पांचवां प्रवचन
पूंजीवाद, समाजवाद और सर्वोदय
मेरे प्रिय आत्मन्!पिछले चार दिनों में कुछ बातें मैंने आप से कही हैं उसके संबंध में सैकड़ों प्रश्न उपस्थित हुए हैं। आज संक्षिप्त में जितने ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों के संबंध में बात हो सके, मैं करने की कोशिश करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप यह मानते हैं कि विनोबा जी के सर्वोदय से समाजवाद आ सकेगा?
विनोबा जी का सर्वोदय हो, या गांधी जी का; समाजवाद उससे नहीं आ सकेगा। क्योंकि सर्वोदय की पूरी धारणा ही मनुष्य को आदिम व्यवस्था की तरफ लौटाने की है। सर्वोदय की पूरी धारणा ही पूंजीवाद की विरोधी है; लेकिन पूंजीवाद से आगे जाने के लिए नहीं, पूंजीवाद से पीछे जाने के लिए है। पूंजीवाद से दो तरह से छुटकारा हो सकता है। या तो पूंजीवाद से आगे जाएं या और पूंजीवाद से पीछे लौट जाएं। पीछे लौटना कुछ लोगों को सदा सरल मालूम होता है और आकर्षक भी, लेकिन पीछे लौटना न तो संभव है, न उचित है; जाना सदा आगे ही पड़ता है--चाहे मजबूरी से चाहे स्वेच्छा से। जो मजबूरी से जाते हैं वे घसीटे हुए पशु की तरह जाते हैं। जो स्वेच्छा से जाते हैं उनकी चाल में एक गति, और एक आनंद और भविष्य को पाने की एक स्फूर्ति, खुशी, आशा और सपना होता है। इस हमारे देश में पीछे की तरफ जाने की बात इतनी घर कर गई है कि जब भी मुसीबत हो, तो हम पीछे की तरफ हटना चाहते हैं। उसके कारण मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें थोड़ा समझना चाहिए। उससे विनोबा जी के सर्वोदय और गांधी जी के विचार और गांधीवादी पूरी दृष्टि का क्या मनोवैज्ञानिक अर्थ है, वह समझना उपयोगी होगा।
पहली बात तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य के मन में यह खयाल है कि पहले सब अच्छा था, गांव अच्छे थे, शहर बुरा है। क्योंकि शहर नया है, गांव पुराने! लेकिन ये बातें वे ही लोग कहते हैं जो शहरों में रहते हैं, गांव में नहीं। गांव की जिंदगी एक दिन घूम कर देख आना और बात है गांव में जीना बिलकुल और बात है। और म.जा यह है कि सर्वोदय पर और गांव पर और प्राचीन ग्रामीण व्यवस्था पर, पंचायत पर जिन लोगों का बहुत जोर है, वे सब गांव में नहीं रहते। वे सब शहरों में रहते हैं। शहरों में रह कर वे किताबें लिखते हैं गांवों की सुंदर, प्राकृतिक जिंदगी के संबंध में। यह भ्रम जो हम पालते हैं, ये भ्रम मनमोहक होते हैं लेकिन खतरनाक हैं।
गांव का कोई भविष्य नहीं है, भविष्य है शहर का। आने वाली दुनिया में गांव नहीं होगा, होंगे शहर, और बड़े शहर, जिनकी अभी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। गांव जो है वह वैसा ही है जैसे झोपड़ा है। आने वाली दुनिया में झोपड़ा नहीं होगा, गांव भी नहीं होगा। असल में आने वाली दुनिया, ग्रामीण की दुनिया नहीं, नागरिक की दुनिया होने वाली है।
सच तो यह है कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे, वैसे-वैसे आदमी जमीन से मुक्त होगा और जब तक आदमी जमीन से पूरी तरह मुक्त नहीं होता, तब तक आदमी पूरी तरह सुसंस्कृत नहीं हो पाएगा। आदमी निरंतर मुक्त हो रहा है बहुत-सी चीजों से, लेकिन अब तक भोजन के लिए जमीन से मुक्त नहीं हो पाया है--लेकिन हो सकता है। और मेरी समझ में टेक्नालाॅजी का विकास उसे जमीन के ऊपर अनिवार्य रूप से भोजन के लिए निर्भर रहने से मुक्त कर देगा। बहुत दूर वह दिन नहीं है जब कि आदमी को भोजन के लिए जमीन पर निर्भर नहीं रहना होगा। भोजन भी औद्योदिक उत्पादन से ही पैदा हो सकेगा--सिंथेटिक हो सकेगा, केमिकल हो सकेगा।
जमीन पर निर्भर रहने की बात आगे संभव नहीं है। जमीन छोटी भी पड़ गई है, लोग ज्यादा भी हो गए हैं। और किसान जो है, कृषि जो है, वह अत्यंत पुरानी बात है जो इस बीसवीं सदी की, विकसित टेक्नालाॅजी से, जिसका कोई बहुत गहरा संबंध नहीं हो सकता। भोजन के नये मार्ग खोजे जाएंगे। समुद्र से भोजन खोजा जा सकता है, खोज लिया गया है। हवा से भोजन खोजा जा सकता है, सूरज की किरणों से भोजन खोजा जा सकता है, खोज लिया जाएगा। और आज नहीं कल, काज्मिक से सीधा भोजन भी खोजा जा सकता है। रोज जमीन से, भोजन से छुटकारा जब तक नहीं होता, तब तक दुनिया की दीनता और दरिद्रता मिटने वाली नहीं है। क्योंकि जमीन छोटी पड़ गई है। लोग ज्यादा हो गए हैं। मृत्यु दर हमने कम कर दी है और जन्म दर को कम करना असंभव मालूम पड़ रहा है। सर्वोदय भूमि से बंधे हुए आंदोलन हैं। अतीत की तरफ ले जाने वाला आंदोलन है। वह भविष्य की तरफ ले जानेवाला आंदोलन नहीं है। अब भूमि से बंधे हुए आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है।
दूसरी मजे की बात ह कि सर्वोदय की सारी चिंतना त्याग, सरलता, सादगी इन पर खड़ी हुई है। यह त्याग, सरलता, सादगी हजारों साल से आदमी को सिखाई गई बातें हैं। कोई मानता नहीं। कभी-कभी एकाध आदमी सादा और सरल खड़ा हो जाता है। वह भी सादा और सरल नहीं होता। वस्त्र पहन सकता है सादे और सरल, भोजन कर सकता है सादा और सरल, लेकिन मन उसका सामान्य आदमी से भी ज्यादा जटिल और ज्यादा कांप्लेक्स हो जाता है। सरलता जीवना का सहज हिस्सा नहीं है। जीवन का सहज हिस्सा है विस्तार और जटिलता। ध्यान रहे, जीवन का विकास कांप्लेक्सिटी की तरफ है। अमीबा है एक छोटा सा पहला प्राणी है जिससे मनुष्य विकसित हुआ। अमीबा के पास एक ही सेल है। एक ही सेल से जीता है। बिलकुल सरल प्राणी है। लेकिन न बुद्धि हो सकती है उसमें, न कुछ और हो सकता है। बस जी सकता है, श्वास ले सकता है और मर जाएगा। अमीबा सरल प्राणी है। फिर जटिलता शुरू होती है, जैसे-जैसे विकास बढ़ता है। बंदर कम जटिल है। आदमी ज्यादा जटिल है, आदिवासी कम जटिल है, बंबई का निवासी ज्यादा जटिल है। जितनी जटिलता बढ़ती है मस्तिष्क की, व्यक्तित्व की, उतना विकास होता है।
गांधी जी और विनोबा जी सरलता के पुराने आदर्श से पीड़ित थे। उन सबको यह ख्याल है कि जीवन सरल हो, थोड़ी आवश्यकताएं हों, छोटा झोपड़ा हो, दो कपड़े हों, चरखे से काम चल जाए, जमीन पर खोद कर अगर हाथ से ही पैदावार हो जाए तो बहुत अच्छा। साधन की जरूरत न रहे, उपकरण का उपयोग न हो। लेकिन अस्वाभाविक हैं ये मांगें। ये स्वभाव की तरफ लौटने की बातें बड़ी अस्वाभाविक हैं! आदमी निरंतर जाता है जटिलता की ओर और आदमी निरंतर जाता है आश्यकताओं को बढ़ाने की ओर। दुनिया भर के सारे शिक्षक चिल्ला-चिल्ला कर हार गए कि आवश्यकताएं कम करो। आवश्यकताएं कम नहीं हो सकतीं। जीवन का लक्षण यह नहीं है। जीवन आवश्यकताएं बढ़ाता है। मरना हो तो आवश्यकताएं कम की जा सकती हैं और अगर आवश्यकताएं बिलकुल... बिलकुल कम कर दी जाएं तो अंततः मरने के सिवाय कोई उपाय न रह जाए। अगर सारी आवश्यकताएं करनी हैं कम, तो धीरे-धीरे सुसाइडल माइंड, आत्मघाती व्यक्तित्व पैदा होता है जो अपने को मारता चला जाता है और स्वयं को खत्म कर लेता है।
जीवन है विस्तार, फैलाव आवश्यकताओं का। जितनी आवश्यकताएं फैलती हैं उतना मनुष्य उत्पादन करता है। जितनी आवश्यकताएं फैलती हैं उतना आविष्कार करता है। जितनी आवश्यकताएं फैलती हैं उतने उसके मस्तिष्क के अवरुद्ध हिस्से सक्रिय होते हैं। जितनी आवश्यकताएं फैलती हैं उतना मनुष्य पशु से मुक्त होता है। पशु के पास बहुत थोड़ी आवश्यकताएं हैं, इसीलिए वह पशु है। और अगर आवश्यकताएं बिलकुल कम की जाएं तो आदमी को पशु के तल पर ही जीना पड़ेगा। उसकी आदमियत थोथी है। आदमी के होने का मतलब है कांप्लेक्स, जटिल आवश्यकताओं से, विस्तार से भरा हुआ।
