तीसरा प्रवचन-(सच्चा शिक्षक)
मेरे प्रिय आत्मन्!मनुष्य के जीवन में सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक, सबसे ज्यादा विरोधाभासी, सबसे ज्यादा उलझी बात शिक्षा के संबंध में ही है। यदि मनुष्य को शिक्षित न किया जाए। तो मनुष्य पैदा ही नहीं होता। और यदि मनुष्य सिर्फ शिक्षित होकर रह जाए, तो भी मनुष्य पैदा नहीं हो पाता है। ऐसा ही कुछ है कि जैसे कोई आदमी सीढ़ियां न चढ़े तो भी ऊपर के भवन में नहीं पहंुचता है। और सिर्फ सीढ़ियां ही चढ़ कर रुक जाए, तो भी ऊपर के भवन में नहीं पहुंच पाता है, सीढ़ियां चढ़नी भी पड़ती हैं और सीढ़ियां छोड़नी भी पड़ती हैं, तो आदमी ऊपर के भवन में पहंुच पाता है। शिक्षित होना भी जरूरी है और शिक्षा को छोड़ भी देना जरूरी है। तो ही मनुष्य ठीक अर्थों में विकसित हो पाता है। और यही उलझन है। या तो दुनिया में अशिक्षित लोग हैं, या दुनिया में शिक्षित लोग हैं, वह तीसरा आदमी नहीं है दुनिया में जो शिक्षित हो और अशिक्षित जैसा हो। और उस तीसरे आदमी की जरूरत है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है, क्योंकि मेरी दृष्टि में सारे जगत के सामने विशेषकर शिक्षकों के सामने, उन सारे लोगों के सामने जो शिक्षा के संबंध में सोच-विचार करते हैं, यही एकमात्र समस्या है।
आपने सुना होगा, कोई तीस-चालीस वर्ष पहले, बंगाल के जंगल में दो छोटे बच्चे, भेड़िए उठा कर ले गए और उन भेड़ियों ने उन बच्चों को पाला।
आदमी के बच्चे, लेकिन जब शिकारी उनको पकड़ कर लाए तो वो करीब-करीब भेड़िए हो चुके थे। वे न आदमी की भाषा बोल सकते थे, न आदमी की तरह दो पैर से चल सकते थे, वो चार पैर से दौड़ते थे, भेड़ियों की तरह आवाज करते थे, भेड़ियों की तरह खूंखार थे, भेड़ियों की तरह कच्चे जानवर को चबा जाते थे। अभी पिछले कोई पांच वर्ष पहले उत्तर प्रदेश में भी एक जंगल से तेरह-चैदह वर्ष का युवक पकड़ा गया, वह भी भेड़ियों की मांद से ही पकड़ा गया था। छह महीने तो उसे दो पैर से खड़ा होना सिखाने में लग गए। वह दो पैर से खड़ा नहीं हो सकता था। आप यह मत सोचना कि आप दो पैर से खड़े होते हैं, ये आपका स्वभाव है। यह शिक्षा है। अगर यह न सिखाया जाए तो आप दो पैर से खड़े नहीं होंगे। आप चार हाथ-पैर से ही चलते रहेंगे। आप यह भी मत सोचना कि आप जो आदमी की तरह बोलते हैं, यह आपका स्वभाव है। यह शिक्षा है। अगर यह न सिखाया जाए, तो आप आदमी की तरह कभी नहीं बोलेंगे। शिक्षा वही नहीं है, जो स्कूल में हमें मिल रही है। अगर हम आदमी की जांच-पड़ताल करें तो हमें पता चलेगा कि आदमी जैसा है, उसमें नब्बे प्रतिशत से ज्यादा शिक्षा है। और आदमी को अगर बिलकुल बिना शिक्षा के छोड़ दिया जाए, सारी शिक्षा के बिना छोड़ दिया जाए, तो आदमी एक पशु होगा; पशुओं और आदमी में एक ही फर्क है, कि आदमी ने शिक्षा का एक नया आयाम अपने साथ जोड़ लिया है, और कोई पशु शिक्षा का आयाम अपने साथ नहीं जोड़ सका है। आदमी और पशु में जो फर्क है, वह बुनियादी रूप से शिक्षा से पैदा हुआ है।
तो वह जो युवक तेरह-चैदह साल का पकड़ा गया था। उसे छह महीने तो सीधा खड़ा करने में लग गए। उसकी रीढ़ ने सीधा होने से इनकार कर दिया। चैदह वर्ष तक वह चार हाथ-पैर से ही चला था। एक वर्ष उसे अपना नाम बोलने में लग गए, उसका नाम राम रखा था। एक वर्ष लगा उसे सीखने में कि वह राम बोल सके। बस वह इतनी ही भाषा सीख पाया। और सिखाने की कोशिश में उसकी जान निकल गई, वह मर गया साल भर मंे। क्योंकि उसे जो शिक्षकों ने समझाने और सिखाने की सारी कोशिश की, वह इसमें इतना घबरा गया, इतना परेशान हो गया कि उसकी मौत हो गई। अब तक दुनिया में कई मुल्कों में भेड़ियों के द्वारा पाले गए बच्चे पकड़े गए हैं। लेकिन उनको सिखाना बहुत मुश्किल रहा है। मुश्किल इसलिए रहा कि वे कुछ सीख चुके, उन्होंने भेड़ियों की शिक्षा ले ली। एक अर्थ में वे भी अशिक्षित नहीं हैं, उन्हें भी शिक्षा मिल गई। वे भेड़ियों की शिक्षा ले लिए। हमें हैरानी होगी कि भेड़ियों की शिक्षा लेकर भी कब क्या कोई आदमी भेड़िया हो सकता है? आप हिंदुओं की शिक्षा लेकर हिंदू हो जाते हैं, मुसलमान की शिक्षा लेकर मुसलमान हो जाते हैं, जैन की शिक्षा लेकर जैन हो जाते हैं, आपको कभी खयाल नहीं आता कि ना आप जैन पैदा होते हैं, न हिंदू पैदा होते हैं, न मुसलमान पैदा होते हैं, पैदा आप एक कोरी स्लेट की तरह पैदा होते हैं। और जो आप पर लिख दिया जाता है, जिंदगी भर आप अपने को वही समझते रहते हैं।
हिंदू होना, मुसलमान होना, ईसाई होना शिक्षा है। अगर आदमी को न सिखाया जाए तो दुनिया में कोई आदमी हिंदू नहीं होगा, कोई मुसलमान नहीं होगा, कोई ईसाई नहीं होगा। अगर हम आदमी को अशिक्षित छोड़ दें, तो वही हो जाएगा, जो परिस्थितियां उसे सिखा देंगी। जो कुछ सिखा देंगी। आदमी को अशिक्षित तो नहीं छोड़ा जा सकता है, हालंाकि शिक्षा से जो दुष्परिणाम हुए हैं, उससे कई विचारशील लोग घबरा गए हैं और वो चाहते हैं कि आदमी को अशिक्षित छोड़ दो, तो भी कोई हर्ज नहीं।
डी. एच. लारेंस ने कुछ वर्षों पहले एक वक्तव्य में कहा कि मैं एक प्रार्थना करता हूं, सारी दुनिया से कि सौ वर्षों के लिए सारी शिक्षा बंद कर दी जाएं, अन्यथा आदमी बिलकुल नष्ट हो जाएगा। डी.एच. लारेंस की बात में बल है। उसके कहने में कोई सार्थकता है, क्योंकि शिक्षा ने आदमी को जैसा बना दिया है, उसके परिणाम में आदमी के जीवन की सारी शांति, सारा आनंद, सारा स्वभाव, जो भी स्पांटेनियस है, जो भी नैसर्गिक है, वह सब खो गया है। आदमी एक झूठा आदमी बन कर खड़ा हो गया है, जो वह है ही नहीं। और शिक्षा ने आदमी को एक ऐसा खतरनाक अहंकार दे दिया कि उस अहंकार के कारण जीवन को जीना भी कठिन है, उस अहंकार के कारण जीवन एक सतत संघर्ष और युद्ध बन गया और एक हिंसा बन गई। और शिक्षा ने आदमी को यह भाव दे दिया कि मैं जानता हूं, और जिस आदमी को यह ख्याल पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं उसकी जीवन की श्रेष्ठतम खुशियों के सारे द्वार बंद हो जाते हैं, जिस आदमी को यह खयाल पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं , उसके जानने के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। जिस आदमी को यह खयाल पैदा हो जाता है कि मैं जानता हूं उस आदमी की सत्य की, ज्ञान की, खोज की, यात्रा समाप्त हो जाती है। आदमी को जितना शिक्षित किया गया है, उतना ही आदमी अज्ञानी होता चला गया है, यह भी बहुत हैरानी की बात है। अगर बुद्ध और महावीर को हम अपने स्कूल में लाकर परीक्षा दें, परीक्षा लें उनकी तो बुद्ध और महावीर परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकते। हम उनकी बजाय ज्यादा ज्ञानी साबित हो जायेंगे। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि किन्हीं अर्थों में बुद्ध और महावीर ज्यादा ज्ञानी हैं, और हमारी उस ज्ञान की तरफ कोई भी गति नहीं।
बुद्ध और महावीर के पास कुछ ज्ञान है। जो हम शिक्षित लोगों के पास नहीं है। लेकिन एक भ्रम हमारे पास भी है कि हम जानते हैं। और इस जानने के भ्रम ने कितनी मुसीबत खड़ी कर दी है। इसे देख कर डी. एच.लारेंस जैसा अगर कोई आदमी कहे, अगर सौ वर्षों तक सारी शिक्षा बंद कर दो, सारी युनिवर्सिटीज, सारे स्कूल सब बंद कर दो। सौ वर्ष के लिए कुछ भी मत सिखाओ आदमी को, सौ वर्ष तक आदमी के मन को खाली छोड़ दो, ताकि आदमी फिर स्वभाव के अनुकूल और करीब आ सके। वह अपने स्वभाव से ही उलटा चला गया है। लेकिन डी.एच.लारेंस की बात कितनी ही सार्थक हो, मानी नहीं जा सकती। क्योंकि मान लेने का परिणाम और भी खतरनाक होगा। आदमी को अशिक्षित छोड़ देने से आदमी बेहतर नहीं हो जाएगा। आदमी को अशिक्षित छोड़ देने से आदमी, आदमी ही नहीं रह जाएगा। और इसलिए इस उलझन को, इस पहेली को समझ लेना जरूरी है, आदमी को अशिक्षित भी नहीं छोड़ा जा सकता, और आदमी को मात्र शिक्षित करके भी नहीं छोड़ा जा सकता।
पुराने जमाने का आदमी अशिक्षित था, आदिवासी आज भी अशिक्षित है। हम दया करके उसको शिक्षित करने के सारे उपाय कर रहे है, बिना इस बात को सोचे कि हम जो शिक्षित हैं, हमने क्या उपलब्ध कर लिया है?
बट्र्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि मैं पहली बार आदिवासियों के बीच गया, उनके गीत, उनके नाच, उनके आनंद को देखकर मुझे ऐसा लगा कि इसके मुकाबले सारी शिक्षा छोड़ी जा सकती है। उनके नाचते हुए, उनके आनंद से भरे हुए व्यक्तित्व को देख कर उनके सरल पौधों और पशुओं जैसी उनकी सहजता, फूलों की तरह उनके व्यक्तित्व और उनकी आंखों को देख कर उसे लगा कि यह सारी शिक्षा छोड़ने में हर्ज कुछ भी नहीं। अगर हम ऐसे हो सकें।
जो लोग सोचते हैं, उनको यह लगता है कि आदमी ने शिक्षित होकर कुछ खो दिया है। दूसरी तरफ से सोचें तो भी ऐसा लगेगा कि आदमी को अगर अश्क्षिित छोड़ दें, तो भी बहुत खतरा है। फिर उपाय क्या है? मेरी दृष्टि में उपाय तीसरा है। और वह उपाय यह है कि आदमी को इस भांति शिक्षित किया जाना चाहिए कि शिक्षित होकर भी निरंतर वह इस बोध से भरा रहे कि मुझे अभी और शिक्षित होना है, मैं शिक्षित हो नहीं गया हूं। पूरी तरह से शिक्षित होकर भी मैं अशिक्षित हूं, अभी शिक्षा शेष है, यह भाव अगर कायम रखा जा सके, तो अशिक्षित आदमी का जो सुख है, वह बचाया जा सकता है। और शिक्षित आदमी के जो लाभ हैं, वे भी उठाए जा सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि शिक्षित आदमी को शिक्षित होने का अहंकार पैदा नहीं हो जाना चाहिए, इसका मतलब यह हुआ कि शिक्षित आदमी जितना जाने, उतना ही उसे पता चलना चाहिए कि मैं बहुत कम जानता हूं, ना के बराबर जानता हूं। उसकी मनः स्थिति वैसी ही होनी चाहिए, जैसा मरते समय न्यूटन ने कहा, लोग कहते हैं कि मैं बहुत जानता हूं, और मरते समय न्यूटन कहने लगा कि मेरी अपनी स्थिति यह है कि जितना मैं जानता गया हूं, उतना ही मैं डरने लगा हूं कि अंजाना तो बहुत ज्यादा शेष है। एक समुद्र के किनारे जहां अनंतवा रेत के कण हों, वहां जैसे मैं अपने हाथ में रेत के थोड़े से बालूकण लिए हुए खड़ा हूं, यह मेरा ज्ञान है, जो मेरी मुट्ठी में बंद है, और यह मेरा अज्ञान है, जो अनंत फैला हुआ है, सागर के तट पर। इस छोटे से ज्ञान को कहां मैं चिल्लाऊं कि मैं जानता हूं? न्यूटन ने कहा कि जो मैंने जाना है उससे मुझे सिर्फ इतना ही पता चला है कि जानने को अनंत शेष है, जो मैंने जाना है वह नाकुछ है, जो मैं नहीं जानता हूं वह बहुत कुछ है, जितना मेरी समझ बढ़ी है, उतना ही मुझे अपनी नासमझी का दर्शन और प्रत्यक्ष हुआ है। अगर ज्ञान ऐसा हो कि अज्ञान का साक्षात्कार करा सके, तो तो ठीक है, अन्यथा ज्ञान खतरनाक निश्चित ही बन जाता है। क्या ऐसी शिक्षा हो सकती है कि हम शिक्षित भी करें, साथ भी व्यक्ति को अशिक्षित होने की संभावना को भी खुला रखें। क्या यह हो सकता है कि व्यक्ति जाने भी साथ ही यह भी जाने कि वह कुछ भी नहीं जानता है। अगर ए दोनों बातें संभव हों, जानना एक तल पर संभव हो, न जानना दूसरे तरफ पर द्वार खोले रहे, वह डायमेंशन, वह आयाम खुला रहे, तो व्यक्ति सम्यक अर्थों में शिक्षित होता है, अन्यथा नहीं होता।
यह आज तक संभव नहीं हो पाया। यह आज भी संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए सारी शिक्षा व्यर्थ होती चली जा रही है, जैसा मैंने कहा, सीढ़ियों पर हम चढ़ा देते हैं, फिर सीढ़ियों से उतरता ही नहीं वह आदमी, सीढ़ियों पर चढ़ जाता है फिर कहता है जिन सीढ़ियों पर मैं चढ़ा हूं, उनसे उतरने के लिए तो नहीं चढ़ा था। अगर उतरना ही था, तो मैं चढ़ता क्यों? और वह आदमी यह भूल जाता है कि सीढ़ियों से अगर नहीं उतरेगा, तो सीढ़ियों पर चढ़ना व्यर्थ हो गया। सीढ़ियोें पर चढ़ना जरूरी है, ऊ पर पहुंचने के लिए, और ऊ पर पहुंचने के लिए सीढ़ियों को छोड़ देना भी जरूरी है।
मैंने सुना है, दो फकीर एक गांव से यात्रा करते थे। उनमें एक फकीर का यह विश्वास था कि पैसा पास में रखना व्यर्थ है। पैसे के पास में होने से कोई भी फायदा नहीं होता। दूसरे फकीर का विश्वास था कि बिना पैसे के तो एक क्षण नहीं चला जा सकता है, पैसे का होना तो बहुत जरूरी है। राह में चलते एक तीसरा फकीर उन्हें मिला, उसने दोनों का विवाद सुना और वह हंसने लगा। उन दोनों ने पूछा कि आप हंसते क्यों हो? उसने कहा, समय आएगा तो मैं बताऊंगा। वे तीनों साथ हो लिए। सांझ एक नदी के किनारे पहुंचे, जो फकीर मानता था कि पास पैसा रखना फिजूल है, उसके पास तो एक पैसा भी नहीं था। नदी उन्हें पार करनी थी, लेकिन नाव वाला पैसे मांगता था। उसके पास पैसे नहीं थे, जो फकीर मानता था कि पैसे पास में थोड़े होने बहुत जरूरी हैं, उसने कहा अब देखो, अब नदी पार नहीं हो सकते और रात इस जंगल में बितानी पड़ेगी और जीवन का खतरा है। और अब मैं तुम्हें बताता हूं कि पास में पैसे होना कितने जरूरी है? पहला फकीर हारता हुआ मालूम पड़ा, दूसरे फकीर ने पैसे निकाले, नाव वाले को पैसे दिए, वे तीनों फकीर नदी को पार कर गए।
नदी पार करके पैसे वाले फकीर ने कहा, कि देखा तुमने, तब फिर वह तीसरा फकीर हंसने लगा, उन लोगों ने पूछा आप हंसते क्यों हैं? और उस फकीर ने कहा कि मैं इसलिए हंसता हूं, कि पैसे का होना भी जरूरी है, और छोड़ देना भी जरूरी है। पैसे थे, पैसों से तुम नदी पार नहीं हुए हो, पैसे न होते, तो भी तुम नदी पर नहीं हो सकते थे। पैसे थे, तो भी तुम नदी पार नहीं होते, अगर तुम कहते कि पैसे छोड़ने को हम राजी नहीं हैं। तुम नाव वाले को पैसे देने को राजी हुए , पैसे थे और पैसे छोड़े जा सके, इसलिए तुम नदी पार हो गए हो। मैं तब इसलिए हंसा था कि तुम दोनों गलत हो। पैसे का न होना, साधन खो देना है, पैसे का होना और पैसे को पकड़ लेना साधन को पकड़ लेना है। ठीक वैसी ही हालत शिक्षा के संबंध में भी है। मैं उन दोनों तरह के लोगों के पक्ष में नहीं हूं। जो लोग आदमी को पागल की तरह शिक्षित करते चले जाना चाहते हैं, बिना इस बात की फिकर किए कि शिक्षा की सीढ़ी पर चढ़ाकर तुम आदमी को शिक्षा की सीढ़ी से उतार सकोगे या नहीं? अगर नहीं उतार सके, तुम आदमी को पागल कर दोगे। दुनिया के अधिक शिक्षा शास्त्री आदमी को बस शिक्षित करते चले जाना चाहते हैं। इसकी कोई फिकर नहीं है कि जिस साधन पर हम चढ़ते हैं, एक दिन उसे छोड़ देना पड़ता है। जीवन में सारे साधन छोड़ देने पड़ते हैं। शिक्षा साध्य नहीं है, वह कोई एंड नहीं है, वह सिर्फ मीन्स है, और सब मीन्स छोड़ने की क्षमता होनी चाहिए। और जिस मीन्स को छोड़ने की क्षमता आदमी खो देता है, वह परेशानी में पड़ जाता है, क्योंकि मीन्स छोड़ने के लिए ही है, ताकि एंड पाया जा सके। एक आदमी पैसे कमाता है और कंजूस की तरह पकड़ कर बैठ जाता है, फिर उनको छोड़ता नहीं, वह आदमी पागल हो गया। क्योंकि पैसे का उपयोग पैसे को छोड़ने में था। पैसे को इकट्ठा इसलिए किया जाता है ताकि छोड़ा जा सके। यह बात बड़ी उल्टी मालूम पड़ती है। लेकिन पैसे को इकट्ठा करने का यही अर्थ है कि उसे छोड़ा जा सके।
अमीर होने का एक ही मजा है कि गरीब होने की क्षमता कायम रहती है। छोड़ा जा सके। और अगर छोड़ा न जा सके, तो पैसा व्यर्थ हो गया। क्योंकि पैसे की उपयोगिता उसके छोड़ने से फलित होती थी। जीवन के सारे साधन छोड़े जा सकें, तो ही सार्थक हैं, अगर पकड़ कर बैठ जाएं तो सार्थक नहीं र्हैं। शिक्षा भी साधन है, लेकिन दुनिया में धन को पकड़ने वाले को तो हम कहेंगे कि यह कंजूस है, लेकिन शिक्षा से मिले ज्ञान और प्रमाण पत्रों को पकड़ने वालों को कोई कंजूस नहीं कहता। वे भी कंजूस हैं, किसी भी तरह के साधन को पकड़ लेना कंजूसी है। कंजूसी मूलतः है। वह इस बात का सुबूत है, कि साधन का जो उपयोग था, वही व्यर्थ हो गया। वह छोड़ने के लिए था, तो उसका मजा था, उसको पकड़ कर बैठ गए। दुनिया में जो लोग शिक्षा को बढ़ाया जाने की पागल दौड़ में हैं, वो कहते हैं कि आदमी को बस शिक्षित करते रहो, बिना इस बात की फिकर किए कि आदमी को किसलिए शिक्षित किया जाता है?
