कुल पेज दृश्य

सोमवार, 5 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

शिक्षाः महत्वाकांक्षा और युवा पीढ़ी का विद्रोह

 

मनुष्य की आज तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा की शिक्षा रही है। वह मनुष्य को ऐसी दौड़ में गति देती है जो कभी भी पूरी नहीं होती। और जीवन भर की दौड़ के बाद भी हृदय खाली का खाली रह जाता है। मनुष्य के मन का पात्र जीवन भर की कोशिश के बाद भी अंत अपने को खाली पाता है। इसीलिए मैं ऐसी शिक्षा को सम्यक नहीं कहता।
मैं उसी शिक्षा को सम्यक शिक्षा कहता हूं, तो मनुष्य की मन को भरने की इस व्यर्थ की दौड़ को समाप्त कर दे। मैं उसी शिक्षा को सम्यक कहता हूं जो महत्वाकांक्षा के इस ज्वर से मनुष्य को मुक्त कर दे। मैं उसी शिक्षा को ठीक शिक्षा कहता हूं जो मनुष्य कोई बुनियादी भूल से छुटकारा दिलाने में सहायक हो जाए। लेकिन ऐसी शिक्षा पृथ्वी पर कहीं भी नहीं। उलटे जिसे शिक्षा कहते हैं वह मनुष्य की महत्वाकांक्षा को बढ़ाने का काम करती है। उसकी महत्वाकांक्षा की आग में घी डालती है, उसकी आग को प्रज्वलित करती है, उसके भीतर जोर से त्वरा पैदा करती है, जोर से गति पैदा करती है कि वह व्यक्ति दौड़े और अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने में लग जाए। मन की वासनाओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति को सक्षम बनाने की कोशिश करती है शिक्षा, मन को महत्वाकांक्षा से मुक्त होने के लिए नहीं। और इसके स्वाभाविक परिणाम फलित होने शुरू हुए हैं। सारे लोग अगर महत्वाकांक्षी हो जाएंगे तो जीवन एक द्वंद्व और संघर्ष के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर सारे लोग अपनी महत्वाकांक्षा के पीछे पागल हो जाएंगे तो जीवन एक बड़े युद्ध के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है।

पुराने जमाने के लोग अच्छे नहीं थे। आज के जमाने के लोग बुरे नहीं हो गए हैं। यह भांति है बिलकुल कि पहले के जमाने के लोग अच्छे थे और आज के लोग बुरे हो गए हैं। यह भी भ्रांति है कि पहले जमाने के युवक अच्छे थे और आज के युवक पतित हो गए हैं और चरित्रहीन हो गए हैं। झूठी हैं ये बातें, इनमें कोई भी तथ्य नहीं है। लेकिन एक फर्क जरूर पड़ा है। पुराने जमाने का जवान शिक्षित नहीं था, उसकी महत्वाकांक्षा बहुत कम थी। आज की दुनिया का युवक शिक्षित है। उसकी महत्वाकांक्षा की अग्नि में घी डाला गया है। वह पागल होकर प्रज्वलित हो उठी है और जितनी जोर से शिक्षा बढ़ती जाएगी उतनी ही जोर से यह विक्षिप्तता और पागलपन भी बढ़ता जाएगा। शिक्षा के साथ-साथ मनुष्य का पागलपन भी विकसित हो रहा है।
अतीत के लोग अशिक्षित थे, बेपढ़े लिखे लोग थे। उनकी महत्वाकांक्षा धीमे धीमे जलती है। आज के युग की शिक्षा ने आदमी को, उसकी महत्वाकांक्षा को बहुत प्रज्वलित कर दिया है। पहले कभी कोई एकाध आदमी पागल हो जाता था और सिकंदर बनने की कोशिश करता था। अब सब आदमी पागल हैं और सभी सिकंदर होना चाहते हैं। और हम सिकंदर और पागल बनाने की इस कोशिश को शिक्षा का नाम देते हैं।
मैंने पुरानी से पुरानी किताबें देखी हैं और मैं देख कर हैरान हो गया। चीन में संभवतः दुनिया की सबसे पुरानी किताब है जो साढ़े छह हजार वर्ष पुरानी है और उस किताब की भूमिका में लिखा हुआ है कि आजकल के लोग बिलकुल बिगड़ गए हैं, पहले के लोग बहुत अच्छे थे। मैं बहुत हैरान हुआ। वह भूमिका इतनी आधुनिक मालूम पड़ती है कि लगता है आजकल के किसी लेखक ने किताब लिखी हो। साढ़े छह हजार वर्ष पहले कोई लिखता है कि आजकल के लोग बिगड़ गए हैं, पहले के लोग अच्छे थे! यह पहले के लोग कब थे?
आज तक जमीन पर एक भी किताब ऐसी नहीं है जिसमें लिखा हो कि आजकल के लोग अच्छे हैं। हर किताब कहती है कि पहले लोग अच्छे थे। यह पहले की बात बिलकुल कल्पना, बिलकुल असत्य है। अगर पहले के लोग अच्छे थे तो ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध ने किन लोगों को सिखाया कि चोरी मत करो, झूठ मत बोला, हिंसा मत करो? किन लोगों को सिखाई है यह बात? अगर पहले के लोग अच्छे थे तो महाभारत कौन कराता था और सीता कौन चुरा ले जाता था? और अगर पहले के लोग अच्छे थे तो दुनिया में यह जो उपदेशक हुए जीसस क्राइस्ट, कृष्ण, बुद्ध और कनफ्यूसियस, इन्होंने किन लोगों के सामने अपनी बातें समझाई? ये किनके लिए रोते थे? इनके हृदय में किनके लिए वेदना थी? ये किनसे कहते रहे कि तुम अच्छे हो जाओ? तो फिर ये सारे लोग पागल थे कि लोग अच्छे थे और ये व्यर्थ ही उपदेश दिए जाते थे। अगर यहां सभी लोग सच बोलने वाले हों और मैं आकर समझाने लगूं कि आपको सच बोलना चाहिए तो लोग हंसेंगे कि आप किसको समझा रहे हैं! यहां तो सभी लोग सच बोलते ही हैं।
दुनिया भर के शिक्षकों की शिक्षाएं यह कहती हैं कि लोग कभी भी अच्छे नहीं थे। जो फर्क पड़ा है वह इस बात में नहीं पड़ा कि लोग बुरे हो गए हैं। फर्क बड़ा है कि बुरे लोग शिक्षित हो गए हैं और शिक्षा ने बुरे लोगों को अपनी बुराई से बचाने के लिए कवच का रूप ले लिया है। शिक्षा उनकी बुराई को बचाने का माध्यम हो गई है। शिक्षा उनकी बुराई को बढ़ाने का माध्यम हो गई है। शिक्षा उनकी बुराई की जड़ों को पानी डालने का कारण बन गई है। लोग बुरे नहीं हो गए लेकिन बुरे लोग ज्यादा सबल और ज्यादा शक्तिमान हो गए हैं और उनके हाथ में शिक्षा ने बड़ा अस्त्र शस्त्र दे दिए हैं।