सर्वोदय जैसे सारे आंदोलन का लक्ष्य है सरलता, कम आवश्यकता, थोड़े में जियो। इस आग्रह को लेकर चलते हैं। मनुष्य की प्रकृति और मनुष्य के मन की कोई समझ उन सब में नहीं है, लेकिन फिर भी हमारे मन को वे बातें अपील करती हैं। वह अपील इसलिए करती हैं कि जब हम जटिलता से घबड़ा जाते हैं तो पीछे लौटने का मन करने लगता है। अगर अभी एक आदमी पचास साल की उम्र का है, उसके मकान में आग लग जाए तो आप उस मकान के सामने खड़े हुए उस पचास साल के आदमी को दस साल के बच्चे की तरह छाती पीट कर रोते हुए देखेंगे। वह वापस लौट गया है। डिग्रेशन हो गया। अब वह इस समय दस साल का बच्चा है, अब वह पचास साल का आदमी नहीं। मकान में आग लग गई है। बात जटिल हो गई है। उसकी समझ के बाहर है। अब वह जो पैर पटक के रो रहा है, चिल्ला रहा है। वह काम वही कर रहा है जो दस साल का छोटा बच्चा करे तो ठीक। लेकिन पचास वर्ष का आदमी करे तो गलत। लेकिन क्या हो गया इसको? यह पचास साल का आदमी एकदम दस साल का क्यों हो गया! इसका मन दस साल का व्यवहार क्यों कर रहा है? इसकी समझ के बाहर हो गई बात। इसकी समझ में नहीं आ रहा कि अब मैं क्या करूं? इसलिए यह वापस लौट गया। यह दस साल जैसा व्यवहार कर रहा है।
हम रोज कई बार बच्चे हो जाते हैं और बच्चे हम इसलिए हो जाते हैं कि जब भी कोई जटिल समस्या खड़ी होती है, तब हमारे मस्तिष्क से मांग होती है कि और ऊपर उठो, और चेतन हो उतनी मांग हम नहीं झेल पाते हैं तो हम वापस लौट जाते हैं। आदमी शराब पी लेता है ज्यादा जब जटिल समस्या सामने आ जाए--क्यों? शराब पी के वह समस्या को भुला देता है। ऐसे वह झंझट से बाहर हो जाता है। भजन कीर्तन करने लगते हैं--ज्यादा जटिल समस्या आ जाए, क्यों? भजन-कीर्तन करते समय वह बच्चों जैसा काम करने लगा। अब वह भूलने की कोशिश कर रहा है। भजन-कीर्तन भी, शराब भी, और पीछे लौटने की आकांक्षा--सदा ही एस्केपिस्ट है, पलायन है। जिंदगी संघर्ष है नई समस्याओं का।
सर्वोदय इत्यादि सब पलायनवादी विचार हैं, जो कहते हैं--जटिलता की दुनिया ही छोड़ दो! बंबई में रहते ही क्यों हो? न्यूयार्क में बसते ही क्यों हो? मास्को मेें रहने की जरूरत क्या है? लौट जाओ ठेठ गांव में। लौट जाओ वहां जहां जंगली आदमी रहता था। उसी तरह के कपड़े पहन लो। नंगे रह सको तो और भी अच्छा है। चरखे से भी छुटकारा हो जाए तो और भी अच्छा। लौट जाओ पीछे, कंदमूल-फल खा लो। थोड़ा-बहुत खेती-बाड़ी कर लो तो ठीक। बस पीछे लौटने का आग्रह, क्यों? इसलिए है, कि जिंदगी की बड़ी समस्याएं खड़ी हो गई हैं जिनको हल करने मे कुछ लोग घबरा गए हैं। वे पीछे लौटने की बात कर रहे हैं।
मैं मानता हूं कि जब भी बड़ी समस्याएं आती हैं तब मनुष्य की जिंदगी में छलांग लगाने का मौका आता है। कांशसनेस वहीं छलांग भरती है। जब ऐसी समस्याएं घेर लेती हैं जिनका सामना करने के लिए सोचना पड़ता है, विचार करना पड़ता है, जद्दोजहद करनी पड़ती है, प्राणों को दांव पर लगाना पड़ता है और ऐसा हो जाता है कि मरेंगे कि बचेंगे,तभी छलांग--चेतना आगे का कदम उठाती है। इस समय मनुष्यता बहुत सी जटिल समस्याओं के सामने खड़ी हो गई है।
तो दो तरह के लोग हैं। अधिक लोग तो वे हैं--और उनकी बात हमें ठीक मालूम पड़ती है--वे कहते हैं, पीछे लौट चलो, क्यों झंझट में पड़ते हो! पीछे लौट चलो, जहां कोई समस्याएं नहीं थीं। रेलगाड़ी नहीं थी, कारें नहीं थीं, हवाई जहाज नहीं था, बड़े शहर नहीं थे, छोटे-छोटे गांव थे--वहां लौट चलो। ब.ड़ी युनिवर्सिटी न थी, वहां लौट चलो। गुरुकुल थे, दस-पांच बच्चे पढ़ते थे, वहां लौट चलो। ये समस्याएं बड़ी पैदा हो रही हैं। अब एक युनिवर्सिटी है। बीस हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं, तो समस्या पैदा होगी। समस्या यह पैदा होगी कि बीस हजार जवान लड़के दुनिया में इसके पहले कभी एक जगह इकट्ठे न हुए थे। पुराना लड़का अपने बाप के पास था। बाप हमेशा डोमिनेटिंग था, अपने बेटे को दबा लेता था। अब बीस हजार बेटे इकट्ठे हो गए हैं और बीस हजार बाप कहीं भी इकट्ठे नहीं हैं। बहुत मुसीबत हो गई है। वे बीस हजार बेटे इकट्ठे मिल कर एक-एक बाप को बिलकुल दबाए दे रहे हैं। अब एक रास्ता तो यह है कि उन बीस हजार लड़कों की समस्याओं का सामना करने के लिए कुछ सोचो, जो किं बहुत मुश्किल है। क्योंकि पुरानी संस्कृति के पास कोई उत्तर नहीं है और पुराने किसी ग्रंथ में उत्तर हो नहीं सकता। क्योंकि समस्या नई है।
युवकों का एक जगह इकट्ठा होना बिलकुल ही नई घटना है। सच तो यह है कि युवक ही नई घटना है। पुरानी दुनिया में युवक नहीं होता था। बच्चे होते थे, बूढ़े होते थे। युवक होता ही नहीं था, न होने का कारण था। क्योंकि युवक होने देने के पहले ही समस्या का हल कर देते थे। बाल-विवाह कर देते थे। बस वह आदमी बूढ़ा हो जाता था। दस साल के लड़के का विवाह कर दिया, युवक होने का मौका ही उसको नहीं मिला। वह बीस साल का युवक होगा तब तक उसके दो बच्चे हो चुके होंगे। वह बूढ़ा हो चुका। बाप कभी भी जवान नहीं होता। बाप बूढ़ा हो ही जाता है। उस पर उत्तरदायित्व, सब जिम्मेवारी खड़ी हो जाती है। पुरानी दुनिया का हल था कि बच्चे को जवान मत होने दो और फिर एक-एक बच्चा अपने-अपने बाप के पास था। इसलिए खतरा नहीं था। अब बीस-पच्चीस हजार किसी गांव में, एक लाख विद्यार्थी जवान एक ही जगह इकट्ठे हैं। अतः एक समस्या सामने आ गई है। अब क्या करो? अब यह रास्ता है कि युनिवर्सिटी तोड़ो। गांव में भेज दो इनको। प्राथमिक शिक्षा दो--जिसको गांधी जी बुनियादी शिक्षा कहते हैं। उतनी शिक्षा दे दो, बस वह काफी है। बढ़ईगिरी सिखा दो। कुछ जूते का, चमड़े का काम करना सिखा दो। कपड़ा बुनना सिखा दो। बस ठीक है।
मर जाएगा मुल्क, अगर ये शिक्षाएं मान ली गईं। यह बुनियादी शिक्षा हुई या अशिक्षा हुई या शिक्षा से बचना हुआ? लेकिन समस्या हल हो जाएगी, वे कहते हैं--झंझट से बाहर हो जाएगा मामला। लेकिन इस झंझट से जूझना है, बाहर नहीं होना है। अब यह नया सवाल खड़ा हुआ है तो नये सवाल को नये ढंग से हल करना पड़ेगा। लेकिन पुरानी बुद्धि के पास उत्तर न होने से वह कहती है इससे वापस लौट चलो--उन्हीं दिनों मे जहां समस्या न थी।
अब मैं आपसे यह कहता हूं कि सारी दुनिया में यह सवाल है कि क्या करें लड़कों का। लड़के इकट्ठे हो गए हैं। उनकी क्लास, उनका वर्ग बन गया है। बूढ़ों की कोई क्लास नहीं, कोई वर्ग नहीं। कुछ उपाय सोचना पड़ेगा। कुछ नया विचार सोचना पड़ेगा। मेरी अपनी समझ यह है कि बजाय पीछे लौटने के और गांव को गुरुकुल बनाने के और लड़कों को यह सिखाने के कि बस सिर घुटा कर, चोटी बढ़ा कर, गुरु के चरणों में सिर लगाए बैठे रहो, पैर दबाते रहो--इससे काम नहीं होगा। वह वक्त गया और गुरु जो सिखा पाता था अब उस सिखाने का भी उपयोग नहीं रहा है। अब सिखाने का अर्थ इतना ज्यादाहै कि छोटे-छोटे गुरुकुल नहीं सिखा सकते। ये युनिवर्सिटीज भी हमारी छोटी हैं। अब और बड़ी लाइब्रेरीज चाहिए। ज्ञान इतने जोर से उत्पन्न हो रहा है कि उसे नई पीढ़ी को देने का सवाल बहुत कठिन हो गया है। वह गुरुकुल में नहीं हो सकता। वह एक बूढ़ा आदमी बैठ कर नहीं सिखा सकता।
लेकिन जहां दस हजार लड़के या एक लाख लड़के इकट्ठे हो गए हों, वहां सवाल है कि अब क्या करें! पुरातनवादी, पलायनवादी कहेगा, अब पीछे लौट चलो, बंद करो युनिवर्सिटी। गांधी जी युनिवर्सिटीज के बड़े विरोध में थे। उन्होंने अपने लड़कों को पढ़ने नहीं भेजा। अपने लड़कों को अशिक्षित रखा पूरी तरह। क्योंकि वे बड़े विरोध में थे युनिवर्सिटीज के। वे मानते थे कि युनिवर्सिटीज भी एक रोग है। विश्वविद्यालय एक रोग है, आधुनिक शिक्षा एक बीमारी है। लेकिन ये जो दृष्टि है, नया ख्याल न मानने से कठिनाई होती है। लेकिन श्रम करो, जूझो नई समस्या से। नया हल खोजो।
मेरी अपनी समझ यह है कि जहां-जहां युनिवर्सिटी कैंप्स हैं उसमेंसाथ ही रिटायर्ड कैंप्स हों, वहां अनुभवी वृद्धों को इकट्ठा कर दो। जो भी वृद्धजन रिटायर्ड होते हैं युनिवर्सिटी केम्पस के निवासी हो जाएं। अगर दस हजार युवक इकट्ठे हैं युनिवर्सिटी में तो दस हजार वृद्ध लोग भी वहां हों, वहां दोनों क्लासेज जीवन के आमने-सामने हों। निश्चित ही दस हजार वृद्धों की समझ, अनुभव, ज्ञान के--जीवन के मुकाबले ये बच्चे झुक जाएंगे। वहां केम्पस के साथ जोड़ो बूढ़ों को भी, कैंप्स बजाय भागने के, उसका परिणाम बहुत कीमती होगा। क्योंकि जहां दस हजार जीवन भर के अनुभव से वृद्ध हुए लोग इकट्ठे हों और जिनके पास अब कोई काम न हो, जो फुरसत में हो, जो बच्चों को थोड़ा पढ़ा भी सकें, उनके साथ खेल भी सकें, उनके साथ तैर भी सकें, उनके साथ गपशप भी कर सकें, उनसे मिल भी सकें, क्योंकि वह फुरसत में हैं। जहां दस हजार बूढ़े अनुभवी मिल जाएं युनिवर्सिटी को, उस युनिवर्सिटी में युवकों की समस्या विदा हो जाएगी, वहां युवक की समस्या नहीं टिक सकती और दो जनरेशन सीधा एनकाउंटर कर सकेंगी। अभी बड़ी मुश्किल हो गई है।
हम कहते जरूर हैं कि एक ओल्ड जेनरेशन है और एक न्यू जेनरेशन, लेकिन मेरे विचार में नई पीढ़ी तो पीढ़ी है, पुरानी पीढ़ी पीढ़ी नहीं है--वह फुटकर है। वह कहीं इकट्ठी नहीं है। इसलिए नई पीढ़ी को आप कहीं भी मिल सकते हैं। पुरानी पीढ़ी को कहां मिलिएगा? पुरानी पीढ़ी को भी लाओ। लेकिन वे नई समस्याएं हैं, नये सवाल उठेंगे, नया खयाल पैदा करना पड़ेगा नई व्यवस्था देनी पड़ेगी। हमारी कठिनाई यह होती है कि इतना श्रम न उठाएं। पीछे लौट जाएं।
अब सर्वाेदय-आंदोलन ने भूमि बांटी। बिना इस बात की फिकर किए कि इस देश में भूमि इतनी बंटी हुई है कि अब इसे और बांटना इस मुल्क को गरीब करना है। इस संबंध में विनोबा जी तो कहते हैं कि जो गरीब भूमि देता है उसको मैं और भी ज्यादा कीमत देता हूं। अगर सौ एकड़ वाला पांच एकड़ देता है तो वह कहते हैं, यह कोई बड़ा दान नहीं है। लेकिन अगर पांच एकड़ वाला ढाई एकड़ दान दे देता है तो वे कहते है कि बहुत बड़ा दान है। बड़ी खतरनाक बात है ये, क्योंकि पांच एकड़ वैसे ही छोटा टुकड़ा है। यह पांच एकड़ वैसे ही गलत है। पांच एकड़ उत्पादक नहीं हो सकती है। लेकिन इसको ये और ढाई एकड़ दान करवा दी। अब उसके पास ढाई बची और दूसरे के पास ढाई बची। पूरे मुल्क का उत्पादन और नीचे गिरा। क्योंकि पांच एकड़ जितना पैदा करती थी, दो टुकड़ों में ढाई-ढाई एकड़ मिल कर उतना पैदा नहीं करेगी। यह मामला बिलकुल वैसा ही है जैसा कि मैंने कभी सुना था।
एक राजा को अपने लड़के का विवाह करना था। उसने अपने लड़के के विवाह के लिए वजीर को कहा कि सोलह साल की लड़की फी चाहिए। उस मंत्री ने बहुत खोजा, सोलह साल की सुंदर लड़की न मिली। तब वह आठ-आठ साल की दो लड़कियां ले आया; गणितज्ञ था। उसने सोचा कि ठीक है एक रुपया न सही तो अठन्नी दो सही। सोलह साल की लड़की नहीं मिलती है तो आठ-आठ साल की दो लड़कियां और आठ-आठ साल की न मिले तो चार-चार साल की चार से कर दो। लेकिन चार-चार साल की चार लड़कियां मिल कर सोलह साल की स्त्री नहीं बनती। यह गणित नहीं है। विनोबा ने जो हिसाब फैलाया है, उसमें जमीन के और टुकड़े करवा दिए और मजा यह है कि हमारा मुल्क ऐसा नासमझ है कि कुछ हिसाब ही नहीं। प्रचार पर जीता है।
नागपुर युनिवर्सिटी ने अभी एक अनुसंधान करवाया है। उस अनुसंधान के ठीक आंकड़े मुझे ख्याल नहीं हैं, लेकिन करीब-करीब आंकड़े ऐसे हैं। उस अनुसंधान में बड़ी अदभुत बातें पता चली हैं। वह अनुसंधान एक-एक घर में पहुंचा दिया जाना चाहिए। उससे पता चला है कि जितनी जमीन भूदान में मिली है, उसमें नब्बे प्रतिशत तो सरकारी जमीन है, नब्बे प्रतिशत तो सरकारी जमीन है जो मिली है। सात प्रतिशत ऐसी जमीन है कि जिसमें अभी कुछ भी पैदा हो नहीं सकता। और तीन प्रतिशत में कोई एक प्रतिशत जमीन ऐसी है जो मुकदमेबाजी में उलझी है, जिसका कोई पक्का भरोसा नहीं है। सौ एकड़ जमीन मिली उसमें बाबा विनोबा के हाथ कितनी पड़ी और भूदान-आंदोलन को कितनी मिली? लेकिन इससे क्या मतलब है? मतलब है कि कितने लाख एकड़ मिल गई इसका शोरगुल मचाओ! वह कहां से आई है, जमीन किसकी है, जिसने दे दी है, वह अभी भी कब्जा किए बैठा है? ऐसा भी है कि जिनके पास जमीन नहीं थीं उन्होंने भी दान की है। क्योंकि भीड़ में दान करने में क्या हर्ज है? जब जमीन देने की बात आएगी तब देखा जाएगा।
और मजा यह है कि इस मुल्क की जमीन इतने टुकड़ों में बंटी है कि इसे दान करवा के और टुकड़े करवा कर इस मुल्क का सवाल हल नहीं होगा। इस मुल्क की खेती को टुकड़ों से मुक्त करने की जरूरत है। गांव की सारी खेती इकट्ठी हो सके तो खेती इंडस्ट्रियल हो सकती है। तो खेती को उद्योग बनाया जा सकता है। लेकिन हमारे ख्याल ऐसे हैं, बहुत पुराने दिनों से कि समस्या दान से हल हो जाएगी। समस्या इतनी बड़ी है कि दान से हल नहीं होगी और समस्या को हल करना हो तो उसकी जड़ों को खोजना पड़ेगा कि जड़ें कहां हैं। हमें ऐसा लगता है कि आदमी को सिखा दें कि सरल जीवन रहो, दो रोटी खा लो, एक कपड़ा पहन लो तो हल हो जाएगी। लेकिन इतना सरल मामला नहीं है। आदमी एक कपड़ा और दो रोटी लाने को राजी नहीं है। उसको जब तक दो रोटी नहीं मिली है तब तक वह कहता है कि ठीक है। दो रोटी मिल जाती है तो वह कहता है, दो रोटी से क्या होगा, वह कहता है, मुझे साबुन भी चाहिए और साबुन भी उसे मिल जाए तो वह कहता है, रेडियो भी चाहिए और रेडियो मिल जाए तो कहता है, कार भी चाहिए। वह ठीक ही कहता है। गलत नहीं कहता है।
जिंदगी फैलती है, नई मांग करती है--करनी चाहिए। क्योंकि नई मांग होगी तो ही जिंदगी में गति और डाइनैमिज्म पैदा होगा। और अगर कोई समाज सरलता की बात पर राजी हो जाए और कम के लिए राजी हो जाए तो वह नाॅन-डाइनैमिक, मरा हुआ समाज होगा। आदिवासियों के समाज हैं--वे मरे हुए, नाॅन-डाइनैमिक समाज हैं। वहां कोई गति नहीं है, कोई विकास नहीं है। कोई तानसेन कभी पैदा नहीं होता, कोई आइंस्टीन कभी पैदा नहीं होता, कोई कवि पैदा नहीं होता, कोई कालिदास पैदा नहीं होता, कोई नहीं पैदा होता। आदमी जीता है पशुओं की भांति। रोज उठता है, थोड़ा सा खाकर जी लेता है। सो जाता है, बच्चे पैदा करता है और मर जाता है। मनुष्यता नहीं, पशुता के तल पर वह जीता है। सर्वोदयी या गांधीवादी विचार-चिंतन, मनुष्य के विस्तार और भविष्य का चिंतन नहीं है। उससे नहीं आएगा समाजवाद।
