पत्र पाथय—27
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
पूज्य मां,
प्रणाम!
पत्र मिला! शुभाशीष
मन को छू गये।
हृदय दिक् और
काल की दूरी
नहीं मानता
हैं। वह उस
सबसे दूर होकर
भी निकट ही
बना रहता है
जो निकट है।
मेरे लिए की
गर्द ससि
प्रार्थनाएं
मुझ तक पहुच
जाती है।
मैं
स्वस्थ और
प्रसन्न हूं।
जीवन
बहुत मधुर और
आनंदपूर्ण हो
उठा है। प्रभु
की गीत—पंक्तियां
दिशा—दिशा से
आकर मेरे अंतस
की अतिथिशाला
को सौंदर्य से
भरने लगी है।
अपूर्व
और अखंड आनंद—सागर
कितना निकट है
और फिर भी हम
जन्म—जन्मांतर
को प्यास बनै
रहे हैं? यह खेल भी
खूब रहा है।
यह आंख—मिचौनी
अद्भुत थी। पर
यह तो अब दीख
रहा है। न
दीखने पर
कितना दुःख
ढोया है? इसकी
कोई गणना है
क्या? दीख
आने पर पर्दे
उठ जाते हैं।
रात्रि दिवस
बन जाती है।
दुःख में छिपा
अंतर प्रगट हो
जाता है। सव
में छिपा
प्रभु फिर
कितना हंसता
है —कितना
हंसता है?
कल तो
मैं बार—बार
अपने से कहने
लगा, '' सदित
के दिवस गये। आनंद
युग का
प्राग्भ हुआ
है।’’
यह हाथ
उठाकर सबसें
कह देता है।
इस आनंद को
सबसे बांट
लेने का मन है।
बांटने से यह
बढ़ता है। पूरा
बांट देने से
पूर्ण हो जाता
है। इसका गणित
और भी है। यहा
शून्य ही
पूर्ण होता है।
सबको
मेरे, प्रणाम।
रात्रि
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