एक बुरा आदमी हो और उसके पास तलवार न हो और एक बुरा आदमी हो उसके हाथ में एटम बम आ जाए तो जिसके हाथ में एटम बम है वह बहुत बड़ी बुराई कर सकेगा और शायद तब हम सोचेंगे जिनके पास एटम बम नहीं था वे बड़े कोई अच्छे लोग थे। उनके हाथ में पत्थर थे तो उन्होंने पत्थर फेंके थे और एटम बम उनके हाथ में आ गया तो वे एटम बम फेंक रहे हैं। फेंकने वाले वही के वहीं हैं। केवल फिंकने वाली चीज की ताकत बढ़ गई है।
आदमी शिक्षित हुआ है और शिक्षा गलत है। आदमी बुरा हमेशा से था। शिक्षा ने बुराई को हजार गुनी ताकत दे दी है। कहते हैं न, करेला नीम पर चढ़ जाए तो और कड़वा हो जाता है। बुरे आदमी शिक्षा की नीम पर चढ़ गए। करेला तो पहले से ही कड़वा था और शिक्षा की नीम ने और कड़वा कर दिया है। और यह भी मत सोचना कि आज की शिक्षा ही गलत है, आज तक की सारी गलत रही है। यह भी मत सोचना कि पश्चिम के लोगों ने आकर शिक्षा गलत कर दी है। यह भूल से मत सोचना। शिक्षा हमेशा से गलत रही है। और यह भी मत सोचना कि विद्यार्थी गलत हो गए हैं। सब विद्यार्थी और सब गुरु हमेशा से गलत रहे हैं।
द्वोणाचार्य का नाम हम भलीभांति जानते हैं। अपने एक अमीर शिष्य के पक्ष में गरीब शूद्र का अंगूठा काट लाए थे। वे गुरु थे! एकलव्य से इसलिए अंगूठा लिया था कि अंगूठा दे दे तू, क्योंकि एकलव्य था शूद्र, गरीब और दरिद्र। और अर्जुन था धनपति, सम्राट, राजकुमार। अगर एकलव्य धनुर्विद्या में बड़ा हो जाए तो अर्जुन को कोई पूछेगा ही नहीं दुनिया में। तो उस गरीब शूद्र लड़के से अंगूठा कटवा लिया ताकि अमीर शिष्य आगे बढ़े जाए। पहले से ही गुरु गरीब शिष्यों के अंगूठे काटते रहे हैं यह कोई आज की बात नहीं है। लेकिन एक फर्क पड़ गया है। पुराना एकलव्य सीधा सादा था। उसने अंगूठा दे दिया था। नए एकलव्य अंगूठा देने से इंकार कर रहे है। वे कहते हैं, इस अंगूठा नहीं देंगे और वे कहते हैं कि यदि ज्यादा कोशिश की तो हम तुम्हारे अंगूठे काट लेंगे। यह फर्क पड़ गया है। इसके अतिरिक्त और कोई फर्क नहीं पड़ा है।
यह जो स्थिति है, यह जो आदमी की आज दशा है उससे चिंता होती है। हर तरफ विद्यार्थी आग लगा रहे हैं, पत्थर फेंक रहे हैं मकान तोड़ रहे हैं, यह कोई सामान्य घटना नहीं है। और यह घटना आज के विद्यार्थियों भर से संबंधित नहीं है। यह पांच हजार वर्ष का युवकों का रोष है जो इकट्ठा हो कर चरम सीमा पर पहुंच गया है। यह पांच हजार वर्ष की गलत शिक्षा का अंतिम फल है। यह पांच वर्षों के शोषण-यह पांच हजार वर्षों के दमित युवक के मन की पीड़ा और वेदना है और आज उसने वह जगह ले ली है कि अब उस वेदना को कोई ठीक मार्ग नहीं मिल रहा है तो वह गलत मार्गों से प्रकट हो रही है।
असल बात यह है कि युवक मकान तोड़ना नहीं चाहता है। कौन पागल होगा जो मकान तोड़ेगा? क्योंकि मकान अंततः किसके टूटते हैं? बूढ़ों के नहीं टूटते हैं, हमेशा युवकों के ही टूटते हैं। क्योंकि बूढ़े कल बिदा हो जाएंगे और मकान युवकों के हाथ में पड़ेंगे। फिर कौन महान तोड़ना चाहता है? कौन कांच तोड़ना चाहता है? कौन बसें जलाना चाहता है? कोई नहीं जलाना चाहता। शायद मन के भीतर किन्हीं और चीजों को जलाने की तीव्र भावना पैदा हो गई है और समझ में नहीं आ रहा है कि हम किस चीज को जलाए तो हम किसी भी चीज को जला रहे हैं। सारे अतीत को जलाने का खयाल आज मनुष्य के भीतर पैदा हो रहा है और समझ में नहीं आ रहा है कि हम क्या जलाए, हम क्या करें, हम क्या तोड़ दें? कोई चीज तोड़ने जैसी हो गई है। कोई चीज मिटाने जैसी हो गई है। कोई चीज बिलकुल जलाने जैसी हो गई है। हर युग में कुछ चीजें जला देनी पड़ती है ताकि हम अतीत से मुक्त हो जाए और आगे बढ़ जाए, ताकि परंपराओं से मुक्त हो जाए और जीवन गतिमान हो सके। नदी जब समुद्र की और दौड़ती है तो न मालूम कितने पत्थर तोड़ने पड़ते हैं, कितनी मार्ग की बाधाएं, हटानी पड़ती हैं, कितने दरख्त गिरा देने पड़ते हैं, तब कहीं रास्ता बनता है और नदी समुद्र तक पहुंचती है।
हजारों हजारों साल से मनुष्य की चेतना को रोकने वाली बहुत सी चीजें पत्थरों की दीवाल की तरह खड़ी हैं। आज तक आदमी ने विचार नहीं किया उन्हें तोड़ डालने का। लेकिन जैसे जैसे मनुष्य की चेतना में समझ, बोध और विचार का जन्म हो रहा है वैसे ही एक तीव्र वेदना, एक तीव्र आंदोलन सारे जगत में प्रकट हो रहा है। युवक नासमझ है कि वह कुछ भी तोड़ने में लग गया है। लेकिन फिर भी मुझे बड़ी खुशी होती है और मेरे हृदय में बड़ा स्वागत है कि कम से कम उसने तोड़ना तो शुरू किया। आज गलत चीजें तोड़ता है कल ठीक चीजें तोड़ने के लिए हम उसे राजी कर लेंगे। अभागे तो वे युवक थे जिन्होंने कभी कुछ तोड़ा ही नहीं। तोड़ने की सामथ्र्य एक बार पैदा हो जाए तो तोड़ने की शक्ति को दिशा दी जा सकती है। एक बार विध्वंस की शक्ति आ जाए तो उस शक्ति को सृजनात्मक बनाया जा सकता है। क्योंकि स्मरण रहे जो लोग तोड़ ही नहीं सकते वे बना भी कैसे सकते हैं। और खयाल रहे सृजन का पहला सूत्र विध्वंस है। बनाने के पहले तोड़ देना पड़ता है।
