पहला प्रवचन-(अमृत-बिंदु)
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं अत्यंत आनंदित हूं कि जीवन के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कर सकूंगा। मनुष्य के जीवन में बहुत पीड़ा, बहुत कष्ट है। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो ठीक से जी रहा हो। ऐसा मनुष्य भी खोजना कठिन है जो जीवन में आनंद का और धन्यता का अनुभव कर रहा हो। यदि हम अपने से पूछें या अपने पड़ोसी से पूछें तो यह ज्ञात करना कठिन होगा कि किसी ने जीवन को इस भांति अनुभव किया हो कि वह फिर से उसी जीवन को पाने के लिए उत्सुक हो जाए। ऐसा कष्ट, ऐसी पीड़ा स्वाभाविक है कि जीवन को एक उदासी से, निराशा से और अंधेरे से भर दे। बहुत कम लोगों की आंखों में प्रकाश मालूम होता है, बहुत कम लोगों की आंखों में ज्योति मालूम होती है, बहुत कम लोगों के हृदय में संगीत मालूम होता है। और तब, तब यह स्वाभाविक ही है कि हम एक बोझ की भांति अपने जीवन को ढोते हों, और यह स्वाभाविक ही है कि हम जीवन के रस से वंचित रह जाएं, और जिसे हम जीवन समझें वह केवल मृत्यु का, एक लंबी मृत्यु का दूसरा नाम हो।
मेरे देखने में हम धीरे-धीरे मरते जाते हैं। और कोई भी विचार करेगा तो यह अनुभव करेगा कि जन्म और मृत्यु के बीच जिससे हम परिचित होते हैं, वह जीवन नहीं बल्कि क्रमिक मृत्यु है। धीमी मृत्यु है। रोज हम मृत्यु की ओर विकसित होते चले जाते हैं। और हम चाहे कोई भी प्रयास करते हों,
चाहे हम धन इकट्ठा करते हों, या यश अर्जित करते हों, या बहुत ज्ञान इकट्ठा कर लेते हों, या त्याग और तपश्चर्या करते हों, लेकिन अंततः ऐसे बहुत कम धन्यभागी हैं, जो जीवन के सत्य को अनुभव कर पाते हों, अधिक लोग केवल मृत्यु के मुंह में पहुंच जाते हैं। हमारी सारी यात्राएं, चाहे वे कितनी ही भिन्न दिशाओं में हों अंततः मृत्यु की दिशा में ले जाने वाली सिद्ध हो जाती हैं।
मैं एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं, उससे शायद मेरी बात समझ में पड़ सके। दमिश्क में एक बादशाह हुआ, बहुत बड़ा बादशाह था, बहुत संपत्ति थी, बहुत बड़ा साम्राज्य था। एक दिन सुबह ही उसने स्वप्न देखा भोर के समय कि मौत उसके सामने खड़ी है और मौत ने उससे कहा कि आज सांझ को तुम ठीक जगह मुझे मिल जाना, मैं तुम्हें लेने आ रही हूं। मौत ने उस स्वप्न में उस बादशाह को कहा कि आज ठीक जगह सांझ को मिल जाना, आ जाना ठीक जगह, मैं तुम्हें लेेने आ रही हूं। नींद उसकी खुली, उसने नगर के विचारशील लोगों को बुलाया और पूछा कि ऐसा मैंने स्वप्न देखा है, क्या इसका अर्थ है? विचारकों ने कहा कि इसका अर्थ है कि आज सांझ आपकी मृत्यु आ जाएगी। राजा ने कहा फिर मैं क्या करूं? कुछ लोगों ने कहा कि इस महल को छोड़ कर आप भाग जाएं, जितनी दूर जा सकें, उतनी दूर निकल जाएं।
राजा के पास बड़ी तेज चाल से चलने वाला घोड़ा था, उस घोड़े पर सवार होकर वह राजा भागा। सांझ तक वह सैकड़ों मील दूर निकल गया, सूरज डूबने के समय एक बगीचे में जाकर उसने शरण ली। निशिं्चतता से, यह सोच कर कि अब मृत्यु का कोई भय नहीं है, मैं काफी दूर निकल आया हूं। लेकिन वह घोड़ा बांध भी नहीं पाया था, मुंह फेरा और देखा मौत सामने खड़ी है। राजा ने कहाः यह तो बड़ा धोखा दिया। मैं तो इतनी यात्रा किया दिन भर में, तुमसे ही भागने को। मौत ने कहाः यही जगह तो हमारा-तुम्हारा मिलने का निश्चय था। तुमने इतनी यात्रा हमसे मिलने को की। यही ठीक स्थान है, यही ठीक समय है। इसी के लिए सुबह मैंने तुम्हें निमंत्रण दिया था कि ठीक जगह, ठीक समय पर सांझ को मिल जाना, तुम ठीक जगह आ गए हो। उस राजा ने सोचा कि मैं भाग रहा हूं मृत्यु से, लेकिन अंततः पाया कि वह मृत्यु में पहुंच गया है।
हम सारे लोग भी भागते हैं, शायद इस कल्पना में कि मृत्यु से बच जाएंगे और जीवन को अनुभव करेंगे, लेकिन अंततः पाते हैं कि मृत्यु के मुंह में पहुंच गए हैं और जीवन से वंचित रह जाते हैं। जीवन को अनुभव करना जीवन का उद्देश्य है। कोई पूछे कि जीवन का लक्ष्य क्या है, तो मैं कहूंगा, जीवन को उसकी परिपूर्णता में अनुभव कर लेना। लेकिन बहुत कम लोग अनुभव कर पाएंगे क्योंकि हमारी दिशाएं, हमारे प्रयत्न, हमारी चेष्टाएं, हमारी यात्रा करीब-करीब जीवन की दिशा में नहीं है, हम मृत्यु की दिशा में ही चलते हैं। मृत्यु की दिशा में चलने से मेरा क्या प्रयोजन है, वह मैं आपको कहूं। मृत्यु की दिशा में चलने का अर्थ है, हम उन चीजों को इकट्ठा करें, उन चीजों को संग्रह करें, उन शक्तियों को खोजें, और उनकी साधना करें, जिन्हें मृत्यु नष्ट कर देने वाली हो। हम जो भी इकट्ठा करेंगे, जो भी संग्रह करेंगे या जो भी शक्ति उत्पादित करेंगे, यदि मृत्यु उसे छीन लेने को है, तो हमारी सारी यात्रा व्यर्थ हो जाएगी, और अंततः हम पाएंगे कि हाथ हमारे खाली हैं, और हमारी कोई उपलब्धि नहीं है।
हम जीवन में शरीर के लिए जो भी खोजते हैं, इकट्ठा करते हैं, वह शरीर के साथ ही समाप्त हो जाएगा। यह हमने बहुत बार सुना है, यह हमारे धर्मग्रंथों ने, हमारे साधुओं ने, हमारे विचारशील लोगों ने बार-बार कहा है कि शरीर के लिए हम जो भी इकट्ठा करेंगे वह शरीर के साथ ही छिन जाने वाला है। लेकिन फिर भी शरीर के अतिरिक्त और किसके लिए हम खोजें, किसके लिए प्रयास करें? उसका भी हमें दर्शन नहीं हो पाता। इसलिए यह बात केवल विचार होकर मन में रह जाती है, लेकिन जीवन में कोई क्रांति नहीं बन पाती। कोई आंदोलन हमारे हृदय में पैदा नहीं हो पाता है। यह आंदोलन न पैदा होने का कोई कारण है, उस कारण के संबंध में भी, मैं आपसे बात करूं और कैसे हम उस आंदोलन से गुजर कर एक आमूल परिवर्तन से स्वयं के सत्य को और जीवन के अर्थ को अनुभव कर सकते हैं, उस संबंध में भी बात करना चाहूंगा।
हम सारे लोग कष्ट को तो अनुभव कर पाते हैं, लेकिन दुख को अनुभव नहीं कर पाते। साधारणतः हम कष्ट को और दुख को एक ही बात समझ लेते हैं। लेकिन कष्ट और दुख बड़ी अलग-अलग बातें हैं। कष्ट के अनुभव का अर्थ है किसी अभाव का अनुभव, भोजन न हों, वस्त्र न हों, बीमारी हो या और कोई बात हो, तो जीवन में कष्ट का अनुभव होता है। लेकिन कष्ट का अनुभव दुख का अनुभव नहीं है। कष्ट का अनुभव होगा तो हम सुख की खोज करेंगे, उस कष्ट को मिटाने की चेष्टा करेंगे और अधिकतम लोग कष्ट के अनुभव के कारण सुख की खोज करते हैं, धन की खोज करते हैं, यश की खोज करते हैं। ये कष्ट के अनुभव की उत्प्रेरणाएं हैं, जिनसे हम सुख की खोज में जाते हैं। जिन लोगों को दुख का अनुभव होगा, वे सुख का नहीं, बल्कि सत्य का अनुसंधान करेंगे। जिन लोगों को दुख का अनुभव होगा, वे लोग सुख का नहीं बल्कि आनंद का अनुसंधान करेंगे। और सुख और आनंद के अनुसंधान में दिशा का बुनियादी भेद है। महावीर को या बुद्ध को कष्ट का कोई अनुभव नहीं था, सब उनके पास था, जो भी सुख हो सकते थे, उनके पास थे। इसलिए कष्ट की तो कोई प्रतीति नहीं हो सकती थी, फिर भी कोई बहुत गहरे दुख का उन्हें बोध हुआ। जब तक गहरे दुख का बोध न हो तब तक जीवन की खोज बहुत गहरे में प्रवेश नहीं कर पाती। और हम, सारे लोग अधिकतर कष्ट को ही अनुभव करके समाप्त हो जाते हैं, दुख को अनुभव नहीं कर पाते।
कष्ट का संबंध शरीर से होता है, दुख का संबंध आत्मा से होता है। जब कोई गहरी पीड़ा अनुभव हो और ऐसा प्रतीत हो कि जिस जीवन को मैं जी रहा हूं उसमें कोई भी अर्थ नहीं है, कोई मीनिंग नहीं है, उसमें कोई सार्थकता नहीं है। रोज सुबह उठ आने में, रोज सांझ सो जाने में या कुछ संपत्ति इकट्ठी कर लेने में, या कोई बड़ा मकान बना लेने में।
आज सांझ को हम आपके गांव के खंडहर देखने गए, तो वहां मैंने कहा कि इन खंडहरों को देखने के बाद अगर यह खयाल न उठता हो कि हम जिन मकानों को बना रहे हैं, वे भी खंडहर हो जाएंगे, तो इन खंडहरों को देखना हमारा सार्थक नहीं हुआ। मुझे कहा कि हजारों वर्ष पुराने खंडहर हैं, बड़े सुंदर हैं, बहुत मेहनत उन लोगों ने उन्हें बनाने के लिए की होगी, और जिन्होंने उन्हें बनाया होगा, अपने जीवन की पूरी शक्ति उनमें लगा दी होगी। अपने जीवन की पूरी शक्ति को लगा कर उन्होंने उन भवनों को, उन पत्थरों को खोदा होगा और बनाया होगा। लेकिन आज, आज हम उन्हें जमीन से निकाल कर विचार करते हैं कि वे कितने पुराने हैं! जिन लोगों ने उन्हें बनाया वे लोग उन्हें बनाने में नष्ट हो गए होंगे। जिन लोगों ने उन्हें निर्मित किया वे उन्हें निर्मित करने में ही जीवन को अपने समाप्त कर लिए होंगे। लेकिन हम भी वैसे ही मकान बनाएंगे, हम भी वैसी ही सभ्यता खड़ी करेंगे, हम भी बहुत कुछ वैसा ही करेंगे जो नष्ट हो जाने को है। और उसके साथ उसके प्रयास में, उसको बनाने में हम भी नष्ट हो जाएंगे।
जीवन को अनुभव करने के लिए जरूरी है कि यह बोध हमारे भीतर हो, यह विचार हमारे भीतर सजग हो कि सामान्यतया जिसे हम जीवन की तरह जीते हैं, उसका कोई अंतोगत्वा आत्यंतिक रूप से कोई अर्थ हो सकता है? कोई उपलब्धि हो सकती है, वह कहीं पहुंचाएगा या नहीं पहुंचाएगा? सारे सुख मिल जाएं, सारी व्यवस्था मिल जाए, तो भी मेरे भीतर कोई संगीत उत्पन्न होगा या नहीं होगा, मुझे कोई ऐसी कृतार्थता अनुभव होगी या नहीं कि मैं कहीं पहुंच गया और मैंने कुछ पा लिया? और अगर मृत्यु भी मेरे द्वार पर खड़ी हो जाए, तो भी मेरे भीतर एक संपदा होगी जो मृत्यु भी छीन नहीं सकेगी।
जब तक ऐसी संपदा का अनुभव न हो, जिसे मृत्यु भी छीनने में असमर्थ है, तब तक जानना चाहिए कि हमने जीवन व्यर्थ खोया, हमने जीवन के भीतर से कोई सार, कोई अनुभव, कोई उपलब्धि हम प्राप्त नहीं कर सके।
सिकंदर यहां भारत आया और जब वह यहां से, भारत से वापस लौटता था, तो उसे एक बात याद आई। जब वह यूनान से हिंदुस्तान की तरफ यात्रा पर आया था तो कुछ मित्रों ने उससे कहा था कि भारत से एक संन्यासी को लेते आना। भारत से जाते समय बहुत सी संपत्ति लूट कर वह ले जा रहा था, उसने सोचा एक संन्यासी भी ले चलें, यूनान में लोग देखना चाहेंगे और प्रसन्न होंगे, देख कर। संन्यासी शायद पूरब के मुल्कों को छोड़ और कहीं होता नहीं है। तो सिंकदर ने आस-पास अपने सिपाही भेजे, और पुछवाया कि कोई संन्यासी हो, तो मुझे खबर की जाए। गांव के बाहर तीस वर्षों से वृद्ध संन्यासी, नदी के किनारे निवास करता था। लोंगों ने कहाः वहां एक संन्यासी है, लेकिन उसे ले जाना कठिन है।
सिकंदर ने कहाः जिस आदमी को कुछ भी कठिन न रहा हो, और जिसने कभी किसी चीज को असंभव न माना हो, उसके लिए एक फकीर को ले जाना कठिन है, यह कैसी बात है? उसने अपने सिपाही भेजे और उस संन्यासी से कहलवाया कि सिपाहियों के पीछेे आ जाओ, वरना ठीक नहीं होगा। सिपाहियों ने जा कर संन्यासी को कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है, कि आप हमारे साथ यूनान चलें। वह संन्यासी हंसने लगा और उसने कहा कि मैं जिस दिन संन्यासी हुआ, उसी दिन मैंने अपने सिवाय और सबकी आज्ञाएं मानना बंद कर दिया। सिपाहियों ने कहाः ये नंगी तलवारें देखते हैं, इसका एक ही परिणाम हो सकता है कि आपकी हत्या कर दी जाए। उस संन्यासी ने कहा, अब मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जो हत्या से छिन सकेगा। और जो मेरे पास है, उसे कोई मृत्यु मुझसे छीनने में असमर्थ है। तो तुम जाओ और सिंकदर को कहो कि अब तक तुम जिन पहाड़ों के सामने खड़े हुए होंगे, उनको पार किया जा सकता था, आज एक ऐसे आदमी के सामने खड़े हो, जिसे मार कर कुछ भी नहीं छीना जा सकता और जिसको मार कर कोई संपत्ति जिसकी नुकसान नहीं पहुंचाई जा सकती, कोई ऐसी संपदा भी है जो तलवार से नष्ट नहीं होती।
सिकंदर खुद उससे मिलने गया। और उसने कहा, यह बातचीत मत करो, ज्ञान की बातचीत का मेरे सामने कोई अर्थ नहीं है। हम तो एक ही तलवार की भाषा जानते हैं, या तो राजी हो जाओ या मरने को राजी हो जाओ। उस संन्यासी ने कहा, बेहतर है कि आप अपनी तलवार उठा लें, और जो आप करना चाहते हैं करें। जिस भांति आप देखेंगे कि आपने मुझे मारा, उसी भांति मैं भी देखूंगा कि मुझे मारा गया। उस संन्यासी ने कहा जिस भांति आप देेखेंगे कि शरीर से सिर अलग हो गया, उसी भांति मैं भी देखूंगा कि शरीर से सिर अलग हो गया। क्योंकि मैं शरीर से पृथक और अलग हूं।
सिकंदर अपनी तलवार को वापस रख लिया और लौट गया। और बाद में उसने अपने मित्रों को कहा, फकीरों को लाया जा सकता था, बहुत से लाए जा सकते थे, लेकिन जो सच में संन्यासी था, उसे लाना कठिन था। क्योंकि उसे भय दिलाना कठिन था। जो मनुष्य भयभीत है, जानना चाहिए उसे अभी जीवन का कोई पता नहीं चला। क्योंकि जिसे जीवन का पता चलेगा, अनिवार्यरूपेण उसके भीतर भय विलीन हो जाएगा, वह अभय को फीयरलेसनेस को उपलब्ध होगा। जो आदमी भयभीत है, उसने अभी केवल अपने शरीर को जाना है और शरीर की मृत्यु निश्चित है, इसलिए भीतर भय अनिवार्य है। जब तक हम यह अनुभव करेंगे कि हम शरीर हैं, और यह अनुभव करेंगे कि शरीर की मृत्यु है, तब तक बहुत स्वाभाविक है कि भीतर एक भय, चैबीस घंटे जाने-अनजाने हमारे भीतर उपस्थित रहे और वह भय यदि बना रहे तो उसके परिणाम में चिंता होगी, पीड़ा होगी, बेचैनी होगी, मानसिक तनाव होगा। और किसी तरह की शांति और किसी तरह का संगीत संभव नहीं रह जाएगा। यही कारण है कि जमीन पर अरबों लोग हैं, लेकिन शांति को और संगीत को उपलब्ध लोग खोजने कठिन हो गए। उनके भीतर एक भय है, हम सारे लोगों के भीतर एक भय है; अगर हम भीतर झांकेंगे तो हमें ज्ञात होगा कि हम सब भयभीत और सब कंप रहे हैं।
किरकिर गार्न ने एक किताब लिखी है, और किताब का नाम रखा हैः ट्रेम्बलिंग। किताब का नाम रखा है, कंपना और घबड़ाना। और उसने लिखा है कि हर आदमी अगर अपने भीतर झांक कर देख्ेागा तो कंप रहा है और घबड़ा रहा है। और इसी वजह से हम अपने भीतर देखना पसंद भी नहीं करते। हम पसंद करते हैं, बाहर उलझे रहें, कोई आदमी दुकान में उलझा रहे, कोई आदमी किसी और काम में उलझा रहे, कोई आदमी मंदिर में उलझा रहे, कोई आदमी धन कमाने में उलझा रहे, कोई आदमी यश कमाने में उलझा रहे, लेकिन हम बाहर उलझे रहें, कहीं भीतर, कहीं भीतर के कंपते हुए मनुष्य का घबड़ाई हुई चेतना का हमें पता न चल जाए, इसलिए हम एकांत से भी डरते हैं। अकेले में हम नहीं रहना चाहेंगे।
अभी मैं एक जगह ठहरा, एक पहाड़ी पर। एक बिलकुल अकेली जगह थी, मैंने उस गांव के लोगों से कहा कि कौन-कौन इस पहाड़ी पर अकेले में ठहरने को राजी होगा? वे बोले, अकेले हम नहीं ठहर सकते, दस-बीस लोग यहां हों, तो हम यहां ठहर सकते हैं। मैंने उनसे पूछा अकेले में ठहरने में भय क्या है? अगर बहुत गहरे में देखें, तो अकेले में होने में डर है, क्योंकि अकेले में अपना सामना हो जाएगा। हम अपने को देख लेंगे या अपने से कोई परिचय हो जाएगा। अपने से परिचित होने में हम डरते हैं, क्योंकि भीतर सिवाय कंपन, और भय, और चिंता, और बेचैनी के, कुछ भी नहीं है। भीतर एक रुग्ण मनुष्य है, भीतर एक बीमार चेतना है, उस बीमार चेतना से बचने के लिए हम बाहर भागे रहते हैं। जैसे कोई बीमार आदमी वस्त्रों में अपने शरीर को छिपा ले, जैसे कोई कोढ़ से भरा हुआ आदमी सुंदर वस्त्रों में अपने कोढ़ के धब्बों को छिपा ले और भूल जाए कि वह कोढ़ी है। वैसी ही स्थिति हम सारे लोगों की है। हम सारे लोग भीतर भयभीत, अत्यंत चिंता से भरे हुए, अत्यंत कंपते हुए, घबड़ाए हुए लोग हैं। और इस घबड़ाहट को, इस चिंता को बचाने के लिए बाहर की दुनिया में अपने को खोए रखने के कोई न कोई उपाय खोज लेते हैं।
यह स्थिति हमारे भीतर मृत्यु की जो सन्निकट संभावना है, उसके कारण पैदा होती है। और हर आदमी जन्म के बाद बहुत गहरे में जानता है कि मरना होगा। रोज चारों तरफ मृत्यु घटित हो रही है, रोज सूखे हुए पत्ते कुम्हला कर गिर रहे हैं, रोज सूखे हुए फूल अलग किए जा रहे हैं। और रोज सब परिवर्तित होता जा रहा है, जो भी जन्मता है वह मर जाता है। इसे हम जानते हैं, इसे हम रोज प्रत्यक्ष कर रहे हैं। हम भीतर इस सत्य से परिचित हैं भलीभांति कि हमें मरना होगा। उस मृत्यु को भुलाए रखने के लिए हम बहुत उपाय करते हैं, लेकिन मृत्यु को भूला तो जा सकता है, लेकिन बचा नहीं जा सकता। मृत्यु को भूले रह सकते हैं, लेकिन बचना असंभव है। इसलिए उचित है, जो जानते हैं, जो समझते हैं, जो विचार करते हैं; वे मृत्यु से बचना बंद कर देते हैं, उसका साक्षातकार करते हैं।
और यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो व्यक्ति मृत्यु का साक्षात करने के लिए तत्पर हो जाता है, वह जीवन के साक्षात को उपलब्ध हो जाता है। यह बड़ी विरोधी बात दिखाई पड़ेगी, लेकिन जो आदमी जीवित होने के लिए बहुत उत्सुक है और जीवन को बहुत जोर से पकड़ता है, वह आदमी जीवन को खो देता है, और उसके अंतिम परिणाम में मृत्यु के सिवाय उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता। और जो आदमी इस सत्य को अनुभव करके कि मृत्यु निश्चित है, और स्मरण रखें मृत्यु के अतिरिक्त और सब अनिश्चित है, और स्मरण रखें कि एक ही तथ्य निश्चित है, और वह मृत्यु है। आज तक इस जमीन पर मनुष्य के लंबे इतिहास में, यह पूरी प्रकृति के जीवों के इतिहास में मृत्यु के अतिरिक्त और कोई भी तथ्य सुनिश्चित नहीं है। उस सुनिश्चित तथ्य को जो इंकार करता है, भुलाना चाहता है, उससे पलायन करना चाहता है, उसको हटा देना चाहता है, आंखों से ओझल कर देना चाहता है, वह मनुष्य भूल में है, वह मनुष्य बहुत गहरी भूल में है और उसके जीवन में जो संभव हो सकता था, जो क्रांति, जो अनुभव, जो साक्षात उससे वंचित रह जाएगा।
इस सुनिश्चित तथ्य को पकड़ना होगा। क्योंकि जो सुनिश्चित है, उसी को पकड़ कर हम सच्चे आधार पर पैर रख सकते हैं। स्मरण रखें, जो अनिश्चित है उसको पकड़ने वाला, भूल में होगा। जो निश्चित है, जो उसे ही पकड़ लेता है, वही ठीक-ठीक आधार पर पैर रखता है, इसलिए जो लोग मृत्यु से बचने की चेष्टा में लगे रहते हैं, वे अनिश्चित को पकड़ते रहते हैं, वे हवाओं को पकड़ते रहते हैं, वे मुट्ठियां बाध्ंाते रहते हैं, और सोचते हैं कि उनकी मुट्ठियों में कुछ बंद हो जाएगा। आखिर में वे पाएंगे कि मुट्ठियां खाली हैं और जीवन का अवसर व्यतीत हो गया है। लेकिन जो सुनिश्चित को पकड़ता है, और एक ही सरटेनटी है, एक ही सत्य है जो बिलकुल निश्चित है, वह मेरी मृत्यु है। या आपकी मृत्यु है, जो इस सत्य को ही पकड़ लेता है, और इसी पर अपने पैर रखता है, और इसी में प्रवेश करता है, वह मनुष्य सत्य के साक्षात को उपलब्ध हो जाता है। सत्य के साक्षात के लिए सुनिश्चित तथ्य से यात्रा करनी आवश्यक है। अनिश्चित तथ्यों से जो यात्रा करेगा वह सत्य पर नहीं पहुंच सकता है।
अगर हम सत्य के प्रति कभी उत्सुक भी होते हैं, तो जाकर मंदिर में प्रार्थना करते हैं, भगवान की पूजा करते हैं। भगवान के किसी रूप की आराधना करते हैं। कोई शास्त्र पढ़ते हैं, किसी शास्त्र को कंठस्थ करते हैं, किसी परमात्मा के नाम का स्मरण करते हैं और माला फेरते हैं। या कुछ और उपाय करते हैं। लेकिन ये सारे उपाय अगर हम मन में बहुत गहरे खोजेंगे, अनिश्चित उपाय हैं। निश्चित उपाय तो एक है कि हम अपनी मृत्यु के तथ्य को स्वीकार करें, जाने, पहचाने और उसमें प्रवेश करें। धर्म मृत्यु में प्रवेश का विज्ञान है। और यह आश्चर्य की...जैसा कि मैंने बात आपसे कही जो मृत्यु के इस विज्ञान में प्रविष्ट होता है, वह जीवन को उपलब्ध हो जाता है।
क्राइस्ट का एक बहुत अदभुत वचन है, जो जीवन को खोजेगा वह खो देगा और जो जीवन को खोने को राजी हो जाता है, वह जीवन को पा लेता है। बूंद जब अपने को सागर में खो देती है, तो पूरे सागर को पा लेती है, और बूंद अगर अपने को बचाने के प्रयास में लग जाए तो सिवाय इसके कि धूप उसे सुखा दे और उड़ा दे, और कोई उपाय नहीं है। हम अपने पर विचार करें तो दो ही तरह के लोग हम अपने भीतर पाऐंगे, एक तो वे लोग हैं जो भीतर के भय को, चिंता को, घबड़ाहट को, दबा कर, चुपचाप किसी भांति भुला कर बाहर की दुनिया में अपने मन को तल्लीन रख कर इस दुनिया को सोए हुए गुजर जाना चाहते हैं। एक मूर्छा में इस दुनिया से गुजर जाना चाहते हैं। आंख खोल कर देखने में उन्हें डर है।
दूसरे वे लोग हैं, जो चाहे तथ्य कितने ही घबड़ाने वाले क्यों न हों और चाहे जीवन की सच्चाइयां कितनी ही बेचैन करने वाली क्यों न हों, और चाहे कितने ही साहस की और दुस्साहस की जरूरत क्यों न पड़ जाए, लेकिन जो तथ्य है उसे देखना चाहते हैं, उससे परिचित होना चाहते हैं, उसके भीतर आंख डालना चाहते हैं, और उसके भीतर प्रवेश करना चाहते हैं। उन लोगों को मैं धार्मिक लोग कहता हूं, उन आत्माओं को मैं धर्म की तरफ उत्सुक आत्माएं कहता हूं, जो जीवन की सच्चाइयों को जैसी वे हैं, वैसे ही उनको देखने के लिए उत्सुक होते हैं। निश्चित ही इसके लिए बड़े साहस की जरूरत है, क्योंकि अपने भीतर के भय को अनुभव करने के लिए और अपने भय के भीतर प्रवेश करने के लिए और अपने भय के भीतर के भय को जीतने के लिए बड़े साहस की, बड़े दुस्साहस की जरूरत है, इसलिए कोई यह न सोचे कि धर्म कोई बूढ़े और गुजरे हुए लोगों का काम है।
धर्म है उन सबका काम जिनके भीतर थोड़ी भी ऊर्जा है, थोड़ी भी शक्ति है, थोड़ा भी साहस है। और जिन्हें थोड़ी भी इच्छा है कि वे परीक्षा करें अपने, अपने जीवन की और जानने की आकांक्षा करें। धर्म उनके लिए है जिनके भीतर जिज्ञासा है, जिनके भीतर इंक्वायरी है, जो खोजना चाहते हैं, और जो मात्र जीने से संतुष्ट नहीं हैं। जो मात्र जीने से संतुष्ट है, वह पशु के तल से ऊपर नहीं उठा। लेकिन जो जीवन को जानना भी चाहता है, और बिना जाने जीवन को जीने से इनकार कर देगा, जो इस बात के बाबत सुनिश्चित होना चाहता है कि मैं क्यों हूं? मेरे होने का क्या अर्थ है? मेरे होने की क्या जरूरत है? मेरे होने का क्या प्रयोजन है? जो इस सत्य को खोजना चाहता है, और ऐसा कोई भी मन नहीं है, जो किसी न किसी रूप में इस सत्य को न खोजना चाहता हो। क्योंकि बिना इस सत्य को खोजे हुए, कोई सुनिश्चित नहीं हो सकता, कोई शांत नहीं हो सकता। कोई आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता।
हम सारे लोग ही, चाहें दिशाएं हमारी गलत हों, किसी सुनिश्चित भूमि को खोजने के लिए लगे हुए हैं। चाहे कोई धन खोज रहा हो, चाहे कोई और कुछ खोज रहा हो, लेकिन हमारी खोज बहुत गहरे में इसी बात के लिए है कि हम कोई ऐसी चीज पा लें, जो हमसे छीनी न जा सके। हम कोई ऐसा आधार पा लें, जो हमारे पैर के नीचे से हटाया न जा सके। हम कोई ऐसी सुनिश्चित भूमिका पर खड़े हो जाएं, जो नष्ट न हो सके। हम किसी न किसी रूप में कोई अमृत बिंदु पाना चाहते हैं। और मृत्यु के ऊपर उठना चाहते हैं, लेकिन हम जो भी उपाय करेंगे, वे उपाय ऐसे हैं कि मृत्यु उन्हें झूठा कर देती है। मृत्यु उन्हें नष्ट कर देती है।
लाहौर के पास नानक एक गांव में गए। उनकी एक कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर है। वह एक गांव में ठहरे, उस गांव में जो सबसे बड़ा धनपति था, उसने आ कर नानक के पैर छुए। और नानक से कहा कि मेरे पास बहुत धन है, बहुत धन है, मेरा कोई पुत्र नहीं, मैं इस सारे धन को धर्म के काम में लगा देना चाहता हूं। नानक ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उसने कहा, पहली तो बात तुम यह ही समझ लो कि धन का और धर्म का कोई संबंध नहीं है। तुम्हें अगर यह खयाल है कि तुम्हारे पास बहुत धन है, तो पहली तो ये ही अयोग्यता हो गई तुम्हारे धर्म को जानने की। और फिर जैसा मैं तुम्हें देखता हूं, मुझे लगता हैतुम बिलकुल निर्धन आदमी हो, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने कहाः मेरे कपड़ों पर न जाएं। मैं सीधा-साधा आदमी हूं, लेकिन धन मेरे पास बहुत है। आप आज्ञा दें तो मैं दिखाऊं कि मेरे पास क्या है? नानक ने कहा अब तुम जब मानते नहीं, तो मैं एक छोटा सा काम, तुम्हें देता हूं। इसे तुम कर लेना, फिर कोई बड़ा काम होगा तो मैं जरूर बताऊंगा। अगर यह काम हो गया, तो बड़ा काम भी बताऊंगा। क्योंकि मुझे साबित हो जाएगा कि तुम्हारे पास शक्ति है, संपत्ति है।
और नानक ने एक कपड़ा सीने की छोटी सी सुई निकाल कर उस आदमी को दी और कहा इसे सम्हाल कर रख लो, और जब हम दोनों मर जाएं तो इसे वापस कर देना। वह आदमी बहुत हैरान हुआ होगा, नानक ने भी कैसी पागल बात कही? कैसे पागलपन की बात कही। मरने के बाद सुई को कैसे वापस किया जा सकेगा। माना कि सुई बहुत छोटी चीज है, मान लिया कि इससे और छोटी चीज खोजनी कठिन है। लेकिन मौत के पार इसको ले जाना असंभव है। पर वहां और भी लोग थे और उन सबके सामने नानक से कुछ कहना ठीक न समझ कर वह आदमी वापस लौट गया। रात उसने मित्र इकट्ठे किए, उनसे पूछा। उनसे कहा कि मैं अपनी पूरी संपत्ति लगाने को राजी हूं, कोई रास्ता हो कि मैं सुई को पार ले जा सकूं ताकि नानक के सामने यह सिद्ध हो जाए कि मेरे पास संपत्ति थी। मेरे पास शक्ति थी।
मित्रों ने कहाः और सब हो जाए, तुम्हारी संपत्ति से, इस सुई को मृत्यु के पार ले जाना कठिन है। कुछ भी नहीं ले जाया जा सकता। मौत सब छीन लेगी। असल में मुट्ठी कैसी भी बांधी जाए, मुट्ठी इस पार रह जाएगी और मौत सब छीन लेगी। दूसरे दिन सुबह चार बजे जब कि कोई भी नहीं था, नानक के पास जा कर उस आदमी ने सुई वापस कर दी और कहा कि मुझे क्षमा करें, मेरी संपत्ति की यह सामथ्र्य नहीं है। तो नानक ने कहा फिर तुम्हारी संपत्ति किस मूल्य की है और क्या उसका अर्थ है? जिस चीज को मृत्यु छीन लेगी, तुम उसी से मृत्यु से बचने की कोशिश में लगे हो तो भूल में हो। जिस चीज को मृत्यु छीन लेती है, उसी से हम मृत्यु के विरोध में अगर किला बना रहे हों, तो हम पागल हैं। और जो मृत्यु नष्ट कर देगी, उसके ही द्वारा हम अपने भीतर सुनिश्चित होना चाहते हों, और एक आधार खोजना चाहते हों, अमृत आधार खोजना चाहते हों तो हम गलती में हैं।
नानक ने कहा संपदा वही है जिसे मृत्यु जलाने में असमर्थ हो। जो मृत्यु की लपटों से बच जाए, वही केवल संपत्ति है। और निश्चित ही, वही संपत्ति है, जो छीनी न जा सके। जो छीनी जा सके वह संपत्ति नहीं है। क्योंकि तब आप संपत्तिशाली नहीं है, केवल संपत्ति के आवरण में छिपे हुए दरिद्र भिखारी हैं। संपत्ति के वस्त्र हैं और भीतर भिखारी खड़ा हुआ है। और आज, इसी वक्त आप भिखारी किए जा सकते हैं, संपत्ति छीनी जा सकती है। और मृत्यु तो निश्चित भिखारी कर देगी। और यह भी स्मरण रखें कि जो आदमी जितनी ज्यादा संपत्ति इकट्ठी करता जाता है, उतना ही उसका भिखमंगापन बढ़ता चला जाता है। और उसकी मांग बढ़ती चली जाती है। और उसका इकट्ठा करने का खयाल बढ़ता चला जाता है। पांच हों तो दस चाहिएं, दस हों तो हजार चाहिए, हजार हों तो और कुछ चाहिए, उसकी भिक्षा का कोई अंत नहीं है, उसकी भीख का कोई अंत नहीं है।
एक हिंदू संन्यासी अमरीका में था। और हमेशा अपने को बादशाह कहता था। जब भी कोई पूछता, तो अपने को हमेशा बादशाह कहता। अमरीका का प्रेसिडेंट उन्नीस सौ बीस में उससे मिलने आया। अमरीका के प्रेसिडेंट ने उससे कहाः यह कैसी बात है कि तुम अपने को बादशाह कहते हो? तुम्हारे पास लंगोटी के सिवाय और कुछ भी नहीं है? तो संन्यासी ने कहाः इसलिए अपने को बादशाह कहता हूं क्योंकि मेरी कोई मांग नहीं है। मैं भिखारी नहीं हूं। मेरी इस दुनिया से कोई भी मांग नहीं है। और मैं उन लोगों को भिखारी कहूंगा, जिनकी इस दुनिया से बहुत मांग है। और जिसकी जितनी बड़ी मांग है वह उतना बड़ा भिखारी है।
संपत्ति को हम कितना ही खोजें, हमारा भिखमंगापन मिटता नहीं है। केवल ढक जाता है--संपत्ति के वस्त्रों में, यश के वस्त्रों में, बड़े पद के वस्त्रों में। बड़ी महत्वकांक्षाओं में हम भूल जाते हैं कि हम भिखारी हैं, लेकिन भिखारी भीतर जिंदा रहता हैं। जरा ही हम अपने वस्त्रों को फाड़ कर देखें, हम पाएंगे भीतर भिखारी मौजूद है, कंप रहा है, घबड़ा रहा है, उसके पास कोई संपदा नहीं है, वह बिलकुल निर्धन है। इसलिए यह देखने में आया, मनुष्य के अनुभव में आया कि ऐसे संपदाशाली हमने देखे जिनके पास कुछ भी नहीं था और ऐसे भिखमंगे देखे जिनके पास सब कुछ था।
बुद्ध एक गांव में गए, उस गांव के राजा ने अपने वजीरों से सलाह ली कि बुद्ध आते हैं तो मैं उनका स्वागत करने गांव के बाहर जाऊं या न जाऊं । उनके एक वजीर ने कहा, आपका जाना शोभायुक्त नहीं है। एक भिखमंगा गांव में आता हो और एक बादशाह उसका स्वागत करने जाए, यह बात कुछ ठीक नहीं है। यह बात उस दरबार का जो पहरेदार था, एक बूढ़ा पहरेदार था, गरीब आदमी, वह यह बात सुनकर हंसने लगा। उस राजा ने उससे पूछा, तुम हंसे क्यों? यह बात अशोभन थी, शिष्टाचार के विरोध में थी कि एक दरबान हंस दे राजदरबार की बात सुन कर। उस बूढ़े आदमी ने कहा, मुझे हंसी आ गई। मुझे हंसी इसलिए आ गई कि जो आ रहा है, उसके पास बहुत संपत्ति है। और आप जो सोच रहे हैं कि मैं राजा हूं, मैं कैसे उसके स्वागत को जाऊं, आप भ्रांति में हैं और गलती में हैं। अगर मुझसे पूछते हैं, तो धनवान वह है और निर्धन आप हैं! और उचित है कि आप जाएं और उस दिखने वाले निर्धन का स्वागत करें, जो कि वस्तुतः धनवान है। राजा ने पूछा ऐसा तुमने किस हिम्मत से कहा? तो उस बूढ़े आदमी ने कहा कि जो तुम्हारे पास है, उससे बहुत ज्यादा उनके पास था, लेकिन वह उनको व्यर्थ दिखाई पड़ा। वह उन्हें व्यर्थ दिखाई पड़ा, उसमें उन्हें संपदा नहीं मालूम हुई। संपदा कहीं और दिखाई पड़ी, उसकी वह खोज में गए और उसको पाकर लौट रहे हैं। अब उनकी खोज समाप्त हो गई है। अब उन्हें पाने को कुछ भी शेष नहीं रह गया।
संपत्ति केवल वही है, जिसे पाने के बाद फिर पाने को कुछ शेष न रह जाए। और जो संपत्ति पाने से और संपत्ति की आकांक्षा बढ़े वह संपत्ति नहीं है विपत्ति है। जिससे और भिखमंगापन बढ़ता चला जाए, वह कोई उपलब्धि नहीं है, वह कोई पाना नहीं है, वह कोई प्राप्ति नहीं है। प्राप्ति वह है, जिसे पा लेने पर, फिर और पाने का प्रश्न न रह जाए। अगर मुझे प्यास लगे और मैं पानी पियंू और पानी पीने से और प्यास बढ़ती चली जाए तो उस पानी को हम पानी कहेंगे, या कि उसे और प्यास को बढ़ाने वाली बीमारी कहेंगे? पानी तो वही है, जिसे मैं पियूं और मेरी प्यास बुझ जाए।
क्राइस्ट एक गांव से गए, उन्हें प्यास लगी, उन्होंने कुएं पर पानी भरती एक स्त्री से कहा, कि मुझे पानी पिला दो। उस स्त्री ने उन्हें देखा, वे दूसरे गांव के थे, दूसरी जाति के थे उसने कहा क्षमा करें, हम दूसरे गांव के और दूसरी जाति के लोगों को पानी नहीं पिलाया करते। क्राइस्ट हंसने लगे, और उसने कहा कि पागल तू जो पानी पिलाएगी, उस पानी को पी लेने के बाद फिर प्यास लग आती है, लेकिन एक पानी हम भी पिलाते हैं, जिसको पिलाने के बाद फिर कोई प्यास नहीं लगती। तो तेरे बहुत सस्ते पानी के बदले में हम उस पानी की बात भी तुझे बता देंगे, उसके मार्ग, उसकी चर्चा भी करेंगे जिसको पी लेने के बाद फिर कोई प्यास नहीं लगती।
ऐसा पानी है, जिसे पीने के बाद फिर प्यास नहीं लगती। और ऐसी संपदा है, जिसे पाने के बाद फिर और संपदा पाने का खयाल नहीं रह जाता। और एक ऐसा जीवन है, जिसे पाने के बाद मृत्यु का भय विलीन हो जाता है। उसको पाने का मार्ग धर्म है। तो धर्म से मेरा अर्थ कोई जैन, हिंदू, मुसलमान, ईसाई से नहीं है; धर्म से मेरा अर्थ है जीवन के सत्य को पाने का मार्ग। एक दौड़ जो हमें बाहर ले जाती है, वह कभी भी हमें उस तक नहीं पहुंचा पाती, उस संपदा तक, जिसकी मैं बात कर रहा हूं। लेकिन एक और गति भी है,अपने भीतर जाने की गति भी है, और अगर हम अपने भीतर जा सकें, इस क्षण भी अगर हम आंख बंद करें और अनुभव करें तो हम में से शायद ही कोई यह कह सके कि मैं शरीर हूं! ऐसा आदमी आज तक नहीं पैदा हुआ, जिसने सच में आंख बंद की हों और भीतर देखा हो और अनुभव किया हो और जो यह कह दे कि मैं शरीर हूं।
रात आप गहरी नींद में सो जाते हैं, शरीर का तो पता भी नहीं रहता। आप तो होते हैं, लेकिन शरीर का कोई पता नहीं रह जाता। जब बहुत गहरी नींद होती है, तो आपको अपने नाम का भी पता नहीं रह जाता। आपको यह भी पता नहीं रह जाता कि आप धनवान हैं कि निर्धन हैं, कि ज्ञानी हैं, कि अज्ञानी हैं, कि संन्यासी हैं, कि गृहस्थ है; आप कौन हैं इसका भी पता नहीं रह जाता। आप तो होते हैं, लेकिन ये सारी बातें ऊपर छूट जाती हैं, आप किसी भीतर के केंद्र पर पहंुच जाते हैं। जहां इनकी कोई भी खबर नहीं। अगर आपको बेहोश कर दिया जाए, और आपके हाथ-पैर काट डाले जाएं, तो आपको उनका भी पता नहीं चलता। आप होते हैं, लेकिन उनका कोई पता नहीं चलता। मनुष्य का होना उसके शरीर के होने से भिन्न है।
मनुष्य की सत्ता, जीवन की सत्ता उसकी देह की सत्ता से बहुत भिन्न और बहुत ऊपर और बहुत पृथक बात है। यदि हम भीतर चलें, और भीतर हम तभी चल सकते हैं, जब हमें यह एक भ्रम हमारा टूट जाए कि बाहर कुछ पाने जैसा है। जिस आदमी का यह भ्रम कायम है कि मैं बाहर कुछ पा लूंगा, इसको मैं संपत्ति का भ्रम कहता हूं, चाहे वह संपत्ति किसी रूप की हो। जिस आदमी को यह भ्रम कायम है कि बाहर मैं कुछ पा लूंगा, वह भीतर की यात्रा नहीं कर सकता। यह भ्रम टूटना चाहिए। और यह भ्रम टूट सकता है। अगर हम आंख खोलें और चारों तरफ जीवन को देखें तो यह भ्रम टूट सकता है। यह टूटेगा। अगर हमारी आंख खुली हो। और यदि हमारा यह भ्रम टूट जाए, और यह सबसे बड़ी घटना है, सबसे सौभाग्य की कि किसी आदमी का यह भ्रम टूट जाए कि बाहर कुछ भी पाया जा सकता है जो कि सुनिश्चित आधार बन सके। चारों तरफ आप देख रहे हैं, बाहर का सब पाना छूट जाता है, मनुष्य रिक्त, नष्ट हो जाता है।
यह अगर आपके मन में गहरा प्रविष्ट हो जाए, तो बाहर की दौड़ एक नया रूप, एक नई दिशा ले लेती है। और वह दौड़ और दिशा यह होती है कि मैं अपने भीतर खोजूं। यदि बाहर कोई भी उपाय नहीं है, सत्य को, सच्चाई को, वास्तविक को, सुनिश्चित को, अमृत को या अनंत को पाने का, तो मैं भीतर झाकूं। दो ही तो दिशाएं हैं, एक तो बाहर का जगत है, और एक भीतर जगत है। बाहर का भ्रम टूट जाए, तो भीतर की यात्रा शुरू होती।
याज्ञवल्क्य एक ऋषि हुआ, छोड़ कर जा रहा था, घर को। बहुत धन उसने इकट्ठा किया था। बहुत बड़ा विवादी था, बहुत बड़ा पंडित था। बहुत बड़े-बड़े विवाद उसने जीते, बहुत बड़े-बड़े पुरस्कार जीते। और उसने अपने आश्रम में बहुत सोने के अंबार लगा दिए। विवाद में उसकी अदभुत कुशलता थी, पांडित्य उसका बड़ा था। जहां भी गया, वहीं से विजयी होकर लौटा। लेकिन जीवन के अंत में उसे पता चला कि इस विजय के धोखे में बहुत बड़ी हार हो गई। एक विवाद से लौट रहा था, तब उसे ज्ञात हुआ। एक बहुत बड़े राजा ने एक बहुत बड़ा विवाद आयोजित किया था और कहा था कि जो पंडित वहां इकट्ठे पंडितों के सारे प्रश्नों के उत्तर दे देगा, उसे एक हजार गऊएं, जिनके सींगों पर स्वर्ण मंढ़ा था, और जिनके ऊपर वस्त्र डाले गए थे, जिनमें हीरे-मोती लटकाए गए थे, वे उसे भेंट में मिल जाएंगी। वे एक हजार गऊएं उस राजा ने द्वार पर खड़ी कर रखी थीं, राज महल के, लाखों रूपये उन गऊओं पर लटका दिए गए थे, और हजारों पंडित पूरे देश से इकट्ठे हुए थे। उन पंडितों के बीच किसी की हिम्मत भी न थी कि खड़ा हो और कहे कि मैं दावा करता हूं विवाद में प्रतियोगी होने का। याज्ञवल्क्य सबसे पीछे पहंुचा,उसके साथ उसका एक शिष्य था, उसने द्वार पर जाकर कहा कि देखो गऊएं धूप में खड़े-खड़े थक गई हैं, पहले तुम इन्हें घर ले जाओ, विवाद हम बाद में कर लेंगे। उसने कहा पहले तुम इन्हें घर ले जाओ, पुरस्कार पहले ले जाओ, विवाद हम बाद में कर लेंगे। ऐसा आश्वस्त था। और उसका शिष्य गऊएं खदेड़ कर घर ले गया। और सारे पंडित देखते खड़े रह गए उनकी हिम्मत न हो रही थी कि कौन प्रतियोगी हो, और यह आदमी पीछे आया, इसने गऊएं पहले भेज दीं, और उसने राजा से कहा, चिंता न करें, विवाद हम बाद में जीत लेते हैं।
विवाद जीत कर वह घर लौटा, लेकिन घर लौट कर उसे अदभुत कुछ बात खयाल में आई, उसे लगा कि कितना ही मैं विवाद जीत लूं, सत्य का तो मुझे पता नहीं। विवाद तो मैं जीत आया, लेकिन सत्य का मुझे पता नहीं। और धन तो मैंने बहुत बटोर लिया, लेकिन उस धन की मुझे आज तक कोई सुगंध भी नहीं मिली, जो मुझसे छीना न जा सके। घर पहुंचते-पहंुचते वह उदास हो गया। उसकी पत्नी ने पूछा, उसकी दो पत्नियां थीं। उसने पूछा कि इतने उदास क्यों हों? उसने कहाः उदासी का कारण है, जीवन चुका जा रहा है, और मैं व्यर्थ विवाद जीतने में उसे नष्ट कर रहा हूं, और सत्य का मुझे कोई पता नहीं है और जीवन रिक्त होता जा रहा है, और मैं धन बटोर रहा हूं और वास्तविक धन का मुझे कुछ पता नहीं है। मौत द्वार पर आई जाती है, और अभी मेरे हाथ खाली हैं। तो आज में जाता हूं उसकी खोज में जो कि वास्तविक है, उसकी तलाश में जो कि सत्य है, उसके अनुसंधान में जो कि वास्तविक संपदा है। उसने अपनी सारी संपत्ति को दोनों पत्नियों में बांट दिया। पहली पत्नी ने वह संपत्ति स्वीकार कर ली, वह बहुत प्रसन्न हुई। बहुत संपदा थी, लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा, तुम देते हो, इसी कारण संपदा मेरे लिए व्यर्थ हो गई। उसने पूछाः क्यों? उसने कहा कि जब तुम इसे छोड़ कर जा रहे हो, तो मुझे समझ में आ गया कि इसमें कुछ पाने जैसा नहीं है। तुम्हारे पास यह संपदा थी और अगर इससे कुछ मिल सकता था, तो तुम्हें मिल गया होता। तुम चूंकि छोड़ कर जाते हो, मेरे लिए भी व्यर्थ हो गया। तो क्या उचित न होगा कि मैं भी उसका अनुसंधान करूं, जो कि संपदा से भी ऊपर है।
अगर हम जीवन में आंख खोल कर देखेंगे, तो हमें दिखाई पड़ेगा, वास्तविक मनुष्य का अनुसंधान उसके लिए है, जो संपदा से ऊपर है, जो कि वास्तविक संपदा है। और बाहर की दिशाओं में कहीं भी उसकी कोई उपलब्धि न कभी हुई है, और न कभी होगी। बाहर की दिशाओं में वह है ही नहीं। भीतर है, मनुष्य के जीवन के केंद्र पर है, परिधि पर नहीं है। उसका जो केंद्रीय स्वरूप है, वहां है, जिन्होंने वहां झांका है, उन्होंने कभी अस्वीकार नहीं किया कि वहां नहीं है, और जिन्होंने बाहर खोजा है, उनमें से एक ने भी कभी कहा नहीं कि वहां है। पूरे मनुष्य-जाति के अनुभव को आप अकेले गलत नहीं कर सकेंगे। कोई आदमी नहीं कर सका है।
मैं या आप कोई भी अपवाद नहीं हो सकते हैं। पांच-छह हजार वर्ष का ज्ञात अनुभव है, उसके पहले और हजारों वर्षों का अज्ञात अनुभव है, बाहर की दिशा में किसी भी मनुष्य को कभी भी कोई आनंद, कोई अमृत की उपलब्धि नहीं हुई है। और जिनको हुई है, उन्हें भीतर की दिशा में हुई है। इसलिए धर्म को मैं परम विज्ञान कहता हूं, उससे ज्यादा सुनिश्चित और कोई विज्ञान नहीं है, क्योंकि उसका कोई अपवाद आज तक उपलब्ध नहीं हुआ। कोई एक्सेप्शन आज तक धर्म का उपलब्ध नहीं हुआ है।
आज तक धर्म की अनुभूति बहुत सुनिश्चित आधारों पर खड़ी है, वह पहला बुनियादी आधार है, जिसकी मैंने आपसे चर्चा की, बाहर जो संपदा है, वह थोथी है और झूठी है, भीतर एक संपदा है, जो कि वास्तविक है। लेकिन उसकी खोज में पहला सूत्र होगा कि बाहर से हमारा भ्रम टूट जाए, एक डिसइलुजनमेंट की जरूरत है। बाहर से हमारा भ्रम खो जाए। बाहर का भ्रम खो जाए तो भीतर की यात्रा शुरू हो जाती है। किसी मंदिर में जाने की उतनी जरूरत नहीं है, सवाल है बाहर के भ्रम के टूट जाने का। जिसके बाहर का भ्रम टूट गया, वह जहां भी हो, वहीं मंदिर में प्रवेश हो जाएगा। और जिसके बाहर का भ्रम नहीं टूटा है, वह मंदिर में हो या कहीं भी हो वह किसी न किसी रूप में, जगत में और संसार में ही बैठा रहेगा, उसका मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। बाहर का, जिसका अभी आग्रह शेष है, और जिसे लगता है कि मुझे कुछ मिल सकता है, वहां। वहां मैं कुछ पा सकता हूं, कोई उपलब्धि हो सकती है, वह अभी मृत्यु के खिलाफ व्यर्थ ही लड़ रहा है। अभी उसकी खोज व्यर्थ और क्षुद्र की तरफ है, अभी वह विराट की तरफ और अनंत की तरफ नहीं जा सकेगा।
तो सबसे बड़ा सौभाग्य है कि बाहर की खोज व्यर्थ हो जाए। बहुत पीड़ा होगी, बहुत दुख होगा, हाथ खाली हो जाएंगे, और सब होते हुए भी कुछ भी मालूम नहीं होगा, बहुत उदासी आएगी, बहुत संकट मालूम होगा, बहुत संताप में चित्त घिर जाएगा, लेकिन यह संताप, यह अतृप्ति, यह उदासी, यह घबड़ाहट, यह बेचैनी ही, उस द्वार में प्रवेश देती है, जहां कि इस सबका विनाश हो जाता है। और हम शांति को, और सत्य को, और सपंदा को उपलब्ध होते हैं। कोई पूछे कि बाहर का भ्रम अगर टूट गया, तो भीतर जाने के लिए क्या करेंगे? मेेरे अनुभव में बड़ी अदभुत सी बात आती है, अगर बाहर का भ्रम टूट जाए, सिर्फ बाहर का भ्रम टूट जाए तो आप पाएंगे कि आप भीतर पहंुच गए हैं। भीतर जाने के लिए कुछ भी नहीं करना होता। क्योंकि भीतर कोई यात्रा के लिए जगह नहीं है। भीतर तो आप हैं। अगर बाहर का पूरा भ्रम टूट जाए तो आप एक झटके में, एक क्रांति की तरह, एक विस्फोट की तरह पाएंगे कि आप भीतर खड़े हैं। भीतर आप निरंतर खड़े रहे हैं, लेकिन बाहर आंखें भटकती रहीं हैं, इसलिए भीतर जाने की, भीतर पहुंचने की, भीतर की यात्रा का प्रारंभ नहीं हो पाया। जैसे कोई आदमी सोया हो, सपने देख रहा हो; यहां सोए पाटन में और सपने देख रहा हो, दूर के, दूर नगरों के; सपनों में सोचे कि इतनी दूर निकल आया हूं, वापस कैसे जाऊंगा? और कोई उसे हिला दे और जगा दे, और वह पाए कि वह पाटन में है और दूर नहीं था। वैसे ही हमने बाहर की यात्रा की है, मन में कल्पनाओं में, विचारों में, हम भीतर मौजूद हैं, अभी भी। कोई कहीं भी हो, वह अपने भीतर को खो नहीं सकता। वह अपने अंतःसत्व को खो नहीं सकता, वह अपने स्वरूप को खो नहीं सकता, लेकिन बाहर की कल्पना है, स्वप्न हैं, विचार हैं, अगर इनका भ्रम टूट जाए, तो वह हड़बड़ा कर पाएगा कि वह भीतर खड़ा है।
अगर संसार का भ्रम टूट जाए तो हम पायेंगे कि हम परमात्मा में प्रतिष्ठित हैं। और तब एक क्रांति हो जाती है, और तब जीवन में एक आनंद का और एक प्रेम का प्रवाह शुरू हो जाता है। और तब जीवन में मृत्यु का भय विलीन हो जाता है, और जहां भय विलीन है, वहां चित्त मुक्त है। और जहंा भय शून्य है, वहां चित्त परमात्मा में संलग्न है। और जहां भय शून्य है, जहां मृत्यु विसर्जित हो गई, वहां हम अमृत में खड़े हैं। अमृत में खड़े हो जाना, स्वरूप में खड़े हो जाना है। स्वरूप में पहुंच जाना, जीवन को अनुभव करना है। इस जीवन को यदि हम अनुभव न करें, तो हम गलते हैं और धीरे-धीरे मरते हैं। इसे मैं जीवन कहने को राजी नहीं हूं।
एक-दो छोटी सी कहानियां कहूंगा और अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
इसे मैं जीवन कहने को राजी नहीं हूं। और मैं आपको असंतुष्ट करना चाहूंगा। साधारणतः लोग कहते हैं कि धर्म संतोष देता है, मैं कहता हूं कि धर्म बहुत गहरा असंतोष है। संतोष तो उसके बाद में उपलब्ध होगा। प्राथमिक रूप से तो धर्म बहुत गहरा डिस्कनटेंट है, बहुत गहरा असंतोष है। तो मैं तो असंतोष देना चाहता हूं। साधारणतः लोग कहते हैं कि धर्म आनंद देता है। और मैं तो चाहता हूं कि पहले दुख उपलब्ध हो, तो आनंद उपलब्ध होगा। यह जीवन का दुख अनुभव में आए, इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि जिसे आप जीवन समझते हैं, वह जीवन नहीं है। वह एक लंबी मौत है। हम धीरे-धीरे मरते जा रहे हैं। मैं जिस दिन पैदा हुआ, उस दिन से मरना शुरू हो गया हूं। रोज-रोज मर रहा हूं, आप भी मर रहे हैं। इतनी देर घंटे भर हम यहां बैठे, घंटे भर हम मर गए। हमने घंटे भर और जीवन खो दिया। हम रोज-रोज मरते जा रहे हैं। हम प्रति घड़ी मरने के करीब सरकते जा रहे हैं। इसको कैसे जीवन कहें? यह किस अर्थोंे में जीवन है? यह जीवन बिलकुल नहीं है, यह लंबी मौत है। यह ग्रेजुअल डेथ है। यह धीमा-धीमा आत्मघात है। बहुत धीमा हो रहा है, इसलिए ज्ञात नहीं होता। अंत में जब सारी शक्ति चूक जाती है, हम पाते हैं कि मर गए।
एक मुसलमान फकीर हुआ, एक गांव के बाहर रहता था। गांव से कोई दो-चार मील के फासले पर था। वहां से कोई भी आदमी कभी आकर पूछता कि गांव का रास्ता कहां है? तो जो मरघट का रास्ता था, वह बता देता। मरघट से दो मील का चक्कर लगा कर लोग लौटते, उसको गालियां देने लगते कि तुमने यह क्या किया? कई बार तो लोगों ने आ कर उस पर चोट कर दी कि तुम कैसे पागल आदमी हो? मरघट में भेज दिया। पर वह कहता कि जहां तक मेरी समझ है, जिसको तुम बस्ती कहते हो, उसको मैं मरघट कहता हूं। क्योंकि वहां सब मरने वाले लोग इकट्ठे हैं, जो आज नहीं कल मर जाएंगे। वहां सब मुर्दे इकट्ठे हैं, जिनकी तारीखें तय हैं। कोई आज किसी की तारीख होगी, किसी की परसो होगी, किसी की साल भर बाद होगी, किसी की दो साल बाद होगी, वहां तो मुर्दे बसे हैं, वहंा बस्ती कहां है? लेकिन जो मरघट है, वहंा जो बस गए हैं, वे कभी नहीं उजड़ते, वे बसे ही हुए हैं। वहां से कोई मरता नहीं है। इसलिए वह कहने लगा था, फकीर कि मैं उसको तो बस्ती कहता हूं, मरघट को। और बस्ती को मरघट कहता हूं। इसलिए मैंने तुम्हें गलती बता दिया, अपनी तरफ से तो ठीक बताया अब, तुम्हारी जहां मर्जी हो, अगर तुम्हारी बस्ती में जाना हो, तो इस तरफ है, और अगर मेरी बस्ती में, जिसे मैं बस्ती समझता हूं, और निश्चित ही जो हमें जानते हैं, वे कहेंगे कि हम मरघट में हैं।
हम सब मुर्दा हैं और मरने की राह देख रहे हैं। लेकिन इसको हम जीवन समझते हैं तो भ्रांति हो जाती है। इसको ही जीवन समझ लेना अधर्म है, और फिर इस अधर्म से सारा अधर्म पैदा होता है। लेकिन बुनियाद में अधर्म यह है कि हम इसे जीवन समझ लें। यह जीवन नहीं है, यह बोध असंतोष है। यह बोध दुख है, यह बोध पीड़ा है। यह बोध जितने लोगों में बढ़ जाए उतने जगत में धर्म का विकास होगा। कोई गीता और कुरान, और महावीर और बुद्ध की वाणी फैला देने से विकास नहीं होगा, विकास होगा इस बोध को फैला देने से कि जिसे हम जीवन समझे हुए हैं, यह जीवन नहीं है, और अगर यह घबराहट हमारे भीतर बैठ जाए कि यह जीवन नहीं है, तो खोज शुरू हो जाएगी कि जीवन क्या है? अगर मुझे ज्ञात हो जाए कि जिस मकान में मैं बैठा हूं, उसमें आग लगी है, तो क्या मैं पूछूंगा, लोगों से पता लगाऊंगा कि आग लगी है? क्या मैं सोचूंगा कि बाहर निकलूं या नहीं निकलूं ? क्या मैं किताबें पढूंगा, ग्रंथ पढूंगा, गुरुओं के पास जाऊंगा पूछने कि बाहर निकलने का मार्ग क्या है? अगर मुझे ज्ञात हो जाए कि भवन में आग लगी है, तो मैं सब छोड़ कर भवन के बाहर निकलने की प्राण-प्रण से चेष्टा करूंगा। मैं बाहर निकल जाऊंगा।
अगर हमें दिखाई पड़ जाए कि जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह लपटें लगी हुई मृत्यु से ज्यादा नहीं है, तो बाहर निकलने की एक तीव्र आकांक्षा पैदा होगी, एक अभीप्सा पैदा होगी कि हमारी सारी शक्ति वहां इकट्ठी हो जाएगी, और हम उसके ऊपर उठना चाहेंगे। और उस शक्ति के इकट्ठे होने से, उस अभीप्सा से मनुष्य का भीतर प्रवेश होता है। और जो अपने द्वार भीतर के खोल लेता है, कोई बाहर का जीवन उसके लिए बंद नहीं हो जाता, लेकिन जो भीतर के द्वार खोल लेता है, वह भीतर जीता है। प्रतिक्षण बाहर होते हुए भी भीतर जीता है। वह प्रतिक्षण बाहर काम करते हुए भी भीतर बना रहता है। उसकी उपस्थिति परमात्मा में होती है, उसका कर्म जगत में होता है। वह कोई छोड़ कर भाग नहीं जाता, भागने का कोई कारण नहीं है, जब तक जीवन है, तब तक कर्म है, जब तक जीवन है, तब तक कर्म रहेगा ही।
लेकिन अभी कर्म ही सब कुछ है और चेतना कुछ भी नहीं। तब चेतना सब कुछ होती है और कर्म केवल उसकी अभिव्यक्ति रह जाती है, उसके आनंद की, उसके प्रेम की तब कर्म सेवा बन जाता है। वैसा व्यक्ति जो भीतर प्रतिष्ठित होता है, बाहर के जगत में सेवा और प्रेम और सारे कर्म उसके अनासक्त हो जाते हैं और तब वह जान पाता है अर्थ को, तब वह जान पाता है अभिप्राय को और तब वह धन्यता अनुभव करता है, तब उसके हृदय से प्रार्थना उठती है, परमात्मा के लिए, धन्यवाद के लिए, थैंक्स गिविंग के लिए कि वह धन्यवाद दे कि कितना अमृत जीवन, कितने आनंद का, कितना संगीत उसके भीतर है। उसके लिए वह धन्यवाद करे। प्रार्थना मांगना नहीं है, बल्कि धन्यवाद है। धन्यवाद है उसके लिए जो मिला है, धन्यवाद उसके लिए जो मैं हूं। तो धार्मिक चेतना धन्यवाद करती है और जो चेतना धन्यवाद नहीं कर पाती, वह चेतना व्यर्थ है। उसने कुछ पाया नहीं, इसलिए धन्यवाद का कोई मौका नहीं है।
जिस चेतना में ग्रेटिट््यूड नहीं मालूम होगा, और मालूम भी कैसे होगा? कृतज्ञता कैसे मालूम होगी, जब तक कि मुझे लगे ही न कि मेरे पास कुछ है। उस कुछ की प्रेरणा पैदा होनी चाहिए, प्यास पैदा होनी चाहिए। जो जहां है, जैसा भी है, अपने भीतर के जगत के प्रति एक उत्सुकता जागनी चाहिए। और इसका कोई धर्म से संबंध नहीं है, किसी संप्रदाय से संबंध नहीं है। किसी मंदिर और मस्जिद से संबंध नहीं है, क्योंकि मंदिरों ने, मस्जिदों ने, धर्मों ने, संप्रदायों ने तो मनुष्य को परमात्मा से तोड़ने के लिए और दीवालें खड़ी कर दीं। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ दिया। इसका संबंध तो मनुष्य के आंतरिक स्वरूप से है। उस वास्तविक धर्म से है, जो सभी धर्मों का प्राण है, उस वास्तविक सत्य से है, जो कि जिन्होंने कभी भी कुछ जाना है, उन सबकी अनुभूति में प्रकट हुआ है।
परमात्मा करे ऐसा असंतोष अनुभव हो आपको, ऐसी पीड़ा अनुभव हो। भवन में लगी हुई लपटें आपको ज्ञात हों, और बाहर की तरफ आप आंख खोल कर देखने में समर्थ हो सकें, ताकि बाहर का भ्रम टूट जाए। वास्तविक संपत्ति की खोज शुरू हो, और व्यर्थ की संपत्ति व्यर्थ दिखाई पड़ने लगे। यह कामना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे ऐसा मुझे लगता है कि कहीं न कहीं हमारे भीतर कोई प्यास है, कहीं न कहीं हमारे भीतर कोई आकांक्षा है, कहीं न कहीं कोई बीज है, जिसको अगर ठीक-ठीक मौका मिले, ठीक-ठीक पानी मिले, भूमि मिले, प्रकाश मिले तो वह जरूर अंकुरित हो सकता है। और बीज तब तक पीड़ा अनुभव करेगा, जब तक कि वह वृक्ष न बन जाए, उसमें फूल न आ जाएं, और फल न लग जाएं। पर मनुष्यों के बीज नष्ट हो जाते हैं, और उनमें बहुत कम में फूल लग पाते हैं, फल लग पाते हैं। महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण, और क्राइस्ट इसी तरह के मनुष्य हैं, जिनके बीज पूरे हो गए और जिनमें फूल लगे, और फल लगे और जिनसे गंध फैली और सुवास फैली। और उनका जीवन एक नृत्य बन गया, और एक संगीत बन गया। और हजारों लोगों के हृदय में भी उसकी प्यास जगी।
जब तक हमारे जीवन में भी वैसी घटना न घट जाए, हम अपने बीज को जब तक पूरा न फैला लें, और क्या है बीज? अगर मनुष्य बीज है तो उसका पूरा वृक्ष हो जाना, परमात्मा का हो जाना है। मनुष्य के भीतर बीज है परमात्मा होने का और जब तक हम परमात्मा न हो जाएं, तब तक यात्रा अधूरी है और हम बीच में अटके हैं। और हमारा बीज तड़पेगा और परेशान होगा, और पीड़ा अनुभव करेगा, क्योंकि उसमें अंकुर फूटना चाहिए। अंकुर फैलना चाहिए और वह पूरा होना चाहिए। पूर्ण होकर तृप्ति मिलती है, और पूर्ण होकर शांति मिलती है, और पूर्ण होकर अर्थ और अभिप्राय उपलब्ध होता है।
परमात्मा करे उस पूर्णता की तरफ प्यास को जगाए। परमात्मा करे उस पूर्णता की तरफ हमारे असंतोष को जगाए। उसकी कामना करता हूं। और मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं।
सब तरफ अपने मन को खोलें और जहां से भी प्यास को जगाने को कुछ भी आ सके, उसे आने दें। और जहां से भी आपके बीज को बेचैन करने को और आंदोलित करने को कुछ आ सके, उसे आने दें। मन के द्वार खोलें। हम सब के द्वार मन के बंद हैं। और कुछ भी उसमें आना बंद हो गया है, उसे खोलें और मन के भीतर आने दें। जगत ही, संसार का अनुभव ही हमारे भीतर उस उत्कंठा को पैदा करता है, जो परमात्मा तक ले जाती है।
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, प्रभु करे सबके भीतर के बीज विकसित हों और परमात्मा तक पहुंचे।
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