा अजीब प्रश्न पूछने उसके पास गए। उन पत्रकारों ने ट्रूमैन से बाहर आकर यह पूछा कि क्या आप रात शांति से सो सके? बहुत उचित था यह पूछना। जिस आदमी की आज्ञा से एक लाख लोग जलकर राख हो गए हों, छोटे बच्चे, बूढ़े, निर्दोष; उस आदमी से यह पूछना बहुत जरूरी था कि क्या तुम रात आराम से सो सके हो? शांति से? ट्रूमैन ने कहा बहुत शांति से, इधर बहुत दिनों से इतने आराम से नहीं सो सका था। एक चिंता मन पर बनी थी, वह चिंता समाप्त हो गई। मैं रात बहुत आराम से सोया, बहुत शांति से।
क्या कोई सुशिक्षित आदमी ऐसा कह सकेगा? नाम तो ट्रूमैन है, सच्चा आदमी, लेकिन भीतर कोई झूठा आदमी बैठा होना चाहिए। नाम सच्चे हैं, भीतर आदमी बहुत झूठा है। एक लाख लोगों पर हिरोशिमा में क्या बीती, इसका कोई अनुभव, कोई प्रतीति, कोई प्रेम, कोई लहर इस आदमी के मन को न छुई, यह रात भर बेचैन भी नहीं हुआ? इसके सपनों में हिरोशिमा में उठे धुएं की कोई कालिख न आई? इसकी निद्रा में वहां रोते बच्चों की कोई झलक न पहुंची? अगर ऐसा आदमी शिक्षित है, तो क्या यह उचित न होगा कि हम वापस लौट जाएं अशिक्षा के दिनों में। क्या यह उचित न होगा कि सारे शिक्षालय बंद हों? अगर यही आदमी शिक्षित है, तो ये चुनाव बहुत महंगा है। यह शिक्षा बहुत महंगी है। या तो वापस लौट जाएं हम, और या शिक्षा को और वृहत्तर करें, जीवन के मूल्यों से संबंधित करें। वह केवल रोटी कमाने का जरिया न हो, बल्कि जीवन को अनुभव करने का मार्ग भी बने। जीवन को जीने की विधि भी उसमें हो। हम मनुष्य को केवल कुछ शब्द और पाठ पढ़ा कर निपट न जाएं। बल्कि उसके हृदय को उसके संवेगों को, उसके इमेजन्स को भी प्रशिक्षित करें। उसके भीतर जो छिपी हुई संभावनाएं हैं, उसके व्यक्तित्व के जो अनंत-अनंत द्वार है, उन सबको भी खोलें, उसका मस्तिष्क ही भारी न हो जाए, शायद जापानी गुड़िया आपने देखी हो। एक गुड़िया होती है, जापान की दारुमा नाम होता है, दारुमा डाॅल! उस गुड़िया को हम धक्का दे दें, चोट पहुंचा दें, वह गिर जाती है, फिर अपनी जगह बैठ जाती है। न केवल बैठ जाती है, बल्कि बैठते वक्त, लौटते वक्त संगीत से भी आस-पास की हवा को भर देती है। जापान के लोग कहते हैं, दुनिया में दो तरह के आदमी होते हैं, जिनका सिर बहुत भारी होता है, वे गिर जायें तो वापस अपनी जगह पर लौट नहीं सकते। वे दो तरह की गुड़िया बनाते हैं, एक को गिरा दें, तो लौट नहीं सकेगी, उसका सिर बहुत भारी होती है, वजनी होता है, वह लौट नहीं सकती, सिर के बल पड़ी रह जाती है। दूसरी गुड़िया वे बनाते हैं, जिसका सिर अनुपात में होता है, वजनी नहीं होता, गिर जाए, वापस लौटकर अपनी जगह बैठ जाती है।
मनुष्य भी दो तरह के होते हैं। जिनका सिर बहुत भारी हो जाता है, और जिनके जीवन का सारा प्रशिक्षण केवल मस्तिष्क का प्रशिक्षण होता है, उनके व्यक्तित्व में एक कुरुपता, एक बेडौलपन आ जाता है। उनका व्यक्तित्व सिर से तो भारी हो जाता है, लेकिन हृदय की तरफ बिल्कुल खाली। और तब उनके गिरने का खतरा प्रतिक्षण बना रहता है। और वे जीवन में जो उपाय भी खोजते हैं, वे इतने अधूरे और अपंग होंगे, जिनकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। उस गणितज्ञ ने संभवतः यूनान में सबसे पहले गणित की किताबें संग्रहीत की। उस समय तक जितना गणित दुनिया में था, सबका उसने अध्ययन किया, वह एक दिन सुबह अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर पिकनिक पर गया हुआ था। छोटी सी नदी की धारा बीच में पड़ती थी। उसकी पत्नी ने कहा, पांच-छह उसके बच्चे थे, छोटे-बड़े, उसकी पत्नी ने कहा, बच्चों को सम्हाल कर नदी के पार निकाल दो, उस गणितज्ञ ने कहा ठहरो, मैं नदी की औसत गहराई नापे लेता हूं,। एवरेज गहराई नाप लेता हूं। और बच्चों की एवरेज ऊ ंचाई भी नापे लेता हूं, अगर बच्चे औसत लंबे सिद्ध हुए, फिर सम्हाल कर निकालने की कोई जरूरत नहीं, उसने जल्दी से छोटा सा नाला था,नाप लिया। दो-चार जगह पानी की गहराई को, बच्चों की ऊंचाई को रेत पर बैठ कर हिसाब कर लिया, और उसने कहा कि बेफिकर रहो, बच्चों को आने दो, कोई डूबेगा नहीं। औसत बच्चों की ऊंचाई, नदी की औसत गहराई के ज्यादा है। गणितज्ञ आगे चल पड़ा, बीच में उसके बच्चे थे, पीछे उसकी पत्नी थी, कहीं नदी उथली थी, कहीं बहुत गहरी थी। दो छोटे बच्चे डुबकियां खाने लगे, उसकी पत्नी ने चिल्लाया कि दो बच्चे बहे जाते हैं, और डूबते हैं। तो पता है आपको गणितज्ञ ने क्या किया? गणितज्ञ भागा नदी के दूसरे किनारे की तरफ, जहां रेत पर उसने हिसाब किया था, यह देखने के लिए कि कहीं हिसाब में कोई भूल तो नहीं हो गई, नहीं तो बच्चे डूबेंगे कैसे? बच्चा डूबता था, उसे बचाने नहीं दौड़ा, उसके लिए ज्यादा अहम सवाल यह था कि गणित कहीं गलत तो नहीं। कहीं कोई भूल-चूक विधि में तो नहीं हो गई। अन्यथा बच्चे डूबेंगे कैसे? इस आदमी के पास मस्तिष्क तो है, लेकिन हृदय बिल्कुल भी नहीं। हृदय होता, तो बच्चे को बचाना पहली समस्या थी। गणित को ठीक कर लेना पहली समस्या नहीं थी। लेकिन जिनका भी मस्तिष्क प्रशिक्षित होगा, केवल मस्तिष्क और हृदय अनएजुकेटिड रह जाएगा, अशिक्षित रह जाएगा, उन सबके साथ यही भूल होगी। वे जीवन से तो वंचित हो जाएंगे, गणित में बहुत कुशल। उनकी गणित की कुशलता, बड़ी खतरनाक सिद्ध होगी। उनकी गणित की कुशलता मनुष्यों को नहीं देख पाएगी, अंकों को देखेगी।
मिलट्री में आदमी नहीं होते, अंक होते हैं। एक नंबर का आदमी, नंबर दो का सिपाही, नंबर तीन का सिपाही, और जब दस सिपाही आज शाम को नहीं लौट पाते, तो ऐसी सूचना नहीं की जाती कि दस आदमी मर गए, दस अंक गिर गए, दस फिगर खो गई। नंबर दस का आदमी खो गया, तो वे कहते हैं, नंबर दस गिर गया। एक आदमी का मरना और नंबर दस के गिर जाने, इन दोनों बातों में बहुत फर्क है। नंबर दस अंक गणित का एक अंक है। और एक आदमी, एक जीवंत चेतना, जिसके अपने सपने होंगे, जिसकी अपनी आशाएं होंगी, जिसका अपना प्रेम होगा, जिसने दुनिया में न मालूम क्या-क्या करने की अभीप्साएं बांधी होंगी, वह ज्वलंत चेतना और गणित का एक अंक नंबर दस, इन दोनों में बहुत फर्क है। नंबर दस गिर जाता है, तो हमारे भीतर कोई भी पीड़ा नहीं उठती। हमारे हृदय की वीणा पर कहीं किसी तार को कोई चोट नहीं पहंुचती। नंबर दस गिर जाता है, बात खत्म हो जाती है। मिलिटरी में जीवन की जगह गणित को मूल्य दिया। शायद मिलिटरी ये मूल्य दे तो ठीक भी है, क्योंकि वहां जीवन का हिसाब नहीं, मृत्यु का हिसाब रखना है। लेकिन अगर पूरे जीवन में ही गणित बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, और अनिवार्य हो जाए, तो बड़ी कठिनाई है। और हमारी शिक्षा यही कर रही है। हमारी सारी शिक्षा यही कर रही है। अपंग मनुष्य पैदा कर रही है, असंतुलित। जिसकी जिंदगी में कोई बैलेंस नहीं, कोई संतुलन नहीं, जिसका एक अंग विकसित था, बहुत बड़ा हो गया, और सारे अंग बहुत छोटे रह गए हैं। आदमी पैदा नहीं हो रहा, एक कार्टून पैदा हो रहा है। जिसके सारे अंग बहुत छोटे हैं, और एक अंग बहुत बड़ा हो गया, वह अंग कितना ही बड़ा हो जाए, और कितना ही प्रीतिकर हो, तब भी पूरे मनुष्य के व्यक्तित्व में उसका असंतुलन जीवन को नुकसान पहुंचा रहा है, जीवन के केंद्र पर जो निहित है उसकी दीक्षा, जीवन के केंद्र में जो छिपा है उसका प्रपोजल, जीवन के केंद्र में जो क्षमता है, उसको जगाने का वस्तुतः शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए।
क्राइस्ट एक झील के पास से एक बार निकले। सुबह थी, और झील पर मछुओं ने जाल फेंके थे, मछलियां पकड़ने को। एक युवा मछुआ भी झील पर जाल फेंके खड़ा था, क्राइस्ट ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, मेरे मित्र! कब तक मछलियां ही पकड़ते रहोगे? जीवन में और बड़ी चीजें भी पकड़ने को हैं या नहीं? शायद उस मछुए ने यह कभी सोचा भी नहीं था। जीवन मछलियां पकड़ना ही है। लौटकर उसने क्राइस्ट को देखा, इस आदमी की आंखों में कुछ जादू सा है। इस आदमी के व्यक्तित्व में कुछ बात थी, जो मछुए को छू गयी। उसने कहा, क्या कोई ऐसा सागर भी है, जहां हम जाल फेंके और मछलियों से बड़ी चीजें उपलब्ध हो जायें। क्या कोई ऐसा जाल भी है, जो जीवन की कुछ और बड़ी चीजों को पकड़ ले। ऊ ब तो मैं भी गया हूं, मछलियों को पकड़ते-पकड़ते। लेकिन न तो मुझे किसी ऐसे सागर का पता है, जहां मछलियों के अतिरिक्त कुछ और पकड़ा जा सके। और न मैं ऐसे जाल को जानता हूं, जिसमें मछलियों से बड़ा कुछ उलझाया जा सके। क्राइस्ट ने कहाः फेंक दे अपना जाल और आ मेरे पीछे। तुझे मैं बड़े सागरों के किनारे ले चलूं। और ऐसे जाल बुनंू जिसमें मछलियां तो क्या, परमात्मा पकड़ा जा सकता है। मछुआ हिम्मत का आदमी रहा होगी, उसने जाल फेंक दिया और क्राइस्ट के पीछे हो लिया। वे गांव के बाहर भी नहीं निकल पाए थे, कि एक आदमी ने दौड़ कर आकर खबर दी उस मछुए युवक को कि तेरा पिता जो बहुत दिन से बीमार था, अभी-अभी उसने प्राण छोड़ दिए। वापस लौट चल कहां जा रहा है? तुझे खोजता हुआ मैं झील पर गया था, वहंा पता चला कि तू किसी आदमी के साथ किसी अज्ञात यात्रा पर निकल गया है, वापस लौट। पिता तेरे मर गए हैं। उस मछुए ने क्राइस्ट से कहाः क्षमा करें, मैं दो-चार दिन में पिता क ा अंतिम संस्कार करके, वापस लौट आऊं गा, मुझे आज्ञा दें कि मैं जाऊं ।