एक गांव था। और उस गांव में एक बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना हो गया था। जैसे कि सभी चर्च पुराने हो गए हैं, सभी मंदिर पुराने हो गए हैं। वह बहुत पुराना हो गया था। उसकी दीवालें इतनी जीर्ण हो गई थीं कि उस चर्च के भीतर भी जाना खतरनाक था। वह किसी भी क्षण गिर सकता था। आकाश में बादल आ जाते और आवाज होती तो चर्च कांपता था। हवाएं चलती थीं तो चर्च कांपता था। हमेशा डर रहता कि चर्च कभी भी गिर सकता है। चर्च में जाना तो दूर, पड़ोस के लोगों ने भी पड़ोस में रहना छोड़ दिया था। डर था कि चर्च किसी भी दिन गिर जाएगा और प्राण ले लेगा। चर्च संरक्षक गांव भर में पूछते कि आप लोग चर्च क्यों नहीं चलते हैं? क्या अधार्मिक हो गए हैं? क्या ईश्वर का नहीं मानते हैं? लेकिन कोई भी अधार्मिक हो गए हैं? क्या ईश्वर को नहीं मानते हैं? लेकिन कोई भी इस बात को नहीं पूछता था कि कहीं ऐसा तो नहीं है चर्च बहुत पुराना हो गया है और उसके नीचे केवल वे ही जा सकते हैं जिनकी कब्र में जाने की तैयारी है, बिलकुल बूढ़ा हो गए हैं, जिनको अब मरने से कोई डर नहीं है। जवान उस चर्च में नहीं जा सकते जो इतना गिने के करीब है। आखिर संरक्षक घबरा गए और उन्होंने एक कमेटी बुलायी और सोचा कि अब अगर कोई आता ही नहीं इस पुराने चर्च में तो उचित होगा कि हम नया चर्च बना लें। उन्होंने चार प्रस्ताव पास किए उस कमेटी में उन पर जरा गौर कर लेना क्योंकि उनका बड़ा अर्थ है।
उन्होंने चार प्रस्ताव किए। पहला संकल्प और पहला प्रस्ताव उन्होंने यह किया कि पुराने चर्च को गिरा देना चाहिए। सबने कहा कि यह बिलकुल ठीक है। सब एक मत से राजी हो गए। दूसरा प्रस्ताव उन्होंने यह किया कि हमें इसकी जगह एक नया चर्च बनाना चाहिए लेकिन ठीक उसी जगह जहां पुराना चर्च खड़ा है और ठीक वैसा ही जैसा पुराना चर्च है। इस पर भी सभी लोग राजी हो गए। तीसरा प्रस्ताव उन्होंने यह किया कि हमें पुराने चर्च में जो जो सामान लगा है उसी सामान से नया चर्च बनाना है। दरवाजे भी वहीं, ईंटें भी वही। पुराने चर्च के सारे सामान से यह नया चर्च बनाना है। इस पर भी सब लोग राजी हो गए। और चैथा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि जब तक नया चर्च न बन जाए तब तक पुराना चर्च गिराना नहीं है।
वह चर्च अभी भी खड़ा हुआ है। वह हमेशा खड़ा रहेगा। वह कभी नहीं गिर सकता क्योंकि वे प्रस्ताव पास करने वाले बड़े होशियार थे।
 आदमी की जिंदगी पर भी पुराने चर्चों का बहुत भार है। पुरानी परंपराओं का, पुराने मंदिरों का, पुराने शास्त्रों का, पुराने लोगों का। अतीत जकड़े हुए है मनुष्य के भविष्य को। पीछे की तरफ हमारी टांग कसी हुई है किन्हीं जंजीरों से और आगे की तरफ हम मुक्त हो पाते तो प्राण तड़फड़ा उठते हैं कि तोड़ दो सब। और सब कोई उत्सुक हो जाता है तोड़ने को तो वह यह भूल जाता है कि हम क्या तोड़ रहे हैं।
युवक तोड़ रहे हैं यह तो खुशी की और स्वागत की बात है, लेकिन गलत चीजें तोड़ रहे हैं यह दुख की बात है। कुछ और जरूरी चीजें हैं जो तोड़नी चाहिए। मुल्क के नेता और मुल्क के अगुवा यही चाहते हैं कि युवक गलत चीजें तोड़ते रहें ताकि उन्हें कहीं ठीक चीजें तोड़ने की खयाल न जाए। वे भी यही चाहते हैं, यद्यपि वे समझाते हैं कि चीजें मत तोड़ो, बस में आग मत लगाओ, मकान मत जलाओ। वे समझाते हैं कि यह बहुत बुरा हो रहा है लेकिन हृदय के बहुत गहरे कोने में वे यही चाहते हैं कि युवकों का मन व्यर्थ की चीजें तोड़ने तक उनका खयाल न चला जाए। इसलिए जब कोई गलत चीजें तोड़ रहा है तो वह न सोचे कि उससे जिंदगी बनेगी। यह लोगों के हाथ में खेल रहा है उसका उसे पता ही नहीं है।
नेता हमेशा मुल्क की चेतना को, देश के मन को गलत चीजों में उलझा देना चाहते हैं। और इस बात के पीछे बहुत गहरी चालाकी है। चालाकी यह है कि अगर लोगों को गलत चीजों में उलझा दिया जाए तो ठीक चीजें तोड़ने से उन्हें रोका जा सकता है। उनकी ताकत व्यर्थ की चीजों को नष्ट करने मग समाप्त हो जाती है। और न केवल ताकत समाप्त हो जाती है बल्कि व्यर्थ चीजें तोड़कर वे खुद पचात्ताप से भर जाते हैं और तब उनकी तोड़ने की हिम्मत क्षीण हो जाती है। उनका अंतःकरण कहने लगता है, यह सब गलत हो रहा है। उनके पास भी यह आत्मबल नहीं होता है कि वे यह कह सकें कि हमने इस बस में आग लगाई है तो कुछ ठीक किया है। उनके पास यह आत्मबल नहीं हो सकता है। गलत चीजें टूटने से कुछ बिगड़ता नहीं, उल्टे तोड़ने वाले का आत्मबल नष्ट होता है और उसकी तोड़ने की क्षमता नष्ट होती है। उसकी तोड़ने की शक्ति व्यर्थ की चीजों में उलझकर समाप्त हो जाती है।
