दूसरा प्रवचन-(सभ्यता हमारी शिक्षा का फल)
मैं एक छोटी सी कहानी से आज की अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।कोई पच्चीस सौ वर्ष पहले की बात है, एक राजधानी में एक बहुत ही गरीब चमार की झोपड़ी के पास बिना मौसम के कमल का फूल खिल आया था। कमल के फूल के वे दिन न थे। असमय में उस फूल को खिला देख कर उस चमार ने सोचा मेरे भाग्य हैं, जाऊं बाजार में, बहुत ज्यादा पैसे इस फूल के मुझे मिल सकेंगे। वह फूल को लेकर सुबह ही नगर के बड़े बाजार की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उसे हैरानी हुई, नगर के सारे धनपति, सारे बड़े लोग, नगर के बाहर अपने-अपने रथों में जा रहे थे। नगर का सबसे बड़ा धनपति अपने रथ को रोक कर रुका, और उसने कहा कि इस फूल के कितने पैसे तुम चाहोगे? जो भी तुम कहोगे मैं दाम दे दूंगा। ये फूल मुझे दे दो। यह बात चलती ही थी, कि पीछे से राजा का रथ भी आकर रुक गया। और उसने कहा फूल बचेना मत। धनपति जितना देगा, उससे सौ गुना ज्यादा देने का मैं तुझे विश्वास दिलाता हूं। वह गरीब आदमी बहुत हैरान हो गया। उसकी कल्पना के बाहर थी यह बात, एक फूल के लिए इतना पैसा मिल सकेगा! उसने राजा को पूछा क्या कारण है, इस फूल को खरीदने के लिए इतने पैसे देने का। राजा एक हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसे भेंट करना चाहता था, उस फूल के लिए।
उस गरीब आदमी ने पूछा कि इस फूल के इतने दाम देने का क्या कारण है? उस राजा ने कहा, गांव में बुद्ध का आगमन हुआ है, मैं उनके ही दर्शन को जाता हूं, ये सारे लोग उनके ही स्वागत को जा रहे हैं। ये फूल मैं अपने हाथ से उन्हें भेंट करना चाहूंगा। और असमय के कमल के फूल को देख कर वे निश्चित प्रसन्न होंगे। उसने हजार स्वर्ण-मुद्राएं उसकी तरफ बढ़ाईं, उस चमार ने कहा कि नहीं।
शायद राजा ने सोचा कि हजार में देने को वह राजी नहीं।
उसने कहा तू जितना मांगेगा, मुंह मांगा तुझे पैसे हम देंगे। लेकिन उस चमार ने कहा, नहीं। जब ऐसी बात है तो मैं भी जाता हूं, मैं ही इस फूल को बुद्ध को समर्पित कर दूंगा। राजा हैरान हो गया। एक गरीब की इतनी सामथ्र्य देख कर। इतना साहस देख कर। उस गरीब आदमी के फूल को वह न खरीद सका। उसने बहुत प्रलोभन दिए, वह गरीब आदमी उस फूल को लेकर बुद्ध के चरणों में रख आया। उसके पहले ही राजा का रथ पहुंच गया था। ओर राजा ने यह बात कही थी कि आज मैं एक गरीब आदमी से हार कर आया हूं। मैंने सब कुछ उसे देना चाहा, लेकिन नहीं वह कुछ भी लेने को राजी हुआ, और यह फूल जो आपके चरणों में खुद ही उसने चढ़ा देना चाहा है। जब वह चमार आया, उसने फूल बुद्ध के चरणों में रखा तो बुद्ध ने उससे पूछा, तू कैसा पागल है? राजा जब मुंह मांगी कीमत देने को तैयार था, तो एक गरीब आदमी होकर तूने यह काहे को व्यर्थ का उपक्रम किया? फूल मुझे क्यों चढ़ाया। उस गरीब आदमी की आंखें खुशी के आंसुओं से भरी थीं। उसने कहा, जब और भी बड़ा मूल्य मुझे फूल का मिल सकता था, आपके चरणों में चढ़ाने का मूल्य, तो मैं उसे पैसों में बेचने को राजी नहीं हुआ।
बुद्ध ने भिक्षुओं से कहाः एक शिक्षित मनुष्य को देखो। एक भिक्षु ने पूछा, क्यों इसे शिक्षित कह रहे हैं? तो बुद्ध ने कहाः जिसे उच्चतर मूल्यों का बोध है, वही शिक्षित है। जीवन में हायर वैल्यूज का, उच्चतर मूल्यों का जिसे बोध है, वही शिक्षित है। यह दरिद्र आदमी, बहुत शिक्षित व्यक्ति है। यह पैसों को छोड़ सका, प्रेम के लिए। यह धन को छोड़ सका, सम्मान के लिए। इसने बहुत बड़े साहस का काम किया है, जो केवल शिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है।
इस छोटी सी कहानी से इसलिए मैं अपनी बात शुरु करना चाहता हूं, ताकि मैं तुम्हें कह सकूं कि शिक्षा क्या है? शिक्षा है जीवन में उच्चतर मूल्यों का बोध। जीवन में बहुत तरह के मूल्य हैं, बहुत ग्रेडेशंस हैं, बहुत वैल्यूज हैं, बहुत मूल्य हैं; जो निम्नतम मूल्यों से जीवन में तृप्त हो जाता है, वह अशिक्षित है। उसे कोई संस्कार नहीं मिला, उसे कोई संस्कृति नहीं मिली। उसकी आंखें ऊपर नहीं उठ सकीं, वह जमीन पर ही रह गया, वह आकाश के तारों की तरफ आंखें नहीं उठा पाया। जीवन में बहुत सीढ़ियां हैं, नीचे सीढ़ियां हैं और दूर आकाश तक, या कहें कि परमात्मा तक सीढ़ियां हैं। कौन किस सीढ़ी पर रुक जाता है, वह उसी अर्थों में उतना ही शिक्षित या अशिक्षित है। शायद धन सबसे छोटी सीढ़ी है। और धर्म सबसे बड़ी सीढ़ी है। लेकिन हम में से अधिक लोग धन पर रुक जाते हैं। तो मैं न कह सकूंगा कि वे लोग शिक्षित हैं, जो धन पर रुक जाते हों। हमारे जीवन में शरीर शायद सबसे छोटा मूल्य है, आत्मा सबसे बड़ा मूल्य। लेकिन हम में से अधिक लोग शरीर पर ही रुक जाते हैं। उनको मैं न कह सकूंगा कि वे शिक्षित हैं। इसलिए न कह सकूंगा कि वे हीरों को खोकर कंकड़-पत्थरों को जीवन में बीनने की भूल कर रहे हैं। कैसे हम कह सकेंगे कि वे ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं, समझ, अंडरस्टैंडिंग उनमें पैदा हुई है? कैसे हम कह सकेंगे कि उनके जीवन में अंतर्दृष्टि आई है? ताकि वे आनंद को खोज सकें, जीवन है आनंद की खोज। और आनंद उतना ही गहरा होता चला जाता है, जितने उच्चतर मूल्यों पर हम उसे स्वीकार करते हैं। जितने निम्नतम होते हैं मूल्य नीचे धरती के उतना ही जीवन आनंद से रिक्त और खाली रह जाता है। किसे हम शिक्षित कहें, मेरी दृष्टि में ठीक से शिक्षित व्यक्ति ही धार्मिक व्यक्ति है। क्योंकि धर्म का और कोई अर्थ और कोई प्रयोजन नहीं है। धर्म भी एक शिक्षा है जीवन में निरंतर जो श्रेष्ठतर है उसके खोज की। जीवन में निरंतर जो गहरे से गहरा है उसके अनुसंधान की। जीवन वहीं समाप्त नहीं हो जाता है, जहां हमारी आंखें उसे देखती हैं, जीवन उससे बहुत ज्यादा गहरा है। जीवन वहीं समाप्त नहीं हो जाता, जहां हमारे हाथ उसका स्पर्श करते हैं; बहुत गहरा है जीवन उससे। लेकिन जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, जगत में, वह तो हमें जीवन के उच्चतर मूल्यों की तरफ ले जाती हुई नहीं मालूम होती। वह तो हमें जीवन के और निम्नतम मूल्यों की तरफ ले जाती हुई प्रतीत होती है। और ऐसा दुर्भाग्य मालूम होता है कि वे दिन जब कि मनुष्यता अशिक्षित और असभ्य थी, आज के दिन शायद उससे ज्यादा गहरे और उच्चतर मूल्यों के दिन थे। यह हैरानी की बात है। शिक्षा बढ़ती है जगत में, तो मूल्य हमारे ऊंचे से ऊंचे होते चले जाने चाहिए, लेकिन शिक्षा बढ़ रही है एक तरफ हर आदमी आज नहीं कल शिक्षित हो जाएगा, जमीन पर शायद कोई भी अशिक्षित नहीं होगा! लेकिन हमारे जीवन के मूल्य तो और नीचे से नीचे होते चले जाते हैं। कोई भूल होगी इस शिक्षा में, कोई बुनियादी भूल होगी। शायद इसीलिए हम मनुष्य को व्यवस्थित नहीं कर पा रहे हैं। इधर पिछले पचास वर्षों में दो बड़े महायुद्ध हुए, क्या शिक्षित संसार को, क्या शिक्षित संस्कार को, शिक्षित मनुष्य को शर्म से नहीं भर जाना चाहिए? आदमी की हत्या के इतने विराट आयोजन, कौन कर रहा है? आदमी के विनाश की इतनी व्यवस्था किसके चित्त से पैदा हो रही है?
जिस रात हिरोशिमा पर एटम बम गिराया गया, जिस आदमी ने एटम बम गिराया, वह एक शिक्षित व्यक्ति था। उसके पास किसी विश्वविद्यालय की उच्चतम डिग्री थी, वह एटम गिरा कर दूसरे दिन सुबह उससे पूछा गया कि तुम्हें खयाल नहीं आया, कि तुम्हारा एटम गिराना एक लाख लोगों की हत्या बनेगी? उस आदमी ने कहाः खयाल का कोई सवाल नहीं है, मुझे आज्ञा दी गई, और मैंने काम किया। इस आदमी को हम आदमी कहेंगे, उचित होता कि यह आदमी आज्ञा को इनकार कर देता और अपने प्राणों को खो देता, ज्यादा से ज्यादा आज्ञा के इनकार करने पर। लेकिन शायद इसके जीवन में कोई और वृहत्तर मूल्य का कोई खयाल नहीं है, उससे किसी ने पूछा रात तुम ठीक से सोए? उस आदमी ने कहाः ठीक से सोया। बहुत गहरी नींद आई। एक लाख लोग धू-धू करके आग में जलते थे, और जो आदमी बम गिराया था वह शांति से रात भर सोया। इसको हम मनुष्य कह सकें गे?
मेरे एक मित्र हैं, बचपन की अपनी एक घटना मुझे बताते थे। उनकी मां सीढ़ियों पर से गिर पड़ी थीं, बेहोश हो गई थीं, सिर से खून बह रहा था। तो उनके पिता ने उन्हें दौड़ाया कि पड़ोस में जो डाक्टर है, उसे बुला ला। उस डाक्टर के पास गए, उस डाक्टर के पास जब वे पहुंचे, तो उसने अपने हाथ में चाय की प्याली ली ही थी, पीने को। उन्होंने कहा मेरी मां बेहोश पड़ी है। पड़ोस में ही , दो-चार घर के बाद। उसके सिर से खून बह रहा है, वह बहुत जोर से गिर पड़ी है। आप चलें। उस डाक्टर ने कहाः पहले मैं चाय पी लूं, अन्यथा चाय ठंडी हो जाएगी, फिर मैं आता हूं। वह बच्चा वापस लौट कर गया, उसने अपने पिता को कहा कि वह डाक्टर चाय पीता है। वह चाय पूरी पी ले तो आए। तो उसके पिता ने कहा कि वह डाक्टर फिर आदमी नहीं है। अगर उसकी मां गिर पड़ी होती सीढ़ियों से, और उसके सिर से खून बहता होता, और मरने के करीब होती; तो क्या वह यह कहता कि मैं पहले चाय पी लूं और फिर आता हूं? नहीं वह आदमी डाक्टर भला होगा, लेकिन आदमी नहीं है। आदमीयत के कुछ मूल्य हैं। आदमीयत की कुछ गहराइयां हैं। आदमी हो जाना, आदमी की शक्ल को पा लेने से ही पूरा नहीं हो जाता।
हिरोशिमा पर जो आदमी एटम गिराए, वह कहे कि मैं रात शांति से सोया। इसको हम इसके भीतर कोई हृदय है या पत्थर? और ये शिक्षित आदमी है। और विश्वविद्यालयों ने इसे उपाधियां दी हैं। कुछ भूल होगी उन उपाधियों में कोई कमी होगी।
एक बहुत पुरानी घटना मुझे स्मरण आती है। कोई दो हजार वर्ष पहले की बात है। एक गुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समग्र शिक्षा पूरी करके वापस लौटते थे, घरों को। गुरु निरंतर उनसे कहता रहा था कि तुम्हारी सब परीक्षा पूरी हो गई, लेकिन एक परीक्षा बाकी रह गई है। लेकिन अंतिम दिन भी आ गया, विदा का। दीक्षा का सब अंतिम समारंभ भी हो गया, दीक्षांत भी हो गया, उन्हें उनके प्रमाण पत्र भी दे दिए गए, और वे तीनों हैरान थे और चकित थे कि एक परीक्षा गुरु कहता था, वह अब तक पूरी नहीं हुई, क्या वह बिना पूरे हुए ही हमें चला जाना होगा? और सांझ भी आ गई और वे गुरु के पैर छूकर चल भी दिए अपने मार्ग पर। सूरज डूब रहा था, उन्हें जल्दी ही जंगल को पार करके अपने गांव पहुंच जाना था। डूबते सूरज में, पगडंडी को पार करते वक्त, एक घनी झाड़ी के पास देखा उन्होंने रास्ते पर बहुत कांटे पड़े हैं। एक युवक छलांग लगा कर निकल गया, दूसरा कांटों से दूर हट कर पगडंडी से नीचे उतर कर पार हो गया। लेकिन तीसरा बैठ गया अपने सामान को रख कर, उसने कांटे बीने, झाड़ी में डाले। वे दो कहे गए उससे कि पागल रात हुई आती है, अंधेरा हुआ जाता है, जल्दी चलो, उस युवक ने कहा, अंधेरा उतर रहा है, रात होने को है इसीलिए कांटे अलग कर देने जरूरी हैं, हमें तो वे दिखाई पड़ते हैं, लेकिन हमारे पीछे जो आता होगा उसे वे दिखाई न पड़ सकेंगे। और हैरान हो गए वे ये कि झाड़ी के भीतर से निकल आया उनका गुरु। जिसने वे कांटे डाले थे, जो छिपा था। उसने कहा ये तुम्हारी अंतिम परीक्षा थी, दो असफल हो गए। तुम वापस लौट आओ। जिसने कांटे बीने हैं, वह जा सकता है, लेकिन तुम दो अभी एक वर्ष और रुक जाओ। तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गई, लेकिन तुममें आदमियत पैदा नहीं हो सकी। तुम अभी आदमी नहीं बन सके हो।
शिक्षा केवल कुछ ज्ञान को इकट्ठा और अर्जित कर लेना ही नहीं है, शिक्षा है भीतर जो सोया मनुष्य है उसे जगा पाना। भीतर जो हमारा जीवन है, उसे प्रबुद्ध कर पाना। और यह कौन करेगा, और कैसे यह होगा? यह जो भीतर छिपा है मनुष्य, इतनी घृणा और इतने क्रोध से भरा है, इतने वैमनस्य से, इतनी शत्रुता से, और इसे हम ऐसा ही विश्वविद्यालय से निकल जाने देते हैं, जैसा यह आया था, बल्कि अक्सर तो और भी बुरा होकर निकलता है।
इमर्सन ने एक युवक के स्वागत समारोह में कहा था, वह उस गांव का पहला स्नातक था, पहला गे्रजुएट था। इमर्सन ने उसके स्वागत में कहा था कि मैं स्वागत करता हूं युवक का। यह बहुत अदभुत है, यह विश्वविद्यालय से बिना बिगड़े हुए घर वापस आ गया है। अगर यह स्वागत की बात हो, तो शेष सारे विद्यार्थियों के लिए हम क्या कहेंगे? मुझे भी यही दिखाई पड़ता है, क्योंकि जीवन के बहुत गहरे में हमारी शिक्षा का कोई संपर्क नहीं है। पच्चीस वर्ष युवक खो देता हो, शिक्षालयों में और पच्चीस वर्ष के बाद घर लौट आता हो, और उसके जीवन से घृणा विलीन न होती हो, क्रोध अंत न होता हो, वैमनस्य समाप्त न होता हो, ईष्र्या अंत न पाती हो, तो ये पच्चीस वर्षों में वह क्या लेकर घर आ गया है? आजीविका कमाने के उपाय। एक प्रमाणपत्र जो उसे नौकरी दे सकेगा। जिससे लिविंग मिल सकेगी, आजीविका मिल सकेगी, लेकिन लाइफ और लिविंग में फर्क है। जीवन और आजीविका में भेद है। रोटी कमा लेना जीने का काफी आधार नहीं है। अकेला मकान बना लेना या नौकरी कर लेना भी जीवन को पा लेना नहीं है। जीवन कुछ ज्यादा है।
क्राइस्ट ने कहा था बहुत पहले, मैन कैन नाॅट लिव बाइ ब्रेड अलोन, आदमी नहीं रह सकता केवल रोटी के आधार पर। लेकिन गलत रहे होंगे क्राइस्ट, झूठ कही होगी यह बात, सुधार लेनी चाहिए लौट कर अपनी बाइबिल। सारी दुनिया सिर्फ रोटी पर जी रही है। लेकिन क्या सच में क्राइस्ट गलत थे? क्या सुधार लेनी चाहिए अपनी बात उन्हें, या कि हमारा जीवन गलत है, हमें अपना जीवन सुधार लेना चाहिए। अकेली रोटी पर जो जी रहा है, उसे किन शब्दों में, किन अर्थों में हम मनुष्य कहें। फिर पशु में और पक्षी में, और पौधों में और हममे भेद क्या है? कुछ भेद है? कुछ भेद होना चाहिए? वह भेद शायद यही हो सकता है, कि शरीर के पार्थिव मूल्य, वे जो सेंसेट वैल्यूज हैं, वे ही नहीं कुछ जीवन में और गहरे मूल्य भी हैं, और उन गहरे मूल्यों को जो उपलब्ध होता है, वही केवल आनंद को उपलब्ध होता है। यह अस्वाभाविक नहीं है, और न आश्चर्यजनक कि सारी दुनिया में एक अर्थहीनता, एक मीनिंगलेसनेस मालूम पड़ती है। हर आदमी यह कहता हुआ मालूम पड़ता है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता। जीवन में अर्थ दिखाई कैसे पड़ेगा? अर्थ पैदा करना होता है। अर्थ आसमान से नहीं बरसता, वर्षा की तरह, और न नदी के किनारे पड़े हुए पत्थरों की तरह कहीं से उठाकर लाया जा सकता है। और न अर्थ दुकानों पर बाजारों में बिकता है कि खरीदा जा सके। अर्थ जो जीवन में सतत साधना से उत्पन्न करना पड़ता है। आदमी खुद को पैदा करने की सतत प्रक्रिया है। जो लोग मां-बाप के द्वारा पैदा होने पर ही रुक जाते हैं, वे ठीक से पैदा ही नहीं हो पाते। पूरी जिंदगी एक बर्थ है, पूरी जिंदगी एक जन्म है, रोज-रोज आदमी, रोज-रोज जन्मता है। रोज-रोज उसे अपने भीतर नई-नई दिशाओं को नई-नई डायमेंशंस को जन्म देना होता है, और जिस दिन उसके भीतर सब खिल जाता है, जैसे कोई कली फूल बन जाए, ऐसा जब उसके जीवन के भीतर छिपा हुआ सब फूल की तरह खिल जाता है, तब और केवल तभी उसे आनंद उपलब्ध होता है। आनंद है व्यक्तित्व की पूर्णता की खिलावट। फ्लावरिंग, पूरी तरह चित्त जब खिल जाता है, तो आनंद फलित होता है। आनंद मंदिरों में पूजा करने से नहीं मिलेगा और न आनंद धन के अंबार लगा लेने से। और न आनंद मिलेगा यश की सीढ़ियों चढ़ते चले जाने से। आनंद तो केवल तभी मिलता है, जब किसी व्यक्तित्व की कली फूल बन जाती है। और जब उसकी सुगंध हवाएं उड़ा कर ले जाती हैं, दूर अनंत तक। तभी उसके भीतर आनंद फलित होता है, और तभी अर्थ, तभी मीनिंग, तभी समझ में आता है कि कोई प्रयोजन है, मेरे जीवन का। हमें तो किसी को भी जीवन का कोई प्रयोजन समझ में नहीं आता। जिए जाते हैं अर्थहीन, उठे जाते हैं रोज, चले जाते हैं, काम किए जाते हैं, सांझ सो जाते हैं। और ऐसे ही उठते, चलते एक दिन अंतिम क्षण आ जाता है और हम विदा हो जाते हैं। रोज हम देखते हैं किसी को विदा होते, और रोज हम जानते हैं कि जो आदमी विदा हो गया, इसने जीवन में कुछ भी नहीं पाया।
सिकंदर मरा जिस दिन, उस राजधानी में जिस दिन सिकंदर की अरथी निकली लोग हैरान हो गए, तुम भी वहां मौजूद होते, तो हैरान हो जाते। कुछ अजीब सी बात हो गई थी, सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी न हुआ था, हाथ तो अरथी के भीतर होते हैं। ये हाथ बाहर क्यों थे? किसी भूल चूक से हो गया था ऐसा? लेकिन सिकंदर की अरथी और भूल-चूक हो सकती थी? वह कोई गांव का भिखारी था? घंटों सजाई गई थी उसकी अरथी, देश के सभी सम्मानित जन, सभी सम्मानित नागरिक उसके आगे-पीछे चल रहे थे; क्या किसी को दिखाई न दे गया होगा यह तथ्य की दोनों हाथ बाहर लटके हुए हैं? हर आदमी पूछने लगा, ये हाथ बाहर क्यों हैं? धीरे-धीरे पता चलना शुरु हुआ, सिकंदर ने मरने के पहले कहा था मेरे हाथ अर्थी के बाहर लटके रहने देना, ताकि हर आदमी देख ले, मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। मैं जिंदगी में बहुत दौड़ा हूं; बहुत विजय की यात्रा की है, बहुत धन, बहुत शक्ति, बहुत पद, बहुत कुछ प्रतिष्ठा इकट्ठी कर ली है, जमीन पर शायद कोई मेरे जैसा पहले नहीं था, इतना बड़ा साम्राज्य, इतना बड़ा सम्राट हूं, लेकिन नहीं, हर आदमी देख ले, मैं भी भीतर खाली था और खाली हाथ जा रहा हूं। मेरी दौड़ निष्फल हो गई है।
हम सब भी छोटे-मोटे सिकंदर हैं, नहीं होंगे उतने बड़े। छोटी-मोटी हमारी भी विजय की यात्रा है, हम भी कुछ जीतेंगे, हम भी कुछ बनाएंगे। लेकिन क्या खयाल में आता है कि हाथ आपके भरे हुए हो सकेंगे। याकि आपको भी खाली हाथ ही विदा हो जाना पड़ेगा। और जो खाली हाथ विदा होता है ठीक से जान लें, उसकी पूरी जिंदगी भी खालीपन की एक कथा होगी। क्योंकि जीवन का अंत पूरी जिंदगी की संपत्ति है, पूरे जीवन का कनक्लूजन है। मौत खबर देती है, यह आदमी कैसे जीआ? मौत खबर देती है यह आदमी कैसे जीआ, कैसे रहा? इसने कुछ पाया, इसने कुछ उपलब्ध किया? और इसलिए तो हम हर आदमी को मौत से डरा हुआ देखते हैं। क्योंकि मौत सारे खालीपन को उघाड़ कर सामने कर देगी। और इसलिए तो हम हर आदमी को मौत के वक्त पीड़ा और परेशानी से भरा देखते हैं, क्योंकि वह पाता है जीवन चूक गया, हाथ से अवसर चला गया। और मैं खाली का खाली हूं, मेरी दौड़ व्यर्थ हो गई। नहीं लेकिन जमीन पर कुछ लोग ऐसे भी मरे हैं, जिनके हाथ खाली नहीं थे। जिनकी मृत्यु भी एक आनंद थी; क्योंकि उन्होंने जीवन के अवसर से खूब फसल काटी थी। उन्होंने जीवन के अवसर से बहुत ऐसी संपदा इकट्ठी कर ली थी, जिसे मौत भी नहीं छीन सकती है, उन्होंने कुछ भीतर उपलब्ध कर लिया था, वे भीतर किसी चीज से भर गए थे, किसी आनंद से, किसी अर्थ से। किसी अभिप्राय से, किसी सौंदर्य से। किसी संगीत से उनका परिचय हो गया था। इसलिए मौत भी उन्हें एक नई यात्रा थी, पुरानी यात्रा का अंत नहीं। इसलिए मौत भी उन्हें जीवन भर की संपदा का इकट्ठा अनुभव थी, मौत भी उनके लिए आनंद थी।
च्वांगत्सु एक फकीर था चीन में। उसकी स्त्री मर गई थी। बहुत ख्यातिलब्ध था, खुद चीन का बादशाह संवेदना प्रकट करने, दोपहर में उसके घर गया, उसके झोपड़े पर। सम्राट ने रास्ते में सोचा होगा, क्या-क्या कहूंगा जाकर? क्या-क्या कहूंगा, किसी के घर कोई मर जाए और आप जाएं, तो आप भी सोचते हुए जाते हैं, क्या-क्या कहेंगे। सम्राट भी सोचता हुआ गया था, लेकिन वहंा बड़ी मुश्किल हो गई। वहां देख कर हैरान हो गया, च्वांगत्सु एक खंजड़ी को बजा कर गीत गा रहा है। सुबह पत्नी मरी थी। सम्राट हैरान हो गया, कुछ कहने का कारण भी न रहा, संवेदना प्रकट करने की कोई वजह भी न रही, सम्राट को दुख भी हुआ। सम्राट ने कहाः मेरे मित्र, दुख न मनाते इतना ही काफी था, लेकिन खंजड़ी बजाओ और गीत गाओ, यह थोड़ा ज्यादा हो गया। पत्नी सुबह ही मरी है, क्या भूल गए? च्वांगत्सु ने आंखें ऊपर उठाईं, उसकी आंखें आनंद के आसुंओं से भरी थीं, दुख के आसुंओं से नहीं। उसके होंठों पर गीत था, और हाथ में खंजड़ी थी। उसने कहा, जो विदा हो गया है, वह खाली हाथ नहीं गया है। जो विदा हुआ है, वह आनंद से और हंसता हुआ विदा हुआ है। वह कुछ लेकर और पाकर विदा हुआ है। वह कुछ पूरा होकर विदा हुआ है। उसका जाना एक दुख नहीं, एक आनंद का अवसर है, इसलिए गीत गा रहा हूं। ये जो आंख में आंसू हैं, ये खुशी के आंसू हैं। दुखी होता कि जिसे मैंने जीवन भर प्रेम किया वह अधूरा और खाली हाथ चला जाता, तो मैं दुखी होता। जीवन उसकी एक भरावट थी, एक पूर्णता थी,जीवन का फूल उसका खिल गया था, इसलिए खुश हूं।
कितने लोग यह कह सके होंगे कभी, कितने लोग अपनी मृत्यु पर यह अनुभव कर सके होंगे? लेकिन थोड़े से लोगों ने जमीन पर यह अनुभव किया है। वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने जीवन में भी आनंद का, जीवन में भी सौंदर्य का अनुभव किया हो। लेकिन हम सारे लोग जिसे शिक्षा समझते हैं, उससे तो यह कुछ भी पैदा नहीं होता। यह शिक्षा बहुत अधूरी है। शायद अधूरी कहना गलत हो, यह शिक्षा बहुत बेबुनियाद है, यह शिक्षा बहुत आधारहीन है। हम एक ऐसा मकान बनाते हैं, जिसकी कोई बुनियाद नहीं डालते, जिसकी कोई नींव नहीं बनाते, मकान बन कर खड़ा हो जाता है। और हवा के झोंके उसे वैसे ही गिराते रहते हैं, जैसे कोई ताश का घर बनाए, या कोई रेत का घर बनाए। ये जीवन का भवन हमारा कोई बहुत ठोस बुनियाद पर खड़ा नहीं होता। धर्म ही जीवन को ठोस बुनियाद देता है। लेकिन धर्म शब्द से भूल में मत पड़ जाना, धर्म से मेरा मतलब क्रिश्चियनिटी, हिंदू, इसाई, जैन या बौद्ध नहीं है, ये कोई भी धर्म नहीं हैं। धर्म तो एक ही हो सकता है, बहुत नहीं हो सकते। गणित बहुत हो सकते हैं? फिजिक्स बहुत हो सकती हैं? हिंदू की फिजिक्स अलग, मुसलमान की फिजिक्स अलग, जानते हैं हम नहीं हो सकती। प्रकृति के नियम तो युनिवर्सल हैं, एक जैसे हैं, हिंदू और मुसलमान में वे फर्क नहीं करते। तो जब प्रकृति के नियम भी एक जैसे हैं, तो क्या परमात्मा के नियम भिन्न-भिन्न हो सकेंगे। जब पदार्थ भी एक ही सार्वलौकिक नियमों के अंतर्गत चलता है और गतिमान होता है, तो क्या प्राण अलग-अलग नियमों के अंतर्गत गतिमान होते होंगे। नहीं विज्ञान भी एक है, और धर्म भी। लेकिन धर्म के नाम पर बहुत सी दुकानें खड़ी हो गईं है। और वे सब अलग-अलग हैं, और उन दुकानों ने आदमी का बहुत शोषण किया है। और इन दुकानों के कारण ही शिक्षा आज तक धर्म से वंचित है। क्योंकि जब भी धर्म का सवाल उठता है, तो हिंदू सोचता है, हिंदू धर्म शिक्षा से जोड़ दिया जाए, गीता पढ़ाई जाए, वेद पढ़ाए जाएं, मुसलमान सोचता है कुरान जोड़ दी जाए, ईसाई सोचता है बाइबिल जोड़ दी जाए, कुछ और जोड़ दिया जाए। जब भी धर्म को शिक्षा से जोड़ने का सवाल उठता है, तब ये तथाकथित धर्मों के लोग, सोचते हैं हमारी किताबें, हमारी परंपराएं, हमारी ट्रेडीशंस, हमारी श्रद्धाएं, हमारे विश्वास, हमारी बिलिफ जोड़ जी जाएं। और ये सारी बिलिफ, ये सारे विश्वास इतने अंधे हैं कि शिक्षा शास्त्री सोचता है, इनको तो न जोड़ना ही बेहतर। इनसे मनुष्य के जीवन में काई विकास नहीं हुआ, कोई गति नहीं हुई। बल्कि सच यह है कि धर्मों के अंधविश्वास ने मनुष्य की सारी वैज्ञानिक प्रगति को रोज-रोज बाधा पहुंचाई है, रोज-रोज अड़ंगे खड़े किए हैं। गैलिलियो से लेकर आइंस्टीन तक रोज, निरंतर धर्म के नाम पर धर्म पुरेाहितों ने मनुष्य की वैज्ञानिक प्रगति को सब तरफ से रोकने की कोशिश की है। जो प्रगति हुई है, वह धर्मों के बावजूद हुई है।
इसलिए एक भय है कि धर्म के नाम पर हिंदू-मुसलमान, ईसाई कही ं इनका भाव न हो, तो मैं पहले ही निवेदन कर दूं कि धर्म से मेरा अर्थ किसी संप्रदाय से नहीं किसी सेक्स से नहीं, धर्म से मेरा अर्थ किसी धर्मग्रंथ से भी नहीं। धर्म से मेरा अर्थ है, जीवन के भीतर उच्चतर मूल्यों के जन्म की प्रक्रिया से। कैसे मुनष्य के भीतर उच्चतर मूल्यों का जन्म हो सकता है? कैसे मनुष्य अपने भीतर छिपी हुई चेतना से, आत्मा से परिचित हो सकता है। कैसे मनुष्य अपने बाहर जो विराट जीवन विस्तीर्ण है, उसका सानिध्य अनुभव कर सकता है। कैसे वह एक दिन इस सत्य का उदघाटन कर सकता है कि जगत केवल मिट्टी और पदार्थ से नहीं बना, बल्कि उसमें परमात्मा भी व्याप्त है। इसकी खोज, इसकी मान्यता नहीं, इसका विश्वास नहीं, इसको चुपचाप मान लेना नहीं, बल्कि इसकी खोज, इसका अनुंसधान। लेकिन तथाकथित धर्म तो हमसे कहते हैं विश्वास करो, उनकी इस विश्वास करने की शिक्षा के कारण ही शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षा का जगत धर्म से आज तक संबंधित नहीं हो सका है। क्योंकि शिक्षा के सारे आधार विचार पर खड़े हैं। और धर्म के सारे आधार विश्वास पर खड़े हैं, ये दोनों बातें विरोधी हैं। धर्म अंधे विश्वास पर खड़ा हुआ है। और सारी शिक्षा की आधुनिक चिंतना विचार पर खड़ी हुई है। जब तक धर्मों को हम विश्वास समझेंगे, तब तक शिक्षा से उसका कोई मेल नहीं हो सकता। वे दोनों दो विरोधी चीजें रहेंगी। और इसीलिए आज तक मेल नहीं हो सका। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्म भी अंधश्रद्धा नहीं है, धर्म भी जागरुक विचार है। और अगर धर्म जागरुक विचार है, तो धर्म खुद एक विज्ञान है। बल्कि सुप्रीम साइंस है। क्योंकि शेष सारे विज्ञान बाहर जो है, उसकी खोज करते हैं, धर्म उसकी खोज करता है, जो भीतर है।
राबिया एक फकीर औरत थी। एक संध्या लोगों ने देखा वह अपने घर के बाहर कुछ खोजती। बूढ़ी थी औरत सूरज ढलता था, रात पड़ती थी। दो-चार लोग आ गए, और उन्होंने कहा, क्या खोजती हो? हम साथ दे दें? उस राबिया ने कहाः मेरी सुई खो गई है, मैं कपड़े सीती थी और मेरी सुई खो गई। उसे खोजती हूं, सुई है बड़ी छोटी चीज, रास्ता बहुत बड़ा था, सूरज डूबता था, अंधेरा उतरता था; वे खोजने लगे। लेकिन तभी एक व्यक्ति को खयाल आया, इतना छोटी चीज है ठीक से बताओ कहां गिरी है? तो शायद हम खोज भी सकें, इतने बड़े रास्ते पर। उस राबिया ने कहाः यह मत पूछो! सुई तो मेरे मकान के भीतर गिरी है। मैं कपड़ा सीती थी, वहां सुई गिर गई, लेकिन वहां रोशनी नहीं है और मैं इतनी गरीब हूं कि मेरे घर में कोई दिया नहीं है। तो मैं बाहर की ढलान में खोजने लगी, वहां थोड़ी सूरज की अभी रोशनी आती थी। फिर वह भी ढल गई तो मैं और बाहर आ गई, सड़क पर खोजने लगी, यहां थोड़ा प्रकाश था। वे लोग बोले तुम पागल हो क्या? सुई भीतर खोई है और उसे बाहर खोजोगी, तो वह मिलेगी? राबिया ने कहाः मैं तो हर आदमी को जो चीज भीतर गुमी है, उसे बाहर खोजते देखती हूं। हर आदमी को।
हर आदमी बाहर खोज रहा है, उसे जो भीतर मौजूद है। लेकिन वही भूल हो रही है, जो राबिया ने उस घटना में खड़ी कर दी थी। हमारी आंखों की रोशनी बाहर गिरती है, हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं, हमारी सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं, इनकी रोशनी बाहर पड़ती है, इसलिए हम बाहर खोजते हैं, आनंद को बाहर खोजते हैं, प्रेम को बाहर खोजते हैं, बाहर खोजते हैं, सब कुछ जीवन का, जब कि सच्चाई यह है कि घर के भीतर कोई दिया नहीं है, अंधेरा है जरूर। लेकिन वहां भीतर वह सब छिपा है, जिसकी हम बाहर खोज करेंगे और कभी न पा सकेंगे।
आज तक जिसने भी कभी पाया है, उन्होंने उसे भीतर पाया है। लेकिन तब भीतर है अंधेरा, तो धर्म है रास्ता भीतर रोशनी ले जाने का, भीतर दिया जलाने का। भीतर आंख ले जाने का और खोजने का। धर्म अंधश्रद्धा नहीं, अंध विश्वास नहीं, धर्म एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। जीवन के गहनतम सत्यों की तरफ अग्रसर होने की, उस प्रक्रिया के संबंध में अंत में थोड़ी सी बात कहूंगा। और अगर वह प्रक्रिया हमारे खयाल में आ सके, तो कोई वजह नहीं है कि शिक्षा एक-एक बच्चे को शुरुआत से ही आत्मिक जीवन में दीक्षित करने में क्यों असमर्थ रह जाए, वह समर्थ हो सकती है। उस प्रक्रिया के संबंध में थोड़ी सी बात कहूंगा। दो सूत्र हैं मनुष्य के भीतर जो सत्य है, या जगत में जो सत्य है, जो गहरी से गहरी सच्चाई है, उसे जानने की।
पहला सूत्र हैः अकंप चित्तता। पहला सूत्र है अनवेवरिंग माइंड। हमारा सारा चित्त निरंतर कंपित है। निरंतर कंपा हुआ है, जैसे सागर की लहरें। एक मित्र मेरा चित्र लेने आए थे, वो कैमरा साथ लाए थे, मैंने उनसे कहा एक शर्त पर चित्र लेने दूंगा, चित्र तो लो लेकिन, कैमरे को बिलकुल हिलाते रहना, तो ही चित्र लेने दूंगा। कोई रास्ता न देख कर वे राजी हो गए। और कैमरा हिलाते हुए चित्र लेना पड़ा। फिर वह चित्र आ गया। उस चित्र में पहचानना भी मुश्किल है कि वह क्या है? माॅडर्न पेंटिंग हो गई वह चित्र। माॅडर्न पेंटिंग भी अचानक पैदा नहीं हो गई है, वेवरिंग माइंड की वजह से पैदा हो गई है। चित्त जितना कंपित है, जीवन को भी उतना ही कंपित देखता है। चित्त है दर्शन का द्वार। तो मैंने उनसे कहा, इस चित्र को अपने घर लगा लो, बड़ा करके और अगर कभी कोई आदमी पहचानने वाला मिल जाए कि चित्र किसका है, तो मुझसे मिला देना क्योंकि वह आदमी बड़ा अदभुत है। पांच साल बीत गए, मगर वह आदमी अब तक नहीं मिला, और मैंने उनसे कहा वह मिलेगा भी नहीं, तुम टांगे रहो चित्र को। लेकिन हम जीवन को ऐसे ही कंपित चित्त से देखने की कोशिश कर रहे हैं। और अगर जीवन की तस्वीर ठीक न बन पाती हो, और हम सत्य को अनुभव न कर पाते हों, तो कौन है कसूरवार? कौन है जिम्मेवार? और फिर हम पूछते हों, और कहते हों कि कोई नहीं है ईश्वर, कोई नहीं है आत्मा, कुछ नहीं है शांति, कोई नहीं है आनंद; जरूर हम कहेंगे। अगर उस चित्र को देख कर हम कहें कि कोई नहीं है मनुष्य जिसकी फोटो उतारी जा सके, देखो यह चित्र आता है, तो गलती तो नहीं कहेगा। लेकिन मैं मौजूद था और मेरी वह तस्वीर है। लेकिन उस तस्वीर को देख कर कोई सोच नहीं सकता कि मैं हूं। उस तस्वीर में मुझे नहीं खोजा जा सकता।
इस जगत में हम परमात्मा को नहीं खोज पाते। तो हम दोष देते हैं कि परमात्मा नहीं है। जीवन में आंनद नहीं खोज पाते, तो कहते हैं कि जीवन व्यर्थ है। एप्सर्ड है, इसमें कोई आनंद है ही नहीं। फिजूल की खोज है, जीवन में शांति नहीं मिलती, तो हम कहते हैं जीवन में कोई शांति है ही नहीं, तो मिलेगी कैसे? लेकिन मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं जीवन में बहुत आनंद है, बहुत शांति है, लेकिन उसका चित्र उतारने के लिए चाहिए, अनवेवरिंग माइंड। चाहिए निष्कंप चित्त। चाहिए ठहरा हुआ चित्त। चाहिए अकंप चित्त जिसमें कंपन न हों और लहरें न हों। हमारा तो चित्त रोज-रोज कंपा चला जाता है।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद अकंप चित्त का अर्थ खयाल में आ सके। और फिर मैं दूसरा सूत्र बताऊं कि अकंप चित्त कैसे हो सकता है? और उस सारी प्रक्रिया को मैं धर्म कहता हूं।
एक बहुत बड़ा धनुर्धर हुआ। एक बहुत बड़ा बाण चलाने वाला, तीर चलाने वाला, तीरंदाज हुआ। सारे देश में उसकी ख्याति थी। और खुद सम्राट ने उससे कहा था, तुम अप्रतिम हो, तुम अकेले हो, तुम बेजोड़ हो, तुम घोषणा क्यों नहीं कर देते, कोई प्रतिस्पर्धी हो, तो सामने आ जाए, ताकि मैं राज्य से तुम्हें सम्मान दे सकूं कि तुमसे ऊंचा और कोई भी धनुर्धर नहीं है। वह राजमहल से सोचता हुआ घर लौटता था कि महल के बूढ़े चपरासी ने उससे कहा कि मेरे भाई इसके पहले कि इस भूल में पड़ जाओ कि तुम सबसे बड़े धनुर्धर हो, मेरा एक निवेदन है। मैं पहले जंगल में लकड़ी काट कर लाने वाला लकड़हारा था। मैंने जंगल में एक आदमी को देखा है, जिसका कोई मुकाबला ही नहीं है। तुम उसके सामने अभी नासमझ हो। अभी तुम उसके सामने अ ब स भी नहीं जानते हो, पहले उसके पास जाकर कुछ सीख लो, नहीं तो कठिनाई में पड़ जाओगे।
तो वह धुनर्धर हैरान हुआ कि उससे भी ज्यादा कोई जानता होगा, क्योंकि बहुत वह जानता था इस कला में जितना जाना जा सकता था, सब उसने सीखा था। उसकी कुशलता बहुत थी, वह गया लेकिन। जंगल में जाकर उसने उस आदमी को खोज लिया और उसे पता चल गई यह बात कि यह सच्चाई है कि वह उसके सामने अ ब स भी नहीं जानता है। उसके चरणों में तीन वर्षों तक बैठ कर उसकी सारी कला सीखीं, जब वह सब सीख गया, तो उसे खयाल आया कि अब यह आदमी अगर मर जाए, गुरु था उसका लेकिन मर जाए, तो मैं अद्वितिय घोषणा कर सकता हूं कि मैं अकेला हूं। लेकिन इस गुरु के मरने की कब तक मैं प्रतीक्षा करूंगा। तो क्यों न मैं इसे मरने में सहयोग दूं। यह सोच कर वह एक वृक्ष के नीचे छिप गया, एक संध्या। गुरु जंगल से लकड़ियां काट कर लौटता था, निहत्था था, उसके पास कोई धनुष बाण न था। उसने तीर मारा, उसका तीर तो अचूक था। मर जाना निश्चित था। लेकिन घटनाएं अक्सर उलटी शक्ल ले लेती हैं, उसके गुरु ने तीर को आता देखा, तो उसने एक छोटी सी लकड़ी का टुकड़ा फेंका, तीर को चोट लगी और तीर वापस लौट गया और उस आदमी की छाती में बिंध गया। गुरु दौड़ा, जाकर तीर निकाला इलाज किया, कहा मेरा मन न था तुझे मारने का। लेकिन यह अंतिम, एक और शेष रह गई थी यह बात जो मैंने तुझे नहीं बताई वह भी तुझे सिखा दूं; यह मैंने इसलिए बचा रखी थी कि आज नहीं कल, तेरे मन में यह खयाल आना बहुत निश्चित है कि मैं खत्म कर दूं। इस आदमी को जो मेरा प्रतियोगी हो सकता है। लेकिन तू पागल है, एक तो गुरु शिष्य का कभी प्रतियोगी हुआ है? दूसरा मैं इस जंगल में छिपा हूं, कभी गांव भी नहीं गया किसी को कहने, तू व्यर्थ ही नासमझी की बातें किया। लेकिन तू निशिं्चत हो जाए इसलिए मैं अपना धनुष-बाण तोड़े देता हूं। और उसने अपना धनुषबाण तोड़ दिया।
वह युवक खुश हुआ और लौटने लगा, लेकिन उस बूढ़े गुरु ने कहाः लेकिन ठहर! मैं कुछ भी नहीं हूं, मेरा गुरु ऊपर पहाड़ पर रहता है। अभी इतनी जल्दी यह मत सोच लेना कि तू सब जान गया। उसके सामने मैं कुछ भी नहीं हूं, उसके चरणों की धूल भी नहीं। तो पहले एक दफा उसके दर्शन कर ले। पहाड़ के करीब से ऊंट निकलता है, तभी उसे पता चलता है कि ऊंचाई उसकी कितनी है। तो उसने उससे कहा कि तू सिर्फ एक ऊंट है, वह एक पहाड़ है। उसके करीब से निकल जा। तो शायद तुझे यह खयाल ही मिट जाए। जरूरी था जाना, वहां वह गया। बामुश्किल खोज पाया उस बूढ़े आदमी को, जिसकी बात कही गई थी। वह कोई सौ की उम्र पार कर चुका होगा। उसकी कमर झुक कर कमान हो गई थी। एकदम बूढ़ा आदमी था। और एक बड़ी चट्टान पर, पहाड़ पर खड़ा हुआ था। उसके पास वह गया। और उसने कहा, क्या आप ही वह आदमी हैं, जिसको मैं खोजने आया हूं, जो सबसे बड़ा व्यक्ति है, जानकारी में इस धनुर्विद्या की। लेकिन आपका धनुष कहां? आपके बाण कहां? तो वह बूढ़ा आदमी हंसा और उसने कहाः जब कोई कला पूरी हो जाती है तो उपकरण छूट जाते हैं। जब संगीत पूरा हो जाता है तो वीणा तोड़ दी जाती है, उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। और जब कोई काव्य में पूरा गहरा उतर जाता है तो शब्द छूट जाते हैं, मौन आ जाता है।
बीस साल हो गए, धनुष तोड़ दिया। उसकी अब कोई जरूरत न थी। धनुष बाण तू लिए है, यह तो बच्चों का काम है, यह तो सीखने के वक्त की जरूरत है। जब तक धनुष तेरे हाथ में है, समझना धनुर्विद्या पूरी तुझे अभी आई नहीं। बहुत मुश्किल की बात हो गई। लेकिन उस युवक ने कहा, आपके चरणों में बैठ कर मैं सीखना चाहता हूं। यह तो मेरी कभी कल्पना में भी न था कि उपकरण छूट जाएंगे, जिस दिन कला पूरी होगी, लेकिन अब क्या बचा है आपके पास? जब उपकरण ही नहीं हैं, तो क्या है आपके पास शेष? तो वह बूढ़ा उस चट्टान पर आगे की तरफ सरका, जिसके नीचे हजारों फिट गहरा खड्ड था। जिसमें कोई गिर जाता तो आवाज भी सुनाई न पड़ती। जिसमें कोई चिल्लाता, तो कोई सुनने को न था, इतना निर्जन था। वह बूढ़ा उस किनारे की तरफ चला, चट्टान पर, चट्टान दूर खड्ड के ऊपर बढ़ी हुई थी। वह बूढ़ा गया किनारे पर, जहां उसके पंजे खाई में झांकने लगे। और वहां कमर झुकाए वह सौ साल पार किया बूढ़ा खड़ा हो गया। और उस युवक से कहाः आ, तू भी यहां निकट आ जा। वहां कौन इतने निकट जा सकता था, नीचे मौत थी। जरा सा चूक जाना और मृत्यु में पहुंच जाना हो जाता। वह युवक बोला मेरे हाथ-पैर कंपते हैं, मैं वहां नहीं आ सकूंगा। तो उस बूढ़े ने कहा, हाथ-पैर कंपते हैं, याकि मन कंपता है। उस युवक ने कहाः मन कंपता है शायद इसलिए हाथ पैर कंपते हैं। तो उसने कहा फिर तू कैसा धनुर्विद है। तू कैसा तीर चलाने वाला है? जिसका चित्त कंपता है, उसका निशाना कभी ठीक लग सकता है? चाहे कितना भी ठीक लगे, लेकिन हमेशा अप्राॅक्सिमेट ही होगा। कभी ठीक नहीं हो सकता। करीब-करीब ठीक होगा, कभी ठीक नहीं हो सकता। और करीब-करीब ठीक, ठीक नहीं होता है। आप कह सकते हैं कि यह बात करीब-करीब सत्य है। नहीं, सत्य, सत्य होता है, करीब-करीब सत्य में झूठ मौजूद होता है। नहीं तो करीब-करीब नहीं हो सकता। आप कह सकते हैं मैं तुम्हें करीब-करीब प्रेम करता हूं? करीब-करीब प्रेम का क्या मतलब होता है? प्रेम हो सकता है, करीब-करीब प्रेम नहीं हो े सकता। तो करीब-करीब निशाना भी नहीं हो सकता। निशाना होता है, या नहीं होता।
उस बूढ़े ने कहा आ जा पास। वह युवक वहीं बैठ गया, उसने कहा क्षमा करें, मैं उतने पास नहीं आ सकूंगा। और मैं हैरान हूं कि आप वहां खड़े हैं। उस बूढ़े ने कहा, जब चित्त थिर हो जाता है, तो सब थिर होकर खड़ा हुआ जा सकता है। जा पहले चित्त की अकंपना, पहले चित्त की नाॅन-वेवरिंग सीख कर आ, फिर निशाना लगाना सीख सकेगा। वह आदमी चल पड़ा बहुत दिन हो गए, खोजते-खोजते अभी तब उसे कोई बताने वाला नहीं मिला कि चित्त अकंप कैसे हो सकता है? वह जगह-जगह गांव-गांव में पूछता है कि चित्त अकंप होने की क्या तरकीब है? मैं आपको तरकीब बताए देता हूं, अगर वह भटकता हुआ कहीं आपको मिल जाए, तो आप उसे बता देना। क्योंकि यह तो मैं जानता हूं कि इसे आप अपने काम में न लाओगे, इसलिए मैंने कहा, किसी को बता देना। कोई अपने काम में नहीं लाता, इसलिए मैंने कहा कि मिल जाए कभी कोई पूछता हुआ, तो उसको बता देना कि यह तरकीब है।
चित्त अकंप होता है, एक बहुत सरल तरकीब से। चित्र अकंप होता है विश्राम से। चित्र अकंप होता है रिलैक्जेशन से। रेस्ट से। चित्त कंपित क्यों है? चित्त कंपित है तनाव से। टेंशन से। अगर हम एक वीणा के तार को खींचे, टेंस हो जाएगा, खिंच जाएगा तन जाएगा और अगर छोड़ दें, तो तार झन-झनाता हुआ कपंता रहेगा, बड़ी देर तक कंपता रहेगा। वह कंपन कहां से आया? वह कंपन क्या है? वह कंपन है एक तनाव को विसर्जित करना। तनाव भर गया खींचने से तार में, अब तार अपनी जगह वापस लौटना चाहता है। एकदम से नहीं लौट सकता, तनाव की ताकत भर गई है, ताकत को विसर्जन करना पड़ेगा। वो ताकत को विदरअवे करना पड़ेगा, तो वह तार हिल-हिल कर उस ताकत को बाहर फेंक देगा। जब सारी ताकत बाहर फिंक जाएगी, जो आपने हाथ से खींच कर पैदा कर दी थी, तार अपनी जगह वापस पहुंच जाएगा। कंपन है अपनी जगह पहुंचने की कोशिश। चित्त अपनी जगह पहुंचना चाहता है। लेकिन हम उसे चैबीस घंटे खींच-खींच कर परेशान किए दे रहे हैं। तान कर परेशान किए दे रहे हैं। वह एक कंपन पूरा नहीं हो पाता कि अंगुलियां फिर तार को खींच देती हैं। जीवन भर हम मन को खींचे चले जाते हैं। ताने चले जाते हैं। और ये तनाव और ये टेंशन चैबीस घंटे मन को कंपाए रखता है। कंपाए रखता है। इस कंपित मन के कारण जीवन के सत्य के कोई दर्शन नहीं हो पाते। क्या करें? थोड़ी देर को मन को बिलकुल रिलैक्स छोड़ दें। कुछ भी न करें। थोड़ी देर को कुछ भी न करें। चैबीस घंटे में घड़ी-आधा घड़ी किसी अंधेरे कोने में, ऐसे पड़ जायें जैसे कि आप नहीं हैं। और मन के साथ कुछ भी न करें। राम-राम भी न जपें क्योंकि वह भी एक तनाव है, माला भी न फेंरें, क्योंकि वह भी एक काम है, मन फिर खिंचेगा। कुछ भी न करें लेकिन आप कहेंगे हम कुछ भी न करें, तो भी क्या है, मन तो कुछ करेगा। मन तो सोचेगा, विचार करेगा। जरूर। मन सोचेगा, विचार करेगा, क्योंकि जीवन भर के खिंचाव, उसे कंपा रहे हैं। हम एक गाड़ी के चाक को, एक साइकिल के चाक को चला दें, फिर हम हाथ ही अलग खींच लें तो भी चाक उसी वक्त थोड़े ही रुक जाएगा। चाक को मोमेंटम मिल गया, गति मिल गई, चाक थोड़ी देर चलेगा, चल कर उस गति को बाहर फेंकेगा। फिर धीरे-धीरे, धीरे रुकेगा। और इस बीच अगर आपने फिर चाक को चला दिया, तो रुकने का कोई सवाल नहीं है। साइकिल चलती इसी नियम पर है। आप पैडल लगाते हैं, चाक गतिमान हो जाता है, जब तक उसकी गति खत्म हो, पैंडिल उसे दुबारा गति दे देता है, साइकिल चलती चली जाती है। चित्त भी वैसी ही एक साइकिल बन गई है, हम उसे रोज तनाव दिए चले जाते हैं, उसको हम कभी छोड़ते नहीं कि कोई तनाव विसर्जित हो जाए। तो मैं निवेदन करूंगा प्रक्रिया है सरल लेकिन करने वाला मिलना है कठिन। प्रक्रिया बहुत सरल है। आधा घड़ी को किसी कोने में, एकांत में चुप-चाप पड़े रह जायें, मन काम करेगा, उसके कंपन भरे हुए हैं वे चलेंगे, उनको चल लेने दें, देखते रहें। जैसे कोई रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखे। कोई नदी के किनारे बहती नदी की धार को देखे। कोई आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की कतार को देखे, ऐसे ही विचारों की चलती कतार को, कंपन को चुपचाप बैठे देखते रहें। कुछ भी न करें उसके साथ। कुछ भी न करें, न रोकने की कोशिश, न हटाने की कोशिश क्योंकि सब कोशिश फिर तनाव पैदा कर देती है, कोई इफर्ट तनाव पैदा कर देगा। कोई एफर्ट न करें। आपने देखा कि अगर रात में नींद न आती हो और आप कोशिश करें नींद लाने की फिर नींद नहीं आ सकती, क्योंकि हर कोशिश नींद की दुश्मन है। अगर कोई कोशिश न करें तो नींद तो अपने आप आ जाएगी, नींद आप ला नहीं सकते, वह अपने आप आती है। आपके लाने की कोशिश में दूर हो जाएगी। विश्राम भी आप ला नहीं सकते, वह अपने आप आता है, आप कुछ भी न करें तो वह आएगा।
बुद्ध एक गांव के पास ठहरे, प्यास लगी थी उन्हें जंगल में, अपने एक भिक्षु को भेजा कि पानी ले आ। वह गया, जिस नाले से पानी लाना था, उसमें से बैलगाड़ियां निकल गईं थी, वहंा कचरा और मिट्टी ऊपर उठ आयी थी। वह खाली हाथ वापस लौट आया और उसने कहाः बहुत मुश्किल है, वह पानी तो एकदम गंदा हो गया। अब मैं क्या करूं, कैसे उस पानी को ठीक करूं? और मैं ठीक करने अंदर घुसा था तो मेरे पैरों ने और कीचड़ उठा दी। बुद्ध ने कहाः पागल! किनारे बैठ जाना था,और चुपचाप बैठे रहना था। अपने आप धूल के कण नीचे बैठ जाते। उठे हुए पत्ते बह जाते, वह जो जल एकदम गंदा हो गया है, निर्मल हो जाता, जाओ किनारे बैठ जाओ और कुछ करना मत। तूने कुछ भी किया तो पानी फिर गंदा हो जाएगा। वह युवक गया और किनारे बैठ गया, एक झाड़ से छिप कर बैठा रहा, बैठा रहा गंदा पानी बहता गया, उठी हुई कीचड़ नीचे बैठती गई। सूखे पत्ते बहते चले गए, थोड़ी देर में देखते-देखते वह हैरान हो गया, वह पानी जो बिलकुल गंदा था, एकदम निर्मल हो आया था। वह पानी भर कर नाचता हुआ वापस लौटा और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा, उसने कहा पानी तो ठीक मन के संबंध में भी एक बात समझ में आ गई। यह जो सरा उपद्रव मन का है, कहीं किनारे हम बैठ जाएं तो ठीक हो जाए।
मन के किनारे बैठ जाने का नाम विश्राम है। चलने दें मन को और किनारे बैठ जाएं। तनाव अपने आप विसर्जित हो जाएंगे और एक घड़ी आएगी कि थोड़े दिनों में प्रेम से प्रतीक्षा करने पर जब कि मन एकदम निष्तरंग हो जाएगा, नहीं आज हो जाएगा, नहीं कल, जल्दी नहीं हो सकती। क्योंकि जीवन भर के तनाव हैं, और जो जानते हैं वह यह भी जानते हैं कि जीवन भर के नहीं, बहुत जीवन तनाव हैं। उनका भारी बोझ है, भारी खिंचाव है, लेकिन अगर हम शांति से प्रतीक्षा करें और किनारे बैठ सकें मन के, तट पर बैठ सकें और देख सकें चुपचाप। रोज अगर एक घड़ी मन के साथ केवल चुपचाप बैठे रहने में बीत जाए, तो किसी दिन आपको अनुभव होना शुरु हो जाएगा कि तरंगें कम होनी शुरु हो गई हैं। मन की लहरें बैठने लगी हैं। कूड़ा-करकट बहने लगा है, एक निर्मलता, एक इनोसेंस, एक पवित्रता, एक शांति एक निष्तरंगता पैदा हो रही है, और एक दिन, वह घड़ी आ जाती है, जो प्रतीक्षा करता है कि जब मन बिलकुल ही शांत और मौन हो जाता है। उसी दिन धर्म का अनुभव होता है, उसी दिन सत्य की प्रतीति होती है। उसी दिन स्वयं के भीतर जो छिपा है, उसका बोध होता है। और उसी दिन जीवन कुछ और हो जाता है। और फिर और, फिर आजीविका नहीं रह जाती जीवन, जीवन हो जाता है। फिर हम चलते-फिरते मुर्दे नहीं रह जाते, हमारे भीतर कोई जीवंत धारा जन्म ले लेती है और प्रकट हो जाती है। फिर, फिर ही अनंत से संबंध है, फिर ही परमात्मा से संबंध है। नहीं किसी मंदिर में उसे खोजा जा सकता, लेकिन जिसका मन मंदिर बन जाता है, मौन होकर; वह वहां मौजूद हो जाता है। नहीं उसे पत्थर की दीवालों और मूर्तियों में खोजा जा सकता, लेकिन जिसके प्राण शांत हो जाते हैं वहीं चेतना की चिन्मय मूर्ति उपलब्ध हो जाती है। वह वहां है, वह सबके भीतर है। जो उसे खोजना चाहेंगे, जो उसके लिए प्यासे होंगे, जिनकी आतुरता होगी आनंद को और अर्थ को खोज लेने की, वह उनके साथ खड़ा है, सिर्फ आंख फेर कर देखने की बात है।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
निष्तरंगता धर्म की बुनियादी आधारशिला है। और निष्तरंगता का उपलब्ध करने का सूत्र, सीक्रेट है--विश्राम। निष्तरंगता, धन विश्राम बराबर धर्म का अनुभव। और शिक्षा से यह बात जिस दिन भी संयुक्त होगी उस दिन हम नये आदमी को पैदा कर लेंगे।
एक छोटी सी कहानी अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
एक गांव के बाहर एक मरघट पर आधी रात को भटकता हुआ एक फकीर पहुंच गया। चिता जल रही थी, सर्द रात थी, उसने सोचा चिता के पास थोड़ी गर्मी मिल जाएगी। लेकिन चिता के पास पहुंच कर उसने देखा कि एक औरत खड़ी है, आंखों से आंसू बह रहे हैं, हाथ जोड़े खड़ी है। और आकाश की तरफ देख कर कह रही है, अगर मेरे प्यारे को वापस नहीं लौटाते हो, तो मुझे भी इस चिता में समा जाने की आज्ञा दे दो। और यह कह कर वह दौड़ पड़ी है चिता की तरफ। फकीर तो कुछ भी समझ भी नहीं पाया और दौड़ कर उसके कंधे को पकड़ा है और रोका है कि क्या करती हो? सांझ उसका पति चल बसा था। गांव के लोग उसे चिता पर चढ़ा कर वापस लौट गए हैं, आधी रात उसकी विधवा पत्नी वह युवती मरघट पर मरने उसके साथ आ गई। फकीर ने उसे रोका, रुकना नहीं चाहती है, कूदना चाहती है। फकीर ने उसे ताकत से रोका और कहाः पागल हो? उस युवती ने एक बड़ी अदभुत बात उस फकीर के सामने रख दी। उसने कहाः आप एक वचन देते हो तो मैं बच जाऊं? क्या मेरा प्रेमी वापस लौट सकता है, नहीं तो मेरे रहने का कोई प्रयोजन नहीं, अर्थ नहीं। वहीं था मेरा आनंद। और फकीर भी ब.हुत अदभुत रहा होेगा, मुश्किल से वैसा फकीर मिलता है। फकीर ने घर लौट चलो, तीस दिन बाद तेरा प्र्रेमी वापस लौट आएगा। विश्वास करने जैसी बात न थी, लेकिन उस फकीर ने इतने आश्वासन से कहा था, उसकी आंखों में ऐसी दृढता थी। वह स्त्री वापस लौट आई, उसने कहा कोई हर्ज नहीं, तीस दिन बाद भी मैं मर सकती हूं। तीस दिन प्रतीक्षा करना कोई लंबा समय न था। गांव भर में यह खबर फैल गई, गांव भर में चर्चा हो गई, उस स्त्री ने अपनी चूड़ियां भी नहीं फोड़ीं, उस फकीर ने कहा चूड़ियां फोड़ने की जरूरत नहीं है, लौट आएगा तेरा प्रेमी। तू विधवा नहीं हुई है। और रोज संध्या वह फकीर उसके घर आने लगा। कुछ उससे कहता होगा, किसी को पता नहीं क्या उसने उससे कहा? लेकिन तीस दिन एक-एक करके बीत गए। गांव के लोग हैरान जरूर थे, वह युवती धीरे-धीरे-धीरे दुख के बाहर होती चली गई। जैसे उसके चेहरे से सारी उदासी मिट गई, मृत्यु की छाया विलीन गई। जैसे वह फिर ताजी और हरी हो आई, फिर जीवन की कोपलें उसमें निकल आईं। वह फिर वापस वैसी हो गई, जैसी थी, मृत्यु का यह आघात जैसे जा चुका था।
तीस दिन पूरे हो गए, इकत्तीसवें दिन की सुबह आ गई, सारा गांव पांच बजे से उसके द्वार पर इकट्ठा हो गया। लोग दरवाजा ठोकने लगे, दरवाजा खोलो। लौट आया है क्या वह व्यक्ति जो मर गया था? असंभव है यह बात। लेकिन आज परीक्षा होनी थी। आज लौटने का क्षण था। वे बाहर चिल्ला रहे हैं, भीतर कोई गीत गा रहा है, और नाच रहा है, पता नहीं क्या वह लौट आया है? उसकी पत्नी नाचती है। बामुश्किल दरवाजे को खोल कर वे भीतर गए, नाचती थी वह स्त्री, पूछा उससे रोक कर, लौट आया तेरा प्रेमी? उसने कहाः हां, लौट नहीं आया, मैंने जान लिया वह कहीं गया ही नहीं। वह मेरे भीतर मौजूद है। इधर इन तीस दिनों में मैं जैसे-जैसे शांत होती गई, जैसे-जैसे मौन होती गई, जैसे-जैसे चित्त निष्तरंग हुआ, मैंने पाया कि प्रीतम तो भीतर मौजूद है, मैं उसे कहां बाहर खोज रही हूं। वह मेरे भीतर मौजूद है। और जो चल बसा है, वह मेरा प्यारा नहीं था, केवल दर्पण था, जिसमें मेरा भीतर छिपा प्यारा दिखाई पड़ता था। केवल दर्पण टूट गया है। प्यारा मेरे भीतर मौजूद है। जिसको तुम चिता पर चढ़ा आए हो, वह एक दर्पण था। जिसमें मैंने अपने प्रेमी को देखा था, जिसकी आंखों में मैंने झांका था और अपने को पाया था। लेकिन मैं भूल करती थी, मैं समझती थी वहीं मेरा प्रेमी है। प्रेमी मेरे भीतर है।
जगत एक दर्पण है, प्रेमी भीतर है। लेकिन जो शांत होता है, जो मौन होता है, वह उसे खोज लेता है। उसी प्रेमी को पा लेने का रास्ता धर्म है, और ऐसी शिक्षा अधूरी है, खतरनाक है, जो भीतर के उस प्रेमी से जोड़ने के मार्ग पर न ले जाती हो।
मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कहीं हैं। पता नहीं मेरी यह बात तुम्हारे खयाल में भी आएगी या नहीं, पता नहीं किसी दिन तुम उस राह पर चलोगे या नहीं, जो परमात्मा से मिला देती है, और प्रेम के सागर तक ले जाती है। लेकिन मैंने अपनी बात कह दी, हो सकता है, कोई बीज तुम्हारे मन में पड़ा रह जाए और किसी दिन वर्षा आए जीवन की और उस जीवन में अंकुर आ जाएं। और किसी दिन जीवन का सूरज उगे और उस अंकुर में गति हो जाए, विकास हो जाए, और तुम उसे पा लो जिसे पाने के लिए मनुष्य पैदा होता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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