समाजवाद लाना हो तो विस्तार का दर्शन चाहिए, फैलाव का दर्शन चाहिए। आवश्यकताओं को अनंत करने का दर्शन चाहिए। और मजा यह है कि जितनी ज्यादा आवश्यकताएं फैलती हैं और मनुष्य को उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जितना, जितना श्रम करना पड़ता है, उतनी उसकी प्रतिभा और आत्मा निखरती है। और अंतिम निखार उसका जो है वह बहुत अदभुत है। अंतिम निखार यह है कि निरंतर आवश्यकताओं को बढ़ा कर निरंतर नई आवश्यकताओं को अनुभव करके, वह जो व्यक्तित्व में निखार आता है, उसके आखिरी परिणाम में यह पता चलता है कि आवश्यकताएं कितनी ही बढ़ जाएं, धन कितना ही उपलब्ध हो जाए, महल कितना ही बड़ा हो जाए, सब जब हो जाता है तब पता चलता है कि एक और डाइमेंशन भी है, भीतर की आत्मा का! अगर वह न फैले, अगर वह न बड़ा हो तो यह सब व्यर्थ पड़ा रह जाता है। धनी आदमी को ही धन की व्यर्थता का बोध होता है। धन की अंतिम सार्थकता मैं यही मानता हूं कि वह आदमी को धन से मुक्त होने की क्षमता दे सकती है। जिसके बाहर की सारी जरूरतों का फैलाव हो जाता है, उसको पहली दफे भीतर की जरूरत का बोध होता है।
मैंने सुनी है उपनिषद की एक छोटी सी कहानी। एक युवक गुरुकुल से वापस लौटा। वहां से वह ब्रह्मज्ञान की बातें करता हुआ आया। वहां उसने सीख लिया ब्रह्म ज्ञान, वह आ गया। बाप ने उसकी बातें सुनी, वह सुबह से शाम तक ब्रह्मज्ञान की बातें करे। उसके बाप ने कहा, देख पहले तू पंद्रह दिन का उपवास कर; फिर हम तुझसे ब्रह्मज्ञान की बातें करेंगे। उस लड़के ने उपवास किया। एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गए। उसने ब्रह्मज्ञान की बातें करनी बंद कर दीं और भोजन की बातचीत शुरू कर दी। सात दिन बीते, वह लड़का सुबह से शाम तक भोजन की ही बात करने लगा। रात को भोजन के सपने देखने लगा। पंद्रह दिन बीते, उसका बाप अगर उसे कभी छेड़े भी कि कुछ ब्रह्म के बाबत कहो तो चुपचाप बैठा रह जाए और अगर कोई जरा भोजन की चर्चा छेड़ दे तो उसके भीतर से धारा बहने लगे। पंद्रह दिन बीत जाने पर उसके बाप ने कहा, आ अब बैठ। अब ब्रह्म के संबंध में कुछ बातें करें। लड़के ने कहा, भाड़ में जाने दो ब्रह्म। अन्न के संबंध में कुछ कहिए पिताजी! तो उसके बूढ़े बाप ने कहा कि देख बेटा, मैं तुझे यह कहता हूं कि अन्न पहला ब्रह्म है। यह तू पहले सीख ले। जिंदगी की जिन्हें हम सामान्य जरूरतें कहते हैं, वह पहला ब्रह्म है। वह पूरा हो जाए, जिंदगी का जिसे हम विस्तार कहते हैं आवश्यकताओं का, वह बाहर का ब्रह्म है--वह पूरा हो जाए तो भीतर के ब्रह्म का बोध शुरू होता है।
समझ में तो ऐसा आता है कि गांधी जी और विनोबा जी की जो समाज व्यवस्था होगी, बड़ी धार्मिक होगी। मेरी समझ में नहीं आता। धार्मिक व्यवस्था पैदा ही नहीं होती दीन-दरिद्र स्थितियों में। धर्म का फूल भी खिलता है सुविधा में, संपन्नता में। जब भी सुविधा और संपन्नता होगी, तभी लोग धर्म-चिंतन की तरफ उत्सुक हो जाएंगे। क्योंकि जिनके पेट भरे हैं, अब वे आत्मा को भरने की तलाश करेंगे। लेकिन जिनके पेट ही खाली हैं, अभी आत्मा का सवाल नहीं उठता।
इसलिए मेरी समझ में सर्वोदय के लाने से समाजवाद नहीं आएगा। किसी दिन समाजवाद आए तो सर्वोदय आ सकता है और समाजवाद आएगा पूंजीवाद के विकास से। पूंजीवाद का विकास हो तो समाजवाद फल होगा। और समाजवाद ठीक से विकसित हुआ तो जो स्थिति होगी सर्वहित की, सबके उदय की, सबकी समानता की, उसे कोई चाहे तो सर्वोदय कहे, कोई चाहे तो साम्यवाद कहे। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। सर्वोदय से समाजवाद नहीं, समाजवाद से सर्वोदय आ सकता है और समाजवाद बिना पूंजीवाद के विस्तार के नहीं आ सकता। और जिसे हम सर्वोदय कहते हैं वह कहता है--पूंजीवाद का विस्तार छोड़ो। यह मशीन और उद्योग का युग छोड़ो। पीछे लौट चलो। राम-राज्य में लौट चलो।
इसलिए मेरी दृष्टि अगर आपके खयाल में आई हो, तो वह यह है कि सर्वोदय इस समय समाजवाद के आने में सबसे बड़ी बाधा हो सकता है। क्योंकि सर्वोदय पूंजीवाद के पीछे लौटने की बात कर रहा है। और समाजवाद पूंजीवाद के आगे का कदम है। अगर सर्वोदयी हम हो गए तो समाजवादी हम फिर कभी न होंगे। समाजवाद तो फिर असंभव है। लेकिन सर्वोदयी हम होंगे नहीं। विनोबा हार चुके और थक कर बैठ गए हैं। बुरी तरह हार गए, अब नहीं लगता उन्हें कि उनसे कुछ होगा। इसमें कसूर विनोबा का नहीं है। इसमें कसूर जनता का नहीं है। इसमें कसूर गलत दृष्टि और दर्शन का है। थकेंगे ही, हारेंगे ही, हार सुनिश्चित है क्योंकि मनुष्य के स्वभाव का हमें खयाल ही नहीं है। मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल जीवन का दर्शन और दृष्टि होनी चाहिए।
मेरी समझ है कि पूंजीवाद मनुष्य के अत्यंत अनुकूल जीवन-दृष्टि वाला दर्शन है। पूंजीवाद, सिर्फ पंूजी की ही वह व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक फिलासफी आॅफ लाइफ, एक जीवन का दर्शन भी है।
एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि पूंजीवाद का विकास होगा तो समाजवाद आएगा, लेकिन कौन लाएगा समाजवाद?
हमें ऐसा लगता है कि कुछ चीजें लाने से ही आती हैं। मैं कहता हूं, बच्चा विकसित होगा तो जवानी आएगी। आप यह नहीं कहते, कौन लाएगा जवानी। मैं कहता हूं कि जवान विकसित होगा तो बुढ़ापा आएगा। आप नहीं कहते कि कौन लाएगा बुढ़ापा। जवानी का विकास अपने आप बुढ़ापा बनता है। बचपन का विकास अपने आप जवानी बनता है। लाने की बात नहीं है। समाज की जिंदगी की भी अपनी अवस्थाएं हैं। पूंजीवाद विकसित हो तो अपने आप समाजवाद बनता है, कोई लाता नहीं। और जब तब लाने की बात आप करेंगे, उसका मतलब है कि अभी पूंजीवाद पूरी तरह विकसित नहीं हुआ। इसलिए समाजवाद लाना पड़ रहा है। समाजवाद तभी तक जरूरी है जब तक पूंजीवाद विकसित नहीं हुआ है। जबरदस्ती करनी है तो लाना पड़ेगा। आने देना है तो आएगा, आ सकता है--अगर हम जबरदस्ती न करें। तो जब आप पूछते हैं, कौन लाएगा, तो मैं कहता हूं, व्यवस्था अपने आप रूपांतरित होती है। जवान अपने आप बूढ़ा हो जाता है। और पता भी नहीं चलता है कि किस तिथि में कैलेंडर के गणित के मुताबिक किस दिन जवान बूढ़ा हुआ। आप में से कई लोग बूढ़े हुए, कई लोग बच्चे से जवान हुए। बता सकते हैं, किस दिन यह घटना घटी? किस दिन आप जवान हुए? आप कहेंगे, यह तो कुछ पता नहीं। जिंदगी में ग्रोथ जो है, वह इतना चुपचाप है कि कोई सीमा-रेखा नही बांधी जा सकती कि इस दिन यह घटना घट गई। पूंजीवाद बदलेगा, लेकिन फिर भी हम सोच सकते हैं कि कब बदलेगा। मेरे ख्याल में हैं दो बातें--कहना चाहता हूं।
पहली बात यह कि संपत्ति अतिरिक्त हो; इसके पहले नहीं बदला जा सकता है। उसके पहले बदलने के सब प्रयत्न असफल होंगे। चेकोस्लोवाकिया में, युगोस्लाविया में या और दूसरे कम्युनिस्ट देशों में पूंजीवाद वापस लौट रहा है। जिन्होंने जल्दबाजी की थी वहां पूंजीवाद वापस लौट रहा है। अब उनको समाजवादी ढांचे को फिर शिथिल करना पड़ रहा है। अब भूल पता चल गई। अब वे समझ रहे हैं कि गलती हो गई; ढांचे को शिथिल करो। तीस-चालीस साल के अनुभव ने बता दिया कि यह बात मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल नहीं है। मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल जो है, उसे लाओ। कोई जबरदस्ती एक दिन काम करा सकते हैं, तीन दिन भी, लेकिन अनंत काल तक यह नहीं हो सकता। अनंत काल तक तो जो मनुष्य का स्वभाव है, वही होगा। पूंजीवाद संपत्ति के अतिरेक, बाहुल्य से है, लेकिन संपत्ति का बाहुल्य कैसे होगा? मनुष्य के श्रम से नहीं होगी संपत्ति बाहुल्य कभी। मनुष्य की जगह टेक्नालाॅजी को स्थापित करने से होगी। इसलिए बजाय पंूजीवाद की जगह समाजवाद स्थापित करने की पागल चेष्टा में लगने के उचित है कि मनुष्य की जगह टेक्नालाॅजी को विकसित करने की हम फिकर करें।
एक मित्र ने पूछा है कि टेक्नालाजी के विकास की आप बात करते हैं, यह कोई बच्चों का खेल नहीं है!