उनसे ज्यादा से ज्यादा खतरा तभी तक होता है जब तक वे विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं। उसके बाद उनसे कोई खतरा नहीं होता, क्योंकि उनकी पत्नियां, उनके बच्चे उनके सारे खतरे के लिए शाक एब्जार्वर का काम करने लगेंगे। फिर उनसे कोई खतरा नहीं है। एक बार उनकी शादी हो जाए तो उनसे कोई खतरा नहीं है। और मैं आपसे यह भी कह देता हूं, जैसा मैंने आपसे कहा कि युवक शिक्षित हो गया है इसलिए खतरा बढ़ा है, दूसरी बात, शादी की उम्र बड़ी हो गई है, इससे भी खतरा बढ़ा है। क्योंकि शादियां बहुत पुराने दिनों से आदमी के भीतर विद्रोह की क्षमता को तोड़ने का काम करती रही हैं, जो विद्रोही चेतना है उसको नष्ट करने का काम करती रही हैं। पुराने लोग इस मामले में बड़े होशियार थे। दस बारह साल के लड़कियों और लड़कों को विवाहित कर देते थे। उसके बाद उनसे विद्रोह की कोई संभावना नहीं रह जाती थी, वे उसी वक्त से बूढ़े होने शुरू हो जाते थे। असल में वे जवान हो ही नहीं पाते थे।
सारी दुनिया में शिक्षा के साथ दूसरा तत्व यह है कि विवाह की उम्र लंबी हुई है। चैबीस वर्ष और बीस वर्ष के युवक और युवतियां अविवाहित हैं। ये दिन विद्रोह की क्षमता के विकसित होने के क्षण हैं। उनके ऊपर कोई बंध नहीं। ये क्षण हैं, जब विद्रोह को सोच सकते हैं, जब उनकी आत्मा किन्हीं चीजों को गलत कह सकती है।
अमरीका के मनोवैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि अमरीका में फिर छोटी उम्र में शादी शुरू कर देनी चाहिए। अगर चीजों को बचाना है कि युवक उन्हें तोड़ न दें, तो उनकी शादी जल्दी हो जानी चाहिए। क्योंकि तब उनकी सारी ताकत नमक, तेल, लकड़ी जुटाने में समाप्त हो जाती है। फिर उनसे कुछ भी नहीं हो सकता। जवानी में नमक तेल लकड़ी जुटाते हैं, बुढ़ापे में स्वर्ग, पर लोग वगैरह की व्यवस्था के लिए भजन कीर्तन करते हैं। फिर उनसे कोई विद्रोह नहीं हो सकता। विद्रोह के क्षण हैं उनके पच्चीस वर्ष से पहले के क्षण।
दुनिया में जो इतनी चीजें टूट रही हैं उसके पीछे ये कारण हैं। लेकिन मेरे मन में इससे दुख नहीं है कि चीजें टूट रही हैं। मैं मानता हूं कि बड़े शुभ लक्षण हैं, ये बड़े शुभ समाचार हैं। दुख इस बात का है कि गलत चीजें टूट रही हैं। बहुत जरूरी चीजें हैं जिन्हें तोड़ देना चाहिए। और उन जरूरी चीजों में से पहली चीज यह है कि हमें उस दुनिया को जो महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ी है, बदल देना चाहिए। महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ी हुई दुनिया को तोड़ देना चाहिए और एक गैर महत्वाकांक्षा (छवद(ंउइपजपवने) समाज का निर्माण करना चाहिए। यह क्यों? यह इसलिए कि महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ा हुआ जगत हिंसा, दुख और पीड़ा का ही जगत हो सकता है। उसमें न तो प्रेम हो सकता है, न आनंद हो सकता है, न शांति हो सकती है।
महत्वाकांक्षा का अर्थ क्या होता है? महत्वाकांक्षा का अर्थ होता है दूसरों से आगे निकल जाने की दौड़। बचपन से हमें यही सिखाया जाता है, पहली कक्षा से यही सिखाया जाता है कि दूसरे से आगे निकल जाओ, प्रथम आ जाओ। प्रथम आना ही एकमात्र मूल्य है। जो युवक प्रथम आ जाएगा, जो बच्चा पहले आ जाएगा वह पुरस्कृत होगा, सम्मानित होगा। जो पीछे छूट जाएंगे वे अपमानित हो जाएंगे। यह दुनिया इतनी उदास कभी नहीं होती, लेकिन हमें पता नहीं है कि हम कैसी मनौविज्ञानिक महत्वाकांक्षा रख रहे हैं मनुष्य के लिए। एक स्कूल में अगर हजार बच्चे पढ़ते हैं तो आखिर कितने बच्चे प्रथम आएंगे? दस बच्चे प्रथम आएंगे और नौ सा नब्बे पीछे रह जाएंगे।
दुनिया कौन बनाता है? प्रथम होने वाले दुनिया बनाते हैं या हारे हुए, पीछे रह जाने वाले लोग दुनिया बनाते हैं? दुनिया किनसे बनती है? दुनिया के संगठन कौन हैं दुनिया के संगठन हैं पराजित लोग। हारे हुए लोग, दुखी लोग जो प्रथम नहीं आ सके वे लोग। और जब पहली ही कक्षा से बच्चे को निरंतर पीछे रहना पड़ता है तो उसके जीवन में आत्मग्लानि, हीनता, दीनता सब पैदा हो जाता है। ये दीनहीन लोग दुनिया के संगठन हैं। उनकी बड़ी संख्या होगी, ये दुनिया को बनाएंगे, जिनको जीवन के कोई सम्मान नहीं दिया, कोई आदर नहीं दिया।
आप कहेंगे कि कौन इन्हें रोकता था, ये भी प्रथम आ सकते थे। ठीक कहते हैं आप। कोई नहीं रोकता है। ये भी प्रथम आ सकते थे। लेकिन तीस लड़कों में कोई भी प्रथम आए, एक ही लड़का प्रथम आएगा। उनतीस हमेशा पीछे रह जाएंगे। उनतीस दुखी होंगे। एक प्रसन्न होगा। कोई भी एक प्रसन्न हो, यह सवाल नहीं है कि कौन एक प्रसन्न होता है। लेकिन उनतीस दुखी होंगे। उनतीस के दुख पर एक व्यक्ति का सुख निर्भर होगा और उनतीस बच्चे दुख लेकर जीवन में प्रविष्ट होंगे। हारे हुए लोग, पराजित लोग। महत्वाकांक्षा ने सारी दुनिया को दीनहीन बना दिया है। एक ऐसा समाज और एक ऐसी शिक्षा और एक ऐसी संस्कृति चाहिए जहां प्रथम आने के पागलपन से आदमी का छुटकारा हो गया हो, नहीं तो दुनिया में युद्ध नहीं रुक सकते हैं, क्रोध नहीं रुक सकता। जब कोई आदमी बहुत क्रोध, दुख और विषाद से भर जाता है तो वह सारी दुनिया से बदल लेता है-इस बात का कि मुझे दुख दिया है उस दुनिया ने, मुझे कोई सम्मान नहीं दिया, मुझे कोई पुरस्कार नहीं दिए, मुझे कोई आदर नहीं दिया, मुझे कोई पदवियां नहीं दीं। वह सारी दुनिया के प्रति क्रुद्ध हो उठता है, क्रोध से भर जाता है। यह क्रोध निकल रहा है सब तरफ से बह बहकर।
