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सोमवार, 5 नवंबर 2018

सम्यक शिक्षा-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

प्रेम--अनुशासन--क्रांति


जीवन की कला सीखनी चाहिए कि ठीक से जी सको। तब तो जीवन का एक-एक पल सार्थक है। कितना आनंद मिलता है, कितनी शांति मिलती है, इस पर सार्थकता निर्भर होती है। जैसे आमतौर से हम जीते हैं उसमें तो जीवन बिलकुल निरर्थक हो जाता है, वह सार्थक नहीं हो पाता। वह जो मैं रोज कह रहा हूं वह इसी दृष्टि से तो कह रहा हूं कि जीवन कैसे ज्यादा से ज्यादा सार्थक हो सके, कैसे ज्यादा सार्थक हो सके। अभी तो तुम्हारे बच्चों के जो प्रश्न हैं वे पूछो, ये तो बड़े-बड़े प्रश्न चलते हैं रोज। तुम्हारी कोई अपनी बात हो तो पूछो।

       प्रश्नः कोई मजहब में, अभी तक जो पैगंबर आए हैं, वे ही सब अपने-अपने मजहब की बातें करते हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि इनसान एक है, इनसान ही सच्चा धर्म है। तो वे लोग क्यों नहीं सिखाते कि यही सच्चा धर्म है? लेकिन अपने-अपने मजहब को ही क्यों आगे बढ़ाते हैं?

कोई सच्चा धार्मिक आदमी आदमी को लड़वाने के लिए तैयारी नहीं करवाता है--कोई पैगंबर या कोई ऐसा व्यक्ति। लेकिन पीछे जो लोग इकट्ठे होते हैं, धंधा करने वाले लोग जो इकट्ठे हैं--पंडित हैं, पुरोहित हैं, पुजारी हैं--वे यह सारा का सारा खड़ा करते हैं। तो धर्म को नष्ट कर दिया पंडितों ने, पुजारियों ने। लेकिन ठीक-ठीक कोई व्यक्ति जो सत्य को जानता है, वह कोई आदमियत को लड़वाता नहीं, वह कभी नहीं लड़वाता आदमियत को। अनुयायी पीछे खड़े होकर सारा उपद्रव खड़ा करते हैं।

इसलिए मेरी एक कोशिश है, वह यह है कि किसी को किसी का अनुयायी नहीं होना चाहिए। तो दुनिया में उपद्रव बचेगा, नहीं तो नहीं बचेगा। अनुयायी होना ही नहीं चाहिए किसी को किसी का। समझे न? फाॅलोवर्स जो हैं, वे झंडे खड़े करते हैं, संगठन बनाते हैं। उनके कारण उपद्रव होता है।
इसलिए अब दुनिया में जो शिक्षक पैदा हों, उनको यह कोशिश करनी चाहिए कि कोई किसी का शिष्य न बने, कोई किसी का अनुयायी न बने। तब दुनिया से हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, जैन मिट सकेंगे, नहीं तो नहीं मिट सकेंगे। यह कोई राम ने, कृष्ण ने, मोहम्मद ने, क्राइस्ट ने खड़े नहीं कर दिए, ये सब मामले पीछे से जो आदमी आते हैं वे खड़ा कर देते हैं। समझे न?
जल्दी करो, कोई तुम्हारी बात हो तो पूछो। हां, तुम जल्दी अपनी बात कर लो।

       प्रश्नः गीता में यह लिखा हुआ है कृष्ण ने कि व्यक्ति का कर्तव्य है कर्म करने का, फल मेरे हाथ में है। आपने आज प्रेम की बात बताई...गीता में दूसरे अध्याय में गीता में यह लिखा हुआ है कि अर्जुन कर्म करो, दुष्टों को नष्ट करो। यह मेरी समझ में नहीं आता है कि आप प्रेम की बातें करते हैं और कृष्ण दुष्ट को नष्ट करने की बातें करते हैं। यह मेरा प्रश्न है कि आप गीता के बारे में मुझे समझाएं?
      
पहली बात तो यह कि कृष्ण क्या कहते हैं, वह मुझसे पूछने से क्या फायदा? कृष्ण कहीं मिल जाएं तो उनसे पूछना चाहिए। नहीं, है कि नहीं? अब गीता पर मैं क्यों कुछ कहूं? मेरी बात भी तुमने सुन ली, गीता भी तुमने पढ़ ली, तुम्हें जो ठीक लगे वह समझ लेना चाहिए। पुरानी किताबों को बार-बार खींच कर जिंदगी में लाने की कोई जरूरत ही नहीं है। और उनकी वजह से फिजूल व्याख्या में पड़ते हैं हम, फिजूल परेशानियों में पड़ते हैं। फिर हम जो व्याख्या करेंगे कृष्ण ने क्या कहा, वह भी हमारी व्याख्या होगी। एक हजार टीकाएं हैं कृष्ण की किताब पर। तिलक कुछ कहते हैं, अरविंद कुछ कहते हैं, गांधी कुछ कहते हैं, विनोबा कुछ कहते हैं, शंकर कुछ कहते हैं, रामानुज कुछ कहते हैं कि कृष्ण का अर्थ क्या है। तो एक हजार अर्थ करने वाले लोग मौजूद हैं। मुझसे पूछोगे, एक अर्थ मैं करूंगा, वह एक हजार एकवां अर्थ होगा। उससे कुछ हल नहीं होता।
मैं सीधी बात करना पसंद करता हूं। कृष्ण को बेचारों को बीच में घसीटने की क्या जरूरत है? सीधी मुझसे बात करो न। कृष्ण को क्यों बीच में लाते हो? तुम्हें जो गलत लगता हो कहो कि गलत है। मुझसे पूछो कि यह क्यों गलत लगता है या यह क्यों सही है? हमारी यह गलत आदत हो गई है कि हम बीच में कहीं राम को लाएं, कहीं कृष्ण को लाएं, कहीं मोहम्मद को लाएं और फिर बात शुरू करें। बात तो हम दो को करनी है, उन बेचारों को बीच में घसीट कर...उनकी बेकार फजीहत हो जाती है। कृष्ण को छोड़ो, मिल जाएं कहीं तो उनसे पूछ लेना। जब तक मैं हूं तो मेरी बात मुझसे पूछ लो। नहीं तो कल मैं मर जाऊंगा तो मेरे बाबत दूसरों से पूछोगे जाकर कि वे ऐसा कहते थे, उसका क्या मतलब था? समझे मेरी बात?

प्रश्नः जब मेरे सामने कोई नटखट आ जाए, और मेरे सामने...कोई मेरे को थप्पड़ लगा दे, तो मैं दूसरा गाल कर दूं उसके सामने?
      
तुम्हारा क्या मन होता है?

प्रश्नः प्रेम, आपने सिखाया है कि मैं भी प्रेम करूं।

तो फिर तो यह प्रश्न ही नहीं उठता।

प्रश्नः लेकिन वह मेरी जिंदगी अगर खतरे में होती है तो मैं क्या करूं?

जिंदगी तो खतरे में है ही। है न!
    
प्रश्नः मैं समझ गया। लेकिन क्या करना चाहिए, आदमी सामने आ जाए, मैं सिर झुका दूं?

तुम प्रेम की अगर बात समझ गए हो...समझे न?...तो प्रेम के लिए कभी सवाल ही नहीं उठता कि क्या करना है। मेरी बात समझे न?...अगर तुम प्रेम की पूरी कला सीखते हो, तो तुम्हें यह सवाल ही नहीं उठता कि क्या करना है। वह प्रेम कुछ करेगा। और प्रेम जो भी करेगा वह अच्छा होगा। जैसे यह हमको दिखाई पड़ता है कि उस आदमी ने मेरे ऊपर चांटा मार दिया, यह हमको दिखाई ही इसलिए पड़ता है कि हमारे भीतर प्रेम नहीं है। नहीं तो हमें कुछ और दिखाई पड़ता।
       बुद्ध का एक शिष्य था। वह पूर्ण नाम था उस भिक्षु का। जब वह सारी शिक्षा पूरी हो गई तो बुद्ध ने उससे कहा कि अब तू जा और मेरे संदेश को लोगों तक पहंुचा। पर तू कहां जाएगा? तो एक सूखा, एक जगह थी बिहार में, उसने कहा मैं वहां जाऊंगा। वहां तक कोई भिक्षु अब तक गया नहीं।
बुद्ध ने कहाः वहां मत जा, वहां के लोग बहुत बुरे हैं। हो सकता है वे तुझे गालियां दें, अपमान करें। तो उसने कहा कि मेरे मन को यही होगा कि लोग कितने अच्छे हैं कि सिर्फ गालियां देते हैं, अपमान करते हैं मारते नहीं। मार भी सकते थे।
बुद्ध ने कहाः यह भी हो सकता है कि कोई तुझे मारे, तो तुझे क्या होगा?
तो उसने कहाः आपके पास रह कर मैंने प्रेम की जो साधना की है, मेरे मन को यही होगा कि लोग कितने अच्छे हैं, सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते, मार भी तो डाल सकते थे।
बुद्ध ने कहाः और यह भी हो सकता है कि कोई तुझे मार ही डाले, तो मरते वक्त तुझे क्या होगा?
तो उसने कहाः आपके पास जो मैंने जाना और जीया है, मुझे यही होगा कि लोग कितने अच्छे हैं कि मुझे मार डाला, कहीं मैं जिंदा रहता और जिंदगी में कोई भूल-चूक होती, तो उससे बच गया। प्रेम की जब दृष्टि होती है तो तुम्हें यह नहीं दिखाई पड़ता कि इसने मुझे मारा। तुम्हें कुछ और ही दिखाई पड़ता है। हमें वही दिखाई पड़ता है जो हमारी दृष्टि होती है। हमारी दृष्टि तो शत्रुता की है इसलिए ये प्रश्न खड़े होते हैं। समझे न? जब तुम्हारी दृष्टि प्रेम की होगी तो ये प्रश्न खड़े होते ही नहीं। तुम्हारा प्रेम अपने आप रास्ता खोज लेगा कि मैं क्या करूं?
       जैसे मैंने कहा कि बुद्ध के ऊपर उस आदमी ने थूका, तो बुद्ध ने चादर से पोंछ लिया और उससे पूछा कि और कुछ कहना है? तुमको यह नहीं दिखाई पड़ता कि यह कुछ कह रहा है। तुमको यह दिखाई पड़ता है कि मेरे ऊपर थूक दिया। तुम तो पागल हो जाते हो। प्रेम की दृष्टि पैदा करो फिर रास्ता अपने आप मिल जाता है, किसी से पूछने नहीं जाना पड़ता। अभी हमारी दृष्टि क्रोध की है, तो क्रोध कहता है कि चांटा मारा, दुगना चांटा मारो। प्रेम की जब दृष्टि होगी...उसको पैदा करना पड़ेगा, सिर्फ समझ लेने से नहीं होगी। साधना करनी पड़ेगी। जब प्रेम की दृष्टि होगी तो शायद तुम्हें जो क्राइस्ट ने कहा है शायद वही दिखाई पड़ जाए। यही दिखाई पड़ जाए कि इसने एक चांटा मारा, दूसरा गाल और इसके सामने कर दें। लेकिन यह अभी दिखाई नहीं पड़ सकता। अभी तो यह बात बड़ी एब्सर्ड है। बड़ी बेबूझ मालूम पड़ती है। लेकिन दिखाई पड़ सकता है।
       क्राइस्ट को जिन लोगों ने सूली दी, तख्ते पर लटका दिया फांसी के। आखिरी वक्त उन्होंने कहा कि हे परमात्मा! इन सबको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं? ये नासमझी में कर रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि मेरी फांसी की सजा इनको मिले। ये सब नासमझ हैं, ये कुछ जानते नहीं हैं। समझे न? पर ये तो प्रेम की जब दृष्टि पैदा होगी तब। उसके पहले नहीं। तो इसलिए यह मत पूछो कि क्या करेंगे? पहले यही फिकर करो कि प्रेम की दृष्टि कैसे पैदा हो जाए? फिर प्रेम अपना रास्ता खुद निकाल लेगा।
       जैसे हम किसी आदमी को...कोई हमसे आकर पूछे कि अंधेरे कमरे में मैं जाऊं, तो मैं कैसे जाऊं? तो मैं उससे कहूंगा कि तू दीया लेकर जा। और फिर आगे मत पूछ। दीये की रोशनी तुझे बता देगी कि तू कहां से जा और कहां से न जा। प्रेम का दीया जब जल जाएगा, तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि हम क्या करें, और क्या न करें। इसलिए एक्शन पर मैं फिकर ही नहीं करता कि तुम क्या करो? इसका तय भी नहीं करता। इतना ही तय करता हूं कि तुम्हारे भीतर प्रेम पैदा हो जाए, तो वह तय कर लेगा कि क्या करना है, क्या नहीं करना है। उसकी फिकर करो।
    
प्रश्नः डिसिप्लिन, अनुशासन का सही अर्थ क्या है?

अनुशासन, डिसिप्लिन का क्या अर्थ है? यह पूछते हैं। जैसा अभी दुनिया में दिखाई पड़ता है, वह तो अर्थ यह है कि बाहर से थोपे गए नियम। शिक्षक थोपता है, मां-बाप थोपते हैं, स्कूल थोपता है, समाज थोपता है। ऐसा करो, ऐसा मत करो। ऐसे उठो, ऐसे बैठो। इसको वे डिसिप्लिन कहते हैं। मैं इसको डिसिप्लिन नहीं कहता। मैं तो अनुशासन कहता हूं कि तुम्हारे भीतर विवेक को जगाया जाए और तुम्हारा विवेक तुमसे जो कहे वह तुम करो। एक ही डिसिप्लिन है कि मनुष्य का विवेक जगा हुआ हो। बस और कोई डिसिप्लिन नहीं है। और वह जो इनर डिसिप्लिन है, वह जो भीतर से आने वाला अनुशासन है, वह तो कीमत का है। बाहर से थोपा गया अनुशासन बहुत खतरनाक है। वह आदमी की आत्मा को ही नष्ट कर देता है।
तो एक...प्रत्येक व्यक्ति की समझ बढ़ती चली जाए। जैसे हम यहां बैठे हैं, हम सब चुप बैठे हैं। यह चुप बैठना दो कारण से हो सकता है। या तो एक डिसिप्लिन है यहां, आज्ञा है कि यहां कोई बोल नहीं सकता, सबको चुप बैठना पड़ेगा, तो चुप बैठे हैं। वह झूठी डिसिप्लिन हो गई। नुकसान पहंुचाने वाली हो गई। लेकिन तुम्हें सुनना है, तुम मेरी बात सुनने को उत्सुक हो, इसलिए चुप बैठे हो, यह इनर डिसिप्लिन है। यह तुम्हारे विवेक की बात हुई कि तुम्हें चुप बैठना है, क्योंकि तुम्हें सुनना है। यह डिसिप्लिन तो एक फ्रीडम है। जो भीतर से आता है अनुशासन वह तो स्वतंत्रता है। जो बाहर से आता है वह परतंत्रता है। वह सब गुलामी है। और गुलामी के मैं बिलकुल विरोध में हूं।
मैं ऐसी दुनिया पसंद करूंगा जिसमें कोई डिसिप्लिन न हो। विवेक हो। लेकिन हम अभी बच्चों को कभी विवेक तो सिखाते नहीं, बस डिसिप्लिन सिखाते हैं। यह सिखाते हैं यह करो, वह करो। यह नहीं सिखाते कि तुम्हें खुद दिखाई पड़े कि क्या करना उचित है। तो मेरी दृष्टि उस बाबत यही है कि प्रत्येक बच्चे की समझ, विवेक बढ़ना चाहिए। बढ़ाना चाहिए हमें ताकि वह इस योग्य हो जाए कि वह क्या करे और क्या न करे।
       अभी जो डिसिप्लिन है, वह तो मिलिटरी डिसिप्लिन है। वह कोई...वह कोई अच्छी डिसिप्लिन नहीं है। आदमी को जबरदस्ती करवाने का काम है। और जबरदस्ती के भारी नुकसान हैं। पहला नुकसान तो यह है कि जो आदमी जबरदस्ती किसी काम को करने को राजी होता है, वह आदमी कमजोर हो जाता है, उसका बल नष्ट हो जाता है, उसकी स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। दूसरा परिणाम यह होता है कि जब भी उसको मौका मिलेगा, तब वह ठीक उलटा करेगा, जो जबरदस्ती में उसको करना पड़ा है। अगर वह यहां शांत बैठा रहा है सिर्फ जबरदस्ती की वजह से तो दीवाल के उस तरफ हटते से ही अशांत हो जाएगा। पिता के सामने सिगेरट नहीं पी है उसने, तो पिता के पीछे दीवाल के उस तरफ हट कर सिगेरट पीना शुरू कर देगा। क्योंकि वह तो जबरदस्ती थी न, वह कोई विवेक नहीं था उसका। कमजोर करेगा, आदमी को चोर बनाएगी डिसिप्लिन। और जब वह ताकत में आएगा कभी...। आज बच्चा है, कल जवान हो जाएगा, आज बाप जवान है कल बाप बूढ़ा हो जाएगा। हालत उलटी हो जाएगी। अभी बच्चा कमजोर है, बाप ताकतवर है। कल बच्चा जवान होकर ताकतवर होगा, बाप बूढ़ा होकर कमजोर हो जाएगा। जिस दिन वह बाप कमजोर हो जाएगा, उस दिन वह बदला लेगा उसका। इसलिए हर बूढ़े बाप को जवान लड़के सताते हैं। इसका कोई और मतलब नहीं। इसका मतलब है कि छोटे बच्चों को जवान बाप ने सताया है, और कोई मतलब नहीं। वह उसका रिएक्शन है, उसका बदला लिया जा रहा है। अब ताकत की हालत बदल गई है। अब कमजोर ताकतवर हो गया, ताकतवर कमजोर हो गया। अब बदला लिया जा रहा है उसका।
सारी दुनिया में मां-बाप बच्चों से परेशान हैं, उसका कुल कारण इतना है कि मां-बाप बच्चों को परेशान कर रहे हैं। उसका सर्किल पूरा खड़ा हो जाता है, फिर परेशानी होती है। फिर बाद में वे रोते हैं कि हमारे बच्चे हमारा साथ नहीं दे रहे हैं। हमें धोखा दे रहे हैं। हमें दगा दे रहे हैं। हमें परेशान कर रहे हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता कि जब बच्चे छोटे थे, तो तब तुमने इनके साथ क्या किया? तुमने इनमें विवेक जगाया या जबरदस्ती कोई चीज थोप देने की कोशिश की। जबरदस्ती के खिलाफ रिबेलियन, विद्रोह पैदा होता ही है। तो सारी दुनिया में जो अव्यवस्था है, वह इसलिए है कि विवेक नहीं है, बस डिसिप्लिन, डिसिप्लिन की बात चलती है। ये आज हमारे तो पूरे मुल्क में हो गया है, कालेज के लड़के हैं, हाई स्कूल के लड़के हैं, वह सब तोड़-फोड़ रहे हैं। ये जबरदस्ती थोपी गई बातों के खिलाफ विद्रोह है और कुछ भी नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
    
कोई गलती नहीं है, कोई गलती नहीं है। गलती क्या है, कहीं कोई गलती नहीं है।

प्रश्नः जितने भी क्रांतिकारी आए वे सब पुरानी जो प्रणालियां हैं वह सब हमेशा तोड़ने की ही बातें करते रहे। लेकिन उन्होंने खुद भी नई प्रणालिकाएं स्थापित कर दीं। जैसे आप बता रहे हैं कि एक मुक्त जगत जानते हैं आप। लेकिन आपकी बातें मानने के लिए और आपकी बातें मानने के लिए लोग तैयार हैं और कहते हैं कि हम रजनीशजी के फाॅलोवर हैं। और...अब इनसान को एक आदत सी बन गई है कि इज्म से ही चलता है। चाहे राज-काज हो या धार्मिक बातें हों। तो वह चीजें तोड़ने के लिए क्या करना चाहिए?

बहुत सी बातें करनी चाहिए। पहली बात तो यह करनी चाहिए कि अगर दुनिया में जितने क्रांतिकारी तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, उतने क्रांतिकारी हुए नहीं। पुरानी परंपरा को तोड़ देने से कोई क्रांति नहीं होती। परंपरा मात्र को तोड़ देने से क्रांति होती है। अगर मैं यह कहूं कि पुरानी परंपराएं तो गलत हैं, राम के भक्त मत बनो, कृष्ण के भक्त मत बनो, लेकिन मेरे अनुयायी बन जाओ, तो मैं क्रांतिकारी नहीं हूं। मैं केवल काम्पिटीटर हूं। मैं कृष्ण का काम्पिटीटर हूं, राम का काम्पिटीटर हूं, फलां का काम्पिटीटर हूं। उनके अनुयायियों को खींच कर अपना अनुयायी बनाना चाहता हूं। मैं कोई क्रांतिकारी नहीं हूं फिर। क्रांतिकारी तो मैं तब हूं जब मैं यह कहता हूं कि मेरे अनुयायी भी मत बनो। किसी के अनुयायी मत बनो। किसी परंपरा को मत पकड़ो, किसी चीज को जड़ता से मत पकड़ो। लेकिन इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम्हारा विवेक, तुम्हारा अपना विवेक जाग्रत हो। और तुम्हारा विवेक तुम्हें जो भी ठीक कहे करने को। अगर तुम्हारा विवेक कहे कि कृष्ण ने जो कहा है वह ठीक है, करने जैसा है। इस कारण नहीं कि कृष्ण ने कहा है, इस कारण नहीं कि तीन हजार साल से पूजा जाता है, बल्कि इस कारण कि तुम्हारा विवेक कहता है कि ठीक है, तो तुम करो। तुम्हारा विवेक कहे कि मैं जो कहता हूं, तो उसे करो। लेकिन अंतिम गवाही तुम्हारा विवेक हो। अंतिम गवाही यह न हो कि कृष्ण भगवान के अवतार हैं, इसलिए उनकी बात माननी चाहिए। अंतिम बात यह न हो कि एक बात पांच हजार साल से मानी जाती है, इसलिए ठीक होगी ही, उसे मानना चाहिए। अंतिम बात न यह हो कि फलां बात को मानने से स्वर्ग मिलेगा, इस लोभ में माननी चाहिए। फलां बात को मानने से नरक जाना पड़ेगा, इस भय में माननी चाहिए। अंतिम कसौटी तुम्हारा विवेक हो, तुम्हारा डिसक्रिमिनेशन हो कि यह बात मुझे ठीक लगती है, तर्कयुक्त लगती है, मेरे विवेक को अपील करती है, इसलिए मानता हूं। तो तुम अपने विवेक के अनुयायी हुए। न तो मेरे अनुयायी हुए, न तुम राम के, न कृष्ण के।
प्रत्येक मनुष्य को उसकी बुद्धि का अनुयायी बनाना है, तो परंपरा टूटेगी और क्रांति होगी। लेकिन अब तक तुम जैसा कहते हो, अक्सर वैसा हुआ है कि अगर मैं विरोध कर रहा हूं परंपरा का, तो धीरे-धीरे मैं एक नई परंपरा खड़ी कर लेता हूं। इतनी हिम्मत क्रांतिकारियों में भी नहीं होती कि जब उनकी अपनी परंपरा बनने लगे तब वह तोड़ने की हिम्मत दिखलाएं। दूसरे की परंपरा तोड़ना बिलकुल आसान है। अपनी तोड़ने का सवाल है। समझे न? तो उसके लिए ध्यान में रखना चाहिए कि ठीक क्रांति हमेशा विवेक का अनुयायी बनवाती है, व्यक्तियों का नहीं। मेरा कोई अनुयायी नहीं है। कोई कहता हो अपने को तो वह मेरे खिलाफ बातें कह रहा है। मेरा कोई अनुयायी नहीं है, मैं किसी का गुरु नहीं हूं। न किसी एक आदमी को कभी मैंने कहा कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, न कभी एक आदमी को मैंने कहा कि तुम मेरे अनुयायी हो। लेकिन फिर भी अगर कोई कहता हो, तो वह मेरे खिलाफ बात बोल रहा है। वह मेरे पक्ष की बातें नहीं बोल रहा है। मेरी तो सारी चेष्टा यही है कि तुम अपने विवेक के, अपनी बुद्धि के, अपने चिंतन के, अपने मनन के, अपने ध्यान के अनुयायी बनो। तुम किसी और के पीछे मत जाओ। हमेशा अपने भीतर, और अपने पीछे जाओ।
       सच्ची क्रांति तो तभी होगी जब हम व्यक्तियों से मुक्त कर लेंगे और विवेक से जोड़ देंगे। अभी कोई राम से जुड़ा है, कोई कृष्ण से जुड़ा है, कोई मोहम्मद से, कोई बुद्ध से, कोई महावीर से, कोई मुझसे जुड़ सकता है। लेकिन ये सब एक सी बातें हैं। जब तक तुम अपने से बाहर किसी से जुड़े हो, तब तक तुम गलती में हो। तुम्हारा अपना विवेक संयुक्त होना चाहिए। न कोई किसी का गुरु है, न कोई किसी का अनुयायी है। न कोई आदर्श है, न किसी के पीछे जाने की जरूरत है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कीमत और मूल्य है। और उस जैसा वह अकेला है दुनिया में। अनूठा है। उस व्यक्ति के अनूठे विवेक की इज्जत बढ़नी चाहिए। तो तो कुछ हो, नहीं तो नहीं हो सकता।

       प्रश्नः अभी तक जो साइंस ने शोध की है, तो उसका हम लाभ उठाते हैं न।

हां, हां, बिलकुल उठाएं।

       प्रश्नः बिलकुल नये सिरे से कुछ स्टार्ट करते नहीं...?

बिलकुल नहीं।

       प्रश्नः इसी तरह ऋषि-मुनियों ने जो शोध...?

ऋषि-मुनि साइंटिस्ट नहीं हैं, पहली बात। और साइंस और रिलीजन में बुनियादी फर्क है, दूसरी बात।
    
प्रश्न: स्प्रिचुअल सांइस नहीं है?

बिलकुल नहीं। स्प्रिचुअल साइंस जैसी कोई चीज होती ही नहीं। साइंस हमेशा मैटीरियल होगी। यानी मेरा मतलब यह है, मेरा मतलब यह है कि धर्म और विज्ञान में यही बुनियादी विरोध है कि विज्ञान की परंपरा होती है, धर्म की परंपरा नहीं होती। अगर न्यूटन पैदा न हो, तो आइंस्टीन पैदा नहीं हो सकता। लेकिन बुद्ध न पैदा हों, तो भी मैं पैदा हो सकता हूं। यानी मेरा कहना यह है अगर दुनिया के सब शास्त्र नष्ट हो जाएं, तो भी आदमी, धार्मिक आदमी इसी वक्त पैदा हो सकता है। अग्रवालजी धार्मिक हो सकते हैं। लेकिन दुनिया के अगर विज्ञान के शास्त्र नष्ट हो जाएं, तो हवाई जहाज नहीं बनाया जा सकता।
       धार्मिकता ऐसी चीज है कि प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी सहारे के उपलब्ध कर सकता है। और विज्ञान बिना सहारे के उपलब्ध नहीं होता। इसलिए विज्ञान कलेक्टिव एफर्ट है और रिलीजन इंडिविजुअल एफर्ट है। जैसे कि दुनिया के सब प्रेमी, जितने हुए हैं दुनिया में, वे न भी हुए होते तो भी मैं प्रेम करता। प्रेम के लिए परंपरा की जरूरत नहीं कि लैला हो, मजनू हो, फरिहाद हो, शीरी हो, तब मैं प्रेम कर सकता हूं। कोई न हुए हों तो भी मैं प्रेम कर सकता हूं। प्रेम बिलकुल वैयक्तिक, एक-एक व्यक्ति की क्षमता है। लेकिन अगर बैलगाड़ी का चाक बनाने वाला न हुआ हो, तो हवाई जहाज नहीं बन सकता। क्योंकि वह उसी शृंखला का हिस्सा है। तो विज्ञान सामाजिक उपक्रम है। और धर्म वैयक्तिक अनुभव है। और इन दोनों में इतना बुनियादी फर्क है, इसलिए धर्म एक स्वतंत्रता है, विज्ञान एक स्वतंत्रता नहीं। उसमें आप पीछे से बंधे हैं। हमेशा बंधे हुए हैं। धर्म एक स्वतंत्रता है, उसमें कोई किसी से बंधा हुआ नहीं है।

प्रश्नः अनुभवों का लाभ लिया जाए?

आप अनुभव का लाभ ले ही नहीं सकते सिवाय अनुभव को किए बिना। मेरा मतलब यह है कि प्रेम किए बिना प्रेम के अनुभव का कोई लाभ आप ले ही नहीं सकते। और प्रेम आपने किया तो किसी के अनुभव से लाभ लेने की जरूरत ही नहीं, आपका अपना अनुभव हो गया। मेरा कहना यह है की कुछ चीजें ऐसी हैं जीवन की जो...अनुभव से ही अनुभव होता है, और कोई रस्ता नहीं है।

       प्रश्नः...प्रेम के बारे में जो है, जिज्ञासा तो जागती ही है?
    
जिज्ञासा प्रेम के कारण नहीं जागती, कि किसी ने प्रेम किया इस कारण जागती है।

       प्रश्नः प्रेम के बारे में सुनने से?

बिलकुल नहीं जागती, बल्कि मर सकती है जिज्ञासा सुनने से। प्रेम तो आपके प्राणों की प्यास है। सुनने-वुनने से नहीं जागती। आपको जंगल में बैठा दिया जाए और प्रेम का आपने शब्द भी न सुना हो, तो भी प्रेम जगेगा। एक शब्द न सुना हो, एक कहानी न पढ़ी हो, एक गीत न पढ़ा हो, तो भी प्रेम जगेगा। वह तो वैसे ही है जैसे आपको प्यास लगेगी। कोई प्यास इसलिए थोड़ी लगती है कि हमने किताबों में पढ़ लिया कि प्यास लगती है। गर्मी पड़ती है, तब प्यास लगती है। वह तो गर्मी पड़ी और प्यास लगेगी। वह प्यास आपके प्राणों का धर्म है। आपने सुना हो कि नहीं सुना हो कि प्यास लगती है। प्यास लगेगी जब गर्मी पड़ेगी। ठीक प्रेम भी वैसा है। ठीक परमात्मा भी वैसा है। लेकिन विज्ञान वैसा नहीं है। विज्ञान वैसा नहीं है। वह तो ट्रेडीशनल शंृखला से चलता है। इधर तक काम हो चुका है, इतना आप अध्ययन कर लीजिए। तो फिर आप थोड़ा सा काम आगे कर सकते हैं। नहीं तो आगे नहीं कर सकते। इन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है, तो मैं कहता हूं कि विज्ञान की तो परंपरा होती है, शास्त्र होता है, गुरु होते हैं, शिष्य होते हैं, धर्म में न शास्त्र है, न गुरु है, न परंपरा है, न कोई शिष्य है। इसलिए धर्म परम मुक्ति है। क्योंकि ये सब चीजें बांधने वाली हैं, और धर्म में तो कुछ कोई बांधने वाला नहीं है।

       प्रश्नः इला का प्रश्न है कि ये सब बातें साधकों के लिए हो रही हैं?

तो भई गैर-साधक पूछते नहीं तो हम करें क्या? बोलो? तो पूछते क्यों नहीं?

प्रश्नः आप कहते हैं, आप तो बात करते हैं साधक के लिए, लेकिन हम क्या करें?

तू साधक नहीं है। पागल, विद्यार्थी से बड़ा कोई साधक होता है। विद्यार्थी ही सबसे बड़ा साधक है। वही तो शुरूआत है जिंदगी की साधना की। अगर उसी वक्त साधना शुरू हो जाए तो तेरी जिंदगी कुछ और ही बन जाएगी। अभी ये लोग तो जो बूढ़े हो गए हैं, ये वापस विद्यार्थी हो रहे हैं। समझी न? इनको तो बड़ी कठिनाई होगी। इनको बहुत कठिनाई है, तुझे तो कठिनाई नहीं होगी। नहीं समझी तू। वह तो जिंदगी की साधना तो सबके लिए है, जो भी जिंदा हैं। चाहे वे बच्चे हों, चाहे बूढ़े हों। बच्चों के लिए ज्यादा है, क्योंकि जिंदगी उनके सामने पड़ी है अभी। और बूढ़ों के लिए तो जिंदगी पीछे निकल गई। अब थोड़ा सा समय बचा है, अब वे बड़े बेचैन हैं, घबड़ाहट में हैं। तेरे सामने तो पूरा समय पड़ा हुआ है। और अगर अभी से तुझे साधना के सूत्र स्पष्ट हो जाएं, तो तेरी जिंदगी वहां पहंुच जाएगी जहां पहुंचनी चाहिए।

       प्रश्नः मेरा फाॅल्ट न हो, तो भी कोई हमारा इनसल्ट करे, तो हम कैसा बर्ताव करें?

बहुत अच्छा बर्ताव करना चाहिए। समझे न? पहली तो बात यह कि जब भी कोई तुम्हारी भूल बताए, तो इस बात को बहुत जल्दी मत मान लेना कि हमारी भूल नहीं है। क्योंकि हमारे अहंकार की यह वृत्ति होती है कि अपनी भूल को मानने को राजी न हों। जब भी कोई भूल बताए, तो पहले तो यह सोचना है कि जरूर सौ में निन्यानबे मौके होंगे कि मेरी भूल है। तो पहले मैं सोच लूं कि मेरी भूल है कि नहीं? पहले तो हमारा मन यह होता है कि हमारी भूल है ही नहीं। सभी का मन यह होता है। दुनिया में मुश्किल से वह आदमी मिलेगा जो कहेगा मेरी भूल थी। दो आदमी लड़ेंगे, दोनों कहेंगे, दूसरे की भूल थी। समझे न? तो पहले तो हमारे मन की सहज वृत्ति यह है, वह कहेगा कि हमारी भूल नहीं है यह। इस पर थोड़ा समझ करना कि भूल हो सकती है। पहले इसकी खोज करना कि क्या भूल हो सकती है? बहुत निष्पक्ष मन से, तो सौ में निन्यानबे मौकों में तुमको भूल मिल जाएगी। अगर एक मौके में तुम्हें भूल न मिले, तुम्हें लगे कि भूल नहीं है मेरी, समझे न? और कोई अपमानजनक व्यवहार कर रहा है, तो भी उस क्षण में, जब वह अपमानजनक व्यवहार कर रहा हो, अगर तुम भी वैसा व्यवहार करते हो, तो इससे कुछ कोई हल नहीं होगा, इससे कोई चीज सुलझेगी नहीं। उस वक्त शांति से सुन लेना। उससे कहना कि मैं आधे घंटे बादे जब आप शांत हो जाएंगे, आपको निवेदन करूंगा, अभी नहीं। क्योंकि अभी तो आप क्रोध में हैं, अभी निवेदन करने का कोई मतलब नहीं। आप अभी जो आपको कहना है कह लें, गुस्सा निकाल लें। मैं आधे घंटे बाद आता हूं और निवेदन करूंगा। इतनी बात कहने से ही वह आदमी शांत होगा। आधे घंटे बाद जाकर अपनी बात कहना कि ऐसा-ऐसा मुझे लगता है। मुझे तो नहीं लगता कि यह मेरी भूल है। फिर भी मैं समझने को राजी हूं। अगर मेरी भूल हो तो समझा दें, मैं माफी मांग लूं। अगर मेरी भूल न हो, तो भी स्पष्ट हो जाए ताकि मैं चिंता से मुक्त हो जाऊं।
जब भी कोई क्रोध में हो, अपमान कर रहा हो, गाली दे रहा हो, तब तो उससे कुछ भी कहने का कोई मतलब नहीं है। वह तो पागल से तुम जूझ रहे हो। वह तो पागलपन की हालत में है। उस वक्त तुम्हें एकदम शांत होना चाहिए, तुम जितने शांत होओगे उतना ही उसको तुम आत्मग्लानि से भर दोगे। उसको लगेगा कि मुझसे भूल हो गई।

       प्रश्नः आपने कहा कि प्रेम हो, बाद में विवाह का बंधन जरूरी है?

बंधन नहीं।

प्रश्न: यानी की हो जाता है?

सहज है न। विवाह का मतलब कुल इतना ही है, प्रेम के बाद, कि दो व्यक्तियों को समाज ने स्वीकृति दे दी कि उनके प्रेम को समाज ने भी स्वीकार कर लिया। और कोई मतलब नहीं है।

       प्रश्नः और यदि...विवाह के बाद जो प्रेम है उसको, वह ठीक है?

आमतौर से होना मुश्किल है, सौ में निन्यानबे मौके नहीं होने के हैं।

       प्रश्नः राम और सीता का एग्जांपल दे सकते हैं?

अब राम और सीता का क्या हुआ, तुम्हें कुछ पता नहीं है। कौन जानता है कि राम का प्रेम पहले नहीं हो गया सीता को बगीचे में देख कर, मैंने सुना, पहले ही हो गया। वह प्रेम का ही मामला था राम-सीता का। विवाह बाद में ही हुआ है। वह प्रेम का ही झगड़ा था। वह ट्राएंगल जो था न, प्रेम का ही झगड़ा था। वह रावण को भी प्रेम पकड़ा हुआ था। तो ट्राएंगल जैसा फिल्म में बनता है, वही पुरानी कहानी है। वही राम, रावण, सीता। दो प्रेमी और एक प्रेमिका।

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