दूसरा प्रवचन-(भागना नहीं, जागना)
मैं किस संबंध में आपसे कहूं, यह अभी सोचता रहा। जीवन में सुख पाने की आकांक्षा है--सभी को है। लेकिन जो भी सुख पाने की आकांक्षा से भरता है, वह साथ ही साथ दुख भी पाता है। यह स्वाभाविक है। यदि दुख का अनुभव न हो तो, सुख का कोई अनुभव नहीं होगा। इसलिए मैं सुख और शांति को अलग बातें मानता हूं, सुख और शांति को एक ही बात नहीं मानता। महावीर या बुद्ध की खोज सुख के लिए नहीं शांति के लिए है। हम सबकी खोज सुख के लिए है।सुख और शांति में भेद है, वह थोड़ा हम समझेंगे तो कुछ और बातें समझनी आसान हो जाएंगी। सुख भी बहुत विचार करके देखा जाए, तो एक उत्तेजना की अवस्था है, सुख भी एक अशांति है। इसलिए यह भी हो सकता है बहुत सुख मिल जाए तो इतनी अशांति हो कि प्राण का अंत हो जाए। बहुत सुख में लोग मर जाते हैं। तो सुख शांति की अवस्था नहीं है। दुख भी शांति की अवस्था नहीं है। सुख-दुख दोनों उत्तेजनाओं की अवस्थाएं हैं। दोनों चित्त की बड़ी उद्वेलित अवस्थाएं हैं। थोड़ा सा भेद है। सुख प्रीतिकर उत्तेजना है और दुख अप्रीतिकर उत्तेजना है, लेकिन दोनों उत्तेजनाएं हैं। और यह भी हो सकता है कि जो उत्तेजना अभी प्रीतिकर लगे, वह अगर बार-बार पुनरुक्त हो, तो अप्रीतिकर हो जाए। जो सुख है, वह दुख में परिवर्तित हो सकता है।
भोजन सुखद लगता हो, ज्यादा कर लिया जाए दुख हो जाएगा। कोई भी भोग सुखद लगता हो, ज्यादा कर लिया जाए, दुख हो जाएगा। इसलिए सुख और दुख में स्वरूपगत भेद नहीं है, वे एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं।
दुख अगर आदी हो जाए, आपको आदत हो जाए, तो दुख भी सुखद हो जाता है। अगर कोई व्यक्ति पहली दफा जिसे दुख की तरह अनुभव करता है, अगर निरंतर उसको अनुभव करता रहे, तो अनुभव के साथ ही साथ उसका दुख कम हो जाएगा और धीरे-धीरे दुख की आदत ही सुख में भी परिवर्तित हो सकती है।
एक अरबी कहानी है। एक गांव में एक मालिन वर्षों से रहती थी। उसकी एक सहेली कभी गांव मछलियां बेचने आई, तो उसने उसे निमंत्रित किया और कहा कि रात मेरे घर रुक जाओ। बचपन की दोनों मित्र थीं। मछलियां बेचने वाली औरत रात को मालिन के घर में रुक गई। मालिन ने यह सोच कर कि जो हिस्सा उसके झोपड़े का सबसे ज्यादा फूलों के करीब था, वहां उसे बिस्तर लगा दिया। और जो सबसे ज्यादा सुगंधित फूल थे, वे टोकरी में लाकर फूल उसके पास रख दिए। लेकिन रात बीतने लगी और मछली बेचने वाली औरत सो नहीं सकी। बार-बार मालिन ने पूछा बात क्या है, नींद नहीं आती? उसने कहाः क्षमा करें, शायद तुम्हें बुरा लगे, लेकिन ये फूल मेरे पास से हटा दो। और जिस टोकरी में मैंने बाजार में मछलियां बेची हैं उसमें थोड़ा पानी डाल कर, छिड़क कर मेरे पास रख दो। मुझे मछलियों की गंध आए, तो नींद आ जाए। फूल हटा दिए गए, द्वार बंद कर दिया गया ताकि गंध भीतर न आए। और मछलियों की टोकरी को थोड़ा-सा पानी छिड़क कर उसके पास रख दिया गया। जैसे ही मछलियों की गंध उसे आई, उसे गहरी नींद आ गई। मालिन रात भर उन मछलियों की गंध के कारण सो न सकी।
मछलियों की गंध पहली दफा अप्रीतिकर लगेगी, क्रमशः प्रीतिकर हो जाएगी। एक सीमा पर जाकर दुख देना बंद कर देगी, और सुख भी दे सकती है। सुख और दुख आपस में परिवर्तित हो सकते हैं। सुख और दुख स्वरूपतः भिन्न नहीं हैं। जैसे सर्दी और गर्मी में कोई भेद नहीं है, जो भी भेद है, वह डिग्रीज का है, वैसे ही सुख-दुख में कोई बहुत बुनियादी भेद नहीं है। जीवन के संबंध में यह सत्य जानना बहुत आवश्यक है कि सुख-दुख सापेक्ष घटनाएं हैं, और उनमें कोई बहुत गहरा अंतर नहीं है। जिन बातों को हम समझते हैं कि बहुत दुखद हैं, वे भी निरंतर अभ्यास से सुख में परिवर्तित हो सकती हैं। जिन बड़े-बड़े महलों में हम हैं, अगर जंगल के आदिवासियों को लाकर उनमें रात ठहरा दिया जाए, वे सो नहीं सकेंगे। जिन बहुत सुखद गद्दों को हम हजारों रुपये खर्च करके आराम समझते हैं, अगर जंगल में रहने वाले किसी व्यक्ति को लाकर उन पर विश्राम करने को छोड़ दिया जाए तो रात भर सिवाय कष्ट और पीड़ा के उसे कुछ भी नहीं होगा।
पहली दफा अमेजान के कछार में जब पहली दफा पश्चिमी लोग पहुंचे तो वहां बहुत सर्दी थी। और वे काफी कोट और चमड़े के कपड़े पहने हुए थे। और फिर भी आग जला कर अपने को गर्म करते थे। आदिवासी दूर-दूर दरख्तों के पास खड़े होकर देख रहे थे, नंगे। उनके ऊपर वस्त्र नहीं थे। जिस आदमी ने अपनी डायरी में यह लिखा है, उसने लिखा हम हैरान हो गए, वे कई गज के फासले पर नंगे खड़े थे सर्दी में, हम चमड़े के कपड़े पहने हुए थे, फिर भी हाथ-पैर कंप रहे थे। आग जलाए हुए थे, और वे नंगे खड़े थे, और दूर खड़े थे, फिर भी हमारी आग के कारण उनको पसीना चू रहा था। हम, उस डायरी के लिखने वाले ने लिखा है, हैरान हुए, हमें सर्दी बहुत कष्टप्रद हो रही थी, हमारी आग के कारण वे बहुत कष्ट झेल रहे थे। उनकी नग्न रहने की आदत थी, नग्न रहना उनके सुख का हिस्सा हो गया। हम जिन आदतों में बंद हो जाते हैं, वे हमारे सुख का हिस्सा हो जाती हैं।
फ्रांस में क्रंाति हुई। वेस्टाइल का किला है फ्रांस में, वह फ्रांस का सबसे खतरनाक जघन्य अपराधियों को बंद करने का स्थान रहा है। जो आजीवन कारावास के लिए बंद किए जाते हैं, वेस्टाइल में बंद कर दिए जाते थे। जब फ्रांस में क्रांति हुई, तो विद्रोहियों ने सोचा कि सबसे पहले वेस्टाइल के किले को तोड़ दें और उसके कैदियों को मुक्त कर दें। वे कितने खुश न होंगे? वहां ऐसे लोग थे, जो पचास-पचास वर्ष से बंद थे, अस्सी वर्ष के हो गए थे, नब्बे वर्ष के हो गए थे। उनकी आंखें उस अंधेरे में अंधी हो गई थीं। उनकी जंजीरें उनके शरीर का हिस्सा हो गई थीं, क्योंकि वे पहना दी गईं थी, उसके बाद कभी निकाली नहीं गई थीं। उनकी जंजीरें तोड़ दी गईं, उनको उनकी गंदी कोठरियों के बाहर निकाल दिया गया और उनसे कहा कि तुम स्वतंत्र हो। लेकिन सांझ को क्रांतिकारी हैरान हुए, आधे से ज्यादा कैदी वापस लौट आए, और उन्होंने कहा, कृपा करें, मरते समय हमें कष्ट न दें। हम भीतर ठीक हैं। हमारी जंजीरें हमें पहना दी जाएं, उनके बिना जीना बड़ा अभावग्रस्त मालूम होता है। जैसे कोई चीज कमी हो गई, वे तो हमारे शरीर के हिस्से हो गए।
पचास वर्ष तक जंजीरें जिस हाथ पर बंधी रही हों, पैर में कड़ियां पड़ी रही हों, वह बिना कड़ियों के चल नहीं सकता। और उन्होंने कहा बाहर बहुत प्रकाश है, उससे बड़ी घबड़ाहट होती है। आंखें बड़ी तिलमिला जाती हैं। और फिर रास्तों पर बड़े अजनबी लोग हैं, अपरिचित दुनिया है। यह ठीक है, यहां इन कोठरियों में, ये परिचित हैं, अपनी हैं। धीरे-धीरे इनका टुकडा-टुकड़ा मैत्री से भर गया। और यहां की दो रोटी काफी अच्छी हैं, क्योंकि बिना कुछ किए मिल जाती हैं।
क्रांतिकारी हैरान हुए होंगे, लेकिन हैरानी होने की कोई बात नहीं है। सुख और दुख बहुत कुछ ऐसी उत्तेजनाएं हैं, जिनके हम आदी हो जाते हैं। एक दूसरे में परिवर्तित हो सकती हैं। लेकिन दोनों उत्तेजनाओं की अवस्थाएं हैं, यह मैं आपसे कहना चाहूंगा। दोनों में कोई भी शांति नहीं है। इसलिए न तो दुखी आदमी शांत होता है, न सुखी आदमी शांत होता है। यह वजह है कि दुनिया में, दुखी भी अशंात होता है, और सुखी भी अशंात होता है। गरीब मुल्क भी अशांत हैं, समृद्ध मुल्क भी अशांत हैं। दरिद्र भीख मांगने वाला भी अशांत है और जिसके सिर पर ताज रखा है, वह भी अशांत है। अशांति न तो दुख से जाती है और न सुख से जाती है। असल में सुख-दुख दोनों ही अशांति की अवस्थाएं हैं। इसलिए जब साधारणतः कहा जाता है कि मनुष्य सुख को और शांति को खोजता है, तो मैं सुख और शांति को एक ही अर्थ में प्रयोग करने में थोड़ा असमर्थ हूं। जो मनुष्य सुख को खोजता है, वह अशांति को खोज रहा है। जो मनुष्य सुख को खोजता है, वह शांति को नहीं खोजता। शांति की खोज बड़ी दूसरी खोज है, शांति की खोज सुख की खोज नहीं है। उस अर्थों में, जिसे हम सुख की भांति जानते हैं।
जब तक हम सुख को खोजेंगे, तो दो काम हमारे भीतर होते रहेंगे, एक तो यह होगा कि हम सुख पाना चाहेंगे और दुख से बचना चाहेंगे। सुख आएगा, उसको पकड़ कर रोकना चाहेंगे, और दुख आएगा तो उसे धक्के देकर घर के बाहर निकालना चाहेंगे। दुख भीतर होगा, तो उसको विदा करना चाहेंगे, सुख बाहर होगा तो उसको आमंत्रित करना चाहेंगे। जो आदमी सुख की आकांक्षा से भरा है, वह दुख को हटाएगा, सुख को बुलाएगा। आए हुए सुख को पकड़ेगा, आए हुए दुख को हटाने की कोशिश करेगा। परिणाम में उसका चित्त अशांत होगा। शांत कैसे होगा? यह तो एक तनाव होगा। सुख को बुलाने का, सुख को पकड़ने का, दुख को हटाने का, दुख को न आने देने का। यह तो सारा संघर्ष होगा, यह तो सारी कांफ्लिक्ट होगी। यह तो अंतद्र्वंद्व होगा, इसमें शांति कैसे संभव है? तो कोई सोचता हो कि सुख में शांति नहीं है, इसलिए दुख का वरन कर ले, एक आदमी बड़े भवन में रहता है, हम देखते हैं बड़े भवन में कोई शांति नहीं है, इसलिए दूसरा आदमी भवन को छोड़ कर जंगल में चला जाए। एक आदमी बहुत अच्छे वस्त्र पहनता है, इसलिए दूसरा व्यक्ति सोचे अच्छे वस्त्रों में कोई शांति नहीं, इसलिए नग्न हो जाए और भीख मांगने लगे। एक आदमी सोचता है, घर-गृहस्थी में कोई शांति नहीं, बच्चे-पत्नी में कोई शांति नहीं, इसलिए बच्चे-पत्नियों को छोड़ दे, संन्यासी हो जाए।
तो जहां-जहां उसे दिखाई पड़ता है कि सुख है, सुख में कोई शांति नहीं तो वह दुख को वरन कर ले। मैं आपसे प्रार्थना करूं कि दुख में भी कोई शांति नहीं है। यदि सुख में शांति नहीं है, तो दुख में भी कोई शांति नहीं है। दुख भी अशांति की अवस्था है। यह हो सकता है कि उस दुख में बहुत दिन रहा जाए, तो उसकी हमें आदत हो जाए। और अशांति परिचित हो जाए। लेकिन जिस भांति बहुत अच्छे वस्त्रों में रहने वाले व्यक्ति को अगर सड़क पर नग्न घूमने को कहा जाए, तो उसे कष्ट होगा। तो जो नग्न सड़क पर घूम रहा है, उसे अगर बहुत अच्छे वस्त्र पहना कर भवन में रहने को कहा जाए, तो उसे कष्ट होगा। ये दोनों दो आदतों के शिकार हो गए हैं। एक सुख का आदी हो गया है, एक दुख का आदी हो गया है। लेकिन शांति दोनों में नहीं है। और न स्वतंत्रता है। क्योंकि जहां शांति नहीं है, वहां स्वतंत्रता भी नहीं होगी। वहां परतंत्रता होगी, बंधन होगा। तो कुछ लोग भोग में दुख भोगते हैं, कुछ लोग त्याग का दुख भोगते हैं। इसे मैं आपसे स्पष्ट कहूं, कुछ लोग गृहस्थ का दुख भोगते हैं, कुछ लोग संन्यास का दुख भोगते हैं।
यह जो संन्यास है, जो दुख के वरन करने से निकलता है, यह वास्तविक शांति का संन्यास नहीं है। बल्कि सुख में सुख नहीं पाया, इसलिए दुख प्रतिक्रिया रूप में, रिएक्शन में स्वीकार कर लिया गया है। यह वास्तविक संन्यास नहीं है। वास्तविक संन्यास का संबंध दुख के वरन से नहीं बल्कि शांति की उपलब्धि से है। वास्तविक संन्यास का संबंध भोग के विरोध में त्याग करने से नहीं, बल्कि भोग और त्याग दोनों के ऊपर उठ जाने से है। क्योंकि भोग और त्याग दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जैसे सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो आदमी भोग को पक ड़ता है, वह भी अशांत होता है, क्योंकि पकड़ने की गहरी आकांक्षा तनाव पैदा करती है। और जो आदमी भोग से भागता है, वह भी अशांत होता है, क्योंकि भागना कोई शांति का लक्षण नहीं है।
मैं अभी एक संन्यासी के पास गया। एक बहन मेरे साथ थी वे संन्यासी नीची आंख किए रहे, मैंने उनसे बहुत कहा, आप आंख ऊपर क्यों नहीं करते? उन्होंने मुझसे कहा कि मैं स्त्री को नहीं देखता हूं। तो मैंने उनसे पूछा कि यह तो बड़ी अशांति की अवस्था होगी। क्योंकि स्त्री को न देखने का भय, स्त्री को देखने में भय, भीतर छिपे किसी बहुत अशांत, किसी बहुत कामातुर चित्त का लक्षण है। किसी बहुत गहरी सेक्सुअलिटी का लक्षण है। यह डर, यह भय चित्त को शांत न होने देगा। एक वह व्यक्ति है, जो स्त्री के पीछे ही आंखों को दौड़ाता रहेगा, एक वह है जो स्त्री को देख कर डरा है और आंख नीचे झुकाए हुए है। ये दोनों दो विपरीत बिंदुओं पर खड़े हुए एक ही चित्त के उदाहरण हैं। ये कोई भिन्न-भिन्न चित्त नहीं हैं। एक आदमी है, जो धन के पीछे पागल है।
एक बहुत बड़े संन्यासी से मुझे परिचय कराया गया, और कहा गया कि ये इतने विरक्त हैं कि अगर कोई पैसा सामने लाए, तो ये मुंह मोड़ लेते हैं, पैसे को देखते नहीं हैं। मैंने कहा कि पैसे को देख कर लार का गिर जाना, या मुंह का फेर लेना एक ही चित्त के दो उदाहरण हैं, इनमें बहुत बुनियादी भेद नहीं है। ये एक ही बात की प्रतिक्रियाएं हैं। दूसरी बात हमें त्याग मालूम होती है, पहली बात भोग मालूम होती है। पहली बात में सुख का आकांक्षी दिखाई पड़ता है, दूसरी बात में दुख को वरन करने वाला दिखाई पड़ता है, लेकिन ये दोनों ही चित्त, मुक्त चित्त नहीं हैं। परतंत्र चित्त हैं और दोनों ही चित्त अशांत हैं। अशांति को समझना जरूरी है, चित्त जब भी कुछ पकड़ेगा, तो अशांत हो जाएगा। चाहे सुख को पकड़े, चाहे दुख को पकड़े, चाहे वस्त्रों को पकड़े, चाहे नग्नता को पकड़े। चाहे घर को पकड़े, चाहे संन्यास को पकड़े।
जब भी चित्त कुछ पकड़ेगा, और जब भी वह कहीं अपने को थोपना, आरोपित करना चाहेगा, जब भी वह कोई आधार लेगा अपने लिए, तभी वह अशांत हो जाएगा। असल में जहां पकड़ है, वहां अशांति है, फिर चाहे पकड़ सुख की हो, चाहे दुख की हो। चाहे राग की हो, चाहे विराग की हो। शांति तो केवल वीतरागता में है। वीतरागता विराग नहीं है। वीतरागता राग भी नहीं है। राग और विराग दोनों से मुक्त हो जाने में शांति है। तो विरागी को, मैं गृहस्थ का शीर्षासन करता हुआ रूप मानता हूं। उलटा खड़ा हुआ। तो जो-जो गृहस्थ करता है, उसके विरोध में उसके प्रतिशोध में वह उससे उलटा-उलटा करता है। अगर आप बड़े भवन में रहते हैं, तो भवन छोड़ता है, आप वस्त्र पहनते हैं तो वस्त्र छोड़ता है। आप जो-जो करते हैं, उसको वह छोड़ता है। वह आपका ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। लेकिन शीर्षासन करने से चित्त परिवर्तित नहीं होता, क्योंकि चित्त का कोई शीर्षासन नहीं होता। आप उलटे खड़े हो जाएं, तो भी चित्त वही रहेगा। आप सीधे खड़े हैं, तो भी चित्त वही है, आप सिर के बल खड़े हो जाएं, तो भी चित्त वही रहेगा। हां, चमत्कार जरूर हो जाएगा क्योंकि सिर के बल खड़ा होना, जरा कठिन है। पैर पर खड़ा होना जरा आसान है। इसलिए जो पैर पर खड़े हैं वे सिर के बल खड़े हुए आदमी को नमस्कार कहेंगे, कि आप बहुत गजब का काम कर रहे हैं, आप बहुत बड़ी बात कर रहे हैं, आपके हम चरण छूते हैं।
असल में सर्कस को देखने का जो मजा है, वही उलटे खड़े हुए लोगों को देखने का मजा है। लेकिन इससे कोई जीवन मुक्त नहीं होता। इससे कोई जीवन मुक्त नहीं होता है। गृहस्थ के विरोध में संन्यास नहीं है, वास्तविक संन्यास तो द्वंद्व से मुक्त हो जाने में है। जहां भी द्वंद्व के किसी एक हिस्से को मैं पकड़ता हूं, वहां मैं कायम रूप से वही कर रहा हूं, जो दूसरे कर रहे हैं। यद्यपि उनके विरोध में कर रहा हूं। जो आदमी धन की ओर भाग रहा है, और जो आदमी धन से भाग रहा है, ये दोनों ही धन को स्वीकार करते हैं, मान्यता देते हैं,धन को, धन के अर्थ को इनके मन में मूल्य है।
कोई हमसे पूछे...मैं एक जगह गया और एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि यहां एक बहुत बड़े संन्यासी हैं। मैं पूछा कि उनके बड़े संन्यासी होने का कारण क्या है? तो उसने कहा कि उन्होंने बहुत संपत्ति थी, उसको छोड़ दिया। तो मैंने कहा कि तुम्हारे मन में संपत्ति का इतना मूल्य है, उतना संन्यासी का मूल्य नहीं है। क्योंकि संन्यासी के बड़े होने को भी तुम संपत्ति से तौलते हो, उसने कितनी संपत्ति छोड़ी। अगर उसके पास ये संपत्ति न होती, तो संन्यासी छोटा हो जाता। फिर उन्होंने कहा कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, बड़े-बड़े लोग उन्हें मानते हैं। मैंने कहाः कौन बड़े-बड़े लोग? उन्होंने कहा कि खुद हमारे राज्य के जो महाराजा हैं, वे उनके चरण छूने आते हैं। तो मैंने कहा कि महाराजा का तुम्हारे मन में मूल्य है, संन्यासी का कोई मूल्य नहीं। चूंकि महाराजा उनके चरण छूते हैं, इसलिए संन्यासी बड़ा है। और महाराजा क्यों बड़े हैं? क्योंकि उनके पास धन है।
हम त्याग का भी मूल्य भोग से आंकेंगे। हम त्याग का भी मूल्य भोग से आंकेंगे। क्योंकि त्याग असल में भोग का ही विरोध है, इसलिए कितना भोग छोड़ा, उतना बड़ा त्याग मालूम होगा। वह भोग की ही श्रेणी में बैठा हुआ है। वह वही गणित है, गणित में भेद नहीं है। और जब तक हम इन सुख और दुख के बीच चुनाव करेंगे। तब तक भ्रांति होती रहेगी। एक भ्रंाति यह है कि धन के मिलने से सुख मिलेगा, दूसरी भ्रांति यह है कि धन के छोड़ने से मिल जाएगा। लेकिन दोनों स्थितियों में धन केंद्र है। यह मैं आपको कहना चाहता हूं, इस पर थोड़ा विचार करें। दोनों स्थितियों में एक आदमी सोचता है कि पत्नी के मिलने से सुख मिलेगा, दूसरा आदमी सोचता है कि पत्नी को छोड़ने से सुख मिलेगा। लेकिन दोनों स्थितियों में पत्नी केंद्र है। और दोनों गणित में पत्नी मध्य है। उससे सोचा जा रहा है। धन हो या कुछ और हो, दोनों स्थितियों में जो विराग है वह, और जो राग है वह, इनकी सोचने की श्रेणी, इनका तर्क, इनका लाॅजिक एक ही है। ये लाॅजिक, यह तर्क, यह सोचने की श्रेणी, तब तक होगी जब तक मन अशांत रहेगा। यह अशांत चित्त की दशा है।
शांत कैसे व्यक्ति हो सकता है? जब वह इन दो द्वंद्वों के बीच चुनाव बंद कर दे। जब वह दो विकल्पों के बीच चुनाव बंद कर दे। क्यों? क्योंकि मैं आपसे कहूं, जहां दो विकल्प हैं, इसे थोड़ा सूक्ष्मता से समझेंगे। जहां दो विकल्प हैं, वहां एक तीसरा मैं भी हूं, जो उनको चुनता हूं। गृहस्थी है और संन्यास है, सुख है और दुख है, राग है और विराग है। भोग है और त्याग है। ये दो-दो विकल्प हैं, ये द्वंद्व है। इन दोनों के जोड़े हैं। लेकिन चुनाव करने वाला मैं तीसरा अलग हूं। मैं भोग को चुनता हूं, या त्याग को चुनता हूं, त्याग और भोग दो विकल्प हुए और मैं चुनने वाला तीसरा हुआ। जब तक मैं किसी भी विकल्प में से कुछ भी चुनूंगा, तब तक मैं अशांत रहूंगा।
लेकिन अगर मैं उसको चुन लूं, जो कि चुनाव करता है, तो जीवन में शांति का प्रारंभ हो जाएगा। जब तक मैं द्वंद्व में से किसी को चुनूंगा, राग को या विराग को; तब तक अशांति का अंत नहीं है। लेकिन अगर मैं उसको चुन लूं, जो कि चुनाव करने वाला है, न तो राग को चुनूं ,न विराग को, बल्कि उसमें प्रतिष्ठित हो जाऊं जो कि राग को चुनता है या विराग को चुनता है, जो गृहस्थ होता है या संन्यासी होता है; वह जो चैतन्य है अगर मैं उस तीसरे बिंदु को, वह जो थर्ड पाॅइंट है, अगर उस पर खड़ा हो जाऊं, तो जीवन में शांति संभव है। द्वंद्व के बाहर हो जाना, शांति है। और द्वंद्व में चुनाव करना अशांति है। इसलिए सुख शांति नहीं है, न दुख शांति है, ये दोनों द्वंद्व हैं, दोनों उत्तेजनाएं हैं। शांति इन दोनों के बाहर है। इन दोनों से ऊपर उठ जाने में है।
बहुत कम लोग हैं संसार में, जो इन दोनों के ऊपर उठते हों। बहुत लोग हैं जो भोग में रहते हैं, कुछ थोड़े से लोग हैं, जो त्याग में होते हैं। लेकिन त्याग और भोग, कुएं और खाई की तरह हैं, इधर गिरे तो कुआं है, उधर गिरे तो खाई है। रास्ता बीच में है, रास्ता हमेशा बीच में है, हमेशा द्वंद्व के डुआलिटी के बीच में कोई मध्य थोड़ी सी, पतली लकीर है, और इसलिए जो जानते हैं, उन्होंने कहा कि रास्ता तलवार की धार की तरह पतला है। इधर गिरे तो कुआं होगा, उधर गिरे तो खाई होगी।
कनफ्यूशियस चीन का एक विचारक था। एक गांव में गया। छोटा सा गांव था, लेकिन उस गांव में लीपतेन नाम का एक बहुत बड़ा विचारक रहता था। गांव में जाते ही, लोगों ने कनफ्यूशियस से कहा कि हमारे गांव में एक अदभुत विचारक है, बहुत बड़ा विचारक है। कनफ्यूशियस ने पूछा उसके बड़े विचार का क्या लक्षण है? क्या कारण है कि तुम उसे बड़ा विचारक कहते हो? तो लोगों ने कहा कि वह बड़ा विचारक है, इतना बड़ा विचारक है कि किसी काम को करने के पहले तीन बार विचार करता है कि करना है कि नहीं करना है। कनफ्यूशियस हंसने लगा, उसने कहा, तीन बार विचार करना थोड़ा ज्यादा हो गया, एक बार विचार करना थोड़ा कम होता, दो बार विचार करना पर्याप्त है। दो बीच का बिंदु है, एक बार विचार करने वाला कम विचार कर रहा है, तीन बार विचार करने वाला ज्यादा विचार करने लगा। एक बिंदु है, बीच में दो का, कनफ्यूशियस ने कहा, वहां जो ठहर जाता है, वह जानता है।
यह तो एक छोटी सी घटना है, लेकिन सच है यही बात, जिंदगी में तीन हमेशा मौजूद हैं। जिंदगी तीन हिस्सों में बटी है, पूरी जिंदगी। पूरे मनुष्य की जिंदगी तीन टुकड़ों में बटी है, हमेशा। और जो एक को चुनता है या तीन को चुनता है, वह भूल में पड़ जाता है। और जो दो पर खड़ा हो जाता है, वह जीवन को जान लेता है, उसके अर्थ को, उसके रस को। दो पर खड़े हो जाना, धर्म है। एक पर खड़ा होना राग है, तीन पर चले जाना वैराग्य है, दो पर खड़े हो जाना वीतरागता है। ये दो पर हम कैसे खड़े हो सकते हैं, मध्य में, वह जो बिलकुल मध्य में है, दोनों के बाहर हो जाता है। जो बिलकुल मध्य में होता है, दो अतियों के, दो एक्सट्रीम के वह दोनों एक्सट्रीम के बाहर हो जाता है, अतियों के ऊपर हो जाता है। द्वंद्वातीत होना, धर्म में प्रतिष्ठित होना है। और द्वंद्व के अतीत हमारा स्वरूप है। लेकिन हम चुनते हैं।
एक व्यक्ति था, एक अंधेरी रात में एक पहाड़ी के किनारे एक साधु ने उसे पकड़ा, वह आत्महत्या करने जा रहा था। अंधेरी रात थी, वर्षा के दिन थे। एक पहाड़ी के किनारे से नीचे के खड्ड में गिर कर वह आत्मघात करने को था। बीच-बीच में बिजली चमकती थी, साधु का झोपड़ा था, वह वहां गया, उसने उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा। उस आदमी ने पूछा आप कौन हैं, जो मुझे रोक रहे हैं। उस साधु ने कहा, मुझे रोकने से क्या प्रयोजन? एक छोटी सी बात कहने का मन हुआ, वह कहने चला आया। पूछा उस आदमी ने कौन सी बात कहने का मन? साधु ने कहा कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप जीवन से निराश हो गए हैं, और अपने को समाप्त करना चाहते हैं। अन्यथा इस रात, इस अंधेरे में, इस पहाड़ी पर कोई नहीं आता। फिर दो-तीन बार बिजली चमकी, और मैंने देखा कि आप किनारे पर खड़े हैं, जरूर, जरूर मन में कोई बड़ी चिंता और बेचैनी चल रही है। उस व्यक्ति ने कहा निश्चित ही, मैं बहुत दुखी हूं। और दुख में जीना ठीक नहीं, मैं अपने को समाप्त करना चाहता हूं। साधु ने कहा कि आप समाप्त करना चाहें तो जरूर करें, लेकिन एक दो-तीन बात मैं आपसे पूछ लूं। क्या कभी आप सुखी भी थे? उस व्यक्ति ने कहा निश्चित ही, दिन थे मेरे और मैं बहुत सुखी था, और बहुत संपत्ति थी, और बहुत यश था, वैभव था। फिर सब विनष्ट हो गया है। अब मेरा सब नष्ट हो गया है। अब मेरे पास कुछ भी नहीं, मैं बहुत दुख में हूं।
वह साधु जोर से हंसने लगा और उसने कहा मैं जाता हूं, तुम्हारे मन में जो आए करो। एक ही बात मुझे कहनी है, कभी तुम सुख में थे, अब तुम दुख में हो। निश्चित ही तुम सुख और दुख दोनों से अलग होओगे। नहीं तो सुख और दुख दोनों में यात्रा कैसे कर सकते थे? मैं अभी गांव में था, अब गांव के बाहर आ गया। अभी आपके गांव में हूं, थोड़ी देर बाद दूसरे गांव में चला जाऊंगा। तो मैं गांव से अलग होना चाहिए, तभी तो मैं एक गांव से दूसरे गांव में यात्रा कर सकता हूं। मैं सुख में होता हूं, सुख से दुख में चला जाता हूं, दुख से सुख में आ जाता हूं, तो निश्चित ही मैं जो हूं , वह सुख और दुख से अलग होना चाहिए, तभी तो मैं यात्रा कर सकता हूं, नहीं तो यात्रा कैसे होगी? अगर मैं आपका गांव ही हो जाऊं , तो फिर दूसरे गांव में कैसे जाऊंगा? अगर इस भवन में आऊं और भवन ही हो जाऊं , तो फिर भवन के बाहर कैसे जाऊंगा? जो आदमी भवन के भीतर आ सका है, वह भवन से अलग है, भवन के बाहर जाएगा, भवन से अलग है। हम सुख में जाते हैं, दुख में जाते हैं, राग में जाते हैं, विराग में जाते हैं, भोग में जाते हैं, त्याग में जाते हैं। दोनों ही स्थितियां इस बात की सूचना करती हैं कि हम अलग हैं। हम पृथक हैं। हमारा भेद है, हम जिन स्थितियों से गुजरते हैं, उनसे हमारी पृथकता है।
जीवन में अनुभव का और कोई अर्थ नहीं होता, अनुभव का एक ही अर्थ होता है, कि अनुभवों के भीतर हम उसको पहचान लें, जो अनुभवों से भिन्न और पृथक है, जो आदमी उसे पहचान ले, वह प्रौढ़ हो जाता है, जो उसे न पहचान पाए वह अप्रौढ़ होता है, और बचपन में ही मर जाता है। बहुत कम लोग हैं, जो ठीक से वृद्ध होकर मरते हों। अधिक लोग बच्चे ही मर जाते हैं। क्योंकि अनुभव का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु उनसे अपरिचित रह जाता है। वे द्वंद्व के बीच हमेशा चुनाव करते रहते हैं, इसे चुनते हैं, उसे छोड़ते हैं, उसे छोड़ते हैं, इसे चुनते हैं। लेकिन कभी उसे नहीं देख पाते, जो कि चुनाव के पीछे खड़ा है, और अलग है। द्वंद्व के बीच उसका बोध जो कि द्वंद्व से पृथक है। एक आदमी दुकान पर बैठा रहता है।
अभी सुबह मैं किसी मित्र को बात कर रहा था। दुकान से ऊब जाता है, तो मंदिर चला जाता है। दुकान से घबड़ा जाता है, तो मंदिर में बैठ जाता है। जाकर सोचता है कि मंदिर में थोड़ा शांति मिलती है। वह शांति मंदिर की नहीं है, क्योंकि मंदिर का जो पुजारी वहां प्रार्थना करके चैबीस घंटे मंदिर में रह रहा है, वह ऊब जाता है, तो जाकर शराब खाने में शराब पी आता है, या होटल में चाय पीता है बैठ कर। वह मंदिर से ऊब जाता है, तो वह दुकानों पर बैठ कर गपशप लगाने जाता है। जो दुकान से ऊब गया है वह मंदिर में जाता है। जो यहां संसार से ऊब गए हैं हिमालय पर जाते हैं। जो हिमालय से ऊब गए हैं वे नीचे उतर रहे हैं, शहरों में आ रहे हैं। लेकिन जो आदमी दुकान से घबड़ा कर मंदिर जाता है; मंदिर से घबड़ाया हुआ आदमी दुकान पर आता है, ये कभी इस विचार को उपलब्ध नहीं होते कि वह जो हमारे भीतर है, वह न तो दुकान में है और न मंदिर में है। दुकान को मंदिर से बदलेंगे, लेकिन भीतर का आदमी तो वही का वही रहा है।
वह जो भीतर हमारा स्वरूप है, जो भीतर हमारा साक्षी है, वह जो भीतर हमारा चैतन्य है; उस चैतन्य में प्रतिष्ठित होना है, और उसकी प्रतिष्ठा में शांति उपलब्ध होगी। लेकिन जब तक हम विकल्प को चुनेंगे, अल्टरनेटिव्स को चुनेंगे, तब तक कोई शांति नहीं हो सकती। तो न तो भौतिकवाद और न अभौतिकवाद। न तो संसार और न मोक्ष। इन विरोधी विकल्पों में जब तक हमारा चित्त चुनाव करता रहेगा, जब तक हमारी कोई च्वाइस होती रहेगी, तब तक स्वाभाविक है कि हमारे जीवन में कोई शांति न हो। शांति का संबंध है, च्वाइसलेस हो जाने से। शांति का संबंध है चुनाव से मुक्त हो जाने से। आप कहेंगे ये कैसे हो? यह कैसे होगा कि हम चुनाव से मुक्त हो जाएं, हम चुनाव न करें, यह कैसे हो? यह निश्चित हो सकता है अगर हम उस तीसरे बिंदु के प्रति थोड़ा जागरण लाएं, और उस तीसरे को थोड़ा अनुभव करना शुरू करें, जैसे जीवन भर रोज तो घटनाएं घट रही हैं, आप दुख में होते होंगे, कभी बीमार पड़ते होंगे।
अभी एक मित्र को देखने गया, वह बहुत बीमार थे। उनके सिर में बहुत दर्द था, तो मैंने उनसे कहा कि यह तो बहुत अच्छा मौका है, इस वक्त एक प्रयोग करें, अपने भीतर यह देखने की कोशिश करें कि जो दर्द हो रहा है वह और जिसको दर्द अनुभव हो रहा है, वे दो अलग हैं, या एक है। जिसे दर्द की प्रतीति हो रही, अनुभूति हो रही है, वह अलग है, या कि दर्द के साथ एक है? उन्होंने आंख बंद की, पांच मिनट बाद मुझसे कहा, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, मैं जानने वाला तो अलग मालूम होता हूं। असल में उस चीज को आप जान ही नहीं सकते, जिसके साथ आप एक हों। केवल उसी को जान सकते हैं, जिससे आप अलग हो। मैं आपको देख रहा हूं, यह इस बात का प्रमाण है कि मैं आपसे अलग हूं। आप अपने को नहीं देख सकते या कि देख सकते हैं। आप अपने को नहीं देख सकते। आप जो भी देख सकते हैं, वह अन्य होगा।
आप जिसका भी अनुभव कर सकते हैं, वह अलग होगा। वह आपसे पृथक होगा। आप अपने को न देख सकते हैं, कोई रास्ता नहीं है। तो जिन-जिन चीजों को आप अनुभव कर सकते हैं, अनुभव करने के कारण ही वे आपसे पृथक हैं, आपसे अन्य हैं, अलग हैं। अगर पैर में आपके दर्द है, तो थोड़ा अनुभव करें और देखें, तो आपको ज्ञात होगा कि आप देखने वाले अलग हैं। और पैर का दर्द अलग है। और जैसे-जैसे इसका अभ्यास गहरा होगा, आप पाएंगे कि दर्द शरीर पर हो रहा है, और आप बिलकुल दूर खड़े हुए हैं। शरीर से क्रमशः पृथकता बढ़ती जाएगी, अगर आप स्पष्ट रूप से भीतर हमेशा, जब भी कोई ज्ञान हो, जब भी कोई अनुभव हो, तो एक पृथकता का अनुभव करें।
आप रास्ते पर चल रहे हैं, तो जरा भीतर अपने देखें कि आपके भीतर जो चेतना है वह चल रही या चलने को जान रही है। तो आप बहुत हैरान होकर पाएंगे कि आपके भीतर जो चैतन्य है वह चल नहीं रहा, केवल चलने को जान रहा है। शरीर चल रहा है और चेतना जान रही है। आप खाना खा रहे हैं, तो खाते वक्त अनुभव करें और स्मरण करें कि आपकी चेतना खाना खा रही है क्या? तो आपको स्पष्ट ज्ञात होगा कि खाना शरीर में जा रहा है और चेतना उसको अनुभव भर कर रही है, देख रही है, जान रही है। चेतना का, चेतना का केवल लक्षण जानना है। जानने के अतिरिक्त उसने कभी कुछ भी नहीं किया। लेकिन जानने के साथ अगर बोध न हो तो जो हम जानते हैं उसी के साथ आइडेंटिटी हो जाती है, तादात्म हो जाता है। एक फिल्म को देखने आप जाते हैं या एक नाटक को देखने जाते हैं, फिल्म पर या पर्दे पर कोई कहानी चलती है, कोई कथा चलती है। कथा अगर दुखद हो, तो आप रोने लगते हैं। आप वहां भी भूल जाते हैं कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है, एक आइडेंटिटी हो जाती है, एक तादात्म हो जाता है। वहां जो अभिनय हो रहा है, केवल विद्युत का खेल है। लेकिन उस अभिनय में, उन चित्रों में भी आप खो सकते हैं, और तल्लीन हो सकते हैं, और भूल सकते हैं कि मैं केवल दर्शक हूं। अनुभव कर सकते हैं कि मैं भी भोक्ता हो गया। छोटे लोग नहीं, बड़े-बड़े लोग।
विद्यासागर के बाबत एक घटना है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर का नाम आपने सुना होगा। बड़े विचारशील व्यक्ति थे, बड़े पंडित थे। एक नाटक को देखने गए थे। और नाटक में एक व्यक्ति है, खलनायक है। वह एक स्त्री के पीछे पड़ा है, उसे परेशान कर रहा है, हर तरह से परेशान कर रहा है। विद्यासागर बड़े सदविचारक थे, वे यह भूल ही गए कि नाटक देख रहे हैं। उन्हें इतना गुस्सा आया उस आदमी पर कि इस स्त्री को परेशान कर रहा है, इतना अनैतिक काम कर रहा है। उठे, जूता निकाला और फेंक कर मार दिया। जूता नाटक में एक खलनायक को फेंक कर मार दिया। भूल गए यह कि मैं केवल देखने वाला हूं और मात्र जो दिखाई पड़ रहा है, वह नाटक है। खलनायक उनसे कहीं ज्यादा समझदार सिद्ध हुआ, उसने जूते को सिर से लगाया और उसने कहा कि इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला, क्योंकि मेरे अभिनय को इससे ज्यादा सच कभी नहीं माना गया। और इतने बड़े आदमी ने उसको सत्य मान लिया है, तो मेरे ऊपर तो धन्य कृपा हो गई, मुझे बहुत पुरस्कार मिले हैं लेकिन इस जूतेे से बड़ा मेरा कोई पुरस्कार मुझे आज तक नहीं मिला। विद्यासागर बहुत घबड़ा गए। पसीने-पसीने हो गए, क्षमा मांगने लगे कि मैं भूल गया।
बड़े से बड़ा आदमी नाटक में खो सकता है। हम भी खोते हैं, वैसा ही चित्त पर भी अनुभवों का एक नाटक निरंतर चल रहा है। सुख आते हैं, दुख आते हैं, वर्षा आती है, गर्मी आती है; शीत आती है, परिवर्तन होते रहते हैं। छाया आती है, प्रकाश आता है, अंधेरा आता है। हमारे चित्त के पर्दे पर बहुत से परिवर्तन निरंतर हो रहे हैं, क्योंकि चित्त पूरे वक्त बाहर के जगत को प्रतिफलित करता है, रिफ्लेक्ट करता है। चित्त तो एक बड़ा सजीव यंत्र है, बड़ा सचेतन। बहुत ही सेंसिटिव, बहुत संवेदनशील, जो भी बाहर घटता है, वह उसे जल्दी से खबर दे देता है। पैर में दर्द होता है, चित्त खबर दे देता है कि पैर में दर्द हो रहा है। सिर में तकलीफ होती है, चित्त खबर दे देता है कि सिर में तकलीफ हो रही है। कोई गाली देता है, कोई प्रेम करता है, कोई अपमान करता है, कोई सम्मान करता है; चित्त खबर दे देता है कि ऐसा-ऐसा हो रहा है।
चित्त एक अत्यंत संवेदनशील यंत्र है, जो खबरें दे रहा है, पूरे वक्त। उन खबरों में हम जो भीतर जानने वाले हैं, प्रत्येक खबर से अलग और भिन्न हैं। लेकिन हम प्रत्येक खबर के साथ जुड़ जाते हैं और अपने को एक समझ लेते हैं। अगर आप मेरा सम्मान करते हैं, तो मैं समझ लेता हूं कि मेरा सम्मान हुआ। जबकि कुल बात इतनी है कि मेरे चित्त ने खबर दी कि कुछ लोग सम्मान कर रहे हैं। और मैंने इसे पकड़ लिया और समझा कि मेरा सम्मान हुआ, जब कि मैं केवल सम्मान करने वाले लोगों को और सम्मान को देखने वाला हूं। मैं केवल साक्षी हूं। अगर कोई अपमान कर रहा है, तो चित्त खबर देता है कि अपमान किया जा रहा है। और मैं समझ लेता हूं कि मेरा, जबकि मैं केवल जानने वाला हूं।
सम्मान आता है, अपमान आता है; सुख आते हैं, दुख आते हैं; मैं केवल जानने वाला हूं, मैं तीसरा बिंदु हूं, जो केवल जान रहा है। अगर जीवन में सजगता से, सचेतता से, होश से अगर हम अपने अनुभव से गुजरें तो आप पाएंगे आपका अनुभव ही, आपको अनुभव से मुक्त करने का मार्ग बन जाता है। सत्य को पाने के लिए, स्वयं को पाने के लिए संसार से कहीं भागने की नहीं, बल्कि संसार के बीच जो अनुभव हो रहे हैं, उनके बीच जागने की जरूरत है। भागना नहीं, जागना। बिंदु है साधना का, भागने वाला जाग नहीं सकता। क्योंकि वह तो अनुभवों के साथ अपने को एक मान लिया, घबड़ा कर भाग रहा है।
कबीर का एक लड़का था, कमाल। कबीर बड़े त्यागी थे, बड़े वैरागी थे। और कमाल कुछ अजीब सा लड़का था। कबीर उससे बहुत परेशान थे, गुस्से में उन्होंने कमाल को बाहर निकाल दिया घर से। कबीर का कहना था कि मैं अपरिग्रही हूं, मैं घर में कोई संपत्ति नहीं रखता, और कमाल कुछ अजीब था, गांव के लोग अगर उसे कुछ दे देते, तो वह लेकर घर आ जाता। जो लोग कबीर को भेंट करना चाहते, कबीर इनकार कर देते, बाहर कमाल बैठा रहता उसको दे जाते, तो वह ले लेता। तो कबीर ने कहा कि यह परिग्रही वृत्ति यहां नहीं चलेगी। तुम इस घर से अलग हो जाओ, इस झोपड़े को अपवित्र मत करो, यह संन्यासी का झोपड़ा है, तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं। तुम्हारी वृत्ति से मेरा मेल नहीं।
कबीर ने अलग कर दिया, तो कमाल थोड़ी दूर जाकर एक झोपड़ा बना कर रहने लगा। काशी के नरेश कबीर के पास कभी-कभी आते थे। मिलने आए थे, तो उन्होंने कबीर को कहा कि कमाल दिखाई नहीं पड़ता। कबीर ने कहा, उसका नाम न लें। उससे मेरा कुछ मेल नहीं बैठता। वह कुछ बड़ी लोभी प्रकृति का है, जो कोई कुछ दे देता है, तो ले आता है। तो नरेश उठ कर वहां से निकले, तो कमाल से भी लौटते में मिलने गए। देखने के लिए कि कहां तक बात सच है? उन्होंने एक बहुत बहुमूल्य हीरा, कमाल को भेंट किया। जाकर कमाल को नमस्कार किया, वह हीरा रखा, तो कमाल ने कहा, लाए भी तो एक पत्थर लाए। कुछ और लाना था, तो कुछ उपयोग का भी होता। नरेश ने सोचा कि कबीर फिर कुछ झूठ कहते होंगे क्योंकि यह आदमी तो कह रहा है, हीरे को पत्थर। तो नरेश उस हीरे को उठाकर वापस रखने लगे, तो कमाल हंसा और उसने कहा कि फिर आप इसको पत्थर नहीं मानते अभी, इतनी दूर तक बोझ ढोया, तो अब वापस बोझ क्यों ले जाते हैं? छोड़िए भी, तो नरेश को बहुत चिंता हुई, मन में खयाल हुआ कि यह तो बेईमान मालूम होता है। यह तो कोई बड़ा होशियार, कुछ बातचीत में बड़ी होशियारी मालूम होती है। पहले तो इसने कहा, पत्थर। बड़ा त्याग दिखलाया और अब यह कहता है कि पत्थर है, तो छोड़ जाइए। नरेश ने पूछा अच्छी बात है, इसे कहां रख दूं? तो कमाल ने कहा फिर ले जाइए। क्योंकि जब आप पूछते हैं कि कहां रख दूं, तो फिर इसको आप पत्थर नहीं मानते? फिर आप इसको मानते हैं कि इसका कोई मूल्य है, कहां रख दूं। तो फिर आप ले जाइए।
नरेश कुछ हैरान हुआ, इस बीच कुछ तय करना मुश्किल हो गया कि इसकी वृत्ति क्या है? फिर भी नरेश उसको, उसके झोपड़े में खोस आया। सनौली का झोपड़ा था, उसके छप्पर में हीरे को रख दिया। चलते वक्त उसको कहा कि यह मैं हीरा यहां रखे जाता हूं। कमाल ने कहाः तुम्हारी मर्जी। लेकिन मैंने तो कहा कि हीरा है ही नहीं, पत्थर है। और फिर भी तुम बार-बार मुझे जताते हो, तो तुम भाई उसे ले जाओ। पत्थर समझते हो तो छोड़ जाओ, हीरा समझते हो तो, ले जाओ। नरेश उसे खैर उस झोंपड़े में खोंस गया और चला गया। आगे जाकर उसके वजीर ने कहा कि आपने इधर पीठ फेरी, वहां हीरा निकाल लिया गया होगा। क्योंकि वह आदमी तो बहुत होशियार मालूम पड़ता है, बात-चीत में और कोई खास बात नहीं मालूम होती। नरेश ने कहाः दो-चार-आठ दिन में चलेंगे। कुछ काम में उलझा रहा और छह महीने बाद गया। जाकर उसने कमाल से पूछा कि मैं एक हीरा यहां भेंट कर गया था, वह कहां है? कमाल ने कहा मैंने आज तक किसी की भेंट न ली, और न किसी की भेंट इनकार की। कमाल ने कहाः न मैंने कभी किसी की भेंट ली, और न किसी की भेंट इनकार की। भेंट लेने वाले लोग भी हैं, भेंट को इनकार करने वाले लोग भी हैं। मैं उन दोनों के बाहर हूं। क्षमा करें। मुझे न आप कभी कुछ दे गए, न मैंने कभी किसी से कुछ लिया। उसने कहाः आप कैसी बात करते हैं, मैं एक हीरा यहां रख गया था, इस झोपड़े के छप्पर में। तो कमाल ने कहाः अगर कोई न ले गया हो, तो छप्पर में होगा, और कोई ले गया हो, तो मेरा कोई जिम्मा नहीं। नरेश ने सोचा कि इसने निकाल लिया है, अब ये तरकीबें हैं। वे जाते वक्त उसने झोपड़े को देखा, वह हैरान हुआ, हीरा वहां मौजूद था। वह हीरा वहीं का वहीं रखा हुआ था।
इस वृत्ति को मैं वीतरागता कहता हूं। यह गृहस्थ और संन्यास दोनों से भिन्न है। यह अचुनाव की स्थिति है। ऐसा चित्त यह जानता है कि जो भी मैं चुन रहा हूं, सब चुनाव तादात्म हैं, सब चुनाव आसक्तियां हैं। चाहे आसक्ति भोग की हो, चाहे त्याग की हो, चाहे आसक्ति सुख की हो, चाहे दुख की हो; चाहे कपड़ों की हो, चाहे नग्नता की हो; चाहे घर की हो, चाहे बेघर होने की हो। दोनों स्थितियों में मैं चुनाव कर रहा हूं, सवाल उसको देखने और जानने का है, जो चुनाव करता है। उस चैतन्य को, उस चेतना को, उस होश को, उस अवेयरनेस को जो हमारे भीतर है, जो विकल्प चुनती है।
अगर हम जीवन के सारे छोटे-छोटे अनुभव में, सुबह उठने से लेकर रात सोने तक इस बोध की चिनगारी को थोड़ा जगा सकें, और यह कठिन नहीं है क्योंकि कोई हिमालय पर जाने की, किसी मंदिर में या किसी मस्जिद में जाने का सवाल नहीं है, कोई रोटी छोड़ने की, कपड़ा छोड़ने का कोई सवाल नहीं है। सवाल बड़ा है उस चिंगारी को भीतर जगाए रखने का। वह करीब-करीब सोई-सोई हो गई है। उस पर राख ही राख जम गई है। हमें पता ही नहीं है, हम विकल्पों में ही जीते हैं, और उसको अनुभव नहीं कर पाते, जो विकल्पों को चुनता है। वह जो वास्तविक है तीसरा। उसे हम कभी खयाल नहीं कर पाते और दो जो अतियां हैं, उनके बीच डोलते रहते हैं, घड़ी का पेंडुलम जैसे एक कोने से दूसरे कोने पर चला जाता है, दूसरे कोने से फिर दूसरे कोने पर चला जाता है, वैसा हमारा चित्त डोलता रहता है। और घड़ी के पेंडुलम को यह पता ही नहीं चल पाता कि डोलना उसका स्वरूप नहीं है, पैंडुलम अपने भीतर बिलकुल अनडोला है। वह पेंडुलम जो डोल रहा है, अपने भीतर बिलकुल थिर है। सारा कंपन दो अतियों के बीच है, भीतर निष्कंप है। भीतर हम भी निष्कंप हैं, भीतर कोई कंपन न कभी हुआ है, न हो सकता है। लेकिन सारा कंपन दो अतियों के बीच चुनाव करने में है।
चुनाव को छोड़ें और उसके प्रति जागें, जो कि चुनाव करता है और चुनाव के बीच में है। इसलिए जीवन पूरा का पूरा अखंड साधना है, कोई खंडित साधना नहीं है कि तेईस घंटे कुछ किया और घंटे भर मंदिर में बैठ कर जाप फेरी या माला जपी या कुछ और किया। उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तो झूठी बात होगी। जीवन तो पूरा का पूरा अखंड है, उसमें घंटा भर धार्मिक और तेईस घंटे अधार्मिक नहीं हुआ जा सकता। चैबीस घंटे अगर होशपूर्वक जीवन की सामान्य से सामान्य क्रिया में जब रात्रि को आप बिस्तर पर सोने गए हैं, तो आप जरा जाग कर देखें कि आप देख रहे हैं अपने को बिस्तर पर सोते हुए जाते या कि आप सोने जा रहे हैं। आपको तत्काल स्पष्ट बोध होगा कि आप देख रहे हैं कि आप बिस्तर पर सोने जा रहे हैं। धीरे-धीरे अगर आपका नाम राम है, तो आपको लगेगा कि राम बिस्तर पर सोने जा रहा है। अगर कोई आदमी गाली देगा, तो आपको लगेगा कि राम को गाली दी जा रही है। अगर आपका कोई सम्मान करेगा, तो आपको लगेगा राम का सम्मान किया जा रहा है। और आप हमेशा एक देखने वाले साक्षी की तरह स्थापित हो जाएंगे।
जिस मात्रा में साक्षी की स्थापना होती है, उसी मात्रा में व्यक्ति शांत होने लगता है। सुख और दुख के बाहर होने लगता है। जिस-जिस मात्रा में साक्षी की स्थापना होती है। उसी मात्रा में व्यक्ति शरीर से मुक्त होेने लगता है, और आत्मा में प्रतिष्ठित होने लगता है। जिस-जिस मात्रा में साक्षी की स्थापना होती है, उसी-उसी मात्रा में व्यक्ति मृत्यु के बाहर होने लगता है, और जीवन में प्रवेश करने लगता है। साक्षी में खड़े हो जाना, स्वरूप में खड़े हो जाना है। स्वरूप में खड़े हो जाना, सब कुछ पा लेना है, जो पा लेने जैसा है। और मामला कुछ ऐसा अदभुत है कि जिसे हमने कभी भी नहीं खोया है, वही साक्षी होकर वापस मिल जाता है। जिसे हमने कभी भी नहीं खोया है। उसे हम खो नहीं सकते। वह हमें वापस मिल जाता है। और यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, यह कोई अंधविश्वास नहीं है। इसके लिए जरूरत नहीं है कि आप मानें कि महावीर तीर्थंकर थे, और भगवान थे। इसके लिए जरूरत नहीं कि आप मानें कि राम और कृष्ण अवतार थे, इसके लिए जरूरत नहीं कि आप मानें कि क्राइस्ट परमात्मा के पुत्र थे, इसके लिए जरूरत नहीं कि मोहम्मद जब स्वर्ग गए, तो सात घोड़ों पर सवार होकर गए, और सशरीर चले गए। इसके लिए जरूरत नहीं है कि आप मानें कि आपके भीतर आत्मा है। इसके लिए जरूरत नहीं कि आप माने कि परमात्मा है, उसने सृष्टि को बनाया। इसके लिए किसी तरह के अंधविश्वास की कोई जरूरत नहीं है। जरूरत है कुछ गहरे प्रयोगों की।
चेतना आपको अनुभव हो रही है, आपको अनुभव हो रहा है कि आप विचार करते हैं, विवेक करते हैं, चुनाव करते हैं, तो इस चेतना पर थोड़े गहरे प्रयोग करने की जरूरत है। धर्म अंधविश्वास नहीं है, प्रयोग है। और धर्म मानना नहीं है, बल्कि जानना है। और जिन लोगों ने धर्म को अंधश्रद्धा और विश्वास बना दिया, उनसे बड़े दुश्मन धर्म के दूसरे नहीं हैं। उन्होंने धर्म को नष्ट कर दिया। उनके कारण धर्म का विरोध पैदा हुआ। उनके कारण धर्म के प्रति प्रतिशोध पैदा हुआ। प्रतिक्रिया पैदा हुई। उनके कारण सारी दुनिया में नास्तिकता पैदा हुई।
जिन लोगों ने धर्म को अंधविश्वास बनाया है, बिलीफ बनाया है, उन लोगों ने सारी दुनिया में नास्तिकता पैदा की, उनका विरोध है वह। वह नास्तिकता उनका फल है। धर्म तो एक विज्ञान है, एक साइंस है। और धर्म का कोई संबंध किसी तरह के विश्वास और मान्यता से नहीं है। बल्कि जीवन में प्रयोग करने से है, और उस आदमी को हम अंधा कहेंगे, जो कि अपनी चेतना पर प्रयोग न करता हो। चैतन्य है, इसे दुनिया का कोई नास्तिक भी मानता है, कि हमारे भीतर चैतन्य है, भला वह कहता हो कि वह चेतना जो है पदार्थ से पैदा हुई। कोई फिकर की बात नहीं, यही कहो। लेकिन उस चेतना पर प्रयोग करो, प्रयोग करने से ज्ञात होगा कि चेतना पदार्थ से बिलकुल मुक्त और अलग है।
प्रयोग करने से ज्ञात होगा कि चेतना मात्र चेतना नहीं है, बहुत गहरे में आत्मतत्व है। प्रयोग करने से ज्ञात होगा, आत्मतत्व मात्र आत्मतत्व नहीं है, बल्कि समस्त जगत परमात्मा से व्याप्त है। यह तो जितने गहरे हम तल पर प्रयोग करेंगे, लेकिन हम में से बहुत लोग नदी के ऊपर की लहरों को देख कर ही जीवन को समाप्त कर देते हैं, और उस गहराई को जानने से वंचित रह जाते हैं, जहां कि नदी के असली प्राण हैं। और उस गहराई में उतरने से वंचित रह जाते हैं, जहां कि हीरे और जवाहरात हैं। हमारे भीतर बहुत है, सब है जो हो सकता है, केंद्र पर हमारे वह सारी संपदा है, जिसे पा लेने से शांति मिलेगी, जिसे पा लेने से जीवन का आनंद मिलेगा, जिसे पा लेने से जीवन की मुक्ति मिलेगी। जिसे पा लेने से अर्थ और अभिप्राय मिलेगा। लेकिन उस पर प्रयोग करने होंगे, विश्वास नहीं।
तो मैंने जो बातें कहीं हैं, वे भी विश्वास करने की नहीं है। अगर विश्वास करने की हों तो संप्रदाय बनता है। अगर विश्वास करने के लिए कहा जाए, तो संप्रदाय खड़े होते हैं, पंथ खड़े होते हैं, दुनिया में विश्वास के कारण सारे संप्रदाय और पंथ खड़े हुए, धर्म नष्ट हुआ। तो मैं विश्वास के विरोध में हूं, क्योंकि मैं किसी भी तरह के संप्रदाय और पंथ के विरोध में हूं।
मेरी मान्यता है कि धर्म निजि प्रयोग और अनुभव की बात है। कोई संगठन और समूह की बात नहीं है । और मैं किसी आप्तवचन में, न किसी आगम में, न किसी शास्त्र में अंधी श्रद्धा की जरूरत है, अपने में प्रयोग करें, सब आगम सत्य हो जाएंगे। और आगम पर विश्वास कर लें, तो आप खुद ही असत्य हो जाएंगे। अपने में प्रयोग करें तो सब शास्त्र सत्य हो जाएंगे। क्योंकि जो आप अपने भीतर जानेंगे, वह उन शास्त्रों में पाएंगे कि है, और शास्त्रों पर विश्वास करें, तो आप खुद ही असत्य रह जाएंगे, शास्त्र तो असत्य रहेंगे ही।
स्वयं पर प्रयोग और अनुभव और स्वयं की चेतना में प्रवेश जरूर श्रम मांगता है, साहस मांगता है, अकेली श्रद्धा नहीं। साहस और श्रम, चेष्टा और पुरुषार्थ मांगता है, लेकिन जो भी थोड़े प्रयोग करता है, वह बहुत उपलब्ध करता है। और जब उपलब्धि होती है, तो प्रयोग के मुकाबले में ज्ञात होता है, हमने कुछ भी नहीं किया और मुफ्त में पा लिया। जो हम करते हैं, वह ना-कुछ है, जो मिलता है वह बहुत कुछ है। ना-कुछ के मूल्य पर बहुत कुछ पाया जा सकता है। अभागे होंगे वे लोग, जो कि उसे पाने से अपने हाथ से वंचित रह जाएं। अगर हम वंचित रह जाएंगे तो हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं, दो-तीन सूत्र मैं दोहरा दूं कि मैंने आपसे क्या कहा? मैंने आपसे कहा कि द्वंद्व में स्वरूप नहीं है। जहां भी द्वंद्व है और दो की अतियां हैं, वहां आप नहीं हैं, वहां आपकी आत्मा नहीं है। इसलिए, द्वंद्व में आप चुनेंगे कभी स्वयं को नहीं पा सकेंगे। अद्वंद्व में, द्वंद्वातीत होने में, द्वंद्व के बाहर होेने में, अति के बाहर होने में उस तीसरे को चुनने में, जो हमेशा दो के पीछे खड़ा है, वहां स्वरूप है। उसे चुनने के लिए किसी श्रद्धा की, किसी विश्वास की जरूरत नहीं। प्रयोग की जरूरत है। और प्रयोग के लिए हिमालय पर, पहाड़ पर जाने की जरूरत नहीं, जीवन में चैबीस घंटे जो अनुभव हो रहे हैं, वहीं सजग होने की आवश्यकता है।
अगर आप सजग होकर अपने अनुभव से गुजर जाएं, तो संसार ही मोक्ष का द्वार बन जाता है। अगर आप सजग होकर जीवन से गुजर जाएं, तो जीवन का प्रत्येक अनुभव जीवन से मुक्त करने का मार्ग बन जाता है। जीवन है कि जीवन से मुक्त आप हो सकें। इस चारों तरफ जो विस्तार है, जीवन के अनुभव का, संवेदनाओं का, वह सब आपको मुक्त करने में समर्थ है।
अगर आप होशपूर्वक अपने अनुभव के प्रति जागें, जागते ही आपको दिखाई पड़ेगा, जो भी अनुभव होता है वह आपसे पृथक है, और आप भिन्न हैं। जिस दिन यह भिन्नता गहरी हो जाएगी, जितनी मात्रा में गहरी हो जाएगी, जिस अनुपात में गहरी हो जाएगी, उसी अनुपात में आपके जीवन में आनंद का स्रोत और जीवन का स्रोत खुल जाएगा। उस स्रोत को उपलब्ध कर लेना धर्म है, क्योंकि धर्म का अर्थ है स्वरूप।
धर्म का अर्थ है स्वयं को पा लेना। जो स्वयं को पा लेता है, वह सत्य को पा लेता है क्योंकि स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी आपके लिए सत्य नहीं हो सकता है। स्वयं ही बहुत प्रगाढ़ता में सत्य है, और स्वयं ही बहुत प्रगाढ़ता में परमात्मा है। तत्व की खोज, तत्व का विचार नहीं। शास्त्र का अध्ययन नहीं बल्कि स्वयं के भीतर प्रवेश। किसी पर श्रद्धा नहीं, किसी पर विश्वास नहीं, बल्कि अपनी आत्मचेतना पर प्रयोग। यह मैं आधार मानता हूं, जीवन सत्य की खोज के। इन आधारों से अगर हम वंचित हैं,तो हम कितने ही मंदिर जाएं, और कितनी ही प्रार्थनाएं करें, और कितना ही परमात्मा के पैरों में सिर झुकाएं ये सब बच्चों जैसे काम हैं, इनसे कुछ होने वाला नहीं। होगा प्रयोग से। होगा आत्मचेतना की साधना से। और प्रत्येक के जीवन में संभव हो सकता है, अगर एक मनुष्य के जीवन में भी कभी यह संभव हुआ है, महावीर या बुद्ध के, कृष्ण या क्राइस्ट के; तो कोई वजह नहीं है, हम भी हकदार हैं। हम भी उतना ही सब कुछ लेकर पैदा हुए हैं। वही हड्डियां हैं, वही शरीर है, वही चित्त है, वही भीतर चेतना है, लेकिन कुछ हैं, जो कि नदी में गहरे बैठ जाते हैं। और कुछ हैं, जो नदी के किनारे बैठे रह जाते हैं।
कबीर ने कहा हैः
मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।
हम अधिक ऐसे ही पागल हैं, जो किनारे पर बैठे रह जाते हैं और तब आखिर में हमें पता चलेगा कि हम पागल थे जो किनारे पर बैठे रहे। हीरे और मोती तो वहां गहरे में थे। और उस गहरे में कूदे बिना कोई उपाय नहीं, कोई दूसरा नहीं दे सकेगा। कोई आपके लिए नहीं कूद सकता। कोई आपके लिए आंख नहीं दे सकता अपनी। कोई अपना ज्ञान भी नहीं दे सकता है। खुद पाना होता है। और यह हमारा सौभाग्य है कि खुद पाना होता है। अगर सत्य उधार मिल जाए, खरीदे से मिल जाए, पैसा देने से मिल जाए, तो सत्य का मूल्य ही गिर जाएगा, वह पाने योग्य ही नहीं रह जाएगा।
मनुष्य की गरिमा है कि जो भी पाने योग्य है, वह उसे खुद पाना होता है। किसी और कि पैरों पर और किसी की आंखों पर, और किसी के हाथों का सहारा नहीं लेना होता है। न लेने की जरूरत है। न लेने का अपमान, न लेने जैसी, अपने साथ आत्मघातकता करने की कोई जरूरत है।
आत्म-श्रद्धा होनी चाहिए, पर-श्रद्धा नहीं।
स्वयं में खोज होनी चाहिए, पर की शरण जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी दूसरे के पैर पकड़ने की, किसी दूसरे के अनुयायी बनने की, किसी दूसरे की नकल करने की जरूरत नहीं है; अपनी चेतना में प्रवेश करने की जरूरत है। और जो प्रवेश करता है, वह धन्यभाग, वह महाभाग, वह बहुत कृतार्थता को उपलब्ध होता है।
परमात्मा करे वैसी कृतार्थता की तरफ इच्छा पैदा हो, संकल्प पैदा हो, खोज पैदा हो, यात्रा शुरू हो, उसकी मैं कामना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।
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