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सोमवार, 5 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(शिक्षा और विज्ञान)


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)          

पहला प्रश्न जो है...कि बाबत। संभव है यह बात। क्योंकि मन की क्षमता है कि समय और दूरी को पार करके अनुभव किए जा सकें। लेकिन मन की ही क्षमता है, आत्मा से इसका कोई संबंध नहीं। तो तीन बातें समझ लें एक तो शरीर की क्षमताएं वे विकसित की जाएं, तो एक आदमी राममूर्ति बन जाए। चेतना और आनंद की बात भी आपसे भिन्न नहीं हैं। सिर्फ फेफड़ों में जो छिपी हुई शक्ति है, वे उसको अगर पूरी तरह चेंज किया जाए, तो राममूर्ति अपनी छाती पर हाथी को खड़ा कर लें। छाती आपके पास भी वही है। लेकिन छाती की कितनी संभावना है, उसका अभ्यास आपके पास नहीं है। ठीक ऐसे ही मन की क्षमताएं हैं, मन की क्षमताओं का भी अभ्यास किया जाए, तो आप बहुत से चमत्कारी परिणाम उपलब्ध कर लेते हैं। ये सब क्षमताएं आपके मन की भी हैं। लेकिन उनके भी अभ्यास की जरूरत है।

तो अब तक जो वैज्ञानिक शक्ति जो है, कि दूरी, या स्थान या समय मन के लिए बाधा नहीं है। और अभी रूस में और अमरीका में, रोमानिया में, युगोस्लाविया में सारे मुल्कों में वैज्ञानिक साथ चलते हैं। और वैज्ञानिक शोध के लिए बड़े से बड़ा कारण यही रहा है, कि जैसे ही वो अंतरिक्ष में यात्री को भेजेंगे, तो सिर्फ यंत्रों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, क्योंकि यंत्र किसी भी क्षण खराब हो सकते हैं। अगर रेडियेटर खराब हो जाता है, अंतरिक्ष यात्रियों की कोई भी खबर कभी भी नहीं मिलेगी।
वे जीवित हैं, मर गए, कहां गए, क्या हुआ? अनंत में खो जाएंगे।
तो एक अल्टरनेट कम्युनिकेशन की जरूरत है कि किसी भी क्षण अगर रेडियो यंत्र काम न करे, तो हमारे पास कुछ और व्यवस्था होनी चाहिए जो कम से कम इतनी खबर दे सके कि रेडियो यंत्र खराब हो गए हैं। इतनी खबर दे सकें कि कहां है यात्री; क्या घटित हो रहा है? इसलिए रूस और अमेरिका दोनों के वैज्ञानिक मन की टैलीपैथिक क्षमता पर बहुत खोज में लगे हैं। पहली दफा उनकी उत्सुकता मन की टैलीपैथी के बाबत बढ़ी है, क्योंकि अब वही एक अल्टरनेट इंतजाम हो सकता है। क्योंकि दूसरा कोई भी इंतजाम यंत्र का ही होगा। और वह सभी रेडियो यंत्र पर निर्भर होगा। अगर रेडियो यंत्र खराब हो जाता है, तो खबर, संचार की फिर कोई व्यवस्था नहीं है। तो क्या हम मन से खबर भेज सकते हैं, बिना किसी यंत्र के इस चितां में वे लीन हैं। और जो परिणाम आए हैं वे बहुत...हैं, खबरें भेजी जा सकती हैं। और बड़े आश्चर्य की यह बात है कि रेडियो यंत्र से ज्यादा सुनिश्चित खबरें भेजी जा सकती हैं। और रेडियो यंत्र की बजाय ज्यादा निर्भर रहा जा सकता है। लेकिन सब व्यक्तियों के अध्ययन करने की बात है। सब व्यक्तियों को अध्ययन करने की बात है। अक्सर तो ऐसा होता है कि कुछ लोग संयोगिक रूप से विकसित हो जाते हैं। डीमिक्सन है, यह संयोगिक विकास है। अचानक किसी क्षण में कोई जागरूक हो जाता है, उसके पास यह क्षमता है। लेकिन उस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। क्योंकि विज्ञान तो निर्भर तब हो सकता है, जब यह प्रशिक्षित हो सके। तो रूस ने इस प्रशिक्षण के काम किए हैं। और ऐसे लोगों को प्रशिक्षित किया, जिनको जीवन में कभी ख्याल ही नहीं था कि उनके पास ऐसी क्षमता हो सकती है। और अब दूरसंचार भेजा जा सकता है। अगर रेडियो यंत्र अगर नब्बे प्रतिशत परिणाम देता है, जो पिचाानवे प्रतिशत परिणाम टैलीपैथी दे देती है। तो डीमिक्सन जो भी कर रही है, वह बिलकुल संभव है। उसमें कोई अड़चन नहीं है। और इस तरह के इस समय पृथ्वी पर कम से कम पचास लोग हैं। तो बहुत तरह की मन की संभावनाओं से भरे हुए हैं।
जैसे अमेरिका में ही और व्यक्ति हैं। एक व्यक्ति है जो न केवल मन से सांसारिक संबंधित हो जाता है, बल्कि आंखों में चित्र भी उपलब्ध कर लेता है। और उसकी आंखों के फोटोग्राफ भी लिए गए हैं। अगर वह अमेरिका में बैठ कर ताजमहल के बाबत चिंतन करता है, तो ताजमहल का चित्र उसकी आंख में आ जाता है। और वह चित्र आंख में ही नहीं आ जाता, वह उसको अनुभव होता है, उसका फोटोग्राफिक चित्र भी लिया जा सकता है। यह भी मन की दूसरी क्षमता है। अगर मन रेडियो की तरह काम कर सकता है, तो टी.बी. की तरह भी काम कर सकता है। लेकिन मेरा कोई संबंध ने तो केवल शरीर की शक्तियों से हैं और न मन की और मैं मानता हूं कि वे दोनो ही बौद्धिक हैं और उनका कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है। चमत्कार घटित हो सकते हैं, लेकिन ये चमत्कार इसीलिए मालूम पड़ते हैं कि उनके भीतरी नियमों का हमें कोई पता नहीं है। अन्यथा इस जगत में कोई भी चमत्कार नहीं है। और वह चमत्कार हो सकता है। चमत्कार का एक ही अर्थ है कि उसके भीतर काम करने वाले नियम अभी तक ज्ञान के क्षेत्र में प्रकट नहीं हो सके हैं। चमत्कार का अर्थ है हमारा अज्ञान। और चमत्कार का कोई भी अर्थ नहीं है। जिस दिन भी नियम व्यवस्थित ज्ञात हो जाते हैं, उसी दिन चमत्कार लीन हो जाते हैं। और मैं मानता हूं कि रूस और अमेरिका दोनों ही और विशेषकर रूस, क्योंकि रूस की तो कोई धारणा ही नहीं है कि भीतर कोई चमत्कारी संभावना है। सभी कुछ नियमगत और प्राकृतिक है। तो बहुत शीघ्र इन सारी चीजों के नियम ज्ञात हो जाएंगे और मेरी समझ यह है कि इस सदी के पूरे होते-होते जैसे हम और चीजों के भी प्रशिक्षण देते हैं, ठीक हम टैलीपैथी के लिए प्रशिक्षण दे सकेंगे। देना ही पड़ेगा। क्योंकि अंतरिक्ष की यात्रा के बाद साधारण आदमी के पास जो मन है, उससे काम नहीं चलेगा। जब हम अनंत के विस्तार में प्रवेश कर रहे हैं तो हमारे पास अनंत में प्रवेश करने योग्य सक्षम मन भी चाहिए। सिर्फ यंत्रों से काम नहीं होगा। तो मेरे लिए यह और भी मूल्यवान है कि चांद पर आदमी जा रहा है, मंगल पर जाएगा। चांद और मंगल का मेरे लिए मूल्य नहीं है, मेरे लिए मूल्य है कि चांद और मंगल पर जाने के लिए उसे चेतना के भी नये आयामों में प्रवेश करना पड़ेगा। जैसे ही हम तकनीकी दृष्टि से एक चीज में आगे बढ़ते हैं, वैसे ही हमें चेतना में भी उतना ही आगे बढ़ना पड़ता है। अन्यथा तकनीक में हम ज्यादा आगे नहीं जा सकते। जैसे एटम बम है, मैं मानता हूं कि यह बहुत ही सुखद खोज है, क्योंकि एटम बम के बाद आदमी को अब पुराने ढंग की बेवकूफियां छोड़नी पड़ेंगी, या बचेगा नहीं। एटम बम के साथ ही आपको एक जाग्रत चेतना विकसित करनी पड़ेगी, राष्ट्रीय चेतना अब काम नहीं कर सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय चेतना भिन्न साधनों से काम करती थी, वे साधन दो कौड़ी के हो गए। अब जो साधन आपके हाथ में हैं उनके लिए पूरी पृथ्वी उपयोगी है। अब आप छोटे मन से काम नहीं कर सकते। या आदमी को मिटना पड़ेगा। और आदमी मिटने को कभी राजी नहीं है। इसलिए बदलने को सदा राजी हो जाता है। लेकिन मुझे प्रयोजन नहीं है। मेरी उत्सुकता भी नहीं है। मुझे कोई अर्थ नहीं है कि चांद पर क्या हो रहा है, कहां क्या हो रहा है? एक ही प्रयोजन और एक ही उत्सुकता है कि अंतरतम में क्या हो रहा है?

प्रश्नः आपका चिंतन जनता तक क्यों नहीं पहुंचता, आप सिर्फ पैसे वालें के लिए चिंता और चिंतन करते हैं?

इसमें थोड़ी दूर तक सच्चाई है। एक तो मैं मानता हूं कि चिंतन जनता तक पहुंच सकता है, जितना गहन चिंतन होगा उतने थोड़े लोगों तक पहंुचेगा। जितना साधारण चिंतन होगा, उतने ज्यादा लोगों तक पहुंचेगा। क्योंकि पहंुचने में चिंतन ही मूल्यवान नहीं होता, वही अर्थ वहीं नहीं होता, जिस तक पहुंचना है, वह भी अर्थवान है। तो अगर चिंतन में बहुत गहराइयां हों तो आम जनता तक उसे नहीं पहुंचाया जा सकता। आम जनता का मतलब ही यही है, कि जो बहुत सतह पर जी रही है, और जिसे गहराई तक के सवाल नहीं पहुंचाए जा सकते। लेकिन मैं मानता भी नहीं हूं कि पहंुचाने जरूरी हैं। क्योंकि इस जगत को जो, जिसे समझ लें आप चिंतन करते हैं तो आपके मस्तिष्क में होता है, पैरों तक नहीं पहुंचता, पहुंचाने की जरूरत भी नहीं है। अगर मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है, तो पैर उसका अनुगमन करते हैं। जिसको हम आम जनता कहते हैं, वह कभी भी किसी चीज में अग्रणी नहीं होती, हो भी नहीं सकती। समाज के पास भी एक मस्तिष्क है, वही अग्रणी होता है। शेष समाज पीछे चलता है। जिन क्रांतियों को हम जनता की क्रांति कहते हैं, वे भी व्यक्तियों से अनुप्राणित होती हैं। तो माक्र्स का चिंतन, जनता का चिंतन नहीं है। माक्र्स को बैठ कर ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में चैबीस घंटें मेहनत में लगा हुआ है। और माक्र्स जनता तक पहुंचा भी नहीं सका अपने जीवन में कुछ भी। पहुंचा भी नहीं सकता। लेकिन इंटेलिजेंस...एक समझदार वर्ग को उसने पकड़ लिया, वहां तक बात पहुंच गई, वह मस्तिष्क है। एक दफा वह अनुप्राणित होता है और चल पड़ता है, तो जनता पीछे चलती है। मेरे लिए जनता का बहुत मूल्य नहीं है। मूल्य ही नहीं मेरे मन में। मेरे लिए मूल्य ही समाज के भीतर जो, बुद्धि है उसका मूल्य है। अगर उसको अनुप्राणित किया जा सकता है, तो जनता पीछे चल पड़ती है। जनता को सीधे अनुगमन करने का कोई भी उपाय नहीं है, एक बात।
दूसरी बात यह भी थोड़ी दूर तक सत्य है कि धनिक वर्ग मेरे निकट इकट्ठा होगा। इसे भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। जीवन जो हैं संयुक्त है। धन एकांगी घटना नहीं है। जहां धन है वहां शिक्षा भी ज्यादा होगी। जहां धन है, वहां समझ भी ज्यादा होगी; तुलनात्मक जहां धन है वहां समझ भी ज्यादा होगी, शिक्षा भी ज्यादा होगी, जहां धन है वहां सुविधा भी ज्यादा होगी; जहां धन है वहां समझने के लिए आकांक्षा भी ज्यादा होगी। उसका कारण है क्योंकि समझ को मैं लग्जरी मानता हूं। समझ गरीब आदमी का काम नहीं है। ही कैन नाॅट बी अफर्टेड। समझ समग्र जीवन की सबसे अधिक विलासपूर्ण अवस्था है। तो समझ का जो फूल है, वह विलास में खिलता है। बुद्ध हों या महावीर, ये सब विलास के फूल हैं। अगर एथेंस में प्लेटो और साक्रेटीज, और अरस्तू पैदा हुए तो वे सब लक्जुरियस एथेन, विलास के शिखर हैं। अगर भारत ने भी दुनिया को शीर्ष चंतन दिया, तो वह उसी समय दिया, जब भारत दरिद्र नहीं था। और उसके स्वर्ण शिखर पर उसकी ऊं चाई थी। आज तक दुनिया में कोई दरिद्र समाज कोई गहरा चिंतन नहीं दे सका। दे नहीं सकता। समृद्धि जो है, समृद्धि का मतलब इतना है कि अब शरीर की आम जरूरतों से छुटकारा हुआ। अब आपकी चेतना किन्हीं भिन्न आयामों में प्रवेश करने के लिए छूटती है। विलास का मतलब ही इतना है कि अब आप कला में, संगीत में, साहित्य में, धर्म में, ध्यान में रस ले सकते हैं।
गरीब आदमी का मतलब क्या है? गरीब आदमी का मतलब इतना है कि अभी उसकी शरीर की भी जरूरतों को पूरा करने की सुविधा उसके पास नहीं है। जिसके पास सुविधा शरीर की जरूरतों को पूरा करने की नहीं है, उसके पास मन की जरूरतें पैदा भी नहीं होती। और जिसके पास मन की जरूरतें पूरी करने की सुविधा नहीं, उसके पास आत्मा की जरूरतें पैदा नहीं होती। ये जरूरतें सीमित हैं। सबसे पहले जो जरूरी है, वह शरीर है, जो शरीर को सुविधा जुटा पाता है, वह मन के आयाम में अतृप्त होने लगता है। जब मन की भी सुविधा जुट जाती है, तो आदमी आत्मा के आयाम में अतृप्त होता है। शरीर की सुविधा नहीं जुटती है तो आत्मा की बातचीत असंभव है। या झूठी है। या बहाना है। और उसमें बहुत गहराई नहीं हो सकती। तो मेरे मन में, गरीब का मतलब ही यह है कि जो गहन चिंतन में प्रवेश नहीं कर सकता। यही तुलनात्मक कह रहा हूं। अपार व्यक्ति हो सकते हैं, उनका मैं हिसाब नहीं रखता। विलास के साथ ही आदमी को सुविधा मिलती है कि अब वह कुछ और भी कर सकता है। चित्र पेंट करे, वीणा बजाय, ध्यान करे। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि ये चीजें फिजूल हैं, अगर एक पौधा हम लगाते हैं तो पहले तो पौधें में जड़ें होती हैं; फूल तो आखिर में आता है। और फूल तब ही आता है जब पौधों के पास सुपरथिनीयस एनर्जी हो। नहीं तो फूल नहीं आएगा। अगर पौधा अपने जीवन को ही बचाने में लगा हुआ है, तो फूल नहीं आएगा। फूल तो आएगा तभी जब जीवन के बचाव के बाद शक्ति बचती है। तो धर्म मेरे लिए फूल है।
तो मेरी तो मान्यता ही यही है कि धार्मिक समाज हो ही तब सकता है जब वह समृद्ध हो। गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता। और गरीब समाज के लिए मेरी स्वीकृति है कि माक्र्स ठीक कहता है, कि धर्म अफीम का नशा है। गरीब समाज के लिए धर्म अफीम का नशा है, यह माक्र्स ठीक कहता है, मेरे हिसाब से तो किसी और कारण से। यह ठीक ऐसा ही नशा है, जैसा भूखा आदमी वीणा बजाने में अपने को भुला रहा हो। भुला तो नहीं सकता, मिटा तो नहीं सकता; थोड़ी-बहुत देर के लिए गमगीन हो सकता है। न्यून हो सकता है। भूख मिटेगी नहीं, और बढ़ेगी।
एक मजे की बात है कि जब भी कोई समाज गरीब होता है, तब भी वह धर्म में उत्सुक होता है, लेकिन उसकी उत्सुकता समझने जाएं, और मैं अनुभव से कहता हूं, गरीब आदमी मेरे पास आता है, वह कहता है मन में बड़ी अशांति है। लेकिन वह गलत शब्दों का प्रयोग कर रहा है। जब मैं उससे पूछता हूं क्या अशांति है? तब वह कहता है, लड़की की शादी नहीं हो रही है। कोई कहता है कि लड़के को नौकरी नहीं मिली। वह कहता है पत्नी बीमार है। इनका मन से कोई संबंध नहीं है। ये सब शरीर के तल की अशांतियां हैं। इनको वह मन की अशांति कह रहा है। एक अमीर आदमी मेरे पास आता है, वह कहता है मन में बड़ी अशांति है, उसकी अशांति बिलकुल और है। लड़की की शादी हो गई है, लड़का नौकरी पर है, सब कमाई है, सब ठीक...सब ठीक है। वहां वह गरीब आदमी का सब गलत है, वहां सब ठीक है। और फिर उसको अनुभव हो रहा है कि कुछ भी ठीक नहीं। तो यह तो कोई दूसरे तल की अशांति है। यह मानसिक है। इसलिए यह बड़े मजे की बात है कि गरीब आदमी और गरीब समाज में मानसिक बीमारियां नहीं होती, हो नहीं सकती। अमीर समाज में मानसिक बीमारियां शुरु होती हैं। गरीब समाज की बीमारियां शारीरिक होती हैं, अमीर समाज की बीमारियां मानसिक होती हैं। और जब अमीरी आखिरी दशा में पहुंचती है, तब आत्मिक बीमारियां शुरु होती हैं, और इलाज तो तभी किया जा सकता है, जब बीमारी हो। और मेरी तकलीफ यह है कि आपका मन बीमार नहीं है, मैं आपको नौकरी नहीं दिला सकता। मैं आपकी लड़की की शादी नहीं करवा सकता, इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैं आपके मन को शांत होने का उपाय जरूर बता सकता हूं, लेकिन मन अभी आपका अशांत नहीं है। और जब आप कहते हैं कि मेरा मन अशांत है, तब आप गलत शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, अभी आपको पता ही नहीं कि मन की अशंाति क्या है? मन की अशांति शुरु ही तब होती है, जब शरीर की सारी अशांति समाप्त हो जाए। नहीं तो मन की अशांति शुरु नहीं होती।
तो मेरी तकलीफ यह है कि गरीब आदमी मेरे पास आता है तो मैं अनुभव करता हूं कि उसके लिए मैं कुछ भी नहीं कर सकता। कर नहीं सकने का कारण है कि वह जो वह कह रहा है, वह उसकी अशांति नहीं, जो मैं कर सकता हूं, उससे उसका कोई तालमेल नहीं है। मैं एक अमीर समाज के पक्ष में हूं। मैं गरीब समाज के बिलकुल ही विरोध में हूं। अगर मैं कहता हूं, मैं गरीब समाज के विरोध में हूं तो मेरा विरोध समाजवादी का विरोध नहीं है। समाजवादी का विरोध यह है कि हम अमीर को विसर्जित कर दें। गरीब को बांट दें। मैं मानता हूं यह समाज को और बड़ी गरीबी ला देगा। मैं अमीर समाज के पक्ष मे ंहूं, ठीक पूंजीवादी अर्थ में। मैं चाहता हूं गरीब, गरीब न रह जाए, अमीर हो। और इसलिए चाहता हूं ताकि एक दिन वह भी मानसिक अशांति का मजा ले सके। क्योंकि जो मानसिक अशांति का मजा लेगा, वही मानसिक शांति का मजा ले सकता है। और इसलिए चाहता हूं कि एक दिन वह भी आत्मिक रूप से पीड़ित हो सके। क्योंकि जो आत्मिक रूप से पीड़ित होगा, वही आत्म-साक्षात्कार की तरफ जाएगा। पीड़ा शारीरिक है। तो मेरी तकलीफ क्या है? मेरी तकलीफ यह है कि पीड़ा शारीरिक है। और उस शारीरिक पीड़ा को शरीर के तल पर मिटाया जाना चाहिए। उसको मन के तल पर मिटाने का कोई मतलब नहीं होता। उस आदमी को टेक्नालाॅजी की जरूरत, धन की जरूरत है, मकान की जरूरत है। और मेरा मानना यह है कि अब तक वह गरीब इसलिए बना हुआ है कि इस जरूरत को वह ठीक से नहीं समझ रहा है। वह इसको आध्यात्मिक और मानसिक बातों में समय खराब कर रहा है। गरीब आदमी को धर्म की बात करना बिल्कुल अफीम देना है। उससे टेक्नालाॅजी की बात करनी चाहिए। उसको बताया जाना चाहिए कि वह धन कैसे ज्यादा पैदा करे? अब रह गया सवाल यह कि क्या मैं गरीब आदमी को बताऊं कि वह धन कैसे ज्यादा पैदा करे? यह सवाल है। क्योंकि मन कैसे उसका शांत हो, यह अभी उसका सवाल नहीं है, इसलिए जवाब का कोई प्रश्न नहीं उठता। क्या मैं उसको बताऊं कि वह धन कैसे ज्यादा पैदा करे? क्या मैं उसको बताऊं कि वह कैसे समृद्ध हो? क्या मैं उसको बताऊं कि वह कैसे दुकान चलाए? इसमें भी मेरी कठिनाई है। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि आदमी जैसा है, आदमी जैसा है, उसको ज्यादा धन दे दो, इसको बड़ा मकान दे दो तो बड़े मजे की घटना घटती है कि इसके पुराने दुख तो मिट जाते हैं, फिर इसके नये दुख शुरु हो जाते हैं।
दुख नहीं मिटते, सिर्फ नये तल पर दुख शुरु हो जाते हैं। अगर मनुष्य-जाति का हम पूरा इतिहास देखें, तो हम सदा इस आशा में रहेंगे कि यह चीज हल हो जाए, तो सब हल हो जाएगा। फिर वह हल हो जाती है और कुछ हल नहीं होता। हजारों बार ऐसे मौके आए, जब हमें लगा कि यह हल हो जाए, तो सब हल हो जाएगा। लेकिन जब भारत गुलाम था, तो सारे मुल्क के समझदार आदमियों को लगता था कि भारत स्वतंत्र हो जाए, तो सब हल हो जाए। जैसे सब हल स्वतंत्रता में ही रखा हुआ था। फिर हम स्वतंत्र हो गए, कुछ हल नहीं हुआ। वह हम बात भी भूल गए, जो हम सोचते थे सब हल हो जाएगा। नये सवाल खड़े हो गए।
अमरीका पहली दफा ठीक से समृद्ध हो गया है। तो अमरीका के तीन सौ वर्ष के या ढाई सौ वर्ष के जितने विचारशील लोग थे, सबकी चेष्टा का फल कि अमरीका समृद्ध हो गया। पर उन सबने जो सोचा था कि समृद्धि से मिलेगा, ऐसा कुछ भी नहीं मिला। और उनमें से एक ने भी नहीं सोचा था, जो मिला। जो मिला है, उनमें से एक ने नहीं सोचा था कि यह होगा। न फग्र्युसन ने साचा, न लिंकन ने साचा, न इमर्सन ने साचा कि हिस्ट्री पैदा होंगी। तीन सौ वर्ष के अमरीका के चिंतकों ने सोचा कि सबको सार्वजनिक शिक्षा होनी चाहिए, सब शिक्षित हो जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा। और सब शिक्षित हो गए, तब पता चला कि ठीक कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि एक शिक्षित आदमी नये उपद्रव पैदा करता है, जो अशिक्षित ने कभी भी पैदा नहीं किए। आज इंग्लैंड में, फ्रांस में, स्वीडन में हिंदू-मुसलमान का झगड़ा नहीं है। ईसाई-मुसलमान का झगड़ा नहीं है, प्रोटेस्टेंट-कैथोलिक का झगड़ा नहीं है। वे सब पुराने पड़ गए। विचारक लोग सोचते थे कि जिन-जिन धर्मों में झगड़े नहीं रहेंगे, उस दिन बड़ी शांति हो जाएगी। लेकिन बड़े बेहूदे और नये झगड़े खड़े हो गए।
अभी मेरे पास दो सन्यासी आए इंग्लैड से। तो इंग्लैंड में दो ग्रुप हैं। एक लंबे बाल वाले युवकों का ग्रुप और सिर घुटे बाल वाले युवकों का ग्रुप। और झगड़े की कुल जमा फिलासफी इतनी है कि तुम्हारा सिर घुटा नहीं है। ये जो सिर घुटे वाले युवक हैं, ये लंबे बाल वालों को मारेंगे, बाल काटेंगे, चोट करेंगे, उनके सामान मिटा देंगे, हत्याएं हो जाएंगी। ये लड़कों का जो संन्यासी आश्रम था उन्होंने इसको लूट लिया। बड़ी हैरानी हुई, जो मुकदमें चलते हैं। अदालतों में जो उनके वक्तव्य हैं, वे देखने लायक हैं। क्योंकि वे यह कहते हैं कि हमें हिंसा में आनंद आता है। प्रयोजन नहीं है। वे कहते हैं कि कामवासना हमारे लिए बोर्डम हो गई, क्याोंकि सब सुविधाएं हो गई, स्त्री उपलब्ध है। अब सिर्फ एक हिंसा रही, जिसमें हमें थोड़ी सी...हम किसी की छाती में जब छुरा भोंकते हैं, तो क्षण भर को हमें लगता है कि आनंदित हो गए हैं। इनके बापदादों ने पांच सौ साल में कभी नहीं सोचा था कि जिस दिन हम इनको सारी सुविधा जुटा देंगे, और जिस दिन धन होगा, और जिस दिन यह शिक्षा होगी। उस दिन ये लड़के हिंसा में ऐसा रस लेंगे। हम सबको खयाल है कि आदमी हिंसा इसलिए करता है कि उसके पास खाने को नहीं है। गलती है आपकी। हमारा खयाल है कि आदमी इसलिए लड़ता है, क्योंकि उसके पास सुंदर स्त्री नहीं है, गलती है आपकी। आपको अभी उस समाज का पता नहीं, जहां जिसमें सब सुंदर स्त्री उपलब्ध है, और धन उपलब्ध है, और सब सुविधा उपलब्ध है। तब आदमी हिंसा बेकारण कर सकता है, इसका हमें ख्याल भी नहीं है। तो जैसा मैं देखता हूं, मेरा मानना ऐसा है कि जैसा समाज है, समाज सदा दुखी रहेगा। एक मेरी धारणा है। जैसा समाज है, सदा दुखी रहेगा, दुख के तल बदलेंगे। दुख के आयाम बदलेंगे, दुख के ढंग बदलेंगे, समाज सदा दुखी रहेगा। समाज कभी भी सुखी नहीं हो सकता। व्यक्ति सुखी हो सकता है। और व्यक्ति के सुख का मतलब उसको आत्म रूपांतरण करना पड़ेगा, तो वह सुखी होगा है। अगर दुख के कारण बाहर है, जैसा कि दो सौ वर्ष का चिंतन है सारी दुनिया का कि दुख के कारण बाहर हैं। तो दुख के कारण जहां मिट गए हैं, वहां सुख आ जाना चाहिए था, वहां सुख नहीं आ सका।
मेरी अपनी दृष्टि है कि दुख के कारण बाहर नहीं हैं और यह धर्म की सदा की दृष्टि है। लेकिन अब मैं मानता हूं कि इसके लिए वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं, अब तक नहीं थे। बुद्ध ने भी कहा है कि सुख बाहर के कारणों पर निर्भर नहीं है। लेकिन बुद्ध इसके लिए प्रमाण नहीं दे सकते थे। लेकिन अब प्रमाण उपलब्ध हैं। क्योंकि जिन समाजों में बाहर के सब कारण मिटा दिए गए हैं, वहां दुख घना हो गया है, कम नहीं हुआ। तो मेरे लिए मूल्यवान व्यक्ति है, समाज नहीं। यही मैं राजनैतिक और धार्मिक व्यक्ति की दृष्टि का अंतर मानता हूं। मेरे लिए तुम मूल्यवान हो, समाज नहीं, क्योंकि तुम भीतर जा सकते हो, समाज भीतर नहीं जा सकता। और अगर मैं कहता हूं, समाज की गरीबी मिटे, तब मैं तुम्हारे भीतर जाने की यात्रा शुरु करूंगा, तो तुम भी मिट जाओगे, मैं भी मिट जाऊं गा। और समाज तो चलता रहेगा।
तो समाज के नाम पर पोस्टपोंडिंग करने के लिए मैं राजी नहीं हूं। तो मेरा मानना जो भी इस स्थिति में आयें, जो अंतर्यात्रा पर जा सकें वे जाएं। जो नहीं हैं इस स्थिति में वे अपनी बाहरी तरफ यात्रा पर लगे रहें, आज नहीं कल जब उनको सुविधा मिल जाएगी, तब उनको भी अंतर्यात्रा पर जाना पड़ेगा। उनमें जो बुद्धिमान हैं, वो आज भी अंतर्यात्रा पर जा सकते हैं। क्योंकि बुद्धि का मतलब ही इतना है कि वह भविष्य को भी देख पा सकें। लेकिन गरीब आदमी भी अगर बुद्धिमान है तो अंतर्यात्रा पर जा सकता है। अमीर आदमी बुद्धिहीन है, तो भी अंतर्यात्रा पर जा सकता है। क्योंकि उसकी सिच्युएशन उसको भटका देती है, गरीब आदमी की सिचुएशन उसको भटका नहीं देती। उसका चिंतन ही भटका दे सकता है। और मेरी उत्सुकता इसमें बिलकुल नहीं है, सामाजिक रूपांतरण दुखों को मिटा देगा, यह मिथ्या पुरानी कल्पना है, यह बात समाप्त हो गई है। यह कभी नहीं होने वाला। क्योंकि हमने सब करके देख लिया, कियी को लगता था कि शिक्षा नहीं है, इसलिए सब है, तो शिक्षा हो गई, और दुख बढ़ गए। शिक्षित समाज ज्यादा दुखी है, अशिक्षित समाज की बजाय। और अशिक्षित समाज अगर दुखी है तो सिर्फ इसीलिए कि शिक्षित सुख उठा रहे होंगे। बड़ा मजे का मामला है। बड़ा मजे का मामला है।
मेरी उत्सुकता नहीं है कि सबको सुख आयें, मेरी उत्सुकता है कि शिक्षित हों या अशिक्षित हों, भीतर जाने की प्रक्रिया उनके खयाल में आए। मैं यह जानता हूं कि शिक्षित को जल्दी आ सकती है, इसलिए शिक्षित हो जाएं तो अच्छा है। लेकिन यह मेरी धारणा नहीं कि शिक्षित होने से उनका दुख मिटने वाला है। न, उससे नहीं मिटने वाला है। इसलिए मैं सीधा उत्सुक नहीं हूं। मैं सीधा उत्सुक नहीं हूं। मैं सीधा उत्सुक नहीं हूं। क्योंकि मेरी अपनी समझ यही है कि चाहे जीवन के मूल्यों का सवाल हो, चाहे कोई और सवाल हो। एक छोटा सा वर्ग नेतृत्व करता है। मैं लोकतांत्रिक नहीं हूं। डेमोक्रेटिक मेरी दृष्टि नहीं है। और मैं मानता हूं कि डेमोक्रेसी सौ साल से ज्यादा दुनिया में नहीं चल सकती। और तभी तक चल सकती है, जब तक पूरी नहीं आ गई। जिस दिन पूरी आ जाएगी, उस दिन उसकी मूढ़ता आनी दिखाई पड़ जाएगी।
कठिनाई यह है कि जब तक कोई चीज पूरी न आए, तब तक उसकी मूढ़ता हमें दिखाई भी नहीं पड़ सकती। वह पूरी आए तो जिस चीज से हम, जो मौजूद होती है, उससे हम लड़ते हैं, क्योंकि उसकी बुराई दिखाई पड़ती है। जो मौजूद नहीं है, उसके लिए हम लड़ते हैं, क्योंकि उसकी भलाई दिखाई पड़ती है। जब वह पूरी तरह आ जाए, जैसे आज सार्वभौम शिक्षा अमरीका में मूर्खतापूर्ण हो गई है। और बुद्धिमान लड़के युनिवर्सिटी छोड़ कर भाग रहे हैं। जिनका भी आई क्यू थोड़ा ज्यादा है, वे ड्राॅप आउट हो जाते हैं, और जिनका आई क्यू छोटा है, युनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं। जिनके पास बुद्धि कम है, वो लगे हैं पढ़ने में। जिनके पास बुद्धि है, वह युनिवर्सिटी के बाहर आ रहे हैं, क्योंकि वह कह रहे हैं कि तुम्हारी युनिवर्सिटी से कुछ भी नहीं मिला। तुम्हारी शिक्षा से कुछ नहीं मिला, वह एक धोखा था। लेकिन यह धोखा तब तक चल सकता था, जब तक शिक्षा पूरी नहीं हुई, अब वह पूरी हो गई है। अब मुसीबत पता चली तो वह धोखा साबित हुई, उससे कुछ मिलने वाला नहीं है। अगर आज लड़के को उसका बाप कह रहा है कि तुम विश्वविद्यालय में पढ़ो तो वह लड़का पूछ रहा है, तुम पढ़े थे, तुम्हें क्या मिला? तुम्हें कुछ मिला हो तो हमें कहो। अब बाप यह नहीं कह सकता कि नौकरी मिली। क्योंकि नौकरी तो आज अमरीका में गैर पढ़े-लिखे को भी मिलती है। यह गरीब बाप कह सकता है कि नौकरी मिलेगी, कपड़ा मिलेगा, मकान मिलेगा। आज अमेरिका में बाप यह भी नहीं कह सकता कि कपड़ा मिलेगा, कि मकान मिलेगा, कि नौकरी मिलेगी। यह तो बिना इसके भी मिल सकता है। यह कोई सवाल न रहा। और लड़का यह कह सकता है कि तुमको कपड़ा मिल गया, मकान मिल गया, कार मिल गई, सब मिल गया लेकिन जिंदगी कहां है तुम्हारे पास? तुम कुम्हला गए इस सबको पाने में, सड़ गए। न तुमने कभी प्रेम किया, न तुमने कभी गीत गया, न तुम नाचे। तो कपड़े तो मिल जायेंगे, ठीक इतने अच्छे नहीं मिलेंगे, लेकिन हम नाचना चाहते हैं। गाना चाहते हैं। प्रेम करना चाहते हैं।
आज अमरीकन लड़का अपने बाप से कह रहा है कि तुम्हारी सारी शिक्षा ने सिवाय युद्धों के और क्या पैदा किया है? हम लड़ना नहीं चाहते, हमें प्रेम करना है। आज अमरीका में हिप्पी बोर्ड लगाए हुए हैं, बी लव नाॅट वाॅर। और उसका कहना ठीक है, वह कहता है कि जब तक कोई समाज प्रेम करने में समर्थ नहीं होगा, तब तक वह लड़ेगा ही। वह बच नहीं सकता। इसलिए सभी युद्धखोर प्रेम के खिलाफ बोलते होते हैं। अगर सैक्स सप्रेस किया जाए, तो ही तुमको लड़वाया जा सकता है, नहीं तो लड़वाया नहीं जा सकता। इसलिए हमेशा होता है कि जब भी कोई समाज बहुत पड़ जाता है सेक्स के मामले में, तो फिर जीत नहीं पाता। हार जाता है। आज अगर अमरीका वियतनाम में नहीं जीत सकता, तो इसका कारण है कि जिस सैनिक से वह लड़ रहा है, वह भूखा है, वह आतुर है, कामवासना से अतृप्त है। और अमरीकन लड़का न भूखा है, न आतुर है, न काम वासना से अतृप्त है, लड़ने का उसे कोई कारण नहीं है। तुम हमें जबरदस्ती लड़ा रहे हों, हमारा कोई कारण नहीं है। कोई वजह नहीं समझ में आती इसको कि लड़ना किस लिए है? यह मजे की बात है कि जब भी कोई श्रेष्ठ सभ्यता किसी निकृष्ट सभ्यता से लड़ेगी तो निकृष्ट जीत जाएगी और श्रेष्ठ हारेगी। यह भारत का दो हजार साल का अनुभव है। हम उन सभ्यताओं से हारे, जिनके पास कुछ भी नहीं था। लेकिन भूख थी, वासना थी, काम अतृप्त था। तो मुगलों ने, तुर्कों ने हूणों ने हमें रौंद डाला। हमारे पास लड़ने का कोई कारण नहीं था। जब भी आपके पास सब होता है, तब आप चाहते हैं झंझट न हो। अगर सुख नहीं हो तो तब आप चाहते हैं, झंझट हो जाए। क्योंकि झंझट से शायद कुछ निकल भी आए, और सदा निकलता है। सदा निकलता है। क्योंकि खोने को कुछ होता नहीं। झंझट से कुछ न कुछ मिलेगा ही, और मिलेगा ही, नहीं मिलेगा तो कुछ खोने वाला नहीं हैं। तो यह जो तकलीफ है। अब अमरीका शिक्षित हुआ तब पता चला कि यह शिक्षा तो अब डूब जाएगी, यह चल नहीं सकती। अमरीका धनी हुआ तो पता चला कि धन बिलकुल बेकार है। अमेरिका टेक्नालाॅजिकली आज सशक्त हो गया, तो आज अमरीका को लग रहा है कि हमें मशीन से छुटकारा चाहिए। मशीन जान लिए ले रही है। क्योंकि मशीन धीरे-धीरे आदमी पर कब्जा किए जा रही है, हमको दिखाई नहीं पड़ता, पता भी नहीं चलता, क्योंकि हम आदी हो जाते हैं। जब आप चैरस्ते से गुजरते हैं और लाइट आपको रास्ता न दे, तो आप चुपचाप खड़े रहते हैं, आपको खयाल भी नहीं कि मशीन आपको आज्ञा कर रही है। मशीन आज्ञा कर रही है और आप रुके हुए खड़े हैं। और कहीं खयाल नहीं आ रहा है कि मशीन की गुलामी है। अमरीका को पता चला क्योंकि यह लाइट का ही मामला नहीं है, चैबीस घंटे सब तरफ से मशीन गुलाम किए हुए है।
अभी लड़कों ने बढ़ती हुई युनिवर्सिटी में खड़े होकर एक कीमती राॅल्स राॅयल गाड़ी जलाई, सिंगल सीटर। वे मशीन से छुटकारा चाहते हैं। कोई चीज जब पूरे पैमाने पर आती है, तब पता चलता है। न्यूयार्क में उन्नीस सौ में बग्गी से, घोड़ा गाड़ी की रफ्तार साढ़े ग्यारह मील थी, और अब कार की रफ्तार साढ़े सात मील है प्रति घंटा। और यह अगर पांच साल चला तो, कार की रफ्तार आदमी की पैदल रफ्तार से कम हो जाएगी। लेकिन यह तब तक आपको पता नहीं चल सकता जब तक कारें पूरी तरह से उपलब्ध न हो जाएं। हमारी तकलीफ यह है कि कोई भी चीज जब तक पूरी न हो जाए...लोकतंत्र मरेगा, सौ साल से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता। गरीब मुल्कों में जिंदा रहेगा, अमीर मुल्कों में खत्म होगा। खत्म होगा, उसका कारण है क्योंकि अब साफ समझ में आना शुरु हुआ कि जितना तुम नीचे के आदमी से सलाह लेते हो, उतनी नीची सलाहें मिलती हैं। मिलेगी ही, उसका कोई और उपाय नहीं है। और जब नीचे का आदमी चुनाव करने लगता है, तो ठीक है, जिनको उसका प्रारंभिक...है उनको चुनता है। इसलिए लोकतंत्र न्यूनतम राजनीतिज्ञ को ऊपर पहुंचाने में समर्थ होते जाते हैं। जो जितना न्यूनतम है, उतना जल्दी ऊ पर पहुंच सकता है।
अब मेरी दृष्टि यह है कि सवाल यह नहीं है कि गरीब को कैसे प्रशिक्षित किया जाए श्रेष्ठ मूल्यों के लिए? मेरे लिए सवाल यह है कि जो श्रेष्ठ है, उसको कैसे प्रशिक्षित किया जाए कि वह भीड़ से जगत को बचाए। मेरी जो प्राॅब्लम है, वह बिलकुल और है। जिसको आप डेमोक्रेसी कहते हैं, वह डेमोक्रेसी नहीं हैै। वह लोकतंत्र नहीं है, भीड़तंत्र है। और भीड़ मजबूत होती चली जा रही है, सब तरफ से गर्दन कटती जा रही है। और मजे की बात यह है कि इस गर्दन कटने में भीड़ अपना भी नुकसान करेगी। मगर उसको पता भी नहीं चल सकता। उसको पता भी नहीं चल सकता। उसको पता भी नहीं चल सकता है। आज भीड़ कहती है कि तुम्हारे पास धन ज्यादा नहीं होना चाहिए, कल भीड़ कहेगी कि कुछ लोगों के पास बुद्धि ज्यादा क्यों? क्योंकि धन से क्या खिलाफत है? धन से यह खिलाफत है, कि जिसके पास धन है, वह मालकियत करता है। या फिर पढ़ने वाला, जिसके पास बुद्धि है, वह मालकियत करेगा। मालकियत से कठिनाई है। आज नहीं कल भीड़ कहेगी कि आदमी में बुद्धि ज्यादा क्यों होनी चाहिए? बुद्धि का वितरण कर दो। अगर कोई बच्चा सौ आई क्यू से ज्यादा है, तो उसको तुम नीचे लाओगे, क्योंकि वह तल पर होना चाहिए, किसी के पास ज्यादा बुद्धि होगी तो वह खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि वह अनंतताओं तक पहुंच जाएगा, वहां उसका मैलीपुलेट करेगा। आखिर बचोगे कैसे?
रूस ने यह इंतजाम कर लिया है कि अमीर और गरीब को हम नहीं बचने देंगे, मिटा देंगे। लेकिन क्या फर्क पड़ता है, आज अमरीका में एक गरीब आदमी जितनी ऊंचाई पर पहुंच सकता है, न भी पहुंचे तो गरीब रह कर भी जितना अमीर होता है, रूस का आदमी उतना अमीर नहीं है। रूस का जो नोबल प्राइज विनर है, उसको भी एक प्राइवेट कार मिल जाए तो वह समझता है कि स्वर्ग मिल गया। रूस का जो, जिसको हम कहें अमीर वर्ग, वह अमरीका के गरीब वर्ग से पीछे है। मगर एक लिहाज से तृप्त है। क्योंकि ईष्र्या के लिए मौका नहीं है कि उनमें कोई अमीर नहीं हैं। गरीब की तृप्ति इसमें नही है कि वह गरीब न रह जाए, उसकी तृप्ति इसमें है कि कोई अमीर न बन जाए। मगर मजा यह है कि अगर अमीर नहीं रह जाता, तो गरीब की सारी की सारी गति बंद हो जाती है, वह अपने हाथ पर कुल्हाड़ी मार रहा है। क्योंकि गति वह आगे का वर्ग कर रहा है। वह कुल्हाड़ी मार देता है।
दूसरा मजे का मामला यह है कि वह जो बुद्धिमान है, वह तो किसी ने किसी बात से...जाता है। आदमी कल गरीब को लगेगा कि बुद्धि ज्यादा नहीं होनी चाहिए, आदमी कल गरीब को लगेगा कि एक आदमी के पास सुंदर औरत, दूसरे आदमी के पास कुरूप औरत क्यों होनी चाहिए? ये सवाल अगर लोकतंत्र की पूरी अंतरात्मा में हम प्रवेश करें, तो वह इस बात का है कि जो एक के पास है वह सबके पास होना चाहिए। इसका एक ही मतलब हो सकता है कि परिवार न रह जाए, वेश्यालय हों। इसलिए जो प्राथमिक समाजवादी थे, माक्र्स से पहले उनका तो खयाल था कि आज नहीं कल हमें स्त्री सोशियोलाइज करना पड़े...लाइज करना पड़े, क्योंकि वह बड़ा भारी झगड़ा है। अगर हम आदमी के भीतर घुसें तो दो ही झगड़े हैं, इसको वैज्ञानिक कहते हैं, पैरिटोरियल और सेक्सुअल। उसकी मालकियत होनी चाहिए कुछ चीजों पर और उसकी कामवृत्ति होनी चाहिए। पेट और काम आदमी के दो बुनियादी उपद्रव हैं। पेट पर तुम समानता लाते हो, तो कल काम पर समानता लाने दोगे। और ये सारी समानता, इतने जाल पैदा कर दें, और इतने उपद्रव पैदा कर दें, तब तुम पता चले कि असमानता कैसे है? उसके पहले पता नहीं चल सकता।
तो मेरी कठिनाई, मेरे लिए सवाल नहीं है कि लोकतंत्र कैसे जीते? समाजवाद कैसे जीते? मेरे लिए सवाल यह है कि मनुष्य की चेतना भीड़ से कैसे मुक्त रहे, क्योंकि वही मुक्त चेतना इस भीड़ को भी सत्य रास्ते पर ले जा सकती है। तो मेरा काम तो बुनियादी रूप से पद की गिनती है। इसलिए जो मुझे समझते हैं, वे भला गलत अर्थ भी लेते हों, लेकिन मेरा काम ही गिने हुए थोड़े से लोगों के लिए है। मेरी उत्सुकता भी नहीं है। मेरी उत्सुकता भी नहीं है आम में। और यह मेरी वृत्ति नहीं है। और इसके प्रति मैं बिल्कुल साफ हूं। मेरा अपना, अपना कोण ऐसा है, एक स्कूल की क्लास में तीस बच्चे हैं। लोकतंत्र की दृष्टि यह है कि क्लास में जो आखिरी बच्चा है, उसे सब भांति सब ज्ञान देना है, ज्यादा से ज्यादा। ठीक भी लगता है। जो सदबुद्धि कम है, उसपर ज्यादा ध्यान दिया जाए तो वह बुद्धिमान हो जाएगा। लेकिन उसका दूसरा परिणाम होने वाला है कि जो क्लास में प्रथम है, वह उपेक्षित रह जाएगा। और मेरा मानना है कि अंतिम पर कितना ही ध्यान दिया जाए, वह प्रथम नहीं हो सकता। और इस प्रथम पर ध्यान दिया जाए तो यह प्रथम से भी आगे जा सकता है। अगर मेरे हाथ में शिक्षा हो, तो मैं प्रथम पर ध्यान देने पर जोर दूंगा, मैं सार्वजनिक शिक्षा के पक्ष में नहीं हूं, जो शिक्षित किए जा सकते हैं, उनको ही शिक्षित किया जाना चाहिए। जो शिक्षित किए जा सकते हैं, उनको ही शिक्षित किया जाना चाहिए। अगर इस मुल्क में पचास हजार व्यक्ति शिक्षित किए जा सकते हैं, उनको पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाना चाहिए। वो इस मुल्क को सोने सा चमका देंगे। हम पूरे पचास करोड़ को शिक्षित करने में लगे हैं। एक मीडियाकर समाज पैदा होगा, उससे कुछ होने वाला नहीं है। और वह जो शिक्षित नहीं हो सकते हैं, वे जबरदस्ती शिक्षित किए जाते हैं, तो वो सब तरह के उपद्रव पैदा कर रहे हैं और करेंगे। आदमी युनिवर्सिटी में छुरा लेकर खड़ा हो रहा है, और नकल कर रहा है, ये वे लोग हैं जो शिक्षित नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन इनके भीतर भी आत्म-महत्वाकांक्षा जगाई कि वह प्रथम आता है, तुमको भी प्रथम आना है। तुम्हें भी गोल्ड मेडल लाना है, तो वो इस तरह से गोल्ड मेडल ले सकते हैं। और तो कोई उपाय नहीं है। नकल से ले सकते हैं, चोरी से ले सकते हैं। और सारी की सारी व्यवस्था को तोड़े जा रहे हैं। और वह जो प्रथम आ सकता था, वह यह सब नहीं कर सकता, वह पिछड़ा जा रहा है। वह पिछड़ा जा रहा है, उसकी समझ के बाहर हुई जा रही है, सारी बात।
मेरा मानना है कि प्रतिभा शिक्षित होनी चाहिए, सार्वजनिक शिक्षा बिलकुल बेईमानी है। और जो व्यक्ति बौद्धिक रूप से प्रतिभाशाली नहीं है, हो सकता है शारीरिक रूप से प्रतिभाशाली हो, तो उसकी शारीरिक शिक्षा होनी चाहिए। शिक्षित सब किए जाने चाहिए, लेकिन किसी लोकतांत्रिक दृष्टि से नहीं, व्यक्ति की क्षमताओं की दृष्टि से। मैं व्यक्तिवादी हूं, समाज मेरे लिए बिलकुल मूल्यवान नहीं है। अगर तुम्हारे पास शरीर अच्छा है, जो राममूर्ति हो सकते थे, तो मैं कहता हूं फिकर छोड़ो बुद्धि की, क्योंकि बुद्धि अगर अच्छी नहीं है, तो तुम आइंस्टीन कभी नहीं होने वाले, और राममूर्ति होने से भी बच जाओगे, और आइंस्टीन नहीं मीडियाकर रह जाओगे। मीडियाकर आदमी बड़े खतरनाक हैं, क्योंकि महत्वाकांक्षा उनकी भारी होती है, और क्षमता उनकी होती नहीं, वो सब तरह के उपद्रव पैदा करते हैं, और आखिरी उपद्रव उनका यह है कि अगर हम नहीं पहुंच सकते प्रथम, तो पहले से हम एक बात पक्की कर लें कि कोई भी प्रथम न पहुंचे। इतना पक्का हो जाता है। तो वे समाज को पीछे किए हैं।
तो एक अर्थ में मैं व्यक्तिवादी हूं और दूसरे अर्थ में मैं अभिजात्य का पक्षपाती हूं। हर व्यक्ति का अभिजात्य है, उसका कुछ खास है, जो कि शिक्षित होना चाहिए। और ये ही हो उसमें, सब चिंता छोड़ देनी चाहिए, हम उसके खाने-पीने-रहने का इंतजाम कर दें, यह पर्याप्त है, वे शांति से जी लें पर्याप्त है। तो अभिजात्यवादी भी मैं हूं। यानी मेरा मानना है कि हम कोई भी उपाय करके आइंस्टीन पैदा नहीं कर सकेंगे, चाहे कितना भी समाजवाद हो, चाहे कितना भी लोकतंत्र हो, आइंस्टीन ही आइंस्टीन हो सकेगा, और अगर हमने जिद की, और इसकी संभावना है, क्योंकि रूस में वो फिकर कर रहे हैं इस बात की कि बुद्धि माप करीब कैसे लाया जा सके। तो बड़े मजे की बात है कि नीचे वाले का बुद्धिमाप ऊ पर नहीं लाया जा सकता, लेकिन ऊ पर वाले का नीचे लाया जा सकता है। यह बड़ा मजा है, बड़ा मजा है, जो है उसे छीना जा सकता है, लेकिन जो नहीं है, उसे पैदा नहीं किया जा सकता। अगर एक बच्चा ईडियट पैदा होता है, तो हम उसे जीनियस नहीं बना सकते, लेकिन जीनियस को हम इडियट बना सकते हैं। क्योंकि यह जो जीनियस है, यह इतना डेलिकेट मामला है कि छोटा सा इंजेक्शन भी इसको नष्ट कर देता है। एक इंजेक्शन मार दें हम आइंस्टीन की खोपड़ी पर, तो कितनी ही बड़ी खोपड़ी हो उसका क्या करोगे? और इंजेक्शन मारने वाले को कोई आइंस्टीन से बड़ी खोपड़ी नहीं चाहिए, मारने के लिए। खोपड़ी होनी चाहिए, तो कोई भी मार सकता है, इसमें कोई...।
तो मेरा जो अपना दृष्टिकोण है, वह एक ऐसे जगत का है जो अभिजात्य का जगत हो। वह गरीब के भी हित में है, और गरीब मेरे लिए मल्टी-डाइमेन्शियल सत्य है। कई तरह की गरीबियां हैं। धन की गरीबी है, बुद्धि की गरीबी है, भाव की गरीबी है, नीति की गरीबी है, हजार तरह की गरीबियां हैं। और तुम एक गरीबी मिटाओ तो दूसरी गरीबी मांग करना शुरु कर देती है। अब हमारी तकलीफ सदा यह है कि जो मौजूद होता है, हम उसके पार उठ कर कभी नहीं देख पाते। भविष्य मैरिटोेथेरेपी का है, भविष्य में तो जो गुणवान है, उसके हाथ में सत्ता जानी चाहिए। मैरिट के हाथ में जानी चाहिए। गरीबी कोई गुण नहीं है। और मैं नहीं मानता हूं, कि गरीब जो भी बातें करता है, वह उसके भी पक्ष में हैं, ये भी बड़ी तकलीफ है, वो उसके भी पक्ष में नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं, बिलकुल नहीं, जरा भी नहीं, क्योंकि मेरा मानना यह है कि राजनीति भी बीमारी है। और हमें मनुष्य को एक दृष्टिकोण देना चहिए, जो कम से कम राजनैतिक हो। तो हम इस बीमारी से छुटकारा पा सकते हैं। राजनीति रहेगी, सदा रहेगी, आवश्यक है। लेकिन राजनीति मनुष्य के शीर्ष पर केंद्रीय नहीं हो जानी चाहिए, केंद्रीय होगा तो बीमारी है। और अभी केंद्रीय है। अभी ऐसा है कि बाकी सब गौण हैं। सब कोने में हैं। मंदिर की जो वेदी है, वह राजनैतिक है। तो मेरी दृष्टि यह है कि हम जितना ज्यादा गैर-राजनैतिक व्यक्तित्व पैदा कर सकें, उतना अच्छा है। और गैर राजनैतिक व्यक्तित्व जितने खत्म हो सकें समाज में, उतना ही राजनीतिज्ञों की मूढ़ताओं से लड़ना आसान होगा।
इस मुल्क ने एक प्रयोग किया था, और उस प्रयोग के मैं पक्ष में हूं, इस मुल्क में साधुओं को, संत को, सन्यासी को प्रथम कोटि पर रखा था, राजनेता को, राजा को दूसरी कोटि पर रखा था; और अगर एक सम्राट भी होता और एक फकीर होता, तो फकीर के चरणों में सम्राट को सिर रखना पड़ता। ब्राह्मण को नंबर एक रखा था, और ब्राह्मणों का उन दिनों में अर्थ था, उन दिनों का बुद्धिमान वर्ग। इंटेलिजेंस ग्रुप। क्षत्रिय को नंबर दो रखा था। शक्ति कितनी ही बड़ी हो, नंबर दो होनी चाहिए बुद्धि के सामने। तो, मेरे हिसाब में तो ब्राह्मण लौटना चाहिए। मेरे हिसाब में तो ब्राह्मण लौटना चाहिए। समाजवाद, लोकतंत्र सब शूद्र को प्रथम रखने की चेष्टा है, क्षत्रिय को ही नहीं। अंतिम को।
तो मैं इस प्रश्न में मनु से बहुत राजी हूं। वह आदमी बहुत बुद्धिमान था। और गांधी और विनोबा बचकाने हैं उनके सामने। क्योंकि सवाल ब्राह्मण का नहीं, सवाल यह है कि हम किस तथ्य को ऊ पर रखते हैं। और एक बड़े मजे की घटना इस मुल्क में घटी, और वह घटना यह थी कि जब हमने ब्राह्मण को ऊपर रखा, तो ब्राह्मण ने न धन की फिकर की, न पद की फिकर की, क्योंकि जिसके पास बुद्धि है, और एक बार बुद्धि को प्रथम स्थान उपलब्ध होता हो, तो उसे न धन की फिकर है न पद की। बुद्धि इतना बड़ा पद है अपने आप में कि फिर उसे कुछ भी नहीं चाहिए। तो ब्राह्मण भूखा भी रहा, भीख भी मांगी, लेकिन उसने राजनीति को और, धन की और पद की कोई चिंता नहीं की। और पद इस मुल्क में बुद्धि की अंतिम...है, बहुत अंतिम...। जिस दिशा में भी इस मुल्क ने अपनी बुद्धि को लगाया, वह आत्यंतिक हो गई, उस दिशा में फिर कोई मुल्क आगे नहीं जा सका। और आज भी मजे की बात यह है कि दुनिया का सारा विकास ब्राह्मणों के द्वारा हो रहा है, आज भी। मेरे लिए आइंस्टीन एक ब्राह्मण है और माक्र्स भी। और फ्रायड एक ब्राह्मण है। बड़े मजे की बात है कि दुनिया का सारा विकास ब्राह्मणों के हाथ से होता है। सदा हुआ है, और उनके ही हाथ से हो सकता है, क्योंकि वे ही नया विचार जगत को देते हैं, नई दिशा और नई दृष्टि देते हैं। लेकिन ताकत आज उनके हाथ में नहीं है। और ये बड़े मजे की बात है, एटम बम की वजह से पश्चिम को खयाल आया--और आइंस्टीन को, हेमर को, लीनियस पादेन को, इन सबको खयाल उठा कि हमने तो एटम बम बनाया है, लेकिन चलाने का हक तो राजनीतिज्ञ के हाथ में चला जाएगा। न जाॅनसन के पास बुद्धि है, न लिंकन के पास बुद्धि है, और न इंदिरा के पास बुद्धि है, और न विक्ट्रो के पास बुद्धि है। लेकिन बुद्धि के शिखर पर जो भी ताकत उपलब्ध होगी, वह इनके हाथ में चली जाएगी। एक खयाल पश्चिम में पैदा हुआ। लीनियस पावले ने दस हजार वैज्ञानिकों को, जो सारी दुनिया के, और उन्होंने कोशिश की कि एक हम एक इंटरनेशनल ताकत बनाना शुरु करें, और वह तय करें तभी हम कोई ताकत का उदघोषण करें, अन्यथा वह ताकत उदघोषित न की जाए। यह ब्राह्मण की सत्ता में लौटने की चेष्टा है। इसका मतलब क्या है, इसका मतलब है कि हम खोजेंगे, और कल तुम हमारी भी नहीं सुनते। लीनियस पावेल खड़ा है, वाशिंगटन में भूखा व्हाइट हाउस के सामने और कह रहा है, एटम बम का प्रयोग नहीं होना चाहिए, दो पुलिसवाले पकड़ कर बंद कर देंगे। जिन लोगों ने एटम बम बनाया, उनकी कोई ताकत नहीं है, बनाने के बाद। और अब तक इतनी मीटिंग खोज कर गई है, सारी दुनिया में कि अगर सब राजनीतिज्ञ के हाथ में आ गईं, तो आदमी का कोई भविष्य नहीं। एटम बम तो कुछ भी नहीं है, और भी नई खोजें और खतरनाक हैं। अब तो अपके मस्तिष्क में पैदा होते से ही, एक इलेक्ट्रोड डाला जा सकता है, आपको पता ही नहीं चलेगा, वह तो सब बचपन में हो जाएगा। और एक छोटे से आॅपरेशन से एक छोटी सी इलेक्ट्रोड आपके मस्तिष्क में डाल दी जाएगी। फिर आपको आज्ञा दी जा सकती है, दिल्ली से, आप कहीं भी दुनिया में हों। और जो आज्ञा उसके विपरीत आपको मिलती है। और आपको लगेगा कि यह आज्ञा मेरे भीतर से आ रही है। अब ये सारी की सारी खोज ब्राह्मणों की है, लेकिन ताकत तो कैबिनेट के हाथ में चली जाने वाली है।
तो मेरी दृष्टि यह है कि राजनीति को कमजोर करना है। ज्ञान को, ब्राह्मण को, धर्म को प्रतिष्ठित करना है। तो मैं किसी को राजनीति को घेरने और भेजने में उत्सुक नहीं हूं। मैं तो राजनीति में भी कोई बुद्धिमान आदमी दिखाई पड़े, तो उसे खींचने को हूं। और हमें इस तरह के स्तंभ समाज में खड़े करने पड़ेंगे कि जो अपनी प्रतिष्ठा है, राजनीतिक फिजिक्स को कम करें। नहीं तो फिजिक्स की कमी हो सकती है। और अभी हालत यह है कि साधु को भी प्रतिष्ठित होना है, तो मिनिस्टर की खुशामद करनी है, और अगर एक साहित्यकार को भी प्रतिष्ठित होना है, और उसे पदमभूषण होना है, तो उसका कोई उपाय नहीं है। एक कवि एक संगीतज्ञ, वह भी दिल्ली की तरफ नजर रखे हुए है कि कब उसको प्रतिष्ठा राष्ट्रपति से मिलेगी? और कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रपति के पास क्या है? न संगीत है, न साहित्य है, न बुद्धि है, न विज्ञान है कुछ भी नहीं है। लेकिन राष्ट्रपति की...। शतरंज के खेल का हिसाब है, बस उतना ही है, और उससे सब प्रतिष्ठित होंगे। राजनीतिज्ञ की प्रतिष्ठा और महिमा कम करनी है, और उसका एक ही उपाय है, कम करने का कि राजनीति के मुकाबले नये आयाम खड़े हों। और राजनीति से पृथक प्रतिष्ठा के स्रोत बनें। तो मैं ऐसे संन्यासी जरूर खड़े करना चाहता हूं, ऐसे आश्रम भी जरूर बनाना चाहता हूं, जो गरिमाओं के नये स्रोत उपलब्ध करायें। एक संगीतज्ञ संगीत की वजह से प्रतिष्ठित हो, एक साहित्यिक साहित्य की वजह से प्रतिष्ठित हो। और राजनीति को सम्मान देना बंद किया जाए। आज नहीं कल एक हालत आनी चाहिए जब राजनीतिज्ञ भी तभी सम्मानित हो सके, जब ये दूसरी प्रतिभाएं उसे सम्मान दें, अन्यथा सम्मनित न हो सके। मगर ये सारा का सारा आत्मव्यैक्ति दृष्टिकोण है। इसका लोकतंत्र, समाजवाद से सीधा विरोध है। तो मेरी उत्सुकता यही है, उत्सुकता मेरी है पर दूसरी दिशाओं में।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

एक तो भगवान दुख-दर्द दूर करें, ये गरीब आदमी की आकांक्षा है, यह भगवान का लक्षण नहीं है। क्योंकि भगवान तो सदा से है, और दुख-दर्द दूर हुआ नहीं। अगर भगवान है, तो सदा से है। दुख-दर्द तो दूर हुआ नहीं। गरीब आदमी की आकांक्षा जरूरत है कि वह दूर करे। गरीब आदमी को भगवान भी तभी महत्वपूर्ण है, जब वह उसकी बीमारी दूर करे, दर्द दूर करे। गरीब आदमी को गरीबी दूर करवानी है। भगवान तो गौण है, उसका कोई प्रयोजन नहीं है। और मेरा मानना है कि भ्रांत आकांक्षा उसके गरीब बने रहने का कारण है। गरीबी भगवान से दूर होने वाली नहीं है, नहीं तो कभी की दूर हो गई होती। गरीबी भगवान के रहते बड़े मजे से चल रही है। राम के रहते चलती है, कृष्ण के रहते चलती है, जीसस के, बुद्ध के रहते चलती है। साफ मामला है कि गरीबी के दूर करने का मामला कुछ और है, भगवान नहीं है। तो पहली तो बात यह मै कहना चाहता हूं कि भगवान से गरीबी दूर नहीं होगी। और जिन मुल्कों में दूर हुई है, उन्होंने भगवान को जिस मात्रा में छोड़ा है, उस मात्रा में दूर हुई है। भगवान को जितने जोर से पकड़े हुए मुल्क हैं, उतनी मुश्किल है गरीबी दूर होनी। क्योंकि आकांक्षाएं गलत हैं। अब ये मामला ऐसा है कि मैं सोच रहा हूं कि सूरज के निकलने से मेरा टी.बी. ठीक होगा। अगर उसका कोई संबंध ही नहीं है, तो मैं मरूंगा और टी.बी. दूर करने के जो उपाय हो सकते हैं, वह भी नहीं खोजूंगा। गरीब आदमी को ठीक से जान लेना चाहिए कि गरीबी का कारण न तो भगवान है, इसलिए दूर करने का कारण भी नहीं हो सकता। दूर करने का कारण वही हो सकता है, जो उसको बनाने का भी कारण हो। अगर भगवान ने गरीबी बनाई हो, तो भगवान गरीबी दूर करे। गरीबी आदमी की व्यवस्था है। उसके उपकरण और उसकी टेक्नालाॅजी अर्थतंत्र की बाई-प्राॅडक्ट हैं। उसको अपना तंत्र बदलना पड़ेगा गरीबी बदलने के लिए। वह आदमी की जिम्मेवारी है। उसका भगवान से लेना-देना कुछ भी नहीं है। सामाजिक घटना है गरीबी, धार्मिक घटना नहीं है। क्योंकि हर चीज को धार्मिक घटना बना देने से उपद्रव शुरू होता है, फिर हम इलाज भी नहीं खोज पाते। यह मेरा मानना है कि रूस भगवान को बिलकुल ही इनकार कर दिया, तो भी गरीबी दूर कर सकता है। भगवान से कोई लेना-देना नहीं है, गरीबी के होने न होने का। बल्कि एक मात्रा में भगवान से यह भरोसा कि वह गरीबी दूर कर देगा, गरीबी को बनाए रखने का साधन हो गया है। तो मैं मानता हूं कि गरीब को जानना चाहिए कि गरीबी के आर्थिक कारण हैं, धार्मिक कारण नहीं है। आर्थिक कारण बदलेंगे, तो गरीबी बदल जाएगी।
दूसरी बात मुझे कोई भगवान कहे, या मुझे कोई शैतान कहे, ये कहने वालों के संबंध में खबर देता है, मेरे संबंध में कुछ भी नहीं। लोग हैं जो मुझे शैतान कहते हैं, उन्हें मैं शैतान दिखाई पड़ता हूं। किसी को मैं भगवान दिखाई पड़ता हूं। उसे दिखाई पड़ता हूं। मेरे में...यानी कि मैं शैतान को, जो मुझे शैतान कहता है, मैं उसे समझाने जाऊं कि मुझे शैतान मत कहो। और मेरे समझाने से वह मानेगा, जो मुझे शैतान मानता है, वह मेरे समझाने से मानेगा कि मुझे शैतान न कहे? बल्कि यह समझाना उसे और भी मुझे शैतान कहने का कारण बन जाएगा। मेरी उत्सुक्ता क्या है? ठीक मजे की बात यह दूसरी तरफ भी ऐसे ही है, जो मुझे भगवान कहता है, यह उसका दृष्टिकोण है, उसे दिखाई पड़ता है। वैसे ही किसी को शैतान दिखाई पड़ता है। अगर मैं उसे समझाने जाऊं कि मैं भगवान नहीं हूं, तो यह उसे और भी भगवान कहने का कारण बनता है। यह बहुत मजे की बात है, कि यदि आप मेरे पैर को छुएं , और मैं कहूं नहीं, नहीं मत छुओ, बिलकुल मत छुएं, तो और पैर छूने का कारण बन जायेंगा। बल्कि कई बार तो मैंने अनुभव ऐसा किया कि आप पैर छू रहे हों, और मैं आपका सिर हाथ से लगा दूं, या मैं भी सिर छू दूं, तो क्या आप दुबारा आते हैं। आदमी के मन का काम करने का ढंग बड़ा कंटेडिक्टिव है। तो मैंने अनुभव किया कि दोनों उपाय हैं, अगर मुझे कोई भगवान कहता है, तो मैं स्वीकार कर लूं कि मैं भगवान हूं, जो कि मैं नहीं कर सकता। नहीं कर सकता इसलिए कि मैं नहीं, सब कुछ भगवान है । इसलिए विशेष रूप से किसी को भगवान कहने का कोई भी हक नहीं है। भगवान होना मेरे लिए सभी जीवन का साधार अस्तित्व है। साधारण क्वालिटी है, सभी लोग भगवान हैं। भगवान और अस्तित्व मेरे लिए पर्यायवाची हैं। तो कोई मुझे भगवान कहे, तो हां तो मैं नहीं भर सकता कि मैं भगवान हूं, सिर्फ इसलिए हां नहीं भर सकता, क्योंकि इसमें कोई अर्थ ही नहीं है। क्योंकि तुम भी भगवान हो। इससे मैं इनकार भी नहीं कर सकता। क्योंकि वह सभी कुछ भगवान है, तो मैं अपने लिए इनकार करूं तो भी विशिष्टता अपने लिए खोज रहा हूं। मेरे लिए भगवान होना ऐसा है, जैसे आप जीवित हैं। अगर मुझे कोई जीवित कहेगा तो क्या इनकार करूं और क्या हां भरूं? मेरे लिए आप भी जीवित हैं।
जो कठिनाई उठती है, वह प्रश्न करने वाले के मन से आती है। उसका ख्याल ऐसा है कि भगवान राम होते हैं, कृष्ण होते हैं, बुद्ध होते हैं। कोई भगवान होता है, बाकि तो भगवान नहीं है। असल में भगवान होना सहज अस्तित्व का गुण है। तो राम अगर भगवान होता है, तो सिर्फ इसीलिए कि आप भी भगवान हो सकते हैं, नहीं तो राम भी भगवान नहीं हो सकते। आपके भीतर जो छिपा है, आप उसे खोज ले सकें तो आपको पता चलता है। तो मैं किसको इनकार भरने जाऊं , और किसको हां भरने जाऊं ? हां भरने में भी अहंकार है, और इनकार करने में भी अहंकार है। अगर मैं हां भरूं कि हां मैं भगवान हूं, तो मेहर बाबा भी हां भरते हैं कि मैं भगवान हूं, तो मैं मानता हूं इसमें अहंकार है। क्योंकि मैं स्वीकार कर रहा हंू कि मैं भगवान हूं, इसका मतलब यह हुआ कि मैं विशिष्ट हूं और मैं हूं। अगर मेहर बाबा से आप जाकर कहें कि आप ही भगवान नहीं, सामने का जो चमोली का पान वाला है, वह भी भगवान है। तो वे नाराज हो जाएंगे। चमोली की तो बात छोड़ दें, अगर और भी कोई आदमी कहीं कह रहा है कि मैं भी अवतार हूं, तो वह नहीं मानने को राजी होंगे, वे कहेंगे कि इस युग के वही अवतार हैं, और एक युग में एक ही अवतार होता है। अगर आप यह कहें कि राम और कृष्ण और बुद्ध ये भी सब अवतार थे, तो भी उनको कठिनाई होती है, वे कहते हैं कि सब आंशिक अवतार थे, मैं पूर्ण अवतार हूं। हिंदू कहते हैं कि कृष्ण पूर्ण अवतार थे, तो मेहर बाबा कहते हैं, फिर समानता हो जाती है। तो मेहर बाबा कहते हैं कि पहले मैं अवतार रूप में आया, इस बार मैं स्वयं भगवान रूप में आया हूं। इसको मैं साधु का अहंकार कहता हूं। विधायक रूप से यह आदमी पागल हो गया है।
कृष्णमूर्ति निगेटिव हैं बिलकुल, मगर वह भी अहंकार है। वे कहते हैं कि मैं भगवान नहीं हूं, मैं गुरु नहीं हूं, मैं कोई भी नहीं हूं, लेकिन चालीस साल से यही कहे चले जा रहे हैं, इसको भी कहने की कोई जरूरत नहीं है। कभी कहने से कोई गुरु नहीं, और मैं चिल्लाता हूं चालीस साल तक कि मैं चोर नहीं हूं, मैं बेईमान...इसकी भी कोई जरूरत नहीं है, नहीं हूं तो नहीं हूं। लेकिन यह निगेटिव अहंकार है। ये भी विशेषता की बात है कि मैं नही हूं, मैं गुरु भी नहीं हूं, मैं अवतार भी नहीं हूं, मैं कोई भी नहीं हूं। मेरी तकलीफ है, ये दो उपाय की चीजें हैं। यानी दो उपायों के भी मेकेनिज्म हैं। अगर मैं कहूं मैं भगवान हूं, विधायक अहंकार का प्रयोग करूं, तो कुछ लोग हैं जो समर्पण कर सकते हैं, वे तत्काल मुझे मान लेंगे। जो विनम्र हैं। जो अहंकारी हैं वे मेरे खिलाफ मेरे दुश्मन हो जाएंगे। अगर मैं कहूं कि मैं कोई नहीं हूं, तो जो अहंकारी हैं, वे मुझे मान लेंगे, इसलिए कृष्णमूर्ति के पास अहंकारियों के सिवाय कोई इकट्ठा नहीं हो सका। क्योंकि अहंकारी उसी के पास जा सकता है, जो कहता है, मैं गुरु भी नहीं, मेरे पैर भी मत छूना, मुझे नमस्कार भी मत करना, मैं भगवान भी नहीं हूं। जो इतना भी कहता है कि तुम मेरे पास आते हो, लेकिन मैं तुम्हें सिखाता भी नहीं हूं, और वो तीस साल से सीख भी रहे हैं उससे, और इतनी भी विनम्रता नहीं कि यह कहें कि हमने तुमसे कुछ सीखा, तो वे लोग इकट्ठे होंगे।
मेहर बाबा के पास वे लोग इकट्ठे होंगे, जो समर्पण कर सकते हैं, जिनको कोई सहारा चाहिए। जो इतने भयभीत हैं अपने भीतर, इतना भी अहंकार नहीं कि अपने पैर पर खड़े हो सकें, वे चाहते हैं कि किसी के कंधे पर सब छोड़ दें, वे वहां इकट्ठे हो जाएंगे। मेरी तकलीफ है, ये दो विकल्प हैं। और मैं दोनों गलत मानता हूं। तो एक ही उपाय है कि मैं चुप रहूं, इस संबंध में कुछ न कहूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

शक्तिपात संभव है। शक्तिपात संभव है। और काम-ऊर्जा के द्वारा भी शक्तिपात संभव है। संभोग के द्वारा भी शक्तिपात संभव है। श्ंाकर की पूरी की पूरी शक्तियां, यह संभोग के द्वारा ही शक्तिपात संभव है। बल्कि...का मानना ही यह है कि संभोग के अतिरिक्त और कोई शक्तिपात हो ही नहीं सकता। तो जहां तक शक्ति की बात है, शक्ति की बात है, संभोग से शक्तिपात संभव है। क्योंकि संभोग का मतलब ही यह है कि दो शक्तियों का मिलन। अगर इसमें श्रेष्ठतर शक्ति कोई भी हो तो निकृष्ट शक्ति की तरफ प्रवाहित हो जाएगी। यह बायो-इलेक्ट्रिकल मामला है। इसमें कोई बहुत बड़ा धर्म का मामला भी नहीं है, यह सब सीधा और वैज्ञानिक विद्युत का मामला है। यह संभव है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन यह घटना बिलकुल झूठी है। और तंत्र पर मेरी बड़ी श्रद्धा है। भारी श्रद्धा है। और मेरा तो मानना है कि तंत्र अकेला विज्ञान है, जो भारत ने दिया है जगत को। और आज नहीं कल अगर भारत की प्रतिष्ठा होगी, तो तंत्र के कारण होगी। लेकिन भारत में जो नीतिवादी ट्रेडीशन का जो जकड़ है, उसकी वजह से तंत्र को बुरी तरह दबाया गया है। कल्पना नहीं कर सकोगे कि अकेले राजा भोज ने एक लाख तांत्रिकों की हत्या की। अकेले एक आदमी ने। उसने तय कर लिया कि भारत में एक तांत्रिक को नहीं बचने देगा। तांत्रिकों के लाखों ग्रंथ जलाए। यह हालत कर दी कि कोई आदमी अपने को तांत्रिक है, यह कह नही ंसकता था, खुलेआम। क्योंकि तांत्रिक का मतलब हो गया कि गलत। लेकिन पिछले दो सौ वर्षों में यूरोप में जो खोज-बीन हुई है...और फ्रायड के बाद, और विलहम रैक तक जो खोज-बीन हुई है, उस सबने तंत्र को नया मार्ग दे दिया है। और तंत्र की खोज वैज्ञानिक है। क्योंकि मनुष्य के भीतर जो गहरी से गहरी ऊर्जा है, वह सेक्स एनर्जी है। अगर हम मनुष्य की शक्तियों की खोज करने चलें, तो जैसे फिजिसिस्ट पदार्थ को तोड़ कर इलेक्ट्रिक पर पहुंचा है, वैसा ही तांत्रिक मनुष्य को तोड़ कर सेक्स एनर्जी पर पहुंचा है। मनुष्य का सारी-सारी बनावट सेक्स की है। आप पैदा हुए हैं सेक्स से, आपके मां और बाप के दो विद्युत कण, सेक्स कण, आपके निर्माण का सारा खेल, फिर उन्हीं दो सेक्स कणों के विस्तार से आपके सारे शरीर का विस्तार हुआ है। आपके पूरे शरीर की बनावट सेक्स कणों की है। जैसे एक विद्युत कणों से बना है, ऐसे ही जीवन काम कणों से बना है। और आपकी पूरी की पूरी ऊर्जा, ठीक समझा जाए तो सेक्स एनर्जी है। तंत्र का कहना यह है कि सैक्स एनर्जी अगर नीचे की तरफ बहती हो, तो काम वासना है, यही ऊ र्जा अगर ऊपर की तरफ बहने लगे, तो कुंडलिनी है। कुंडलिनी का कुल मतलब इतना है कि काम ऊर्जा ऊपर की ओर प्रवाहित हो रही हो, आयाम बदल गया है।
तो तंत्र ने भारी प्रयोग किए हैं कि संभोग के क्षण में भी साधक अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर प्रवाहित करता है। और काम-ऊर्जा अगर ऊपर प्रवाहित हो रही हो, तो हमें यह सब दिखाई पड़ता है कि संभोग हो रहा है। संभेाग नहीं हो रहा है। ये खजुराहो और पुरी और कोणार्क के सारे मंदिर अश्लील नहीं हैं, तांत्रिक हैं। लेकिन हमने यह हिम्मत ही खो दी कि हम भी इसी दुनिया से हैं, तांत्रिक हैं, हम खुद ही इतने कमजोर और डरपोक हो गए कि तंत्र की बात करनी ही नहीं है। तो मैं तंत्र पर मेरी प्रगाढ़ उत्सुकता है। वक्तव्य नहीं देता हूं मैं अभी तंत्र पर तो उसका कुल कारण इतना है कि जैसे-जैसे लोग तैयार हो जाएं, वैसे ही वक्तव्य दिए जायें। अन्यथा अकारण उपद्रव हो जाएंगे। अकारण उपद्रव हो जाएंगे। और तंत्र पर मेरी श्रद्धा है, और मेरे पास जो साधक होते हैं, उनको मैं तंत्र की दिशा में भी प्रवाहित करता हूं। उनको तंत्र के प्रयोग भी देता हूं कि वे अपने जीवन में कर सकें। उनकी काम ऊर्जा ऊपर की तरफ प्रवाहित हो, इसके लिए भी उनको साधना मैं देता हूं। साधनाओं के संबंध में, बहुत कुछ गौण रखना पड़ेगा...रखना पड़ेगा। एक आम चर्चा नहीं हो सकती। आम चर्चा न होने के कारण चर्चा में कोई गड़बड़ है, ऐसा नहीं है, आम चर्चा न होने का कारण यह लोकमानस है। वह जो भीड़ है चारों तरफ, उसने जो सुन समझ रखा है, उससे वह चीजों को समझती है।
अमरीका जैसे विचार स्वतंत्र वाले मुल्क में...रूजवेल्ट अमरीकन मनोवैज्ञानिक था--जर्मन था, अमरीका गया था। उसको तीन साल पागलखाने में काटने पड़े। क्योंकि जो बातें उसने कहीं, उनको गलत भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, और सही माना नहीं जा सकता, क्योंकि पूरी क्रिश्चियनिटी खिलाफ है। तो उसको जबरदस्ती पागल करार दिया गया। बीसवीं सदी के गहनतम अपराधों में से एक। और उस आदमी ने इतनी गहरी खोज की थी कि अगर वह प्रकट हो सकती पूरी की पूरी तो मनुष्य-जाति का परम कल्याण हो जाता। उसको तीन साल पागलखाने में रखा, पागलखाना, पागलखाने में ही वह मरा। और उसके मित्रों का, उसके शिष्यों का, बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिकों का ख्याल है कि जबरदस्ती की गई है।
उसने एक तंत्र का यंत्र बनाया था, जो भारत में बहुत दिन तक था, और उसने पहली दफा अमरीका में बनाया। उसने एक छोटा सा संदूक बनाया, व्यक्ति को उस संदूक में बंद कर देता था, संदूक की जो दीवालें थी, वह बहुत संवेदनशील तत्वों की बनाई हुई थीं। और उस व्यक्ति को काम ऊर्जा से ऊपर ले जाने के प्रयोग करवाता था। जब ऊर्जा ऊपर जाती है तो वह पूरा का पूरा बाॅक्स जो है, वह चार्ज हो जाता है, चार्ज हो जाता है...दिखाई पड़ती है। और उस पर उसने हजारों प्रयोग किए, अगर इलेक्ट्रिफाइड हो जाता, तो किसी भी काम वासना से भरे व्यक्ति को उसके भीतर लिटा दो, तो आधा घंटे में उसकी कामवासना क्षीण हो जाती। किसी काम वासना से पागल हो गए व्यक्ति को उसके भीतर लिटा दो, तो घंटे भर में उसका पागलपन शंात हो जाता। लेकिन यह उसने बाॅक्स बनाना शुरु किया, उस पर और कोई उपाय नहीं मिला मुकदमा चलाने का, तो साजिश के लिए उस पर मुकदमा चलाया गया कि उसने बिना लाइसेंस लिए यह बाॅक्स बनाया है, इसका पेटेंट नहीं करवाया। ये सब उपद्रव हैं। इसका पेटेंट होना चाहिए, इसका रजिस्ट्रेशन होना चाहिए। और यह इसको बेच रहा है, तो यह तो कमोडिटी बरदाश्त नहीं हो रही कि उसका तंत्र अमरीका का पूरा का पूरा...जेशन और ये सब होना था और नहीं है। और इसने कोई सात बेचे। इस पर मुकदमा चलाओ। तो उसको जिंदगी भर इसी मुकदमेबाजी में उसको परेशान किया। ये सारी तकलीफें हैं। लोकमानस की तकलीफें हैं, लोकमानस की समस्या बड़ी है। तो कुछ चीजें अनिवार्य रूप से गुप्त रखनी पड़ेंगी। तो मेरे पास बहुत से प्रयोग चल रहे हैं, जो गुप्त हैं। इन गुप्त प्रयोगों से नामालूम कितने साधु-संन्यासियों को तकलीफ है। होगी भी। बिल्कुल स्वाभाविक है। नामालूम कितने राजनीतिज्ञों को तकलीफ है, स्वभाविक है। नामालूम कितनी-कितनी तरह के ठेकेदारों को तकलीफ है, वह भी स्वाभाविक है। तो मेरे संबंध में वे बहुत सी बातें ईजाद करें, ईजाद करें कल मुकदमा दायर कर मुझे बंदी बनायें, वह सब हो सकता है, तो उसमें कोई बहुत अड़चन का मामला नहीं है। कोई अड़चन का मामला नहीं है। और हमारे मुल्क में तो किसी भी व्यक्ति को अप्रशिक्षित करना है, तो सरलतम बात यह है कि उसके चरित्र पर कोई बात कहीं कह दी जाए, फिर कोई खोज-बीन का कोई सवाल नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है, बात समाप्त हो गई। और क्या नहीं हो सकता?
अभी मुझे खबर आई, मैं तो यहां हूं और डेढ़ साल से अमृतसर नहीं गया हूं। अमृतसर में उन्होंने पोस्टर लगा दिए हैं कि मैं गिरफ्तार कर दिया गया हूं, क्योंकि मेरे पास, गांजा, अफीम, चरस, इस सब का भारी...। तो सारी दीवारों पर पोस्टर लगा दिए हैं। अब जो आदमी पढ़ रहा है, वह पता लगाने भी कहां जाएगा, कि हुआ कि नहीं हुआ। अब आदमी में बहुत समानता है, कि हुआ होगा, नहीं तो पोस्टर कैसे लगे? अब यह पोस्टर लगाने वाला कौन है, इसको कौन खोजने जाए, इसको कौन पकड़े, इससे क्या प्रयोजन, इससे क्या हल है? चुपचाप मुझे सुन लेना पड़ेगा। अब यह सब बड़े मजे का मामला है। अब परसो ईश्वर बाबू की पत्नी ने आकर कहा, उससे उसकी पड़ोसन ने कहा, तुम्हे पता है कि दस-बारह महिलाओं ने उनको बहुत बुरी तरह मारा भी है। और बुरी तरह पीटा और पुलिस आई तब उनको बचाया गया। क्योंकि उन महिलाओं के साथ छेड़खानी कर रहे थे। अब मामला यह है कि उन सबके लिए क्या किया जाए? कुछ नहीं किया जा सकता। और मेरे साथ ये सब अफवाहें चल सकती हैं, क्योंकि मैं जो प्रयोग कर रहा हूं, जो बातें कर रहा हूं, उनसे उनका तालमेल बैठ जाता है। जैसे मैं संभोग से समाधि की ओर वक्तव्य दिया, तो अगर मैं ब्रह्मचर्य के पक्ष में बोल रहा हूं और मेरे अनैतिक संबंध नहीं हैं किसी से, तो मेरे संबंध में आप कुछ बोल नहीं सकते, क्योंकि मेरे वक्तव्य, मेरे...क्योंकि मैं बोल तो ब्रह्मचर्य के संबंध में रहा होगा, मेरा चोरी से किसी से अनैतिक संबंध भी है, तो आप पता नहीं लगा सकते हैं। लेकिन मेरे साथ तकलीफ यह है कि मेरा किसी से संबंध भी नहीं है, तो भी मैं ब्रह्मचर्य के पक्ष में नहीं बोल रहा हूं। मेरी तकलीफ बहुत ऊं ची है, मैं बोल तो संभोग के पक्ष में रहा हूं, तो मानना बिलकुल पक्का ही है कि इस आदमी के संभोग के संबंध होंगे, यह संभोग के पक्ष में बोल रहा है। तो कोई अगर आपसे कहे, तो भरोसे के योग्य बात मालूम पड़ती है। जो आदमी संभोग के पक्ष में बोलता है, उससे ब्रह्मचर्य की तो आशा नहीं की जा सकती। ब्रह्मचारी से आप संभोग की आशा कर सकते हैं, संभोग के पक्ष में बोलने वाले से ब्रह्मचर्य की कैसे आशा करेंगे? ये सब स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह सब स्वाभाविक है।

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