पता है क्राइस्ट ने क्या कहा? क्राइस्ट ने कहाः लेट बी डेड, हेयर बी डेड, यू फाॅलो मी। गांव में जो मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे, तू मेरे पीछे आ। गांव में काफी मुर्दे हैं, इस मुर्दे को दफनाने के लिए। इसलिए तेरी कोई खास जरूरत नहीं है। बड़ी हैरानी की बात। उस युवक ने चलते राह में क्राइस्ट से पूछा कि क्या गांव में जो जिंदा हैं, उन लोगों को भी आप मुर्दा कहते हैं? क्राइस्ट ने कहाः निश्चित ही, जिसने अपने जीवन के केंद्र को नहीं जाना, वह केवल प्रतीत होता है कि जी रहा है, वह जीवित नहीं है। केवल आभास है उसका कि मैं जी रहा हूं, जीवन का अभी उससे कोई परिचय नहीं है। सिर्फ ढोंग है कि मैं जी रहा हूं। हम जन्मते हैं, और मरते हैं, इस बीच के काल को हम जीवन का काल समझ लेते हैं। बस इतना ही जीवन काफी है, दो छोरों के बीच में, जन्म और मृत्यु के बीच में जो समय बीता, वही जीवन है? अगर वही जीवन है, तब तो बड़े आश्चर्य की बात है, सच तो यह है कि जन्म और मृत्यु के बीच में जो समय बीतता है, उसका जीवन से कोई भी संबंध नहीं। जन्म और मृत्यु के बीच का समय, केवल रोज-रोज मरते जाने की प्रक्रिया का समय है, जीवन का नहीं। एक ग्रेजुअल डेथ है, जो जन्म से शुरु होती है, मृत्यु पर पूरी हो जाती है। हम रोज-रोज धीरे-धीरे मरते जाते हैं, इसी को हम जीवन समझ लेते हैं। एक घड़ी भर नया बिता देंगे, एक घड़ी भर और मर जायेंगे। मरना कोई आकस्मिक बात तो नहीं है कि किसी भी एक दिन आप मर जाएंगे, मैं मर जाऊंगा, मर जाना एक लंबी प्रोसेस है, एक लंबी प्रक्रिया है। रोज-रोज हम मरते हैं, इसलिए एक दिन हम मर जाते हैं। रोज हमारे भीतर कुछ मरता जाता है, मरता जाता है। एक दिन यह मरना पूरा हो जाता है। और हम कहते हैं मृत्यु आ गई। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह केवल एक मरने की प्रक्रिया से ज्यादा नहीं है। और सच है यह बात अगर यह जीवन होता, तो मृत्यु कैसे आ सकती थी? जीवन की भी और मृत्यु हो सकती है! जीवन और मृत्यु तो बड़ी विरोधी बातें हैं, इनका क्या संबंध? जीवन की भी मृत्यु हो सकती है? मरने की प्रक्रिया का अंत मृत्यु में हो सकता है, लेकिन जीवन की प्रक्रिया का अंत मृत्यु में कैसे होगा? जीवन के रास्ते पर हम चलेंगे तो अंत में परम जीवन उपलब्ध होना चाहिए। मृत्यु के रास्ते पर हम चलेंगे, तो अंत में मृत्यु आएगी। जो अंत में आता है, उसी से तो पहचाना जाता है।
एक बीज हम बोते हैं और कड़ुवे फल लगते हैं, तो क्या हम नहीं समझ पाएंगे कि जो कड़वे फल लगे वे बीज में ही छिपे थे? जो फल की तरह प्रकट हुआ, वह बीज में मौजूद रहा होगा। अन्यथा फल में प्रकट कैसे होता? मौत का फल लगता है, जिसे हम जीवन कहते हैं उसमें। तो क्या यह थोड़ी सी समझ न होगी, जिसे हमने जन्म कहा, उस जन्म के बीज में ही मौत छिपी रही होगी। धीरे-धीरे प्रकट हुई। मैनीफ्रेस्टेशन हुआ। लेकिन मौजूद तो रही होगी, जन्म में ही अगर मौत मौजूद न हो, तो अंत में प्रकट कैसे हो जाएगी? आ कैसे जाएगी? मौत कहीं आसमान से नहीं आती है। वृक्ष में लगे फल भी कहीं आसमान से नहीं आते हैं। एक काॅजनमेंट है, एक वैज्ञानिक संबंध है भीतर कार्य कारण का। बीज में छिपा रहता है, वृक्ष। वृक्ष में छिपे रहते हैं, फल। जन्म में छिपी रहती है, मृत्यु। जन्म मृत्यु का अप्रकट रूप है। ये तो जीवन नहीं है, और हम इसी के संबंध में इसी को बचाने की व्यस्तता में आजीविका की खोज करते हैं, और हमारी सारी शिक्षा आजीविका की ट्रेनिंग से ज्यादा नहीं है। आजीविका की शिक्षा में हम बचाते हैं, उस जीवन की रक्षा करते हैं जो जीवन ही नहीं है। तो स्वाभाविक है कि जमीन मुर्दों की एक बस्ती बनती चली जाए। स्वाभाविक है, लोग चलते-फिरते मालूम होते हों, लेकिन जीवन की कोई पुलक, कोई आनंद, कोई संगीत उनके भीतर दिखाई न पड़े। स्वाभाविक है कि लोग चलते-फिरते हों, उठते हों, बोलते हों, लेकिन भीतर जीवन का कोई नृत्य उनके पास न हो। उदास, मरे हुए, प्रतीक्षा करते हों अंतिम दिन की कि कब छुटकारा हो जाए। और रोते हों महल पर, और मंदिरों में प्रार्थना करते हों कि हे परमात्मा! आवागमन से छुट्टी दिलाओ। तपश्चर्या करते हों, उपवास करते हों कि आवागमन से मुक्ति मिले, जीवन को जिन्होंने नहीं जाना, स्वाभाविक है कि वे जीवन से ही छूट जाने की कामना करते हों। सारी दुनिया में धर्मों ने एक सोसाइडल रुख अपना लिया है। सारी दुनिया के धर्मों ने एक आत्महत्या का रुख अपना लिया है। और वह सभी को अपील भी करती है बात, क्योंकि सभी लोग सोचते हैं मर जाना ही उचित है, बजाय जीने से। क्योंकि जीने का तो कोई पता ही नहीं है।
रवींद्रनाथ ने मरने के दो दिन पहले एक गीत लिखा था, और गीत में कहा था, हे पिता! हे परमात्मा! तुझे धन्यवाद देता हूं कि तूने मुझे अपार कृपा दी, जीवन को जानने का मौका दिया, और प्रार्थना करता हूं, बार-बार मुझे जीवन में भेज देना, तेरा जीवन बहुत सुंदर था, बहुत अमृत; तेरे जीवन में बहुत आनंद था, तेरे जीवन में बहुत सुवास थी, और अगर मैं उसे न जान सका हूं , तो भूल मेरी थी, तेरे जीवन का कोई कसूर न था। अगर उस जीवन से मैं परिचित न हो सका हूं, तो अंधा मैं था, तेरे सूरज का कोई कसूर नहीं। अगर उस संगीत को मैं नहीं सुन पाया हूं जो तेरा जीवन था, तो बहरा मैं था, तेरे संगीत की कोई भूल नहीं। जीवन को जो जानने की खोज में गहरा होगा, वह एक ग्रेटीट््यूड, एक धन्यता अनुभव करेगा। जीवन से चूक जाने के पागलपन की बात नहीं है, बल्कि जीवन में और गहरे उतर जाने की, जीवन को पूरे प्राणों से उपलब्ध कर लेने की अभीप्सा का उसमें जन्म होगा। वह एक प्यास से भर जाएगा कि जीवन की समग्रता को कैसे उपलब्ध हो जाए?