क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हम एक ऐसी शिक्षा विकसित करें जो व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा में नहीं, आत्म परिष्कार में ले जाती हो। इन दोनों बातों में भेद है। इस सूत्रों को ठीक से समझ लेना जरूरी है। एक स्थिति तो यह है कि मैं दूसरे लोगों से आगे निकलने की कोशिश करूं और दूसरी स्थिति यह है कि मैं रोज अपने आपसे आगे निकलने की कोशिश करूं। मैं जहां कल था, आज उससे आगे बढ़ जाऊं। मेरी तुलना मेरे अतीत से हो, किसी पड़ोसी से नहीं। मैं रोज खुद को पार करूं, खुद को अतिक्रमण करूं। कल सूरज ने मुझ जहां छोड़ा था डूबते वक्त, आज का उगता सूरज मुझे वही न पाए। मैं आगे बढ़ जाऊं। कल रात सूरज विदा हुआ था तब खेतों में जो पौधे लगे थे आज सुबह आप उनको वहीं पाएंगे। वे आगे बढ़ गए हैं, लेकिन किस से आगे बढ़ गए हैं? किसी दूसरे से? नहीं, अपने से आगे बढ़ गए हैं। किसी दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है प्रकृति में। सारी प्रकृति किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा में नहीं है सिवाय मनुष्य को छोड़कर।
एक गुलाब का फूल खिल रहा है एक बगिया में। उसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है कि चमेली का फूल कैसे खिलता है और कमल का फूल कैसे खिला है। गुलाब का फूल खिल रहा है अपनी खुशी में। उसका पुष्पित होना उसकी अपनी आंतरिक बात है। आदमी भरके फूल गड़बड़ हो गए हैं। वह हमेशा दूसरों की तरफ देख रहे हैं कि दूसरे के खिलने से मैं कितना आगे निकलता हूं और वह कितने पीछे रह जाता है। अपनी खुद की सेल्फ फलावरिंग का कोई खयाल ही नहीं है। इससे एक पागलपन पैदा होता है। वह पागलपन ऐसा है कि अगर मैं किसी बगिया में चला जाऊं और गुलाब से कहूं कि पागल क्या तू गुलाब ही होकर नष्ट हो जाएगा? कमल नहीं होना है? कमल का फूल बहुत शानदार होता है, कमल हो जा तो पहली बात यह है कि गुलाब मेरी बात ही नहीं सुनेगा। वह हवाओं में डोलता रहेगा, मेरी बात उसे सुनाई नहीं पड़ेगी, क्योंकि फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं होते कि किसी ने भी बुलाया और सुनने को आ गए। फूल इतने नासमझ नहीं होते कि सुनने को राजी हो जाए। अव्वल तो फूल सुनेंगे नहीं, लेकिन हो भी सकता है, आदमी के साथ रहते रहते उसकी बीमारियां फूलों को भी लग सकती हैं। बीमारियां संक्रामक होती हैं। बीमारियां छूत की होती हैं। हो सकता है आदमी की बगिया में लगे लगे फूलों में गड़बड़ी आ गई हो और वह भी उपदेश सुनने लगे हों तो मेरी बात अगर वह फूल मान लेंगे तो फिर क्या होगा?
उस गुलाब के फूल को अगर मेरी बात पकड़ गई, यह ज्वर पकड़ गया कि मुझे कमल का फूल हो जाना है या कमल के फूल से आगे निकल जाना है पागल हो जाएगा वह गुलाब का पौधा। फिर उसमें फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब से गुलाब ही पैदा होते हैं, कमल पैदा नहीं हो सकता। यह उसकी आंतरिक विवशता है, वह कुछ और नहीं हो सकता। गुलाब का फूल गुलाब ही हो सकता है। चमेली चमेली ही हो सकती है, चंपा चंपा ही हो सकती है, घास का फूल घास का फूल ही हो सकता है, कमल का फूल कमल का फूल ही हो सकता है। लेकिन अगर यह पागलपन चढ़ जाए कि चंपा चमेली होने की कोशिश करे, गुलाब कमल होने की, तो फिर उस बगिया में फूल पैदा होने बंद हो, जाएंगे। गुलाब कमल तो हो ही नहीं सकता है, लेकिन कमल होने की कोशिश में गुलाब भी नहीं हो सकता।
आदमी की बगिया में फूल इसीलिए पैदा होने बंद हो गए हैं। कांटे ही कांटे पैदा होते हैं; वहां फूल पैदा होते ही हनीं। क्योंकि कोई आदमी स्वयं होने की कोशिश में नहीं है। हर आदमी कोई और होने की कोशिश में है; किसी और को पार करने की चेष्टा में लगा हुआ है। शिक्षा हर आदमी को खुद होने का खयाल नहीं देती। हमारी शिक्षा कहती है, देखो वह आदमी आगे निकल गया है, तुमको भी वैसे हो जान है। देखो वह आदमी दिल्ली पहुंच गया है, तुमको भी दिल्ली पहुंच जाना है। देखो वह आदमी पहुंच जा रहा है आगे, तुम कहां पीछे रहे जाते हो। दौड़ों। इस तरह सब तरफ से महत्वाकांक्षा पैदा की जाती है। राजनैतिक रूप से महत्वाकांक्षा पैदा करते हैं कि देखो राधाकृष्णन स्कूल में शिक्षक थे वे राष्टपति हो जाओ। तुम भी पागल हो जाओ और शिक्षक दिवस मनाओ कि बड़ी सम्मान को बात हो गई कि एक शिक्षक राष्टपति हो गया।
मुझे भी एक शिक्षक दिवस पर भूल से बोलने के लिए बुला लिया गया। भूल से कोई बुला लेता है बोलने के लिए। मैंने उन शिक्षकों को कहा कि राष्ट्रपति हो जाए इसमें शिक्षकों का कौन सा सम्मान है? जिस दिन कोई राष्ट्रपति कहे कि मैं स्कूल में आकर शिक्षक होना चाहता हूं उस दिन शिक्षक दिवस मनाना। उस दिन कहना कि हम धन्य हुए कि एक राष्ट्रपति ने कहा है कि हम शिक्षक होने को तैयार हो। लेकिन एक शिक्षक राष्ट्रपति होना चाहे इसमें शिक्षक का क्या सम्मान है? इसमें राजनीतिज्ञ का सम्मान है, पद का सम्मान है, दिल्ली का सम्मान है, राज्य का सम्मान है। इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है?
