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रविवार, 4 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(सभ्यता हमारी शिक्षा का फल)

मेरे प्रिय आत्मन्!
भविष्य की एक कथा से बात शुरू करना चाहता हूं।
अभी लिखी नहीं गई वह कथा, लेकिन आदमी जैसा चल रहा है, उसे देखते हुए लगता है, जल्द ही लिखी जाएगी। भविष्य के किसी पुराण में लिखी जाएगी। कथा है कि तीसरा महायुद्ध हो चुका, अभी हुआ तो दूसरा ही है। लेकिन आदमी को देख कर ऐसा नहीं लगता कि तीसरा नहीं होगा। प्रथम के बाद अनेक लोग सोचते थे, दूसरा महायुद्ध नहीं होगा, दूसरा हुआ। दूसरे के बाद अनेक लोग सेाचते हैं, तीसरा नहीं होगा; लेकिन आदमी जैसा है उसे देख कर लगता है कि तीसरा हुए बिना नहीं रह सकता। तीसरा महायुद्ध हो चुका है, सारी मनुष्य-जाति नष्ट हो गई है। वे सारे भवन जो संस्कृति ने खड़े किए थे और वे सारे सपने जो सभ्यता ने निर्मित किए थे, धूल-धूसरित हो गए हैं। सारी पृथ्वी पर सिवाय धुएं के और आग के कुछ भी नहीं है। चारों तरफ मृत्यु है, सुनसान है। एक छोटे से वृक्ष पर एक बंदर बैठा हुआ है, उदास, चिंतित। सुबह की धूप निकल रही है, चारों तरफ धुआं है, चारों तरफ आग है, सब जल गया है। वह अपनी बंदरिया के पास बैठ कर कहता है, बहुत दुख से शैल बी बिगेन आॅल ओवर अगेन। क्या हमें दुनिया फिर से शुरु करनी पड़ेगी।

डार्विन होता और अगर यह बात सुन लेता, तो बहुत खुश होता। लेकिन डार्विन और उसके साथ मनुष्य की सारी सभ्यता कभी की समाप्त हो गई है, उस तीसरे महायुद्ध में। और बंदरों को सोचना पड़ रहा है, क्या हम फिर से शुरु करें? शैल बी बिगेन आॅल ओवर अगेन?


यदि मनुष्य नहीं बदलता है, तो किसी न किसी दिन बंदरों को यह सोचना पड़ेगा। अच्छा है कि बंदरों को सोचने की बजाय हम स्वयं सोचें कि हमने जो सभ्यता निर्मित की है, कहीं वह ऐसी तो नहीं है कि हम फिर से सब शुरु करें? और सभ्यता का प्राण है शिक्षा, और संस्कृति का आधार है शिक्षा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि शिक्षा फिर से आमूल निर्मित हो? क्या यह जरूरत नहीं दिखाई पड़ती है? जिस भांति हम मनुष्य को शिक्षित करते रहे हैं आज तक, उससे किस तरह का मनुष्य पैदा हुआ है? आखिर कसौटी क्या है हमारी शिक्षा की, हमारी संस्कृति की? वही मनुष्य जो हमने पैदा किया है। इस मनुष्य को देख ेकर ऐसा लगता है कि जो शिक्षा हम देते रहे हैं, दे रहे हैं, वही शिक्षा योग्य है कि आगे भी हम देते रहें? जो भी हमें चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, सड़ा-गला समाज, हिंसा और ईष्र्या से भरी हुई मनुष्य-जाति। क्रोध, तनाव और अशांति से भरे हुए मनुष्य के प्राण। ये चारों तरफ जो धुआं ही धुआं और अंधेरा ही अंधेरा है, और जीवन करीब-करीब मृत्यु से बदतर हो गया है, इसको देख कर यह शक, यह संदेह, यह जिज्ञासा नहीं जगती है मन में कि जो शिक्षा हम आज तक देते रहे हैं, और दे रहे हैं वो बुनियादी रूप से गलत तो नहीं है। क्योंकि मनुष्य ही कसौटी है उस शिक्षा की जो हमने उसे दी है। जो समाज हम निर्मित करते हैं, जो जीवन का फैलाव हमने किया है, अगर वह दुखपूर्ण है, अंधकारपूर्ण है और अगर वह नर्क जैसा बन गया है।
पुराणों में कहा है कि देवता पृथ्वी पर पैदा होने को तरसते हैं, अब नहीं तरसते होंगे। अब देवता प्रार्थना करते होंगे, सुबह-शाम कि हे भगवान! पृथ्वी पर मत भेज देना। मैंने तो यहंा तक सुना है कि एक आदमी मर गया था, उसकी पत्नी बहुत उत्सुक थी कि अपने मरे हुए पति की आत्मा से कोई बातचीत कर ले। एक प्रेतात्मविद के पास वह गई और उसने कहा कि क्या यह हो सकता है कि मैं अपने पति की आत्मा से मैं बात कर सकूं? उस प्रेतात्मविद ने उसके पति की आत्मा को अंधकार में किसी मनुष्य के ऊपर बुलाया। उस पत्नी ने अपने मरे हुए पति से पूछा कि तुम जहां भी हो, सुख में तो हो। मैं बहुत चिंतित हूं। उसके पति ने कहा सुख में, मैं बहुत सुख में हूं एकदम आनंद में हूं। निश्चित ही पत्नी ने समझा कि पति स्वर्ग में है, उसने कहा और स्वर्ग के संबंध में कुछ बताओ? उसके पति ने कहा स्वर्ग? मैं नरक में हूं देवी। तो उसकी पत्नी ने कहाः नरक में हो और कहते हो बहुत सुख में हूं। तो उसके पति ने कहा, पृथ्वी को देखने के बाद नरक ही देखने को मिला है, वह बहुत ही सुखद मालूम हो रहा है।
यह जो हमने जीवन, यह जो हमने पृथ्वी बसा रखी है, क्या है हमारी संस्कृति और सभ्यता के पास? कौन सी सुगंध, कौन सा संगीत? ऐसे कौन से फूल हैं जो मनुष्य के जीवन में खिलते हैं, जिन्हें हम कह सकें कि हमारी शिक्षा ने उन्हें सींचा, उन बीजों को, उन फूलों को? ऐसी कौन सी सुगंध है, जो हमारे जीवन से उठती है कि हम कहें कि हमारे विश्वविद्यालयों ने, हमारे शिक्षालयों ने, ये फूल जन्माएं हैं। जीवन को देख कर ऐसा लगता है कि शिक्षा निश्चित ही गलत होनी चाहिए, अन्यथा जीवन ऐसा कैसे हो सकता है? आदमी जो है, वह शिक्षा के कारण है। और आदमी जो भी होगा, वह शिक्षा के कारण ही होगा। आदमी जो नहीं है, वह किसी शिक्षा के अभाव के कारण है।
शायद जरूर तुमने सुना होगा कि आज से कोई तीस वर्ष पहले बंगाल के जंगलों में दो लड़के पकड़ लिए गए थे, भेड़िए उठा कर ले गए थे उन बच्चों को, और भेड़ियों ने उन बच्चों को अपनी मांद में पाला था। उनकी उम्र दस और बारह वर्ष के करीब थी। जब शिकारी उन बच्चों को कलकत्ता लाए, बारह वर्ष का बच्चा भी दो पैर से खड़ा नहीं हो सकता था। क्योंकि भेड़ियों ने शिक्षा दी थी, उसे, वह चार हाथ-पैर से चलता था। छह महीने तक मुश्किल से प्रशिक्षण, मालिश, दवा सबका प्रयोग करके बामुश्किल उन बच्चों को खड़ा किया जा सका। छह महीने में। और फिर भी जैसे ही आंख चूके कि वे चारों हाथ-पैर से चलने लगें। एक शब्द नहीं बोल सकते थे, बारह वर्ष के बच्चे। भेड़ियों की आवाज कर सकते थे, क्योंकि उसकी ही उन्हें शिक्षा मिली थी। कच्चा मांस खा सकते थे, आदमी को नोच सकते थे, आदमी को कच्चा खा सकते थे; वही उन्होंने सीखा था। भेड़ियों की तरह तेज दौड़ सकते थे, उनके नाखून, उनके हाथ के पंजे आदमियों जैसे नहीं रह गए थे। उनको बहुत कोशिश की साल भर तक आदमी बनाने की उस कोशिश में वे दोनों मर गए। जिंदा रहना संभव नहीं हुआ। फिर अभी दो वर्ष पहले उत्तर प्रदेश में भी एक बच्चा पकड़ लिया गया, वह चैदह साल का था। अखबारों में तुमने नाम सुना होगा, राम, उसको नाम दे दिया। चैदह साल के बच्चे के साथ ही वही हुआ कि वह डेढ़ साल के भीतर मर गया, उसको शिक्षा देने की कोशिश की थी।
चैदह साल तक जो भेड़ियों के शिक्षालयों में पढ़ा हो, उसे फिर आदमी बनाना बहुत मुश्किल हो जाता है। और उस चैदह साल के बच्चे में, एक शब्द नहीं बोल सकता था, डेढ़ साल मेहनत करने पर अपना नाम सीख पाया, इतना बोल देता था, राम। बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं बोल सकता था।
यह मत सोचना कि तुम जो हो, मैं जो हूं, हम जो हैं, ये हम शिक्षा के बिना हो सकते थे। और यह भी ध्यान रखना कि जो हम हैं, इस शिक्षा की वजह से हैं। जितनी घृणा हम में है, जितनी हिंसा हम में है, जितना द्वेष, जितनी प्रतिस्पर्धा हम में है, जीवन को गलत ढंग से जीने का जैसा रवैया हम में है, वह हमारी शिक्षा पर निर्भर है। जो भी हम हैं, अच्छे और बुरे, शुभ और अशुभ, प्रकाशपूर्ण और अंधकारपूर्ण उसका जिम्मा हमारी शिक्षा में छिपा है। हम क्या ठीक हैं? अगर हम ठीक हैं, तो गलत आदमी कैसा होगा? हमारा समाज ठीक है, तो गलत समाज कैसा हो सकता है? हमसे गलत और क्या हो सकता है? इसे अगर सोचते हैं, तो पूरी शिक्षा पर पुनर्विचार करना जरूरी हो जाता है।
तीन हजार साल के इतिहास में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। तीन हजार वर्ष में पंद्रह हजार युद्ध, थोड़े मालूम पड़ते हैं। प्रति वर्ष पांच युद्ध। अगर तीन हजार वर्ष में हम एक-एक दिन की गिनती करें, जब युद्ध चलता रहा पृथ्वी पर कहीं न कहीं, और उन दिनों की गिनती करें, जब युद्ध न चला हो, तो तेइस सौ वर्ष युद्ध चला है, सात सौ वर्ष नहीं चला। इकट्ठा नहीं सात सौ वर्ष, कभी एक दिन, कभी दो दिन युद्ध होता रहा। नहीं तो युद्ध कहीं न कहीं चल रहा है। पृथ्वी पर ऐसा एक भी दिन नहीं है, जब युद्ध न चल रहा हो। चल ही रहा है। और जिन दिनों युद्ध नहीं चलता, तो यह मत सोचना कि युद्ध नहीं चलता, कोल्ड वार भी है, वह ठंडा युद्ध चलता है। और यह मत सोचना कि जब युद्ध बंद रहता है, तो शांति रहती है, नहीं, जब युद्ध बंद रहता है तब यह सिर्फ इसलिए बंद रहता है कि पुराना युद्ध तोड़ गया होता है, ताकत, नये युद्ध को करने की ताकत जुटानी पड़ती है। बीच में वक्त की जरूरत पड़ती है। मनुष्य के इतिहास में शंाति का कोई काल नहीं देखा है अब तक।
दो तरह के कालखंड हैं इतिहास में, युद्ध का काल और युद्ध की तैयारी का काल। पहला महायुद्ध हुआ उन्नीस सौ चैदह में फिर दूसरा महायुद्ध हुआ उन्नीस सौ उंतालीस में बीच में जो थोड़े से वर्ष निकले, यह मत सोचना कि वो शांति के वर्ष थे, उन दिनों हम युद्ध की तैयारी कर रहे थे। वह युद्ध की तैयारी का वक्त था। क्या आदमी लड़ने को ही पैदा हुआ है, और लड़ना जिंदगी हो सकती है? और क्या लड़ने के माध्यम से जीवन में आनंद संभव है? क्या आदमी हिंसा करने को ही पैदा हुआ है? क्या हम एक दूसरे की गर्दन दबाने के लिए ही हैं। अगर पृथ्वी को कोई मंगल पर बैठ कर देखता होगा किसी उपग्रह से अगर पृथ्वी को देखता होगा, तो एक बात बिलकुल ही निश्चित है कि वे समझते होंगे, पृथ्वी एक मैड हाउस है, एक पागलखाना है। उनको तो कुछ भी पता नहीं होगा कि कौन हिंदुस्तान है, कौन पाकिस्तान है? क्योंकि बीच में कोई रेखाएं पृथ्वी पर खिंची हुई नहीं हैं, सब रेखाएं आदमी की बेवकूफी से पैदा हुई हैं। पृथ्वी के नक्शे पर कोई रेखा नहीं है। सब रेखाएं आदमी की स्टूपिडिटी के सुबूत हैं। कहां है कोई रेखा? कल करांची उन्नीस सौ सैतालीस के पहले तक करांची में जो आदमी पैदा होता था, वह हमारा भाई था। हम कराची में पैदा हुए आदमी के लिए मरते हैं। उन्नीस सौ सैतालीस के बाद करांची में जो पैदा हुआ है, वह हमारा दुश्मन है। और अब हम उसको मारने के लिए मरेंगे। और वह हमको मारने के लिए मरेगा।
मंगल के उपग्रह पर बैठ कर अगर कोई देखता होगा, तो उसकी समझ के बाहर होगा कि यह आदमियत है कैसी? कभी भी उखड़ पड़ती है, और बस शुरु कर देती है लड़ना। उतने दूर से उनको कुछ भी पता नहीं होगा, कि हमारी राजधानियों में देश के सब पागल इकट्ठे हो गए हैं। उन्हें कुछ पता नहीं होगा। उन्हें कुछ भी पता नहीं होगा कि जिस आदमी का भी दिमाग खराब हो जाता है, वह राजनीतिज्ञ हो जाता है। उनको क्या बेचारों को पता होगा, उनको हमारे राजनीतिज्ञों की कोई खबर नहीं है। ये सारी की सारी पृथ्वी को अगर थोड़े दूर खड़े होकर अगर तटस्थ भाव से देखें तो बड़ी हैरानी होगी, क्या? किस पागल की तरह हम युद्ध की तैयारी में लगे हैं? इस समय पृथ्वी पर पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। और शायद तुम्हें पता नहीं होगा, पचास हजार उदजन बम जरूरत से ज्यादा हैं। इनकी कोई जरूरत ही नहीं है। अगर पूरे आदमियों को खत्म करना हो, तो ये सात गुना ज्यादा हैं। एक-एक आदमी को सात-सात बार मारने की हमने व्यवस्था कर ली है। हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, अब तक ऐसा सुना नहीं कि किसी आदमी को दुबारा मारना पड़ा हो। लेकिन राजनैतिक बड़े कैल्कुलेटिंग हैं, सब हिसाब लगाकर रखते हैं कि कोई भूल-चूक से बच जाए, ऐसी गलती नहीं करनी है। एक-एक आदमी को सात-सात बार मारने का आयोजन है। और वह आयोजन भी इतना हिंसक कि वह हमारी कल्पना के बाहर है। हम कल्पना भी न कर सके हैं। हिरोशिमा और नागासाकी में जो एटम बम गिरा था, उसकी कहानी ठीक-ठीक पढ़ लेना, मत पढ़ना रामायण, मत पढ़ना गीता, लेकिन हिरोशिमा-नागासाकी ठीक से समझ लेना। क्योंकि जिंदगी कल उसी तरह होने वाली है। जो नागासाकी और हिरोशिमा में हुआ है।
एक मेरे मित्र ने जापान से मुझे एक तस्वीर भेजी, एक छोटे से बच्चे की तस्वीर है, बच्ची की। एक नौ साल की लड़की हिरोशिमा में, रात में खाना खाकर अपनी सीढ़ियों से चढ़ रही है, ऊपर जा रही है, बगल में बस्ता लटकाया हुआ है, किताबें हैं, स्लेट है, वह होमवर्क करने अपने ऊपर के कमरे में जा रही है। तभी हिरोशिमा में एटम बम गिरा। बीच सीढ़ी पर ही वह लड़की राख होकर दीवाल से चिपक गई है। अपने मय बस्ते, अपनी मय किताबों के। तस्वीर मुझे किसी ने भेजी है। उस बच्ची ने कभी सोचा होगा कि ये सीढ़ियां भी पूरी नहीं हो पाएंगी? होमवर्क करना तो बहुत दूर है। क्या पता होगा उस निरीह बच्ची को कि बस खत्म हो जाना है आधी सीढ़ियों पर? पूरा गांव खत्म हो जाना है। एक लाख बीस हजार लोग एकदम से ठंडे हो जाने हैं। तुम पढ़ रहे हो, स्कूलों में, कालेजेज में , तुम्हारे मां-बाप, तुम्हारे शिक्षक आशाएं बांधे हुए हैं, तुम भी बड़े सपने देखते होंगे जिंदगी के लेकिन तुम्हें पता नहीं कि दिल्ली और कराची में, मास्को और पेचिंग में जो लोग बैठे हैं, वो इंतजाम कर रहे हैं कि होमवर्क पूरा न हो पाए। किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है। जो मिसाइल आज मास्को और अमरीका के पास हैं, आज जिन हाइड्रोजन बमों और एटम बमों को उन्होंने अंबार लगा लिया है, वे खुद भी घबड़ा गए हैं कि एक आदमी का दिमाग खराब हो जाए, सिर्फ एक आदमी का, और पूरे तीन अरब आदमियों को खत्म कर सकता है। तो आज मास्को और न्यूयार्क में और वाशिंगटन में, जो सबसे बड़ी फिकर करनी पड़ रही है, वह यह कि एटम बमों की चाबी किस तरह रखी जाए। मान लो तुम्हारे हाथ में चाबी है, और पत्नी से झगड़ा हो गया, तुमने सोचा भाड़ में जाने दो इस दुनिया को, तुमने एक मिसाइल का उपयोग कर दिया। क्या किया जाए? और आदमी में ऐसे मौके आते हैं। पत्नी से झगड़ा होना तो दूर है, कलम तक ठीक से न चलती हो, तो दुनिया खत्म कर देने का दिल होने लगता है। साइकिल पंचर हो जाए, तो गुस्सा आ जाता है, सारी दुनिया पर।
ऐसे कमजोर आदमी के हाथ में इतनी बड़ी ताकत होनी बड़ी खतरनाक है। तो एक-एक मिसाइल को चलाने की तीन-तीन चाबियां हैं और तीन-तीन लोगों के पास हैं, जब तक वे तीनों न मिलें किसी मिसाइल का प्रयोग नहीं किया जा सकता। लेकिन तीन पागल भी इकट्ठे हो सकते हैं। इसमें क्या कठिनाई है? बल्कि अक्सर ऐसा होता है कि तीन बुद्धिमान आदमियों को इकट्ठा करना मुश्किल होता है, तीन पागलों को इकट्ठा करना बिलकुल आसान होता है। तीन बुद्धिमान आदमी इकट्ठे करने बहुत मुश्किल बात है। लेकिन तीन मूर्ख अक्सर इकट्ठे मिल जाएंगे। सच तो यह है कि मूढ़ों के सिवाय कोई संगठित होता ही नहीं है। बुद्धिमान आदमियों के कोई संगठन नहीं है, क्योंकि बुद्धिमान आदमी अकेला जीता है। बुद्धिमान आदमी अपने को पर्याप्त मानता है, जीने के लिए, किसी दूसरे का सहारा नहीं मांगता। जिनकी अपनी बुद्धि नहीं है, वह आॅर्गनाइजेशंस खड़े करते हैं। फिर चाहे आॅर्गनाइजेशन राजनीति के हों, चाहे धर्म के हों। आॅर्गनाइजेशंस मात्र नासमझ, नादान, बुद्धिहीन लोगों की ईजाद है। और जब तक दुनिया में बुद्धिहीन लोग हैं, तब तक संगठन रहेंगे, और हर संगठन खतरनाक है। क्योंकि हर संगठन किसी दूसरे के खिलाफ होता है। हिंदू इसलिए इकट्ठे होते हैं कि मुसलमान के खिलाफ हैं, मुसलमान इसलिए इकट्ठा होता है कि हिंदुओं के खिलाफ है। दुनिया में कोई संगठन मनुष्यता के लिए नहीं है। सब संगठन मनुष्य की हत्या के लिए हैं। भारत इकट्ठा होता है, पाकिस्तान के खिलाफ, पाकिस्तान इकट्ठा होता है भारत के खिलाफ; चीन इकट्ठा होता है किसी और के खिलाफ। हम सब इकट्ठे होते हैं घृणा के लिए, हिंसा के लिए, मिटाने के लिए। यह इतनी हिंसा का प्रादुर्भाव अगर है जगत में, और अब वो चरम सीमा पर पहुंच रहा है और वहंा पहुंच रहा है, जहां सब समाप्त हो सकता है। तो फिर इस पूरी शिक्षा को सोच लेना पड़ेगा कि यह शिक्षा जुरूर मनुष्य के भीतर दानव को मुक्त करती है। मानव को मुक्त नहीं करती। यह मनुष्य को किसी ऐसी दिशा में ले जाती है, जहां अंधकार की शक्तियां तो मुक्त हो जाती हैं, प्रकाश की सारी शक्तियां क्षीण हो जाती हैं। यह शिक्षा मनुष्य को शैतान की तरफ अनुप्रेरित करती है, भगवान की तरफ अनुप्रेरित नहीं करती है। यह हमें ठीक से समझ लेना जरूरी है। और यह जरूरत आज से ज्यादा महत्वपूर्ण कभी भी नहीं थी, क्योंकि आज से पहले मनुष्य के हाथ में इतने खतरनाक शस्त्र नहीं थे। अब हमारे पास जो शस्त्र हैं, वे टोटल डिस्पेक्शन के हैं। वे पूर्ण विध्वंस के हैं। अब तक जो युद्ध हुए थे, वे अर्द्ध युद्ध थे, खंड युद्ध थे, अब जो युद्ध होगा वह टोटल वार है, वह पूर्ण युद्ध है। पूर्ण युद्ध का मतलब होता है जिसमें कोई नहीं जीतेगा। पहली बात। पूर्णयुद्ध का मतलब होता है, लड़ने वाले दोनों मरेंगे, सिर्फ फर्क इतना होगा कि हारा हुआ वह समझा जाएगा, जो दो क्षण पहले मरेगा, जीता हुआ वह समझा जाएगा जो दो क्षण बाद मरेगा। बस इतना ही सुख रहेगा आखिर में कि हम जरा देर से मरे। देर से रूस मरे कि अमरीका, इतना ही फर्क पड़ेगा। लेकिन पूर्णयुद्ध का मतलब यह है कि दोनों बाजियां एक साथ खत्म हो जाएंगी। क्योंकि दोनों के पास समान शस्त्र हैं, समान हिंसक...। पूर्णयुद्ध का मतलब यह है कि हमने जो शस्त्र विकसित किए हैं, उनके समक्ष जीवन की क्षमता बहुत कम पड़ गई है, मृत्यु की क्षमता पूर्ण हो गई हैं। आदमी का जीवन बहुत ही मिरेकल है, चमत्कार है।
शायद आपने कभी भी न सोचा होगा कि आदमी के जीवन की क्षमता कितनी संकीर्ण है। इसलिए तो इतने बड़े विस्तारपूर्ण विश्व में जहां अनंत विस्तार है, ऐसा लगता है कि शायद अकेली पृथ्वी पर ही जीवन प्रकट हो सका है। कितना विस्तार है जगत का! यह हमारी पृथ्वी तो बहुत छोटी सी है, इससे साठ हजार गुना बड़ा सूरज है। और सूरज दुनिया में सबसे छोटा सूरज है। उससे करोड़ों गुना बड़े सूरज हैं, जिनको हम रात में तारे कहते हैं। कोई भी तारा नहीं है, वे सब बड़े सूरज हैं। जो सूरज से करोड़ों गुना बड़े हैं। लेकिन फासला इतना ज्यादा है कि इतने छोटे दिखाई पड़ते हैं। अंतहीन फासला है। जमीन से सूरज की दूरी दस करोड़ मील है। लेकिन सूरज बहुत करीब है हमारे, बहुत ही करीब है, दस करोड़ मील कोई दूरी ही नहीं है। प्रकाश की किरण चलती है, एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील, सूरज की किरण को पहुंचने में कोई आठ-साढ़े आठ मिनट जमीन तक लगते हैं। सूरज बहुत करीब है। सूरज बहुत करीब है। सबसे निकट का जो तारा है उसकी किरण पहुंचने मंे चार वर्ष लगते हैं। उसी रफ्तार से चलती है किरण-एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। वह सबसे निकट का जो तारा है उसे चार वर्ष लगते हैं। जो थोड़े दूर के तारे हैं, उनसे सात वर्ष लगते हैं। जो और दूर के तारे हैं हजार-दो हजार, लाख-दस लाख, करोड़-दस करोड़, अरब-दस अरब, ऐसे तारे हैं जिनसे चली हुई किरण अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची और चली थी तब जब पृथ्वी बनी थी। पृथ्वी को बने चार अरब वर्ष हो चुके हैं। और ऐसे भी तारे होंगे, जिनकी किरण शायद पृथ्वी पर कभी नहीं पहुंचेगी। इतने अंतहीन दूरी पर उनका विस्तार होगा। अब तक दो अरब तारों के संबंध में बोध हो चुका है। इतने बड़े विस्तीर्ण जगत में ऐसा लगता है, कि सिर्फ पृथ्वी पर ही जीवन प्रकट हुआ है। जीवन के प्रकट होने की सीमा इतनी संकीर्ण है, कि सारे इतने विस्तीर्ण जगत में, जीवन के पैदा होने का अवसर कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सका है। और हम भी जानते हैं। इधर छियानवे डिग्री से नीचे हमारी गर्मी गिर जाए कि आदमी खत्म। उधर एक सौ दस डिग्री के ऊपर गर्मी बढ़ जाए कि आदमी खत्म। इधर चैदह डिग्री के बीच में आदमी के जीवन का फैलाव है। इतनी सी संकीर्ण जीवन की क्षमता है हमारी इस जीवन के सामने मृत्यु की हमने अनंत क्षमता को मुक्त कर दिया है। अनंत क्षमता को। एक उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी पैदा होगी, वह गर्मी उतनी ही होगी जितनी सूरज पर है, दस करोड़ डिग्री। दस करोड़ डिग्री गर्मी में किसी तरह का जीवन बच सकता है? उस तरह का जीवन बच सकता है जिनकी एक सौ दस डिग्री के ऊ पर गर्मी चली जाए और वो खत्म हो जाते हैं।
एक सौ दस डिग्री पर जिनका जीवन नष्ट हो जाता हो उन्होंने इंतजाम कर लिया है, दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करने का। सौ डिग्री गर्मी पर पानी भाप बनता है, अगर तुम्हें उठा कर उस उबलते हुए पानी में डाल दिया जाए, तो गर्मी का सुख आएगा। लेकिन वह बहुत थोड़ा सुख है, अगर असली सुख लेना हो तो वह काफी नहीं है। पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी बन जाता है, उसमें डालना चाहिए किसी को। लेकिन उसमें भी पूरा मजा नहीं आएगा। पच्चीस सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भाप बन कर उड़ने लगता है, उसमें डालना चाहिए किसी को, लेकिन आदमी का दिल इससे भी नहीं भरता। उसने दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करने के उदजन बम तैयार किए हैं। उनमें हम डालेंगे आदमियत को, तब मजा आएगा पूरा। एक उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी का क्षेत्र होगा, वह होगा चालीस हजार वर्ग मील। चालीस हजार वर्ग मील में एक उदजन बम दस करोड़ डिग्री की भट्टी बना देगा। उस जलती हुई भट्टी में आदमी उतरने की तैयारी कर रहा है, इस आदमी के मन को स्वस्थ कहा जा सकता है? और अगर यह स्वस्थ है तो विक्षिप्त किसको कहते हैं? पागल किसको कहते हैं?
यह क्या है? यह कैसे संभव हुआ? मेरी दृष्टि में हमारी शिक्षा का पूरा यंत्र विकृत और विक्षिप्त है। इसलिए कुछ सूत्र शिक्षा के इसके अंत के बाबत कहना चाहता हूं कि ये क्यों विक्षिप्त है? पहली बात, पूरी की पूरी शिक्षा ईष्र्या सिखाती है। पूरी शिक्षा जेलेसी सिखाती है। पूरी शिक्षा हिंसात्मक है, वायलेंट है। पूरी शिक्षा हिंसा की दीक्षा देती है। क्यों? क्योंकि पूरी शिक्षा अहंकार को पोषण देने के आधार पर खड़ी है। एक-एक बच्चे के अहंकार को हम फुसलाते हैं और कुछ भी नहीं करते। पहली ही कक्षा में बच्चे भरती हुए, और बाप चाहते हैं कि मेरा लड़का प्रथम आ जाए, शिक्षक भी चाहता है कि प्रथम आना। लेकिन कोई नहीं पूछता कि प्रथम आने की दौड़ सिखानी अहंकार की दौड़ सिखानी है। जो आदमी दूसरों से प्रथम होने की कोशिश करता है, वह कर क्या रहा है? वह यह कहता है कि मैं कुछ हूं, समबडी। मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। मैं प्रथम हूं। और यह जो प्रथम होने की दौड़ में जिस आदमी का चित्त पड़ जाता है, वह अनिवार्य रूप से हिंसक हो जाता है। फिर ऐसे ही व्यक्ति मिलकर समूह बनाते हैं, फिर समूह भी प्रथम होने की दौड़ में लग जाते हैं, फिर ऐसे ही व्यक्ति मिल कर राष्ट्र बनाते हैं, फिर राष्ट्र प्रथम होने की दौड़ में लग जाते हैं। सारी दुनिया में युद्ध का कारण क्या है? कि हर राष्ट्र प्रथम होने की दौड़ में है। कोई राष्ट्र किसी से पीछे नहीं खड़ा रहना चाहता। क्या दुश्मनी है अमरीका और रूस के बीच। क्या दुश्मनी है हिंदू और मुसलमान के बीच? क्या दुश्मनी है, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच? क्या दुश्मनी है, कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों के बीच? एक दुश्मनी है कि कौन प्रथम। हू इ.ज टू बी दा फस्र्ट? कौन होगा पहले? कौन सिखाता है यह पहले होने की दौड़? हमारी पूरी शिखा का तंत्र सिखाता है। पूरी शिक्षा का तंत्र कहता है दूसरों से पहले होने वाला आदमी धन्य है। हद हो गई, बीमारी सिखाते हो और कहते हो धन्यता है। इसी पत्थर के ऊ पर टकरा कर आदमी की नाव टूट गई है।
जीसस क्राइस्ट एक अदभुत बात कहते हैं, लेकिन जीसस क्राइस्ट की कौन सुनेगा? हम सूली पर लटका देते हैं, ऐसे नामसमझ आदमियों को। ऐसे जीसस क्राइस्ट वगैराह को हम सुनते नहीं। अगर ज्यादा जोर से बोलने लगते हैं, गर्दन काट देते हैं, कि ऐसे आदमी अच्छे नहीं, इनको अलग करो। कुछ मामला ऐसा है जैसे अंधों की बस्ती में कोई आंख वाला आदमी आ जाए, तो अंधे मिल कर उसकी आंख का आपरेशन कर दें, कि यह आदमी गड़बड़ है। आंख कहीं होती है? इस आदमी को कुछ गड़बड़ चीज पैदा हो गई है, अलग करो, इसका दिमाग खराब है। ऐसी चीजें इसको दिखाई पड़ती हैं, जो हमें नहीं दिखाई पड़तीं। हो कैसे सकती हैं, जब हम सबको दिखाई नहीं पड़तीं। जीसस का आॅपरेशन कर डालते हैं, खत्म करो इस आदमी को। सुकरात को जहर पिला देते हैं, गांधी को गोली मार देते हैं। ये आदमी ठीक नहीं है, ये गड़बड़ बातें कहते हैं, हम जो कहते हैं, हम जो मानते हैं, उससे उल्टी बातें बताते हैं ।
जीसस कहता हैं, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। अदभुत बात है। धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। मेरी दृष्टि में भी मनुष्य के जीवन में श्रेष्ठतम का जन्म उस क्षण होता है, जब वह अंतिम खड़े होने की सामथ्र्य जुटा लेता है। लेकिन सारी शिक्षा कहती है, प्रथम खड़े हो, प्रथम खड़े होओ। सारी मनुष्यता नष्ट हो जाती है। वह प्रथम होने का जो पागल, फीवरेस्ट दौड़ शुरू होती है, विक्षिप्त दौड़ शुरु होती है, वह इतने चक्कर में डाल देती है, आदमी को कि कभी चैन नहीं। चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक बेचैन हैं। चपरासी को और बड़ा चपरासी होना है, राष्ट्रपति को और बड़े राष्ट्र का राष्ट्रपति होना है, और सब भाग रहे हैं। चपरासी की बुद्धि में और राष्ट्रपति की बुद्धि में रत्ती भर भेद नहीं। वह जो बुद्धि है, वही प्रथम होने की है। पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे में और सत्तर साल के बूढ़े आदमी में कोई भेद नहीं, वह जो बुद्धि है वही प्रथम होने वाली है। बस आगे खड़ा होना है, सारी दुनिया से आगे खड़े हो जाएं, लेकिन किसलिए? आगे खड़े होने से मिलता क्या है? आगे खड़े होने से भीतर की सारी शांति खो जाती है, क्योंकि आगे खड़े होने के लिए संघर्ष, आगे खड़े होने के लिए हिंसा, आगे खड़े होने के लिए दूसरों के सिर को सीढ़ी बनाना पड़ता है। और आगे खड़े होने के लिए जो भी बीच में बाधा पड़ती है, उनको शत्रु बनाना पड़ता है। इसलिए पूरी मनुष्य-जाति एक दूसरे की शत्रु हो गई। तुम कभी मत सोचना यह, कक्षा में तुम पढ़ते हो, लेकिन कहते हो हम सहपाठी हैं, सह शत्रु हैं। कोई सहपाठी नहीं है। क्योंकि सब एक-दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे हो, साथी कैसे हो सकते हो? मित्र कैसे हो सकते हो? तीस बच्चे पढ रहे हैं एक कक्षा में, तीसों एक-दूसरे की जान के पीछे हैं कि हम आगे निकल जाएं। बाकी उनतीस पीछे छूट जाएं तो उस कक्षा में तीस दुश्मन हैं, जो प्रथम होने की कोशिश में लगे हैं, दोस्ती ऊ परी है, झूठी है, बुनियाद में दुश्मनी चल रही है।
क्या हम एक ऐसी शिक्षा विकसित नहीं कर सकते, जो व्यक्ति को प्रथम होने की दौड़ में न लगाती हो। अगर ऐसी शिक्षा विकसित नहीं होती तो आदमी खत्म। बंदरों को फिर से सोचना पड़ेगा, शैल बी स्टार्ट अगेन? मुझे लगता है कि ऐसी शिक्षा का तंत्र हो सकता है, जो प्रथम की दौड़ न सिखाए। क्या जरूरत है उस दौड़ की। क्या हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने विषय में रस लेना नहीं सिखा सकते हैं? क्या हम एक ही गति देने का एक ही सूत्र जानते हैं कि दूसरे के अहंकार से प्रतियोगिता करो। एक आदमी इसलिए भी संगीत सीख सकता है कि उसे संगीत सीखना आनंदपूर्ण है। और एक आदमी इसलिए भी संगीत सीख सकता है कि उसकी बरदाश्त के बाहर है कि दूसरा आदमी संगीत सीख ले। एक आदमी इसलिए भी संगीत सीखने में पागल की तरह लग सकता है कि उसे दूसरे संगीतज्ञ को पीछे छोड़ देना है। और एक आदमी इसलिए भी संगीत सीख सकता है कि संगीत में गहरे से गहरे उतर जाना, अपूर्व आनंद की यात्रा पर। एक आदमी दूसरे से जब प्रतियोगिता करता है, तो उसे संगीत से कोई भी प्रयोजन नहीं है।
संगीत केवल बहाना है, जिस बहाने वह अपने अहंकार की दौड़ को आगे बढ़ा रहा है। सच तो यह है कि जो संगीत को प्रेम करता है, वह दूसरे संगीतज्ञ की फिकर ही नहीं कर सकता। उसके लिए वह और संगीत के अतिरिक्त दुनिया में कोई भी नहीं है। हां, निश्चित ही जो संगीत को प्रेम करता है, वह भी एक तरह की प्रतियोगिता करेगा, लेकिन दूसरे संगीतज्ञ से नहीं, अपने ही कल के संगीतज्ञ से। वह जो कल था मैं, उससे मैं आगे निकल जाऊं। मैं जो कल था, उससे आगे निकल जाऊं। क्योंकि कल जो मैंने आनंद जाना, उससे गहराई में और आनंद होगा। मैं रोज अपने को पार करूं, दूसरे को नहीं। दूसरे को पार करना हीनता है, अपने को पार करना विकास है। मैं रोज अपने को पार कर जाऊं , ट्रांसेंट कर जाऊं, कल सुबह सूरज ने जहां मुझे पाया था, डूबता हुआ सूरज भी मुझे वहां न छोड़े। कल डूबते सूरज ने मुझे जहां पाया था, आज सुबह का सूरज मुझे वहां न पाए। अन्यथा वह सूरज कहेगा बेकार जीए इतनी देर, क्या किया तुमने? खो दिया इतना क्षण, जीवन बहुत छोटा है। मैं रोज बढ़ता रहूं, किसी दूसरे से नहीं, बढ़ने में कोई कंपेरिजन जब आ जाता है तो हिंसा शुरु हो जाती है। बढ़ने में कंपेरिजन नहीं, बढ़ने में तुलना नहीं, कभी भूल कर कंपेरिजन मत करना किसी दूसरे से। सदा अपने से।
मृत्यु के क्षण तक बढ़ते जाना लेकिन अपने से, रोज आगे, दूसरे पर ध्यान मत देना। दूसरे की चिंता भी क्या है, कि दूसरा कहां जाता है? दूसरे से प्रयोजन क्या है? दूसरे के प्रयोजन में जो संलग्न हो जाता है, वह अपने को भूल जाता है। और मैं आपसे कहता हूं, हमारी शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आत्मा भुला देती है, क्योंकि वह दूसरे पर उसको कनसनट्रेट करवाती है। वे कहते हैं दूसरे क्या कर रहे हैं? बाप कहता है, देखते नहीं, पड़ोसी का लड़का कहां निकला जा रहा है। यह बाप खतरनाक है। पड़ोसी के लड़के पर ध्यान दिलवा रहे हो तुम अपने लड़के का ध्यान उसके भीतर ले जाओ, उसकी अपनी आत्मा पर। उससे कहो तेरी आत्मा कहां जा रही है, इसकी फिकर कर। तू कहां जा रहा है, इसकी फिकर कर। दूसरे से तुलना सिखाई, कि आदमी विकृत हुआ। तुलना विकृति का सूत्र आधार है। और हमारी पूरी शिक्षा कंपेरिजन सिखाती है। वह ग्रेडेशन करती है। यह आदमी दस नंबर पर, वह आदमी बारहवें नंबर पर, यह आदमी पचास नंबर पर, ग्रेडेशन करती है। इस ग्रेडेशन के दो दुष्परिणाम होते हैं, जो आदमी प्रथम आ जाता है, वह बिगड़ जाता है, इसलिए उसके अहंकार को पोषण मिलता है कि मैं कुछ हूं।
देखो न, जरा मिनिस्टरों को रास्तों पर चलते देखो, राष्ट्रपतियों को रथों में देखो। सेनापतियों को घोड़ों पर सवार देखो। देखों उनकी आखों में है क्या? किस बात से वे आनंदित हैं? आनंद जैसी कोई भी चीज उनके पास नहीं है। सिर्फ एक है आनंद, दूसरों को हमने नीचा दिखा दिया है। दूसरे धूल पर चल रहे हैं, वे रथों पर सवार हैं। इसके सिवाय कोई आनंद नहीं हैं। और बड़े मजे की बात है कि दूसरा धूल में चल रहा है, इससे आपको कैसे आनंद आ सकता है? यह बड़े मजे की बात है कि दूसरा गिर गया है, इससे आपको कैसे आनंद आ सकता है? यह आनंद रुग्ण है।
एक गांव में मैं जाता था, एक मित्र के घर ठहरा। उन मित्र ने एक बहुत बड़ा भवन बनाया। उस गांव में सबसे बड़ा भवन था। वही भवन था। बाकी सब झोपड़े थे। तीन दिन उनके घर रहा, कोई भी बात चले, घूम-फिर कर बात उनके भवन पर ही आ जाती थी। बस वो थोड़ी-बहुत देर में ऐसा लगता था कि वे चैबीस घंटे भवन का ही चिंतन करते हैं। कुछ भी बात चले, कोई भी बात, ऐसी कोई बात नहीं थी जो अनिवार्य रूप से भवन पर न लाते हों, ऐसा कोई रास्ता नहीं था जो रोम न पहुंच जाता हो। सब घूम कर वहीं पहुंच जाता था। भगवान से बात करो, और भवन पर खत्म होती थी। स्वाभाविक बड़े खुश थे, बड़े आनंदित थे। दो साल बाद उनके घर में फिर मेहमान हुआ। जाते से मैंने सोचा कि फिर वही भवन शुरु होगा। रात थी, मैं बहुत देर तक प्रतीक्षा किया, भवन नहीं आया, मैंने कहा रास्ते गड़बड़ हो गए। कोई डायवर्जन हो गया, क्या हुआ? रास्ते मकान पर नहीं पहुंच रहे। फिर जब सोने लगा तो मैंने कहा,क्या बात है इस बार आप भवन की बात नहीं करते। वे बड़े उदास होकर कहाः क्या खाक बात करूं, आपको शायद पता नहीं, सुबह पता चलेगा। मैंने कहा क्या मामला है? उन्होंने कहा पड़ोस में एक मकान बन गया है, जो इससे भी ऊंचा है। पर मैंने कहाः पड़ोस का मकान बने या न बने तुम्हारा मकान तो ठीक वैसा ही है। तो उन्होंने कहाः कहां ठीक वैसा ही है, माना कि मेरा मकान तो वैसा ही है, लेकिन सब बात बदल गई। जब तक उस मकान से ऊंचा न कर दूं, तब तक चैन नहीं मिलेगा। तो मैंने कहाः अब मैं तुमसे कहूं कि वह जो खुशी तुम्हारी थी, जब मैं दो साल पहले आया था, वह भी तुम्हारे मकान से संबंधित न थी, वह भी बगल में खड़े झोपड़ों से संबंधित थी। वो झोपड़े नीचे थे, उनसे तुम खुश हो रहे थे, हालांकि तुम कह नहीं रहे थे कि झोपड़ों को देख कर मैं खुश हो रहा हूं।
लेकिन यह आदमी कैसा है? स्वास्थ्य का आनंद अपने स्वास्थ्य से होता है कि फला आदमी को टी.बी. हो गई इसमें होता है? और अगर किसी को इस तरह के स्वास्थ का आनंद आने लगे, कि गांव भर में पता लगे किसको कैंसर हो गया है, किसको टी.बी. हो गई, कौन मर गया है? और प्रसन्न हो कि आज फलां मर गया, हम जिंदा हैं। अगर दूसरे के मरने से खुद की जिंदगी का पता चले, तो समझ लेना कि तुम बहुत पहले मर चुके हो। अगर दूसरे की बीमारी से तुम्हें अपने स्वास्थ में रस आए, तो समझ लेना कि तुम्हारे पास स्वास्थ्य नहीं है। क्योंकि जिसके पास स्वस्थ्य होता है, उसे अपने स्वास्थ्य से आनंद आता है। दूसरे की बीमारी से उसका कोई भी संबंध नहीं है। जिस आदमी के पास अपना स्वास्थ्य होता है, उसे दूसरे की बीमारी से आनंद तो कभी हो ही नहीं सकता। दूसरे की बीमारी से दुखी जरूर हो सकता है। जिस आदमी के पास अपना जीवन है, वह दूसरे के मरने से कभी खुश नहीं होता। लेकिन दूसरे के जीवन के खो जाने से दुखी जरूर हो सकता है। आज हालत बिलकुल उलटी है, शीर्षासन करती हुई। दूसरे के दुख से मिलता है, सुख। दूसरे की मौत से लगती है, अपनी जिंदगी। दूसरे के हार जाने में आती है, अपनी विजय। दूसरे के गिर जाने में लगता है, अपना उठना। यह सारी की सारी शीर्षासन करती हुई सभ्यता हमारी शिक्षा का फल है। और वह शिक्षा हमें सिखाती है, प्रथम होना। वह बीमारी का पहला बीज है। एक ऐसी शिक्षा चाहिए जो व्यक्ति को दूसरे की स्पर्धा में नहीं, स्वयं की स्पर्धा में खींच कर लाती हो। एक बात।
और दूसरी बात यह पूरी की पूरी शिक्षा का तंत्र अत्यंत बोरिंग, बोर्डम पैदा करने वाला है। इस तंत्र में न कोई रस है, न कोई खुशी है, न कोई नृत्य है, न कोई संगीत है। यह पूरा तंत्र बोर्डम की एक लंबी कथा है। पांच साल के छोटे बच्चों को...बड़े अच्छे लोग थे पहले, वे कम से कम सात साल में बोर्डम में दीक्षित करवाते थे। अब पांच ही साल में, रूस में वो फिक्र कर रहे हैं कि नहीं इतनी देर हो गई बहुत, तीन साल में । और कुछ रूस के शिक्षा शास्त्री कहते हैं कि दिन भर उनको शिक्षा देते हो, रात खाली चली जाती है, तो रात में भी टेप लगा कर कान में पिलो के पास बच्चे को सुलाओ, स्लीप टीचिंग होनी चाहिए। वह रात भर सोया भी रहे और उसकी खोपड़ी में रात भर टेप बोलता रहे। और वो सफल हुए जा रहे हैं, इसलिए टीचिंग के मैथड्स रूस में काम करना शुरु कर दिए हैं। वे कहते हैं कि इतनी देर क्यों खराब करनी, पांच-छह घंटे स्कूल में पढ़ाया और बाकी समय खराब होता है, बच्चा जब सोता है, तब भी उसका पीछा करो। बाप पीछा कर रहा है, मां पीछा कर रही है, पड़ोसी पीछा कर रहे हैं, गुरु पीछा कर रहे हैं, वाइस चांसलर पीछा कर रहा है; छोटे-छोटे बच्चों के पीछे इतने दुश्मन पड़े हुए हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं। और सब क्या कर रहे हैं? उसके जीवन में जरा सा भी रस नहीं पैदा होने दे रहे हैं, जरा सा भी आनंद, थिरक, पुलक नहीं पैदा होने दे रहे हैं। जाकर देखो आदीवासी के बच्चे को और देखो अपने बच्चे को, आदीवासी का बच्चा भूखा होगा, दुबला होगा, कमजोर होगा, शरीर पर चिथड़े नहीं होंगे, लेकिन देखो, उसकी आंख देखो, उसकी गति देखो, उसकी पुलक, उसमें वही रस मालूम होता है, जो एक हिरण के बच्चे में होता है। उसमें वही तीव्रता मालूम होती है, जो एक शेर के बच्चे में होती है। उसकी जिंदगी में वही लोच मालूम होती है, जो वृक्षों की शाखाओं में होती है, उसकी आंखों में वही झलक होती है, जो फूलों में होती है। हमारे बच्चे को देखो। पैदा हुआ कि बूढ़ा हो गया। बच्चे पैदा होने बंद हो चुके हैं, अब बूढ़े ही पैदा होते हैं। और हम सब उनके पीछे पड़े हैं कि कहीं कोई बच्चा पैदा हो जाए, तो बड़ी तकलीफ होती है, उसको हम कहते हैं प्राॅब्लम चाइल्ड। क्योंकि बूढ़ों की जमात में, बूढ़ों की दुनिया में अगर कोई बच्चा पैदा हो जाए तो बड़ी गड़बड़, बड़ा डिस्टर्बिंग मालूम पड़ता है। हम गीता पड़ रहे हैं और वह गाना गा रहा है, यह बिलकुल ठीक बात नहीं है। लेकिन किसने तुमसे कहा, गीता पढ़ने से तुम हकदार हो, वह गाना गाने का नहीं। और किसने कहा कि इस दुनिया में गीता पढ़ना ज्यादा कीमती है, और गाना गाना कम कीमती है, किसने कहा? बूढ़ों की वैल्यूज हैं, उन बच्चों की वैल्यूज का कोई मूल्य नहीं है। चार बूढ़े बैठ कर बातें कर रहे हैं, फिजूल ही बात करते हैं। बच्चों से कहते हैं, चुप रहो, गड़बड़ नहीं करो यहां, बहुत ऊंची बात कर रहे हैं, सुबह अखबार पढ़ा है, वही बकवास दिमाग में भर गई है, वही कर रहे हैं, कुछ और नहीं कर रहे हैं।
प्रेम जरूरी है, जिसके बिना गणित खतरनाक सिद्ध हो गया है। क्योंकि आदमी जिसके भीतर प्रेम नहीं है, उसके दिमाग में गणित बहुत खतरनाक हो जाता है। क्योंकि अकेला गणित हिंसक हो जाएगा। अकेले गणित की जो सोचने की तरकीब है, वह बहुत वायलेंट है।
मिलिटरी में जाओ, वहां आदमियों का नाम नहीं होता, नंबर होता है, ग्यारह नंबर का आदमी, गणित का उपयोग कर रहे हैं वो। अब ग्यारह नंबर का जो आदमी है, अगर उसका नाम कुछ हो, राम हो, कृ ष्ण हो, मोहम्मद हो, कुछ हो, तो उस आदमी की मां होगी, जो घर रास्ता देख रही है, अपने बेटे का युद्ध से लौट आने के लिए; उसकी पत्नी होगी, जो रात-रात भर नहीं सोती होगी, तड़पती होगी कि पता नहीं उसका पति वापस लौटेगा कि नहीं लौटेगा? उसके बेटे होंगे, उसकी बच्चियां होंगी, जो रोज सुबह स्कूल उदास जाते होंगे, कि उनका बाप युद्ध के मैदान पर गया हुआ है, लौटने का कोई पता नहीं है। उसके मित्र होंगे, प्रियजन होंगे। लेकिन उसका नाम रख दिया गया ग्यारह नंबर। अब ग्यारह नंबर की कोई मां होती है कि ग्यारह नंबर की कोई पत्नी होती है? बता सकते हो, ग्यारह नंबर की पत्नी का कितना नंबर होता है? वह आदमी मर जाएगा, तो मिलिटरी के गजट में छपेगा कि ग्यारह नंबर गिर गया। ग्यारह नंबर मर गया। जब तुम पढ़ोगे अखबार में कि ग्यारह नंबर मर गया, तो कहीं चोट लगती है हृदय में? कोई चोट नहीं लगती है। ग्यारह नंबर मर गया, मर गया होगा, नंबरों का क्या है। गणित सब्स्टीट्यूट बना रहे हो, वह प्रेम का, यंत्र को जगह दे रहे हो, आदमियत की। न प्रेम सिखाया जा रहा है, न ध्यान सिखाया जा रहा है, न क्रोध पर संयम सिखाया जा रहा है, न भीतर के जगत की भी भूगोल है, भीतर के जगत का भी बड़ा विस्तार है, उसमें कोई गति नहीं दी जा रही। और सिखाया क्या जा रहा है? सिखाया जा रहा है टिम्बकटू कहां है? सहारा रेगिस्तान कहां हैं? भाड़ में जाने दो सहारा को, आदमी सहारा हुआ जा रहा है। सब रेगिस्तान हुआ जा रहा है। क्या फिजूल की बातें सिखा रहे हो? नहीं मैं कहता हूं भूगोल व्यर्थ है, भूगोल सिखाओ थोड़ा-बहुत, भूगोल जानना जरूरी है, लोग बहुत भूगोल जाने यह भी जरूरी है, कुछ को भूगोल भी आनंद हो सकता है, वो पूरी जिंदगी भूगोल जानें, यह भी जरूरी है। लेकिन आदमी की जिदंगी में जो बहुत आधारभूत है, उसकी कोई फिकर नहीं। जिससे जिंदगी बनती है, उसकी कोई फिकर नहीं। चैबीस साल का लड़का निकलता है, दुनिया में आता है, वापस उसके पास कुछ भी नहीं है, मूल्यवान कुछ भी नहीं है। कोई वैल्यू नहीं है। हां, उसके पास सर्टिफिकेट्स हैं, कागज के। जिसमें किसी वाइस चांसलर ने दस्तखत करके दे दिया है कि ये आदमी कैरेक्टर का है। और वाइस चांसलर के खुद के कैरेक्टर का खुद का कोई ठिकाना नहीं है। ये कैरेक्टर लेकर तुम दुनिया में लेकर खड़े होओगे, चरित्रहीन लोगों के प्रमाण पत्र लेकर दुनिया में घूमना, फेंक देना, जला देना, मत ले जाना चरित्र का सर्टिफिकेट किसी से। क्योंकि जिनसे हम चरित्र का सर्टिफिकेट मांगे, उनके पास चरित्र नहीं है। और चरित्र उनके पास हो तो वाइस चांसलर होना बहुत मुश्किल है, यह भी ध्यान रखना। क्योंकि चरित्रहीन दुनिया में सिर्फ चरित्रहीन सीढ़ियां पार कर सकते हैं। चरित्रवान के लिए कोई रास्ता नहीं है।
ये सर्टिफिकेट्स हैं, या मैं बी.ए. पास हूं, या एम.ए. पास हूं, ये लेकर तुम जिदंगी में जाओगे, ठीक है एक दफ्तर में नौकरी मिलेगी। एक फैक्ट्री में काम करोगे, एक दुकान चला लोगे, एक स्कूल में मास्टर हो जाओगे। लेकिन ये आजीविकाएं हैं, जीवन नहीं है। ये लिविंग नहीं है, सिर्फ लिविंग के उपाय हैं। ये रोटी-रोजी कमाने का माध्यम हैं, इसका जिंदगी से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है। तो सारी शिक्षा सिर्फ रोटी-रोजी कमाने के योग्य बनाती है? और इस शिक्षा को हम शिक्षा कह देते हैं। रोटी-रोजी अशिक्षित को भी मिल जाती है। रोटी-रोजी जानवरों को भी मिल जाती है, पशु-पक्षियों को, पौधों को भी मिल जाती है। रोटी-रोजी ही कमाने योग्य अगर मनुष्य बन जाता है, तो ये कोई बड़ी गुणवत्ता न हुई, यह कोई मनुष्यता की बहुत ऊंचाई न हुई। यह कुछ उपलब्धि न हुई और हमारी सारी शिक्षा इसके आगे कहीं भी नहीं ले जाती। तो इसको कैसे इस शिक्षा को सम्यक कहा जा सकता है? जीवन में जो भी श्रेष्ठतम है, वह सिकुड़ जाता है, फैलता नहीं है, शिक्षित आदमी का। एक अशिक्षित आदमी ज्यादा प्रेमपूर्ण मिल सकता है, एक शिक्षित आदमी का प्रेम और सिकुड़ जाता है। क्योंकि वह कुछ तरकीबें सीख लेता है और उन तरकीबों को चलाने के लिए जरूरी है कि प्रेम कम हो। नहीं तो उन तरकीबों को चलाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वह कुछ तरकीबें सीख कर लौटा है, रुपये कमाने की, लोगों का गला घोटने की, लोगों की जेब में हाथ डालने की, वह सब तरकीबें सीख कर लौटा है। उन तरकीबों को चलाना और प्रेमपूर्ण होेना, दोनों साथ-साथ नहीं चल सकता। तो प्रेम को सिकोड़ना पड़ता है। वह तरकीबें सीख कर लौटा है कि असत्य जीतता है। हालांकि किताबों में भी यही लिखा हुआ है कि सत्य जीतता है। अब तक सत्य जीतता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। अब तक तो ऐसा लगता है कि सत्य रोज-रोज हारता है। फांसी पर लटकता है, सूली पर चढ़ता है, भूखा मरता है, सजाएं काटता है, अपमान झेलता है; सत्य अभी तक नहीं जीत पाया। सिर्फ किताबों में लिखा है कि सत्य जीतता है। असत्य जीतता है, यह बच्चा युनिवर्सिटी से सीख कर लौटता है। असत्य जीतता है।
जिंदगी का वहां जो अनुभव है, युनिवर्सिटी का, विश्वविद्यालय का, वहां से सीख कर लौटता है कि असत्यमेव जयते। और अगर असत्यमेव जयते, यह सूत्र समझ में आ जाए तो इसका उपयोग कभी मत करना, कहना हमेशा ‘सत्य मेव जयते’ वह भी एक असत्य है। कहना वही तो ही जीत सकोगे। अगर असत्य की दुकान खोलो तो बड़े-बड़े अक्षर ऊपर लिखना, सत्य यहां बिकता है, तो असत्य बिकेगा। नहीं तो असत्य भी नहीं बिक सकता। देखा होगा न, जहां-जहां अशुद्ध घी बिकता है, वहंा-वहां लिखा है, शुद्ध घी बिकता है। अगर शुद्ध ही बिकता हो, तो शुद्ध घी लिखने की जरूरत है? किसी से अभिनेता प्रेम करता है, तो कहता है बिलकुल शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। शुद्ध प्रेम भी होता है? प्रेम होता है या नहीं होता, शुद्ध प्रेम भी कहीं सुना है। लेकिन जिस दुनिया में सब अशुद्ध हो गया हो, वहां शुद्ध का लेबल हर चीज पर लगाना जरूरी है। तो यहां पूरी शिक्षा की दुनिया में असत्य को जीतते देखकर, बेईमानी को जीतते देखकर, अशुभ को जीतते देखकर, चालाकी को जीतते देख कर, पाखंड को जीतते देख कर एक बच्चा लौटता है। हम कहते हैं ये शिक्षित होकर लौट आया। इस बच्चे की दुनिया जो बनेगी वह दुनिया कैसे शांति की, प्रेम की, अहिंसा की, सत्य की, परमात्मा की दुनिया होगी? यह समाज कैसे परमात्मा का मंदिर बनेगा? तो मैं कहता हूं कि यह शिक्षा दूसरी जगह गलत है। और वह दूसरी जगह गलत यह है कि जीवन सिखाती ही नहीं। और जीवन के सिखाने का जो सबसे रहस्यपूर्ण और सबसे महत्वपूर्ण, और आधारभूत अंग है, वह है जीवन का रस सिखाना, जीवन का आनंद सिखाना, जीवन की उत्फुल्लता सिखानी। कोई फिकर नहीं कि एक सर्टिफिकेट कम रह जाए, कोई फिकर नहीं कि एक डिग्री नाम के पीछे कम लगाने को मिले, लेकिन अगर मुस्कुराते हुए ओंठ हों, हंसता हुआ हृदय हो, आनंद से नाचते हुए पैर हों तो तुम जिंदगी को जीत लोगे, पा लोगे, जान लोगे। और दुनिया में जितना रसपूर्ण व्यक्ति होगा, उतने ही युद्ध कम हो जाएंगे क्योंकि तुम्हें पता होना चाहिए, वाॅर्स आॅर बांड आउट आॅफ बोर्डम। युद्ध हमेशा बोर्डम से पैदा होते हैं।
तुम्हें पता होगा कि अभी हिंदुस्तान और पाकिस्तान की लड़ाई चलती थी, तब तुमने लोगों के चेहरे देखे? तब तुमने लोगों को देखा कि जो सात-आठ बजे, नौ बजे उठते थे, वो पांच बजे उठ कर पूछने लगते हैं, अखबार कहां है? रेडियो खोलने लगते, चमक देखी, लोगों की चाल में गति देखी, ऐसा उत्साह मालूम पड़ता था। कितने लोग खुश से मालूम पड़ते थे, कि कुछ हो रहा है। जिंदगी बेकार नहीं है, ऐसे सुबह उठे, सांझ सोए ऐसा नहीं, कुछ हो रहा है, कुछ घटना घट रही है। जिंदगी में कुछ हैपनिंग मालूम हो रही है, कि कुछ हो रहा है। जिंदगी एक रिपीटेटिव बोर्डम नहीं है, एक उदास चक्कर नहीं है, कि वही सुबह उठ आए, वही सांझ सो गए; कुछ हो रहा है, कुछ नया। युद्ध के वक्त में, दो महायुद्धों में पश्चिम के मनोवैज्ञानिक चकित रह गए, पहले महायुद्ध में, चार-पांच साल जब युद्ध चला, तो एक अदभुत घटना अनुभव में आई। वह अदभुत घटना यह थी कि उन पांच सालों में यूरोप में हत्याएं कम हुईं, आत्महत्याएं कम हुईं, डकैतियां कम पड़ीं, चोरी कम हुईं। मनोवैज्ञानिक चकित रह गए कि युद्ध से इन चीजों के गिराव का क्या संबंध हो सकता है? यह कभी सोचा भी नहीं गया था। यह मसला उलझ गया, यह पहेली बन गई, कि इन पांच सालों में ये सारे पाप नीचे क्यों गिर गए?
फिर दूसरा महायुद्ध हुआ और हैरानी हो गई। दूसरा महायुद्ध और बड़ा था, पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोग मरे थे, दूसरे में साढ़े सात करोड़ लोग मरे। दूसरे महायुद्ध में हत्याएं, आत्महत्याएं, चारी, डकैतियां, अपराध, मुकदमें और भी नीचे गिर गए। तब एक तथ्य खयाल में आया कि ऐसा मालूम पड़ता है, कि लोग इतने उदास, इतने ऊबे हुए होते हैं, कि कुछ करने का जी चाहता है और आदमी कुछ गलत कर लेता है। और जब तब युद्ध चलता है तो लोग इतने प्रफुल्लित होते हैं , इतने आनंदित होते हैं कि कुछ गलत करने का जी नहीं चाहता। और यह भी समझ में आया कि जब होलसेल गलती हो रही हो, तो फिर प्राइवेट करने की जरूरत क्या है? जब सामूहिक रूप से पागल हो गए हों लोग, तो अलग-अलग प्राइवेट होने की क्या जरूरत है, पागल। यह भी जान कर हैरान होओगे, दोनों महायुद्धों में उन क्षणों में लोग कम पागल हुए, जितने आमतौर से होते हैं। इसका मतलब यह है कि युद्ध लाता है हमारे चारों तरफ किसी तरह की ताजगी, कोई नई बात। और पुरानी ऊबी हुई जिदंगी मस्त हो जाती है। अगर दुनिया से युद्ध मिटाने हैं तो आदमी को इतना मस्त बनाओ कि उसकी जिंदगी मस्त हो, ताकि वह ऊबे न, ताकि वह ऊ बे न तो गलत चीजों में न जाए, अब सारे शिक्षक समझाते हैं, गुरु समझाते हैं, साधु-संन्यासी समझाते हैं कि लोग क्यों डिटेक्टिव फिल्म क्यों देखते हैं, नहीं देखनी चाहिए। देखेंगे लोग क्योंकि जिंदगी में कोई रस नहीं है, वहंा थोड़ी पुलक, थिर पैदा हो जाती है।
एक आदमी, एक हत्यारा लगा हुआ है, कार दौड़ा रहा है, एक सौ बीस मील की रफ्तार से किसी के पीछे। तुम्हारा हृदय भी जोर से धड़कने लगता है, तुम भी उस गाड़ी में सवार हो गए हो अंजाने। मोड़ आ रहे हैं तेज और झटके से गाड़ी मुड़ रही कि जरा में पहाड़ के नीचे गिरेगी और घाटी में उतर जाएगी। थ्रिल पैदा हो गई, तुम भी उठ आए हो, देखा रीढ़ ऊंची उठ जाएगी कुर्सी पर। हाॅल में देखना कि सब आदमी सजग हो गए हैं कोई आदमी टिका हुआ नहीं बैठा है। तुम्हारी रीढ़ क्यों सीधी हो रही है? कोई गाड़ी में तेजी से जा रहा है। आइडेंटिफिकेशन हो रहा है, तुमने अपने को इकट्ठा कर लिया, तुम पार्ट के हिस्से हो गए हो। गोली चल रही है।
तुमने देखा रास्ते पर कोई झगड़ा चल रहा हो, और तुम परीक्षा ही देने जा रहे हो, तो भी तबीयत होती है , खड़ी करो साइकिल, पहले देख लो झगड़ा। परीक्षा-वरीक्षा गौण है। भीड़ लगाए हैं लोग। खड़े हैं, उसमें तुम शिक्षित आदमी देखोगे, अशिक्षित आदमी देखोगे। एम पी, एम एल ए वहीं खड़े देखोगे। क्या रस आ रहा है? दो आदमी एक-दूसरे के कपड़े फाड़ रहे हैं, या गर्दन को दबा रहे हैं, तुम्हें क्या रस आ रहा है? जिंदगी इतनी ऊ बी हुई है कि कुछ नया हो रहा है, देख रहे हैं।
अमरीका में अभी उन्होंने एक नया खेल ईजाद किया है, जो शायद अब तक के दावों में सबसे खतरनाक है। एक नया खेल, सड़कों पर कारों को दौड़ाते हैं, दो कारों को दौड़ाते हैं दोनों तरफ से। एक लकीर रास्ते में डालते हैं, जिस पर दोनों तरफ से आती हुई कार का एक-एक पहिया होता है। इस तरफ से आने वाली का कार का बायां पहिया, उस तरफ से आने वाली कार का दायां पहिया। एक लकीर पर। दोनों गाड़ियों दौड़ रही हैं, सवा सौ मील की रफ्तार पर, कौन पहले नीचे गाड़ी उतार लेता है, वह हार जाएगा, इस पर दाव लगा है लाख डाॅलर का। दोनों गाड़ियां आ रही हैं, एक सौ पच्चीस मील की रफ्तार है, दोनों के चक्के एक ही लकीर पर हैं। एक सेकेंड में खतरा है, और जान खत्म हो जाएगी। गाड़ियां आग लग जाएंगी। कौन उतारता है पहले गाड़ी को नीचे वह हार गया। लाखों लोग देख रहे हैं। श्वासे रुक गई हैं, हृदय ठहरा हुआ है। क्या पागलपन है, क्या कर रहे हो ये, किसलिए?
स्पेन में जाओ तो वहां आदमियों को बैलों से लड़ा रहे हैं। लाखों लोग देख रहे हैं। एक आदमी की छाती में सांड के सींग घुस रहे हैं, और लाखों आदमी सांस रोककर देख रहे हैं। क्या हो गया है इस आदमी को? यह क्या कर रहे हो? यह आदमी का सारा जीवन रसहीन है। इस रसहीन जीवन में हमें रस के गलत रास्ते पैदा करने पड़ते हैं। रसपूर्ण बनाओ जीवन को, तो दूसरा सूत्र कहना चाहता हूं कि हमारी शिक्षा रसपूर्ण हो। नाचती हो,गाती हो, प्रफुल्लित हो, स्वतंत्रता हो, सहजता हो, स्वच्छंदता हो, जिंदगी एक बंधन न हो; पच्चीस वर्ष में जब एक युवक युनिवर्सिटी से लौटे तो नाचता हुआ, एक जानदार आदमी हो। तो उसकी जिंदगी में बोरडम नहीं होगी, ऊ ब नहीं होगी, उदासी नहीं होगी, वह एक अच्छी दुनिया बनाएगा, जो दुनिया भी नाचती हुई, हंसती हुई, खुश दुनिया होगी। उसे प्रेम दो, उसे संगीत दो, उसके हृदय को करुणा दो, दया दो; और हम दे रहे हैं हिंसा, हम दे रहे हैं प्रतिस्पर्धा, हम दे रहे हैं काम्पिटीशन, हम दे रहे हैं कंपेरीजन, हम जला रहे हैं उसके भीतर ईष्र्या की आग, पैदा कर रहे हैं अहंकार; और कह रहे हैं कि हम शिक्षा दे रहे हैं। नहीं यह शिक्षा असफल हो चुकी। एक नई शिक्षा चाहिए एक नये मनुष्य को पैदा करने के लिए।
ये दो छोटे से सूत्र मैंने कहे, और बहुत सूत्र होंगे, वे मैं फिर कभी आऊं तो बात करूं। इन दोनों सूत्रों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करे।

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