मेरी दृष्टि में सम्यक शिक्षा, जिसे राइट एजुकेशन कहें, वह जीवन की दिशा में कदमों को उठाने के लिए प्रेरणा देगी, प्यास से भरेगी। वह भरेगी इस प्यास से कि हम जन्म और मृत्यु के बीच के काल को ही जीवन न समझ लें, जीवन इतने ऊपर नहीं और थोड़े गहरे में है। और जहां जीवन है, वहां मृत्यु का कोई भी पता नहीं।
एक फकीर था, हुनजाई। उससे किसी ने जाकर पूछा कि मुझे मृत्यु के संबंध में और जीवन के संबंध में कुछ बताओ। उस फकीर ने कहाः अगर जीवन के संबंध में समझना हो तो आना मेरे पास, और अगर मौत के संबंध में समझना है, तो किसी और के पास जाना। जहां मैं हूं वहां मृत्यु का कोई अस्तित्व ही नहीं है। मृत्यु के संबंध में समझना हो, तो किसी और से समझ लेना, मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं है। और जीवन को समझना हो तो आ जाना मेरे पास। ऐसे जीवन को हम जानते हैं? अगर हम ठीक से खोजेंगे तो पायेंगे कि मृत्यु से हमारा थोड़ा-बहुत परिचय है, जीवन से हमारा कोई भी परिचय नहीं। रोज किसी को मरते हम देखते हैं, रोज कोई मिट जाता है, कोई विलीन हो जाता है। मृत्यु को तो हम पहचानते हैं, लेकिन जीवन को न हम उसे बाहर पहचानते हैं, न भीतर। जिस दिन हम जीवन को पहचान लेंगे, उस दिन मृत्यु है ही नहीं। इसलिए इसको एक कसौटी, एक मापदंड समझ लेना। जब तक मृत्यु दिखाई पड़ती हो जमीन पर कहीं भी, तब तक ठीक से जान लेना कि अभी जीवन का मुझे पता नहीं। जिस दिन जीवन दिखाई पड़ेगा, उस दिन मृत्यु...मृत्यु बिलकुल भी नहीं है।
एक बार जाकर अंधेरे से भगवान से यह प्रार्थना की थी कि तुम्हारा सूरज मुझे बहुत परेशान किए रहता है। सुबह से निकल कर मेरे पीछे पड़ जाता है और सांझ थका डालता है मुझे भगा-भगा कर। मैंने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं, क्यों मेरे पीछे पड़ा है? और रात में विश्राम भी नहीं कर पाता दिन भर की थकान के बाद मैं, सुबह फिर मौजूद हो जाता है। स्वभावतः शिकायत उचित थी, और भगवान ने सूरज को बुलाया होगा। और सूरज से कहा तुम क्यों अंधेरे के पीछे पड़े हो? क्यों नाहक उसे परेशान किए हो? सूरज ने कहा, कैसा अंधेरा? मेरा उससे कोई परिचय ही नहीं है। अब तक मैंने अंधेरे को देखा भी नहीं है। मेरी कोई मुलाकात भी नहीं हुई। शत्रुता का सवाल नहीं है। आप कृपा करें और अंधेरे को मेरे सामने बुला दें, मैं उससे माफी मांग लूंगा और आगे के लिए सचेत हो जाऊंगा कि इसका पिछा नहीं करना है। इस बात को हुए बहुत वर्ष बीत गए हैं, हजारों-करोड़ों, भगवान अभी तक कोशिश करे अंधेरे को सूरज के सामने नहीं ला सके हैं। और आगे भी नहीं ला सकेंगे, यह मामला फाइल में ही रखा रह जाएगा। ये कभी हल होने वाला नहीं है। सूरज के सामने अंधेरे को कैसे लाया जा सकता है? जीवन के सामने मौत को कैसे लाया जा सकता है? इस बात को अगर हम समझेंगे तो एक बहुत सीक्रेट सामने आ जाएगा, सूरज के सामने अंधेरे को क्यों नहीं लाया जा सकता? जीवन के सामने मौत को क्यों नहीं खड़ा किया जा सकता? अगर अंधेरा होता, तो सूरज के सामने भी लाया जा सकता था। अगर उसका कोई पाजिटिव एक्झिस्टेंस होता। अगर अंधेरे की कोई सत्ता होती, उसका कोई अस्तित्व होता, तो सूरज के सामने हम उसे क्यों नहीं ला सकते थे? बराबर ला सकते थे। लेकिन अंधेरे की कोई सत्ता ही नहीं। अंधेरा है ही नहीं। अंधेरा केवल एब्सेंस है प्रकाश की। अंधेरा कोई प्रेजेंस नहीं है, किसी चीज की मौजूदगी नहीं है अंधेरा। अंधेरा केवल गैर मौजूदगी है। इसलिए आप चाहें कि इस कमरे में अंधेरा भरा है, तो हम टोकरी में भर कर बाहर फेंक दें, तो नहीं फेंक सकते। और आप चाहें कि फलां आदमी हमारा दुश्मन है, चलो उसके घर में अंधेरा लाकर डाल दें, तो नहीं डाल सकते। अंधेरे को आप न ला सकते हैं, न ले जा सकते हैं। अंधेरा होता तो जरूर हम लाने ले जाने का कोई उपाय खोज लेते, लेकिन वह है ही नहीं। प्रकाश की गैर-मौजूदगी का नाम अंधेरा है। इसलिए अगर अंधेरा भरा है, तो अंधेरे के साथ हम कुछ भी नहीं कर सकते, लेकिन अगर हम दिया जला लें, तो अंधेरा नहीं है। दिया बुझा दें, अंधेरा है। दिया जला लें, अंधेरा नहीं है। तो अंधेरा क्या है? अंधेरा केवल दिए की गैर मौजूदगी। दिए की एब्सेंस।
जीवन के सामने मृत्यु को भी नहीं लाया जा सकता। अगर मृत्यु कुछ होती तो जीवन के सामने लाई जा सकती, मृत्यु भी जीवन की अनुपस्थिति का नाम है, जिसे जीवन का अनुभव नहीं होगा, उसे मृत्यु दिखाई पड़ती रहती है। जिसके पास रोशनी नहीं होती, उसके आस-पास अंधेरा होता है। और दो में से एक ही चीज एक जगह रह सकती है, दोनों चीजें एक जगह नहीं रह सकती। जो जीवन को जान लेगा, उसके लिए फिर कोई मृत्यु नहीं है। और जो मृत्यु को ही जानता रहता है, उसके पास जीवन की ज्योति नहीं है।
शिक्षा को, जीवन रूपी ज्योति को जगाना, उसे प्रज्वलित करना, उसके अनुभव में ले जाने का मार्ग होना चाहिए। जिस दिन शिक्षा जीवन को जगाने वाली, जीवन को उठाने वाली, जीवन को मुक्त करने वाली, प्रक्रिया होगी; जिस दिन शिक्षा का मंदिर जीवन का मंदिर भी होगा, उस दिन हम शिक्षित मनुष्य को पैदा कर सकेंगे, उसके पहले नहीं। और जिस दिन हमने वैसे मनुष्य को पैदा करना शुरु कर दिया, उस दिन सारी जमीन पर एक क्रांति हो जाएगी। जमीन पर फिर युद्ध का कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा की कोई जगह नहीं रह जाएगी। घृणा और द्वेष के लिए कोई रिक्तता नहीं रह जाएगी, जहां वो भर जायें। मरे हुए लोग, दूसरों को मारने को निरंतर उत्सुक होते हैं। इससे पैदा होते हैं युद्ध, जीवित लोग दूसरे को जिलाने के लिए आतुर होंगे और जीवन एक अदभुत स्वर्ग बन सकता है।
वह भटक रहा है, खोज रहा है मार्ग, जब नहीं मार्ग मिला, तो उसने स्वर्ग में, आकाश में बना लिए अपने स्वर्ग। आकांक्षा तो ये थी कि जमीन पर स्वर्ग बन जाए, जब हम नहीं हम बना सके जमीन पर स्वर्ग, तो हमने एक कंसोलेशन खोज लिया, आकाश में बना लिए अपने स्वर्ग। ये आदमी जमीन पर असफल हो गया, इसलिए सपने में स्वर्ग देखने लगा। हम सबको पता है, जिस बात को हम जिदंगी में नहीं पा पाते, उसे हम सपने में उपलब्ध कर लेते हैं। जिस बड़े महल को हम जिदंगी में नहीं बना पाते, रात सपने में उसे बना लेते हैं। जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे जीवन में नहीं उपलब्ध कर पाते, रात सपने में हम उसे उपलब्ध कर लेते हैं। दिन भर भूखे मरते हैं, रात बड़े भोजन, रात भोजन में तृप्त हो जाते हैं। जो वास्तविकता में नहीं मिलता, उसका हम सपना पैदा कर लेते हैं। स्वर्ग मनुष्य ने बनाना चाहा था जमीन पर, आज भी हमारे मन में आकांक्षा है, लेकिन असफल हो गए, इसलिए हमने उसे आकश में बादलों के पार बनाया। जिस दिन भी हम जीवन में दीक्षा देने वाली शिक्षा के विकास को, उसके यंत्र को, उसकी गति को सुव्यवस्थित कर लेंगे, उसी दिन आकाश में स्वर्ग बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जमीन पर और इसी जमीन पर एक अदभुत जीवन की ऊर्जा प्रकट हो सकती है। इसको शिक्षा इसीलिए नहीं कह पाता हूं, कि शिक्षित मनुष्य ने तो जमीन को एक नर्क बना दिया है, स्वर्ग नहीं। लेकिन हम मार्ग खोज सकते हैं, हम राह खोज सकते हैं, मनुष्य के पास सारे उपकरण मौजूद हैं, पर आज हमारी हालत वैसी ही है, जैसे एक मंदिर में...
 मैंने सुना है, एक बहुत पुरानी वीणा रखी हुई थी। उस वीणा को बजाने वाला उस मंदिर में कोई भी नहीं था। कभी कोई बच्चे मंदिर में आ जाते थे,बड़ों के साथ, तो कोई बच्चा उसके तारों को छेड़ देता था, और विकृत झनकार उस मंदिर में गूंज जाती और पुरोहित डांट देता था, छुओ मत वीणा को शोरगुल मत करो, कभी कोई कीड़ा चढ़ जाता था वीणा पर और आवाज गूंज जाती थी, कभी कोई किताब गिर जाती थी वीणा पर और आवाज गूंज जाती थी। बस इतना ही उस वीणा का उपयोग था। फिर एक दिन एक आदमी उस मंदिर में पूजा चलती थी, उस मंदिर के पुजारी पूजा में थे और एक आदमी चुपचाप उस मंदिर में प्रविष्ट हुआ, उस वीणा के पास गया और उसने उसके तारों को छुआ। पूजा बंद हो गई, मंत्र गान चुप हो गए, मोह मुग्ध हो गए, कितने घंटों तक वह आदमी उस वीणा को बजाता रहा, वह मंदिर एक स्वर्ग हो गया। उसके पुरोहित ने उस आदमी के पैर छुए और कहाः अब तक तो हम यही सोचते थे कि यह वीणा एक उपद्रव का कारण है, ये यहां रखी है, पुरातन से रखी है, इसे हम अलग भी नहीं कर सकते, पीढ़ियों से यहां है...तक दे दीं, पर इसे रखा रहने दिया। लेकिन जब कोई इसे छेड़ देता है, मंदिर में, पूरी ध्वनिंया गूंज जाती हैं, शांति खंडित हो जाती है। कई बार हमने यह फैसला भी लेना चाहा, इस वीणा को हटा दें यहां से, लेकिन कुछ लोग इसके विरोध में थे और वीणा बनी रही। और हमें पता भी न था कि कभी कोई आएगा, और इस वीणा से संगीत भी पैदा हो सकता है। इस वीणा से वो स्वर भी निकल सकते हैं, जो जीवन को आनंदित कर दें।
मनुष्य के मंदिर में भी उसके हृदय की वीणा वर्षों-वर्षों से ऐसी ही रखी है, उसे बजाने की चपलता, उसे बजाने की कला, शायद हमें पता नहीं। शिक्षा उस कला का मार्ग हो सकती है। और जिस दिन शिक्षा मनुष्य के हृदय की वीणा को बजाना सिखा सकेगी, उस दिन जीवन एक नये अर्थ को, एक नई अभिधारणा को ले लेगा। उस दिन की प्रतीक्षा करनी काफी नहीं है, उस दिन के लिए श्रम भी करना होगा। कौन करेगा यह श्रम? जो लोग बूढ़े हो गए हैं, शायद वे नहीं कर सकेंगे, तुम्हारे शिक्षक, तुम्हारे अभिभावक, शायद वे भी नहीं कर सकेंगे? तुम्हीं को, नई पीढ़ियों को, नये युवकों को, नई युवतियों को खोजना होगा जीवन का मार्ग और एक क्रांति लानी होगी।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं, ये बातें अधूरी हैं, मैं इतना ही कह पाया कि जीवन की वीणा को बजाने का अब तक शिक्षा ने कोई मार्ग नहीं खोजा है, लेकिन अगर यह बात भी आपके खयाल में आ सकी होगी, तो शायद चिंतन पैदा हो। संध्या मैं जो बात करूंगा, आज इसी संबंध में करनी थी, करने का मेरा खयाल है कि जीवन की वीणा को बजाने का क्या विज्ञान है। तो मैं विद्यार्थियों से निवेदन करूंगा सांझ की बात को सुबह की बात से वे जोड़ लेंगे, शायद उनके मन में कोई खयाल पैदा हो सके, जो मार्ग बन जाए।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुग्रहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें