छठवां प्रवचन
शिक्षा तनाव की नहीं, विश्राम की
मेरे प्रिय आत्मन्!मनुष्य-जाति के ऊपर जो बड़े से बड़े दुर्भाग्य आए हैं उनमें सबसे बड़े दुर्भाग्य वे हैं जिन्हें हम सौभाग्य समझते रहे हैं। सौभाग्य समझने के कारण उन दुर्भाग्यों से बचना भी संभव नहीं हुआ। उन्हें बदलना भी संभव नहीं हुआ। उनसे मुक्त होने का भी कोई उपाय नहीं किया गया, बल्कि सौभाग्य मानने के कारण, वरदान मानने के कारण हम अपने अभिशापों की जड़ों में भी पानी सींचते रहे हैं। और तब परिणाम में यह मनुष्य पैदा हुआ है जो हमारे सामने है। और यह समाज निर्मित हुआ है जो हमारे चारों तरफ फैला हुआ है। उन बड़े दुर्भाग्यों में शिक्षा के नाम से जो चलता रहा है उसे भी मैं बड़े से बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं।
सुन कर निश्चित ही आपको हैरानी होगी, क्योंकि शिक्षा तो वरदान है, शिक्षित हो जाना तो धन्यभागी हो जाना है। लेकिन क्या आपको पता है शिक्षा ने मनुष्य के जीवन को संतुलन और स्वास्थ्य नहीं दिया है बल्कि मनुष्य जीवन के सारे संतुलन को, सारे बैलेंस को छीन लिया है। और यह होना निश्चित था। क्योंकि जो हम अब तक शिक्षा से समझते रहे हैं उसमें कुछ बुनियादी भूलें हैं।
पहली बुनियादी भूल यह है कि हमने आदमी को केवल बुद्धि, केवल इंटलेक्ट समझ लिया है। इससे ज्यादा झूठी और गलत बात नहीं हो सकती। आदमी अकेले बुद्धि नहीं है और शिक्षा मात्र बुद्धि की है। शेष पूरा मनुष्य अधूरा और अछूता छूट जाता है। शेष पूरा मनुष्य अविकसित छूट जाता है। केवल बुद्धि विकसित होती है। यह वैसा ही है जैसे एक आदमी का सारा शरीर तो सूख जाए सिर्फ सिर बड़ा हो जाए, एक आदमी का सारा शरीर तो क्षीण हो जाए सिर्फ खोपड़ी बड़ी होती चली जाए। फिर वह आदमी एक कुरूपता होगा, एक अग्लीनेस होगा। और वह आदमी चलने में असमर्थ हो जाएगा। उसका बड़ा सिर उसके पूरे शरीर के संतुलन में नहीं होगा तो उसका जीना कठिन हो जाएगा।
शिक्षा के नाम पर यही हुआ है। हमने सोच लिया कि मनुष्य है केवल बुद्धि, केवल इंटलेक्ट। और तब हम पिछले तीन हजार वर्षों से मनुष्य की बुद्धि को ही विकसित करने के सब उपाय करते रहे हैं। बुद्धि विकसित हो गई लेकिन शेष सारा मनुष्य बहुत पीछे छूट गया। शेष मनुष्य तीन हजार वर्ष पीछे छूट गया, और बुद्धि तीन हजार वर्ष आगे चली गई। इन दोनों के बीज जो तनाव और खाई पैदा हो गई है वही हमारे प्राण लिए ले रही है। इससे एक उलटे ढंग की पंगुता पैदा हुई है, इनवर्टेड क्रिप्लडनेस पैदा हुई है। एक आदमी के पास सब होता है लेकिन आंखें नहीं होतीं, तो हम उस आदमी को कहते हैं कि इसका एक अंग पंगु है, विकसित नहीं हुआ है। एक आदमी के पास सब होता है लेकिन उसके पास दो पैर नहीं होते, उसे हम पंगु कहते हैं। इससे उलटे तरह की पंगुता भी हो सकती है जिसका हमें खयाल भी नहीं है। एक आदमी के पास कुछ न हो, केवल दो पैर हों, तो वह आदमी इनवर्टेड क्रिपिल्ड है। वह उलटे ढंग से पंगु हो गया है।
शिक्षा ने मनुष्य को स्वस्थ नहीं किया, पंगु किया है। केवल बुद्धि का विकास और शेष अंग अविकसित रह गए हैं। बुद्धि बड़ी होती चली गई और जीवन के सब स्रोतों से उसके संबंध, नाते विच्छिन्न हो गए। हम सिखाते क्या हैं? हम शिक्षा के नाम पर देते क्या हैं? जीवन की कोई शिक्षा देते हैं हम? कोई जीवन की कला सिखाते हैं? जरा भी नहीं। हम कुछ शब्द सिखाते हैं, कुछ गणित सिखाते हैं, कुछ भाषा सिखाते हैं, कुछ कैमेस्ट्री-फिजिक्स सिखाते हैं, कुछ भूगोल-इतिहास सिखाते हैं और इस सब सिखाने में हम सिखाते क्या हैं? हम शब्द सिखाते हैं। शब्द जीवन नहीं है जीवन को जीने में शब्द की उपादेयता है। लेकिन शब्द मात्र की शिक्षा जीवन की शिक्षा नहीं है। तब यह होता है कि शब्द तो बहुत हो जाते हैं। शिक्षित व्यक्ति के पास शब्दों के अतिरिक्त कोई संपत्ति नहीं होती। वह उतना ही मूढ़ होता है जितना अशिक्षित व्यक्ति। एक फर्क होता है, सिर्फ उसे यह भी भ्रम पैदा हो जाता है कि मैं मूढ़ नहीं हूं। जीवन के और सारे अंगों के संबंध में वह उतना ही अज्ञानी होता है जितना कोई और जंगल का निवासी। जीवन की कला के संबंध में उसकी कोई समझ नहीं होती। जीवन को जीने के रास्तों का उसे कोई पता नहीं होता। जीवन से उसका कोई परिचय ही नहीं होता। पुस्तकालयों से और किताबों से जीवन का क्या नाता है? क्लास रूम से जो परिचित है वह जीवन से परिचित है, ऐसा समझ लेने की भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है। और विश्वविद्यालय में जो स्वर्ण पदक ले लिया, जीवन उसे मिट्टी के पदक भी नहीं देगा इसे खयाल रखना जरूरी है।
शब्दों की शिक्षा मात्र शब्दों का संग्रह, मात्र शब्दों की संपत्ति मस्तिष्क पर एक बोझ तो बन जाती है, लेकिन मस्तिष्क को न तो मुक्त करती है, न जीवंत बनाती है, न विचारपूर्ण बनाती है, न जीवन को देखने की मौलिकता देती है, न जीने की कला देती है, न जीने का उपाय सिखाती है। इसको हम अब तक शिक्षा कहते रहे हैं। इस शिक्षा का यह फल है जो आदमी आज हमारे सामने खड़ा हो गया है--बीमार, विक्षिप्त, रुग्ण।
क्या आपको पता है जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है उतना आदमी विकृत होता चला जाता है? अशिक्षित आदमी के पास एक तरह का संतुलन और स्वास्थ्य था जो शिक्षित आदमी के पास नहीं है। जंगलों के वासियों के पास एक तरह का सौंदर्य था, एक तरह का संगीत था, एक आनंद था; जीवन में एक अर्थ और प्रयोजन था जो शिक्षित आदमी के पास नहीं है। यह बड़ी हैरानी की बात है। शिक्षित होकर क्या हम आनंद को खोने के मूल्य पर शिक्षित हो रहे हैं? हमारी आनंद को अनुभव करने की क्षमता और पात्रता कम हो रही है? क्या हम जीवन के साथ अपनी जड़ों का संबंध तोड़ रहे हैं?
अगर हम देखें, शिक्षित आदमी को निष्पक्ष आंखों से देखना कठिन है, क्योंकि हम भी शिक्षित आदमी हैं। इसलिए बहुत कठिन है यह बात कि हम शिक्षित आदमी के रोग को देख सकें। जहां एक ही रोग होता है वहां पहचानना बहुत कठिन हो जाता है। हम सभी शिक्षित हैं, न केवल हम शिक्षित हैं बल्कि हम शिक्षक भी हैं। हम उसी शिक्षा को फैलाने और देने वाले लोग भी हैं। हमें यह देखना बहुत कठिन हो जाएगा, यह सोचना बहुत कठिन हो जाएगा कि जो हम फैला रहे हैं वह मनुष्य को स्वस्थ नहीं बना रहा है। लेकिन जिनके पास भी आंखें हैं और जिन्होंने शिक्षा में शिक्षित होकर अपनी पूरी बुद्धिमत्ता नहीं खो दी है वे लोग कुछ बातें देखने में समर्थ हो सकते हैं।
अमरीका सर्वाधिक शिक्षित मुल्क है, लेकिन सर्वाधिक पागलों की संख्या भी अमरीका में है। इन दोनों के बीच कोई संयोग है, संबंध है या केवल एक्सीडेंट है? जो मुल्क जितने शिक्षित होते जा रहे हैं उन मुल्कों का मानसिक तनाव, टेंशन उतना ही बढ़ता चला जा रहा है। ये आंकड़े हमारे खयाल में हैं या नहीं? जो मुल्क जितने शिक्षित हो रहे हैं उतने ही आत्मघात की संख्या वहां बढ़ती चली जा रही है। अमरीका में ही प्रतिदिन पंद्रह लाख से लेकर तीस लाख लोग मानसिक विकारों के लिए चिकित्सा की तलाश करते हैं। और ये सरकारी आंकड़े हैं, और हम भलीभांति जानते हैं सरकारी आंकड़े कभी भी ठीक नहीं होते। पंद्रह लाख से तीस लाख लोग अगर रोज मानसिक चिकित्सा को खोज रहे हों, तो हमें जानना चाहिए कोई व्यक्तिगत भूल नहीं हो रही है, कोई सामूहिक बीमारी मनुष्य के भीतर प्रविष्ट हो रही है। न्यूयार्क में तीस प्रतिशत लोग बिना दवा लिए रात को नहीं सो सकते हैं। और वहां के वैज्ञानिकों की खोज-बीन और शोध का यह नतीजा है कि आने वाले पचास वर्षों में न्यूयार्क में एक भी आदमी बिना दवा लिए नहीं सो सकेगा।
यह विकसित होते मनुष्य के लक्षण हैं। और न्यूयार्क से हमारा क्या वास्ता है, लेकिन बंबई भी बहुत दिन पीछे नहीं रहेगी। हम भी विकास करने में, दौड़ करने में साथ खड़े हो गए हैं। हिंदुस्तान भी पीछे नहीं रहेगा। जो हिंदुस्तान हर चीज में जगतगुरु रहा है वह पागलपन में भी जगतगुरु होकर ही रहेगा। हम बच नहीं सकते। हम दौड़ रहे हैं। हमारे नेता पूरी कोशिश कर रहे हैं कि हम किसी से पीछे न रह जाएं। पश्चिम पर जो एक काली छाया मानसिक तनाव और अशांति की पैदा हुई है वह कैसे पैदा हो गई है?
जिन लोगों ने पिछले तीन सौ वर्षों में पश्चिम को शिक्षित करने की कोशिश की है उन भले लोगों का भली इच्छाओं के साथ ही इसके पीछे हाथ है। शायद उन्हें पूरे जीवन का पता नहीं था। शायद अकेली बुद्धि विकसित हो जाएगी तो मनुष्य सुखी हो जाएगा यह खयाल था। जरूर बुद्धिमत्ता विकसित होनी चाहिए, बुद्धि विकसित होनी चाहिए। लेकिन जीवन के सारे अंगों के अनुपात में, बैलेंस में स्वास्थ्य के साथ, हृदय के साथ, प्राणों के साथ उसका विकास होना चाहिए। वह अकेली विकसित हो जाएगी तो खतरा होना निश्चित है।
बुद्धि के पास कोई हृदय नहीं होता है और बुद्धि जिस जीवन को बनाएगी और जिस जगत को बनाएगी वह भी हृदयहीन होगा। बुद्धि के पास गणित होता है, प्रेम नहीं। बुद्धि के पास हिसाब और आंकड़े होते हैं, भावना नहीं। बुद्धि संख्याओं में सोचती है और तर्क में सोचती है। जीवन तर्क और संख्याओं और गणित के पार चला जाता है। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है। कोई गणित जीवन को समझा नहीं पाता। कोई संख्या, कोई आंकड़े जीवन को हल नहीं कर पाते। जीवन बहुत मिस्टरीरियस है। लेकिन बुद्धि मिस्टरी को मानती ही नहीं, रहस्य को मानती ही नहीं। बुद्धि मानती है कि सब चीजें दो और दो चार जैसी सीधी और साफ हैं। बुद्धि की यह जो नाॅन-मिस्टरीरियस, यह जो रहस्य-शून्य और हृदय-हीन पहुंच है जीवन के प्रति, उसने ही जीवन को यांत्रिकता प्रदान कर दी है।
मनुष्य रोज-रोज मशीन की भांति होता चला जा रहा है। लेकिन जब कोई आदमी मशीन हो जाता है तो हम कहते हैं बहुत एफिशिएंट है, हम कहते हैं बहुत कुशल है। मशीन आदमी से हमेशा ज्यादा कुशल होती है, और आदमी की कुशलता पर ही अगर हमारा जोर रहा तो एक न एक दिन आदमी मशीन के जैसा कुशल हो जाएगा। लेकिन अपनी आत्मा को खोकर। आदमी भूल-चूक करता है, मशीन भूल-चूक नहीं करती। हम ऐसे आदमी की कोशिश कर रहे हैं जिससे भूल-चूक न हो सके, जो एकदम कुशल हो, जो एकदम गणित की लकीरों पर चलता हो। गणित की लकीरों पर चलना, रेल जैसे पटरियों पर दौड़ती है उस भांति है। लेकिन जीवन की सरिताएं पटरियों पर नहीं दौड़ती, अनजान, अपरिचित मार्गों पर दौड़ती हैं। जीवन की सरिता की एक स्वतंत्रता है जो बुद्धि के बंधे हुए ढांचों में समाविष्ट नहीं होती। लेकिन आज तक हमने यह किया है।
तो पहली बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अकेली बुद्धि की शिक्षा बुद्धिमत्ता नहीं है, यह वि.जडम नहीं है। जीवन के और पहलू भी हैं, और बुद्धि से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि आदमी बुद्धि से नहीं जीता, आदमी के जीने के स्रोत बुद्धि से कहीं ज्यादा गहरे हैं। न तो बुद्धि से हम प्रेम करते हैं, न बुद्धि से हम क्रोध करते हैं, न बुद्धि से हम घृणा करते हैं, न बुद्धि से हम सौंदर्य को परखते हैं, न बुद्धि से हम गीत और काव्य को पढ़ते हैं, और न ही बुद्धि से जीवन की कोई भी गहरी अनुभूति उपलब्ध होती है। अकेले बुद्धि की शिक्षा जीवन को सब तरह की अनुभूतियों से क्षीण और वंचित कर दे तो आश्चर्य नहीं। लेकिन हम बुद्धि की ही शिक्षा देते रहे हैं। इस शिक्षा ने एक अत्यंत असंतुलित, अनबैलेंस्ड मनुष्य को पैदा कर दिया है।
यह जो असंतुलित मनुष्य है यह कुछ भी कर रहा है, इससे कुछ भी हो रहा है, यह कोई भी उपद्रव कर रहा है। यह उपद्रव बिलकुल ही सुनिश्चित है कि होंगे, क्योंकि जब आदमी भीतर से असंतुलित हो जाए तो उसकी बाहर की चर्या भी असंतुलित हो जाती है। उसके जीवन में फिर कोई गति, कोई सुनिश्चित लक्ष्य, कोई संगीत, कोई लयबुद्धता, कोई रिदम नहीं रह जाती। यह तो हमारे दुर्भाग्यों में पहला दुर्भाग्य हुआ कि शिक्षा को हमने केवल बुद्धि की शिक्षा समझ रखा है, समग्र जीवन की नहीं, टोटल, पूरे जीवन की नहीं। पूरे जीवन की शिक्षा और ही अर्थ लेगी।
मेरी दृष्टि में बुद्धि पर अति भार मनुष्य के भीतर कुछ चीजों को विकसित होने से ही रोक देता है। पांच वर्ष के बच्चों को हम स्कूल भेज देते हैं, उनकी बुद्धि पर इतना भार पड़ता है--उनके शरीर, उनके हृदय, उनकी भावनाओं की जीवन में रस और आनंद लेने की सब क्षमताएं क्षीण हो जाती हैं। सारे जीवन का रस बुद्धि ले लेती है और बाकी सारा जीवन सूख जाता है। ये बच्चे बड़े होते हैं हृदयहीन, भावना-शून्य, प्रेम से रिक्त, मशीनों की भांति। उनका एक ही मूल्य होता है कि वे कितने बड़े पदों पर पहुंच जाएं, कितनी तनख्वाहें ले आएं, कितनी कुशलता से काम करें। बस इतना ही मूल्य है।
आदमी इसलिए पैदा होता है? आदमी केवल इसलिए पैदा होता है कि वह ज्यादा तनख्वाह कमाए और बड़ी कुर्सियों पर बैठ जाए? या आदमी किसी और आनंद की संपदा को खोजने जीवन में आता है? लेकिन उस संपदा को खोजने के लिए कुछ और चीजें विकसित होनी चाहिए। मेरी दृष्टि में, आज तो यह बात आपसे कहंूगा तो बहुत अजीब लगेगी, जब तक सारी मनुष्य-जाति आज नहीं कल इस निर्णय पर पहंुचेगी कि दस या बारह वर्ष तक या चैदह वर्ष तक बच्चे की बुद्धि पर कोई भार नहीं होना चाहिए। चैदह वर्ष के बाद ही बच्चे की बुद्धि पर भार होना चाहिए। चैदह वर्ष तक उसके शरीर और उसकी भावनाओं के विकास पर सारा श्रम होना चाहिए। चैदह वर्ष बच्चे के जीवन में बहुत संक्रमणकालीन हैं। जैसे ही सेक्स मैच्योरिटी उपलब्ध होती है, जैसे ही बच्चा यौन की दृष्टि से परिपक्व होता है, उसके बाद ही उसकी बुद्धि का सम्यक विकास करना आसान और उचित है। उसके पहले उसके जीवन के और बहुमूल्य हिस्से हैं वे विकसित होने चाहिए। उसका स्वास्थ्य विकसित होना चाहिए, उसकी भावनाएं विकसित होनी चाहिए, उसके प्रेम करने की क्षमता विकसित होनी चाहिए। क्योंकि बचपन में जिन बच्चों के प्रेम करने की क्षमता विकसित नहीं हुई है वे बूढ़े भी हो जाएं तो उनके भीतर प्रेम का विकास नहीं हो सकेगा।
बचपन सबसे सुखद और अदभुत मौका है कि बच्चे के जीवन में प्रेम विकसित हो जाए, लेकिन उस समय को हम गणित सिखाने में, भूगोल सिखाने में और इतिहास की बेवकूफियां सिखाने में नष्ट करते हैं और समाप्त करते हैं। क्या प्रयोजन है? बच्चा अगर नहीं जानेगा बहुत भूगोल तो कुछ हर्ज नहीं होता है। और बच्चे ने अगर अकबर और नेपोलियन और सिकंदर जैसे पागल लोगों के नाम नहीं सीखे तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। किन लोगों ने कितने लोगों की हत्याएं की हैं अगर इसकी कोई योजना बच्चे ने नहीं सीखी तो कोई अंतर नहीं पड़ता है। और किस सन् में कौन बादशाह पैदा हुआ और मरा, इन नासमझियों को सीखाने का न कोई अर्थ है, न कोई सार है। लेकिन इन सबके सिखाने में बच्चे के प्रेम के जो क्षण थे विकसित होने के, वे नष्ट हो जाते हैं।
क्या आपको पता है, बचपन के बाद आपका सारा प्रेम झूठा और थोथा और धोखे से भरा हो जाता है? जिनको आपने बचपन में चाहा है उस चाह में और जिनको आप बड़े में चाहते हैं, बुनियादी फर्क है। बचपन की वह जो पवित्रता है प्रेम की, अगर एक बार खो गई, अगर वह इनोसेंस एक बार खो गई, तो जीवन में उसे दुबारा पाना अत्यंत दूभर, अत्यंत असंभव हो जाता है। बचपन की सारी पात्रता प्रेम के विकास में लगनी चाहिए, बुद्धि के विकास में नहीं। क्योंकि प्रेम के आधार पर, बुनियाद पर जो जीवन का भवन खड़ा होता है वही केवल आनंद को उपलब्ध हो सकता है। बुद्धि से आनंद का कोई भी नाता और संबंध नहीं है। बुद्धि को हम बुनियाद में रख देते हैं फिर जो भवन खड़ा होता है वह मंदिर नहीं होता है, वह एक फैक्टरी बन जाती है।
आदमी को जिंदगी फैक्टरी बनानी हो, तो बुद्धि पर भवन खड़ा होना चाहिए। और आदमी की जिंदगी एक मंदिर बनाना हो, तो प्रेम पर बुनियाद रखी जानी चाहिए। बचपन के सारे क्षण हृदय के विकास में दिए जाने चाहिए, सारा श्रम हृदय के विकास के लिए होना चाहिए। और हृदय के विकास के लिए कुछ और अवसर खोजने पड़ते हैं। वे अवसर नहीं जो हम स्कूल में और विद्यालय में खोजते हैं। हृदय के विकास के लिए जरूरी है कि बच्चा खुले आकाश के नीचे हो, बजाय बंद मकानों में। क्योंकि बंद मकान हृदय को भी बंद और कुंठित करते हैं। खुले आकाश के नीचे हो, दरख्तों के पास हो, चांद-तारों की छाया में हो, नदियों और समुद्रों के किनारे हो, खुली मिट्टी और पृथ्वी के संसर्ग में हो। जितने विराट के निकट होगा बच्चा उतने ही प्रेम का उसके भीतर जन्म होगा, और सौंदर्य का बोध, और रस विकसित होगा। बंद दीवालों में काले तख्तों के सामने बैठे हुए छोटे-छोटे बच्चों पर जो अपराध हो रहा है, जो पाप हो रहा है, उसकी गणना आज नहीं कल मनुष्य-जाति कभी न कभी करेगी, तो हम सब दोषी करार सिद्ध होंगे। बच्चों को होश आते ही हम बंद कमरों और दीवालों में बंद कर देते हैं शिक्षा के नाम पर। कारागृह में बंद कर देते हैं और क्या सिखाते हैं उन्हें हम? और कौन से जीवन का मूल्य सिखाते हैं? फिर बचपन के अदभुत क्षण जब कि जीवन से संपर्क हो सकता था, वे खो गए।
रवींद्रनाथ ने लिखा है, कि मुझे बंद किया जाता था स्कूलों में। बाहर वृक्षों पर चिड़ियां गीत गाती थीं और मुझे काले तख्ते को ही देखते रहना पड़ता था। चिड़ियों के गीत बहुत अदभुत थे, लेकिन मुझे शिक्षक की ही बेसुरी आवाज और भूगोल पढ़नी पड़ती थी। और अगर मेरे कान और अगर मेरे प्राण पक्षियों के निकट पहुंच जाते तो सजा झेलनी पड़ती थी। फिर रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन में पहली दफा जब विद्यालय खोला तो कौन उनको अपने बच्चे देता बिगाड़ने के लिए? रवींद्रनाथ खुद भी कोई उपाधि नहीं पा सके, किसी विश्वविद्यालय से। सौभाग्य था उनका, नहीं तो दुनिया एक महाकवि से वंचित रह जाती। भाग्यशाली थे वे। उनके मां-बाप असफल हो गए और रवींद्रनाथ को स्कूल से उठा लिया। अगर मां बाप सफल हो जाते तो दुनिया को एक बहुत बड़ा नुकसान सहना पड़ता। और इस दुनिया ने इतने कितने नुकसान सहे होंगे मनुष्य के इतिहास में उनका कोई आंकलन नहीं हो सकता, क्योंकि उनका कोई पता नहीं हो सकता कि कितने रवींद्रनाथ खो गए होंगे स्कूलों में।
रवींद्रनाथ ने जब पहला स्कूल खोला, कौन भेजता अपने बच्चों को बिगाड़ने के लिए? मैं कोई स्कूल खोलूं तो आप अपने बच्चे को भेजेंगे? नहीं भेजेंगे। बच्चों को बिगाड़ने के लिए कौन भेजता है? लेकिन फिर भी रवींद्रनाथ के मित्रों के कुछ ऐसे बच्चे थे जिनको और बिगाड़ना संभव ही नहीं था, उनको रवींद्रनाथ के स्कूल भेज दिया गया। वे आखिरी सीमा पर थे, उनसे कोई आशा और बिगड़ने की नहीं थी। रामानंद चटर्जी ने, मार्डन रिव्यू के संपादक ने भी अपने लड़के को भेजा हुआ था। उससे वे बाज आ गए थे। जिन लड़कों में भी थोड़ी प्रतिभा होती है मां-बाप उनसे जरूर परेशान हो जाते हैं। प्रतिभाहीन, मेधा-रिक्त जड़बुद्धि बच्चे मां-बाप को बड़े प्रीतिकर लगते हैं। क्योंकि उनसे जहां कहो बैठ जाओ वे वहीं बैठ जाते हैं और कहो उठ जाओ तो उठ जाते हैं। उनके पास अपनी न कोई आत्मा होती है, न अपने कोई प्राण होते हैं।
रामानंद ने अपने लड़के को भी भेजा था। तीन महीने बाद रामानंद देखने गए कि हालत क्या है, स्कूल कैसा चलता है? कोई आशा तो न थी स्कूल चलने की, लेकिन जो देखा उससे और बड़ी हैरानी हुई। एक बड़े वृक्ष के नीचे रवींद्रनाथ बैठे हैं, दस-पंद्रह बच्चे उनके आस-पास बैठे हैं। पढ़ाई चलती है। पास जाकर रामानंद ने देखा कि दस-पंद्रह नीचे बैठे हैं, दस-पंद्रह वृक्ष के ऊपर भी चढ़े हैं। यह कैसी कक्षा है? रवींद्रनाथ से उन्होंने कहाः मुझे शक था पहले ही, यह क्या हो रहा है? यह कोई कक्षा है? देख कर मुझे दुख होता है। लड़के वृक्ष पर चढ़े हुए हैं?
रवींद्रनाथ ने कहाः दुख मुझे भी होता है। फल पक गए हैं। जो लड़के नीचे बैठे हैं उन पर मैं हैरान हूं। दुख मुझे भी होता है, दुखी मैं भी हूं। मैं बूढ़ा हो गया अन्यथा मैं भी वृक्ष के ऊपर होता। फल पक गए हैं। फलों की सुगंध हवाएं ले आई हैं। वृक्ष पुकार रहा है। और अगर बच्चे नहीं चढ़ेंगे तो कौन चढ़ेगा? वृक्षों ने निमंत्रण दे दिया है। ये बच्चे अभी से बूढ़े हो गए जो नीचे बैठे हैं। इन्हें निमंत्रण ही नहीं मिल रहा है। इनकी नासापुटों में खबर नहीं हो रही है कि पक गए हैं फल। वृक्ष बुलाता है कि आओ। दुखी होंगे वे जो असमर्थ हैं ऊपर चढ़ने में, जो बूढ़े हो गए। लेकिन ये तो अभी बूढ़े नहीं हुए। मैं यही सोचता था बैठा-बैठा। ये बच्चे अभी से बूढ़े हो गए हैं क्या? इन्हें वृक्ष की चुनौती नहीं मिली? इन्हें कोई खबर नहीं मिली?
हम बच्चों को बचपन में ही बूढ़ा कर देते हैं, और फिर अगर जीवन से युवापन, ताजगी, फ्रेशनेस नष्ट हो जाती हो तो कौन जिम्मेवार है? मेरे देखे, बहुत अनाचार हो रहा है, बहुत अत्याचार हो रहा है, बहुत गलत हो रहा है। बचपन के क्षण इतने अदभुत हैं कि जीवन में वे वापस नहीं लौटेंगे। हिसाब-किताब की बातें बाद में भी हो सकती हैं। पूरा जीवन पड़ा है। लेकिन जीवन के कुछ मूल्यवान तत्व बचपन में ही दिए जा सकते हैं जो फिर कभी नहीं दिए जा सकते।
प्रकृति का सान्निध्य जिन बच्चों को नहीं मिलता उन बच्चों को परमात्मा का सान्निध्य भी नहीं मिल सकेगा, यह जान लेना चाहिए। क्योंकि प्रकृति द्वार है परमात्मा का। जिन्होंने आकाश के तले, सूरज के निकट, समुद्र की रेत पर, वृक्षों के पास वह जो वहां मौजूद है, जो प्रेजेंस वहां है परमात्मा की, उसे अनुभव नहीं कर लिया बचपन में, वे बुढ़ापे तक मंदिरों में पूजा करेंगे, पत्थरों की मूर्तियों के सामने सिर झुकाएंगे, गीता, कुरान और बाइबिल कंठस्थ कर लेंगे, लेकिन परमात्मा से उनका कोई संबंध नहीं हो सकता। जो द्वार था वे उसको ही खो गए हैं। जो रास्ता था वे उससे ही भटक गए हैं।
सम्यक शिक्षा, राइट एजुकेशन के लिए पहली बात जान लेनी जरूरी है और वह यह कि हम बच्चों को प्रकृति का सान्निध्य उपलब्ध करा सकें। उन्हें हम मनुष्य निर्मित मकानों के पास नहीं, लेकिन जीवन की ऊर्जा से जो निर्मित हुआ है उसके निकट ला सकें, उसी से वे परमात्मा के निकट पहुंच सकेंगे, उसी से वे प्रेम के निकट पहंुच सकेंगे, उसी से वे प्रार्थना के सूत्र समझ सकेंगे। और तब उनका जो जीवन खड़ा होगा...पीछे आना चाहिए गणित, प्रेम पहले, क्योंकि जिस आदमी ने प्रेम सीख लिया है फिर गणित उसे धोखा नहीं दे सकेगा।
संत अगस्तीन से किसी ने पूछाः हम क्या करें, हम क्या करें कि हमसे बुरा न हो? अगस्तीन ने कहाः यह मत पूछो, मैं तो एक ही बात जानता हंू, अगर तुम प्रेम जानते हो तो तुम जो भी करोगे वह बुरा नहीं हो सकेगा। यह मत पूछो कि हम क्या करें, यह सवाल नहीं है। अगर भीतर प्रेम नहीं है तो तुम जो भी करोगे वह बुरा होगा। और अगर भीतर प्रेम है तो तुम जो भी करोगे वह बुरा नहीं हो सकता है। लेकिन प्रेम की हमने कौन सी शिक्षा दी है, कौन सी दीक्षा दी है, हमने प्रेम के कौन से प्रमाण-पत्र बांटे हैं, हमने प्रेम की कौन सी उपाधियां दी हैं? और अगर तीन हजार वर्षों में आदमी बिलकुल प्रेम-शून्य हो गया हो, हत्यारा हो गया हो, हिंसक हो गया हो तो कौन है जिम्मेवार? हमारी शिक्षा के अतिरिक्त और किसी पर यह दोष नहीं दिया जा सकता, लेकिन इससे शिक्षक बुरा न मानें, क्योंकि शिक्षा को यह दोष देने का मतलब है, मैं शिक्षा को बहुत आदर दे रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि शिक्षा जीवन का केंद्र है इसलिए केंद्रीय दोष भी झेलने की तैयारी शिक्षक के पास होनी चाहिए क्योंकि केंद्रीय सम्मान भी कल उसी को मिल सकता है।
कल अगर जीवन परिवर्तित होगा तो सम्मानित भी शिक्षा ही होगी, और अगर आज जीवन दूषित और विषाक्त हो गया है तो उसके केंद्रीय दोष को, जिम्मेवारी को, रिस्पांसिबिलिटी को लेने को भी शिक्षाशास्त्री को तत्पर होना ही चाहिए। यह शिक्षा के केंद्रीय होने का, शिक्षा के केंद्र में होने की सूचना है। यह बहुत सम्मानपूर्वक है यह बात जो मैं कह रहा हूं कि शिक्षा केंद्रीय है, न तो राजनीतिज्ञ जिम्मेवार है और न धर्मगुरु उतना जितना शिक्षक जिम्मेवार है। लेकिन आने वाली दुनिया भी शिक्षक को ही सम्मान देगी अगर वह जीवन को बदलने के कोई आधार रख सकता है। अगर आप नहीं बदल सकेंगे बच्चे कल बदलना शुरू कर देंगे।
एक मित्र मेरे हालैंड से और बैल्जियम से होकर लौटे हैं। उन्होंने मुझे कहा वहां हाई स्कूल के लड़के और लड़कियों ने आगे पढ़ने से इनकार करना शुरू कर दिया है। उनके बड़े संगठन हैं और वे यह कहते हैं कि आगे पढ़ने से क्या होगा? मां-बाप से भी वे यह पूछते हैं कि आप तो बहुत पढ़े-लिखे हैं, आपके जीवन में क्या हो गया है? तो हमें व्यर्थ उसी मशीन से क्यों गुजारते हैं जिससे गुजर कर आपने कुछ भी नहीं पाया है? और मां-बाप के पास उत्तर नहीं है इस बात का। अगर आपके बच्चे भी आपसे पूछेंगे कि शिक्षित होकर आपने क्या पा लिया? क्या उत्तर है आपके पास? तिजोरी बता देंगे अपनी? अपने बड़े मकान बता देंगे? दिल्ली में पाई गई अपनी कुर्सियां बता देंगे? क्या बताएंगे बच्चों को?
है कुछ आपके पास जो शिक्षित होकर आपने पा लिया है? क्या बल से आप कह सकते हैं कि मेरा आत्मबल बड़ा है। क्या बल से आप कह सकते हैं कि मेरा आनंद विकसित हुआ है? क्या बल से आप कह सकते हैं कि जीवन के प्रति मेरा मेरा ग्रेटिट््यूड, अनुग्रह-भाव विकसित हुआ है? क्या आप कह सकते हैं कि मैं धन्यभागी हुआ हूं? नहीं कह सकते हैं तो बच्चे आज नहीं कल आपसे पूछेंगे और अगर उत्तर नहीं है आपके पास तो मैं आपको कहे देता हूं बच्चे आज नहीं कल, आपकी शिक्षा की फैक्ट्रियों में जाने से इनकार करेंगे उन्होंने बहुत शिक्षित मुल्कों में इनकार करना शुरू कर दिया है। ठीक भी है उनका इनकार। लेकिन इसके पहले कि वे इनकार करें, क्या हम सारे जीवन के सोचने का ढंग बदल नहीं सकते?
सेक्स मैच्योरिटी तक जब तक बच्चा यौन की दृष्टि से परिपक्व नहीं हो जाता लड़का या लड़की, तब तक उसके जीवन की केंद्रीय शिक्षा प्रेम और हृदय की होनी चाहिए। क्योंकि सारा जीवन उससे निकलेगा, फिर वह पत्नी बनेगी या पति बनेगा, वह बाप बनेगा या मां बनेगी, उसके जीवन के सारे रागात्मक संबंध उसके प्रेम और हृदय के संबंध होंगे; गणित के नहीं, भूगोल के नहीं, इतिहास के नहीं। इतिहास पढ़ने से कोई मां ज्यादा बेहतर मां नहीं बन सकती और न भूगोल पढ़ने से कोई बाप ज्यादा बेहतर बाप बन सकता है। कुछ और चाहिए जो एक बेहतर मां को, बेहतर बाप को पैदा करे। कुछ और चाहिए जो एक पत्नी को और पति को पैदा करे।
आज न तो दुनिया में मां है, न बाप; न पत्नी और न पति। इनके नाम पर सूडो रिलेशनशिप्स हैं, इनके नाम पर झूठे संबंध हैं। जिसको आप पत्नी कहते हैं उसको कभी आपने प्रेम किया है? यह तो हो भी सकता है कि जिसको आप पत्नी नहीं कहते हैं उसको आपने कभी प्रेम किया हो, लेकिन जिसको आप पत्नी कहते हैं उसे कभी नहीं। जिसको पत्नी पति कहती है उसको कभी चाहा है? उसे कभी आदर दिया है? उसे कभी प्रेम किया है? प्राणों ने कभी उसके लिए प्रार्थना की है? कभी उसके जीवन को समृद्ध और संगीतपूर्ण बनाने के लिए कोई कदम उठाए हैं? बिलकुल नहीं, बल्कि उसके जीवन में जितने कांटे बो सकें पत्नियां उतने कांटे बोती हैं, जितनी बाधाएं खड़ी कर सकें उतनी बाधाएं खड़ी करती हैं, और पति भी यही करते हैं, मां-बाप भी यही करते हैं। कहते हैं हम कि अपने बच्चे को प्रेम करते हैं। हमने प्रेम जाना ही नहीं, हम बच्चे को प्रेम कैसे करेंगे? अगर हम बच्चों को प्रेम करते होते, तो दुनिया में इतने युद्ध नहीं हो सकते थे। कौन मां-बाप हैं जो अपने बच्चों को युद्ध में भेजते? अगर हम अपने बच्चों को प्रेम करते होते तो दुनिया इतनी कुरूप नहीं हो सकती थी। अगर हम अपने बच्चों को प्रेम करते होते, तो मैं तो यह कहता हूं कि आप बच्चे पैदा भी नहीं कर सकते थे। क्योंकि इस कुरूप और गंदी दुनिया में कौन प्रेम करने वाले मां-बाप अपने बच्चों को पैदा करने को तैयार होते? वे हाथ जोड़ लेंगे कि इस दुनिया में हम बच्चे को कैसे लाएं? किस मुंह से लाएं? कल बच्चे बड़े होंगे तो हम बेशर्म मालूम होंगे उनके सामने कि इस दुनिया में हमने तुमको पैदा किया। इस कुरूप, बदशक्ल, अनीति से भरी, अंधकारपूर्ण दुनिया में हम तुम्हें कैसे भेजें?
मां-बाप बच्चे पैदा करने से इनकार कर देते अगर उनके हृदय में प्रेम होता। नहीं, लेकिन वे बच्चे पैदा किए चले जाते हैं। उन्हें बच्चों से कोई प्रयोजन नहीं है। वे बच्चों को बड़ा किए चले जाते हैं। वे बच्चों को तोप-बंदूक का भोजन बनाए चले जाते हैं। नई-नई तरकीबों और नये-नये नामों पर बच्चों की हत्या करवाए चले जाते हैं--हिंदुस्तान के नाम पर, पाकिस्तान के नाम पर, चीन के नाम पर, कम्युनिज्म के नाम पर, डेमोक्रेसी के नाम पर। किसी भी बड़े नारे के नाम पर मां-बाप अपने बच्चों की हत्या करवाने को हमेशा तैयार हैं। नाम बहुत बड़े हैं, नारे बहुत बड़े हैं, बच्चे बहुत छोटे हैं।
अगर दुनिया में प्रेम होता मां-बाप के मन में बच्चों के प्रति एक दूसरी दुनिया पैदा होती जिसमें युद्ध नहीं हो सकते थे। क्योंकि हर बच्चा किसी मां का बच्चा है और हर बच्चा किसी बाप का बेटा है। कौन अपने बच्चों को युद्ध में भेजने को राजी होता? हम कह देते मिट जाए पाकिस्तान, मिट जाए हिंदुस्तान, लेकिन बच्चे युद्ध में नहीं जा सकते। बचे चीन, बचे रूस न बचे, अमरीका रहे न रहे, लेकिन कोई मां अपने बेटे को युद्ध पर भेजने के लिए तैयार नहीं है। दुनिया से युद्ध भी खत्म होते, राजनीति भी, राजनीतिज्ञ भी, राष्ट्र भी। लेकिन कोई अपने बेटों को प्रेम नहीं करता है। प्रेम हम जानते ही नहीं हैं। प्रेम से हमारा परिचय ही नहीं है। प्रेम से हमारी मुलाकात ही नहीं हो पाई है। प्रेम से मुलाकात के क्षण तो हमने न मालूम क्या-क्या फिजूल की बातें सीखने में नष्ट कर दिए हैं। तो मेरी दृष्टि में शिक्षा की बुनियाद होनी चाहिए प्रेम, बुद्धि नहीं। बुद्धि केवल उपकरण है। अगर भीतर प्रेम होगा तो बुद्धि एक मीन्स बन जाती है, एक उपकरण बन जाती है प्रेम को फैलाने और विकसित करने का, और भीतर अगर प्रेम नहीं होगा तो बुद्धि एक उपकरण बन जाती है अप्रेम को फैलाने का।
ट्रूमैन ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराने की आज्ञा दी। दूसरे दिन सुबह, मैंने सुना है, पत्रकारों ने ट्रूमैन को घेर लिया और पूछाः रात आप शांति से सो सके? ट्रूमैन ने कहाः बहुत शांति से। जैसे ही मुझे खबर मिली कि हिरोशिमा, नागासाकी राख हो गए और जापान समर्पण कर देगा, वैसे ही मैं पहली दफा शांति से सो सका। उन पत्रकारों में से किसी ने भी यह नहीं पूछा कि एक लाख बीस हजार आदमी नष्ट हो गए और तुम शांति से सो सके? तुम आदमी हो या कुछ और? लेकिन उस आदमी का नाम हैः ट्रूमैन, असली आदमी।
हमारी शिक्षा ऐसे ही ट्रूमैन पैदा कर रही है। जिनके भीतर कोई मनुष्यता, जिनके भीतर प्राणों की कोई ऊर्जा, कोई करुणा नहीं है। जिनके पास प्रेम का कोई झरना नहीं है। जिनके पास प्रेम का झरना नहीं है वे हिसाब लगाने वाले कंप्यूटर्स हो सकते हैं, वे मशीनें हो सकते हैं हिसाब लगाने वाली, लेकिन आदमी नहीं। आदमी की पहली पहचान उसके भीतर प्रेम है, जितना बड़ा प्रेम उतना बड़ा आदमी। जितना बड़ा प्रेम उतनी उस आदमी की परमात्मा से सन्निधि। इसलिए एक बात ही बुनियादी रूप से कहना चाहता हूं कि शिक्षा के प्राथमिक चरण प्रेम के चरण होने चाहिए। और प्रेम के चरण उठाने के लिए बंद दीवालें नहीं, खुला आकाश, पक्षी और वृक्ष, तारे और चांद चाहिए।
प्राथमिक शिक्षा गणित की नहीं काव्य की। प्राथमिक शिक्षा भूगोल की नहीं सौंदर्य की। प्राथमिक शिक्षा विज्ञान की नहीं, कला की। प्राथमिक शिक्षा तनाव की नहीं, विश्राम की और शांति की। अगर हम चैदह वर्ष तक की शिक्षा को इस भांति व्यवस्थित कर सकें तो बाद में इन बच्चों को बिगाड़ना कठिन है। इनको फिर किसी भी स्कूल और किसी भी युनिवर्सिटी में भेजा जा सकता है। फिर इन्हें कुछ भी सिखाया जा सकता है। उससे फिर कोई खतरा नहीं होगा। इनके प्रेमपूर्ण हाथ में अगर तलवार दे दी जाएगी तो उस तलवार से कोई नुकसान नहीं होगा। एटम दे दिया जाएगा तो कोई नुकसान नहीं होगा। फिर बड़ी से बड़ी शक्ति प्रेम के हाथों में सृजनात्मक, क्रिएटिव हो जाती है। विज्ञान ने शक्ति खोज दी है आदमी के लिए बड़ी से बड़ी, लेकिन शिक्षक प्रेमपूर्ण हृदय नहीं दे पाया। बड़ी शक्ति खतरनाक है उन हाथों में जिनके पास प्रेम न हो।
नादिरशाह हिंदुस्तान की तरफ आता था। एक ज्योतिषी से उसने पूछा कि मैं सुनता हूं कि ज्यादा सोना, ज्यादा नींद लेना बहुत बुरा है और मुझे तो बहुत नींद आती है। क्या सच में बुरी बात है ज्यादा देर सोए रहना? उस ज्योतिषी ने कहाः नहीं, आप जैसे लोग अगर चैबीस घंटे सोए रहें तो बहुत अच्छा है। बुरे लोग अगर बिलकुल सो जाए तो बहुत अच्छा है। भले लोगों का जागना अच्छा होता है, बुरे लोगों का सोना।
सुनते हैं नादिरशाह ने उस आदमी की गर्दन कटवा दी, लेकिन उसने बात बड़ी सच्ची कही थी। सच्ची बात कहने वालों की गर्दन काटे जाने का पुराना रिवाज रहा है। उसने बात ठीक कही थी। बुरे आदमी का सोना अच्छा है, अच्छे आदमी का जागना। ऐसे ही मैं कहता हूं प्रेमपूर्ण व्यक्ति का शक्तिशाली होना अच्छा है, प्रेम शून्य व्यक्ति का नपुंसक होना अच्छा है, शक्तिहीन होना अच्छा है, इंपोटेंट होना अच्छा है। प्रेमपूर्ण व्यक्ति के हाथ में शक्ति हो तो जीवन विकसित होता है। और प्रेम-शून्य व्यक्ति के हाथ में शक्ति हो तो जीवन एक कब्रिस्तान बनेगा और कुछ भी नहीं बन सकता है। हम यही करते रहे हैं।
इस दिशा में चिंतन करना जरूरी है। शिक्षकों से मैं यही प्रार्थना और निवेदन करने आया हूं कि वे सोचें, वे इस संबंध में सोचें कि हृदय का विकास कैसे हो। और अगर जरूरी हो, मुझे तो लगता है कि अगर सौ वर्ष के लिए सारी दुनिया के सारे विश्वविद्यालय और सारे विद्यापीठ बंद कर दिए जाएं और आदमी के मन को बिलकुल ही अशिक्षित छोड़ दिया जाए तो भी नुकसान नहीं होगा, जितना नुकसान सौ वर्षों में जो शिक्षा चल रही है उसको देने से होने वाला है। आदमी हजारों वर्ष तक अशिक्षित था। उन अशिक्षित लोगों ने भी आनंद जाना, गीत जाने, प्रेम जाना। उन्होंने भी एक दुनिया बनाई थी। उनके जीवन में भी खुशी थी और मुस्कुराहटें थीं, हमसे ज्यादा, हमसे बहुत ज्यादा। हमने सब खो दिया है। आदमी के निसर्ग को वापस लौटा लेना जरूरी है।
मैं यह नहीं कहता हूं कि शिक्षा खत्म कर दी जाए। मैं यह कह रहा हूं कि शिक्षा की बुनियाद बदल दी जाए। और यही शिक्षा चलती हो कोई विकल्प न हो, यही शिक्षा एकमात्र आॅल्टरनेटिव हो तो मैं कहता हूं यह सारी शिक्षा बंद हो जाए और आदमी वापस जंगल में लौट जाए तो भी हम कुछ खोएंगे नहीं। लेकिन मुझे लगता है विकल्प है, आॅल्टरनेटिव और भी हैं, इस शिक्षा को परिपूर्ण किया जा सकता है। और एक चीज इसमें जुड़ जाए, इसके आधार प्रेम के, भाव के, हृदय के, करुणा और दया के हो जाएं। मनुष्य के हृदय को हम पहले विकसित कर लें पीछे उसकी बुद्धि को। हृदय नेतृत्व करे, बुद्धि अनुगामी हो तो यह शिक्षा भी सम्यक हो सकती है।
मैं निराश नहीं हूं। निराश होता तो फिर आपसे यह बात नहीं कहता। शिक्षकों से यह बात इसी आशा में कहता हूं कि वे सोचेंगे। उनके हाथ में बड़ी शक्ति है। आज नहीं कल दुनिया उन्हें जिम्मेवार ठहराएगी अगर गलत हो गया कुछ। उसके पहले चिंतन कर लेना उचित है। फिर कभी दुबारा आपके बीच आता हंू तो मैं इस संबंध में आपसे बात कर सकंूगा कि प्रेम की शिक्षा कैसे हो। आज तो इस तरफ आपका ध्यान भर खींचा जा सके तो मैं समझंूगा मेरी बात पूरी हुई। इतना ध्यान भर खींचा जा सके कि बुद्धि के आधार पर रखे गए शिक्षा के भवन से फैक्टरी बन सकती है मंदिर नहीं। जीवन का मंदिर बनाना हो तो आधार प्रेम पर रखने होंगे और बचपन के चैदह वर्ष तक का समय प्रेम के विकास के लिए अदभुत मौका है। उस वक्त अगर हम चूक जाते हैं तो हम हमेशा के लिए चूक जाते हैं। फिर कोई उपाय नहीं रह जाता कि हम उसमें बदलाहट ला सकें। और बचपन में बदलाहट लाने के लिए कुछ भी करना जरूरी नहीं था। प्रेम के झरने बहने को उत्सुक थे। हमने जान बूझ कर उन्हें रोक दिया, बहने नहीं दिया। हम केवल मौका बन जाएं उनके प्रेम के झरनों को बहने के लिए तो बिलकुल नये तरह के मनुष्य को पैदा करने में हम समर्थ हो सकते हैं।
और एक नये मनुष्य की अत्यंत जरूरत है। न तो इतनी जरूरत है इस बात की कि हम और नये एटम बम और हाइड्रोजन बम बनाएं। न इस बात की जरूरत है कि हम चांद-तारों पर पहुंचने के लिए स्पुतनिक और यान बनाएं। न इस बात की जरूरत है कि हम समुद्रों की गहरइयां नाप लें। न इस बात की जरूरत है कि हम बहुत बड़ी-बड़ी फैक्टरियां, बहुत बड़े-बड़े पुल, बहुत बड़े-बड़े रास्ते बनाएं। ये सब पड़े रह जाएंगे। आदमी अगर गलत हो गया तो ये सब व्यर्थ हो जाएंगे। इस वक्त तो एक ही इमरजेंसी है और वह यह है कि हम ठीक आदमी कैसे बनाएं। आदमी गलत है, ठीक आदमी कैसे निर्मित हो इस दिशा में हम सोचें।
मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कहीं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और इतनी शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हंू। और अंत में सबके भीतर बैठे, लेकिन अपरिचित, परमात्मा को प्रणाम करता हंू। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें