पहला प्रवचन
समाजवाद अर्थात पूर्ण विकसित पूंजीवाद
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।
एक महानगरी में भीड़ थी। रास्ते पर लाखों लोग खड़े थे जो आतुरतापूर्वक सम्राट के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ समय पश्चात सम्राट की सवारी आई। भीड़ के सभी लोग सम्राट के वस्त्रों की चर्चा करने लगे और मजा यह कि सम्राट बिलकुल नग्न था, उसके शरीर पर वस्त्र थे ही नहीं। केवल एक छोटे से बच्चे को, जो अपने बाप के कंधे पर बैठ कर आ गया था, बड़ी हैरानी हुई। उसने अपने बाप से कहा कि लोग सम्राट के सुंदर वस्त्रों की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन मुझे तो सम्राट नग्न दिखाई पड़ रहा है। उसके बाप ने उससे कहाः चुप नासमझ, कोई सुन लेगा तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी और वह उस बच्चे को लेकर भीड़ से बाहर हो गया।
सम्राट नग्न था और लोग उसके वस्त्रों की चर्चा कर रहे थे। बात क्या थी?
कुछ माह पूर्व एक आदमी ने उस सम्राट से कहा था कि आपने सारी पृथ्वी जीत लीं, लेकिन आपके पास देवताओं के वस्त्र नहीं हैं। मैं लाकर दे सकता हूं। सम्राट का मन लोभ से भर गया। सब उसके पास था, पर देवताओं के वस्त्र न थे। उस आदमी ने कहा फिकर न करें, थोड़ा खर्च तो होगा, लेकिन वस्त्र लेकर मैं आ जाऊंगा। छह महीने की उसने मोहलत चाही।
छह महीने तक सम्राट ने एक महल में उसे बंद कर दिया। चारों तरफ से नंगी तलवारों का पहरा बैठा दिया। वह आदमी कभी लाख, कभी दोे लाख रुपये मांगने लगा। उसने छह महीने में कई करोड़ रुपये सम्राट से लिए वस्त्र लाने के लिए; लेकिन सम्राट निशिं्चत था, क्योंकि महल में वह कैद था और भाग नहीं सकता था। छह महीने पूरे होने पर वह आदमी एक बहुमूल्य पेटी में वस्त्र लाकर उपस्थित हुआ। राजमहल आया--बड़े सम्राट आमंत्रित थे, उसने ताला खोला, सम्राट से कहा, अपनी पगड़ी मुझे दे दें। सम्राट की पगड़ी पेटी के भीतर डाली, फिर पेटी के भीतर से कोई पगड़ी निकाली, लेकिन हाथ उसका खाली था। सम्राट ने गौर से देखा। उसने कहा, पगड़ी आपको दिखाई पड़ रही है? और धीरे से कहा कि जब मैं चलने लगा तो देवताओं ने कहा था कि ये वस्त्र उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे जो अपनेे ही बाप से पैदा हुए हैं। हाथ खाली था, लेकिन सम्राट को तत्काल पगड़ी दिखाई पड़ने लगी। उसने कहा, इतनी सुंदर पगड़ी मैंने कभी नहीं देखी। फिर सम्राट के एक-एक वस्त्र उस पेटी में डाले गए और झूठे वस्त्र सम्राट पहनता चला गया और झूठे वस्त्रों से कोई अर्थ न था, वह नंगा होता चला गया। फिर जब आखिरी वस्त्र के उतारने की बात आई, तब सम्राट घबड़ाया। लेकिन उस आदमी ने कहा कि अब घबराने से कोई फायदा नहीं।
झूठ की यात्रा शुरू हो जाए तो पूरी ही करनी पड़ती है, वापस नहीं लौट सकते, लोग क्या कहेंगे? आखिरी वस्त्र भी सम्राट का उतर गया। दरबारी भी बड़े जोर से प्रशंसा करने लगे कि इतने सुंदर वस्त्र हमने कभी नहीं देखे, क्योंकि उस आदमी ने कहा कि ये वस्त्र सिर्फ उसी को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुआ है। सब दरबारियों को वस्त्र दिखाई पड़ने लगे जो नहीं थे। प्रत्येक दरबारी को ऐसा लगा कि जब सबको दिखाई पड़ रहे हैं तो वस्त्र होंगे ही। जरूर सिर्फ मुझे नहीं दिखाई पड़ रहे हैं तो अपना बाप संदिग्ध हुआ, लेकिन अब इस बात को खोलने से कोई मतलब नहीं। लेकिन यह बात राजमहाल के भीतर की थी। उस आदमी ने कहा, महाराज, देवताओं ने कहा है कि यह वस्त्र पहली दफा पृथ्वी पर जा रहे हैं, इनका जुलूस, इनकी शोभायात्रा भी निकालना जरूरी है, रथ तैयार है, आप बाहर चलें। सम्राट घबराया। लेकिन उस आदमी ने कहा, आप बिलकुल न घबड़ाए, आपके रथ के सामनेे ही डुग्गी पीटते हुए लोग चलेंगे कि यह वस्त्र उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे जो अपने बाप से पैदा हुए है। ये वस्त्र सबको दिखाई पड़ेंगे, आप घबड़ाएं नहीं। सम्राट रथ पर सवार हुआ। सभी को नग्न दिखाई पड़ा, लेकिन कौन कहे कि सम्राट नग्न है। एक छोटे-से बच्चे ने यह कहा था तो उसके बाप ने कहा, नासमझ, अभी तुझे अनुभव नहीं है, जब तू बड़ा होगा तब वस्त्र तुझे दिखाई पड़ने लगेंगे। यहां कोई सुन लेगा तो मुसीबत हो सकती है।
इस कहानी से क्यों मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं? समाजवाद के नाम से आज सारी दुनिया में शोर है, उस भीड़ के बीच में मेरी हालत उस बच्चे जैसी है जो कहे कि सम्राट नंगा है। लेकिन मुझे लगता है कि किसी को यह बात कहनी चाहिए। मनुष्य का मन ऐसा है कि प्रचारित असत्य भी सत्य मालूम होने लगते हैं। बहुत बार बोले गए झूठ भी सच मालूम होने लगते हैं। और पहली बार बोला गया सच भी सच नहीं मालूम पड़ता है। इधर सौ वर्षों से समाजवाद शब्द के आस-पास एक, ‘मिथ’, एक कहानी गढ़ी जा रही है। उसके निरंतर प्रचार ने, जो समाजवादी नहीं हैं, उन्हें भी समाजवादी बना दिया है। जो भीतर से समाजवादी नहीं हैं, बाहर से वे भी उसका गुणगान करते दिखाई पड़ते हैं। समाजवाद के विरोध में बोलने का साहस किसी को नहीं मालूम पड़ता। सब अनुभवी हैं, मैं एक गैर-अनुभवी आदमी हूं। इसलिए उसके विपरीत बोलने की कोशिश करूंगा।
लेकिन मनुष्य-जाति के इतिहास में भीड़ कुछ मान ले, इससे सच नहीं हो जाता है। भीड़ ने हमेशा बड़े-बड़े झूठ स्वीकार किए हैं और हमेशा उन्हीं के साथ जीती रही है। एक नया असत्य मनुष्य के मन को पकड़े है समाजवाद के नाम से। उसकी पूरी व्याख्या समझ लेनी जरूरी है।
पहली बात तो यह है कि समाजवाद पूंजीवाद के विरोध में शत्रु की भांति खड़ा हुआ है। समाजवाद जो कुछ भी हो, वह पूंजीवाद की संतान है। सामंतवाद की व्यवस्था से, फ्युडिलिज्म से पूंजीवाद पैदा हुआ। अगर पूंजीवाद ठीक से विकसित हो तो उससे समाजवाद पैदा हो सकता है, अगर साम्यवाद ठीक से विकसित हो तो उससे अराजकतावाद पैदा हो सकता है। लेकिन ठीक से विकसित हो तब। बच्चे मां के पेट से समय से पहले भी पैदा हो सकते हैं और मां आतुर हो सकती है कि नौ महीने क्यों प्रतीक्षा करूं। पांच महीने में बच्चा अगर निकल आए पेट से तो ज्यादा अच्छा है। चार महीने का कष्ट भी बचेगा, चार महीने की प्रतीक्षा भी बचेगी और बेटे से अभी मिलना हो जाएगा। लेकिन पांच महीने के बेटे मुर्दा पैदा होते हैं, जिंदा नहीं; और अगर जिंदा पैदा हो जाएं तो जिंदगी भर मुर्दे से भी बदतर उनकी हालत होती है।
रूस में जो समाजवाद पैदा हुआ, वह भी प्रीमेच्योर है। वह भी जरूरत से पहले पैदा हुआ है। रूस पूंजीवादी मुल्क था, इसलिए रूस में समाजवाद को जबरदस्ती पैदा करने की कोशिश की गई। समाजवाद तो पैदा हुआ, लेकिन मुर्दा पैदा हुआ। और समाजवाद के पैदा होने में, जिन गरीबों के लिए समाजवाद पैदा हुआ, उनकी ही लाखों की संख्या में हत्या भी करनी पड़ी। शायद मनुष्य-जाति, के इतिहास में समाजवादी मुल्कों ने जितनी हत्याएं की है, उतनी किसी ने भी नहीं कीं और आश्चर्य तो यह है कि जिन गरीबों के लिए, जिन मजदूरों और शोषितों के लिए समाजवाद खड़ा हुआ था, उन्हीं की हत्या की गई है। रूस में एक करोड़ पूंजीपति नहीं थे, एक करोड़ तो पूंजीपति आज अमरीका में भी नहीं हैं--फिर रूस में अंदाजन एक करोड़ लोगों की जो हत्या हुई वह किसकी हत्या है? वह उनकी ही हत्या थी जिनके लिए कि समाजवाद लाना था। हत्या करना आसान हो जाता है अगर आप के ही हित में हत्या करनी हो। जब कोई हत्यारा आपके ही हित में हत्या करता है तो आप भी निहत्थे हो जाते हैं, बचाव भी नहीं कर सकते। एक करोड़ लोगों की हत्या के बाद भी रूस आज एक गरीब मुल्क है, अमीर मुल्क नहीं है। अभी भी समाजवाद मरा-मरा है और पिछले दस वर्षों से रूस रोज पूंजीवाद की तरफ कदम उठा रहा है। वह जो भूल हो गई उसकी तरफ वापस कदम उठाए जा रहे हैं।
माओत्से तुंग का रूस से जो विरोध है, वह यही है कि रूस रोज पूंजीवादी होता चला जा रहा है। लेकिन रूस का पचास साल का अनुभव यह है कि समाजवाद लाने में थोड़ी जल्दी कर दी। देश पूंजी पैदा ही नहीं कर पाया था। यह ध्यान रहे, पूंजीवाद ठीक से विकसित हो तो समाजवाद उसका सहज परिणाम है। नौ महीने का गर्भ हो तो बच्चा सहज और चुपचाप पैदा हो जाता है। पूंजीवाद ठीक से विकसित न हो तो समाजवाद की बात सुसाइडल है, आत्मघाती है। मैं खुद समाजवादी हूं और जब समाजवाद से सावधान करने की बात करूंगा तो हैरानी होगी। हैरानी यह है कि मैं भी चाहता हूं कि बच्चा पैदा हो, लेकिन नौ महीने पूरे हो जाएं। यह देश अभी समाजवादी भी नहीं है और इस देश में समाजवाद की बातें उतनी ही खतरनाक हैं जितनी रूस में थीं, उतनी ही खतरनाक हैं जितनी चीन में हैं। चीन में फिर लाखों लोगों की हत्या करने का उपाय करना पड़ रहा है और फिर भी समाजवाद नहीं आएगा, क्योंकि समय के पहले कुछ भी नहीं लाया जा सकता। जीवन की व्यवस्था में जल्दी नहीं हो सकती। भारत अभी पूंजीवादी नहीं है। इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि पूंजीवाद का क्या मतलब है?
पूंजीवाद हमारे मन में सिर्फ एक गाली की तरह आता है, एक निंदा की तरह, बिना यह जाने हुए कि पूंजीवाद ने मनुष्य-जाति के लिए क्या किया है। बिना यह समझे हुए कि पूंजीवाद ही मनुष्य जाति को समाजवाद तक पहुंचाने की प्रक्रिया है, बिना यह समझे हुए कि अगर मनुष्य कभी समान होगा और अगर कभी सारे मनुष्य खुशहाल होंगे और अगर कभी सारे मनुष्य दीनता और दरिद्रता से मुक्त होंगे तो उसमें सौ प्रतिशत हाथ पूंजीवाद का होगा।
पूंजीवाद के संबंध में दोे-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली तो यह कि पूंजीवाद पूंजी उत्पन्न करने की व्यवस्था का नाम है। ‘ए सिस्टम दैट क्रिएट्स वेल्थ’--एक ऐसी व्यवस्था जो संपत्ति का सृजन करती है। दुनिया में पूंजीवाद के पहले किसी व्यवस्था ने पूंजी पैदा नहीं की थी। पूंजीवाद ने पूंजी पैदा की है। पैदा करने का मतलब यह है कि ऐसी पूंजी जमीन पर पैदा की है, जो आदमी अगर पैदा न करता तो खदानों से न निकलती, जमीन से न निकलती, आकाश से न निकलती। आज जमीन पर जो पूंजी है वह पैदा की गई पूंजी है। वह कोई प्राकृतिक संपत्ति नहीं है जो कि किसी खदान से मिलती हो, जमीन से मिलती हो, किसी झरने से मिलती हो, किसी प्रकृति से, किसी जगह से मिलती हो। पूंजीवाद ने पिछले डेढ़ सौ वर्षों में पूंजी पैदा करने की व्यवस्था ईजाद की। इसके पहले जो भी व्यवस्थाएं थीं, वे लुटेरी व्यवस्थाएं थीं। चंगीज हों कि तैमूरलंग हों, कि दुनिया के कोई भी सम्राट हों, सामंतों ने पूंजी को लूटा था, शोषण किया था। लेकिन पूंजीवाद ने पंूजी पैदा की है! लेकिन हम सामंतवादियों के साथ ही पूंजीवाद को भी रखने के आदी हो गया हैं। हम सोचते हैं, पूंजीवाद ने भी पूंजी का शोषण किया है। पूंजीवाद ने पूंजी निर्मित की है और पूंजी निर्मित हो जाए तो बंटवारा हो सकता है। पूंजी अगर निर्मित न हो तो बंटवारा किस चीज का होगा?
आज इंदिरा जी और उनके नासमझ साथी समझते हैं कि समाजवाद आ सकता है, संपत्ति बांटी जा सकती है। उनकी बातें ऐसी हैं कि संपत्ति के बिना ही संपत्ति को बांटने का वे विचार कर रहे हैं। देश के पास संपत्ति नहीं है। अगर आज हम बांटेंगे तो सिर्फ गरीबी बंटेगी, धन नहीं बंट सकता। धन है ही नहीं। होना चाहिए बांटने के लिए। बंटना चाहिए जरूर एक दिन, लेकिन बंटने के पहले होना चाहिए। पूंजीवाद संपत्ति पैदा करता है, समाजवाद संपत्ति बांटता है। लेकिन पैदा करना पहला काम है, बांटना दूसरा काम है और अगर पूंजीवाद संपत्ति पैदा न कर पाए तो समाजवाद सिर्फ गरीबी बांट सकता है। अगर हमारे देश ने यह निर्णय लिया समाजवादी होने का तो हम सदा के लिए गरीब होने का निर्णय लेंगे, क्योंकि हम गरीबी बांट कर रह जाएंगे और कुछ भी न कर पाएंगे, क्योंकि पूंजी को पैदा करने की व्यवस्था के सूत्र हमारे ध्यान में नहीं हैं।
पहली बात यह समझ लेना जरूरी है कि दुनिया के सारे लोगोें ने मिल कर पूंजी पैदा नहीं की है, बिलकुल थोड़े से लोगों ने पूंजी पैदा की है। कोई एक राॅकफेलर, कोई एक मार्गन, कोई एक फोर्ड, कोई रथचाइल्ड, कोई बिड़ला, कोई टाटा, कोई साहू पूंजी पैदा करता है। अगर हम अमरीका के दस बड़े नाम निकाल दें तो अमरीका भी हमारे जैसा ही गरीब देश होगा। हेनरी फोर्ड लंदन गया था। उसने स्टेशन पर आकर इंक्वायरी आफिस में पूछा कि कोई सस्ता सा होटल हो तो बता दोे। क्लर्क ने कहाः आपके चेहरे को मैंने अखबारों में देखा है। लगता है कि आप हेनरी फोर्ड हैं। आप सस्ता होटल खोज रहे हैं? आपके बेटे और बेटियां आती हैं तो वे सबसे महंगे होटल खोजते हैं।
हेनरी फोर्ड ने कहा, मैं गरीब आदमी का बेटा हूं और मेरे बेटे हेनरी फोर्ड के बेटे हैं, अमीर आदमी के बेटे हैं। मैंने संपत्ति पैदा की है, मैं गरीब आदमी का बेटा हूं। मुझे सस्ता होटल बता दें, मैं किसी फोर्ड का बेटा नहीं हूं। अमरीका से दस बड़े नाम हम छांट दें तो अमरीका भी गरीब होगा। अमरीका के पास जो आज संपत्ति है वह कुछ लोगों के मस्तिष्क का आविष्कार और कुछ लोगों की संपत्ति को पैदा करने की कला का परिणाम है। सारी दुनिया ने संपत्ति क्यों पैदा नहीं कर ली?
अभी हिंदुस्तान संपत्ति पैदा क्यों नहीं कर पाया? हम सबसे पुरानी कौम हैं और जमीन पर सबसे पुरानी हमारी संस्कृति है, लेकिन हम संपत्ति क्यों पैदा नहीं कर पाए? संपत्ति को पैदा करने की कला हम विकसित न कर पाए, क्योंकि हम संपत्ति-विरोधी देश हैं, इसलिए संपत्ति पैदा करने की दिशा में हमारी प्रतिभा नहीं जा सकी। हमारी प्रतिभा गई संन्यास की दिशा में। जो आदमी फोर्ड बन सकता था, वह जंगल चला गया। हमने अपनी सारी प्रतिभा को चैनेलाइज किया संन्यास की तरफ। तो हमने बड़े संन्यासी पैदा किए--बुद्ध पैदा किया, शंकर पैदा किया, नागार्जुन पैदा किया, महावीर पैदा किया; लेकिन हम संपत्ति पैदा करने वाले बड़े कुशल लोग पैदा न कर सके। उस तरफ हमारी प्रतिभा न गई संपत्ति के विरोध के कारण।
हिंदुस्तान से एक यात्री वापस लौटा। वह था काउंट कैसरलिन। उसने एक छोटा सा वाक्य लिखा है। पढ़ा तो बहुत हैरान हुआ। उसने लिखा हैः ‘इंडिया इ.ज ए रिच लैंड व्हेयर पुअर पीपुल लिव।’ अर्थात ‘हिंदुस्तान एक अमीर देश है जहां गरीब लोग रहते हैं।’ यह आदमी पागल तो नहीं है? अगर हिंदुस्तान अमीर देश है तो गरीब लोग वहां कैसे रहेंगे और अगर वहां गरीब लोगे रहते हैं तो देश अमीर कैसे है? लेकिन उसका मजाक मैं समझ गया। उसका मजाक यह था कि हिंदुस्तान कभी अमीर हो सकता था, लेकिन अमीरी पैदा करनी पड़ती है। प्रतिभा नियोजित करनी पड़ती है, जीनियस को यात्रा पकड़ानी पड़ती है, तब संपत्ति पैदा होती है; अन्यथा संपत्ति पैदा नहीं होती। संपत्ति के उत्पादक मजदूर और श्रमिक नहीं हैं। अन्यथा आदिवासी श्रम कर रहे हैं जन्मों-जन्मों से और संपत्ति पैदा नहीं कर पाए। अफ्रीका का गरीब भी श्रम कर रहा है, लेकिन संपत्ति पैदा नहीं हो पाई। अगर श्रम संपत्ति पैदा करता तो सारी दुनिया में संपत्ति पैदा हो जाती। उत्पादक कोई और है। कोई और प्रतिभा है पीछे। पूंजीवाद ने उस तरह की प्रतिभाओं को अवसर दिया है जो संपत्ति को पैदा करें और पूंजीवाद ने संपत्ति को पैदा करने का इंतजाम किया। बड़ा इंतजाम तो उसने यह किया है कि मनुष्य की जगह मशीन को लाने की कोशिश की, क्योंकि मनुष्य के हाथ से संपत्ति पैदा नहीं हो सकती। मनुष्य कितना ही श्रम कर ले, पेट भर ले तो बहुत है।
बुद्ध के जमाने में हिंदुस्तान की आबादी दोे करोड़ थी। यह आबादी दोे करोड़ ही रहती, ज्यादा नहीं हो सकती थी, क्योंकि दस बच्चे पैदा होते और नौ बच्चों को मरना ही पड़ता। क्योंकि न तो भोजन था, न दवा थी, न जगह थी, न मकान था, न इंतजाम था। उनके शरीर को बचाने का कोई उपाय न था, पिछले डेढ़ सौ वर्षों में दुनिया में एक्सप्लोजन हुआ मनुष्य-जाति का। आज साढ़े तीन अरब लोग हैं। ये साढ़े तीन अरब लोग पूंजीवाद की व्यवस्था के कारण जीवित हैं, अन्यथा ये जीवित नहीं रह सकते थे--पूंजीवादी व्यवस्था के बिना कल्पना के बाहर है कि साढ़े तीन अरब आदमी इस पृथ्वी पर जी जाएं।
पूंजीवाद ने क्या किया? मनुष्य की जगह मशीन को ईजाद किया, मनुष्य को हटाया श्रम से और मशीन को लगाया श्रम में। इसके दोे परिणाम हुए। मशीन मनुष्य से हजारगुना काम कर सकती है, लाख गुना काम कर सकती है, करोेड़गुना भी कर सकती हैं। मशीन की संभावनाएं अनंत हैं, मनुष्य की संभावनाएं बहुत सीमित हैं। मशीन की वजह से संपत्ति का इतना ढेर लगना शुरू हुआ और दूसरा काम, जैसे ही मशीन आई, मनुष्य गुलामी से मुक्त हो सका। पूंजीवाद की दूसरी बड़ी देन है दासता का अंत, गुलामी की समाप्ति। अगर मशीन न आती तो आदमी की गुलामी कभी भी मिट नहीं सकती थी। आदमी की गुलामी मिटाना असंभव था। आदमी को गुलाम रहना ही पड़ता, क्योंकि आदमी से काम लेना और आदमी से पीछे उसकी छाती पर या तो सवार हो कोई, पीछे कोड़े लेकर, तभी उससे हड्डी तोड़कर काम लिया जा सकता है। मशीन स्थापित हुई, सब्स्टीट््यूट हुई, तो ही आदमी गुलामी से मुक्त हो सकता है।
आज पृथ्वी पर आदमी गुलाम नहीं है, आज आदमी मुक्त है। लेकिन समाजवाद ने एक झूठी और भ्रामक बाद पैदा करना शुरू की है कि संपत्ति और पूंजी श्रमिक पैदा कर रहा है। श्रमिक संपत्ति पैदा नहीं कर रहा है, श्रमिक सिर्फ संपत्ति के पैदा करने का बहुत गौण हिस्सा है और आज नहीं कल, श्रमिक सुपरफ्तुअस--व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि मशीन उसे पूरी तरह से सब्स्टीट्यूट कर देगी। पचास साल के भीतर दुनिया में लेबर, श्रमिक जैसा आदमी नहीं होगा, होने की जरूरत भी नहीं है।
अशोभन है कि किसी आदमी को मशीन का काम करना पड़े जो मशीन कर सकती है। श्रमिक व्यर्थ हो जाएगा। संपत्ति के पैदा करने में श्रमिक धीरे-धीरे व्यर्थ होता गया और पचास साल में बिलकुल बेकार हो जाएगा। श्रमिक की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि श्रम नाॅन-एसेंशियल, गैर-जरूरी हिस्सा है। जरूरी हिस्सा उत्पादक बुद्धि है, प्रोडक्टिव माइंड है। लेकिन समाजवाद ने एक भ्रम पैदा किया है कि संपत्ति मसल्स से पैदा हुई है। झूठी है यह बात। संपत्ति मस्तिष्क से पैदा हुई है, मसल्स से नहीं। और अगर समाजवाद ने यह जिद्द की और मसल्स को मस्तिष्क के ऊपर बिठा दिया तो मस्तिष्क विदा हो जाएगा और मसल्स वहीं पहुंच जाएंगी जहां हजार साल पहले गरीबी और भुखमरी थी, उससे आगे नहीं।
सारी संपत्ति मस्तिष्क की ईजाद है और ध्यान रहे, सारे लोगों ने संपत्ति के पैदा करने का श्रम भी नहीं उठाया है। एक आइंस्टीन ईजाद करता है, सारे लोग फायदे लेते हैं। एक फोर्ड संपत्ति पैदा करता है, सारे लोगों तक संपत्ति बिखर जाती है। लेकिन ऐसा समझाया जा रहा है कि पूंजीपति जो है वह लोगों से संपत्ति शोषित करता है। इससे बड़ी झूठी कोई बात नहीं हो सकती है। जो संपत्ति है ही नहीं, उसका शोषण होगा कैसे? उस संपत्ति का शोषण हो सकता है जो कहीं हो, लेकिन जो संपत्ति कहीं है ही नहीं उस संपत्ति का शोषण कैसे हो सकता है? पूंजीवाद संपत्ति का शोषण नहीं करता है, संपत्ति पैदा करता है। लेकिन जब संपत्ति पैदा होती है तो दिखाई पड़नी शुरू होती है और हजारों आंखों में ईष्र्या का कारण बनती है।
समाजवाद के प्रभाव का कारण यह नहीं है कि हर आदमी हर दूसरे आदमी को समान समझता है। समाजवाद के बुनियादी प्रभाव का कारण मनुष्य की जन्मजात ईष्र्या है--उनके प्रति जो सफल हैं, उनके प्रति जो समृद्ध हैं, उनके प्रति जिन्होंने कुछ पाया, जिन्होंने कुछ खोजा, जिन्होंने कुछ बनाया। मनुष्य जाति का बड़ा हिस्सा एकदम तमस में रहा है, उसने कुछ भी पैदा नहीं किया है। मनुष्य जाति के बड़े हिस्से ने न तो ज्ञान पैदा किया है, न संपत्ति पैदा की है, न शक्ति पैदा की है। लेकिन मनुष्य-जाति का यह बड़ा हिस्सा ईष्र्या से पीड़ित जरूर हो गया है। उसे दिखाई पड़ रहा है--संपत्ति है, ज्ञान है, बुद्धि है, लोगों के पास कुछ है और निश्चित ही करोड़ोें लोगों की ईष्र्या को जगाया जा सकता है।
रूस में जो क्रांति हुई है वह ईष्र्या से, चीन में जो क्रांति हुई वह ईष्र्या से और इस देश में भी जो समाजवाद की बातें हो रही हैं वे ईष्र्याजन्य हैं। लेकिन ध्यान रहे, ईष्र्या से कोई समाज निर्मित नहीं होता और यह भी ध्यान रहे, ईष्र्या से समाज का किया गया रूपांतरण फलदाई, सुखदाई, मंगलदायी नहीं होगा। यह भी ध्यान रहे कि ईष्र्या से हम किसी व्यवस्था को तोड़ तो देंगे, लेकिन नई व्यवस्था का सृजन नहीं कर पाएंगे। ईष्र्या क्रिएटिव नहीं है, डिस्ट्रक्टिव है। ईष्र्या कभी भी सृजनात्मक शक्ति नहीं है। वह तोड़ सकती है, मिटा सकती है, बना नहीं सकती। बनाने की कल्पना ही ईष्र्या में नहीं होती है।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरा। मरते समय उसने अपने बेटों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि मुझ मरते हुए बाप की एक इच्छा है, उसे तुम पूरा कर देना। मेरे पास आओ और मुझे वचन दोे। लेकिन उसके बड़े बेटे चुपचाप दूर ही बैठे रहे। वे अपने बाप को भलीभांति पहचानते थे। लेकिन छोटा बेटा नहीं जानता था, वह बाप के पास चला गया। बाप ने उसके कान में कहा कि तू ही मेरा असली बेटा है और तुझे मैं एक बड़ा दायित्व सौंप जाता हूं। जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में फेंक देना। उसने कहाः क्या मतलब है आपका? तो उस आदमी ने कहा कि जब मेरी आत्मा जा रही होगी स्वर्ग की तरफ तो पड़ोसियों को जेलखाने की तरफ जाते देख कर मुझे बड़ी शांति मिलेगी। मेरा दिल बड़ा तृप्त हो जाएगा। जिंदगी भर से चाहता हूं, इन्हें जेल भेज दूं। मकान एक पड़ोसी के पास बड़ा है, मेरे पास छोटा है। दूसरे पड़ोसी के पास सुंदर घोड़े हैं, मेरे पास नहीं। तीसरे पड़ोसी के पास यह है, चैथे के पास वह है और मेरे पास नहीं। लेकिन इतना तो कर ही सकता हूं मैं कि मरने के बाद मेरी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में फिंकवा दूं?
अब यह जो आदमी है, ईष्र्या में जी रहा है। मकान बड़े हो सकते हैं सृजन से, ईष्र्या से नहीं। हां, ईष्र्या से बड़े मकान छोटे बनाए जा सकते हैं; लेकिन ईष्र्या से छोटे मकान बड़े नहीं बनाए जा सकते। ईष्र्या के पास सृजनात्मक शक्ति नहीं है। ईष्र्या जो है--मृत्यु की साथी है, जीवन की नहीं। लेकिन सारी दुनिया में समाजवाद का जो प्रभाव है उसकी बुनियाद में ईष्र्या आधार है। लेकिन मजा यह है कि जिस गरीब को यह ईष्र्या सता रही है और शायद गरीब को उतनी नहीं सता रही है जितनी अमीर और गरीब के बीच के जो नेता खड़े हैं; उनको सता रही है। यह जो ईष्र्या इनको सता रही है, वह ईष्र्या अमीरों के खिलाफ जितना नुकसान पहुंचाएगी; वह बड़ा नहीं है। इसका अंतिम नुकसान गरीबों को ही पहुंचनेवाला है। क्योंकि अमीर जो संपत्ति पैदा कर रहा है वह संपत्ति अंततः गरीब तक पहुंच रही है, पहुंचती है, पहुंच ही जाती है। उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है।
मैं निकल रहा था, एक ट्रेन से। दिल्ली जा रहा था। मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन थे, रास्ते में एक बड़ा मकान था और उस मकान के आस-पास दस-पांच छोटे झोपड़े थे। उन्होंने मुझे देख कर कहा, देखते हैं आप, यह मकान बड़ा हो गया है, इन मकानों को छोटा करके। मैंने उनसे कहा, आप गलत देख रहे हैं। इस बड़े मकान को बीच से हटा दें तो यह जो आस-पास दस मकान हैं ये बड़े नहीं हो जाएंगे, ये मकान नदारद हो जाएंगे। उस बड़े मकान के बनने की वजह से ये दस मकान भी आस-पास बन जाते हैं, बनने ही पड़ते हैं। कोई मकान अकेला नहीं बनता है। एक बड़ा मकान जब बनता है, दस छोटेे मकान बन ही जाते हैं, क्योंकि उस बड़े मकान को बनाएगा कौन? उस बड़े मकान को बीच से हटा दें तो ये दस मकान विदा हो जाएंगे।
दुनिया में दस बच्चे पैदा होते, नौ मरते थे। पूंजीवाद ने उन नौ बच्चों को भी बचा लिया। आज दस बच्चे होते हैं, सिर्फ एक बच्चा मरता है, नौ बच्चे बच जाते हैं। उन नौ बच्चों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। उनके पास छोटे मकान हैं, दुखद है यह बात। उनके पास अच्छे मकान होने चाहिए। लेकिन अच्छे मकान होना का यह सूत्र नहीं है कि बड़े मकान मिटा दिए जाएं। अगर बड़े मकान मिट गए तो मैं आपसे कहता हूं कि ये छोटे मकान विदा हो जाएंगे। ये बड़े मकान के पीछे आए हैं। ये नौ मकान जो बच रहे हैं, दस में से, ये बड़े मकान के बनाने में बच रहे हैं।
मजदूर को काम है, नौकरी है, रहने की जगह है, वह पूंजी के पैदा होने के कारण हुई है। इस पूंजी को बिखेर देने से मजदूर बचेगा नहीं। कोशिश हमें यह करनी चाहिए कि मजदूर भी कैसे पूंजीपति हो जाए। कोशिश हमें यह करनी चाहिए कि छोटे मकान कैसे बड़े हों और अगर छोटे मकान बड़े बनाने हैं तो और बहुत बड़े मकान बनाने पड़ेंगे, तभी ये बड़े हो पाएंगे, अन्यथा ये बड़े नहीं हो पाएंगे। लेकिन कई बार बड़े भ्रांत तर्क पैदा हो जाते हैं।
चीन में जो चल रहा है वह यही खयाल है कि हम सब बड़े मकान मिटा कर छोटे मकानों को बड़ा कर देंगे। नहीं, बड़ा मकान मिट जाएगा और छोटा मकान जिसके पास है अगर वह बड़ा मकान बना सकता होता तो उसने बहुत पहले बड़ा मकान बना लिया होता। वह अपनी लिथार्जी में, अपने तामस में वापस लौट जाएगा।
ख्रुश्चेव ने रूस से विदा होने से पहले अपने पद से जो एक महत्वपूर्ण बात कही है, वह सोचने जैसी है। उसने कहा है, आज रूस के सामने जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि रूस में कोई भी काम करने को तैयार नहीं है। रूस के जवान काम करने में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। बड़ी अजीब बात है कि रूस के मजदूर काम करने में उत्सुक न हों; रूस का जवान काम करने में उत्सुक न हो। लिथार्जी में, आलस में, तामस में वापस लौट रहा है वह। स्टैलिन ने जो उससे काम लिया था वह भी जबरदस्ती था, इसलिए स्टैलिन के मरने के बाद जो व्यवहार स्टैलिन के साथ रूस में हुआ वह बिलकुल ही तर्कसंगत मालूम पड़ता है। जिस क्रेमलिन के चैराहे पर, जिस रेडस्क्वायर पर जिंदगी भर सलामी ली स्टैलिन ने, उसी स्क्वायर से उसकी गड़ी हुई लाश को उखाड़ कर हटा दिया गया है, क्योंकि जितने दिन स्टैलिन जिंदा था--रूस पर प्रेत की भांति छाया रहा और गहरी हत्या करता रहा। गहरी हत्या के भय से काम चला, लेकिन हत्या का भय ढीला हुआ, काम बंद हुआ।
पूंजीवाद ने इंसेंटिव पैदा किया है, एक प्रेरणा पैदा की है व्यक्ति के भीतर कि वह संपत्ति को पैदा करे। संपत्ति को पैदा करने का आकर्षण पैदा किया है। वह आकर्षण पूंजीवाद के विदा होेते ही विदा हो जाएगा। हां, एक ही शर्त पर अगर पूंजीवाद पूरी तरह विकसित हो जाए और पूंजीवाद से समाजवाद सहज आए तो यह घटना नहीं घटेगी। ऐसा हो सकता है। अमरीका में ऐसा संभव हो जाएगा।
यह कितना विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल मालूम पड़ता है, लेकिन यही सत्य है कि आने वाले पचास वर्षों में अमरीका रोज समाजवाद की तरफ कदम उठाएगा और रूस रोज पूंजीवाद की तरफ कदम उठाएगा। अमरीका रोज समाजवादी होता जा रहा है बिना जाने, बिना किसी क्रांति के। क्यों? क्योंकि संपत्ति जब अतिरिक्त हो जाती है तो व्यक्तिगत मालकियत व्यर्थ हो जाती है। व्यक्तिगत मालकियत तभी व्यर्थ होती है, जब संपत्ति अतिरिक्त हो जाए, जरूरत से ज्यादा हो जाए।
अभी एक गांव में हम जाएं, वहां पानी पर कोई कब्जा नहीं है। लेकिन गांव में पानी बहुत ज्यादा है, लोग कम हैं। कल गांव में पानी कम हो जाए और लोग ज्यादा हो जाएं तो पानी पर व्यक्तिगत मालकियत शुरू हो जाएगी। आज हवा मुक्त है सबके लिए, कल हवा छोटी पड़ जाए, लोग ज्यादा बढ़ जाएं, कल आक्सीजन कम हो जाए और लोग ज्यादा हो जाएं तो जिनके पास सुविधा है, समझ है वे आक्सीजन के टैंक अपने घरों में बंद कर लेंगे। व्यक्तिगत मालकियत शुरू हो जाएगी। संपत्ति पर तब तक व्यक्तिगत मालकियत रहेगी ही जब तक संपत्ति कम है और लोग ज्यादा हैं। एक ही तर्कसगंत, एक ही स्वाभाविक संभावना है व्यक्तिगत संपत्ति के विदा होने की और वह यह है कि संपत्ति पानी और हवा की तरह अतिरिक्त मात्रा में पैदा हो जाए।
यह संभव हो जाएगा। आज भी अमरीका में हम जिसे गरीब कहते हैं वह रूस के मापदंडों के हिसाब से अमीर है। आज जिसे रूस में हम बहुत सुविधा संपन्न कहें वह भी अमरीका के गरीब से पीछे खड़ा हुआ है। लेकिन यह बहुत आकस्मिक नहीं है। लेकिन चिंतनीय तो है ही। क्या यह बहुत विचारणीय नहीं मालूम होता कि पचास वर्ष की समाजवादी व्यवस्था के बाद भी रूस एक बड़ा गरीब मुल्क है? दस सालों से तो अपना भोजन भी खुद पैदा नहीं कर पा रहा है। आप ही अपना भोजन बाहर से मंगा रहे हैं ऐसा नहीं, रूस भी दस सालों से पंूजीवाद मुल्कों से भोजन खरीद रहा है। समाजवादी पेट को भी पूंजीवादी हाथों को ही भरना पड़ेगा, तो समाजवाद का क्या होगा? रूस में लिथार्जी वापस लौट आई है। असल में पूंजीवाद एक व्यक्तिगत प्रेरणा देता है प्रत्येक व्यक्ति कोे संपत्ति पैदा करने की। वह प्रेरणा खत्म हो जाए तो फिर एक ही रास्ता है पीछे से बंदूक लगाओ, लेकिन पीछे से बंदूक की व्यवस्था स्थाई व्यवस्था नहीं हो सकती है।
मैंने सुना है, ख्रुश्चेव के संबंध में एक मजाक। ख्रुश्चेव एक पार्टी-मीटिंग में बोल रहा था और बोलते वक्त वह स्टैलिन की निंदा कर रहा था। तो एक आदमी ने पीछे से खड़े होकर कहा कि महाशय, स्टैलिन के जिन कामों की आप निंदा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि लाखों लोगों की हत्या की, साइबेरिया भेजा, जेल में डाला, सारे मुल्क को खून में डुबो दिया। जो ये बातें आप कह रहे हैं, जब स्टैलिन यह सब कर रहा था तब भी आप स्टैलिन के साथ थे। तब आप कहां चले गए थे? ख्रुश्चेव एक मिनट के लिए चुप हो गया। फिर उसने कहा, जिन महाशय ने यह बात कही है--कृपा करके अपना नाम और पता बता दें। लेकिन वह आदमी फिर नहीं उठा। फिर ख्रुश्चेव ने कहाः आप कृपा करके उठ कर अपनी शक्ल ही दिखा दें, लेकिन उस आदमी का कोई पता नहीं चला। फिर ख्रुश्चेव ने कहा कि जिस वजह से आप अब दोेबारा नहीं उठ रहे हैं उसी वजह से मैं भी चुप रह गया था। जिंदा रहना था तो चुप रहना जरूरी था।
पूंजीवाद संपत्ति पैदा करवाता है बड़े सहज ढंग से। किसी के पीछे कोई कोड़ा नहीं है, किसी के पीछे बंदूक नहीं है, लेकिन व्यक्ति की अपनी एक छोटी सी दुनिया है, उसकी अपनी प्रेरणा है। अगर मेरी पत्नी बीमार है तो मैं रात भर काम कर सकता हूं लेकिन अगर कोई मुझसे कहे कि मनुष्यता बीमार है तो मैं सोचूंगा--होगी! मनुष्यता इतने दूर की बात हो जाती है कि उससे कोई संबंध नहीं बनता। उससे कोई प्रेरणा पैदा नहीं होती। अगर मुझसे कोई कहता है कि मेरे बेटे को पढ़ाना है तो मैं गड्ढा खोद सकता हूं भरी धूप में, लेकिन कोई मुझे कहता है कि मनुष्यता को शिक्षित करना है, तो बात धुएं में खो जाती है। कहीं मेरे ऊपर उसकी कोई चोट नहीं पहुंचती है। अगर कोई मुझसे कहता है कि एक घर बनाना है अपने लिए। अपने लिए छाया करनी है और बगिया बनाना है जिसमें फूल खिलेंगे, तो समझ में आती है बात। जब कोई राष्ट्र के बगीचे की बात करने लगता है तब बात खो जाती है।
आदमी की चेतना का दायरा बहुत छोटा है, वैसे ही जैसे दीये का प्रकाश चार-पांच फुट के आस-पास पड़ता है। ऐसे ही आदमी की चेतना है। उसकी चेतना बहुत छोटे से घेरे पर पड़ती है। जिस घेरे पर पड़ती है, उसी का नाम परिवार है। अभी आदमी परिवार से ज्यादा बड़े घेरे के योग्य नहीं है। परिवार के बाहर जैसा बड़ा घेरा होता जाता है, वैसा ही आदमी सुस्त होता चला जाता है, उसकी प्रेरणा खोती चली जाती है। राष्ट्र, मनुष्यता, मनुष्य-जाति, विश्व इतने बड़े घेरे हैं कि मनुष्य की चेतना पर इनका कोई कहीं परिणाम नहीं होता। पूंजीवाद ने उसकी व्यक्तिगत चेतना के आधार पर संपत्ति के सृजन की एक दौैड़ पैदा की है और पूंजीवाद ने संपत्ति पैदा की है, ज्ञान पैदा किया है।
ईसा के मरने के अठारह सौ पचास वर्ष में जितना ज्ञान दुनिया में पैदा हुआ, पूंजीवाद के डेढ़ सौ वर्षों में उतना ज्ञान पैदा हुआ। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान पैदा हुआ, इधर पंद्रह वर्षों में उतना ज्ञान पैदा हुआ। पिछले पंद्रह वर्षों में जितना ज्ञान पैदा हुआ उतना इधर पांच वर्षों में ज्ञान पैदा हुआ है। पुरानी दुनिया जहां अठ्ठारह सौ पचास वर्ष मे जितना काम करती थी वह पूंजीवाद की दुनिया पांच वर्ष में पूरा कर रही है। एक चमत्कार है, लेकिन हम पूंजीपति को गाली दिए जा रहे हैं बिना यह समझे कि वह मार्ग तैयार कर रहा है जहां से संपत्ति बरस जाएगी। वह मार्ग तैयार कर रहा है जहां वह प्रत्येक व्यक्ति को संपत्ति के सृजन में संलग्न कर देगा। वह मार्ग तैयार कर रहा है जहां से धीरे-धीरे संपत्ति अतिरेक में, एफ्लुएंस में हो जाएगी और जिस दिन संपत्ति अतिरिक्त हो जाएगी, उस दिन पूंजीवाद का बेटा सहज पैदा होगा।
मैैं जब समाजवाद से सावधान की बात करता हूं तो मेरा मतलब है गर्भ का काल पूरा होने दें। पूंजीवाद गर्भ का काल है, उसके नौ महीने पूरे हो जाने दें। पूंजीवाद की ऐतिहासिक प्रक्रिया को पूरा हो जाने दें। माक्र्स को भी कल्पना न थी कि रूस से पूंजीवाद समाप्त होगा, क्योंकि रूस में तो पूंजीवाद था ही नहीं। माक्र्स की कल्पना ही नहीं थी कि चीन साम्यवादी हो जाएगा, क्योंकि चीन तो अत्यंत दरिद्र था। माक्र्स की भी कल्पना थी कि अमरीका या जर्मनी में पूंजीवाद पहले टूटेगा। लेकिन टूटा रूस में; टूटा चीन में। तोड़ने की कोशिश चलती है हिंदुस्तान में। ये सब गरीब मुल्क हैं जिनके पास पूंजी की व्यवस्था ही नहीं है, लेकिन इनके पास गरीबों का बहुत बड़ा समूह है। उस समूह की ईष्र्या को जगाया जा सकता है।
माक्र्स का चिंतन तो बहुत वैज्ञानिक था। वह ठीक कह रहा था कि जहां पूंजीवाद अपनी ठीक व्यवस्था को विकसित कर लेगा, वहां से उसको विदा हो जाना पड़ेगा; क्योंकि जब संपत्ति ज्यादा हो जाएगी तो व्यक्तिगत संपत्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। लेकिन उसे पता नहीं था कि जब क्रांतियां होंगी तब पूंजीवाद का, संपत्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। लेकिन उसे पता नहीं था कि जो क्रांतियां होंगी वह पूंजीवाद के संपत्ति के पैदा करने से नहीं, वह गरीब की ईष्र्या को भड़का कर हो जाएंगी।
जिन मुल्कों में समाजवाद आया, वे गरीब हैं। आना चाहिए था अमरीका में, वहां वैसा समाजवाद नहीं आया, लेकिन वहां एक अर्थ में समाजवाद आ रहा है चुपचाप, साइलेंटली। असल में जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह बैंड-बाजा बजा कर नहीं आता, जो भी महत्वपूर्ण है, वह चुपचाप आता है। बीज टूटता है तो कोई खबर नहीं होती और सूरज निकलता है तो कोई घोषणा नहीं होती। जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है, चुपचाप आता है। आ जाता है तभी पता चलता है कि आ गया। लेकिन जो भी बैंड-बाजेे बजा कर आता, समझना कि कुछ जल्दी आने की कोशिश चल रही है। समाजवाद बैंड-बाजे बजा कर आना चाहता है और बिना इस बात को जाने हुए कि पूंजीवाद पूरा न हो तो समाजवाद नहीं आ सकता है।
आज हिंदुस्तान में वह संपत्ति को बांट ले और पूंजी की बढ़ती हुई बनती हुई बिलकुल प्राथमिक व्यवस्था को तोड़ दे, तो क्या होगा। गरीब की ईष्र्या तुष्ट होगी, लेकिन गरीब और गरीब होगा। गरीब की ईष्र्या तृप्त होगी, लेकिन गरीब भूखों मरेगा। गरीब की ईष्र्या तृप्त होगी, लेकिन गरीब अपने हाथे से आत्मघात कर लेगा।
हिंदुस्तान में पूंजी की बनती हुई व्यवस्था को सब तरह का सहयोग चाहिए। आज तो हिंदुस्तान को पूंजीवाद होने का ठीक अर्थों में निर्णय लेना चाहिए कि हम पचास वर्ष में ठीक पूंजीवाद पैदा कर लें। समाजवाद उसके पीछे आने ही वाला है, वह अपने आप आ जाएगा। उसे लाने को किसी इंदिर ाजी की जरूरत नहीं पड़ेगी, उसे लाने के लिए किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह आ जाएगा, क्योंकि मेरी समझ ऐसी है कि पूंजीवाद कौन लाया? पूंजीवाद आया। जब सामंतवाद की व्यवस्था उस जगह पहुंच गई तो पूंजीवाद आया। समाजवाद को लाने की जरूरत नहीं है। समाजवाद भी आएगा लेकिन धैर्य चाहिए। वह धैर्य बिलकुल नहीं है और अधैर्य इतना नुकसान कर सकता है, जिसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर कौन हिसाब लगाएगा?
मैंने सुना है, एक बार रथचाइल्ड के पास एक समाजवादी गया और उसने जाकर कहा कि तुमने सारे देश की संपत्ति हड़प कर ली है। बांट दोे तो सारा देश अमीर हो जाएगा। रथचाइल्ड ने उसकी बात सुनी, कागज पर कुछ हिसाब लगाया और उससे कहा कि यह छह पैसे आपके हिस्से पड़ते हैं, आप लीजिए और जो-जो आएंगे उनके हिस्से जो पड़ता है, उनको देता जाऊंगा। मेरे पास जितनी संपत्ति है, अगर मैं सारी दुनिया में बांटूं तो एक-एक आदमी को छह-छह पैसे बांट दूंगा। जो भी आएगा इनकार नहीं करूंगा, लेकिन क्या आप सोचते हैं कि ये छह पैसे आपको मिल जाएंगे तो समाजवाद आ जाएगा? लेकिन रथचाइल्ड तो छह पैसे भी दे सकता था। बिड़ला, टाटा, साहू, डालमिया के पास छह पैसे भी नहीं हैं। हमारे पास पूंजीपति ही नहीं है, पूंजीपति बिलकुल अंकुरित हो रहा है। आज बंबई में थोड़ी सुविधा दिखाई पड़ती है, लेकिन बंबई हिंदुस्तान नहीं है।
हिंदुस्तान पूरा का पूरा गरीब देश है और हिंदुस्तान पूरा का पूरा इस तरह जी रहा है जैसे औद्योगिक क्रांति के पहले यूरोप था। अभी औद्योगिक क्रांति भी यहां नहीं हो पाई और हम सपने देख रहे हैं आगे के। औद्योगिक क्रांति हो, सारा मुल्क उद्योग से भर जाए, सारा मुल्क संपत्ति पैदा करे, सारे मुल्क में करोड़ों छोटे-बड़े टाटा-बिड़ला हों तो ही वे सपने पूरे हो सकते हैं। संपत्ति मुल्क में पैदा हो जाए तो कोई टाटा, कोई बिड़ला संपत्ति के विभाजन को न रोक पाएंगे। बल्कि मेेरी समझ तो यह है कि वे ही संपत्ति इतनी पैदा कर जाएंगे कि वह बांटी जा सके, अन्यथा वह बांटी भी नहीं जा सकती। समाजवाद से सावधान होने का यह मतलब नहीं है कि मैं समाजवाद का शत्रु हूं। मैं तो समझता हूं, आज जो समाजवादी हैं वे समाजवाद के शत्रु हैं, क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। वे जिस शाखा को काट रहे हैं उसी पर बैठे हुए हैं। वे गिरेंगे, अपने साथ सबको लेकर डूब जाएंगे।
हिंदुस्तान बहुत लंबे समय से गरीब है। सोच-विचार कर कदम उठाना। कहीं ऐसा न हो कि जो संपत्ति पैदा हो रही है, उसकी व्यवस्था टूट जाए। और उसे रोज टूटता देखते हैं, लेकिन हम अंधे मालूम होते हैं। ऐसा मालूम होता है कि हमने तय कर लिया है कि हम आंख खोल कर नहीं देखेंगे। सरकार जिस काम को हाथ में लेती है, वही नुकसान पहुंचाने लगता है। निजी उद्योगों में जितनी संपत्ति लगी है, सरकारी उद्योगों में उससे दुगुनी लगी है; लेकिन सब सरकारी उद्योग नुकसान पहुंचा रहे हैं और सरकार कहती है कि बाकी जो निजी उद्योग हैं वे भी सरकार के हो जाएं तो हम लाभ ही लाभ पहुंचा देंगे।
यह भी ध्यान रहे कि समाजवाद की आड़ में कौन खड़ा है। समाजवाद की बात चलती है, लेकिन जो आता है वह होता है राज्यवाद। समाजवाद का नाम चलता है, सोशलिज्म का, लेकिन जो आता है वह होता है स्टेट कैपिटलिज्म, वह होता है राज्य-पूंजीवाद। समाजवाद का मतलब है समाज के हाथ में संपत्ति हो, लेकिन समाज के हाथ में संपत्ति कहां आती है? हां, समाज के हाथ से सारी संपत्ति राज्य के हाथों में पहुंच जाती है। जहां बंटे हुए पूंजीपति थे बहुत, वहां एक ही पूंजीपति रह जाता है--राज्य, औैर राज्य की कुशलता हम देख रहे हैं। हमारे मुल्क में राज्य जितना अकुशल है, उतना गांव का छोटा सा दुकानदार भी अकुशल नहीं है। आज राज्य कितना मूढ़ सिद्ध हो रहा है, उतना हिंदुस्तान का साधारण सा किराना बेचने वाला और ठेले पर काम करने वाला आदमी भी उतना मूढ़ नहीं है। इस राज्य के हाथ में सारी संपत्ति दे देने का खयाल है, सारे उत्पादन के स्रोत दे देने का खयाल है। अगर हिंदुस्तान ने मरने का ही तय कर रखा है, तब बात दूसरी है!
इस राज्य के हाथों में जाकर खतरा होगा और यह भी ध्यान रहे कि राज्य की सत्ता जिनके हाथ में है, वे वैसे ही पागल हो जाते हैं। लेकिन अब वे संपत्ति की सत्ता को भी दूसरों के हाथों में देखने के लिए राजी नहीं हैं इसलिए संपत्ति की सत्ता भी अपने हाथ में चाहते हैं। असल में राज्य के मद में जो पागल हैं, वे चाहते हैं कि संपत्ति की ताकत भी उनके हाथ में हो, तब संपूर्ण शक्ति उनके हाथ में हो जाती है--धन की भी। राज्य की भी अकेले राज्य की शक्ति ही उन्हें दीवाना कर देती है, धन की शक्ति भी उनके हाथ में पहुंच जाए तब वे निरंकुश हो जाते हैं। फिर उनके ऊपर कुछ भी नहीं किया जा सकता। आखिर स्टैलिन को हटाने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सका, हिटलर को हटाने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सका।
क्या आपको पता है, हिटलर भी सोशलिस्ट था? उसकी पार्टी का नाम भी नेशनल सोशलिस्ट पार्टी था! वह भी समाजवादी था। माओ को हटाने के लिए भी कुछ नहीं किया जा सकता। और यह भी ध्यान रहे कि आज दुनिया में राज्य के हाथ में इतनी ताकतें हैं कि अगर धन की ताकत भी उसके हाथ में चली जाए तो व्यक्ति बिलकुल नपुंसक--इंपोटेंट हो जाता है। पूरा राष्ट्र नपुंसक हो जाता है। फिर व्यक्ति के पास कोई शक्ति नहीं रह जाती।
यह शायद आपको पता न हो कि राजनीतिक स्वतंत्रता हो, आर्थिक स्वतंत्रता हो, तो ही व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता शेष रहती है। अगर आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां एक ही ग्रुप के हाथ में चली जाएं तो व्यक्ति के पास विचार की कोई स्वतंत्रता नहीं रह जाती। रूस में विचार की कोई स्वतंत्रता नहीं है। चीन में भी नहीं है, हिंदुस्तान में भी कल नहीं होगी। लेकिन यह एक-एक कदम आती हैं बातें, पहले से पता नहीं चलता है।
एक व्यक्ति की संपत्ति छीन लो, संपत्ति के छिनने के साथ ही उसके व्यक्तित्व का नब्बे प्रतिशत हिस्सा समाप्त हो जाता है। नब्बे प्रतिशत विदा हो गया! संपत्ति छिनते ही उसके सोच-विचार की क्षमता भी छिन जाती है, क्योंकि उसके पास व्यक्ति होने की सामथ्र्य ही क्षीण हो गई। राज्य के पास सारी ताकत पहुंच जाए तो व्यक्ति की हत्या हो जाएगी। इस समय सारी दुनिया में, इस देश में भी, सबसे बड़ा सवाल जो है वह यह है कि व्यक्ति को कैसे बचाया जाए। राज्य हड़प लेना चाहता है सब, लेकिन इस ढंग से हड़पता है और वह लोगों को समझा कर हड़पता है। वह कहता है, तुम्हारे ही हित में हड़प रहे हैं। यह जो हम संपत्ति और उत्पादन के साधन अपने हाथ में लेते हैं वह तुम्हारे लिए, इसलिए जयजयकार भी होगा और वे ही लोग जयजयकार करेंगे जिनकी गर्दन पर फंदा कसा जा रहा है। वे ही लोग जयजयकार करेंगे जो फांसी पर लटक जाएंगे। उन्हें पता भी नहीं चलेगा। संपत्ति एक बार राज्य के हाथ में चली गई तो राज्य निरंकुश है, फिर राज्य के सामने व्यक्ति की क्या सामथ्र्य है, फिर व्यक्ति की क्या हैसियत, व्यक्ति की क्या आत्मा है?
रूस में पचास साल से पचास आदमियों का एक छोटा सा ग्रुप, एक छोटा सा समूह मालिक बन बैठा है। उस ग्रुप के हाथ के बाहर ताकत नहीं जाती है। स्टैलिन मरे, चाहे ख्रुश्चेव आ जाएं, चाहे कोसीगिन रहें, चाहे ब्रुझनेव हों, कोई भी हो, वह एक पचास आदिमियों का छोटा सा गु्रप सारे मुल्क की छाती पर हावी है। कोई इनकार नहीं हो सकता, क्योंकि विरोध करने के पहले जबान कट जाए, इनकार करने के पहले आदमी का कोई पता न चले। राज्य के हाथ में जब पूरी शक्ति हो तो व्यक्ति क्या कर सकेगा? इसलिए ध्यान रहे, राज्य की शक्ति निरंतर कम करनी है, बढ़ानी नहीं है; क्योंकि अंततः एक ऐसा समाज चाहिए जिसमें राज्य एक कामचलाऊ व्यवस्था मात्र रह जाए।
मैं नहीं सोचता कि एक खाद्यमंत्री का कोई ज्यादा मूल्य होना चाहिए। क्या मूल्य होना चाहिए? घर में एक रसोइए का जो मूल्य होता है, प्रांत के लिए रसोइए का--वही मूल्य है खाद्यमंत्री का। वह एक बड़ा रसोइया है। अगर अच्छा खाना प्रांत को खिलाता है तो कभी-कभी उसकी प्रशंसा करनी चाहिए, लेकिन रसोइए से ज्यादा नहीं। कभी टिप भी देनी चाहिए उसको, लेकिन रसोइए से ज्यादा नहीं। लेकिन खाद्यमंत्री रसोइया नहीं है। उसके पास ताकत है। लेकिन वह यह जानता है कि उसकी ताकत में एक कमी है और वह कमी यह है कि लोगों के पास व्यक्तिगत संपत्ति है और व्यक्तिगत संपत्ति बगावत कर सकती है और व्यक्तिगत संपत्ति विरोध कर सकती है और जिसके पास व्यक्तिगत संपत्ति है उसके पास व्यक्तिगत सोच-विचार का मौका है। यह भी वह छीन लेना चाहता है।
राजनीतिज्ञ बहुत एंबीशियस है। वह बहुत महत्वाकांक्षी है। वह सारी शक्ति को अपने हाथ में ले लेना चाहता है। जिस दिन राज्य के हाथ में पोलिटिकल पाॅवर और इकाॅनामिक पाॅवर दोेनों हो जाते हैं, उस दिन क्रांति का, बगावत का, विद्रोह का कोई उपाय नहीं रह जाता।
यह कैसे मजे की बात है कि रूस में क्रांति हुई, लेकिन रूस अब अकेला मुल्क है जहां क्रांति नहीं हो सकती; क्योंकि राज्य के पास इतने अदभुत साधन हैं। सब दीवारों के पास कान हैं। राज्य का जाल सब तरफ फैला हुआ है। पति भी अपनी पत्नी से बोलते वक्त दोे दफा सोच लेता है कि वह जो कह रहा है; वह कहना है, नहीं कहना है; क्योंकि क्या भरोसा, पत्नी खबर कर दे। बाप अपने बेटे से भी खुल कर बात नहीं कर पाता, क्योंकि खुल कर बात करना खतरनाक है। हो सकता है बेटा यंग कम्युनिस्ट हो, जवान कम्युनिस्ट के ग्रुप का सदस्य हो और खबर पहुंचा दे। क्योंकि एक-एक बेटे को समझाया जा रहा है, कि बाप की कोई कीमत नहीं है, कीमत है राष्ट्र की। पत्नी की कोई कीमत नहीं है, कीमत है समाज की।
समाजवाद एक बड़ी भ्रांत बात समझा रहा है कि व्यक्ति की कोई कीमत नहीं है, जब कि एकमात्र कीमत व्यक्ति की है। समाज है क्या? समाज एक कोरा शब्द है, व्यक्ति है वास्तविक, व्यक्ति है यथार्थ। समाज तो सिर्फ जोड़ है। लेकिन समाजवाद ने इतना शोरगुल मचाया है कि जो नहीं है उसकी कीमत है--समाज की; और जो है उसकी कोई कीमत नहीं है--व्यक्ति की; कोई कीमत नहीं है। इसलिए व्यक्ति को समाज की बलिवेदी पर चढ़ाया जा सकता है। हमेशा से व्यक्ति को चढ़ाया जाता रहा है ऐसे देवताओं के लिए, जो नहीं हैं--कभी भगवान के लिए, कभी काली के लिए, कभी किसी यज्ञ में। अब नया देवता है समाज और उसके पीछे असली देवता खड़ा है राज्य। इन पर व्यक्ति को चढ़ाया जा रहा है। काट डालो सबको, क्योंकि व्यक्ति की कोई कीमत नहीं है, कीमत है समाज की।
समाज कहां है? उससे कहीं मिलना नहीं हुआ। बहुत खोजता हूं, सब जगह जाता हूं। पूछता हूं, समाज कहां है? जगह-जगह पता मिलता है कि वहां मिलेगा। वहां जाता हूं, वहां भी व्यक्ति ही मिलते हैं। जब भी मिलेगा, व्यक्ति मिलेगा। व्यक्ति का मूल्य चरम है--अल्टीमेट वैल्यू है। व्यक्ति के मूल्य को खोना खतरनाक है। हां, निश्चित ही किसी दिन समाजवाद आऐगा, लेकिन व्यक्ति को समाप्त करके नहीं, व्यक्ति को तृप्त करके, व्यक्ति को फुलफिल करके, व्यक्ति को पूरा करके। व्यक्ति को मिटा करके जो समाजवाद आता है, उससे सावधान होने की जरूरत है। वह समाजवाद नहीं है, वह व्यक्ति की हत्या है और समाजवाद के पीछे खड़ा है स्टेट, खड़ा है राज्य और खड़े हैं राजनीतिज्ञ। उनको कठिनाई मालूम होती है कि ताकत कहीं भी बंटी हो। सारी ताकत उनके हाथ में होनी चाहिए। और यह ध्यान रहे, यह अंतिम बात आज कहना चाहता हूं कि राज्य के पास इतनी ताकतें कभी भी न थीं, जितनी आज हो सकती हैं। क्योंकि टेक्नालाॅजी ने ऐसा विकास किया है, जिसका हमें पता नहीं।
अभी मेरे एक मित्र ने एक चित्र मेरे पास भेजा। वह चित्र देख कर मैं कांप गया। उस रात मैं सो नहीं सका, बहुत चिंतित हो उठा, लेकिन शायद ही कहीं कोई चिंता उस संबंध में हुई हो। सारी दुनिया में खबरें छपीं। एक वैज्ञानिक ने एक घोड़े की खोपड़ी को काट कर उसमें एक इलेक्ट्रोेड रख दिया है, एक यंत्र रख दिया है भीतर, खोपड़ी बंद कर दी गई। घोड़े को कुछ पता नहीं। अब वायरलेस से उस घोड़े को कहीं से हजारों मील दूर से इशारा किया जा सकता है। जो भी इशारे किए जाएंगे घोड़े को वही करना पड़ेगा, क्योंकि घोड़े को लगेगा कि वे इशारे उसके भीतर से आ रहे हैं। हजार मील दूर से वह वैज्ञानिक कहे कि घोड़ा पैर उठाए, इशारा करे पैर उठाने के तो घोड़ा पैर उठाएगा। कहे, नाचो, तोे वह नाचेगा।
एक मित्र ने मुझे वह तस्वीर भेजी और उसने कहा कि कितना बड़ा आविष्कार है। मैंने उसे वापस तस्वीर भेजी और लिखा कि अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण! क्योंकि राज्य यह इलेक्ट्रोड आज नहीं कल आदमी की खोपड़ी में भी लगा देगा। पता नहीं चलता न! फिर विद्रोह असंभव है। केमिकल रिवोल्यूशन हो रहा है, कुछ ऐसे ड्रग्स खोज लिए गए हैं जो क्रांति को असंभव कर दें, क्योंकि यह बात पकड़ ली गई है कि जो लोग विद्रोही होते हैं, उनके शरीर में, उनके व्यक्तित्व में कुछ तत्व होते हैं जो गैर-विद्रोह में नहीं होते। तो अब ऐसे ड्रग्स एल एस डी, मेस्कलीन हैं ये, और-और ड्रग्स भी खोजे जा रहे हैं। कल यह हो सकता है कि आपके गांव के रिजर्वायर में, तुलसीलेक में, पवईलेक में केमिकल्स डाल दिए जाएं, पूरा गांव पिए, पता भी न चले कि पानी में कुछ है और गांव में सारे व्यक्तियों के भीतर से वे तत्व क्षीण हो जाएं जो बगावत कर सकते हैं, जो कह सकते हैं, ‘नो’, नहीं, वे तत्व विदा हो जाएं!
राज्य के हाथ में आज पूरी ताकत जाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि उसके पास इतनी टेक्नालाॅजी है कि व्यक्ति को बिलकुल ही पोंछ सकता है। माइंड-वाॅश की नई-नई ईजादे हैं। किसी भी आदमी की स्मृति पोंछी जा सकती है। छह महीने आदमी को बंद कर दिया जाए और इलेक्ट्रिक के शाॅक हैं, केमिकल्स ड्रग्स हैं और माइंड-वाॅश के मेथड्स हैं, उससे उसकी स्मृति पोंछी जा सकती है। अगर वह कहता है कि मैं विरोधी हूं तो उसकी स्मृति विदा हो जाएगी, उसे पता ही नहीं रहेगा कि मैं कौन हूं। अगर वह कहता है कि मेरा यह खयाल है तो उसका वह खयाल खो जाएगा, क्योंकि वह यही नहीं बता सकेगा कि मैं कौन हूं, मेरा खयाल क्या है। वह छोटा बच्चा हो जाएगा, उसको क ख ग से फिर सीखना पड़ेगा। उसे भाषा, नाम सब फिर से सीखने पड़ेंगे।
जब इतनी ताकत विज्ञान दे रहा हो राज्य को, और धन की भी सारी ताकत राज्य के हाथ में हो, और प्रशासन की भी सारी ताकत राज्य के हाथ में हो, तो हम अपने हाथ से मनुष्य की हत्या का आयोजन कर रहे हैं। राजनीतिज्ञ इस योग्य नहीं है। सच तो यह है कि राजनीतिज्ञ ने मनुष्य के इतिहास में जो किया है, उससे सिवाय अयोग्यता के उसने योग्यता कभी भी सिद्ध नहीं की। राजनीतिज्ञ के हाथ से सत्ता वापस लौटनी चाहिए, उसे बढ़ाने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह भी जानता है कि अगर वह कहे कि राज्य के हाथ में सब होना चाहिए तो लोग कहेंगे कि नहीं, तो वह एक दूसरा चेहरा बनाता है, वह कहता है समाज के हाथ में सब होना चाहिए। समाज के पास तो कोई हाथ नहीं है, इसलिए फिर राज्य के हाथ में ही सब चला जाता है।
आज सोशलिज्म के नाम से दुनिया में जो भी चल रहा है, वह स्टैट कैपिटलिज्म है, वह राज्य-पूंजीवाद है। और मैं मानता हूं कि राज्य-पूंजीवाद से व्यक्ति-पूंजीवाद श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ इसलिए है कि व्यक्ति स्वतंत्र है, श्रेष्ठ इसलिए है कि प्रत्येक व्यक्ति को पूंजी पैदा करने की प्रेरणा है, श्रेष्ठ इसलिए है कि शक्ति विभाजित और विकेंद्रित है, श्रेष्ठ इसलिए है कि संपत्ति अगर कल अतिरिक्त मात्रा में पैदा हुई तो समाजवाद आएगा, आना चाहिए। लेकिन लाना नहीं है, आना चाहिए। लाया हुआ समाजवाद खतरनाक सिद्ध होगा। आने दें, लेकिन आएगा कैसे?
एक माली को बीज में से अंकुर निकालना है, तो अंकुर आएगा कि निकालना पड़ेगा? अगर निकाला, तो संभावना है बीज भी टूट जाए और अंकुर न निकले। लेकिन आने देना है तो माली क्या करे? माली वह व्यवस्था करे जिससे अंकुर आता है। व्यवस्था करे खाद की, बीज को डाले जमीन में, पानी डाले, सूरज को आने दे, झाड़ को हटा दे--आएगा बीज, जरूर आ जाएगा, अंकुर भी फूटेगा, वृक्ष भी बड़ा होगा।
अगर समाजवाद लाना हो तो पूंजीवाद के बीज को ठीक से सिंचित करने की जरूरत है। यह मेरी बात लोगों को उलटी मालूम पड़ती है। पर यह उतनी ही सीधी और साफ है। अगर पूंजीवाद ठीक से विकसित होता है तो उसके भीतर से समाजवाद आता ही है, लेकिन पूंजीवाद अपना काम पूरी तरह कर ले तब विदा हो।
लेकिन आज तो पूंजीवाद जो है वह भी डरा हुआ है। वह भी हिम्मत से नहीं कह सकता कि पूंजीवाद के होने का भी कोई कारण है। वह भी कहता है कि नहीं, समाजवाद ठीक है। उसके पास भी अपना दर्शन नहीं है। वह भी भयभीत है, वह भी चारों तरफ भीड़ से डरा हुआ है। वह भी नारे और झंडे और आवाजों से घबरा गया है। वह कहता है, तो समाजवाद ही ठीक। बड़े से बड़ा पूंजीपति, मैं देखता हूं, वह घबड़ा रहा है। उसे लग रहा है कि उसने कोई पाप किया है।
बड़े आश्चर्य की बात है। पूंजीपति ने इतने बड़े समाज को जिंदा रखने की व्यवस्था की, इतने अधिक मनुष्यों को जीवित रखने का उपाय किया, संपत्ति पैदा की, गुलामी खत्म की, मनुष्य की जगह मशीन को लाने का उपाय किया और अंततः समाजवाद उससे आएगा, लेकिन वही पूंजीवाद की व्यवस्था में जो कारीगर है वह भी घबरा गया है। आइजनहावर ने लिखा है कि एक कम्युनिस्ट से मैं बातें करता था तो मैं उत्तर नहीं दे पाता था, क्योंकि मुझे भी लगता तो यही था कि यही ठीक कह रहा है। आइजनहावर के पास भी तर्क नहीं है। पूंजीवाद के पास तर्क नहीं है, पूंजीवाद के पास दर्शन नहीं है तो पूंजीवाद मरेगा।
मैं चाहता हूं, पूंजीवाद के पास अपना तर्क हो, अपना दर्शन हो, ताकि वह ठीक से जी सके और समाजवाद को जन्म देने योग्य हो सके।समाजवाद पूंजीवाद की संतान है और बाप अगर अस्वस्थ रहे तो ध्यान रखना, बेटा स्वस्थ होने वाला नहीं है। लेकिन बाप को मार कर बेटे को पैदा करने की कोशिश चल रही है। मां की हत्या करके गर्भ निकालने की कोशिश चल रही है। इन सब नासमझों से सावधान होने की जरूरत है।
संबंधित विषय पर आगे हर कोण से, हर पहलू से चार लंबी वार्ताओं में अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूं। एक-एक बात पुनर्विचार करने के योग्य है, एक-एक विचार से ठीक समझ लेने, सोचने योग्य है। जरूरी नहीं है कि जो मैं कहूं वह ठीक ही हो। वह गलत हो सकता है, इसलिए सोचने के लिए निमंत्रण से ज्यादा मेरा कोई आग्रह नहीं है। सुहृदय श्रोता यदि समाजवाद पर इस दृष्टि से सोच सकें, तो शायद वह पूरे देश के भी काम आ सकता है।
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