यह बच्चों का ही खेल है टेक्नालाॅजी का विकास। जर्मनी को जाकर देखें या जापान को जाकर देखें। दूसरे महायुद्ध में जापान नेस्तनाबूद हो गया था। जमीन से मिल गया था। इस बुरी तरह बरबाद हुआ कि जैसा कभी कोई मुल्क नहीं हुआ होगा। लेकिन बीस साल में जापान युद्ध के पहले से ज्यादा समृद्ध है। जर्मनी मिट गया बुरी तरह। सब बर्बाद हो गया, लेकिन फिर बीस साल, बीस साल में खड़ा हो गया। लेकिन वहां भी फर्क दिखेगा। कुछ मेरे मित्र बर्लिन गए हैं। वे कहते हैं कि बर्लिन के उस हिस्से में जो कम्युनिस्टों के हाथ में है और उस हिस्से में जो कम्युनिस्टों के हाथ में नहीं है, जमीन-आसमान का फर्क मालूम पड़ता है! जो हिस्सा कम्युनिस्टों के हाथ में है वह अब भी दीन-दरिद्र है। जो हिस्सा कम्युनिस्टों के हाथ में नहीं है, वहां की संपन्नता बहुत बढ़ी है। वह वहां बर्लिन एक प्रतीक की तरह खड़ा है--कम्युनिस्ट व्यवस्था और कैपिटलिस्ट व्यवस्था के बीच सीधा चुनाव साफ वहां हुआ जा रहा है।
मेरे एक मित्र ने पूछा है कि आप पूंजीवाद की इतनी तारीफ करते हैं। क्या रूस में मशीनें विकसित नहीं हुई? क्या वहां टेक्नालाॅजी विकसित नहीं हुई? उन्होंने भी तो चांद तक पहुंचने की कोशिश की। उनके पास भी तो सब है...!
जरूर विकसित हुआ, मैं नहीं कहता कि विकसित नहीं हुआ। मास्को में भी एक गगनचुंबी इमारत है। न्युयार्क में सैकड़ों हैं। मास्को में एक गगनचुंबी इमारत है, लेकिन उस इमारत को आदमी को भूखा रख कर खड़ा किया गया है। उस इमारत के लिए बलिदान देना पड़ा है और वह इमारत सिर्फ दुनिया से जो यात्री आते हैं उनको दिखाने के लिए खड़ी करनी पड़ी है कि रूस कोई गरीब मुल्क नहीं है। हमारे पास भी आकाश को छूने वाले मकान हैं। लेकिन अमरीका में वे मकान चुपचाप अपने आप विकसित हुए हैं--ऐसे जैसे जमीन से पौधा बड़ा होता है। अमरीका में उन मकानों को विकसित करने के लिए किसी पर जोर जबरदस्ती, किसी को कुर्बानी और किसी को त्याग नहीं करना पड़ा। वे मकान अपने से विकसित हुए हैं। रूस के पास भी जमीन के नीचे चलने वाली रेलगाड़ी का मार्ग है और उस मार्ग पर संगमरमर के पत्थर भी लगे हैं, लेकिन रूस को पचास साल में इस सबके लिए त्याग और बलिदान करना पड़ा है। इधर बड़े होटल हैं जिनमें कि यात्री ठहरे हुए हैं और उधर होटल के बगल में ही उन्नीस सौ पैंतीस तक क्यू लगा हुआ है एक-एक रोटी के लिए। वे दोनों बातें एक साथ चल रही हैं, वह हमारे खयाल में नहीं है, उसका हमें पता नहीं चलता। अभी उन्होंने चांद पर पहुंचने की पूरी कोशिश की, फिर उनको पीछे पैर हटा लेने पड़े, क्योंकि अंततः वह बहुत महंगा पड़ने लगा। एक आदमी को उतारने के लिए कोई एक सौ अस्सी अरब रुपये का खर्च पड़ा। आखिर रूस फिर धीरे से पीछे हटा, क्योंकि भीतर नीचे जनता का दबाव बढ़ता चला गया कि इधर हमको भूखों मार रहे हो, उधर चांद पर जा रहे हो।
अमरीका के लिए खिलवाड़ था चांद पर जाना, रूस के लिए महंगा दांव था। विकास उन्होंने भी किया है तकनीक का, लेकिन उनकी तकनीक का विकास एक आरोपित विकास है। वह आरोपित किया गया, इसलिए पिछड़ गया है। अब वहां के आदमी ने पचास साल के बाद अब हिम्मत छोड़ दी, अब वह काम करने को उतना राजी नहीं है। वह दिन गए क्रांति की हवा के और जोश के। बुखार में थोड़े दिन दौड़ाया जा सकता है। जिंदगी दौड़ती है सहज नियमों से। सहज नियम आदमी का पूंजीवाद के पास है।
जब मैं यह कहता हूं कि खेल है टेक्नालाॅजी तो मेरा मतलब यह नहीं है कि वह कोई आज जादू से पैदा हो जाएगी। लेकिन आप यदि यही सोचते हैं कि यह कोई खेल थोड़े ही है जो कि थोड़े वर्षों में विकसित हो जाएगी तो हजार साल में भी विकसित न होगी।
मैंने सुना है कि एक गांव के बाहर एक आदमी बैठा हुआ है सुबह अपनी लालटेन लिए हुएः कोई उसके पास से गुजरा है, उससे पूछा है, आप यहां बैठे क्या कर रहे हैं? उसने कहाः मुझे जाना है दूर--दस मील दूर पहाड़ के ऊपर जो मंदिर है, वहां जाना है। प्रश्नकर्ता ने कहाः चलो चलें, उठते क्यों नहीं? उसने कहा, मेरे पास लालटेन बहुत छोटी है, तीन-चार फुट तक रोशनी जाती है और दस मील का रास्ता है तो मैंने बैठ कर हिसाब लगाया तो देखा कि इससे तो अंधेरा पार हो ही नहीं सकता कभी। तीन फुट की रोशनी, दस मील अंधेरा, हिसाब कैसे चलेगा? इतनी सी लालटेन से काम कैसे चलेगा? उस आदमी ने कहाः पागल उठ, अगर तू यहां बैठा रहा तो मर जाएगा, यह गणित तुझे डुबा देगा। तू उठ और चल, क्योंकि जब तू चलेगा तीन कदम, रोशनी तीन कदम और आगे पहुंचेगी। अगर हिसाब लगाते बैठा रहा तो तू कभी नहीं पहुंचेगा दस मील और अगर हिसाब नहीं लगाया और चल पड़ा तो एक छोटी सी लालटेन हजार मील की यात्रा भी करा देगी।
हमारी तकलीफ क्या है इस मुल्क में? हम बड़े बुद्धिमान हैं। बहुत दिनों से हम हर चीज का बहुत हिसाब लगाते रहे हैं। हम कहते हैं, तकनीकी क्रांति कब होगी, बीस साल लग जाएंगे, कैसे होगी--और बड़े-बड़े हिसाब फिर हमें डरा देते हैं। फिर हम वह भयभीत करने वाला हिसाब छोड़--जो हो सकता है अभी, उसे करने में लग जाते हैं। जैसे सांप्रदायिक दंगों में या भाषावार प्रांतों के उपद्रवों में। ऐसे हम कुछ कर रहे हैं, यह प्रण भी बना रहता है और बिना कुछ किए समय भी बीतता जाता है। नहीं, ऐसे नहीं चलेगा। तकनीकीकरण का मार्ग चाहे कितना ही लंबा हो, चलना शुरू करना पड़ेगा आज, अभी--अब हो--तो वह सब हम भी कर पायेंगे जिसे कि कोई और कर पाया है। संकल्प चाहिए, श्रम चाहिए और टुच्चे झगड़ों और व्यर्थ की समस्याओं से मुक्ति चाहिए। अन्यथा हम रोज पिछड़ते जा रहे हैं। जहां खड़े हैं, वहां खड़े-खड़े ही पिछड़ते जा रहे हैं।
अभी मैंने एक हिसाब देखा कि दुनिया भर में, मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास मंे जितने वैज्ञानिक पैदा हुए उनमें से नब्बे प्रतिशत आज जिंदा हैं पूरी मनुष्य-जाति के वैज्ञानिक। इसका मतलब यह हुआ कि नब्बे प्रतिशत वैज्ञानिक सिर्फ पिछले पचास सालों में पैदा हुए थे। और दस प्रतिशत वैज्ञानिक केवल पिछले दस हजार सालों में पैदा हुए हैं। उन नब्बे प्रतिशत वैज्ञानिकों में भी पचास प्रतिशत से ऊपर आज सिर्फ अमरीका में ही इकट्ठे हैं। इसका मतलब है कि सारी मनुष्य-जाति के इतिहास में जितने वैज्ञानिक विचार, चिंतन और प्रतिभा हुई है, उसका पचास प्रतिशत एक मुल्क के पास इकट्ठा हो गया है। वह प्रतिभा इकट्ठी होती जा रही है। वह हमसे बहुत जल्दी उस जगह पहुंच जाएंगे जहां हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी कि अब हम कैसे पार करें। इसलिए हमें अब तेजी से लग जाना चाहिए, लेकिन हमारे हिसाब दूसरे हैं। हम इस फिकर में लगे हुए हैं कि संपत्ति का बंटवारा कैसे हो। हम इस चिंता में लगे हुए हैं कि हड़ताल कैसे होगी, घिराव कैसे हो, युनिवर्सिटी की परीक्षा एकदम आगे कैसे बढ़ाई जाए, या पीछे हटाई जाए। एक गांव मैसूर में रहे कि महाराष्ट्र में। हमारे पागलपन का कोई हिसाब नहीं है। हम ऐसी बातों में लगे हुए हैं कि चंडीगढ़ पंजाब के पास हो कि चंडीगढ़ हरियाणा के पास हो। चंडीगढ़ जहां है, वहीं है, नाहक परेशान हुए जा रहे हैं।
मैंने सुना है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा, तो एक पागलखाना भी आ गया बीच में। उसके भी बंटवारे का सवाल हुआ। अब बड़ा मुश्किल हुआ, क्योंकि न पाकिस्तानी उत्सुक थे पागलों को लेने में, न हिंदुस्तानी उत्सुक थे। तो उन्होंने कहा कि पागलों से ही पूछ लो। अधिकारी गए और उन्होंने पागलों को समझाया, बहुत समझाया। क्या तो उनकी समझ में आया, यह बड़े मजे की बात है कि बुद्धिमानों को समझ में आ गया कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटना चाहिए, उन पागलों को अधिकारियों ने बहुत समझाया। उन्होंने कहाः बंटना ही क्यों चाहिए? तो उन्होंने कहाः हिंदु-मुसलमान! तो उन्होंने कहाः होंगे। हमारे यहां हिंदु मुसलमान हैं, कई मुसलमान पागल थे, कई हिंदु पागल थे। हममें कोई झगड़ा नहीं होता। तो बाहर के हिंदु-मुसलमान क्या हमसे भी आगे निकल गए? हम तो मजे से जीते हैं। हिंदु के हाथ की चाय मुसलमान पी लेता है। कभी छुरेबाजी नहीं करते, तो फिर हमको पागल क्यों कहते हो?
अधिकारियों ने कहाः भाई, हम तुम्हें इससे ज्यादा नहीं समझाने को--हम तुमसे सिर्फ यह कहते हैं कि तुम्हें जाना कहां है। तुम हिंदुस्तान में जाना चाहते हो कि पाकिस्तान में? उन पागलों ने कहाः हम तो यहीं रहना चाहते हैं। उन अधिकारियों ने कहाः घबड़ाओ मत, रहोगे तो तुम यहीं, लेकिन जाना कहां है? तो उन पागलों ने कहाः आप भी पागल हो गए क्या? जब हम रहेंगे यहीं तो जाने का सवाल ही क्या है?
वे अधिकारी बड़ी मुश्किल में पड़ गए। पागलों को समझाना बहुत मुश्किल हुआ। फिर उन्होंने सोचा, यह तो फिजूल की मेहनत है, ये पागल न समझेंगे। फिर तो उन्होंने एक रेखा खींच कर पागलखाने के दो हिस्से कर दिए। आधा पागलखाना पाकिस्तान हो गया, आधा पागलखाना हिंदुस्तान में आ गया। अब वह बीच में एक दीवाल खिंच गई और अभी मैंने सुना है कि पागल कभी-कभी दीवाल पर चढ़ जाते हैं और एक-दूसरे से कहते हैं, बड़ा मजा है। हम सब वहीं के वहीं हैं, तुम भी वहीं हो, हम भी वहीं हैं, लेकिन तुम पाकिस्तानी हो गए, हम हिंदुस्तानी हो गए--सिर्फ इस एक दीवाल की वजह से। और वे बहुत हंसते हैं!
लेकिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान का पागलपन तो था ही, पागलपन खत्म नहीं हुआ। अभी मैसूर में रहे एक हिस्सा, एक जिला कि महाराष्ट्र में रहे। महाराष्ट्र के पागल चिल्लाएंगे कि महाराष्ट्र में चाहिए, मैसूर के पागल चिल्लाएंगे कि मैसूर में चाहिए। कोई भी नहीं पूछेगा, जिला जहां का तहां है, काहे के लिए परेशान हुए जा रहे हो? लेकिन सारा मुल्क इस तकलीफ में है। मुल्क के सामने असली सवाल न उठाकर मुल्क के नेता गलत सवाल उठा कर मुल्क के मस्तिष्क को विकृत कर रहे हैं।
मुल्क के सामने असली सवाल दूसरे हैं--मुल्क के माइंड को डेविएट कर रहे हैं पूरे समय। कोई पागल कहेगा कि गौहत्या बंद होनी चाहिए--इधर आदमी मरने के करीब है और कुछ को सवार हुई है सनक कि गौहत्या बंद होनी चाहिए। वह तो किसी को सवार हो जाए कि मच्छर-हत्या नहीं होनी चाहिए, खटमल हत्या नहीं होनी चाहिए। तो वह भी नेता बन सकता है। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। इधर आदमी मरने के करीब है, यहां पूरा मुल्क सदा के लिए पिछड़ जाने के करीब है। खतरे बड़े हैं हमारे सामने।
सारी दुनिया के समझदार हिसाब लगाने वाले कहते हैं, उन्नीस सौ अठहत्तर तक हिंदुस्तान में महा अकाल पड़ेगा। जिसमें बीस करोड़ लोग भी मर सकते हैं। लेकिन मैं दिल्ली में एक बड़े नेता से बात कर रहा था। तो उन्होंने कहा, उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है, अभी तो सवाल उन्नीस सौ बहत्तर का है। हमको कोई मतलब नहीं है उन्नीस सौ अठहत्तर से, पहले उन्नीस सौ बहत्तर तो निपट जाए। और अकाल जब होगा होगा, बीस-करोड़ जब मरेंगे--मरेंगे, अभी सवाल कुर्सी का है, उस पर कौन बैठेगा। भाई बैठता है कि बहन बैठती है। कौन बैठता है यह है सवाल, सारे मुल्क को व्यर्थ के सवालों में उलझा रहे हैं। इस समय मुल्क के सामने एक ही महत्वपुर्ण सवाल है, वह यह है कि संपत्ति कैसे पैदा हो, यह मुल्क जीने और खाने लायक अपनी आवश्यकताओं को जरूरी ढंग से पूरी करने लायक तकनीकी क्रांति से कैसे गुजर जाए--यह सवाल है। लेकिन वह हल नहीं होगा। वह हल इसलिए न होगा कि हमारे दिमाग में इतने मकड़ी के जाले बुने हुए हैं जिनका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है और किसी मकड़ी के जाले को तोड़ो तो खतरा होता है, क्योंकि कोई मकड़ी का जाला किसी के लिए पूज्य है, कोई मकड़ी का जाला किसी के लिए पूज्य है। किसी मकड़ी के जाले पर किसी का महात्मा बैठा है, किसी मकड़ी के जाले पर किसी का देवता बैठा है। बड़ी कठिन बात है। वे देवता और महात्मा बड़ी बाधा डाल देते हैं।
अगर मुल्क को टेक्नालाॅजिकल क्रांति से गुजारना है तो हमें चरखे की भाषा में सोचना बंद करना पड़ेगा, हमें सोचना पड़ेगा वृहत्-काम यंत्रों की भाषा में। लेकिन इधर हम गांधी का जयकार किए चले जाएंगे और उधर हम टेक्नालाॅजी के विकास की बात सोचेंगे। समझते नहीं आप कि इसके भीतर एक इनर कंटराडिक्शन, एकविरोधाभास है। इधर जयकार हम गांधी का करेंगे जो कि उद्योग के विरोधमें, इंडस्ट्री के विरोध में, इंडस्ट्रियलाइजेशन के विरोध में, केंद्रीयकरण के विरोध में, यंत्रों के विरोध में, और जयजयकार उनका करेंगे, जन्म शताब्दी उनकी मनाएंगे, शोरगुल उनका मनाएंगे और फिर उनको टेक्नालाॅजिकल रिवोल्यूशन करनी है। मुल्क को तकनीक सिखाना है। वह नहीं होने वाला है।
मुल्क के मन को एकजुट हो जाना पड़ेगा। मुल्क के मन को साफ करना पड़ेगा कि चाहते क्या हो, करना क्या है? और उसे करने में लग जाना पड़ेगा--लगा जा सकता है। मुल्क के पास श्रम की शक्ति बहुत है, बुद्धि भी बहुत है। सच तो यह है कि आज हमारा मुल्क बुद्धि के ज्यादा होने से भी पीड़ित और परेशान है। हिंदुस्तान में युवकों के पास पहली दफे बुद्धिमत्ता की झलक आई है, लेकिन उनके पास उस बुद्धिमत्ता को सृजनात्मक रूप से नियोजित करने का कोई मार्ग नहीं है। तो वह तोड़-फोड़ कर रहे हैं।
ध्यान रहे, तोड़-फोड़, विध्वंस, हमेशा उसी शक्ति से होता है, जिससे सृजन होता है। सृजन और विध्वंस की शक्तियां दो नहीं होतीं, सृजन और विध्वंस की शक्ति एक ही होती है। अगर सृजन का मार्ग मिल जाए तो ठीक है, अन्यथा शक्ति विध्वंस के मार्ग पर चली जाती है। मुल्क के पास कोई सृजनात्मक कामना नहीं है। छीन-झपट की कामना है। इसलिए मैं कहता हूं, समाजवाद जो है वह सृजनात्मक कामना नहीं है। वह कोई क्रिएटिव एंबीशन नहीं है। वह सिर्फ यह है कि बांटो, छीनो, झपटो। जिसके पास नहीं है वह उसकी गर्दन दबाना चाहता है जिसके पास है। लेकिन संपत्ति इतने कम लोगों के पास है, ज्यादा लोगों के पास होती तो भी ठीक था, हम बांट लेते। बांटने लायक भी नहीं है मामला। कुछ बंटने जैसा भी नहीं है पास में। लेकिन पैदा करो, क्रिएट! उसका खयाल नहीं है और जब तक हम पूरे मुल्क के युवकों को, पूरे मुल्क की आने वाली शक्ति को सृजन की कोई दृष्टि न दे सकें तब तक यह नहीं होगा। सृजन की दृष्टि लेकिन आए कब, क्योंकि पूरे देश के नेता समझा रहे हैं कि गरीब तुम इसलिए नहीं हो कि सृजन कम है, गरीब तुम इसलिए हो कि शोषण है। गरीब तुम इसलिए हो कि चारित्रिक ह्रास हो गया है। मैं कुछ बात इस संबंध में भी एक दो प्रश्न आए हैं, वह भी मैं कर लेना चाहता हूं। वह जरूरी है।
सारे मुल्क को कहा जा रहा है कि करेक्टरलेसनेस हो गई है, चरित्र का ह्रास हो गया है। पहले चरित्र को ठीक करो तब सृजन होगा, तब संपत्ति आएगी। जब भी सवाल उठता है कहीं भी कि भ्रष्टाचार है, कहीं भी कि विध्वंस है तो लोग कहते हैं, चरित्र नहीं है, बेसिक करेक्टर नहीं है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि गरीबी में चरित्र पैदा हो भी नहीं सकता, होता भी नहीं। एक विसियस सर्किल है फिर। गरीबी में चरित्र पैदा नहीं होता। चरित्र भी एक लग्जरी है, चरित्र भी एक विलास, सुविधा-संपन्नता में ही संभव है, जरूरी नहीं कि हो, संभव है। लेकिन गरीब चरित्रवान कैसे हो पाए, जिंदगी चारों तरफ से उसे कौंधती है, दबाती है और वह चरित्रहीन होने को मजबूर हो जाता है। अब हम यह कहते हैं कि जब तक चरित्रहीनता न मिटेगी तब तक तो कुछ भी नहीं मिट सकता। लेकिन चरित्रहीनता कैसे मिटेगी? इसलिए मैं कहता हूं, चरित्र की बात छोड़ दें, गरीबी मिटाने की फिकर में लगें और गरीबी जिस दिन मिट जाएगी, उस दिन चरित्रहीनता मिट जाएगी। गरीबी मिटे तो चरित्रहीनता मिटेगी, चरित्रहीनता मिटने से गरीबी मिटने वाली नहीं है, क्योंकि चरित्रहीनता ही मिटने वाली नहीं है। गरीबी मिटाएं तो चरित्र का तल ऊपर आना शुरू होता है।
एक मजिस्ट्रेट मेरे पास बैठे हुए थे। वे कुछ कह रहे थे कि मैं कभी रिश्वत नहीं लेता। मैंने उनसे कहाः मैं पूछना चाहता हूं कि आपके रिश्वत न लेने की आखिरी सीमा क्या है? उन्होंने कहाः मैं समझा नहीं। मैंने कहाः मैं आपको पांच नये पैसे रिश्वत दूं, आप लेंगे? उन्होंने कहाः आप भी कैसी पागलपन की बात कर रहे हैं। मैंने कहाः पांच रुपये? तो उन्होंने कहाः नहीं। मैंने कहाः पांच सौ रुपये? उन्होंने कहाः नहीं लूंगा, लकिन उनकी ‘नहीं’ कमजोर मालूम पड़ी। मैंने कहाः हजार रुपये? तो उन्होंने कहाः लेकिन क्या मतलब है आपका? यह पूछने से क्या फायदा है? अबकी बार उन्होंने ‘नहीं’ नहीं कहा। मैंने कहाः और लाख रुपये? उन्होंने कहाः सोचना पड़ेगा। चरित्रहीनता का क्या मतलब होता है? पांच नये पैसे रिश्वत न लें तो चरित्रवान हो गए और लाख की रिश्वत लें तो चरित्रहीन? नहीं साहब, आदमी की सीमा है। पांच नये पैसे उसके पास बहुत हैं। अभी वह चरित्रवान रह सकता है। कह सकता है, न लेंगे। और पांच सौ रुपये, तब एक दफे सवाल उठता है कि लेना, कि नहीं लेना। पांच सौ भी एफर्ड कर सकता है, चरित्र के लिए पांच सौ खो सकता है क्योंकि उसके पास पांच सौ से ज्यादा है। लेकिन जब पांच लाख का प्रश्न उठा? तब वह कहता है कि अब जरा चरित्र महंगा पड़ जाएगा। अभी पांच लाख ले लें, चरित्र को फिर सम्हाल लेंगे। ऐसी क्या बात है!
अभी मुझसे किसी मित्र ने आकर कहा कि चित्रभानु जी गए हैं यात्रा पर। जैन मुनि हैं जा नहीं सकते थे। जैनियों ने विरोध किया है, गए हैं। तो उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका क्या खयाल है?
मैंने कहा, पहला तो यह है कि मुनि नहीं होंगे। मुनि न होने का यह मतलब नहीं है कि हवाई जहाज पर गए, इसलिए मुनि नहीं हैं। मुनि इसलिए नहीं हैं कि जो जैनी है वह मुनि हो कैसे सकता है। मुनि तो सिर्फ आदमी रह जाता है; जैनी, ईसाई और मुसलमान नहीं। दूसरी बात यह है कि मुनि होकर भी जो कमंडल इत्यादि प्रतीक हैं जैन मुनि के, वे उनको बचा कर भाग गए हैं नौ बजे कार में बैठ कर। छीनने वाले गए थे एअरपोर्ट पर। छीनने वालों के पास भी वही बुद्धि है, बचाने वाले के पास भी वही बुद्धि है। क्या मुनि-धर्म जो था वह उन चीजों में था? वह चीजें छीनने वाले भी गए थे कि छीन लें। वे उनको बचा कर ले गए, क्योंकि उनको ही छीन लेते तो उनके पास और क्या था? वहां जाकर वह क्या करते? वह जैन मुनि तो उन्हीं चीजों में था।
वह मित्र मुझसे पूछते थे कि आप इसके संबंध में क्या कहते हैं?
मैं कहता हूं कि यह कनिंगनेस है, यह चालाकी है; क्योंकि अगर तुम्हें ठीक लगता है जाना तो जिन लोगों को ठीक नहीं लगता उनके प्रतीक छोड़ दो क्योंकि उनके प्रतीक के द्वारा आदर लेने की बात चालाकी है, बेईमानी है। उनका प्रतीक फेंक दो। तुम्हें जाना है तो तुम जाओ, जाने की गलती और सही का सवाल नहीं है, लेकिन उस प्रतीक का आदर तुम क्यों लोगे फिर? जो कि इनकार करते हैं जाने के लिए, उनका आदर भी लेना फिर उचित नहीं है।
उन मित्र ने मुझसे पूछा है कि अब वह आकर यहां क्या करेंगे?
मैंने कहा, जहां तक होगा वह आकर पश्चात्ताप कर लेंगे। वह कहेंगे, हम क्षमा मांग लेते हैं, प्रायश्चित लिए लेते हैं और प्रायश्चित कोई बड़ा नहीं होगा, जैन-गं्रथों में क्योंकि हवाई जहाज की यात्रा का प्रायश्चित तो लिखा नहीं होगा। हवाई जहाज था नहीं। बैलगाड़ी वगैरह में कोई मुनि बैठ जाए तो उसका प्रायश्चित लिखा होगा, तो प्रायश्चित ले लेंगे, वापस जैन मुनि हो जाएंगे।
असल में उनके सामने सवाल आ गया होगा चरित्र का सवाल। अब तक जैन मुनि थे। खुद भी पैदल चलते थे। उसके एक दिन पहले तक भी कार में नहीं बैठे थे, तब तक वे जैन मुनि थे, आदर ले रहे थे। अब स्विट्जरलैंड से आमंत्रण मिला, मुश्किल हो गई। लाख रुपये की रिश्वत है। छोड़ें कि लें? अब बड़ी दिक्कत हो गई है कि जैन मुनि होने को बचाएं कि स्विट्जरलैंड जाने का मजा और स्व्जिरलैंड जैन मुनि गया। कैसे आदर और प्रतिष्ठा और उसके अहंकार को बचाए, अब यह सवाल महंगा पड़ गया। उनको छोड़ देना पड़ा। अगर आप कहते हैं कि महाराज पूना तक कार में बैठ कर चले चलो तो वे कहते कि पैदल आ जाऊंगा, क्योंकि पांच नये पैसे की रिश्वत थी, पूना तक पैदल आया जा सकता था और न भी आए पूना तक तो हर्ज क्या है। चित्रभानु गए नहीं बहुत दिनों से। बंबई में ही घूमते हैं। पूना तक भी नहीं गए मैं समझता हूं।
लेकिन लोग मोहल्ले बदल कर नगर बदल लेते हैं। जैन मुनि अगर एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में चला जाता है कि नगर बदल लिया, रहता बंबई में ही है--वही पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी पागलों का हिसाब है। रहता यहीं है, नगर बदल जाता है। मगर अब उनके सामने रिश्वत बड़ी आई, लाख रुपये की तो उन्होंने कहा कि अब ठीक है, अब चले जाओ। लौट कर चरित्र को फिर ठीक कर लेंगे। चरित्र को ठीक करने में देर कितनी लगती है। यह वे एफर्ड नहीं कर पाए, यही हमारे सारे लोगों का चिंतन है।
असल में दीनता, दरिद्रता चरित्र को पैदा नहीं होने देती और दीन और दरिद्र कौन है? चाहे किसी भी तरह की कमी हो, किसी तरह की इनफिरिआरिटी हो जैसे कि हिंदुस्तान के साधु के मन में इनफिरिआरिटी होती है। जब तक वह यूरोप और अमरीका न हो आए तब तक इनफिरिआरिटी रहती है, तब तक उसको यही लगता है कि वह अभी बड़े साधु नहीं हुए, अभी विवेकानंद से मुकाबला होना बड़ा मुश्किल है। तो यूरोप अमरीका जब तक न हो आए तब तक बड़ा साधु नहीं। साधु छोटा ही रह जाता है तो इनफिरिआरिटी सताती है। वह हीनता का भाव सताता है। हीन आदमी दरिद्र आदमी है। धन की हीनता हो, यश की हीनता हो, पद की हीनता हो, कोई भी हीनता हो, हीनता दरिद्रता है। दरिद्रता चरित्रहीनता पैदा करती है। सब तरह की चरित्रहीनता दरिद्रता से जन्मती है। दरिद्रताएं बहुत तरह की हैं, इसलिए बहुत तरह की चरित्रहीनताएं हैं। लेकिन बहुत तरह की समृद्धियां भी हैं। धन की भी एक समृद्धि है, तो फिर धनी को रिश्वत देना मुश्किल हो जाता है।
ज्ञान की एक समृद्धि है तो ज्ञानी को सर्टिफिकेट की रिश्वत देना मुश्किल हो जाता है। आत्म-बोध की भी एक समृद्धि है, फिर उसको अहंकार का लालच देना मुश्किल हो जाता है। शांति की भी एक समृद्धि है, फिर उसे तनाव की पुकारें व्यर्थ हो जाती हैं। चरित्र पैदा होता है समृद्धि से, सब तरह की समृद्धि से--फुलफिलमेंट! इसलिए हिंदुस्तान यह ठीक से समझ ले कि हमें समृद्धि पैदा करनी है। अभी चरित्र की बकवास में नहीं पड़ना है। समृद्धि पैदा हो, चरित्र हम कभी भी पैदा कर लेंगे और अगर हम उलटे तरफ से चलें और अगर हमने सोचा कि चरित्र पहले पैदा करेंगे तो ध्यान रहे, चरित्र तो पैदा नहीं होगा, देश और गरीब होता चला जाएगा। लेकिन कई बार भूल हो जाती है।
एक किसान खेत में गेहूं बोता है। गेहूं के साथ भूस भी पैदा होती है। एक अनजान आदमी निकलता हो, वह सोचे कि गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। जब गेहूं बोते हैं तो भूसा निकल आता है तो हम भूसे को बो दें तो गेहूं को भी निकलना चाहिए। नहीं निकलेगा, बल्कि पास का भूसा भी सड़ जाएगा। गेहूं के साथ भूसा आता है। वह उस की बाई-प्राॅडक्ट है, लेकिन भूसे के साथ गेहूं नहीं आता। गेहूं भूसे की बाई-प्राॅडक्ट नहीं है। सुविधा, संपन्नता, शिक्षा, समृद्धि इन सब की बाई-प्राॅडक्ट है, ‘चरित्र’ जिसको आप कहते हैं। लेकिन हम सोचते हैं, चरित्र को बो दें तो फिर सब आ जाएगा। ऐसा नहीं होगा। उलटा नहीं होगा। इस देश को समृद्ध बनाए बिना चरित्रवान बनाना असंभव है और चरित्रवान बनाना हो तो समृद्धि बनाने में लगें।
एक ही लक्ष्य अगर मुल्क के सामने रह जाए आने वाले बीस वर्षों में सारी बकवास बंद हो एक ही लक्ष्य हो, भुला दें...कि इस देश को वहां किसी भी भांति बीस वर्षों में खड़ा कर देना है जहां जापान खड़ा हो गया है बीस वर्षों में, जहां इजरायल खड़ा हो गया है। अत्यंत नया। वहां हम क्यों खड़े नहीं हो सकते? हम भी खड़े हो सकते हैं, लेकिन हमारा माइंड डिवाइडेड है। हमारा माइंड हजार बातों में बंटा है। न मालूम कहां-कहां की फिजूल बातों में बंटा हुआ है। मुल्क की पूरी सृजनात्मक ऊर्जा को गलत रास्तों पर बांटा जा रहा है, लेकिन वह राजनीतिक तंत्र के हित में है। क्योंकि राजनीतिक लोगों को बांट कर ही सत्ता में पहुंचना है।
हिंदुस्तान में राजनीतिज्ञ क मूल्य होना चाहिए। हिंदुस्तान में राजनीतिज्ञ की कीमत बहुत कम करने की जरूरत है। बहुत अति हो गई है। यह जीवन के केंद्र पर बैठ गया है। सारी इज्जत, सारा आदर, सब कुछ उसके पास हो गया है। राजनीति जैसे प्राण बन गई है। राजनीति प्राण नहीं है, लेकिन वह प्राण बन गई है। उसे प्राण के पद से नीचे उतारने की जरूरत है।
एक अंतिम बात--अगर देश का हित चाहिए हो तो राजनीतिज्ञ के सम्मान को नीचे लाएं। उसे जरा नीचे उतारें। उससे कहें, आप अपने बड़े मंच से जरा नीचे आ जाएं। इतने आदर की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बड़ा मजा है, अगर चेंबर्स आफ कामर्स का भी उदघाटन हो तो प्रधानमंत्री ही करेगा और वह प्रधानमंत्री ही उस चेंबर्स आॅफ कामर्स में व्यापारियों को गाली देगा, बिजनेस मैन को गाली देगा और वह बैठ कर सुनेंगे बड़ी प्रसन्नता से। वह छह इंच की मुस्कान बारह इंच की बना देंगे और बैठे सुनते रहेंगे। युनिवर्सिटी हो, विद्यार्थियों को उदबोधन देना हो, दीक्षांत भाषण हो, राजनीतिज्ञ देगा। जो कभी किसी युनिवर्सिटी में नहीं गए वे दीक्षांत भाषण दे रहे हैं!
राजनीतिज्ञ को हटाएं महिमा की जगह से। उसको इतनी महिमा पूरित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसकी तरफ देखना जरा बंद करें, उसकी तरफ से आंखें जरा हटाएं और सृजनात्मक केंद्रों पर आंखें गड़ाएं। जहां-जहां जीवन सृजन कर रहा है, चाहे धन, चाहे काव्य, चाहे साहित्य, चाहे धर्म, चाहे स्वास्थ, जहां भी जीवन सृजन कर रहा है वह केंद्र पर ले जाएं। वैज्ञानिक को, धार्मिक को, शिक्षाशास्त्री को, लेखक को, कवि को, धनपति को, मजदूर को--जहां-जहां सृजन है वहां मुल्क की आंख गड़े। राजनीतिज्ञ की तरफ पीठ करें तो बीस वर्ष में टेक्नालाॅजी भी आ सकती है, समृद्धि भी आ सकती है, चरित्र भी आ सकता है। और देश समृद्ध हो--तो ही हम परमात्मा को धन्यवाद भी दे सकते हैं।
गरीब धन्यवाद भी क्या दे! गरीब भगवान के मंदिर के सामने भी मांग करता है, लड़के की शादी करवादे, लड़के की नौकरी लगवा दे, बीमार पड़ी है औरत, दवा दिलवा दे और देखता है गौर से, सोचता है मन में, दवा तो मिलने वाली नहीं है, पता नहीं यह भगवान सच्चा है कि झूठा है। कहता है, अगर दवा दिलवा दी तो मान लूंगा कि तू पक्का भगवान है और अगर दवा नहीं मिली तो भगवान झूठा हो जाता है। नौकरी दिलवा दी तो मान लूंगा, नहीं मिली तो सब गड़बड़ हो जाता है।
गरीब भगवान के पास भी मांगने जाता है, धन्यवाद देने नहीं। वास्तविक धर्म थैंक्स गिविंग, धन्यवाद देना है, वास्तविक धर्म अनुग्रह-बोध है, लेकिन अनुग्रह किसके पास है? जिसके पास जीवन का और सब है, वह भगवान को धन्यवाद दे पाता है कि तूने आनंद दिया, तूने शांति दी, तूने जीवन के फूल दिए, तूने वह वीणा दी जहां संगीत पैदा हो पा रहा है। दीन धार्मिक नहीं हो पाता। संपन्न, जिसके भीतर सुर बजता है शांति का, आनंद का, सुख का, वह धन्यवाद दे पाता है। प्रार्थना करता हूं परमात्मा से अंत में, कि वह दिन आए कि हम भगवान के मंदिर में मांगने नहीं, धन्यवाद देने जा सकें। मेरे विचार में, हमारे स्वय के प्रयासों से वह दिन भी आ सकता है। आ सकता है वह दिन।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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