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सोमवार, 5 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(सम्यक शिक्षा)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
बहुत पुराने दिनों की कहानी है। एक सम्राट के महल के सामने बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से ही भीड़ लगनी शुरू हुई थी और सांझ होने को आ गई थी, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। सारी राजधानी महल के सामने इकट्ठी हो गई थी। कोई ऐसी बात घट गई थी कि जो भी आदमी आकर खड़ा हो गया था वह वापस नहीं लौटा था। दूर-दूर गांव तक खबर पहुंच गई थी दिन भर में। सम्राट के महल के सामने कोई बड़ी अजीब घटना घट गई। जिसने भी सुनी वह भागा चला आया। बात हो भी ऐसी ही गई थी। सुबह ही सुबह एक भिखारी ने भीख मांगी थी। सम्राट के सामने भिक्षापात्र फैलाया था। सम्राट ने कहा था अपने चाकरों को कि जाओ अन्न से भिक्षापात्र को भर दो। उस भिखारी ने कहाः मेरी एक शर्त है, मैं एक शर्त पर ही भिक्षा लेना स्वीकार करता हूं। और वह शर्त यह है कि मेरे भिक्षापात्र को पूरा भरना पड़ेगा। अधूरा भिक्षापात्र भरा लेकर मैं नहीं जाऊंगा। क्या आप वायदा करते हैं कि मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर सकेंगे? सम्राट हंसने लगा भिखारी की नासमझी पर। सम्राट के पास क्या कमी थी जो उस छोटे से पात्र को पूरा न भर सकेगा? उसने अपने वजीर को कहा कि अब अन्न से नहीं स्वर्ण-मुद्राओं से इसके पात्र को भर दो। इस भिखारी को शायद पता नहीं कि मेरे पास धन के अकूत खजाने हैं।

लेकिन वह भिखारी फिर बोला कि मेरी शर्त सुन लें, मैं पूरा पात्र भरेगा तो ही लौटूंगा, नहीं तो वापस नहीं लौटूंगा। सम्राट ने वजीर को कहा कि अब स्वर्ण-मुद्राओं से नहीं, हीरे-जवाहरातों से इसके पात्र को भर दो। और जब तक हीरे वापस नीचे न गिरने लगें, तब तक पात्र भरते ही जाना।
ताकि इस भिखारी को पता चल जाए, इसने किसके द्वार पर भीख मांगी है? वजीर गए और उन्होंने हीरे-जवाहरात लाकर उसके पात्र में डाले। डालते ही राजा को अपनी भूल पता चल गई। पात्र में हीरे गिरे और कहीं खो गए। पात्र खाली का खाली हो गया। तब सुबह से सांझ तक यह दौड़ चलती रही, वजीर दौड़ते रहे, और वे खजाने जो कभी खाली नहीं होते थे, सांझ तक खाली होने लगे। और वह पात्र जो बहुत छोटा दिखाई पड़ता था, भरने का कोई नाम ही न लेता था। खाली का खाली था।
सांझ होते-होते राजा घबड़ाया, बड़े सम्राटों से वह नहीं हारा था, लेकिन एक भिखारी से हारना पड़ेगा, इसकी कल्पना भी न की थी। उदास, सूरज के डूबने के साथ ही वह भिखारी के चरणों पर गिर पड़ा और कहा, मुझे क्षमा कर दें, मुझसे भूल हो गई। मैं इस पुराने नियम को भूल ही गया कि भिखारी की भूख इतनी बड़ी है कि सम्राटों के खजाने भी उसे नहीं भर सकते। मुझे क्षमा कर दो। मैंने अपने अहंकार में जो वादा किया था, वापस ले लेता हूं। मैं हारा और पराजित हो गया हूं। लेकिन जाने के पहले एक बात मुझे बताते जाओ, इस भिक्षापात्र में कौन सा जादू है? किन मंत्रों से इसे सिद्ध किया है? कौन सा रहस्य है इस भिक्षापात्र का जो भरता नहीं है? उस भिखारी ने कहाः कोई रहस्य नहीं है, न कोई जादू है, न किन्हीं मंत्रों से इसे सिद्ध किया है। बड़ी छोटी सी बात है, मैंने इस भिक्षापात्र को आदमी के हृदय से बनाया है। न आदमी का हृदय कभी भरता है, और न यह पात्र कभी भर सकता है।
पता नहीं यह बात कहां तक सच है और कहां तक झूठ है? यह भी पता नहीं कि आदमी के हृदय से कोई पात्र बनाया जा सकता है? लेकिन पीछे जो कहानी के छिपा हुआ रहस्य है, वह जरूर बिलकुल सत्य है। आदमी का हृदय कभी भी नहीं भरता है। जीवन भर की दौड़ के बाद भी हृदय खाली रह जाता है। जीवन की संध्या आ जाती है। और वह जो प्राणों का राजा है, मन के भिखारी के चरणों पर गिर पड़ता है, और कहने लगता है, क्षमा कर दो मैं तुम्हें नहीं भर पाया। मैंने जीवन भर कोशिश की, मैंने बहुत खजाने जीते, मैंने बहुत संपदा जुटाई लेकिन तुम खाली के खाली हो।
सिकंदर जिस दिन मरा था और जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली थी, लोग चकित रह गए थे देख कर कि अरथी के बाहर उसके दोनों हाथ लटके हुए थे। लोग पूछने लगे कि सिकंदर की अरथी के साथ कोई भूल हो गई है? हाथ भीतर होने थे, हाथ बाहर क्यों हैं? तो पता चला, मरने के पहले सिकंदर ने कहा था, मेरे हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, ताकि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ विदा हो रहा हूं। मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। आज तक कोई आदमी मन को भरकर विदा नहीं हो सका है।
इस कहानी से मैं क्यों अपनी बात शुरू करना चाहता हूं? इसलिए अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि मैं उसी शिक्षा को सम्यक शिक्षा, राइट एजुकेशन कहता हूं जो मनुष्य के मन को भरने की इस व्यर्थ दौड़ के प्रति जगा दे। मैं उसी शिक्षा को सम्यक कहता हूं जो महत्वाकांक्षा के इस पात्र से मनुष्य को मुक्त कर दे। मैं उसी शिक्षा को ठीक शिक्षा कहता हूं जो मनुष्य के मन की इस बुनियादी भूल से छुटकारा दिलाने में सहायक हो जाए। लेकिन ऐसी शिक्षा पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है। उलटे जिसे हम शिक्षा कहते हैं, वह मनुष्य की एंबीशन को, उसकी महत्वाकांक्षा को बढ़ाने का काम करती है। उसकी महत्वाकांक्षा की आग में घी डालती है। उसकी आग को प्रज्ज्वलित करती है। उसके भीतर जोर से त्वरा पैदा करती है। जोर से गति पैदा करती है ताकि वह व्यक्ति दौड़े और अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने में लग जाए। मन की वासनाओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति को सक्षम बनाने की कोशिश करती है शिक्षा, मन की महत्वाकांक्षा से मुक्त होने के लिए नहीं। और इसके स्वाभाविक परिणाम फलित होने शुरू हुए हैं। वे परिणाम यह हैं कि अगर सारे लोग महत्वाकांक्षी हो जाएंगे तो जीवन एक द्वंद्व और संघर्ष के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर सारे लोग अपनी महत्वाकांक्षा के पीछे पागल हो जाएंगे, तो जीवन एक बड़े युद्ध के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है। पुराने जमाने के लोग अच्छे नहीं थे, आज के जमाने के लोग बुरे नहीं हो गए हैं। यह भ्रांति है बिलकुल कि पहले जमाने के लोग अच्छे थे और आज के लोग बुरे हो गए हैं। यह भी भ्रांति है कि पहले जमाने के युवक अच्छे थे और आज के युवक पतित हो गए हैं और चरित्रहीन हो गए हैं। झूठी हैं ये बातें, इनमें कोई भी तथ्य नहीं है। लेकिन एक फर्क जरूर पड़ा है, पुराने जमाने का जवान शिक्षित नहीं था, उसकी महत्वाकांक्षा बहुत कम थी। आज की दुनिया का युवक शिक्षित है, उसकी महत्वाकांक्षा की अग्नि में घी डाला गया है, वह पागल होकर प्रज्ज्वलित हो उठी है। और जितनी जोर से शिक्षा बढ़ती जाएगी उतने ही जोर से यह विक्षिप्तता और पागलपन भी बढ़ता जाएगा। शिक्षा के साथ ही साथ मनुष्य का पागलपन भी विकसित हो रहा है।
अतीत के युग अशिक्षित थे। बेपढ़े-लिखे लोग थे। उनकी महत्वाकांक्षा धीमे-धीमे जलती थी। आज के युग की शिक्षा ने आदमी को उसकी महत्वाकांक्षा को बहुत प्रज्जवलित कर दिया है। पहले कभी कोई एकाध आदमी पागल हो जाता था और सिकंदर बनने की कोशिश करता था। अब सब आदमी पागल हैं, और सभी सिकंदर होना चाहते हैं। और हम उन्हें सिकंदर और पागल बनाने की कोशिश को ही शिक्षा का नाम देते हैं।
मैंने पुरानी से पुरानी किताबें देखी हैं और मैं देख कर हैरान हो गया। चीन में संभवतः दुनिया की सबसे पुरानी किताब है, जो कोई साढ़े छह हजार वर्ष पुरानी है। और उस किताब की भूमिका में लिखा हुआ है कि आजकल के लोग बिलकुल बिगड़ गए हैं, पहले के लोग बहुत अच्छे थे। मैं बहुत हैरान हुआ। वह भूमिका इतनी माॅडर्न मालूम पड़ती है, ऐसा मालूम पड़ती है कि आजकल के किसी लेखक ने किताब लिखी हो। साढ़े छह हजार वर्ष पहले कोई लिखता है कि आजकल के लोग बिगड़ गए, पहले के लोग अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? आज तक जमीन पर एक भी किताब ऐसी नहीं है, जिसमें यह लिखा हो, आजकल के लोग अच्छे हैं। एक भी किताब ऐसी नहीं है जिसमें यह लिखा होः आजकल के लोग अच्छे हैं। हर किताब कहती है, पहले के लोग अच्छे थे। यह पहले की बात बिलकुल मिथ्य है। बिलकुल असत्य है।
अगर पहले के लोग अच्छे थे, तो ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध ने किन लोगों को सिखाया कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो? किन लोगों को सिखाईं ये बातें? अगर पहले के लोग अच्छे थे, तो महाभारत कौन करता था? और सीता को कौन चुरा ले जाता था? और अगर पहले के लोग अच्छे थे, तो दुनिया में ये जो टीचर्स हुए जीसस क्राइस्ट, कृष्ण और बुद्ध और कनफ्यूशियस, इन्होंने किन लोगों के सामने अपनी बातें समझाईं। ये किनके लिए रोते रहे, इनके हृदय में किन के लिए वेदना थी? ये किनसे कहते रहे कि तुम अच्छे हो जाओ? या तो ये सारे लोग पागल थे, लोग अच्छे ही थे और ये व्यर्थ उपदेश दिए जाते थे? अगर यहां सभी लोग सच बोलने वाले हों और मैं आकर समझाने लगूं कि आपको सच बोलना चाहिए, तो लोग हंसेंगे कि आप किसको समझा रहे हैं? यहां सभी लोग सच बोलते ही हैं।
दुनिया भर के शिक्षकों की शिक्षाएं ये कहती हैं कि लोग कभी भी अच्छे नहीं थे। जो फर्क पड़ा है वह इस बात में नहीं पड़ा है कि लोग बुरे हो गए हैं। फर्क यह पड़ा है कि बुरे लोग शिक्षित हो गए हैं। बुरे लोग शिक्षित हो गए हैं। और शिक्षा ने बुरे लोगों को अपनी बुराई को बचाने के लिए कवच का रूप ले लिया है। शिक्षा उनकी बुराई को बचाने का माध्यम हो गई है। शिक्षा उनकी बुराई को बढ़ाने का माध्यम हो गई है। शिक्षा उनकी बुराई की जड़ों में पानी डालने का कारण बन गई है। लोग बुरे नहीं हो गए, लेकिन बुरे लोग ज्यादा सबल और ज्यादा शक्तिवान हो गए हैं। और उनके हाथ में शिक्षा ने बड़े अस्त्र-शस्त्र दे दिए हैं। एक बुरा आदमी हो और उसके पास तलवार न हो, और एक बुरा आदमी हो और उसके हाथ में एटम बम आ जाए। तो जिसके हाथ में एटम बम है, वह बहुत बड़ी बुराई कर सकेगा। और शायद हम सोचेंगे जिनके पास एटम बम नहीं था, वे बड़े अच्छे लोग थे। उनके हाथ में जो था, पत्थर थे तो उन्होंने पत्थर फेंके थे। और एटम बम उनके हाथ में आ गया तो वे एटम बम फेंक रहे हैं। फेंकने वाले वही के वही हैं, केवल फेंकने वाली चीज की ताकत बढ़ गई है। आदमी शिक्षित हुआ है, और शिक्षा गलत है। आदमी बुरा हमेशा से था। बुराई के ऊपर और शिक्षा ने हजार गुनी ताकत दे दी है। कहते हैं न, करेला नीम पर चढ़ जाए तो और कड़वा हो जाता है। बुरा आदमी शिक्षा की नीम पर चढ़ गया। करेला तो पहले से ही था। और शिक्षा की नीम ने और कड़वा कर दिया।
यह शिक्षा जो हम आदमी को आज तक दिए हैं, और यह भी मत सोचना कि आज की शिक्षा ही गलत है, आज तक की सारी शिक्षा गलत रही है। यह भी मत सोचना की आज की ही शिक्षा गलत है, और यह पश्चिम के लोगों ने आकर शिक्षा गलत कर दी, भूल कर मत सोचना। शिक्षा हमेशा गलत रही है। और यह भी मत सोचना कि विद्यार्थी ही गलत हो गए हैं, विद्यार्थी और गुरु हमेशा से सभी गलत रहे हैं। द्रोणाचार्य का नाम हम भलीभांति जानते हैं। अपने एक अमीर शिष्य के पक्ष में एक गरीब शूद्र का अंगूठा काट लाए थे। वे गुरु थे। एकलव्य से इसलिए अंगूठा मांग लिया था कि अंगूठा दे दे तू, क्योंकि एकलव्य था शूद्र और गरीब और दरिद्र, और अर्जुन था, धनपति, सम्राट, राजकुमार। अगर एकलव्य धनुर्विद्या में बड़ा हो जाए, तो अर्जुन को कोई पूछेगा नहीं दुनिया में। तो उस गरीब शूद्र लड़के से अंगूठा कटवा लिया। ताकि अमीर शिष्य आगे बढ़ जाए। पहले से ही गुरु गरीब शिष्यों के अंगूठे काटते रहे हैं। कोई आज की बात नहीं है। लेकिन एक फर्क पड़ गया, एक फर्क पड़ गया। पुराना एकलव्य सीधा-साधा था, उसने अंगूठा दे दिया था। नये एकलव्य अंगूठा देने से इनकार कर रहे हैं। वे कहते हैं, हम अंगूठा नहीं देंगे। और वे कहते हैं, ज्यादा कोशिश की तो हम तुम्हारे अंगूठे काट लेंगे। यह फर्क पड़ गया है। इसके अतिरिक्त और कोई फर्क नहीं पड़ा है।
यह जो स्थिति है, यह जो आदमी की आज की दशा है, यह जो चिंता प्रकट होती है, सब तरफ कि विद्यार्थी आग लगा रहे हैं, पत्थर फेंक रहे हैं, मकान तोड़ रहे हैं यह कोई सामान्य घटना नहीं है। और यह घटना आज के विद्यार्थियों भर से संबंधित नहीं है। यह पांच हजार वर्षों का युवकों का रोष है जो इकट्ठा होकर क्लाइमेक्स पर पहुंच गया है। यह पांच हजार वर्ष की गलत शिक्षा का अंतिम फल है। यह पांच हजार वर्षों के शोषण, यह पांच हजार वर्षों के दमित युवक के मन की पीड़.ा और वेदना है। और आज उसने वह जगह ले ली है कि अब उस वेदना को कोई ठीक मार्ग नहीं मिल रहा है तो वह गलत मार्गों से प्रकट हो रही है। असल बात यह है कि युवक न तो मकान तोड़ना चाहते हैं, कौन पागल होगा जो मकान तोड़ेगा? क्योंकि मकान अंततः किसके टूटते हैं? बूढ़ों के नहीं टूटते, हमेशा युवकों के ही टूटते हैं। क्योंकि बूढ़े कल विदा हो जाएंगे। मकान युवकों के हाथ में पड़ने हैं। लेकिन मकान तोड़ने से कौन मकान तोड़ना चाहता है? कौन कांच तोड़ना चाहता है? कौन बसें जलाना चाहता है? कोई नहीं जलाना चाहता। शायद मन के भीतर किन्हीं और चीजों को जलाने की तीव्र भावना पैदा हो गई है, और समझ में नहीं आ रहा हम किस चीज को जलाएं तो हम किसी भी चीज को जला रहे हैं। सारे अतीत को जलाने का खयाल आज की मनुष्य आत्मा के भीतर पैदा हो रहा है। और समझ में नहीं आ रहा कि हम क्या जलाएं? हम क्या करें? हम क्या तोड़ दें? कोई चीज तोड़ने जैसी हो गई है। कोई चीज मिटाने जैसी हो गई है। कोई चीज बिलकुल जलाने जैसी हो गई है। हर युग को कुछ चीजें जला देनी पड़ती हैं ताकि वह अतीत से मुक्त हो जाए और आगे बढ़ जाए। ताकि वह परंपराओं से मुक्त हो जाए और जीवन गतिमान हो सके। नदी जब समुद्र की और दौड़ती है, तो न मालूम कितने पत्थर तोड़ने पड़ते हैं। कितने मार्ग की बाधाएं हटानी पड़ती हैं? कितने दरख्तों को गिरा देना पड़ता है? तब कहीं रास्ता बनता है और नदी समुद्र तक पहुंचती है।
हजारों-हजारों साल से मनुष्य की चेतना को रोकने वाली बहुत सी चीजें पत्थरों की दीवाल की तरह खड़ी हैं। आज तक आदमी ने विचार नहीं किया उन्हें तोड़ डालने का। लेकिन ऐसे, जैसे मनुष्य की चेतना में समझ, बोध, विचार का जन्म हो रहा है, वैसे-वैसे एक तीव्र वेदना, एक तीव्र आंदोलन सारे जगत में प्रकट हो रहा है। युवक नासमझ है, वह कुछ भी तोड़ने को लग गया है। लेकिन मुझे बड़ी खुशी मालूम होती है और मेरे हृदय में बड़ा स्वागत है। कम से कम उसने तोड़ना तो शुरू किया है। आज गलत चीजें तोड़ता है, कल हम ठीक चीजें तोड़ने के लिए उसे राजी कर लेंगे। अभागे तो वे युवक थे जिन्होंने कभी कुछ तोड़ा ही नहीं। तोड़ने की सामथ्र्य एक बार पैदा हो जाए, तो तोड़ने की शक्ति को दिशा दी जा सकती है। एक बार विध्वंस की शक्ति आ जाए, तो उस शक्ति को सृजनात्मक बनाया जा सकता है, उसे क्रिएटिव बनाया जा सकता है। क्योंकि स्मरण रहे, जो लोग तोड़ ही नहीं सकते वे बना भी नहीं सकते हैं। और खयाल रहे, सृजन का पहला सूत्र विध्वंस है, बनाने के पहले तोड़ देना पड़ता है।
एक गांव था और उस गांव में एक बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना हो गया था, जैसे कि सभी चर्च पुराने हो गए हैं, सभी मंदिर पुराने हो गए हैं। वह बहुत पुराना हो गया था। उसकी दीवालें इतनी जरा-जीर्ण हो गई थीं कि उस चर्च के भीतर भी जाना खतरनाक था, वह किसी भी क्षण गिर सकता था। आकाश में बादल आ जाते थे और आवाज होती थी, तो चर्च कंपता था। हवाएं चलती थीं, तो चर्च कंपता था। हमेशा डर लगता था कि चर्च कब गिर जाएगा? चर्च में जाना तो दूर, पड़ोस के लोगों ने भी पड़ोस में रहना छोड़ दिया था। चर्च किसी भी दिन गिर जाएगा और प्राण ले लेगा। लेकिन चर्च के संरक्षक गांव भर में प्रचार करते थे कि आप लोग चर्च क्यों नहीं चलते हैं? क्या अधार्मिक हो गए हैं आप? क्या ईश्वर को नहीं मानते हैं? लेकिन कोई भी इस बात को नहीं पूछता था कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि चर्च बहुत पुराना हो गया है और उसके नीचे केवल वे ही जा सकते हैं जिनकी कब्र में जाने की तैयारी है, जो बिलकुल बूढ़े हो गए हैं, जिनको अब मरने से कोई डर नहीं है। जवान उस चर्च में नहीं जा सकते जो इतना गिरने के करीब है।
आखिर संरक्षक घबड़ा गए। और उन्होंने एक कमेटी बुलाई और उन्होंने सोचा कि अब अगर कोई आता ही नहीं इस पुराने चर्च में, तो उचित होगा कि हम नया चर्च बना लें। तो उन्होंने चार प्रस्ताव पास किए उस कमेटी ने। वह जरा गौर से सुन लेना। क्योंकि उनका बड़ा अर्थ है। उन्होंने चार रिजोल्यूशंस लिए। पहला संकल्प और पहला प्रस्ताव उन्होंने यह किया, सर्व सम्मति से उन्होंने यह तय किया कि पुराने चर्च को गिरा देना चाहिए। और सबने कहा कि बिलकुल ठीक है, सब स्वीकृति से इसको राजी हो गए। दूसरा प्रस्ताव उन्होंने यह किया कि हमें इसकी जगह एक नया चर्च बनाना चाहिए। लेकिन ठीक उसी जगह जहां पुराना चर्च खड़ा है, और ठीक वैसा ही, जैसा पुराना चर्च है। इस पर भी सभी लोग राजी हो गए। तीसरा उन्होंने प्रस्ताव यह किया कि हमें पुराना चर्च में जो-जो समान लगा है उसी सामान से नया चर्च बनाना है, दरवाजे भी वही, ईंटें भी वही, पुराने चर्च के सारे सामान से ही नया चर्च बनाना है। इस पर भी सभी लोग राजी हो गए। और चैथा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराना गिराना नहीं है। वह चर्च अभी भी खड़ा हुआ है। वह हमेशा खड़ा रहेगा। वह कभी नहीं गिर सकता। क्योंकि वे प्रस्ताव पास करने वाले बड़े होशियार थे।
आदमी की जिंदगी पर भी पुराने चर्चांे का बहुत भार है, पुरानी परंपराओं का पुराने मंदिरों का, पुराने शास्त्रों का, पुराने लोगों का। अतीत जकड़े हुए है, मनुष्य के भविष्य को। पीछे की तरफ हमारी टांगें कसी हुई हैं किन्हीं जंजीरों से, और आगे की तरफ हम मुक्त नहीं हो पाते। तो प्राण तड़फड़ा उठते हैं कि तोड़ दें सब, और जब कोई उत्सुक हो जाता है तोड़ने को तो यह भूल जाता है कि हम क्या तोड़ रहे हैं? युवक तोड़ रहे हैं, यह तो खुशी की और स्वागत की बात है। लेकिन गलत चीजें तोड़ रहे हैं, यह दुख की बात है। कुछ और जरूरी चीजें हैं जो तोड़नी चाहिए। लेकिन मैं तुमसे कहूं, तुम्हारे मुल्क के नेता और तुम्हारे मुल्क के अगुवा यही चाहते हैं कि तुम गलत चीजें तोड़ते रहो, ताकि तुम्हें कहीं ठीक चीजें तोड़ने का खयाल न आ जाए। वे यही चाहते हैं। यद्यपि वे तुम्हें समझाएंगे कि चीजें मत तोड़ो, बस में आग मत लगाओ, मकान मत जलाओ, वे तुम्हें समझाएंगे कि तुम यह बहुत बुरा कर रहे हो, लेकिन हृदय के बहुत गहरे कोने में वे यही चाहते हैं कि तुम्हारा मन व्यर्थ की चीजें तोड़ने में लगा रहे, ताकि सार्थक चीजों को तोड़ने की तरफ तुम्हारा खयाल न चला जाए। इसलिए जब तुम गलत चीजें तोड़ रहे हो तो यह मत सोचना कि तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो, जिससे जिंदगी बनेगी। तुम गलत लोगों के हाथ में खेल रहे हो, इसका तुम्हें पता नहीं है। वे लोग जो मुल्क के माइंड को डिस्ट्रेक्ट करना चाहते हैं, जो मुल्क के माइंड को, मुल्क के मस्तिष्क को गलत चीजों में उलझा देना चाहते हैं, वे तुम्हारे नेता हैं। और इस बात में जो तुम्हें फर्क दिखाई पड़ेगा, बहुत गहरे तल में, बहुत गहरी चालाकी है इस बात के पीछे हमेशा, हमेशा अगर लोगों को गलत चीजों में उलझा दिया जाए, तो ठीक चीजें तोड़ने से उन्हें रोका जा सकता है। उनकी ताकत व्यर्थ की चीजों को नष्ट करने में समाप्त हो जाती है। और न केवल ताकत समाप्त हो जाती है बल्कि व्यर्थ चीजें तोड़ कर वे खुद पश्चात्ताप से, रिपेंटेंस से भर जाते हैं। और तब उनकी तोड़ने की हिम्मत क्षीण हो जाती है। उनका अंतःकरण कहने लगता है गलत चीजें, यह गलत हो रहा है सब। उनके पास भी यह आत्मबल नहीं होता कि वे यह कह सकें कि हमने इस बस में आग लगाई है, तो कुछ ठीक किया है। उनके पास यह आत्मबल नहीं हो सकता है। तो उनका आत्मबल क्षीण होता है, गलत चीजें टूटने से कुछ बिगड़ता नहीं, और उनका आत्मबल नष्ट होता है। और उनकी तोड़ने की क्षमता नष्ट होती है। और उनके तोड़ने की शक्ति व्यर्थ की चीजों में उलझ कर समाप्त हो जाती है। और उनसे ज्यादा से ज्यादा खतरा तभी तक होता है जब तक वे विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं। उसके बाद उनसे कोई खतरा नहीं होता क्योंकि उनकी पत्नियां और उनके बच्चे, उनके सारे खतरों के लिए शाॅक-एब्जार्वर्स का काम करने लगते हैं। फिर उनसे कोई खतरा नहीं। एक बार उनकी शादी हो जाए फिर उनसे कोई खतरा नहीं।
और मैं आपसे यह भी कह देता हूं, जैसा मैंने आपसे कहा कि युवक शिक्षित हो गया है, इसलिए खतरा बढ़ा है। दूसरी बात, शादी की उम्र बड़ी हो गई है, इससे खतरा बढ़ा है। क्योंकि शादी बहुत पुराने दिनों से आदमी के भीतर विद्रोह की क्षमता को तोड़ने का काम करती रही। वह जो रिबेलियस स्प्रिट है, उसको नष्ट करने का काम करती रही। पुराने लोग इस मामले में बड़े होशियार थे। दस-बारह साल के लड़के और लड़कियों को विवाहित कर देते थे, और उसके बाद उनसे विद्रोह की कोई संभावना नहीं रह जाती थी। वे उसी वक्त से बूढ़े होने शुरू हो जाते थे, असल में वे जवान हो नहीं पाते थे।
सारी दुनिया में शिक्षा के साथ दूसरा तत्वः विवाह की उम्र लंबी हो गई है। चैबीस वर्ष और बीस वर्ष तक युवक और युवतियां अविवाहित हैं। ये दिन विद्रोह के, क्षमता के विकसित होने के क्षण हैं। उनके ऊपर कोई बंधन नहीं है। ये क्षण हैं जब वे विद्रोह में सोच सकते हैं, जब उनकी आत्मा किन्हीं चीजों को गलत कह सकती है।
अमरीका के मनोवैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि अमरीका में फिर छोटी उम्र में शादी शुरू कर देनी चाहिए, अगर युवकों को बचाना है कि चीजों को ता.ेड न दें, तो उनकी शादी जल्दी हो जानी चाहिए। क्योंकि तब उनकी सारी ताकत नून, तेल, लकड़ी को जुटाने में समाप्त हो जाती है। फिर उनसे कुछ भी नहीं हो सकता। जवानी में वे नून, तेल, लकड़ी जुटाते हैं, बुढ़ापे में स्वर्ग, परलोक वगैरह की व्यवस्था के लिए भजन-कीर्तन करते हैं। फिर उनसे कोई विद्रोह नहीं हो सकता। विद्रोह के क्षण हैं उनके पच्चीस वर्ष से पहले के क्षण। दुनिया में जो इतनी चीजें टूट रही हैं, उसके पीछे यह कारण है। और लेकिन मेरे मन में इससे दुख नहीं है कि चीजें टूट रहीं हैं, मैं तो मानता हूं ये बड़े शुभ लक्षण हैं, ये बड़े शुभ समाचार हैं। दुख इस बात का है कि गलत चीजें टूट रही हैं। बहुत और जरूरी चीजें हैं जिन्हें तोड़ देना चाहिए। और उन जरूरी चीजों में से पहली चीज है और वह यह है कि हमें उस दुनिया को जो महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ी है, बदल देना चाहिए। एंबीशन के आधार पर खड़ी हुई दुनिया को तोड़ देना चाहिए। और एक नाॅन-एंबीशियस, एक गैर-महत्वाकांक्षी समाज का निर्माण करना चाहिए। यह क्यों? यह इसलिए कि महत्वाकांक्षा के आधार पर खड़ा हुआ जगत हिंसा और दुख और पीड़ा का ही जगत हो सकता है। उसमें न तो प्रेम हो सकता है, न आनंद हो सकता है, न शांति हो सकती है।
महत्वाकांक्षा का अर्थ क्या होता है?
महत्वाकांक्षा का अर्थ होता है दूसरे से आगे निकल जाने की होड़। बचपन से हमें यही सिखाया जाता है, पहली कक्षा से यही सिखाया जाता है कि दूसरों से आगे निकल जाओ। प्रथम आ जाओ, प्रथम आना ही एकमात्र वैल्यू, एकमात्र मूल्य है। जो युवक प्रथम आ जाएगा, जो बच्चा पहला आ जाएगा, वह पुरस्कृत होगा, सम्मानित होगा। जो पीछे छूट जाएंगे, वे अपमानित हो जाएंगे। यह दुनिया इतनी उदास कभी न होती, लेकिन हमें पता ही नहीं है कि हम कैसी साइकोलाॅजिकल फाउंडेशंस रख रहे हैं मनुष्य के लिए।
एक स्कूल में अगर हजार बच्चे पढ़ते हैं, तो कितने बच्चे प्रथम आएंगे? दस बच्चे प्रथम आएंगे। और नौ सौ नब्बे बच्चे पीछे रह जाएंगे। दुनिया कौन बनाता है? प्रथम आने वाले लोग दुनिया बनाते हैं? या हारे हुए, पीछे रह जाने वाले लोग दुनिया बनाते हैं? दुनिया किनसे बनती है? दुनिया के संगठक कौन हैं? दुनिया के संगठक हैं, पराजित लोग; हारे हुए लोग; दुखी लोग जो प्रथम नहीं आ सके, वे लोग। और जब पहली ही कक्षा से किसी बच्चे को निरंतर-निरंतर पीछे रहना पड़ता है, उसके जीवन में आत्मग्लानि, इनफीरियरिटी, हीनता, दीनता सब पैदा हो जाती है। ये दीन-हीन लोग दुनिया के संगठक हैं, इनकी बड़ी संख्या होगी। ये दुनिया को बनाएंगे जिनको जीवन ने कोई सम्मान नहीं दिया, कोई आदर नहीं दिया। आप कहेंगे कि कौन इन्हें रोकता था? ये भी प्रथम आ सकते थे। ठीक कहते हैं आप, कोई इन्हें नहीं रोकता था। ये भी प्रथम आ सकते थे। लेकिन तीस लड़कों में कोई भी प्रथम आए, एक ही लड़का प्रथम आएगा, उनतीस हमेशा पीछे रह जाएंगे। उन्तीस दुखी होंगे। एक प्रसन्न होगा। कोई भी एक प्रसन्न हो यह सवाल नहीं है कि कौन एक प्रसन्न होता है? लेकिन उनतीस दुखी होंगे। उनतीस के दुख पर एक व्यक्ति का सुख निर्भर होगा। और ये उन्तीस बच्चे दुख लेकर जीवन में प्रविष्ट होंगे। हारे हुए लोग, पराजित लोग। एंबीशन ने सारी दुनिया को दीन-हीन बना दिया है।
एक ऐसा समाज और एक ऐसी शिक्षा और एक ऐसी संस्कृति चाहिए, जहां प्रथम आने के पागलपन से आदमी का छुटकारा हो गया हो। नहीं तो दुनिया में युद्ध नहीं रुक सकते। क्रोध नहीं रुक सकता। फ्रस्ट्रेशन नहीं रुक सकता। और जब कोई आदमी बहुत क्रोध, और दुख, और विषाद से भर जाता है, तो सारी दुनिया से बदला लेता है। सारी दुनिया से बदला लेता है, इस बात का कि मुझे दुख दिया है, इस दुनिया ने। मुझे कोई सम्मान नहीं दिया, मुझे कोई पुरस्कार नहीं दिए, मुझे कोई आदर नहीं दिया, मुझे कोई पदवियां नहीं दीं। वह सारी दुनिया के प्रति क्रुद्ध हो उठता है। क्रोध से भर जाता है। यह क्रोध निकल रहा है सब तरफ से बह-बह कर।
मेरी दृष्टि में क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हम एक ऐसी शिक्षा विकसित करें जो व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा में नहीं आत्म-परिष्कार में ले जाती हो। ये दोनों बातों में भेद है। इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है। एक स्थिति तो यह है कि मैं दूसरे लोगों से आगे निकलने की कोशिश करूं और दूसरी स्थिति यह है कि मैं रोज अपने आप से आगे निकलने की कोशिश करूं। मैं जहां कल था आज उससे आगे बढ़ जाऊं। मेरी तुलना मेरे अतीत से हो, किसी पड़ोसी से नहीं। मैं रोज खुद को पार करूं, खुद को अतिक्रमण करूं। कल सूरज ने मुझे जहां छोड़ा था डूबते वक्त आज का उगता सूरज मुझे वहीं न पाए, मैं आगे बढ़ जाऊं। कल रात सूरज विदा हुआ था, खेतों में जो पौधे लगे थे, आज सुबह उनको वहीं नहीं पाएगा, वे आगे बढ़ गए हैं। लेकिन किससे आगे बढ़ गए हैं, किसी दूसरे से? अपने से आगे बढ़ गए हैं। किसी दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। प्रकृति में। सारी प्रकृति किसी दूसरे से प्रतिस्पर्धा में नहीं है, सिवाय मनुष्य को छोड़ कर।
एक गुलाब का फूल खिल रहा है एक बगिया में, उसे कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है कि चमेली का फूल कैसा खिला है और कमल का फूल कैसा खिला है? गुलाब का फूल खिल रहा है अपनी खुशी में। उसकी फ्लाॅवरिंग उसकी अपनी आंतरिक है। आदमी भर के फूल गड़बड़ हो गए हैं। वह हमेशा दूसरे की तरफ देख रहे हैं कि दूसरे के खिलने से मैं कितना आगे निकलता हूं या कितना पीछे रह जाता हूं? अपनी खुद की सेल्फ फ्लाॅवरिंग का कोई खयाल ही नहीं है।
इससे एक पागलपन पैदा हो रहा है। वह पागलपन ऐसा है कि अगर मैं किसी बगिया में चला जाऊं और गुलाब को कहूं कि तू पागल गुलाब ही होकर नष्ट हो जाएगा, कमल नहीं होना है? कमल का फूल बड़ा शानदार होता है, कमल हो जा! पहली तो बात यह है कि गुलाब मेरी बात ही नहीं सुनेगा, वह हवाओं में डोलता रहेगा, मेरी बात उसे सुनाई नहीं पड़ेगी, क्योंकि फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं होते कि किसी ने भी बुलाया और सुनने को आ गए। फूल इतने नासमझ होते ही नहीं कि सुनने को राजी हो जाएं। फूल सुनेगा नहीं। लेकिन हो भी सकता है आदमियों के साथ रहते-रहते बीमारियां फूलों को भी लग सकती हैं। बीमारियां संक्रामक होती हैं। बीमारियां छूत की होती हैं। हो सकता है आदमी की बगिया में लगे-लगे फूलों में भी गड़बड़ आ गई हो, वे भी उपदेश सुनने लगे हों। तो मेरी बात अगर वह फूल मान लेगा तो फिर क्या होगा? उस गुलाब के फूल को अगर मेरी बात पकड़ गई, यह फीवर पकड़ गया कि मुझे कमल का फूल हो जाना है या कमल के फूल से आगे निकल जाना है, पागल हो जाएगा वह गुलाब का पौधा, फिर उसमें फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब में गुलाब ही पैदा हो सकते हैं, कमल पैदा नहीं हो सकता। यह उसकी इनहेरेंट पाॅसिबिलिटी है। यह उसकी आंतरिक व्यवस्था है, वह नहीं कुछ और हो सकता। फूल गुलाब ही हो सकता है। चमेली चमेली ही हो सकती है। चंपा चंपा हो सकती है। घास का फूल घास का फूल हो सकता है। कमल का फूल कमल का फूल हो सकता है। लेकिन अगर यह पागलपन चढ़ जाए कि चंपा चमेली होने की कोशिश करे, गुलाब कमल होने की, फिर उस बगिया में फूल पैदा होने बंद हो जाएंगे। गुलाब कमल तो हो ही नहीं सकता, लेकिन कमल होने की कोशिश में गुलाब भी नहीं हो सकेगा। आदमी की बगिया में फूल इसीलिए पैदा होने बंद हो गए हैं। कांटे ही कांटे पैदा होते हैं, फूल पैदा होते ही नहीं। क्योंकि कोई आदमी स्वयं होने की कोशिश में नहीं है। हर आदमी कोई और होने की कोशिश में है, किसी और को पार करने की चेष्टा में लगा हुआ है। हर आदमी, खुद होने का ख्याल ये शिक्षा नहीं देती। हमारी शिक्षा कहती है, देखो वह आदमी आगे निकल गया। तुमको भी वैसा हो जाना, देखो वह आदमी दिल्ली पहुंच गया, तुमको भी दिल्ली पहुंच जाना है। देखो वह आदमी पहुंचा जा रहा है आगे, तुम कहां पीछे रहे जाते हो? दौड़ो। सब तरफ से महत्वाकांक्षा पैदा की जाती है, पोलिटिकली, रिलीजियसली। राजनैतिक रूप से महत्वाकांक्षा पैदा करते हैं कि देखो राधाकृष्णन स्कूल के शिक्षक थे, वे राष्ट्रपति हो गए। अब सारे शिक्षकों में आग पैदा करो कि तुम भी दौड़ो और राष्ट्रपति हो जाओ। तुम भी पागल हो जाओ, कि देखो राधाकृष्णन शिक्षक था, राष्ट्रपति हो गया। सब शिक्षक शिक्षक-दिवस मनाओ कि बड़े सम्मान की बात हुई कि एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गया।
मैं भी एक शिक्षक दिवस पर...भूल से मुझे बोलने के लिए बुला लिया था। भूल से कोई बुला लेता है, बोलने के लिए, तो मैंने उन शिक्षकों को कहा कि मित्रो, अभी शिक्षक-दिवस मनाने का वक्त नहीं आया। एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए इसमें शिक्षकों का कौन सा सम्मान है? जिस दिन कोई राष्ट्रपति कहे कि मैं स्कूल में आकर शिक्षक होना चाहता हूं, उस दिन सम्मान समझना। उस दिन शिक्षक-दिवस मनाना। उस दिन कहना कि हम धन्य हुए, एक राष्ट्रपति ने कहा है कि हम शिक्षक होने को तैयार हैं। लेकिन एक शिक्षक राष्ट्रपति होना चाहे इसमें शिक्षक का क्या सम्मान है? इसमें राजनीतिज्ञ का सम्मान है, पद का सम्मान है, दिल्ली का सम्मान है, राज्य का सम्मान है। इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है?
तो हम कहते हैं, देखो, वह यह हुआ जा रहा है, तुम भी दौड़ो। राजनैतिक रूप से हम आदमी को फीवर से भरते हैं, ज्वर से भरते हैं, दौड़ो, आगे दौड़ो; दूसरे को पीछे छोड़ो और आगे बढ़ जाओ। ऐसे ही हम धार्मिक रूप से, नैतिक रूप से लोगों को सिखलाते हैं, गांधी बन जाओ, बुद्ध बन जाओ, महावीर बन जाओ। झूठी बातें हैं, पाय.जन, जहर फैला रहे हैं आदमियों के दिमाग में। कोई आदमी कभी गांधी बन सकता है? कोई आदमी कभी बुद्ध बन सकता है? और बन सके तो भी बनने की जरूरत कहां है? एक आदमी काफी है अपने जैसा। दूसरे आदमी को वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है।
परमात्मा नासमझ नहीं है, नहीं तो एक ही जैसे आदमी पैदा कर देता। एक गांव में अगर एक ही जैसे बीस हजार गांधी हों तो, उस गांव की मुसीबत समझ सकते हैं। उस गांव में इतनी बोर्डम पैदा हो जाएगी, इतनी घबड़ाहट पैदा हो जाएगी कि लोग आत्महत्या कर लेंगे, जीना मुश्किल हो जाएगा। एक गांधी बहुत प्यारे हैं। एक बुद्ध बहुत अदभुत, एक राम बहुत शानदार, एक कृष्ण बेमुकाबला, कोई मुकाबला नहीं है उनका। बड़े खूबी के लोग हैं। लेकिन अगर एक ही जैसे, एक गांव में एक ही जैसे राम ही राम धनुषबाण लिए हुए खड़े हैं, तो हो गई कठिनाई। रामलीला कर रहे हों तब तो ठीक है, लेकिन अगर असली मामला हो तो बहुत गड़बड़ है।
कोई आदमी दुबारा दोहराए जाने की जरूरत नहीं है। रिपीटीशन की कोई जरूरत नहीं है। हर आदमी खुद होने को पैदा होता है, कोई और होने को पैदा नहीं होता। लेकिन अब तक हम, शिक्षक को, शिक्षा को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए कि हम बच्चों से कह सकें कि तुम कुछ और होने की कोशिश मत करना, तुम खुद हो जाना। जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है, वह है टू बी वन सेल्फ। स्वयं होने की क्षमता को उपलब्ध हो जाना। और जो आदमी दूसरे जैसे होने की कोशिश करेगा, उस आदमी का पागल हो जाना सुनिश्चित है। क्योंकि दूसरा वह हो नहीं सकता। इसलिए दुनिया में जितनी यह शिक्षा बढ़ती है, आदर्श बढ़ते हैं, उतना ही पागलपन बढ़ता है। इसमें किसी और का कसूर नहीं, शिक्षा बुनियादी रूप से गलत है। जितना आदमी शिक्षित होता है उतना दूसरे होने की दौड़ में लग जाता है कि मैं कोई और हो जाऊं, कोई बन जाऊं, मैं कुछ और हो जाऊं। खुद से, स्वयं से, उसकी कोई तृप्ति नहीं होती, वह कोई और होना चाहता है। जब भी कोई आदमी कोई और होना चाहता है तब उस आदमी में आत्मच्युत, वह आदमी अपने होने से च्युत हो जाता है, वह मार्ग से भटक जाता है। वह कुछ और होने की दौड़ में जो हो सकता था नहीं हो पाता है और तब, तब जीवन में दुख और पीड़ा पैदा होती है।
अगर कोई पूछे कि पागलपन की क्या परिभाषा है? मेडनेस का क्या मतलब है? तो मेरी दृष्टि में पागल होने की एक ही परिभाषा है, जो आदमी स्वयं से भिन्न हो जाता है, वह आदमी पागल है। और जो आदमी स्वयं हो जाता है, वह आदमी स्वस्थ है। टू बी वन सेल्फ इ.ज टू बी हेल्दी। बस और कोई स्वास्थ्य का मतलब नहीं होता। हिंदी का जो शब्द है ‘स्वास्थ्य’ वह तो शब्द भी बड़ा अदभुत है। स्वास्थ्य का मतलब होता हैः स्वयं में स्थित। जो स्वयं में खड़ा हो गया वह स्वस्थ है। स्वस्थ का मतलब हैः जो स्वयं में खड़ा हो गया। और वह अस्वस्थ है जो स्वयं से भटक गया। यहां-वहां चला गया। हम सारे लोग स्वयं से भटकाए जा रहे हैं। हम स्वयं में स्थित होने के लिए दीक्षित नहीं किए जा रहे। इससे एक विक्षिप्तता पैदा हो रही है, एक पागलपन पैदा हो रहा है।
नेहरू जब तक जिंदा थे हिंदुस्तान में दस-पच्चीस लोग थे जिनको यह खयाल पैदा हो गया था कि हम नेहरू हैं। मेरे ही छोटे से गांव में एक आदमी थे उनको यह वहम पैदा हो गया था कि वे जवाहरलाल नेहरू हैं। बंबई तो बहुत बड़ी जगह है, यहां तो कई को हो गया होगा। नेहरू एक पागलों की जेल को देखने गए थे, एक पागल वहां स्वस्थ हो गया था। ऐसा मुश्किल से होता है, स्वस्थ तो अक्सर पागल होते हैं, लेकिन पागल कभी स्वस्थ नहीं होता। लेकिन ऐसी दुर्घटना वहां घट गई थी, एक्सीडेंट हो गया था। एक पागल वहां ठीक हो गया था। और नेहरू उसको देखने गए थे, पागलखाने को। तो पागलखाने के अधिकारियों ने सोचा कि नेहरू के हाथ से ही उसको पागलखाने से छुटकारा और मुक्ति दिलवाई जाए। नेहरू भी बहुत खुश थे, उन्होंने कहा, ये आदमी ठीक हो गया। उससे मिलवाया। उससे पूछा नेहरू ने कि तुम ठीक हो गए हो? उसने कहा मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। तीन साल पहले मैं बिलकुल पागल था। आप कौन हैं महाशय? तो नेहरू ने कहाः मुझे नहीं जानते? मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। वह आदमी खूब हंसने लगा और उसने कहाः तीन साल आप भी यहां रह जाएं तो ठीक हो जाएंगे। तीन साल पहले मुझे भी यही खयाल पैदा हो गया था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। तीन साल में मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं।
यह जो, जब भी किसी आदमी को यह खयाल पैदा हो जाता है कि मैं कोई और हूं, तो समझ लेना कि पागल हो गया है। और जब भी कोई आदमी इस कोशिश में लग जाता है कि मैं कोई और हो जाऊं तो समझ लेना पागलपन की यात्रा शुरू हो गई है। इस शिक्षा ने मैनकाइंड को मैडकाइंड में बदल दिया है। आदमियत एक बड़ा पागलखाना हो गई है। सारी जमीन पर पागलों का बड़ा समूह पैदा होता जा रहा है। फिर अगर ये पागल आग लगा दें, मकान तोड़ दें, तो नाराज मत होइए। इनको हमने पागल बनाया है। हमने इन्हें इनकी आत्मस्थिति से च्युत किया है। ये जो हो सकते थे वह होने के लिए हमने उन्हें तैयार नहीं किया और जो नहीं हो सकते हैं उसकी तरफ हमने इनको दौड़ाया है। आदमी का मस्तिष्क इतने सूक्ष्म तंतुओं से बना है। आदमी का मन इतना डेलिकेट है कि उसमें जरा भी गड़बड़ करें तो सब नुकसान हो जाता है। जरा भी गड़बड़ करें तो सब नुकसान हो जाता है।
आदमी का मन बहुत डेलिकेट है। आदमी की इस छोटी सी खोपड़ी में करोड़ों रेशे हैं। अगर एक आदमी के खोपड़ी के रेशों को निकाल कर हम कतार में फैला दें, तो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लेगा। एक आदमी की खोपड़ी में इतने रेशे हैं। इतने बारीक सेल, इतने बारीक स्नायु, उनसे यह छोटा सा मस्तिष्क करोड़ों स्नायुओं से मिल कर बना है। इसमें जरा सी गड़बड़, और सारी मशीन बहुत डेलिकेट है, सब गड़बड़ हो जाता है। आश्चर्य है यह कि अब तक सारे मनुष्य पागल क्यों नहीं हो गए हैं, आश्चर्य यह नहीं है कि कुछ लोग पागल हो जाते हैं। आदमी के साथ जो किया जा रहा है, आदमी के साथ जो अनाचार हो रहा है, आदमी के साथ जो व्यभिचार हो रहा है, जो बलात्कार हो रहा है, आदमी के मन के साथ जो किया जा रहा है, उससे अगर सारे लोग पागल हो जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आदमी को आत्मविज्ञान में दीक्षित नहीं किया जा रहा है। और पराए विषय होने की दौड़ में, दूसरे को पार करने के पागलपन में दिशा और धक्के दिए जा रहे हैं। इन सारे धक्कों से यह उपद्रव पैदा हो गया है।
युवकों को शिक्षा देने से कुछ भी नहीं होगा, शिक्षा को आमूल ही बदल देना जरूरी है। एक पूरा क्रांतिकारी कदम उठाना जरूरी है कि हम मनुष्य की महत्वाकांक्षा को नहीं बल्कि मनुष्य के भीतर जो छिपी हुई संभावनाएं हैं, उनके परिष्कार को ध्यान में रखें, मनुष्य कहां पहुंचे ये सवाल नहीं है, मनुष्य जो है वह कैसे प्रकट हो जाए? यह सवाल है। मनुष्य किस मंजिल को छू ले यह सवाल नहीं है, मनुष्य के भीतर जो पोटेंशियली छिपा हुआ है, जैसे बीज के भीतर पौधा छिपा हुआ होता है। बीज को हम बो देते हैं बगीचे में, माली बीज में से पौधे को खींच-खींच कर निकालता नहीं है, और अगर कोई माली खींच-खींच कर पौधे को निकाल लेगा तो समझ लेना कि पौधे की क्या हालत होने वाली है? पौधा निकलता है। माली तो सिर्फ आॅपरच्युनिटी जुटा देता है। पानी डाल देता है, बीज डाल देता है। खाद डाल देता है। बागुड़ लगा देता है और फिर चुपचाप प्रतीक्षा करता है कि पौधा निकले। पौधे को निकालता नहीं है। लेकिन हम आदमी में से पौधे निकालते हैं, उनको हम...उनको हम विद्यालय कहते हैं। विश्वविद्यालय कहते हैं। उसमें से आदमी के बीज में से हम जबरदस्ती पौधे खींच रहे हैं। बाप की मर्जी से खींचा जा रहा है, कोई पौधा मां की मर्जी से खींचा जा रहा है। कोई गुरु की मर्जी से खींचा जा रहा है। इसको इंजीनियर बनाओ, इसको कवि बनाओ, इसको डाक्टर बनाओ। कोई यह पूछ ही नहीं रहा, इसके भीतर पोटेंशियलिटी क्या है? यह क्या होने को पैदा हुआ है? मां कहती है कि इसको इंजीनियर बनाना है।
मैं एक घर में ठहरा हुआ था। एक लड़के ने कहा कि मुझे बचाइए, मैं पागल हो जाऊंगा। क्या मामला है? उसने कहाः मेरी मां कहती है, इंजीनियर बनो, मेरे बाप कहते हैं, डाक्टर बनो, और दोनों इस तरह खींच रहे हैं मुझे कि न मैं इंजीनियर बन पाऊंगा, न मैं डाक्टर बन पाऊंगा। और मैं क्या बन जाऊंगा उसका जिम्मा किसी पर भी नहीं होगा, क्योंकि वे दोनों मुझे बनाना चाहते।
बच्चे खींचे जा रहे हैं। जबरदस्ती खींचे जा रहे हैं, बच्चों में ग्रोथ नहीं होती। बच्चों में जबरदस्ती तनाव देकर हम उनमें से कुछ पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पहले कि उनके भीतर कुछ पैदा हो हम जबरदस्ती खींच-तान कर उन्हें तैयार कर देते हैं। फिर अगर वे विरूप हो जाते हैं, कुरूप हो जाते हैं, उनका जीवन एक अगलीनेस बन जाता है, उनका जीवन सौंदर्य खो देता है और आनंद खो देता है, तो फिर हम पीड़ित और परेशान होते हैं, और पूछते हैं कलयुग आ गया क्या? लोग खराब हो गए क्या? फिर हम अपनी पुरानी किताबों में खोजते हैं, जिनमें लिखा हुआ है कि हां, ऐसा वक्त आएगा जब लोग खराब हो जाएंगे। तब हम निश्चिंत हो जाते हैं कि ठीक है भविष्यवाणी ठीक हो गई। ऋषि-महात्मा बिलकुल ठीक ही कहते थे कि जमाना खराब आ जाएगा। यह खराब जमाना आ गया है। यह खराब जमाना लाया गया है। यह आया नहीं है। और इसे हम रोज ला रहे हैं।
असल में आसमान से कुछ भी नहीं टपकता है, हम जो लाते हैं, वह आता है। यह हमने स्थिति लाई है। और इस सारी स्थिति के पीछे मनुष्य के मन की स्पांटेनियस ग्रोथ, सहज विकास का कोई ध्यान नहीं है। खींचने का खयाल है, खींचो और आदमी को कुछ बनाओ। इसको तोड़ डालें। बसें मत जलाएं। लेकिन इनकार कर दें उस शिक्षा से जो आदमी के साथ जबरदस्ती कर रही है। और कह दें यह कि चाहे हम अशिक्षित रह जाएंगे वे बेहतर, लेकिन हम जबरदस्ती आत्मा को खींचे जाने को बरदाश्त नहीं करते हैं। अशिक्षित होने से कुछ भी नहीं बिगड़ता है। हजारों साल तक आदमी अशिक्षित रहा, क्या बिगड़ गया? वैसे कई लिहाज से फायदा था। अशिक्षित आदमी ने न एटम खोजा, न हाइड्रोजन बम खोजा। अशिक्षित आदमी हमसे ज्यादा सौंदर्य में जीया। हमसे ज्यादा शांति में जीया। हमसे ज्यादा आनंद में जीया। अशिक्षित आदमी हमसे ज्यादा स्वस्थ जीया। तो शिक्षित होने से क्या हो जाने वाला है? लेकिन अगर ठीक से शिक्षा मिले तो बहुत कुछ हो सकता है। अगर तीन चुनाव हैं आदमी के सामने-गलत शिक्षा, ठीक शिक्षा और अशिक्षा मैं कहता हूं अगर गलत शिक्षा और अशिक्षा में से चुनना हो तो अशिक्षा चुननी चाहिए। अशिक्षित रह जाना बुरा नहीं है, लेकिन अगर ठीक शिक्षा हो सके तो जरूर बड़ा सौभाग्य, और शिक्षा ठीक हो सकती है।
पहली बात एंबीशन के केंद्र से शिक्षा को हटा देना चाहिए, महत्वाकांक्षा के और प्रतिस्पर्धा के केंद्र से। उसकी जगह आत्म-परिष्कार और आत्म-उन्नति और स्वयं के सहज विकास पर बल देना चाहिए। और इसकी फिकर छोड़ देनी चाहिए कि हर आदमी इंजीनियर बने, हर आदमी डाक्टर बने। हो सकता है कोई आदमी अच्छा चमार बनने को पैदा हुआ हो। तो अच्छा चमार अगर डाक्टर बन गया तो बड़े खतरे हैं। वह आदमी के साथ आॅपरेशन तो करेगा लेकिन वैसा ही जैसा जूते के साथ करता है। और अगर एक...हो सकता था वह एक अच्छा बढ़ई बनता। जरूरत है बढ़ई की भी, चमार की भी। लेकिन हमने जैसी गलत समाज व्यवस्था बनाई है उसमें हम डाक्टर को बहुत ऊंचा पद देते हैं, बढ़ई को कोई पद नहीं देते। तो बढ़ई को भी पागलपन शुरू होता है कि डाक्टर बनो। लेकिन बढ़ई की अपनी जरूरत है। उसकी जरूरत किसी डाक्टर से कम नहीं है। और चमार की अपनी जरूरत है, उसकी जरूरत किसी प्राइम मिनिस्टर से कम नहीं है। और शिक्षक की अपनी जरूरत है और किसी राष्ट्रपति से कम नहीं है। जिंदगी बहुत लोगों का सम्मिलित, सम्मिलित चित्र है। जिंदगी सम्मिलित संगीत है।
लिंकन जब प्रेसिडेंट हुआ अमरीका का। यह तो आपको पता होगा उसका बाप एक चमार था। जूते सीता था। लिंकन पे्रसिडेंट हो गया, तो कई लोगों को बहुत अखरा मन में कि एक चमार का लड़का प्रेसिडेंट हो गया। पहले दिन जब संसद में बोलने लिंकन खड़ा हुआ, तो एक आदमी ने खड़े होकर यह याद दिला देनी जरूरी समझी कि इस बेटे को कि कहीं यह भूल न जाए कि चमार के बेटे हो। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि महाशय, लिंकन, यह मत भूल जाना कि आप एक चमार के लड़के हो। तालियां बज गई होंगी संसद में, लोग बड़े खुश हुए होंगे कि ठीक वक्त पर याद दिला दिया।
लिंकन ने खड़े होकर कहाः मेरे पिता की याद दिला कर तुमने बहुत अच्छा किया, मैं बड़ी खुशी से भर गया। क्यों मैं यह कहता हूं कि मेरे पिता की याद दिला कर तुमने बहुत अच्छा किया? क्योंकि मैं यह भी तुम्हें कह देना चाहता हूं कि मेरे पिता जितने अच्छे चमार थे उतना अच्छा राष्ट्रपति मैं नहीं हो सकूंगा। और जिन सज्जन ने यह कहा था, लिंकन ने उनसे कहा कि महाशय, जहां तक मुझे याद आता है आपके पिता भी मेरे पिता से ही जूते बनवाते थे। और जहां तक मुझे खयाल है आपके पिता ने कभी भी शिकायत नहीं की। लेकिन आपको कैसे याद आ गई बात, मेरे पिता के जूतों से कोई शिकायत है आपको? मेरे पिता के चमार होने से कोई शिकायत है आपको? यह याद दिलाने का आपको खयाल कैसे आ गया? मैं धन्यभागी हूं कि मेरा पिता एक अदभुत चमार था। वह बड़ा कुशल कारीगर था।
यह एक दृष्टि जो है जीवन को देनी जरूरी है। महत्वाकांक्षा की दृष्टि ने पद पैदा कर दिए हैं। जीवन में पद पैदा कर दिए हैं--कौन ऊंचा, कौन नीचा। यह महत्वाकांक्षा की शिक्षा का परिणाम है। बाई-प्राॅडक्ट है कि फलां आदमी चूंकि ज्यादा शिक्षा लेता है, इसलिए ज्यादा ऊंचा। कम शिक्षा लेता है, इसलिए कम ऊंचा। जो अनस्किल्ड है वह बिलकुल किसी स्थान पर ही नहीं है। लेकिन जीवन बहुत चीजों का जोड़ है। जीवन बहुत चीजों का संगीत है। एक ऐसी दुनिया बनानी है जहां सब जरूरी हैं, सब महत्वपूर्ण हैं, सब गौरवान्वित हैं। इस दुनिया को मिटा देना है जहां थोड़े से लोगों के गौरव के लिए सारे लोगों का गौरव छीन लिया जाता है। यह वैसी दुनिया है जैसे कोई गांव हो और कुछ गांव के लोग यह तय कर लें कि दस-पांच आदमियों की आंखें बचा लो, बाकी सबकी आंखें फोड़ दो, क्योंकि बाकी अंधे लोगों के बीच में आंख वाला होना बड़ा आनंदपूर्ण होगा। सब अंधे होंगे हमारे पास आंखें होंगी तो बड़ा अच्छा होगा। उस गांव में अगर कुछ लोग ऐसा कर लें दस लोग मिल कर, और दस लोग मिल कर कुछ भी कर सकते हैं। क्योंकि दस लोग जहां मिल जाते हैं वहीं राजनीति शुरू हो जाती है। दस लोग मिल कर कुछ भी कर सकते हैं, दस गुंडे मिल कर कुछ भी कर सकते हैं। और बड़ी...आज तक दुनिया का दुर्भाग्य रहा, अच्छे आदमी कभी मिलते नहीं, बुरे आदमी बहुत जल्दी मिल जाते हैं। दस आदमी मिल कर यह तय कर लें कि बंबई में सारे लोगों की आंखें फोड़ दो ताकि कुछ लोगों को आंख वाला होने का बड़ा आनंद उपलब्ध हो। जरूर उनको आनंद ज्यादा उपलब्ध होगा। क्योंकि अंधों की बस्ती में आंखों वाला होना बड़ा आनंदपूर्ण, बड़े अहंकार की तृप्ति करता है।
कुछ लोगों ने यही किया हुआ है कि कुछ लोगों को पद दे दो और सारे लोगों के पद, जीवन की सारी व्यवस्था छीन लो, ताकि पद पर होना बहुत आनंदपूर्ण हो जाए। इन दुष्टों ने, इन हिंसक लोगों ने एक पृथ्वी बना दी है जो नरक हो गई है। अगर तोड़ना है तो इस सबको तोड़ देना जरूरी है। और एक समाज, एक जीवन, एक संस्कृति निर्मित करनी है, जहां हर आदमी को गौरवान्वित होने का मौका हो। जहां हर आदमी को स्वयं होने का मौका और अवसर हो। जहां हर आदमी जो भी होना चाहे, सम्मानित और गौरव से हो सके। जहां गुलाब के फूल भी आदृत हों और घास के फूल भी आदृत हों। क्योंकि घास और गुलाब के फूल में परमात्मा को कोई फासला, कोई भेद नहीं।
इसी अंतिम बात को कह कर मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
जब आकाश में सूरज निकलता है, तो सूरज गुलाब के फूल से यह नहीं कहता है कि मैं तुझे ज्यादा रोशनी दूंगा, घास के फूल से यह नहीं कहता कि घास के फूल हट बीच से, शूद्र तू कहां यहां आ गया, तुझे रोशनी नहीं दी जा सकती। घास के फूल को भी सूरज उतनी ही रोशनी देता है जितनी गुलाब के फूल को। जब आकाश में बादल घिरते हैं तो गुलाब के फूल पर ही पानी नहीं गिरता घास के फूल पर भी पानी गिरता है। और घास के फूल पर गिरा हुआ पानी दुख अनुभव नहीं करता कि कहां मेरा दुर्भाग्य घास के फूल पर गिर रहा हूं। और घास का फूल जब खिलता है, छोटा सा फूल, और जब हवाओं में घास का फूल नाचता है, तो उसकी खुशी किसी गुलाब के फूल से कम नहीं होती।
असल में सवाल घास के फूल और गुलाब के फूल का नहीं है, सवाल पूरी तरह खिल जाने का है। चाहे गुलाब का फूल पूरी तरह खिल जाए, चाहे घास का फूल पूरी तरह खिल जाए। जो पूरी तरह खिल जाता है वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है, वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है।
मनुष्य पूरी तरह खिल सके, एक ऐसी शिक्षा, और सब मनुष्य खिल सकें, किन्हीं की कीमत पर कुछ लोग न खिल सकें, इस तरफ ध्यान देना जरूरी है। शिक्षकों से, शिक्षार्थियों से यही मैं प्रार्थना करता हूं कि मैंने जो थोड़ी सी बातें कहीं उन पर सोचेंगे। जरूरी नहीं है कि मेरी बातें मान ली जाएं। पुराने गुरुओं की यह ढंग थी और आदत थी कि हम जो कहते हैं वह मान ही लो। मैं कोई गुरु नहीं हूं, गुरु होने की बीमारी मुझे जरा भी नहीं है। तो मैं यह नहीं कह सकता हूं कि मैंने जो कहा उसे मान लो, मैं तो इतना कहता हूं मैंने जो कहा उसे सोचना। और मैं अगर तुम्हें सोचने को भी राजी कर सका तो काम पूरा हो जाता है। क्योंकि जो सोचना शुरू कर देता है वह एक न एक दिन सत्य के निकट जरूर पहुंच जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत आनंदित, अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हंू। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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