अब वे सोचते हैं रूस में, सारी दुनिया में सोचना पड़ेगा क्योंकि इतना ज्ञान का भंडार इकट्ठा हो गया है, कि दस पंद्रह साल बच्चों को पढ़ाने से उसे ट्रांस्फर नहीं किया जा सकता। अब वो जमाने गए, कि बच्चों को हम चार क्लास पढ़ा देते थे, और पुरानी पीढ़ी का सारा ज्ञान हस्तांतरित हो जाता था। अब पच्चीस और तीस साल तक आप युनिवर्सिटी में बच्चों को पढ़ाते रहें, वो पीएच डी होकर निकलें, तब भी पुराने जमाने में प्राइमरी का बच्चा, अपनी पुरानी पीढ़ी की सारी ज्ञान की स्थिति उपलब्ध कर लेता था, आज की पीएचडी को पार किया हुआ लड़का भी पुरानी पीढ़ी के सारे ज्ञान को उपलब्ध नहीं कर लेता। आज का पीएचडी पुराने प्राइमरी ज्ञान के मुकाबले भी खड़ा नहीं हो सकता है। इस तुलना में कि पुरानी पीढ़ी के पास इतना कम ज्ञान था देने को कि प्राइमरी की शिक्षा में वह बात पूरी हो जाती थी। अब बड़े खतरे की बात है अगर पच्चीस या तीस साल में एक युवक पीएच डी होकर निकले और उसके पास क ख ग है अभी, उसकी पुरानी पीढ़ी ने जितना ज्ञान अर्जित किया है, वह उसको संक्रमित नहीं हो पाया है। तब तो बड़ा खतरा है। प्रति सप्ताह कोई सात हजार नये ग्रंथ प्रकाशित हो जाते हैं, प्रति दिन एक हजार नये ग्रंथ सारी दुनिया में प्रकाशित हो रहे हैं। इन सात हजार नये ग्रंथों को हम नई पीढ़ी को कैसे दे पायेंगे? यह ज्ञान इतनी तीव्रता से बढ़ रहा है, इतनी दिशाओं में बढ़ रहा है कि करीब-करीब ऐसी हालत हो गई है कि आज दुनिया में कोई भी एक आदमी नहीं है, जो यह कह सके कि मैं सारे जीवन के अलग-अलग ज्ञानों के संबंध में थोड़ी बहुत भी जानकारी रखता हूं। जितना ज्ञान बढ़ता है, उतना ही एक शाखा और प्रशाखा, इस्पेशलाइजेशन, एक छोटी सी चीज के बाबत जानकारी बढ़ती है, शेष सारी चीजों के बाबत अंधकार हो जाता है।
मैंने एक मजाक सुना है। पचास वर्ष बाद इक्कीसवीं सदी में, एक आदमी एक डाक्टर की दुकान पर जाता है और उससे कहता है कि मेरी आंख खराब है, आप आंख के डाक्टर हैं, मैंने बाहर पट्टी देखी है, कृपा कर मेरी आंख की जांच कर लें, वह डाक्टर पूछता है, पहले यह बताएं आपकी बाईं आंख खराब है, या दाईं आंख, मैं सिर्फ दाईं आंख का डाक्टर हूं। बांई आंख का डाक्टर थोड़ी आगे जाकर, चैराहे पर रहता है।
इस बात की संभावना है। एक जमाना था, एक आदमी डाक्टर होता था, आंख का या कान का नहीं होता था। डाक्टर होना काफी था, इतना कम ज्ञान था। एक आदमी डाक्टर होता था, वह आंख भी देखता था, कान भी देखता था, पैर भी देखता था, पेट भी देखता था। फिर इतना ज्ञान बढ़ता चला गया कि आज तो आंख के संबंध में इतना ज्ञान है कि एक आंख का डाक्टर भी पूरा आंख के संबंध में जो भी उपलब्ध हुआ है, उसको समझ नहीं सकता। न अध्ययन कर सकता है, न खोज कर सकता है। इस बात की बहुत संभावना है कि हमें आंख के भी विभाजन करने पड़ें और आंख के भी स्पेश्लाइजेशन के अलग-अलग क्षेत्र खोज लेने पड़े। यह खतरा रोज बढ़ता चला जाता है।
एक जमाना था कि फिलोसफी अकेला शास्त्र थी। फिर फिलाॅसफी के टुकड़े होने शुरु हुए। फिर साइंसिज बनीं, अब एक-एक सांइस के छोटे टुकड़े होने शुरु हुए। अब छोटे टुकड़ों के भी छोटे टुकड़े होने शुरु हुए। और धीरे-धीरे यह मालूम होता है कि चीजें इतनी विशाल हैं और इतनी रहस्यपूर्ण हैं कि हम टुकड़े करते चले जायेंगे, और धीरे-धीरे हर आदमी कुछ जानेगा, लेकिन कोई भी आदमी पूरे को नहीं जानेगा। और जीवन पूरा अस्त-व्यस्त हो जाएगा। और जीवन अस्त-व्यस्त होता चला जा रहा है। सारी दुनिया के वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री इस संबंध में चिंतित हैं कि सारे ज्ञान का समुच्चय कैसे हो? एक आदमी आंख के संबंध में जानता है, एक आदमी नाक के संबंध में जानता है, एक आदमी कान के संबंध में जानता है, और तीनों आदमी दूसरे के संबंध में कुछ भी नहीं जानते। और आदमी कुछ ऐसा है कि उसमें नाक भी है, कान भी है, आंख भी है, वो तीनों इकट्ठे हैं। और उन तीनों के ज्ञान का समुच्चय कैसे हो कि हम पूरे आदमी के बाबत कुछ जान सकें। असंभव होता जा रहा है। अब इस बात की फिकर करनी जरूरी होगी कि बच्चों को यह सारा ज्ञान किस प्रकार दिया जाए? तो रूस में वो साचते हैं कि अब बच्चों के पैदा होने के बाद, पाचं साल भी खराब नहीं किए जा सकते। उनको पांच साल में भी कुछ न कुछ शिक्षा दी जानी चाहिए। और अब वे यह कहते हैं कि बच्चों की नींद का समय भी व्यर्थ नहीं खोया जा सकता। उनको स्लीप टीचिंग की भी व्यवस्था होनी चाहिए, नहीं तो हम यह ज्ञान दे नहीं सकते। तो अब वे इस बात की फिक्र में लगे हुए हैं, रात जब बच्चा सोया हो तो टेप-रिकार्डर से रात भर फोन लगा रहे, और टेप-रिकार्डर रात भर उसको शिक्षा देता रहे। वह नींद में भी रहे, और उसके मन में विचार और ज्ञान डाला जाता रहे। अब वे यह भी कह रहे हैं कि इतने से काम नहीं चलेगा कि तीस और पच्चीस में कोई युवक विदा हो जाए, युनिवर्सिटी से। इतने से काम नहीं चलेगा। ज्ञान इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि हर चार-पांच साल में बदल जाता है। पांच साल पहले के आदमी को हम अज्ञानी कह सकते हैं। आज पश्चिम में बड़ी किताबें लिखना बहुत मुश्किल हो गया है, अगर कोई आदमी कोई बड़ी किताब लिखना चाहता है, तो नहीं लिख सकता, क्योंकि बड़ी किताब लिखने में वर्ष-दो वर्ष लग जाते हैं, दो वर्ष मंे किताब आउट आफॅ डेट हो जाएगी। इसलिए छोटी किताबें लिखने पर पश्चिम में जोर बढ़ गया है, एकदम बड़ी किताब नहीं लिखी जा सकती। क्योंकि आप जब तक किताब लिखेंगे तब तक जो अपने इकट्ठी की, मेहनत की वह तब तक आउट आॅफ डेट हो जाएगी इंफार्मेशन, तब तक नये ख्याल आ जाएंगे, नई खोजें हो जाएंगी। तो छोटी-छोटी किताबें प्रकाशित हो रही है,ं छोटे पीरियाडिकल्स प्रकाशित हो रहे हैं ताकि जो ज्ञान है, वह अभी ताजा लोगों तक पहंुच जाए, नहीं तो वह पहुंच नहीं सकेगा। और इस ज्ञान का इतना तीव्रता से भार बढ़ता जा रहा है, कि इन बच्चों को कैसे इसे दिया जा सके, इस बात की संभावना मालूम पड़ती है कि हम बहुत उपाय खोजेंगे, इसको ट्रांसफर करने के। एक अंतिम उपाय जिसके बाबत चर्चा चलती है, वह यह है कि जो शिक्षित बहुत शिक्षित लोग मरते हैं, अगर उनकी माइंड की पूरी मैमोरी को, नये बच्चों को दिया जा सके, तो ही ज्ञान ट्रांसफर हो सकता है, नहीं तो नहीं हो सकता।
जैसे आइंस्टीन मरे, तो मरते वक्त आइंस्टीन की खोपड़ी के सारे मांस-मज्जा के हिस्से को उस सारे हिस्से को जहां स्मृति संगृहीत होती है, उस पूरे हिस्से को निकाल कर अगर नये बच्चे में ट्रांसप्लांट किया जा सके, तो आइंस्टीन ने जो जाना था वह ट्रांसप्लांट हो सकता है। इसकी संभावना है, वह ट्रांसप्लांट हो सकता है। इस बात की पूरी संभवना है कि स्मृति का पूरा का पूरा रील, जैसा कि टेप-रिकार्डर में पूरी रील है, वैसी स्मृति की पूरी की पूरी रील नये बच्चों को दी जा सकती है। लेकिन वे नये बच्चे जन्म से ही बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। इस बात की कल्पना करनी बहुत मुश्किल है कि छोटे से बच्चे को आइंस्टीन की खोपड़ी मिल जाए तो वह कितनी मुश्किल में पड़ जाएगा?
मैंने एक लड़की देखी है, उस लड़की को मेरे पास लाए थे। उसे अपने तीन जन्मों की स्मृतियां याद हैं। उस लड़की की उम्र मुश्किल से जब वे मेरे पास लाए थे, तो कोई बारह वर्ष थी। लेकिन उस लड़की को देख कर, उसकी आंखों को देख कर आपको लगेगा कि उसकी उम्र नब्बे वर्ष है। वह इतनी परेशान जैसे नब्बे वर्ष की बूढ़ी हो सकती है। उसको तीन जन्मों की स्मृतिया ं हैं। आदमी बूढ़ा होता है, स्मृति से। आदमी शरीर से बूढ़ा नहीं होता, शरीर का बुढ़ापा बहुत गौण हैं, असली बुढ़ापा आता है स्मृति से। नब्बे वर्ष की याददाश्त, उसके प्राणों को मथे डाल रही है। इसी जीवन की चिंता नहीं है उसे, पिछले जीवन की भी चिंता है। उसने तीनों जन्मों के अपने पिछले परिवार के लोगों से संबंध स्थापित कर लिए, वे सारे परिवार उसने खोज लिए, अब उसकी बड़ी मुश्किल हो गई। वह पिछले जन्म में किसी की पत्नी थी, उस आदमी से उसका मोह अभी जिंदा है। पिछले जन्म में उसके बेटे थे, बेटियां थीं, उनसे उसका मोह जिंदा है। उसके दामाद हैं, उनसे उसका मोह जिंदा है। पिछले जन्म के मोह जिंदा हैं, नये जन्म के नये मोह पैदा हो गए और तीसरे जन्म के भी मोह की हलकी झलक उसके भीतर मौजूद है। उन सारी चिंताएं उसके प्राणों को घेरती हैं। वह अभी से उदास और परेशान हो गई। वह अभी से घबरा गई है। मैंने उसके मां-बाप को कहा कि तुम इसकी स्मृति को भुलाने की कोशिश करो, अन्यथा यह लड़की पागल हो जाएगी। यह लड़की है ही नहीं, वह खेल नहीं सकती, क्योंकि हमें ऊपर से दिखाई पड़ता है, वह बारह साल की है, भीतर से तो वह नब्बे साल की है। उसे खेल-खिलौनों में कोई रुचि नहीं है। उसे स्कूल में पढ़ने जाने में, बड़ी बेचैनी और परेशानी होती है, वह यह मान ही नहीं सकती कि वह छोटी है।
अगर किसी भी दिन हमने बूढ़े गुजरने वाले लोगों की प्रतिभा और स्मृति को बच्चों में ट्रांसप्लांट किया, तो बच्चे बहुत मुसीबत में पड़ जाएंगे। लेकिन बच्चों की मुसीबत से हमें कोई मतलब ही नहीं है। बच्चों की मुसीबत से हमें क्या करना है? हमें तो बच्चों को शिक्षित करते चले जाना है। लेकिन किसलिए? शिक्षा किसलिए, हम बच्चों को किसलिए घोटते चले जाएं और उनके दिमाग में कुछ भी भरते चले जाएं? छोटा सा बच्चा स्कूल जाता है, किसी को दया नहीं आती। इतनी किताबें लादे हुए है, जितना उसका खुद का वजन नहीं है। वह दाबे चला जा रहा है। इससे मतलब क्या है हमें? सवाल है शिक्षित करना है। जैसे कि शिक्षित करना, अपने आपमें कोई लक्ष्य हो। क्या परिणाम होगा इसको शिक्षित करने का? अगर इसको हम सिर्फ शिक्षित करने में समर्थ हो गए और हमने सारी इंफार्मेशन इसके दिमाग में भर दी, तो हम सिर्फ इसको, बेचैन, अशांत और परेशान कर देंगे और कुछ भी नहीं। जो कपड़े पहनाते हैं हम लोगों को, उन कपड़ों को उतारने की संभावना होनी चाहिए, अन्यथा आदमी कभी भी निश्चितं नहीं हो सकता। अगर आपको लोहे के कपड़े पहना दिए जायें, जिनको आप कभी न उतार सकें, तो आपकी मौत हो गई। सोएंगे बिस्तर पर और कपड़े छाती से सटे रहेंगे, चलेंगे रास्ते पर और कपड़े छाती से सटे रहेंगे, उनको आप कभी नहीं बदल सकते। कपड़े इसीलिए आरामदायक हैं कि आप उनको उतार कर रख सकते हैं और सो जाते हैं, मेरी अपनी दृष्टि में वही शिक्षा सम्यक है, जिसे आदमी कपड़ों की तरह उतारकर कभी भी रख दे, और अशिक्षित हो जाए। और चैबीस घंटे में अगर घंटे-दो घंटे को वह अपने सारे ज्ञान के बोझ को एक तरफ न रख सके, तो उस आदमी की हम जान ले लेंगे। वह आदमी जिंदा नहीं रह सकेगा, विक्षिप्त हो जाएगा। और सारी मनुष्यता धीरे-धीरे विक्षिप्त हो रही है। सारी मनुष्यता धीरे-धीरे पागल होती जा रही है।
मैं क्या कहना चाहता हूं, मैं यह कहना चाहता हूं, बच्चों को इस भांति शिक्षित करें कि शिक्षा उनका लक्ष्य न बन जाए, जीवन का लक्ष्य न मालूम पड़ने लगे। आज तो ऐसा ही मालूम पड़ता है कि शिक्षा जीवन का लक्ष्य है। किसी बच्चे से पूछो, तुम क्या? वह कहता है मैं पढ़ना चाहता हूं। किसलिए पढ़ना चाहते हो? मां-बाप पढ़ाने में लगे हैं, शिक्षक पढ़ाने में लगे हैं। बच्चे पढ़ने में लगे है,ं लेकिन ये सब इतना बड़ा कारोबार किसलिए चल रहा है? बहुत जान लेना अपने आप में सार्थक नहीं है। जानना तभी सार्थक है, जब वह जीने में सहयोगी बनता हो, बाधा न बन जाता हो। जानने का और कोई अर्थ नहीं है, वह जीने में सहयोगी बनना चाहिए। शिक्षा जीने में सहयोगी बन रही है या जीने में बाधा डाल रही है? लेकिन हम देखते ही नहीं चारों तरफ। देखेंगे तो यह स्पष्ट सूत्र खयाल में आ सकते हैं। पहला सूत्रः बच्चे को इस भांति शिक्षित किया जाना चाहिए कि वह हर हालत में शिक्षित होकर भी शिक्षा के वस्त्रों को उतार कर रखने में समर्थ हो, किसी भी क्षण। और किसी भी क्षण नई चीज को समझने के लिए शिक्षा की सारी की सारी धारा को एक तरफ कर सके, हटा सके। नये बच्चे की तरह खड़ा हो सके। वह जो लर्निंग है, उसको हटा सके कभी भी और अनलर्निंग में खड़ा हो सके।
रमन महर्षि के पास एक जर्मन विचारक आया और उसने पूछा कि मैं कुछ सीखना चाहता हूं, परमात्मा के संबंध में। रमन महर्षि ने कहा, फिर बाद में आना, पहले तुमने जो सीखा हो संसार के विषय में, उसको अनसीखा कर आओ। वह अनलर्न कर आओ। क्योंकि अगर तुम लर्निंग को लेकर आते हो,तो फिर परमात्मा को नहीं सीख सकते। क्योंकि जिसके दिमाग में यह ख्याल है कि मैं जानता हूं, उसका दिमाग सख्त हो जाता है। फ्लैक्सिबल नहीं रह जाता। जिसके दिमाग में यह ख्याल है कि मैंने जान लिया, मैंने पा लिया, मैंने सीख लिया, मैं युनिवर्सिटी हो आया,मेरे पास पदवियां हैं, पद हैं, उपाधियां हैं। उस आदमी का मन सब तरफ से द्वार बंद कर लेता है, वह क्लोज्ड हो जाता है। अब वह कुछ भी नहीं सीख सकता। और जो हम सिखाते हैं, वह कचरा है, और जो हमें सीखना है, वह अमृत है। वह सीखने से वंचित रह जाते हैं। अगर विश्वविद्यालय किसी दिन अपनी सीढ़ियों से विदा करते हुए विद्यार्थियों को यह कह सकें कि तुम यह मत भूल जाना कि तुमन जो सीखा है, वह कुछ भी नहीं है, लेकिन यह आखिरी घड़ी में नहीं कहा जा सकता, यह पहले दिन से ही सिखाना जरूरी है। सिखाओ भी, और इतना भी मत सीख लेने दो, वह पकड़ जाए, जड़ हो जाए। सिखाओ भी, लेकिन इस भांति मत सिखाओ कि वह संस्कारित हो जाए, कंडीशनिंग बन जाए, सिखाओ भी लेकिन सीखने को पार करने की क्षमता भी दो। उसे ट्रांसेंट कर सके, वह उसे पार कर सके। वह सब सीख ले और भूल सके, फिर अनसीखा खड़ा हो जाए, ताकि जिंदगी और नई चीजें सिखाने को आए, तो उसके द्वार खुले हों, उसका माइंड एक आपनिंग हो, एक खुलापन हो। वह क्लोज्ड न हो जाए। शिक्षित आदमी से ज्यादा क्लोज्ड आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। शिक्षित आदमी को कुछ बात समझाना ही मुश्किल है। वह इतना समझा हुआ है कि बहुत मुश्किल हो जाता है।
जर्मन में एक संगीतज्ञ था, वेजनर। वेजनर बहुत अजीब आदमी था, उसने अपने दरवाजे पर एक तख्ती लगा रखी थी कि जो लोग संगीत पहले से सीखे हुए हों, वह कृपा करके इस भवन के भीतर न आएं। लोग बहुत हैरान होते, उसके पास दूर-दूर से लोग सीखने आते। एक दूर से संगीतज्ञ सीखने आया था, वेजनर के पास। उसने जाकर कहा, आपने यह क्या तख्ती लगा रखी है कि जो लोग संगीत पहले से सीखे हुए हैं, भीतर न आएं। वेजनर ने कहाः जो सीखे हुए हैं, उन्हें सिखाया नहीं जा सकता। आना फिजूल है। और अगर कोई आता है, तो जो सीखा हुआ है, उससे मैं दोहरी फीस लेता हूं, जो कुछ भी नहीं सीखा हुआ है, उससे मैं आधी फीस लेता हूं। जो सीखा हुआ है, उससे दुगनी फीस लेता हूं। क्यों? वह संगीतज्ञ पूछने लगा, क्यों? वेजनर ने कहा कि पहले मुझे भुलाना पड़ता है, जो सीखा हुआ है आदमी। भुलाने में मेहनत करनी पड़ती है, उसकी फीस अलग, जब वह भूल जाता है, फिर कोरी किताब हो जाता है, फिर कुछ नई बात लिखी जा सकती है। क्या यह हो सकता है कि बच्चे की किताब सीखने के बाद भी कोरी बनी रहे? अगर यह नहीं हो सकता तो शिक्षा असफल हो जाएगी। मुझे लगता है कि यह हो सकता है। यह बिलकुल हो सकता है कि हम सिखायें भी और बच्चा सीखे भी, और फिर भी कोरा रह जायए। जाने भी लेकिन जानने का अहंकार मजबूत न हो। सीखे भी, लेकिन सीख गया, पहुंच गया, ऐसी भ्रांति पैदा न हो। यात्रा जारी रहे, और उसे ध्यान रहे बहुत कुछ सीखने को शेष है, बहुत कुछ सीखने को शेष है। ऐसा कुछ सीखने को शेष है, जिसे विद्यालय में कभी सिखाया नहीं जा सकता। जिसे कोई शिक्षक कभी सिखा नहीं सकता। जिसे कोई मां-बाप कभी सिखा नहीं सकते। ऐसा कुछ शेष है, जो खुला हुआ मन जिंदगी की चारों तरफ की हवाओं से पकड़ता है, और सीखता है। ऐसा कुछ शेष है, जो चांद-तारे और सूरज सिखाते हैं। ऐसा कुछ शेष है, जो अदृश्य उतरता है। लेकिन वह उतरता है उस मन में, जिसके द्वार खुले हैं। जिसके द्वार बंद हैं उस मन में वह नहीं उतरता है।
शिक्षा होनी चाहिए, लेकिन पत्थर की तरह नहीं। पानी की तरह। पत्थर पर लकीरें हम खींचते हैं वे मजबूत हो जाती हैं, पानी पर भी लकीरें खींचते हैं, खींचते भी नहीं कि विलीन हो जाती हैं, मिट जाती हैं। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, पत्थर की तरह मजबूती से पकड़ न ले आदमी को, पानी की तरह लकीर खींचे और खो जाए। आदमी जान ले और फिर भी जानने का भ्रम और अहंकार पीछे न छूट जाए। जिस दिन हम विश्वविद्यालय से विनम्र लोगों को निकाल सकेंगे, उस दिन शिक्षा सार्थक हो सकती है। वह तो पुराने ऋषियों ने कहा था कभी कि विद्या वही है, जो विनम्रता सिखाए, लेकिन ऐसी विद्या दुनिया में कहीं नहीं, जो विनम्रता सिखाती हो। अगर विद्या विनम्रता न सिखाए तो विद्या ही नहीं है अविद्या हो गई। और हमारी सारी विद्या, विनम्रता छीनती है, सिखाती नहीं है। सिखाती है अहंकार। सिखाती है मजबूत ईगो।
तो मैं तो निरंतर यह कहता हूं कि हमारे विद्यालय अविद्यालय हैं, अभी विद्यालय उन्हें बनना है, अभी वे बन नहीं सके हैं। जहां अहंकार मजबूत होता हो, वह विद्यालय नहीं है। जहां अहंकार क्षीण होता हो, टूट जाता हो, वह विद्यालय है। लेकिन कैसे यह हो सकता है? इसे होने के लिए बिलकुल नये तरह का शिक्षक चाहिए। क्योंकि शिक्षक अभी कहता है कि मैं जानता हूं। और मैं तुम्हें सिखाता हूं। वह जो शिक्षक का यह भाव है कि मैं जानता हूं, और सिखाने वाला हूं; यही भाव बच्चों के मोम जैसे मन पर मजबूती से पकड़ता जाता है। कल वे भी इन्हीं बातों को जान लेंगे, और अपने से छोटों से कहेंगे कि हम जानते हैं, हम तुम्हें सिखाते हैं। नहीं शिक्षक को भी कहना चाहिए, मैं भी खोज रहा हूं तुम्हारे साथ, तुमसे दो कदम आगे हूं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं जानता हूं।
हम रास्ते पर चल रहे हैं, कोई चार कदम पीछे है, कोई चार कदम आगे है। जो चार कदम आगे है उसे चार कदम आगे की चीजें दिखाई पड़ती हैं, लेकिन अज्ञान उसका भी उतना ही घना है, जो चार कदम पीछे है, क्योंकि जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है। शिक्षक को यह भ्र्रम छोड़ देना चाहिए कि मैं जानता हूं। इतना ही पर्याप्त है कि मैं तुमसे दो कदम आगे हूं, और वो दो कदम आगे होना भी कोई अहंकार नहीं है। वह केवल जन्म का संयोग है कि मैं तुमसे दो दिन पहले पैदा हो गया हूं। इससे ज्यादा और कोई संयोग नहीं है। शिक्षक का अहंकार नहीं टूटता है, तो हम विद्यार्थी के अहंकार को कभी नहीं तोड़ सकेंगेे। और शिक्षक में भारी अहंकार है। दुनिया भर के शिक्षक में भारी अहंकार है कि वह जानता है। क्या जानते हैं हम? कुछ भी नहीं जानते हैं। कुछ भी हमें पता नहीं है। जिंदगी के असली रहस्यों का हमें क ख ग भी मालूम नहीं है। नहीं लेकिन कुछ हमने सीख लिया है और जिन्होंने हमें सिखाया था, उन्होंने भी दावे से कहा था कि वे जानते हैं। हालांकि हमें अब तक पता चल गया होगा कि वह जानना किसी बड़े मूल्य का नहीं है। सिर्फ रोटी-रोजी मिल जाती है। और जिस ज्ञान से सिर्फ रोटी-रोजी मिलती हो, उस ज्ञान का मूल्य उतना ही हो सकता है, जितना रोटी-रोजी का मूल्य होता है। ज्ञान से मिलना चाहिए जीवन, ज्ञान से मिलना चाहिए अमृत, ज्ञान से मिलना चाहिए परमात्मा। वह तो नहीं मिलता। लेकिन वह भ्रम नहीं छूटता। अपने से छोटे बच्चों के सामने फिर यह अकड़ आ जाती है कि मैं जानता हूं। वे बच्चे बेचारे विरोध भी क्या कर सकते हैं। वे मान लेते हैं कि आप जानते होंगे, आप जब कहते हैं तो जानते ही होंगे। नहीं, शिक्षक को विनम्र होना पड़ेगा और निवेदन करना पड़ेगा, मैं भी खोज रहा हूं। तुम से दो कदम आगे हूं उम्र में, तुमसे थोड़े दिन ज्यादा खोज की है, लेकिन मैं भी पहुंच नहीं गया हूं। यह पहुंच जाने का भ्रम टूट जाना चाहिए शिक्षक के मन से, तो बच्चे में भी विनम्रता की संभावना पैदा होगी। अन्यथा बच्चा भी विनम्र नहीं हो सकता। शिक्षक भी सीख रहा है। शिक्षक सिखा ही नहीं रहा है,और मजा तो यह है कि जितना जब कोई हमें सिखाता है तब हम नहीं सीख पाते, जितना हम तब सीख पाते हैं, जब हमें किसी को सिखाना पड़ता है। शिक्षक भी सीख रहा है। वह सिर्फ बड़ी उम्र का विद्यार्थी है, विद्यालय में। उसकी एक और तरह की शिक्षा शुरु हुई है। लेकिन शिक्षक कोई भी नहीं है। सब शिक्षार्थी हैं, और सब सीख रहे हैं।
अगर यह संभावना पैदा हो सके, और शिक्षक के अहंकार को हम विदा कर सकें, तो बच्चों में उसकी प्रतिछवि पैदा होनी बंद हो जाएगी, और तब बच्चे भी सीखेंगे, लेकिन सीख नहीं जाएंगे; जितना जानेंगे, उतना अंजाना द्वार खुलता चला जाएगा। जितना प्रवेश करेंगे, उतना ही पता चलेगा कि पहुंचना बहुत मुश्किल है। सागर में कूद जाना आसान है, लेकिन फिर दूसरा किनारा पा लेना मुश्किल है। ज्ञान के सागर में भी कूदना आसान है, दूसरा किनारा नहीं मिलता। और जिनको खयाल है कि हम दूसरे किनारे पर पहुंच गए हैं, वे ध्यान रखें कि जहां तक सौ में निन्यानबे संभावना यह है कि वे कूदे ही नहीं हैं। और पहले ही किनारे पर खड़े हुए हैं। कूदने वाला आदमी तो यह कहेगा कि मुश्किल है पहुंचना, अनंत है सागर, नहीं पहुंचता हूं, कूद तो गया हूं; पहंुचता नहीं हूं। डूब तो गया हूं, भीग तो गया हूं, पहुंचता नहीं हूं। लेकिन जो आदमी कहता है, पहुंच गया हूं, सौ में निन्यानबे मौके यह हैं कि उस किनारे से भी नहीं कूदा है। वह पहले किनारे पर ही खड़ा है, और सोच रहा है कि दूसरे किनारे पर पहुंच गए हैं।
सारे शिक्षा के जगत में, एक अदभुत अहंकार शिक्षक को पकड़े हुए है। उस अहंकार की प्रतिध्वनियां बच्चों के प्राणों में गूंजनी शुरु हो जाती है,ं फिर हम चिल्लाते हैं कि बच्चे आज्ञा नहीं मानते, अहंकार ने कभी किसी की आज्ञा मानी है? अहंकार को मजा आता है, आज्ञा तोड़ने में। अहंकार को आज्ञा मानने में मजा नहीं आता। और अहंकार को मजा आता है, आज्ञा मनवाने में। शिक्षक का अहंकार है कि आज्ञा मनवाए, और विद्यार्थी का अहंकार है कि आज्ञा को तोड़े। और जो शिक्षालय सिर्फ अहंकार को जन्म देते हों, वहां कभी भी अनुशासन नहीं हो सकता है। अहंकार से ज्यादा डिस्टर्बिंग, अहंकार से ज्यादा अनुशासन को तोड़ने वाला, कोई तत्व नहीं है। लेकिन शिक्षक यह मानने को और देखने को राजी नहीं है कि उनके अहंकार का ही प्रतिबिंब बच्चों के व्यक्तित्व में बनना शुरु होता है। और फिर जितनी वो कोशिश करते हैं दबाने की, उतना ही दबना मुश्किल होता चला जाता है। हां पुराने जमाने के बच्चे दब जाते थे, क्योंकि वे अशिक्षित घरों से आते थे। उनका अहंकार मजबूत नहीं होता था। अब बच्चे शिक्षित घरों से आ रहे हैं, उनके मां-बाप के पास भी शिक्षक जैसा ही शिक्षित होने का अहंकार है। अब इन बच्चों को दबाया नहीं जा सकता। अब ये जितनी शिक्षा बढ़ती चली जाएगी, उतनी ही अनुशासनहीनता अनिवार्यरूपेण बढ़ेगी। क्योंकि यह शिक्षा अहंकार को जन्माती है। अहंकार अनुशासनहीनता का स्वरूप है। अहंकार कभी भी अनुशासन मानने को राजी नहंी है। अहंकार का मतलब ही यह है कि किसी को मत मानना। और जब यह भाव मजबूत होता है, तो शिक्षक परेशान होता है। लेकिन परेशान होकर यदि वह सोचेगा, तो उसे पता चल जाएगा, उसका अहंकार ही बच्चों में प्रतिफलित होता है।
शिक्षक के अहंकार को विसर्जित हो जाना चाहिए। शिक्षक के अहंकार के विसर्जित होते ही, अगर शिक्षक विनम्र हो, इतना विनम्र हो कि कह सके कि मैं भी सीख रहा हूं तुम्हारे साथ। दावा नहीं करता हूं तुम्हें सिखाने का, सुझाव देता हूं। उपदेश नहीं करता हूं, जबरदस्ती तुम्हें समझा नहीं देना चाहता हूं। मैं जो कहता हूं वह सत्य ही नहीं है। मैं सिर्फ तुम्हारी प्यास जगाना चाहता हूं।
सुकरात कहता था, और सुकरात को मैं कहूंगा कि वह सुप्रीम टीचर है। वह जिसको हम कहें सुप्रीम मास्टर। जिसको हम कहें सच्चा शिक्षक। सुकरात कहता था कि मैं क्या कर सकता हूं, मैं एक दाई की तरह हूं, मिडवाइफ की तरह, मैं तुम्हारे जन्म में सहयोगी हो सकता हूं, मैं तुम्हें जन्म नहीं दे सकता। मैं सिर्फ सहयोगी हो सकता हूं, जैसे एक दाई, एक मिडवाइफ एक बच्चे के जन्म में सहयोगी हो जाती है। वह ठीक कहता था, इतना ही विनम्र होना पड़ेगा शिक्षक को, वह बच्चे के जन्म में सहयोगी हो सकता है। जो भी मूल्यवान है वह बच्चे के भीतर से आएगा, शिक्षक नहीं दे सकता उसको। लेकिन वह सहयोगी हो सकता है। और वह जितना अच्छा सहयोगी होना चाहे, उतना ही विनम्र होना जरूरी है, जितना अहंकार होगा, उतना ही वह सहयोगी नहीं हो सकता। क्योंकि अहंकार कहता है कि दूसरे को अपनी छाया में ढालो। दूसरे को अपने जैसा बनाओ। आज तक दुनिया के सारे शिक्षक बच्चों को अपनी शक्ल में ढालने की कोशिश करते रहे हैं, और इसलिए दुनिया रोज बर्बाद से बर्बाद होती चली गई है। किसी बच्चे को, किसी की शक्ल में ढालने की जरूरत नहीं है, बच्चा अपना ईमेज, अपनी शक्ल लेकर पैदा हुआ है, हम सहयोगी हो सकें कि वह अपनी शक्ल पा सके, हमारा काम पूरा हो गया। फिर हमें चुपचाप हट जाना चाहिए, जैसे दाई हटा जाती है। बच्चे का जन्म हो गया, और दाई विदा हो गई। उसको फिर कोई और बीच में खड़े होने की जरूरत नहीं होती। शिक्षक हमेशा हटता हुआ होना चाहिए। वह सहयोगी हो सके और हट जाए। जब शिक्षक हटेगा, तो कल शिक्षा भी हट सकती है। और जब विनम्रता होगी, सीखने की विनम्रता होगी, सीखने का द्वार खुला होगा, तो हम एक ऐसा मनुष्य पैदा कर सकते हैं, जो शिक्षित भी हो, और जो अशिक्षित भी हो। जो जानता भी हो, और यह भी जानता हो कि बहुत कुछ है, जो मैं नहीं जानता हूं। इस बात का बोध कि मैं नहीं जानता हूं, अगर ज्ञान की पाठशालाएं दे सकें, तो हम मनुष्य को जीवन के परम सत्यों तक पहुंचाने में समर्थ हो सकते हैं। और वह विद्यालय जो मंदिर का भी द्वार नहीं बन जाता, बहुत खतरनाक है।
विद्यालय मंदिर का द्वार भी बन ही जाना चाहिए। लेकिन विद्यालय हमारा मंदिर का द्वार नहीं बन पा रहा। वह नहीं बनेगा। क्योंकि मंदिर के द्वार पर लिखा है, वे ही प्रविष्ट हो सकते हैं, जो नहीं हैं। मंदिर के द्वार पर लिखा है, वे ही प्रविष्ट हो सकते हैं, जो नहीं हैं। जिनको होने का खयाल है, मंदिर के द्वार में उनका काई भी प्रवेश नहीं है। और हमारी शिक्षा हर एक को समबडी, कुछ होने का खयाल से भर देती है। मंदिर के द्वार बंद हो जाते हैं। नहीं बहुत शिक्षित करने का सवाल नहीं है, इस भांति शिक्षित करने का सवाल है कि आदमी शिक्षित ही होकर न रह जाए। बहुत सूचनाएं भर देने का कोई प्रयोजन नहीं है, बहुत ज्ञान लादने का बहुत प्रयोजन नहीं है, थोड़ा सा ज्ञान जो नाव बन जाए, और जीवन के अंनद सागर में ले जाने लगे। पहाड़ न बन जाए, और आज वह पहाड़ बन गया है।
बुद्ध की एक छोटी सी घटना और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
बुद्ध एक दिन कहते थे अपने भिक्षुओं को कि मैंने आठ लोगों को नदी पार करते देखा, एक नाव में उन्होंने नदी पार की। फिर नदी पार करके वे सोचने लगे कि जिस नाव ने हमें इस पार तक पहुंचाया, उसे छोड़ना तो बड़ी अकृतज्ञता होगी, जिस नाव ने हमें नदी पार करवाई, उसे हम छोड़ दें यह तो बड़ी अधार्मिकता होगी, अनैतिकता होगी, तो वे सोचने लगे, हम क्या करें? तो उनमें से एक समझदार ने सुझाव दिया और समझदार हमेशा खतरनाक सुझाव देते हैं, उसने सुझाव दिया कि इस नाव ने हमें नदी पार करवाई, अब इस नाव को सिर पर हम ले चलें। क्योंकि जिस नाव ने हमें नदी पर करवाई, कृतज्ञतावश क्या हम उसे अपने सिर पर न ले चलें। लोगों ने कहाः यह तो बिलकुल ठीक है, हम उस पर सवार हुए, अब उसको हम पर सवार होने दें। यह बिलकुल गणित ठीक था, उन्होंने आठों आदमियों ने नाव सिर पर रख ली, और बाजार में चले। गांव में हर आदमी पूछने लगे, मित्रो! यह क्या हो गया? नाव पर आदमी देखे थे, आदमियों पर नाव नहीं देखी थी! क्या हो गया तुम्हें? वे कहने लगे, अकृतज्ञ हो तुम। आज तक किसी आदमी ने नाव के प्रति कृतज्ञता, ग्रेटीट््यूड न दिखाया, हम नाव पर सवार हुए थे, अब हम नाव को अपने पर सवार रखेंगे, यही कृतज्ञता की सूचना है।
बुद्ध कहने लगे, ऐसे आठ आदमी शायद खोजने मुश्किल हों, लेकिन जिंदगी मंे हर जगह ऐसे ही आदमी मिलेंगे, साधनों को सिर पर ढोते हुए। जिन साधनों से पार होना चाहिए और छोड़ देना चाहिए, उन साधनों को कृतज्ञतावश सिर पर लिए हुए आदमी चलता है। शिक्षा एक साधन है, जरूरी है कि एक उम्र में उस नाव से गुजरा जाए, लेकिन यह भी जरूरी है कि नाव फिर छूट जाए, और नाव को पीछे लेकर न चला जाए। लेकिन गांव-गांव में, घर-घर पर आदम लिखे हुए है, अपना नाम छोटे में और बहुत बड़े अक्षरों में एम ए, एलएल बी, पीएच डी नाव ढो रहा है, बेचारा। सिर पर नाव रखे हुए है। कृतज्ञतावश। जितनी बड़ी नाव जिसके सिर पर है, वह उतना बड़ा आदमी है, छोटी नाव है आपके सिर पर, आप कुछ भी नहीं हैं। नाव बड़ी चाहिए। उपाधियों की, पदवियों की भारी नाव पीछे लिए हुए आदमी...लेकिन नाम के पीछे लिख लो कोई हर्जा नहीं है, क्योंकि तख्ती पर कुछ बोझ नहीं पड़ता। लेकिन मन के भीतर लिखा हुआ है, वह एम ए, पीएच डी और एलएल बी की डिग्रियां तख्तियों पर लिखी हों तो कोई हर्जा नहीं है, मन में पत्थर की तरह लिखी हुई हैं, आदमी उनको भूल ही नहीं पाता। सोते-जागते वह याद है। वह पकड़े हुए है। वे आगे की खोज को बंद कर देते हैं। क्या ऐसी शिक्षा हो सकती है कि आदमी शिक्षित भी हो, और शिक्षा के बोझ से भी न भरे। मैं इसी प्रश्न के साथ अपनी बात छोड़ दे रहा हूं। शिक्षक सोचें अगर हम ऐसी शिक्षा पैदा कर सकते हैं जो शिक्षा हो, लेकिन शिक्षा का भार न बने। एक ऐसी नाव जो नदी पार करवा देती हो, और हम उसे भूल जाते हों और आगे बढ़ जाते हों। तो शायद हम एक अच्छी दुनिया बनाने में समर्थ हो सकते हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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