लेकिन हम कहते हैं देखो यह हुआ जा रहा है तुम भी दौड़ो। राजनैतिक रूप से हम आदमी को ज्वर से भरते हैं। दौड़ो, आगे दौड़ो। दूसरे को पीछे छोड़ो और आगे बढ़ जाओ। ऐसे ही यह हम धार्मिक रूप से, नैतिक रूप से लोगों को सिखलाते हैं कि गांधी बन जाओ, बुद्ध बन जाओ, महावीर बन जाओ। ये झूठी बातें हैं। जहर फैला रहे हैं आदमी के दिमाग में। कोई आदमी कभी गांधी बन सकता है? कोई आदमी कभी बुद्ध बन सकता है? और बन सके तो भी बनने की जरूरत कहा है? एक आदमी काफी है अपने जैसा। दूसरे आदमी को वैसे होने की जरूरत नहीं है। एक गांव में अगर एक ही जैसे बीस हजार गांधी पैदा हो जाए तो उस गांव की मुसीबत समझ सकते हैं। उस गांव में इतनी ऊब पैदा हो जाएगी, इतनी घबड़ाहट पैदा हो जाएगी कि लोग आत्महत्या कर लेंगे। जीना मुश्किल हो जाएगा। एक गांधी बहुत प्यारे हैं। एक बुद्ध बहुत अदभुत हैं। एक राम बहुत शानदार हैं। एक कृष्ण बमुकाबला हैं, कोई मुकाबला नहीं है उनका। बड़े खूबी के लोग हैं, लेकिन अगर एक ही गांव में एक ही जैसे राम ही राम धनुषबाण लिए हुए खड़े हों तो हो गई कठिनाई। रामलीला करनी हो तक ठीक है लेकिन अगर असली मामला हो तो बहुत गड़बड़ है।
कोई आदमी दोबारा दोहराए जाने की जरूरत नहीं है। पुनरावृत्ति (त्तमचमजपजपवद) की कोई जरूरत नहीं है। हर आदमी खुद होने को पैदा होता है, कोई और होने को पैदा हनीं होता। लेकिन अब तक हम शिक्षक को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए कि वे बच्चों से कह सकें कि तुम कुछ और होने की कोशिश मत करना, तुम खुद हो जाना।
जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है वह है स्वयं होने की क्षमता को उपलब्ध हो जाना। और जो आदमी दूसरे जैसे होने की कोशिश करेगा उस आदमी का पागल होना सुनिश्चित है। क्योंकि दूसरे जैसा वह हो नहीं सकता। इसलिए दुनिया में जितनी यह शिक्षा बढ़ती है, आदर्श बढ़ते हैं उतना ही पागलपन बढ़ता है। इसमें किसी और का कसूर नहीं। शिक्षा बुनियादी रूप से गलत है। जितना आदमी शिक्षित होता है उतना दूसरे होने की दौड़ में लग जाता है कि मैं कोई और हो जाऊं, कोई बन जाऊं, मैं कुछ और हो जाऊं। खुद से, स्वयं से उसकी कोई तृप्ति नहीं होती। वह कोई और होना चाहता है। जब भी कोई आदमी कोई और होना चाहता है तब आदमी अपने होने से च्युत हो जाता है। वह मार्ग से भटक जाता है, वह कुछ और होने की दौड़ में जो हो सकता था वह भी हनीं हो पाता है और तब जीवन में दुख और पीड़ा पैदा होती है।
अगर कोई पूछें कि पागलपन की क्या परिभाषा है, विक्षिप्त होने का क्या मतलब है तो मेरी दृष्टि में पागल होने की एक परिभाषा है जो आदमी स्वयं से भिन्न हो जाता है वह आदमी पागल है। और जो आदमी स्वयं हो जाता है वह आदमी स्वस्थ है। स्वयं हो जाना स्वस्थ होना है। बस और कोई स्वास्थ्य का मतलब नहीं होता है। हिंदी का शब्द है स्वास्थ्य, वह तो शब्द ही बहुत अदभुत है। स्वास्थ्य का मतलब है स्वयं में स्थित, जो स्वयं में खड़ा हो गया वह स्वस्थ है। और वह अस्वस्थ है जो स्वयं से भटक गया है, यहां-वहां चला गया है। हम सारे लोग स्वयं से भटकाए जा रहे हैं। हम स्वयं में स्थित होने के लिए दीक्षित नहीं किए जा रहे हैं। इससे एक विक्षिप्तता पैदा हो रही है, पागलपन पैदा हो रहा है।
नेहरू जब तक जिंदा थे, हिंदुस्तान में दस पच्चीस लोग थे जिनको यह खयाल पैदा हो गया था कि हम नेहरू हैं। मेरे छोटे से गांव में एक आदमी था। उसको यह वहम पैदा हो गया था कि वे जवाहरलाल नेहरू हैं। नेहरू एक पागलों की जुल देखने गए थे। एक पागल वहां स्वस्थ हो गया था, ऐसा मुश्किल से ही होता है। स्वस्थ तो अक्सर पागल होते हैं मगर पागल कम ही स्वस्थ होते देखे जाते हैं। लेकिन ऐसी दुर्घटना वहां घट गई थी, एक्सीडेंट हो गया था। एक पागल ठीक हो गया था और नेहरू उसको देखने गए थे, पागलखाने में। पागलखाने के अधिकारियों ने सोचा कि नेहरू के हाथ से ही उसको पागलखाने से छुटकारा और मुक्ति दिलवाई जाए। नेहरू भी बहुत खुश थे कि एक आदमी ठीक हो गया है। उससे मिलकर नेहरू ने पूछा कि क्या तुम ठीक हो गए हो? तो उसने कहा, मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। तीन साल पहले मैं बिलकुल पागल था। लेकिन आप कौन हैं महाशय? नेहरू ने कहा, मुझे नहीं जानते? मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। वह आदमी यह सुन कर खूब हंसने लगा। उसने कहाः तीन साल आप भी यहां रह जाए तो ठीक हो जाएंगे। तीन साल आप भी यहां रह जाए तो ठीक हो जाएंगे। तीन साल पहले मुझे भी यही खयाल पैदा हो गया था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। तीन साल में मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। तीन साल आप भी यहां रह जाएं।
जब भी किसी आदमी को खयाल पैदा हो जाता है कि मैं कोई और हूं तो समझ लेना कि वह पागल हो गया है। और जब भी कोई आदमी इस कोशिश में लग जाता है कि मैं कोई और हो जाऊं तो समझ लेना कि पागलपन की यात्रा शुरू हो गई है। इस शिक्षा ने मैनकाइंड को मैडकाइंड में बदल दिया है। आदमियत एक बड़ा पागलखाना हो गई है। सारी जमीन पर पागलों का बड़ा समूह पैदा हो गया है फिर अगर ये पागल आग लगा दें, मकान तोड़ दें तो नाराज मत होइए। इनको हमने पागल बनाया है। हमने इन्हें इनकी आत्मस्थिति से च्युत किया है। यह जो हो सकते थे वह होने के लिए हमने इन्हें तैयार नहीं किया और जो नहीं हो सकते थे उसकी तरफ हमने इनको दौड़ाया है।
आदमी का मस्तिष्क इतने सूक्ष्म तंतुओं से बना है, आदमी का मन इतना नाजुक है कि उसमें जरा भी गड़बड़ करें तो सब नुकसान हो जाता है। आदमी का मन बहुत कोमल है। आदमी की छोटी सी खोपड़ी में करोड़ों रेशे हैं। अगर आदमी की खोपड़ी के रेशों को निकालकर हम कतार में फैला दें तो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लेंगे। एक आदमी की खोपड़ी में इतने रेशे हैं। इतने बारीक सेल, इतने बारीक स्नायु और यह छोटा सा मस्तिष्क उन्हीं करोड़ों स्नाायुओं से मिल कर बना है। सारी मशीन बहुत डेलिकेट है और इसमें जरा भी गड़बड़ी हो जाती है।
आश्चर्य है यह कि अब तक सारे मनुष्य पागल क्यों नहीं हो गए। आश्चर्य यह नहीं है कि कुछ लोग पागल हो जाए। आदमी के साथ जो किया जा रहा है, आदमी के साथ जो अनाचार हो रहा है, आदमी के साथ जो व्यभिचार हो रहा है, जो बलात्कार हो रहा है, आदमी के मन के साथ जो किया जा रहा है उससे सारे लोग पागल हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि आदमी को आत्म विज्ञान में दीक्षित नहीं किया जा रहा है और पराए जैसे होने की दौड़ में, दूसरे को पार करने के पागलपन की दिशा में धक्के दिए जा रहे हैं। इन सारे धक्कों से यह उपद्रव पैदा हो गया है।
युवकों को शिक्षा देने से कुछ भी नहीं होगा। शिक्षा को आमूल ही बदल देना जरूरी है। एक पूरी तरह क्रांतिकारी कदम उठाना जरूरी है कि हम मनुष्य की महत्वाकांक्षा को ही हनीं बल्कि मनुष्य के भीतर जो छिपी हुई संभावनाएं हैं उनके परिष्कार को ध्यान में रखें। मनुष्य कहां पहुंचे यह सवाल नहीं है। मनुष्य जो है वह कैसे प्रकट हो जाए यह सवाल है। मनुष्य किसी मंजिल को छू ले यह सवाल नहीं है। मनुष्य के भीतर कुछ संभावना रूप में (ढवजमदजपंससल) छिपा हुआ है, जैसे बीज के भीतर पौधा छिपा हुआ होता है। बीज को हम बो देते हैं बगीचे में। माली बीज में से पौधे को खींच खींच कर निकालता नहीं है और अगर कोई माली खींच खींच कर पौधे को निकाल लेगा तो समझ लेना कि उस पौधे की क्या हालत होने वाली है। पौधा निकलता है। माली तो सिर्फ अवसर जुटा देता है। पानी डाल देता है। बीज डाल देता है, खाद डाल देता है, बागुड़ लगा देता है और फिर चुपचाप प्रतीक्षा करता है कि पौधा निकले। पौधा वह कभी निकालता नहीं है। लेकिन हम आदमी में से पौधे निकाल रहे हैं। उनको हम विश्वविद्यालय कहते हैं, विद्यालय कहते हैं, जिनमें आदमी के बीच में से हम जबर्दस्ती पौधा खींच रहे हैं। कोई पौधा बाप की मर्जी से खींचा जा रहा है। कोई पौधा मां की मर्जी से खींचा जा रहा है, कोई गुरु की मर्जी से खींचा जा रहा है। इनको इंजीनियर बनाओ, इनको कवि बनाओ, इनको डाक्टर बनाओ। कोई यह कुछ ही नहीं है कि इसके भीतर छिपा क्या है? यह क्या होने को पैदा हुआ है?
मैं एक घर में ठहरा हुआ था। एक लड़के ने कहाः मुझसे बचाइए । मैं पागल हो जाऊंगा। मैंने कहा, क्या मामला है। उसने कहाः मेरी मां कहती है इंजीनियर बनो। मेरे बाप कहते हैं डाक्टर बनो। और दोनों इस तरह खींच रहे हैं मुझे, कि न मैं इंजीनियर बन पाऊंगा, न मैं डाक्टर बन पाऊंगा और मैं जो बन जाऊंगा उसका जिम्मा किसी पर भी नहीं होगा। क्योंकि वे दोनों मुझे दो बनाना चाहते हैं। बच्चे खींचे जा रहे हैं, जबरदस्ती खींचे जा रहे हैं। बच्चों में कोई वृद्धि, कोई विकास नहीं होता। बच्चे को जबरदस्ती तनाव देकर हम उनमें से कुछ पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पहले कि उनके भीतर कुछ पैदा हो, हम जबरदस्ती खींच तानकर उन्हें तैयार करते हैं। फिर अगर वे कुरूप हो जाते हैं, उनका जीवन एक कुरूपता बन जाता है, उनका जीवन सौंदर्य खो देता है और आनंद खो देता है तो हम पीड़ित और परेशान होते हैं और पूछते हैं कलियुग आ गया है क्या? लोग खराब हो गए हैं क्या? फिर हम अपने पुरानी किताबों में खोजते हैं जिनमें लिखा हुआ है कि हां, ऐसा वक्त आएगा जब लोग खराब हो जाएंगे। तब हम निश्चित हो जाते हैं। तो ठीक है, भविष्य वाणी ठीक हो गई है। ऋषि महात्मा बिलकुल ठीक ही कहते थे कि जमाना खराब हो जाएगा। यह खराब का जमाना आ गया है। नहीं, यह खयाल जमाना लाया गया है, यह आया नहीं है। और इसे हम रोज ला रहे हैं। असल में आसमान से कुछ भी नहीं टपकता है, हम जो लाते हैं वह आता है। हम यह स्थिति लाए हैं और इस सारी स्थिति के पीछे मनुष्य के सहज विकास का कोई ध्यान नहीं है। खींचने का ध्यान है। खिंचो और आदमी को कुछ बनाओ। इसको तोड़ डालो।
हम इनकार कर दें उस दिशा से जो आदमी के साथ जबरदस्ती कर रही है और कर दें कि चाहे हम अशिक्षित रह जाएंगे वह बेहतर है, लेकिन हम जबरदस्ती आत्मा के खींचे जाने को बरदाश्त नहीं करेंगे। अशिक्षित होने से कुछ भी नहीं बिगड़ता है। हजारों साल तक आदमी अशिक्षित रहा, क्या बिगड़ गया? वैसे कई लिहाज से फायदा था। अशिक्षित आदमी हमसे ज्यादा सौंदर्य में जीया हमसे ज्यादा शांति में जीया, हमसे ज्यादा आनंद में जीया। अशिक्षित आदमी हमसे ज्यादा स्वस्थ जीया तो शिक्षित होने से क्या हो जाने वाला है? लेकिन अगर ठीक से शिक्षा मिले तो बहुत कुछ कुछ हो सकता है। अगर तीन चुनाव हों आदमी के सामने-गलत शिक्षा, ठीक शिक्षा और अशिक्षा-तो मैं कहता हूं अगर गलत शिक्षा और अशिक्षा में से चुनना हो तो अशिक्षा चुननी चाहिए। अशिक्षित रह जाना बुरा नहीं है लेकिन अगर ठीक शिक्षा हो सके तो जरूर बड़ा सौभाग्य है। और शिक्षा ठीक हो सकती है।
पहली बात शिक्षा को महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा के केंद्र से हटा देना चाहिए। उसकी जगह आत्मपरिष्कार और आत्म उन्नति और स्वयं के सहज विकास पर बल देना चाहिए और इसकी फिकर छोड़ देनी चाहिए कि हर आदमी इंजीनियर बने, हर आदमी डाक्टर बने। हो सकता है कोई आदमी अच्छा चमार बनने को पैदा हुआ हो। और अगर अच्छा चमार डाक्टर बन गया तो बड़े खतरे हैं। वह आदमी के साथ आपरेशन तो करेगा लेकिन वैसे जैसे जूते के साथ करता है। और हो सकता था वह अच्छा बढ़ई बनता। जरूरत है बढ़ई की भी, चमार की भी। लेकिन हमने जैसी गलत समाज व्यवस्था बनाई है उसमें हम डाक्टर को बहुत ऊंचा पद देते हैं। बढ़ई को कोई पद नहीं देते। तो बढ़ई को भी पागलपन शुरू होता है कि डाक्टर बनो। लेकिन बढ़ई की अपनी जरूरत है। उसकी जरूरत किसी डाक्टर से कम नहीं है। और चमार की अपनी जरूरत है। उसकी जरूरत किसी प्राइम मिनिस्टर से कम नहीं है। और शिक्षक की अपनी जरूरत है और वह किसी राष्टपति से कम नहीं है। जिंदगी बहुत लोगों का एक सम्मिलित चित्र है। जिंदगी सम्यक संगीत है।
लिंकन जब प्रेसिडेंट हुआ अमरीका का, यह तो आपको पता हो गा कि उसका बाप एक चमार था। जूते सीता था। लिंकन प्रेसिडेंट हो गया तो कई लोगों को बहुत अखरा कि चमार का लड़का प्रेसिडेंट हो गया। पहले दिन जब सीनेट में लिंकन बोलने खड़ा हुआ तो एक आदमी ने खड़े होकर यह याद दिला देना जरूरी समझा कि इस बात को कोई भूल न जाए कि वे चमार के बेटे हैं। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि महाशय लिंकन, यह मत भूल जाना कि आप एक चमार के लड़के हैं। तालियां बज गई होंगी संसद में, लोग बहुत खुश हुए हों कि ठीक वक्त पर याद दिला दिया। लिंकन ने खड़े होकर कहा, मेरे पिता की याद दिला कर तुमने बहुत अच्छा किया। मैं बड़ी खुशी से भर गया हूं क्योंकि मैं यह भी तुम्हें कह देना चाहता हूं कि मेरे पिता जितने अच्छे चमार थे उतना अच्छा राष्टपति मैं नहीं हो सकूंगा। और जिन सज्जन ने यह कहा था, लिंकन ने उनसे कहा कि महाशय, जहां तक मुझे याद आता है आपके पिता भी मेरे पिता से ही जूते बनवाते थे और जहां तक मेरा खयाल है, आपके पिता ने कभी भी शिकायत नहीं की है, लेकिन आपको कैसे याद आ गई बात। मेरे पिता के जूतों से कोई शिकायत है आपको? मेरे पिता के चमार होने से कोई शिकायत है आपको? यह याद दिलाने का खयाल कैसे आ गया? मैं धन्यभागी हूं कि मेरे पिता एक अदभुत चमार थे। वे कुशल कारीगर थे।
यह दृष्टि जो है जीवन को देनी जरूरी है। महत्वाकांक्षा की दृष्टि ने पद पैदा कर दिए। जीवन में पद पैदा कर दिए हैं कि कौन ऊंचा और कौन नीचा। यह महत्वाकांक्षा की शिक्षा का परिणाम (ईल-चतवकनबज) है, कि फलां आदमी चूंकि ज्यादा शिक्षा लेता है इसलिए ज्यादा ऊंचा है, कम शिक्षा लेता है इसलिए कम ऊंचा है। जो अनस्किल्ड है वह बिलकुल किसी स्थान पर ही नहीं है। जीवन बहुत चीजों का जोड़ है। जीवन बहुत चीजों का संगीत है। एक ऐसी दुनिया बनानी है जहां सब जरूरी है, सब महत्वपूर्ण है, सब गौरवान्वित है इस दुनिया को मिटा देना है, जहां थोड़े से लोगों के गौरव के लिए सारे लोगों का गौरव छीन लिया जाता है।
यह वैसी दुनिया है जैसे कोई गांव हो और उस गांव में लोग यह तय कर लें कि दस पांच आदमियों की आंखें बचा लो। बाकी सबकी आंखें फोड़ दो। क्योंकि बाकी कंधे लोगों के बीच में आंख वाला होना बड़ा आनंदपूर्ण होगा। सब अंधे होंगे। हमारे पास आंखें होंगी तो बड़ा अच्छा होगा। और दस लोग मिलकर कुछ भी कर सकते हैं। क्योंकि दस लोग जहां मिल जाते हैं वहीं राजनीति शुरू हो जाती है। दस गुंडे मिलकर कुछ भी कर सकते हैं और यही आज तक दुनिया का दुर्भाग्य रहा है। अच्छे आदमी मिलकर यह तक कर लें कि नगर के सारे लोगों की आंखें फोड़ दो ताकि कुछ लोगों को आंख वाले होने का बड़ा आनंद उपलब्ध हो। जरूर तुमको आनंद ज्यादा उपलब्ध होगा। क्योंकि अंधों की बस्ती में आंख वाला होना बड़ा आनंद पूर्ण, बड़े अहंकार की तृप्ति करता है। कुछ लोगों ने यही किया हुआ है कि कुछ लोगों को पद दे दो। सारे लोगों के पद की सारी व्यवस्थाएं छीन लो ताकि पद का होना बहुत आनंदपूर्ण हो जाता। इन दुष्टों ने, इन हिंसक लोगों ने एक पृथ्वी बना दी है जो नर्क हो गई है। अगर तोड़ना है तो इस सबको तोड़ देना जरूरी है। और एक समाज, एक जीवन, एक संस्कृति निर्मित करनी है जहां हर आदमी को गौरवन्वित होने का मौका हो। जहां हर आदमी को स्वयं होने का मौका और अवसर हो। जहां पर आदमी जो भी होना चाहे सम्मानित और गौरव से हो सके। जहां गुलाब के फूल भी आदृत हों और घास के फूल भी सम्मानित हों। क्योंकि घास और गुलाब के फूल में परमात्मा का कोई फासला, कोई भेद नहीं है।
जब आकाश में सूरज निकलता है तो सूरज गुलाब के फूल देख कर यह नहीं कहता है कि मैं मुझे ज्यादा रोशनी दूंगा। घास के फूल से यह नहीं कहता कि घास के फूल, हट, बीच में शूद्र तू कहां यहां आ गया, तुझे रोशनी नहीं दी जा सकती। उस घास के फूल को भी सूरज उतनी ही रोशनी देता है जितनी गुलाब के फूल को। जब आकाश में बादल घिरते हैं तो गुलाब के फूल पर ही पानी नहीं गिरता है, घास के फूल पर भी पानी गिरता है। और घास के फूल पर गिरा हुआ पानी दुख अनुभव नहीं करता है कि कहां मेरा दुर्भाग्य कि घास के फूल पर गिर रहा हूं। और घास का फूल जब खिलता है, छोटा सा फूल जब हवाओं में नाचता है तो उसकी खुशी किसी गुलाब के फूल से कम नहीं होती। असल में सवाल घास के फूल का और गुलाब के फूल का नहीं है। सवाल पूरी तरह खिल जाने का है। चाहे गुलाब का फूल पूरी तरह खिल जाए, चाहे घास का फूल पूरी तरह खिल जाए। जो पूरी तरह खिल जाता है वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें