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शनिवार, 3 नवंबर 2018

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा 

लोकशाही समाजवादः एक भ्रांत धारणा

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से सवाल बाकी रह गए हैं और अंतिम चर्चा होने के कारण मैं अधिकतम सवालों के संबंध में बात करना पसंद करूंगा, इसलिए सवालों के जवाब संक्षिप्त ही हो सकेंगे।
बहुत से मित्रों ने पूछा है कि आप समाजवाद और साम्यवाद का पर्यायवाची की तरह प्रयोग कर रहे हैं। क्या दोनों में भेद नहीं मानते हैं?
भेद मानता हूं। जैसे टी. बी. के स्टेजेस होते हैं वैसा ही भेद मानता हूं। समाजवाद बीमारी की पहली स्टेज है। साम्यवाद उसकी अंतिम स्टेज है। इधर से मरीज शुरू समाजवाद से करता है, मरता साम्यवाद में है। भेद तो है, लेकिन एक ही बीमारी बढ़ी हुई अवस्था का भेद है। मगर कोई बुनियादी भेद नहीं है। और जो लोग समझाने की कोशिश करते हैं कि समाजवाद साम्यवाद से भिन्न चीज है वे केवल साम्यवाद के नाम पर...! साम्यवाद के नाम के साथ एक बदनामी जुड़ गई है। उस बदनामी को काटने को नये नाम का प्रयोग कर रहे हैं, अन्यथा कोई फर्क नहीं है।
समाजवादी चेहरे के पीछे साम्यवादी हाथ है।

एक सवाल और बहुत से मित्रों ने पूछा है कि क्या लोकशाही समाजवाद, डेमोक्रेटिक सोशलिज्म की आप बात नहीं करेंगे, क्या वह उचित नहीं हैं?
असल में समाजवाद और लोकशाही में विरोध है--कंट्राडिक्शन इन टम्र्स--लोकशाही और समाजवाद का कोई संबंध नहीं। लोकशाही समाजवाद हो ही नहीं सकता? क्यों नहीं हो सकता! क्योंकि डेमोक्रेसी, लोकशाही का पहला नियम है कि बहुमत अल्पमत पर हावी न हो सके, अल्पमत के हितों को नुकसान न पहुंचे।
एक व्यक्ति के अल्पमत के हित को भी नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। वह लोकतंत्र का आधार है। पूंजीवादी, अल्पमतीय वर्ग है और पूंजीवाद को नुकसान पहुंचाना लोकशाही की हत्या करना है। लोकशाही-समाजवाद का कोई अर्थ नहीं होता । समाजवाद बुनियादी रूप से वर्गीय है, इसलिए वह डेमोक्रेटिक नहीं हो सकता।
समाजवाद की मौलिक दृष्टि पूरे समाज को एक मानने की नहीं है। समाजवाद की मौलिक दृष्टि सबका उदय हो, ऐसी नहीं है। समाजवाद की मौलिक दृष्टि एक वर्ग के पक्ष में दूसरे वर्ग का विनाश करनेे की है। इसलिए समाजवाद लोकशाही से कैसे संबंधित हो सकता है? लोकशाही मनुष्य के समाज को एक मान कर चलती है। मनुष्य का पूरा समाज एक है। डेमोक्रेसी समाज को वर्गों में विभाजित नहीं करती और जिस दिन आप वर्गों में विभाजित करते हैं--वे वर्ग चाहे कोई भी हों, अगर कोई हमारे मुल्क में लोकशाही-हिंदुवाद का हम प्रचार करना चाहते हैं, तो वह गलत होगा। क्योंकि लोकशाही-हिंदुवाद जैसी कोई चीज नहीं हो सकती, क्योंकि मुसलमान का क्या होगा? अगर पाकिस्तान में कोई कहे कि लोकशाही-इस्लाम का प्रचार कर रहे हैं, तो बात गलत होगी। लोकशाही जब किसी भी वर्ग के साथ जुड़ती है तो गलत हो जाती है। लोकशाही अवर्गीय है। लोकशाही वर्गातीत है।
लोकशाही ‘बियांड क्लासेस’ है। चाहे धर्म का वर्ग हो, चाहे धन का वर्ग हो, चाहे शिक्षा का वर्ग होे, लोकशाही किसी वर्ग को स्वीकार नहीं करती। मनुष्य को वर्ग-मुक्त स्वीकार करती है। इसलिए लोकशाही और समाजवाद का कोई संबंध नहीं हो सकता। डेमोक्रटिक सोशलिज्म सिर्फ धोखे का शब्द है।
असल में समाजवाद के साथ तानाशाही अनिवार्य रूप से जुड़ी है। अब वह तानाशाही बहुत बदनाम हो गई है। इसलिए लोकशाही शब्द का प्रयोग करना जरूरी हो गया है। लेकिन शब्दों से धोखा देना बहुत मुश्किल है। लेबल बदल देने से आत्माएं नहीं बदल जातीं। जैसे कोई तलवार के ऊपर अहिंसावादी तलवार लिख दे तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
समाजवाद और लोकतंत्र विरोधी धारणाएं हैं। लोकतंत्र बुनियादी रूप से पूंजीवादी समाज व्यवस्था की आधारशिला है। और अगर समाजवाद को लाना है तो लोकशाही को मिटाना ही पड़ेगा। हां, यह हो सकता है कि कोई एक बार में न मिटाए, कोई धीरे-धीरे मिटाए। जो एक बार में मिटाते हैं उनको लोग कम्युनिस्ट कहते हैं। जो धीरे-धीरे मिटाते हैं, उनको लोग सोशलिस्ट कहते हैं। कुछ लोग होते हैं न! कुछ लोग ऐसे बकरे को मारकर खाने को धार्मिक मानते हैं जो एक ही झटके में मार डाला जाए। और कुछ लोग एक ही झटके में मारे गए बकरे को खाना अधार्मिक मानते हैं। वह धीरे-धीरे घिस-घिस कर मारते हैं।
समाजवाद जो है वह लोकतंत्र को घिस-घिस कर मारना है और साम्यवाद जो है वह झटके से मारना है। पता नहीं परेशानी किस में ज्यादा होगी? बकरे से अब तक पूछा नहीं गया। यह बकरा खानेवालों के निर्णय हैं कि कौन सा ठीक रहेगा। लोकशाही समाज का कोई अर्थ नहीं है। वह शब्द ही अनर्थ है। इसलिए मैंने उसकी बात नहीं की है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि समाजवाद का आप विरोध करते हैं तो क्या आप समानता के विरोधी हैं?
मैं समानता का विरोधी नही हूं। लेकिन समानता अमनोवैज्ञानिक तथ्य है। समानता कहीं है नहीं, वह तथ्य नहीं है। और किसी दिन हो सकती है, यह भी संभव नहीं है। मनुष्य अनिवार्यरूपेण असमान है। हम कितनी ही आकांक्षा करें और हम कितनी ही प्रार्थना करें और हम कितना ही उपाय करें, मनुष्य की प्रकृति असमान है। मनुष्य जन्म से असमान है। समानता कल्पना से ज्यादा नहीं है। समान दोे व्यक्ति भी नहीं हैं, न हो सकते हैं। अगर हम बुद्धि की माप करें तो...अब तो बुद्धि के मापने के लिए उपाय हैं। तो हम भलीभांति जानते हैं कि ईडियट से लेकर जीनियस तक, जड़ से लेकर मेधावी तक बड़ा अंतर है। और आप अगर बायोलाजिस्ट से, जीवशास्त्री से पूछें तो वह कहेगा कि कोई उपाय अब तक तो नहीं है कि जड़बुद्धि को प्रतिभाशाली कैसे बनाया जाए!
जड़बुद्धि बिल्ट इन प्रोग्रेम लेकर आता है। वह जो मां के पेट में जो अणु हैं उसमें ‘बिल्ट इन प्रोग्रेम’ है कि यह आदमी जड़बुद्धि होगा। जब तक हम मनुष्य के वीर्यकण में रासायनिक परिवर्तन करने में समर्थ नहीं होते तब तक हम मनुष्यता को समान नहीं बना सकते। मनुष्यता असमान रहेगी। और जिस दिन वैज्ञानिक मनुष्य के वीर्यकण में प्रवेश कर जाएगा उस दिन मनुष्यता नहीं रह जाएगी, समानता तो आ जाएगी। उस दिन मशीनें रह जाएंगी। तो दोे ही विकल्प हैं--या तो असमान मनुष्य को स्वीकार करो या समान मशीनों का निर्माण करो। इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
जिस दिन वैज्ञानिक बच्चे के अणु में प्रवेश कर जाएगा और रासायनिक फर्क कर सकेगा और यह तय कर सकेगा कि यह गोरा हो कि काला, वह लंबा हो कि ठिगना, इसका बुद्धि-माप, आई. क्यू. कितना हो, जड़बुद्धि हो या प्रतिभाशाली हो, क्रोधी हो कि अक्रोधी हो--जिस दिन रासायनिक प्रकिया से व्यक्ति के अणु बीज में अंतर किया जा सकेगा उस दिन आदमी को आदमी कहना उचित होगा? नहीं, वह उचित नहीं होगा। वह फैक्ट्री प्रोडक्ट हो जाएगा। कारखाने में बनी चीज हो जाएगा। तब आदमी को हम लिख सकेंगे कि ‘मेड इन इंग्लैंड’ कि ‘मेड इन जर्मनी’ कि ‘मेड इन इंडिया’। वैसे कई लोग हिंदुस्तान में बनाएंगे लेकिन लिखेंगे, ‘मेड ए.ज जर्मनी’--‘एज’ जरा छोटा लिखेंगे।
आदमी असमान है। यह तथ्य चाहे दुखद हो। यह तथ्य है, इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। आदमी की असमानता इतनी गहरी है कि पूरी मनुष्यता समान हो--यह तो दूर, दोे आदमी भी समान नहीं खोजे जा सकते। लेकिन इसका क्या मतलब? इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर न मिले। नहीं, मैं यह नही कह रहा हूं।
असल में समाजवाद में प्रत्येक व्यक्ति को एक समान अवसर नहीं मिल सकेगा, सिर्फ पूंजीवाद में ही मिल सकता है। इसे थोड़ा समझना जरूरी होगा। क्योंकि समाजवाद जिनके दिमाग में भर गया है, वे सोचना ही भूल गए हैं।
फोर्ड या राॅकफेलर या मार्गन या टाटा-बिड़ला समाजवाद में पैदा नहीं हो सकेंगे। इनके लिए कोई अवसर नहीं होगा। लेकिन फोर्ड किसी माक्र्स से कम नहीं है। उसकी अपनी विशिष्टता है। धन पैदा करने की जो लोग क्षमता लेकर पैदा होते हैं, सभी लोग लेकर पैदा नहीं होते। जो लोग धन पैदा करने की क्षमता लेकर पैदा होते हैं उनके लिए समाजवाद में कौन-सा अवसर होगा? इनके लिए कोई अवसर नहीं होगा! समानता के अवसर की बात बड़ी बेमानी मालूम पड़ती है।
समाजवाद में विद्रोही व्यक्तित्त्व के लिए कौन-सा अवसर होगा? अगर माक्र्स सोवियत रूस में पैदा होना चाहे तो नहीं हो सकता। नहीं तो पचास साल में सोवियत रूस ने एकाध तो माक्र्स पैदा किया होता। पूंजीवादी मुल्क ने माक्र्स पैदा किया, पूंजीवादी मुल्क ने लेनिन पैदा किया, पूंजीवादी मुल्क ने स्टैलिन पैदा किया, पूंजीवादी मुल्क ने ट्राटस्की पैदा किया, पूंजीवादी मुल्क ने दुनिया के सब समाजवादी पैदा किए। पचास साल के समाजवादी रूस ने माक्र्स की या लेनिन की या ट्राटस्की की हैसियत का एक आदमी पैदा किया? यह बड़े मजे की बात है। पचास साल में रूस में तो पचासों माक्र्स की हैसियत के आदमी पैदा होने चाहिए। लेकिन माक्र्स भी रूस में पैदा नहीं हो सकता। तो उसका कारण विद्रोह व्यक्तित्त्व के लिए रूस में कोई अवसर नहीं है। यह जो रिबेलियस माइंड है उसके लिए कोई अवसर नहीं है।
रूस में बुद्ध भी पैदा नहीं हो सकते, महावीर भी पैदा नहीं हो सकते, कृष्ण भी पैदा नहीं हो सकते। लेकिन लोग कहते हैं समाज सबको समान अवसर देगा, मुझे नहीं दिखाई पड़ता। यह सोचने जैसी बात है कि उन्नीस सौ सत्रह के पहले के रूस ने बड़े अदभुत लोग पैदा किए, अनेक दिशाओं में। कुछ दिशाओं में रूस हावी हो गया--दोस्तोवस्की या तुर्गनेव या चेखोव या गोर्की या गोगोल--सारे के सारे, टाल्सटाय, ये सारे प्रतिभा के ये धनी लोग उन्नीस सौ सत्रह के पहले पैदा हुए। और ऐसी स्थिती हो गई उन्नीस सौ सत्रह में, अगर दुनिया में लिखी गई दस किताबों का नाम लेना पड़े तो कम से कम पांच रूसी किताबों का नाम लेना पड़े--पांच सारी दुनिया की और पांच रूस की। लेकिन उन्नीस सौ सत्रह के बाद दोेतोवस्की, तुर्गनेव, गोर्की, टालस्टाय, गोगोल की हैसियत का एक आदमी भी रूस नहीं पैदा कर सका। उसका कारण है। क्योंकि प्रतिभा सदा ही विद्रोही होती है। सिर्फ जड़बुद्धि विद्रोही नहीं होते। अगर हम इडियट्स का एक समाज बना सकें तो वह कोई विद्रोही नहीं होगा। प्रतिभा सदा विद्रोही होती है। लेकिन विद्रोह का कोई मौका समाजवाद में नहीं है। क्योंकि स्वतंत्र विचार का कोई मौका समाजवाद में नहीं है।
पचास वर्षों में रूस में कोई बड़ी इंटेलेक्चुअल कंट्रोवर्सी नहीं हुई। कोई बड़ा बौद्धिक विवाद नहीं चला। क्योंकि रूस पचास साल से बौद्धिक विवाद का उत्तर तलवार से देता है, बंदूक से देता है। बौद्धिक विवाद कैसे चलता?
मैं नहीं मानता हूं कि समाजवाद सबको समान अवसर देता है। नहीं, समाजवाद सबको अवसर नहीं देता। असल में पूंजीवाद सब तरह के लोगों को--क्योंकि पूंजीवाद के पास कोई जड़-यांत्रिक व्यवस्था नहीं है, पूंजीवाद एक स्वतंत्रता है--सब तरह के व्यक्तियों को पूंजीवाद सुविधा देता है कि वह विकसित हो सके।
जो लोग धन पैदा करना चाहते हैं--उन्हें, जो लोग धर्म का अनुभव करना चाहते हैं--उन्हें, जो लोग काव्य के जगत में प्रवेश करना चाहते हैं--उन्हें, जो चित्र बनाना चाहते हैं--उन्हें...पिकासो की हैसियत का एक चित्रकार भी रूस ने पैदा नहीं किया पचास साल में। उसके कारण है। क्योंकि रूस की सरकार तय करती है कि चित्रकार क्या बनाए, और सरकार प्रोडक्टिव चीजों में भरोसा करती है, अनप्रोडक्टिव चीजों में नहीं।
सरकार कहती है, उत्पादन बढ़ता हो, ऐसा कोई चित्र बनाओ। और उत्पादन बढ़ता हो, ऐसी कोई कविता लिखो। उत्पादन बढ़ता हो, ऐसा कोई उपन्यास रचो। खेत, किसान, ट्रैक्टर यही तुम्हारे सोच-विचार के क्षेत्र हों। कहानी इनके इर्द-गिर्द घूमे। इसलिए रूस ने पचास साल में जितनी किताबें लिखी हैं उतनी बोर्डम से भरी किताबें
दुुनिया के इतिहास में कभी नहीं लिखी गई। क्योंकि वही खेत, वही ट्रैक्टर, वही कथा, वही उत्पादन, इसके सिवाय कुछ भी नहीं है। जैसे जिंदगी सिर्फ खेत है, जैंसे जिंदगी ट्रैक्टर है!
पूंजीवाद सभी तरह के विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्नता का मौका देता है। और किसी की विभिन्नता पर कोई रोक नहीं लगाता। और प्रत्येक व्यक्ति अपना मार्ग खोजने के लिए मुक्त है। लेकिन आप कहेंगे कि रास्ते में बड़ी बाधाएं पड़ती हैं। हमें कोई बाधा नहीं चाहिए। आप कहेंगे कि गरीब आदमी इसी वक्त करोडपति होना चाहता है। उसके लिए पूंजीवाद में कहां सुविधा है?
कभी पूछा कि समाजवाद में सुविधा है? नहीं, यह खयाल में नहीं आया होगा। एक गरीब आदमी पूंजीपति होना चाहता है इसी वक्त, पूंजीवाद में कहां सुविधा है!
पूंजीवाद में सुविधा है। इसी वक्त होना तो मुश्किल है, लेकिन किसी वक्त हो सकता है। समाजवाद में किसी वक्त भी नहीं हो सकता। इस वक्त तो हो ही नहीं सकता, किसी वक्त भी नहीं हो सकता।
स्वभावतः एक दिन में न पूंजीपति पैदा होते हैं, न एक दिन में चित्रकार पैदा होते हैं, न एक दिन में दार्शनिक पैदा होते हैं। न तो बुद्ध पैदा होते हैं एक दिन में, न फोर्ड पैदा होता है एक दिन में, न आइंस्टीन पैदा होते हैं एक दिन में। जिंदगी भर की लंबी यात्रा है। लंबा श्रम है, लंबी सृजनात्मक चेष्टा है। और उस चेष्टा में निश्चय ही प्रतियोगिता है। क्योंकि आप अकेले ही तो पूंजीपति नहीं होना चाह रहे हैं, पचास करोड़ के मुल्क में पचास करोड़ लोग पूंजीपति होना चाहते हैं।
नहीं, पूंजीवाद आपको नहीं रोक रहा है पूंजीपति होने से। जितनी पूंजी है वह कम है और जितने लोग पूंजीपति होना चाह रहे हैं वे बहुत हैं। इसलिए स्वभावतः सभी लोग पूंजीपति नहीं हो सकते हैं।
इस मुल्क में एक आदमी राष्ट्रपति हो सकता है, हालांकि पचास करोड़ आदमी राष्ट्रपति होना चाहते हैं। पचास करोड़ आदमी राष्ट्रपति नहीं हो सकते। और अगर पचास करोड़ को राष्ट्रपति बनाना हो तो फिर राष्ट्रपति ही नहीं होगा। जीवन एक प्रतियोगिता है। अब सवाल यह है कि प्रतियोगिता स्वतंत्र होनी चाहिए। पूंजीवाद में स्वतंत्र है, समाजवाद में स्वतंत्र नहीं है।
असल में समाजवादी व्यवस्था तय करेगी कि आप क्या पढ़े, क्या सोचें, क्या करें। निर्णायक आप नहीं होंगे।
पूंजीवाद आपको पूरा मौका देता है कि आप जो होना चाहें--हां, लेकिन बहुत लोग असफल हो जाते हैं,--होंगे ही। सभी लोग सफल नहीं हो सकते। जो असफल हो जाते हैं, वे सोचते हैं कि हम पर बड़ी ज्यादती हो रही है। जो असफल हो जाते हैं, वे सोचते हैं, जो लोग सफल हो गए; चालाक, बेईमान, धोखेबाज, शोषक हैं।
बड़े मजे की बात है--अगर वे भी सफल हो गए होते तब? तो दूसरे उनके संबंध में सोचते कि चालाक, बेईमान, चोर हैं।
असल में असफल हमेशा सफल हो गए आदमी को गालियां देना पसंद करता है। इससे उसके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता है, हर्जा भी नहीं है। गाली दें तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन उसका वाद बनायें, तब खतरे शुरू हो जाते हैं।

अब एक मित्र ने पूछा कि एक करोड़पति अपनी मेहनत से धन कमा लेता है। वह तो ठीक है, लेकिन उसका बेटा भी तो मालिक हो जाता है?

उसका बेटा उसने पैदा किया है वह बेटा। उसने धन भी पैदा किया--किया! उसने बेटा भी पैदा किया है।
दोनों के बीच कुछ संबंध होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए। शायद हमारा खयाल यह हो कि धन पैदा करे और बेटा हम पैदा करें, दोनों के बीच कोई संबंध हो। यह अन्यायपूर्ण दिखाई पड़ता है। पूछा इसी ढंग से गया है कि कितना बड़ा अन्याय हो रहा है। उसने कमाया था, मान लिया, लेकिन उसके बेटे ने तो नहीं कमाया था। लेकिन बेटा उसका है। यह बेटा तो उसी ने कमाया है। शायद आप सोचते हों, यह ज्यादा न्यायपूर्ण होगा कि धन किसी का हो और बेटा किसी का हो। नहीं, वह कैसे न्यायपूर्ण हो जाएगा? अगर यह अन्यायपूर्ण है तो दूसरी बात तो बिलकुल अन्यायपूर्ण हो जाएगी।
गरीब एक बेटे को पैदा कर रहा है। उसे दस दफे सोचना चाहिए बेटा पैदा करते वक्त क्योंकि वह बेटे को सिवाय गरीबी के और क्या दे जाएगा? नहीं, लेकिन वह बेटा खड़ा होकर अपने बाप से शिकायत न करेगा कि तुमने मुझे क्यों पैदा किया, वह शिकायत करेगा कि वह बड़े आदमी का बेटा क्यों धन लूट रहा है। शिकायत अपने बाप से करनी चाहिए, और तो किसी से करने का कोई उपाय नहीं है। वैसे बाप से करना बेमानी है, क्योंकि बात हो ही गई है और शिकायत का कोई उत्तर नहीं है।
अगर बाप से शिकायत हो तो बेटे को पैदा करते वक्त खयाल करना, इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है। जब अपना बेटा पैदा करने लगो तब सोचना कि बेटे को क्या दे जाऊंगा। अगर दुनिया के गरीब बेटे को पैदा करते वक्त एक दफा सोच लें कि बेटे को क्या दे जायेंगे, तो दुनिया में इतनी गरीबी न हो। लेकिन गरीब बिलकुल बेफिकर है। उसे बेटा पैदा करते वक्त बिलकुल फिक्र नहीं होती।
एक सज्जन अभी कोई दो-तीन महीने हुए, मेरे पास आए। अब हम कैसी मुश्किल में पड़ते हैं। कभी-कभी मेरी बातें बिलकुल कठोर मालूम पड़ती हैं, लेकिन मजबूरी है। क्योंकि सत्य जैसा है, वैसा है, वह कठोर भी हो सकता है। वे सज्जन आए और मुझसे कहने लगे कि मेरी कुछ सहायता कीजिए। मुझे अपनी बेटी का विवाह करना है। मैंने कहा, तुम बेटी को पैदा करते वक्त मेरे पास सहायता के लिए बिलकुल नहीं आए। तुम बेटी पैदा करो, मेरी कोई गलती है इसमें। कितनी बेटियां हैं तुम्हारी? सात बेटियां हैं, उन्होंने कहा। सब अच्छे आदमी सहायता कर रहे हैं। मैंने कहा, जो अब सहायता नहीं करेगा वह बुरा आदमी हो जाएगा, स्वभावतः। जब अच्छे आदमी सहायता कर रहे हैं तो मैं बुरा आदमी हो जाऊंगा, क्योंकि मैं सहायता नहीं कर रहा हूं। मेरी बात तुम्हें कठोर मालूम पड़ेगी। मैंने उन्हें कहा कि सात लड़कियां पैदा करने को तुमसे कहा किसने? इसका समाज का कोई जिम्मा है?
तुम बच्चियां पैदा करोगे और समाज दोषी ठहर जाएगा। और जो सहायता नहीं करेंगे तुम्हारी वे पापी मालूम पड़ेंगे, अपराधी मालूम पड़ेंगे। बेहुदी है बात। नहीं, हमें गरीब आदमी को साफ-साफ समझाना पड़ेगा कि तुम्हारी गरीबी के लिए तुम्हारे पिता जिम्मेवार होंगे, उनके पिता जिम्मेवार होंगे। पीढ़ियां जिम्मेवार होंगी, तुम पीढ़ियों से गरीब हो और बच्चे पैदा किए जा रहे हो। किसी ने तुमसे नहीं कहा कि तुम बच्चे पैदा करो।
असल में बच्चा पैदा करने का अधिकार भी कमाना चाहिए। लेकिन बच्चा पैदा करने का अधिकार कोई नहीं कमाता। अपने बेटे को क्या दे जाओगे, इसे जाने बिना बेटा पैदा करना अन्याय है। यह बाप का अन्याय है बेटे के ऊपर। यह मां का अन्याय है बेटे के ऊपर। लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि यह अन्याय थोपा जाएगा किसी और पर। कौन जिम्मेवार है उसका?
हमारे मन में कुछ खयाल ऐसा बैठ गया है कि अगर कोई दुखी है तो उसे दुख पहुंचाने के लिए कोई और जिम्मेवार होना चाहिए। वह खुद भी जिम्मेवार हो सकता है, यह हमारे खयाल में नहीं आता। यों हम बड़े भ्रांत तर्कों में भटकते रहते हैं। अगर मैं बीमार हूं तो किसी स्वस्थ आदमी को पकड़ लंू और कहूं कि तुम जिम्मेवार हो, क्योंकि तुम स्वस्थ क्यों हो? मैं बीमार हूं। कल मैं यह कह सकता हूं कि तुम स्वस्थ थे, यह तो ठीक है, लेकिन तुम्हारा बेटा भी स्वस्थ पैदा हुआ।
तुमने व्यायाम किया था, वह तो ठीक है, तुम स्वस्थ थे, लेकिन तुम्हारा बेटा क्यों स्वस्थ पैदा हो गया? तो व्यायाम करने वाले बाप का बेटा स्वस्थ पैदा होगा, इसमें कौन सी तकलीफ है? इसमें कौन सी तर्क की भूल है? नहीं, लेकिन हम पूछते हैं और इस पूछने में बुनियादी भूल हो जाती है और इस भूल के व्यापार परिणाम होते हैं।
एक मित्र ने कहा है कि कुछ लोगों को क्या अधिकार है कि सब लोग गरीब हैं तो वे अमीर हो जाएं?
बड़े मजे की बात है। इसमें उलटा पूछा जाना चाहिए जब कुछ लोग अमीर हैं तो इतने लोगों को क्या अधिकार है कि वे गरीब रह जाएं! क्योंकि वह पूछना अर्थपूर्ण है। क्योंकि जो हम पूछेंगे उससे दिशा निकलेगी।
हम पूछते हैं, इतने लोगों को क्या अधिकार है कि वे धनी हो जाएं जब कि इतने लोग गरीब हैं। तो क्या मतलब है? थोड़े गरीब ज्यादा हो जाएंगे तोे आनंद आएगा आपको। दस-पच्चीस और आदमी गरीब हो जाएं तो तृप्ति मिलेगी आपको।
जो इस तरह का सवाल है, वह सवाल यह मान कर चलता है कि सभी अगर गरीब हों तो बहुत अच्छा है। नहीं, मैं ऐसा मान कर नहीं चलता। मैं मान कर चलता हूं कि सभी अमीर हों तो बहुत अच्छा है। इसलिए सवाल को मैं दूसरी तरफ से पूछता हूं।
मैं पूछता हूं, जब इतने लोग अमीर हैं तो बाकी इतने अधिक लोग गरीब रहने का क्या अधिकार रखते हैं? कोई अधिकार नहीं है गरीब होने का। असले में गरीबी अयोग्यता है। अधिकार नहीं है। सब तरह की अयोग्यता है। लेकिन उस अयोग्यता को स्वीकार करने में पीड़ा होती है। हम सभी मानते हैं कि हम सभी पात्र हैं भोगने के। लेकिन पैदा करने के लिए भी पात्रता चाहिए, उसकी हमें कोई चिंता नहीं है।
इस पृथ्वी पर प्रतियोगिता है, यह सत्य है--होगी ही। सारा जीवन प्रतियोगिता है। लेकिन प्रतियोगिता दुखद हो जाती है, कड़वी हो जाती है जब हम दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं दूसरों पर। यह प्रतियोगिता सहज हो जाती है, सरल हो जाती है, सुखद हो जाती है, खेल बन जाती है, स्पोर्टसमेनशिप हो जाती है, जब हम अपनी पात्रता को बढ़ाना और अपनी क्षमता को बढ़ाना शुरू कर देते हैं। मैं आपसे कहना चाहता हूं गरीब गरीब है क्योंकि उसके जीने का ढंग, उसके सोचने का ढ़ंग, उसका दर्शन, उसका धर्म, उसके विचार, उसकी परंपरा, उसका परिवार, उसके पिता और उसकी पूरी शंृखला गरीबी का निर्माण कर रही है।
इसे थोड़ा सोचना जरूरी है कि हम गरीबी किस तरह निर्माण करते हैं। हमारा देश है, अगर हम इसकी गरीबी की तरफ देखेंगे तो हमें पता चलेगा कि यह गरीबी बिलकुल निर्मित गरीबी है। पहली बात तो यह है कि अमीर होने का सूत्र है, आवश्यकताओं को बढ़ाओ। और गरीब होने का सूत्र है कि आवश्यकताएं कम रखना, सादे जीना। तो रहोगे गरीब ही! जो कौम यह सोचती है कि आवश्यकताएं कम होना अच्छी बात है, वह कौम कभी भी समृद्ध नहीं हो सकती है।
जो आदमी सोचता है कि आवश्यकताएं सदा कम रखी चाहिए और पैर उतने ही फैलने चाहिए जितनी चादर है, तो ध्यान रखें पैर तो रोज-रोज बढ़तेे जाते हैं, चादर को बढ़ते कभी नहीं सुना है। अपने आप चादर नहीं बढ़ती है, पैर अपने आप बढ़ते हैं। तो फिर सिकोड़ते जाना पैरों को, क्योंकि चादर जितनी है उतने ही पैर फैलाना। फिर मरेंगे भीतर, क्योंकि चादर बहुत छोटी रह जाएगी और हम बहुत बढ़ जाएंगे। पूरे भारत के ऊपर चादर बहुत छोटी है और आदमी बहुत ज्यादा हैं। सब सदगुरु समझा गए हैं कि आवश्यकताएं बढ़ाना मत। अब यह सब सदगुरु मिल कर हम सबको गरीब कर रहे हैं। क्योंकि जो आवश्यकताएं बढ़ाएगा वह उत्पादन बढ़ाएगा। जो आवश्यकता बढ़ाएगा वह श्रम करेगा, जो आवश्यकता बढ़ाएगा वह सृजन करेगा। अगर मैं चादर के बाहर पैर निकालूंगा तो ही चादर को बड़ा करने का खयाल उठेगा। इसलिए जितनी चादर हो सदा उससे ज्यादा पैर पसारना, क्योंकि पैर बाहर जाएगा, ठंड लगेगी तो चादर बड़ी करनी पड़ेगी। गर्मी लगेगी तो चादर बड़ी करनी पड़ेगी। तकलीफ होगी तो चादर बड़ी करनी पड़ेगी।
गरीब आदमी का पूरा जीवन-दर्शन उसे गरीब बनाता है। और वह उसमें बड़ी खुशी अनुभव करता है, बड़ा आनंद अनुभव करता है। हम गरीबी को पूजा दे रहे हैं। अगर कोई आदमी स्वेच्छा से गरीब हो जाए तो सारा गांव उसके चरणों में सर रखने को राजी है। कभी कोई आदमी स्वेच्छा से अमीर हो गया तो क्या गांव भर ने उसके चरणों में सर रखा है?
नहीं, कोई आदमी जब अमीर हो जाता है तो गांवभर ईष्र्या से जल जाता है। और जब कोई आदमी स्वेच्छा से गरीब हो जाता है तो गांव भर में आनंद छा जाता है जैसे कोई घटना घट गई। अगर महावीर--राजा का बेटा सड़क पर भीख मांगने लगता है तो सारा गांव उसके पैर छूने लग जाता है। जरा सोचने जैसा मामला है। और अगर भिखारी का बेटा राजा हो जाए तो पूरा गांव आग से जलता है, नींद हराम हो जाती है पूरे गांव की।
इसमें थोड़ा विचार करने जैसा है। गरीब को देख कर हम इतने प्रसन्न क्यों होते हैं? गरीबों को हम इतना सम्मान क्यों देते हैं? असल में गरीबी को सम्मान देने के दोे कारण हैं।
एक तो जब भी कोई अमीर गरीब हो जाता है, स्वेच्छा से, तो हमारे गरीब को बहुत अहंकार की तृप्ति मिलती है कि गरीबी बड़ी ऊंची चीज है, देखो अमीर भी गरीब हो रहे हैं। यानी हम पहले से ही उस स्थिति को उपलब्ध हैं जो उन बेचारों को करनी पड़ रही है। हम बड़े गौरवांवित होते हैं। हम बड़े प्रसन्न होते हैं। हमारे चित्त के आह्लाद की कोई सीमा नहीं रहती। धन्यभाग हैं हम, भगवान की अपरिसीम कृपा हम पर है कि हमें उसने वही बनाया जो बेचारे महावीर, बुद्ध को बनना पड़ रहा है। उनको चेष्टा करनी पड़ रही है। हम पहले से ही हैं।
लेकिन ध्यान रहे, महावीर की गरीबी, गरीबी नहीं है। महावीर की गरीबी अमीर का आखिरी कृत्य है। महावीर की गरीबी ‘लास्ट लक्.जरी’ है, जो अमीर आदमी कर सकता है। आपका सड़क पर पैदल चलना एक बात है और जब राॅकफेलर का बेटा सड़क पर पैदल चलता है तो दूसरी बात है। आप फैक्ट्री में काम करने जा रहे हैं, और वह टहलने जा रहा है। और आप के लिए कार में बैठना संभव नहीं है, और वह कार में बैठ-बैठ कर ऊब गया है और स्वाद बदल रहा है।
अमीर का बेटा जब गरीबी को वरण करता है तो वह अमीरी के स्वाद से ऊब गया और अब वह गरीबी का रस लेना चाहता है। उसकी गरीबी स्वेच्छा से वरण की गई गरीबी, अमीर का आखिरी विलास है--अंतिम विलास, जो अमीर कर सकता है। और मैं मानता हूं, अमीरही कर सकता है। गरीब तो कर ही नहीं सकता। स्वेच्छा से गरीब हो जाना आखिरी मजा है।
इसलिए आज जब अमरीका के करोड़पति का बेटा, काशी में आकर भीख मांग लेता है, तो उसके मजे का आपको पता नहीं है। जब आपका बेटा भीख मांगता है तो आपको पता नहीं कि इन दोनों में क्या बुनियादी फर्क है।
मैं काशी में था तो मुझसे एक हिप्पी मिलने आए। मैंने उनसे कहा कि तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो? मुझे परिचय में बताया कि वे जो लड़के और लड़कियां मुझसे मिलने आए हैं वह अरबपतियों के लड़के हैं। मैंने उनसे पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? काशी की सड़क पर दस-दस पैसे की भीख मांगते हैं। वह कहने लगे कि हमें बड़ा आनंद आता है। डेंजर में भी जी रहे हैं, खतरे में जी रहे हैं। बड़ा मजा आता है कि पता नहीं, आज कुछ मिलेगा कि नहीं मिलेगा। ये ओवरफेड बच्चे हैं। जिनको इतना मिला है कि अब इनको न मिलने में भी मजा आ रहा है। इनके पास सब था। यह ऊब गए हैं। और ये जब सड़क पर हाथ फैला कर खड़े हैं तो इनकी जिंदगी में एक पुलक, एक एडवेंचर, कि यह आदमी दस पैसे देगा कि नहीं देगा--और यह दस पैसे नहीं देगा तो चाय नहीं मिलने वाली है।
अब इनका जो यह फैला हुआ हाथ है, उसका मजा बहुत दूसरा है। यह अमीर का फैला हाथ है, जो खेल में वह फैला रहा है। इस हाथ को देख कर गरीब बड़े प्रसन्न होते हैं।
इस मुल्क का गरीब आदमी, गरीबी को गौरवांवित समझने लगा है। वह कभी विकसित नहीं हो सकता। और गरीबी को उसने स्वीकार कर लिया है जैसे कोई बहुत पुण्य का काम कर रहा है। अमीर तो अपराधी मालूम पड़ता है, पापी मालूम पड़ता है और गरीब? गरीब संत और साधु मालूम पड़ता है। ग्रामीण आदमी को देख कर हम ऐसे होते हैं जैसे कोई संत-साधु हो। बड़ा भोला है, बड़ा सीधा-सादा है। प्रशंसा हमारे मन में है। वह प्रशंसा गलत है, झूठी है। वह प्रशंसा खतरनाक है, आत्मघाती है, सुसाइडल है। और दूसरी बातः गरीब को सुख मिलता है जब कोई अमीर गरीब होकर खड़ा हो जाता है सड़क पर, तो उसकी सेडिस्ट, उसकी दूसरे को दुख देने की वृत्ति को रस आता है।
जिन मुल्कों में त्याग की प्रशंसा है वह मुल्क बुनियादी रूप से सैडिस्ट हैं। वे मुल्क दूसरे को दुख देने में मजा ले रहे हैं। और जब कोई आदमी खुद अपने को दुख देने लगता है तब तो मजा और भी ज्यादा आता है। हमको दुख देने का कष्ट भी नहीं उठाना पड़ रहा है, वह दुख ही दुख दे ले रहा है।
एक आदमी लेट जाए कांटों पर तो बस हम पहुंच जाते हैं हाथ जोड़ने। अब इसको अस्पताल भेजना चाहिए, इसकी चिकित्सा होनी चाहिए। कांटों पर लेटना--यह आदमी बीमार है, पैथालाॅजिकल है, रुग्ण है। लेकिन हम नमस्कार करते हैं कि परमहंस हो गया वह आदमी।
असल में हम किसी को कांटे पर लिटाते तो जितना मजा आता उससे भी ज्यादा मजा इसमें आ रहा है कि यह अपने आप लेट गए हैं। हमको लिटाने की तकलीफ से भी बचा दिया। तो गरीब को सुख मिलता है देख कर कि अच्छा ठीक है। कभी आपने खयाल नहीं किया होगा। अगर कोई आदमी आपके पड़ोस में एक बड़ा मकान बना ले तो खुशी नहीं होती, कोई खुशी नहीं होती, पीड़ा होती है। लेकिन उसके मकान में आग लग जाए, तो आप सब दुख, संवेदना प्रकट करने उसके घर जाते हैं। आप कहते हैं, बहुत बुरा हो गया। अब यह मैं मान नहीं सकता, क्योंकि जब यह मकान बना था तब आपके मन में ऐसा नहीं लगा था कि बहुत अच्छा हो गया। इस मकान के जलने से आपके मन में लग नहीं सकता कि बहुत बुरा हो गया। जब यह मकान बना था तब आपके मन में ईष्र्या जगी थी। और अब आप जाकर कह रहे हैं कि बहुत बुरा हो गया तो आपकी आंख और आपके हृदय की अगर जांच-पड़ताल की जाए तो ज्ञात होगा कि भीतर से आप बड़ा रस और आनंद ले रहे हैं। यह सहानुभूति रुग्ण है और झूठी है। लेकिन हम उस चित्त को पहचान नहीं पाते। और इस चित्त को जो सहारा मिल जाता है, उसको हम इकट्ठा करके जीए चले जाते हैं।
गरीब आदमी का जीवन-दर्शन उसे गरीब बनाता है। अगर आज अमरीका अमीर है तो अमरीका के जीवन-दर्शन की बुनियाद है। अगर हिंदुस्तान गरीब है तो हिंदुस्तान के जीवन-दर्शन की बुनियाद है।
आवश्यकताएं कम करने का सिद्धांत, सिकोड़ने का सिद्धांत समृद्धि नहीं ला सकता। इसके लिए कोई अमीर जिम्मेवार नहीं है कि मेरा मुल्क गरीब है। इसके लिए पूरा मुल्क जिम्मेवार है कि वह गरीब है। यह कुछ लोग जो कि इस बातचीत के बाहर निकल गए हैं वे अपवाद हैं। मगर यह भी गिल्टी अनुभव करते हैं। हिंदुस्तान में मैंने अमीर आदमी नहीं देखा अभी तक जो गिल्टी अनुभव न करता हो, जो अपने को अपराधी न मानता हो। बड़े से बड़ा अमीर, फिर वह अपने अपराध का प्रायश्चित करता रहता है। कोई मंदिर बनवा कर करता है कोई धर्मशाला बनवा कर करता है, कोई तीर्थ पर घाट बनवाता है, कोई अस्पताल खोलता है, कोई स्कूल खोलता है। वह जो अमीर होने की गलती उसने की है, वह जो धन कमानें की भूल उसने की है उसका वह प्रायश्चित करता है। उसका वह पश्चात्ताप करता है। हिंदुस्तान का कोई अमीर मुझे नहीं मिला जो कि प्रसन्न हो इस बात से कि उसने कुछ काम किया है। और हिंदुस्तान के गरीब की तो बात ही अलग है।
नहीं, यह दृष्टि भ्रांत है। यह दृष्टि जिम्मेवार है। समाजवाद आ जाने से कुछ नहीं हो जाएगा, यह जीवन-दृष्टि बदलनी चाहिए। यह जीवन-दृष्टि हटनी चाहिए, जीवन विस्तार है। जीवन जितना विस्तृत होता है, उतना प्रफुल्लित होता है। सारा जीवन विस्तार है। संकोच मृत्यु है। जीवन विस्तार है। जितना हम फैलते हैं उतना ही जीवन भीतर से खिलता और प्रफुल्लित होता है। एक छोटे से बीज को बों दें, तो फैल कर वृक्ष बन जाता है। और एक बीज में करोड़ों अरबों बीज लग जाते हैं।
परमात्मा का सारा का सारा आयोजन विस्तार का है। और हिंदुस्तान लोग गरीब आदमी, और गरीब आदमी के दर्शन के संकोच की भाषा में सोचते हैं। वे कहते हैं, और कम कर लो, और कम कर लो। तो कम करने पर आप जोर देंगे तो सृजन नहीं हो सकता है।
मैं नहीं कहता हूं कि कुछ अमीर इस मुल्क की गरीबी के लिए जिम्मेवार हैं। मैं कहता हूं इस मुल्क के गरीब, इस मुल्क की पूरी जनता अपनी गरीबी के लिए जिम्मेवार है। उसे अपनी ‘फिलाॅसफी आॅफ लाइफ’ को बदलना पड़ेगा, अन्यथा वह कभी समृद्ध नहीं हो सकती।
समृद्धि का सूत्र हैः आवश्यकताओं को फैलाओ। क्यों? क्यों समृद्धि का सूत्र है कि आवश्यकताओं को फैलाओ? जितनी आवश्यकताएं फैलती हैं उतना हमें श्रम में रत होना पड़ता है। और बड़े मजे की बात यह है कि हमें पता ही नहीं कि हममें कितनी श्रम की क्षमता है। जब हम आवश्यकताओं को फैलाते हैं तभी हमें पता चलता है। समझ लें...!
मैं आपको दौड़ने को कहूं, ऐसे ही, कि जरा दौडें, और कहूं कि पूरी ताकत से दौड़ें, तो भी आप कितनी ही ताकत लगाएं वह पूरी ताकत नहीं होगी। फिर कल मैं एक और आदमी को आपके साथ दौड़ने को ले आऊं और कहूं कि दोनों में प्रतियोगिता है और यह गोल्ड मेडल रहा! अब जरा ताकत से दौड़ेंगे। आप पाएंगे कि कल जितना आप दौड़े थे, आज उससे ज्यादा दौैड़ रहे हैं। हालांकि कल आप समझ रहे थे कि यह आपकी आखिरी ताकत है। आज आप ज्यादा दौैड़ रहे हैं। यह ताकत कहां से आई? लेकिन यह भी आखिरी नहीं है।
परसों मैं एक पुलिसवाले को ले आऊं और आपके पीछे एक बंदूक लगवा दूं। और कहूं कि पूरी ताकत से दौड़ें, कहने की जरूरत ही नहीं रहेगी कि पूरी ताकत से दौंड़ें। तब आपको पहली दफा पता चलेगा कि आप हवा में उड़े जा रहे हैं। ऐसे तो आप कभी नहीं दौड़े। यह ताकत कहीं आसमान से आ रही है? यह ताकत आपके भीतर है। जितनी आप चुनौती देते हैं इस ताकत को उतनी यह उठती है।
वैज्ञानिकों का खयाल है कि अधिकतम श्रम करने वाले लोगों ने भी मस्तिष्क की पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा शक्ति का उपयोग नहीं किया है। पंद्रह प्रतिशत, बड़े से बड़ा प्रतिभाशाली आदमी भी अपने मस्तिष्क की पंद्रह प्रतिशत शक्ति का उपयोग करता है। बाकी शक्ति जैसी जन्म के समय रहती है वैसी बेकार, मरने के समय खत्म हो जाती है। शरीर के साथ भी वही हाल है। हम अपनी शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाते क्योंकि आवश्यकताएं तो कम करनी हैं। तो आवश्यकताएं कम करने के लिए कितनी शक्ति का उपयोग करना पड़ता है? जब एक आदमी को पैर ही सिकोड़ने हैं न चादर के भीतर? कितनी ताकत लगी है? लेकिन चादर बड़ी करनी हो तो तब ताकत लगनी शुरू हो जाती है।
आवश्यकताएं ज्यादा होती हैं तो व्यक्तित्व को चुनौती मिलती है। इस मुल्क के व्यक्तित्व को कोई चुनौती नहीं है। इसलिए यह मुल्क गरीब है। और चुनौती देने वाला भी कोई नहीं है। क्योंकि जो चुनौती दे, वह लगेगा कि यह आदमी हमें कैसे तर्क की भाषा बता रहा है? यह कहां हमको नरक ले जाएगा? क्योंकि आवश्यकताएं बढ़ गई तो आग्रह बढ़ जाएगा, आसक्ति बढ़ जाएगी। आसक्ति बढ़ जाएगी तो फिर बंधन बढ़ जाएगा। फिर जीवन के आवागमन से मुक्ति कैसे होगी?
तो आवागमन से मुक्त होना हो तो फिर गरीब रहना बहुत अच्छा है। यह मुल्क आवागमन से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है, पांच हजार साल से। जिंदा रहने की कोशिश नहीं कर रहा है। मरने के बाद फिर से जिंदा न होना पड़े इसकी कोशिश में लगा है। होकर तो गरीब--नहीं तो क्या अमीर हो जाएंगे आप? जिंदा रहने की कोशिश से अमीरी पैदा होती है, समृद्धि पैदा होती है। जिंदा रहने का श्रम चुनौैती मांगता है, चैलेंज मांगता है। चैलेंज कौन देगा? बैलगाड़ी में बैठे हैं तो बैलगाड़ी में बैठे हैं। तो कार कौन पैदा करेगा, चैलेंज कौन देगा?
कार में बैठे हैं तो कार में बैठे हैं। तो फिर हवाई जहाज कौन पैदा करेगा? चैलेंज कौन देगा? जिंदगी चुनौती से गति पाती है। सब तरह की गति, चाहे बुद्धि की हो, चाहे धन की हो, चाहे श्रम की हो, शक्ति की हो, शरीर की हो, मन की हो, आत्मा की हो। समस्त गतियां चुनौती से पैदा होती हैं। और इस मुल्क ने चुनौती को इनकार कर दिया और हम कहते हैं, हम चुनौती मानते ही नहीं। तो फिर ठीक है, कौन जिम्मेवार है? किस की जिम्मेवारी है कि हम गरीब हैं? चुनौती चाहिए। आवश्यकताएं बढ़ती हैं तो उसके परिणाम गहरे शुरू होते हैं। सारा मुल्क कहता है कि बेकारी है। एक तरफ बेकारी है और मुल्क के साधु-संन्यासी, नेता समझा रहे हैं कि सादगी से रहो। बेकारी खत्म कैसे होगी? ज्यादा चीजें पैदा करों तो ज्यादा लोग श्रम में लगेंगे। ज्यादा जरूरतें हों तो ज्यादा लोग श्रम में लगेंगे।
आज अमरीका की आधी से अधिक इंडस्ट्री, पचास प्रतिशत उद्योग स्त्रियों के साज-श्रृंगार को पैदा करने में लगा है। गांधीजी समझाते हैं कि स्त्री को साज-शृंगार की जरूरत ही नही। उसको तो खादी के कपड़े पहन कर करीब-करीब पुरुष जैसा हो जाना चाहिए।
ठीक है, आप सब स्त्रियों को खादी पहना दें। लिपिस्टिक न लगाने दें, गहने न पहनने दें, बाल न सजाने दें, रंग-रोगन न लगाने दें। इंडस्ट्री का मतलब क्या होता है? स्त्रियां पचास प्रतिशत इंडस्ट्री चलाती हैं सारी दुनिया की, हिंदुस्तान को छोड़ कर। उसका कारण है। एक दफा पाउडर लगाओ फिर साबुन से धोओ, फिर पाउडर लगाओ, फिर साबुन से धोओ, तो पच्चीस इंडस्ट्री चल रही हैं उनके इस पाउडर लगाने से और साबुन से धोने से। वहां मजदूर को काम मिल रहा है।
जिंदगी को हम समझेंगे तो वह कुछ और है। अब अगर सब स्त्रियों को सादा बना दोे तो आदमी बेकार हो जाएगा। अब वह आदमी बेकार हो जाएगा तो चिल्लाओ कि आदमी बेकार क्यों है। क्योंकि कुछ लोग शोषण कर रहे हैं। कोई शोषण नहीं कर रहा। आदमी बेकार इसलिए है कि आपके पास काम का विस्तार नहीं है। और काम का इतना विस्तार हो सकता है और वह तभी हो सकता है जब हमारी आवश्यकताएं रोज बढ़ती जाएं, दिन दूनी रात चैगुनी।
जब अमरीका के जीवन का ढंग है कि कोई आदमी इस फिकर में नहीं है कि कितना कम करे, हर आदमी इस फिकर में है कि कितना ज्यादा करे। तो स्वभावतः सब चीजें ज्यादा चाहिए। कार का माडल हर साल बदल जाएगा। क्योंकि पिछले साल का कार का माॅडल कौन रखे? आउट आॅफ डेट गाड़ी का रखना, आउट आॅफ डेट आदमी का सबूत है। लेकिन हमारे मुल्क में? हमारे मुल्क में उन्नीस सौ बीस में जो गाड़ी आई थी उसको हम सम्हाल कर रखे हुए है। और पड़ोसी हमारी तारीफ करते हैं, क्या गजब का आदमी है, उन्नीस सो बीस की गाड़ी अभी भी चला रहा है!
बड़े मजे से चलाइए उन्नीस सौ बीस की गाड़ी आप। यह मुल्क मर जाएगा। क्योंकि इस मुल्क का सारा का सारा उत्पादन इस बात पर निर्भर करता है कि लोग कितनी जल्दी चीजें बदलते हैं। जब हम दुकान पर जाते हैं तो हिंदुस्तान में आदमी पूछता है कि टिकाऊ है! कितनी देर चलेगी?
अमरीका में कोई आदमी नहीं पूछेगा। एक आदमी नहीं पूछता कि टिकाऊ है। अमरीका में एक नया शब्द है, वे टिकाऊ नहीं पूछते, वे ड््यूरेबिलिटी नहीं पूछते। वे पूछते हैं, एक्सचेंजेबिलिटी। यह बदली जा सकती है, कितने दिन में बदली जा सकती है? घड़ी लेने एक आदमी जाएगा तो कहेगा तीन महीने में बदली जा सकती है। वह पूछेगा कि एक्सचेंजेबिलिटी कितनी है इसकी। साल भर बाद बदलेंगे तो बदली जा सकती है? छह महीने बाद बदली जा सकती है। कोई नहीं पूछेगा कि ड््यूरेबिलिटी कितानी है? क्योंकि ड््यूरेबिलिटी का मतलब--क्या मरना है कि जीना है? अगर एक ही घड़ी से जिंदगी भर गुजार लिया तो घड़ी की इंडस्ट्री का क्या होगा?
मगर हमारे यहां ऐसे लोग हैं कि एक घड़ी उनके पिता ने बरती, उनके पीता ने भी बरती, वे भी बरत रहे हैं। बाबा आदम के जमाने में जो घड़ी रही होगी, वह उसे सम्हाले हुए हैं। बड़े सादे हैं, बड़े भोले हैं, इनके पैर पड़ो। ये मार डालेंगे पूरे मुल्क को।
जिंदगी के विस्तार के नियम हैं और जिंदगी की समृद्धि के नियम हैं। और हमारे सारे नियम उलटे हैं। मगर हम बहुत प्रसन्न होते हैं कि देखें, आदमी कितना सादा है। खाने में देखो तो घास-पात खा लेता है। नहीं, ऐसे नहीं, जीवन की समस्त विविधाओं में, जीवन के सब डाइमेन्शन में, रोज नए की खोज,रोज नए की आकांक्षा समृद्ध बनाती है।
पुराने पर पकड़े बैठे रह जाना, गरीब बनाती है। यह मुल्क इसलिए गरीब नहीं है। मेरी अपनी समझ यही है कि मुल्क इसलिए गरीब नहीं है कि पूंजीवादी है और इसलिए अमीर नहीं हो जाएगा कि समाजवादी हो जाऐ। इस मुल्क के सोचने के ढंग गरीब के ढंग हैं। और इस मुल्क के सब महात्मा इसको गरीब होना सिखाते हैं। सब महात्मा इसको जो बातें सिखाते हैं वह सब खतरनाक है। वह इस मुल्क की जड़ को काट डालते हैं। लेकिन वे महात्मा बड़े प्यारे हैं, क्योंकि पांच हजार साल से जो हम सुन रहे हैं वही हमें वे फिर सुनाते हैं। बार-बार सुनी गई बात ठीक मालूम पड़ने लगती है। इसलिए नहीं कि ठीक है। इसलिए कि बार-बार सुनी है। बार-बार सुनते-सुनते हम यह भूल ही जाते हैं कि यह बात झूठ होगी। एक झूठ को बोलते रहें सुबह से शाम तक, दूसरे लोग तो भरोसा करेंगे कि नहीं करेंगे! लेकिन सुबह से शाम तक बोलते-बोलते आप जरूर भरोसा कर लेंगे, खुद ही। क्योंकि शक होने लगेगा कि जो इतनी बार बोला है, यह झूठ हो सकता है! जिसको इतने लोगों ने विश्वास किया वह झूठ हो सकता है?
मनुष्य जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्य ऐसे झूठ हैं जो सच जैसे मालूम पड़ने लगे। और ध्यान रहे, जीवन का एक नियम है कि या तो फैला या सिकुड़ो, बीच में कोई जगह नहीं है।
अगर आप कहें कि हम बीच में खड़े रहेंगे, संतुलन साधेंगे। तब कुछ भी साध सकते आप। जिंदगी का नियम है, या तो फैलो या सिकुड़ो, या तो जीओ या मरो, या तो जीतो या हारोे। जिंदगी बीच में नहीं खड़ी रहती कहीं भी। जिस दिन इस मुल्क ने यह तय कर लिया कि हमें फैलना नहीं है उसी दिन हम सिकुड़ने लगेंगे। जिस दिन हमारे आदमी ने यह तय कर लिया कि हमारी कोई बड़ी आकांक्षाएं नहीं हैं तो उसी दिन सिकुड़ गए, उसी दिन हमारे जीवन की ऊर्जा बैठ गई। उसको चुनौती मिलनी कठिन हो गई।
तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हम गरीब हैं तो गरीबी के कारण को समझें। हमारी फिलाॅसफी, हमारा चिंतन, हमारा धर्म, सब हमें गरीब होने का रास्ता बताता है। और अगर यह सब ठीक है तो फिर गरीब होने से हमें सहमत होना चाहिए।
मैं नहीं कहता कि आप अमीर हो जाएं। फिर मैं कहता हूं कि आप अपनी फिलासफी को समझ लें, फिर आप गरीब होने को राजी रहें। या फिलाॅसफी बदलें, अगर गरीबी से नाराजगी है तो, और या फिर राजी रहें। दो के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है।
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम अमीर होना चाहते हैं अमरीका जैसे और दर्शन पकड़ना चाहते हैं भारतीय। हम तो भारतीय हैं, हम भारतीय रहेंगे। भारतीय रहकर आप अमरीका जैसे समृद्ध नहीं हो सकते। आपको अपने भारतीय होने में बुनियादी फर्क करने पड़ेंगे। आपका भारतीय होना बिलकुल ही समृद्धि के लिए बेमानी है, इररिलेवेंट है, असंगत है। इधर तो हम चिल्ला रहे हैं हम भारतीयकरण करेंगे। हम तो बिलकुल भारतीय, शुद्ध भारतीय हैं, हंड्रेड परसेंट भारतीय का हमको नशा सवार है।
सौ प्रतिशत भारतीय रहना है तो सौ प्रतिशत गरीब रहना पड़ेगा। आधुनिक से डरे हुए हैं, पश्चिम से डरे हुए हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए कि हमारे भारतीय होने में थोड़ी बहुत कमी पड़ जाए। असल में भारतीय होने का क्या मतलब होता है?
भारतीय होने का फिर यही मतलब होता है कि जो हमारी कथा है वही हमारी कथा रहेगी, उसमें हम कोई फर्क नहीं कर सकते। हमें फर्क करना पड़ेगा। हम वैसे ही भारतीय नहीं हो सकते अब, जैसे हम मनु के जमाने में थे। और न हम वैसे ही भारतीय हो सकते हैं जैसे हम पांच सौ साल पहले थे। असल में पिछले वर्ष के भारतीय भी आज नहीं हो सकते और अगर होंगे तो हम परेशानी में पड़े रहेंगे। और मजा यह है कि भारतीय होने के लिए क्या हमको पुराना ही होना पड़ेगा? क्या भारत का अभी भी भविष्य नहीं है? क्या भारतीय होने की, भविष्य की कोई रूप-रेखा नहीं हो सकती? लेकिन यह हमारे पुराने सिद्धांतों से तालमेल नहीं खाता। हमारे पुराने शास्त्र हमको दिक्कत में डाल देते हैं, वे कहते हैं कि तालमेल नहीं बैठता है।
तब फिर हम एक जिद्द में पड़ गए हैं। और इस जिद्द से बाहर निकलने का एक ही उपाय मुझे दिखाई पड़ता है कि हम उस जिद्द को ठीक तरह से समझ लें, इस झंझट को हम ठीक से समझ लें कि हमारी झंझट क्या है। या तो हमें गरीब रहना है तो गरीब होने को स्वीकार कर लें और गरीब रहें। और अगर गरीबी को मिटाना हो तो गरीबी के सूत्रों को आग लगा दें, और अमीरी के सूत्रों पर जीवन को ढालने की कोशिश करें। अन्यथा इन दोनों के बीच इतने तनाव में पड़ जाएंगे कि न तो हम जी सकेंगे और न हम मर सकेंगे, त्रिशंकु की हमारी हालत हो जाएगी, जो हो गई है।

एक और मित्र ने पूछा है, एक दो छोटे-छोटे सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि यह जो पूंजीवाद आज मौजूद है, इसमें इतना भ्रष्टाचार है, इतनी घूसखोरी है, इतनी रिश्वत है, क्या आप इसके भी समर्थक हैं?

यह घूसखोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वत पूंजीवाद के कारण नहीं है। इसके कारण बिलकुल दूसरे हैं, उनका पूंजीवाद से कोई लेना-देना नहीं है।
जिस देश में इतनी गरीबी हो उस देश में सदाचार हो सकता है, यह चमत्कार होगा। यह संभव नहीं है। जहां जीना इतना कठिन हो, वहां आदमी ईमानदार रह सकेगा, यह मुश्किल है। हां, एकाध आदमी रह सकता है। कोई संकल्पवान रह सकता है, लेकिन इतना संकल्प सबके पास नहीं है और इसके लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।
जिंदगी में जहां जीने के लिए बेमानी शर्त बनाना पड़ता हो--यहां इतने बड़े कमरे में हम सारे लोग बैठे हैं और यहां बीस-पच्चीस रोटी हों और हम सब भूखे हों तो आप सोचते हैं, शिष्टाचार बचेगा? और वह शिष्टाचार, अगर नहीं बचा, तो क्या इस भवन को आप गाली देंगे कि यह भवन भ्रष्टाचार पैदा करवा रहा है? भ्रष्टाचार भवन पैदा नहीं करवा रहा है! भ्रष्टाचार! पच्चीस रोटियां और पच्चीस सौ खाने वाले भूखे हैं, इनकी वजह से भ्रष्टाचार पैदा हो रहा है। इस कमरे का कोई कसूर नहीं है, भवन का कोई कसूर नहीं, यह पूंजीवाद की व्यवस्था का कोई कसूर नहीं है कि भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार का कारण दूसरा है। भ्रष्टाचार का कारण यह है कि भूख ज्यादा है, रोटी कम है। नंगे शरीर ज्यादा हैं, कपड़े कम हैं। आदमी ज्यादा हैं, मकान कम हैं। जीने की सुविधा कम है, और जीने वाले रोज बढ़ते चले जा रहे हैं। इसके बीच जो तनाव पैदा होगा, वह भ्रष्टाचार ले आएगा। इस भ्रष्टाचार को कोई नेता नहीं मिटा सकता। क्योंकि नेतागण सोचते हैं कि जैसे भ्रष्टाचार को मिटाना...वह जिस ढंग से सोचते हैं, कोई साधु-सेवक-समाज बना लेता है कि इससे हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे।
कुछ ऐसा लगता है कि हम जिंदगी के गणित को सीधा देखने से चूक ही जाते हैं। साधु-सेवक-समाज बनाने से क्या भ्रष्टाचार मिटा दोगे? ये साधु जाकर सारे मुल्क को समझायेंगे कि भ्रष्टाचार मत करो। तो क्या भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा? यह समझाने का मामला है कि भ्रष्टाचार मत करो!
यह समझाने की बात होती तो हम करते ही न, यह समझाने की बात नहीं है। यह जीने का--‘एक्झिस्टेंशियल’ प्रश्न है। यहां अस्तित्व खतरे में है। यह प्रवचन से हल होनेवाला नहीं है कि सारे हिंदुस्तान के साधु गांव-गांव जाकर समझाएं कि भ्रष्टाचार मत करो। तो बस भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा। यहां कोई शिक्षा की कमी नहीं है और न प्रवचनों की कमी है। और यह न होगा कि बच्चों को गीता और रामायण कंठस्थ करवा दें तो भ्रष्टाचार मिट जाएगा कि नैतिक शिक्षा दे दें, हर स्कूल में। पढ़ लेंगे गीता को, रामायण को, भ्रष्टाचार नहीं मिट जाएगा। क्योंकि भ्रष्टाचार के होने के कारण अस्तित्व में छिपे हैं। यह कोई सिद्धांतों की बात नहीं है। और नेतागण चिल्लाते रहे हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, वे चाहे जो इंतजाम करे। वे जो भी इंतजाम करेंगे वही भ्रष्टाचारी हो जाएगा। और मजा तो यह है कि वह जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढ़ियां पार करनी पड़ती हैं।
अब यह इतना जाल है कि सिद्धांतों से होने वाला नहीं है। इस जाल की बुनियादी जड़ को पकड़ना पड़ेगा और अगर हम जड़ को पकड़ लें तो बहुत चीजें साफ हो जाएं। हमें मान लेना चाहिए कि आज के भारत में ईमानदारी की बात करना बेकार है। न नेता को करना चाहिए, न साधु को करना चाहिए। हमें मान लेना चाहिए कि बेईमानी नियम है। इसमें झंझट नहीं करनी चाहिए। इसमें झगड़ा खड़ा नहीं करना चाहिए। तब कम से कम बेईमानी सीधी साफ तो हो सकेगी। यानी मुझे आपकी जेब में हाथ डालना है तो मैं सीधा तो डाल सकूंगा। नाहक आप सोएं और रात में आपके घर मैं आऊं, जेब में हाथ डालूं और फिर सुबह मंदिर जाऊं और व्याख्यान करूं कि चोरी करना पाप है। यह सब जाल की जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान में बेईमानी जो है आज की समाज-व्यवस्था में, अगर न हो, तो या तो समाज-व्यवस्था टूट जाए, या तो हम मर जाएं। बेईमानी इस वक्त लुब्रीकेटिंग का काम कर रही है। वह लुब्रीकेशन है। वह जरा पहिए को तेल दे देती है और चलने लायक बना देती है। अगर यह मुल्क कसम खा ले ईमानदार होने की, तो मर जाए। वह जिंदा नहीं रह सकता है और जिन लोगों ने कसम खा ली ईमानदारी की उनसे आप पूछ लो कि वे जिंदा हैं कि मर गए। उनकी आवाज शायद ही निकले, क्योंकि वे मर ही चुके होंगे।
भ्रष्टाचार हमारी इस समाज-व्यवस्था में, हमारी इस समाज की दीनता और दरिद्रता में, हमारे समाज की इस भुखमरी हालत में इस यंत्र-विहीन अनौद्योगिक संपत्ति शून्य समाज में अनिवार्यता है। इसमें चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं है, न किसी को गाली देने की जरूरत है।
मैं जापान की छोटी सी किताब पढ़ रहा था शिष्टाचार के नियमों की। तो उसमें लिखा हुआ है कि किसी आदमी से उसकी तनख्वाह न पूछें। तब बहुत हैरान हुआ कि क्या मामला है। हमसे बड़े अविकसित मालूम होते हैं जापानी। हम तो तनख्वाह ही नहीं पूछते, यह भी पूछते हैं उससे कि कुछ ऊपर से भी मिलता है कि नहीं। यह बड़े पक्के गंवार मालूम पड़ते हैं। इनको इतना पता नहीं कि भारत जैसा सुसंस्कृत और सभ्य देश वहां आम तनख्वाह के ऊपर क्या मिलता है, यह भी पूछते हैं। न केवल पूछते हैं बल्कि बताने वाला बताता ही है कि कुछ भी नहीं मिलता है, थोड़ा ही मिलता है, कुछ ज्यादा नहीं मिलता। उस किताब में नीचे नोट लिखा हुआ है कि किसी से तनख्वाह पूछना अपमानजनक हो सकता है, क्योंकि हो सकता है उसकी तनख्वाह कम हो और उसे चार आदमियों के सामने तनख्वाह बतानी पड़े, या हो सकता है कि उसे इतना संकोच लगे कि उसे व्यर्थ झूठ बोलना पड़े, जितनी उसकी तनख्वाह न हो उतनी बतानी पड़े, इसलिए तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए।
इस मुल्क में हमें आज की मौजूदा हालत में भ्रष्टाचार, रिश्वत इतनी बात नहीं पूछनी चाहिए। यह अशिष्टता है, घोर अशिष्टता है। यह सीधी साफ बात है, यह स्वीकृति होनी चाहिए। इसमें कोई झगड़ा नहीं करना चाहिए। हां, रह गई बात यह कि अगर हम इसे स्वीकार कर लें तो हम इसे मिटा सकते हैं। इसे हम स्वीकार कर लें तो इसकी बुनियादी जड़ों में जा सकते हैं कि बात क्या है। कोई आदमी अपनी तरफ से बुरा नहीं होना चाहता। बुराई सदा ही मजबूरी की हालत में पैदा होती है। हां, कुछ लोग होंगे जिनको बुरा होने में मजा आता है, वे रुग्ण हैं। उनकी चिकित्सा हो सकती है। लेकिन अधिकतम लोग बुरा होने के लिए बुरा नहीं होते। जब जीना मुश्किल हो जाता है तब बुराई को साधन की तरह पकड़ते हैं।
जब इतनी बुराई है तो इस बात की यह खबर है कि मुल्क इस जगह खड़ा है जहां असंभव हो गया है। इसलिए जीने को हम कैसे संभव बनाएं? कैसे सरल बनाएं? कैसे समृद्ध बनाएं? यह सोचना चाहिए। भ्रष्टाचार कैसे मिटाएं यह सोचिए ही मत। आप सोचिए कि जीवन को कैसे समृद्ध बनाएं। जीवन को कैसे सरल बनाएं। कैसे जीवन को गतिमान करें। जीवन कैसे रोज रोज समृद्धि के नए शिखरों पर पहुंचें, इसकी फिक्र करिए। भ्रष्टाचार वगैरह की व्यर्थ बकवास में मत पड़े रहिए।
सिर्फ इंडिकेटर्स हैं। जैसे एक आदमी को बुखार आ जाए, अब घर में नासमझ हों या घर में अगर भारतीय किस्म के लोग ज्यादा हों, तो ठंडा पानी डालना इलाज होना चाहिए। क्योंकि गर्म हो गया उसका शरीर, ठंडा कर दो पानी डाल कर। लेकिन बुखार बीमारी नहीं है। बुखार सिर्फ भीतर की बीमारी की सूचना है। तो इसलिए अगर शरीर गर्म हो गया हो किसी का तो ठंडा पानी मत डालना। ठंडा पानी डालने से बीमारी मिट जाएगी क्योंकि बीमार मिट जाएगा। बुखार इस बात की खबर है कि शरीर में कहीं स्ट्रगल पैदा हो गई है, शरीर में कहीं संघर्ष खड़ा हो गया है। संघर्ष की वजह से शरीर गर्म हो गया है। शरीर में कही कोई कांफ्लिक्ट खड़ी हो गई है, शरीर का सहयोग टूट गया है, शरीर पूंजीवाद न रह कर, समाजवादी हो गया है। कुछ गड़बड़ हो गई है। हार्मनी टूट गई है, क्लास-स्ट्रगल शुरू हो गई है, दो तरह के कीटाणु इकट्ठे हो गए हैं। उस लड़ाई की वजह से शरीर गर्म हो गया है। उस लड़ाई में गर्मी आ ही जाती है। इस गर्मी को ठंडा नहीं करना है। उन कीटाणुओं को मारना है भीतर जाकर कि वह लड़ाई खत्म हो तो शरीर अपने आप ठीक टैम्परेचर पर वापस लौट आए।
भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, स्मगलिंग सब बुखार है। शरीर का तापमान बढ़ गया है, समाज का। लेकिन असली बीमारी कहां है? असली बीमारी नहीं है यह। लेकिन हमारे सब नेता और सब ज्ञानी उन्हीं को ठीक करने में लगे हैं। भारतीय जो ठहरे, शुद्ध--हंड्रेड परसेंट भारतीय। वे उसको ठीक कर रहे हैं, और कहते हैं बिलकुल ठीक कर देंगे। लेकिन किसी को यह खयाल नहीं है कि भारत की यह बीमारी आज नहीं आ गई है। यह बीमारी भारत में बढ़ते-बढ़ते पांच हजार साल में अब पूरी तरह प्रकट हुई है। पांच हजार साल का भारत का इतिहास कहता है कि परीक्षा में पास होना हो तो हनुमानजी को रिश्वत खिला दो, एक नारियल चढ़ा दो। उनसे कहो कि पांच आने का नारियल चढ़ाएंगे, हमारे लड़के को पास करवा दो। अगर लड़के को पास करवा दिया तो पांच आने का नारियल चढ़ा देंगे। अब यह क्या है? रिश्वत नहीं है तो क्या है? आप समझते हैं, यह कौन सी चीज है?
भगवान से जाकर कह रहेे हैं, मंदिर बनवा दूंगा, अगर एक बच्चा पैदा हो जाए। यह क्या है? हां, भगवान और देवताओं को देते-देते, विकास होते-होते आदमियों तक यह बात पहुंच गई, यह दूसरी बात है।
आफिसर से कहते हैं कि नारियल चढ़ा देंगे जरा कुछ काम करवा दें। हम पहले से ही इसी तरह काम कर लेते रहे। और जब हम भगवान तक से सस्ते में काम लेते रहे तो बेचारा आफिसर किस खेत की मूली है और जब भगवान तक नारियल से राजी होते हैं, तो आफिसर न हों तो गैर भारतीय हैं। तो उसको राजी होना चाहिए, अशिष्टता मालूम होगी।
भारतीय का चित्त रिश्वतखोर है। वह रिश्वत खिला रहा है। वह खुशामदी है। वह भगवान को, देवताओं की, राजाओं की खुशामद भी करता था और अब न देवता दिखाई पड़ते, न भगवान दिखाई पड़ते हैं और राजा ही दिखाई पड़ते हैं। ये बेचारे मिनिस्टर वगैरह दिखाई पड़ते हैं। अफसर दिखाई पड़ते हैं। वह उन्हीं की खुशामद कर रहा है। वह हाथ जोड़े इन्ही के दरवाजे पर बैठा हुआ है।
स्वभावतः गरीब मुल्क है, दीन मुल्क है। जिनके हाथ में थोड़ी ताकत है वह उनके आस-पास पूंछ हिलाने लगता है। और अब तो पूंछ हिलाने तक में बड़ी मुश्किल हो गई है और उतनी समझदारी रखनी पड़ती है, जैसे आमतौर से कुत्ते रखते हैं। आपने कभी कुत्ते को पूंछ हिलाते देखा। अगर अजनबी के सामने कुत्ता आएगा तो भौंकेगा भी और पूंछ भी हिलाएगा, दोनों काम करेगा--डबल रोल एक साथ। क्योंकि अभी पक्का नहीं है कि अजनबी जो है वह मित्रता का रुख लेगा या शत्रुता का रुख लेगा। अगर शत्रुता का रुख लेगा तो पूंछ हिलाना बंद कर देगा, भौंकने को बढ़ा देगा। अगर मित्रता का रुख लेगा तो भौंकना बंद कर देगा, पूंछ की ताकत बढ़ा देगा। अब तो नेताओं के बाबत कुछ पक्का नहीं है कि कौन नेता कब तक नेता रहेगा, किस क्षण सख्त हो जाएगा, भूतपूर्व हो जाएगा, कुछ पता नहीं है। इसलिए थोड़ा आदमी भौंकता भी है, पूंछ भी हिलाता है। अगर स्थिर हो जाए तो पूंछ जोर से हिला देंगे और अगर बाहर निकल गया तो फिर जोर से भौंक कर बता देंगे। अब तो कुछ निश्चित नहीं है। लेकिन यह भारतीय लक्षण है। यह हमारे कौमी लक्षण हैं। इन कौमी लक्षणों का जिम्मा पूंजीवाद पर नहीं है। यह पूंजीवाद से बहुत प्राचीन है और इन प्राचीन लक्षणों की जड़े बहुत गहरी हैं।
और सारे उपद्रव की जड़ हमारी दीनता, दरिद्रता, हमारी गरीबी है। उस गरीबी को मिटाने की दिशा में हम जो भी करें वही कदम भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, चोरबाजारी, सबको मिटाने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
और बहुत से प्रश्न रह गए हैं। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि मैंने जो बातें आपसे कहीं, उन बातों को अगर आप सोचेंगे तो जिन प्रश्नों के उत्तर मैं समय की कमी से नहीं दे पाया, वे उत्तर आपके खयाल में आ सकते हैं। अंतिम निवेदन कि मेरी बातों को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं कोई नेता नहीं हूूं। और आपसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं। आपसे कुछ लेना-देना नहीं कि आप मेरी बातें मानें तो मुझे फायदा हो, और मेरी बातें न मानें तो मुझे कोई नुकसान हो!
मेरी बातों को मानने की इसलिए भी कोई जरूरत नहीं हैं कि मैं कोई महात्मा हूं, कोई साधु हूं, कोई संत हूं कि आपको अनुयायी बनाने की मेरी इच्छा है। मैंने आपसे जो निवेदन किया, वह विचार के लिए है। आप सोचें...!
इतनी कृपा काफी होगी कि आप सोचें...! और अगर आपको कुछ ठीक दिखाई पड़े तो वह ठीक, वह आपकी जिंदगी में आपका अपना सत्य हो जाएगा। जो सत्य स्वयं के हो जाते हैं, वे सक्रिय हो जाते हैं। और सत्य थोड़ा सा भी सक्रिय हो जाए, तो उसके परिणाम दूरगामी हो जाते हैं। जैसे हम पत्थर को फेंक दें झील में, जरा सी जगह पर गिरता है, लेकिन उसके वर्तुल दूर-दूर झील के किनारों तक फैलने शुरू हो जाते हैं। तो इस आशा पर मैंने ये बातें कहीं हैं कि आपमें से शायद कुछ लोग भी अगर सोचेंगे तो जो वर्तुल पैदा होंगे वे शायद देश के कोने-कोने तक फैल जाएं! और हो सकता है कि अतीत में हमने भूलें की हों--लेकिन अतीत की भूलों से क्या प्रयोजन? हम भविष्य में भूलें करने से बच जाएं तो भी काफी है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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