बन्दी
महन्त:
दूधिया
पर्वत—माला के
ऊँचे शिखर पर, जो
पूजा—शिखर के
नाम से जाना
जाता है, एक
मत के विशाल
और उदास
खण्डहर हैं।
यह मठ किसी
समय ''नूह
की नौका'' के
नाम से
प्रसिद्ध था।
परम्परा के
अनुसार इसकी
प्राचीनता
पौराणिक जल—प्रलय
के साथ जुड़ी
हुई है।
पूजा—शिखर
की छाँह में
मुझे एक गरमी
का मौसम
बिताने का
अवसर मिला।
मैंने पाया कि
इस नौका के
साथ अनेक लोक—
कथाओं के ताने
तन गये हैं।
परन्तु जो कथा
स्थानीय
पर्वत—निवासियों
की जबान पर
सबसे ज्यादा
चढ़ी हुई थी वह
इस प्रकार है.
महान
जल—प्रलय के
कई वर्ष बाद
हज़रत नूह अपने
परिवार और
उसमें हुई
वृद्धि के साथ
घूमते—घूमते
दूधिया पर्वत—माला
में पहुँचे।
यहाँ उन्हें
उपजाऊ
घाटियाँ, जल
से भरपूर सोते
तथा सुखद जल—वायु
मिला।
उन्होंने
यहीं बस जाने
का निर्णय
किया।
जब
हजरत नूह को
लगा कि उनके
जीवन के दिन
थोड़े ही रह
गये हैं तो
उन्होंने
अपने पुत्र
सैम को बुलाया।
सैम उन्हीं की
तरह अनोखे
स्वप्न देखने
वाला दिव्यदर्शी
पुराष था।
उन्होंने
उससे कहा
''देखो पुत्र,
तुम्हारे
पिता की आयु
की फसल भरपूर
रही है। अब
उसकी अन्तिम
पूली दराँती
के लिये तैयार
है। तुम और
तुम्हारे भाई,
तथा
तुम्हारे
बच्चे और
तुम्हारे
बच्चों के बच्चे
शोकग्रस्त
वीरान धरती को
फिर से आबाद
करेंगे, और
परमात्मा
द्वारा मुझे
दिये गये वचन
के अनुसार
तुम्हारी
सन्तान
समुद्र—तट पर
फैले रेत के
कणों की तरह
अनगिनत होगी।
''फिर भी मेरे
टिमटिमाते
जीवन के
अन्तिम दिनों पर
एक भय छाया
हुआ है कि समय
के साथ लोग उस
जल—प्रलय को
और उन वासनाओं
और दुराचारों
को भूल जायेंगे
जिनके कारण वह
प्रलय आया था।
वे भूल
जायेंगे नौका
को और उस
विश्वास को भी
जिसने एक सौ
पचास दिन तक
प्रतिशोधपूर्ण
सागर की
प्रचण्ड
लहरों पर नौका
को अजेय रखा था।
न ही वे उस नव—जीवन
को याद रखेंगे
जिसको
विश्वास ने
जन्म दिया था
और जिसके 'फलस्वरूप
वे इस जगत में
आयेंगे।
''कहीं वे भूल
न जायें, इसलिये,
मेरे बेटे,
तुम्हें इस
पर्वत की सबसे
ऊँची चोटी पर
एक वेदी बनाने
का आदेश देता
हूँ। .यह चोटी
अब से पूजा—शिखर
के नाम से
जानी जायेगी।
मैं यह भी
आदेश देता हूँ
कि उस वेदी के
चारों ओर एक
भवन का
निर्माण करना
जो हर प्रकार
से उस नौका के
सदृश तो हो, परन्तु आकार
में उससे काफी
छोटा हो। वह
भवन ''नूह की
नौका'' कहलायेगा।
''मेरी इच्छा
है कि उस वेदी
पर मैं अपनी
अन्तिम कृतज्ञतापूर्ण
प्रार्थना
करूँ। मेरा
आदेश है कि
जिस अग्नि को
मैं उस वेदी
पर प्रज्वलित
करूँगा उसे
अखण्ड ज्योति
के रूप में
निरन्तर जलती
रखना। जहाँ तक
उस भवन का
प्रश्न है, उसका उपयोग
चुने हुए व्यक्तियों
की छोटी—सी
बिरादरी के
लिये एक आश्रम
के रूप में
करना। उस
बिरादरी के
सदस्य न कभी
नौ से अधिक
होंगे और न ही
कभी नौ से कम।
वे ''नौका
के साथी'' कहलायेंगे।
जब भी उनमें
से किसी साथी
का देहान्त
होगा. प्रभु
उसका स्थान
लेने के लिये
तुरन्त किसी
दूसरे
व्यक्ति को
भेज देगा। वे
आश्रम को छोड़
कर कहीं नहीं
जायेंगे, बल्कि
अपना पूरा
जीवन उसी के
अन्दर
एकान्तवास
में
बितायेंगे! वे
''माँ—नौका''
के व्रतों
का पूरा पालन
करेंगे.
विश्वास की ज्योति
जलाये रखेंगे
और अपने तथा
समस्त मानव—परिवार
के पथ—प्रदर्शन
के लिये
परमात्मा से
प्रार्थना
करते रहेंगे।
उनकी शारीरिक
आवश्यकताएँ
श्रद्धालुओं
के दान से
पूरी होती
रहेंगी।’’ सैम
ने, जो
अपने पिता के
एक—एक शब्द को
बडे ध्यान से
सुन रहा था, हजरत नूह को
टोक कर पूछा
कि नौ की
संख्या ही क्यों
रखी गयी है, कम या
ज्यादा क्यों
नहीं? और
आयु के भार से
दबे कुलपिता
ने उसे समझाते
हुए कहा :
''मेरे पुत्र,
जो व्यक्ति
नौका में सवार
थे उनकी सख्या
नौ ही थी।’’
परन्तु
जब सैम ने
गिनती की तो
आठ से आगे न बढ़
पाया : उसके
पिता और माता, वह
खुद और उसकी
पत्नी तथा
उसके दो भाई
और उनकी पत्नियाँ।
इसलिये पिता
के शब्दों ने
उसे बड़े विस्मय
में डाल दिया।
अपने पुत्र को
विस्मित देख
कर हजरत नूह
ने आगे स्पष्ट
किया?
(यह विवरण
बाइबिल, ओल्ड
टैस्टामेंट
(जैनिसिज 6— 9) पर
आधारित है।)
''देखो बेटा.
मैं तुम पर एक
गहरे भेद की
बात प्रकट
करता हूँ।
नौवाँ
व्यक्ति
गुप्त रूप से
नौका पर चढ़ा
था; उसे
केवल मैं
जानता था और
केवल मैंने ही
उसे देखा था। 'वह निरन्तर
मेरे साथ रहता
था और मेरा
कर्णधार था।
उसके विषय में
मुझसे और कुछ
मत पूछना; पर
अपने आश्रम
में उसके लिये
जगह रखना मत
भूलना। सैम, मेरे बेटे, यह मेरी
इच्छा है। इसे
अवश्य पूरी
करना।’’
और
सैम ने वह सब
किया जिसका
उसके पिता ने
उसे आदेश दिया
था।
जब
हजरत नूह अपने
पूर्वजों से
जा मिले तो
उनके बच्चों
ने उनके मृत
शरीर को नौका
की वेदी के नीचे
दफना दिया।
उसके बाद
युगों तक यह
नौका, व्यावहारिक
रूप में और
सच्चे अर्थों
में, वैसा
ही आश्रम बनी
रही जिसकी जल—प्रलय
के माननीय
विजेता ने
कल्पना की थी
और जिसके
निर्माण के
लिये उन्होंने
आदेश दिया था।
परन्तु
जैसे—जैसे
सदियाँ बीतती
गईं,
नूह की नौका
ने धीरे—धीरे
अपनी
आवश्यकताओं
से कहीं अधिक
दान श्रद्धालुओं
से स्वीकार
करना शुरू कर
दिया।
फलस्वरूप
भूमि, सोने—चाँदी
और जवाहरात की
दृष्टि से
नौका प्रतिवर्ष
अधिक सम्पन्न
होती चली गई।
कुछ
पीढियाँ पहले
जब नौ साथियों
में से एक की मृत्यु
हुई ही थी, एक
अजनबी नौका के
द्वार पर आया
और उसने विनती
की कि उसे
बिरादरी में
शामिल कर लिया
जाये। नौका की
पुरातन
परम्परा के
अनुसार, जिसका
कभी उल्लंघन
नहीं किया गया
था, उस
अजनबी को
तुरन्त
स्वीकार कर
लिया 'जाना
चाहिये था, क्योंकि—वह
एक साथी की
मृत्यु के
तुरन्त बाद
आने वाला पहला
व्यक्ति था
जिसने
बिरादरी में
शामिल किये
जाने की विनती
की थी। परन्तु
संयोग से उस
समय नौका का
महन्त, जो
मुखिया
कहलाता था एक
हठी
दुनियादार
तथा कठोर—हृदय
व्यक्ति था।
उसे अजनबी की
सूरत न सुहाई,
जो
वस्त्रहीन
तथा भूख का
मारा था और
जिसका शरीर
घावों से भरा
हुआ था।
मुखिया ने
उससे कह दिया
कि तू इस
योग्य नहीं कि
तुझे बिरादरी
में शामिल
किया जाये।
अजनबी
ने शामिल किये
जाने के लिये
बहुत आग्रह किया
और उसके इस
आग्रह से
मुखिया को
इतना क्रोध आ
गया कि उसने
हुक्म दिया कि
इसी क्षण यहाँ
से चला जा।
परन्तु अजनबी
अपनी बात मनवाने
का यत्न करता
रहा और किसी
भी तरह जाने के
लिये राजी न
हुआ। अन्त में
उसने मुखिया
को मना लिया
कि वह उसे एक
नौकर के रूप
में रख ले।
उसके
बाद मुखिया
बहुत समय तक
प्रतीक्षा
करता रहा कि
दिवंगत साथी
के स्थान पर
प्रभु किसी
दूसरे को भेज
दे। पर कोई
नहीं आया। इस
प्रकार नौका
के इतिहास में
पहली बार आठ
साथी और एक
नौकर नौका में
रहने लगे।
सात
वर्ष बीत गये।
मठ इतना धनवान
हो गया कि कोई
उसकी विपुल
सम्पदा का
अनुमान नहीं
लगा सकता था।
चारों ओर
मीलों तक फैले
गाँव और
जमीनें उसकी सम्पत्ति
बन गये थे।
मुखिया ब:हुत
प्रसन्न था, और
यह सोच कर कि
अजनबी नौका के
लिये
भाग्यशाली
सिद्ध हुआ है
उसके साथ
अच्छा
व्यवहार करने
लगा।
परन्तु
आठवें वर्ष के
आरम्भ होते ही
स्थिति तेजी
से बदलने लगी।
अभी तक शान्त
चली आ रही
बिरादरी में
खलबली मच गई।
चतुर मुखिया
ने तुरन्त ताड़
लिया कि अजनबी
ही इसका कारण
है. और उसने
अजनबी को नौका
से निकाल देने
का निश्चय
किया। लेकिन
अफसोस, बहुत
देर .हो चुकी
थी। अजनबी के
नेतृव में
साथी अब किसी
नियम या तर्क
को मानने के
लिये तैयार न
थे। दो ही
वर्षों में
उन्होंने
आश्रम की सारी
चल तथा अचल
सम्पत्ति
बाँट दी। मठ
के असंख्य
लगानदारों को
उन्होंने
जमीनों का
मालिक बना
दिया। तीसरे
वर्ष वे मठ को
छोड़ कर चले
गये। और इससे
भी अधिक दिल
दहला देने
वाली बात यह
हुई कि उस
अजनबी ने
मुखिया को शाप
दे दिया जिसके
परिणामस्वरूप
वह आज तक मत की
भुमि के साथ
बँधा हुआ है
और बोलने में
असमर्थ है।
इस
प्रकार
प्रचलित है
लोक—क्या।
ऐसे
प्रत्यक्षदर्शी
गवाहों की कोई
कमी नहीं थी
जिन्होंने
मुझे विश्वास
दिलाया कि
कितनी ही बार—
कभी दिन में
तो कभी रात
में— उन्होंने
मुखिया को
उजाड़ और अब काफी
हद तक खण्डहर
बन चुके मठ के
मैदानों में भटकते
देखा है।
परन्तु ऐसा
कोई नहीं था
जो उसके मुख
से एक शब्द भी
बुलवा सका हो।
बल्कि जब भी
वह किसी पुरुष
या स्त्री की
उपस्थिति
महसूस करता तो
तेजी के साथ न
जाने कहाँ गायब
हो जाता था।
मुझे
मानना होगा कि
इस कथा ने मेरे
मन का चैन छीन
लिया। पूजा—शिखर
जैसे सुनसान
पर्वत पर इतने
पुरातन आश्रम
के आंगन में
तथा आस—पास
वर्षों से
भटकते हुए
एकाकी महन्त—
अथवा उसकी
छाया—मात्र—
की कल्पना एक
ऐसा हठपूर्वक
पीछा करने
वाला दृश्य था
कि उससे छुटकारा
पाना असम्भव
था। वह मेरी
आँखों में
ररकने
लगा, वह
मेरे विचारों
पर आघात करने
लगा, वह
मेरे रक्त को
उत्तेजित
करने लगा; वह
मेरे हाड़—मांस
को बेधने लगा।
आखिर
मैंने फैसला
किया, मैं
पर्वत पर
अवश्य चढ़ूँगा।
चकमकी
ढलान:
पश्चिम
दिशा में
समुद्र की ओर
मुख किये और
उससे कई हजार
फुट ऊँचा पूजा—शिखर
था,
जिसका
विस्तीर्ण।
उन्नत, पथरीला
और दुर्गम रूप
दूर से ही
चुनौतीपूर्ण और
भयावह प्रतीत
होता था। उस
पर जाने के
लिये मुझे दो
मार्ग बताये
गये जो काफी
हद तक खतरे से
खाली थे।
दोनों ही
मार्ग
घुमावदार और
सँकरे थे तथा
अनेक खडी
चट्टानों की
कगार पर बल
खाते हुए जाते
थे— एक था
दक्षिण की ओर
से, दूसरा
उत्तर की ओर
से। मैंने तय
किया कि उन
दोनों में से
कोई भी मार्ग
नहीं
अपनाऊँगा।
दोनों के बीच
में, शिखर
से सीधे नीचे
उतरती तथा
पर्वत की लगभग
तलहटी तक
पहुँचती एक
सँकरी. समतल
ढलान दिखाई दी।
यह मुझे शिखर
पर जाने के
लिये
राजमार्ग—सी
प्रतीत हुई। इसने
मुझे एक
रहस्यमयी
शक्ति के साथ
आकर्षित किया,
और मैंने
निश्चय कर
लिया कि यही
मेरा मार्ग होगा।
जब
मैंने अपना
निश्चय एक
स्थानीय
पर्वतारोही
को बताया तो
उसने दो दहकते
नेत्रों से
मुझे जड़—सा कर
दिया, और हाथ
पर हाथ मारता
हुआ आतंकित
स्वर में बोल उठा
:
''चकमकी ढलान '
अपने
प्राणों को
इतने सस्ते
में गँवाने की
मूर्खता मत कर।
तुझसे पहले कई
इस रास्ते से
चढ़ने की कोशिश
कर चुके हैं, पर कोई भी आज
तक आप—बीती
सुनाने नहीं
लौटा। चकमकी
ढलान ' कभी
नहीं, कभी
नहीं।’’
उसने
पर्वत पर चढ़ने
में मेरा पथ—प्रदर्शन
करने का आग्रह
भी किया, परन्तु
मैंने
नम्रतापूर्वक
उसकी सहायता
लेने से इनकार
कर दिया। मैं
बता नहीं सकता
कि उसके
आतंकित होने
का मुझ पर
उलटा ही
प्रभाव क्यों
पड़ा। रोकने के
बजाय उसके भय
ने मुझे और
उकसाया तथा मेरे
निश्चय को
पहले से भी
अधिक दृढ़ कर
दिया।
एक
दिन सवेरे, जब
अन्धकार
झुटपुटे में
से निकल कर
प्रकाश में
बदल रहा था, मैंने रात
के सपनों को
अपनी पलकों पर
से झटक दिया, अपनी लाठी
उठाई, सात
रोटियाँ साथ
लीं और चकमकी
ढलान की ओर चल
पडा।
मृतप्राय
रात्रि के
मन्द—मन्द
श्वास, जन्म
ले रहे दिवस
की तेज धड़कन, बन्दी महन्त
के रहस्य का सामना
करने की मन को
कचोटती हुई
उत्सुकता, और
अपने आप को
अपने आप से—
चाहे
क्षणमात्र को
ही सही— मुक्त
कर पाने की
उससे भी कहीं
अधिक कचोटती हुई
उत्कण्ठा, इन
सबने मानों
मेरे पैरों
में पंख लगा
दिये थे, मेरे
रक्त में स्फूर्ति
का सचार कर
दिया था।
हृदय
में संगीत और
आत्मा में दृढ
निश्चय लिये
मैंने अपनी
यात्रा शुरू
कर दी। परन्तु
एक लम्बे और
उल्लासपूर्ण
सफर के बाद जब
मैं ढलान के
निचले सिरे पर
पहुँचा और
अपनी आंखों से
उसकी ऊँचाई को
नापने की
कोशिश की, तो
मेरा गीत मेरे
कण्ठ में अटक
कर रह गया। जो
मार्ग—तल मुझे
दूर से सीधा.
सपाट और सँकरा
दिखाई देता था,
वही अब मेरे
सामने था—
चौड़ा, कठिन
चढ़ाई वाला, ऊँचा और
अजेय। ऊपर और
दायें—बायें,
जहाँ तक भी
मेरी दृष्टि
पहुँच सकती थी,
चकमक फत्थर
के विविध
आकारों तथा
रूपों वाले टुकडों
के अतिरिक्त
कुछ भी दिखाई
नहीं दे रहा था,
छोटे से
छोटे टुकडे तो
पैनी सूई या
धार किये चाकू
जैसे थे। जीवन
का कहीं कोई
चिह्न तक न था।
पूरे दृश्य पर
दूर—दूर तक
उदासी का एक
ऐसा कफन फैला
हुआ था कि रूह कँपकँपा
उठती थी। शिखर
की तो झलक तक
दिखाई नहीं दे
रही थी। फिर
भी मैं हिम्मत
हारने को
तैयार नहीं था।
जिस
नेक पुरुष ने
मुझे ढलान पर
चढ़ने के
विरुद्ध
चेतावनी दी थी
' 'उसके दहकते
नेत्र अभी तक
मेरे चेहरे को
तप्त कर रहे
थे, पर
मैंने अपने
निश्चय को
बटोरा और चढ़ना
शुरू कर दिया।
लेकिन शीघ्र
ही मैंने
स्पष्ट अनुभव
किया कि केवल
अपने पैरों के
बल पर मैं
ज्यादा दूर
नहीं जा
सकूँगा, क्योंकि
चकमक पत्थर के
टुकड़े मेरे
पैरों के नीचे
से लगातार फिसलते
जा रहे थे और
ऐसी भयानक
आवाज पैदा कर
रहे थे मानों
मौत के शिकंजे
में फँस कर
कठिनाई से
साँस ले रहे
लाखों कण्ठों
से निकलता
सम्मिलित
क्रन्दन हो।
थोड़ा—सा भी
आगे बढ़ने के
लिये मुझे
अपने हाथों और
घुटनों को, पैरों की
अँगुलियों तक
को, चकमक
की फिसलती हुई
ककड़ियों में
गड़ाना पड़ता था।
उस समय मेरे
मन में कितनी
प्रबल इच्छा
उठ रही थी कि
मुझमें
बकरियों जैसा
फुर्तीलापन
होता! बिना
विश्राम किये
मैं एक कीडे
की तरह टेढ़ा—मेढ़ा
ऊपर को रेंगता
गया, क्योंकि
मुझे अब डर लगने
लगा था कि
मेरे मंजिल पर
पहुँचने से
पहले ही रात
कहीं मुझे घेर
न ले। वापस
लौटने का
विचार तो मेरे
मन से कोसों
दूर था।
दिन
प्राय:
समाप्ति पर था, तभी
अचानक मुझे
जोर की भूख
महसूस हुई। तब
तक मुझे कुछ
खाने या पीने
का ख्याल ही
नहीं आया था।
जो रोटियाँ
मैंने रूमाल
में लपेट कर
अपनी कमर से
बाँध रखी थीं,
वे उस समय
निःसन्देह
इतनी कीमती
थीं कि उनका मोल
नहीं आंका जा
सकता था। मैं
रूमाल खोल कर
रोटी का पहला
ग्रास तोड्ने ही
लगा था कि एक
घण्टी की खनक
और एक ऐसी
आवाज जो बाँसुरी
के पीड़ा—भरे
स्वर जैसी
प्रतीत होती
थी मेरे कानों
में पड़ी।
नुकीले
चकमकों के
उजाड़ में इससे
बढ़ कर चौंका देने
वाली बात और
क्या हो सकती
थी।
अगले
ही क्षण अपनी
दाहिनी ओर की
एक चट्टान की लम्बी
सँकरी चोटी पर
मुझे एक
दीर्घकाय
काला बकरा
दिखाई दिया
जिसके गले में
घण्टी लटक रही
थी और जो
बकरियों की
टोली का अगुआ
था। इससे पहले
कि मैं सँभलता, बकरियों
ने मुझे चारों
ओर से घेर
लिया। उनके
पैरों के नीचे
से चकमक उसी
प्रकार शोर करते
हुए गिर रहे
थे जैसे मेरे
पैरों के नीचे
से. पर उनकी
आवाज उतनी
भयावह नहीं थी।
काले बकरे की
अगुआई में
बकरियाँ मेरी
रोटियों पर इस
प्रकार झपटी
मानों उन्हें
न्योता दिया
गया हो, और
वे मेरे हाथों
से रोटियाँ
छीन ही लेतीं
अगर उनके
गडरिये ने, जो न जाने
कैसे और कहाँ
से आकर मेरी
काल में खड़ा
हो गया था, आवाज
देकर उन्हें
रोका न होता।
वह एक विलक्षण
आकृति वाला
युवक था—
लम्बा, बलवान
और तेजस्वी।
कमर पर लिपटी
खाल उसकी एकमात्र
पोशाक थी, और
हाथ में पकड़ी
बाँसुरी उसका
एकमात्र
हथियार।
एक
मुसकराहट के
साथ कोमल स्वर
में वह बोला, ''मेरा
अगुआ बकरा लाड़
में बिगड़ा हुआ
है। जब भी
मेरे पास
रोटियाँ होती
हैं, मैं
इसे खिला देता
हूँ। पर रोटी
खाने वाला कोई
प्राणी कितने
ही पखवारों से
इधर से नहीं
गुजरा।’’ फिर
घण्टी वाले
अगुआ बकरे की
ओर मुड़ते हुए
उसने कहा, '' देख
रहे हो तुम, मेरे वफादार
बकरे. अच्छा
भाग्य किस प्रकार
हमारी
आवश्यकताओं
की पूर्ति
करता है? भाग्य
की ओर से कभी
निराश मत होओ।’’
इतना
कह कर उसने
झुक कर एक
रोटी उठा ली।
यह सोच कर कि
वह भूखा है, मैंने
बहुत
नम्रतापूर्वक
और अत्यन्त
निश्छल भाव से
उससे कहा.
''यह सादा
भोजन हम बाँट
कर खा लेंगे।
ये रोटियाँ हम
दोनों के लिये
काफी हैं— और
आपके अगुआ
बकरे के लिये
भी।’’
मैं
आश्चर्य से
सन्न हो गया
जब उसने एक
रोटी बकरियों
को डाल दी फिर
दूसरी और फिर
तीसरी, और
यहाँ तक कि
सातवीं भी, और हर रोटी
में से एक—एक
ग्रास वह स्वय
लेता गया। यह
देख मुझ पर
बिजली गिर पड़ी,
और क्रोध से
मेरी छाती
फटने लगी। पर
अपनी विवशता
को समझते हुए
मैंने अपने
क्रोध को थोड़ा
शान्त किया और
विस्मित
नेत्रों से गडरिये
की ओर देखते
हुए कुछ विनती
और कुछ उलाहने
के स्वर में
बोला
''अब जब कि एक
भूखे आदमी की
रोटियाँ
तुमने अपनी बकरियों
को खिला दी
हैं, क्या
उसे अपनी
बकरियों का
थोडा—सा दूध
नहीं पिलाओगे?''
''मेरी
बकरियों का
दूध मूर्खों
के लिये विष
है; और मैं
नहीं चाहता कि
मेरी कोई बकरी
किसी मूर्ख तक
के प्राण लेने
का अपराध करे।’’
''पर मैं
मूर्ख
क्योंकर हुआ? ''
''क्योंकि तू
सात जन्मों की
यात्रा पर सात
रोटियाँ लेकर
चला है।’’ ''तो
क्या मुझे सात
हजार रोटियाँ
लेकर चलना चाहिये
था ?''
''नहीं, एक
भी नहीं।’’
''इतने लम्बे
पर क्या तुम
बिना रसद के
जाने की सलाह
देते सफर
हो
' ''
''जिस पथ पर
पथिक को खाने
को न मिले, वह
पथ चलने के
लायक नहीं।’’
''क्या तुम
चाहते हो कि
मैं रोटी की
जगह चकमक के टुकड़े
खाऊँ और पानी
की जगह अपना
पसीना पीऊँ ?''
''खाने के
लिये तेरा मसि
काफी है. और
पीने के लिये
तेरा रक्त। और
फिर मार्ग भी
तो है।’’
''तुम मेरा
कुछ ज्यादा ही
मजाक उड़ा रहे
हो, गडरिये।
फिर भी मैं
बदले में
तुम्हारा
मजाक नहीं
उड़ाना चाहता।
जो कोई भी
मेरा अन्न
खाता है, वह
चाहे मुझे
भूखा ही मार
दे, मेरा
भाई बन जाता
है। देखो, दिन
पर्वत के पीछे
छिप रहा है. पर
मुझे अपना सफर
जारी रखना
होगा। तुम
मुझे बताओगे
नहीं कि क्या
मैं अभी भी
शिखर से दूर
हूँ?''
''तू विस्मृति
के अत्यन्त
निकट है।’’
यह
कह कर उसने
बाँसुरी अपने
अधरों से लगाई
और एक विलक्षण
धुन बजाते हुए
चल पडा। लगता
था कि वह
पाताल—लोक से
आती हुई कोई
फरियाद है।
अगुआ बकरा
उसके पीछे चल
पड़ा और बकरे
के पीछे बाकी
सब बकरियाँ।
बहुत देर तक
मुझे बाँसुरी
के पीड़ा—भरे
स्वर में मिली
हुई चकमक
पत्थरों के
गिरने और
बकरियों के
मिमियाने की
आवाजें सुनाई
देती रहीं।
अपनी
भूख को मैं
बिलकुल भूल
चुका था, इसलिये
गडरिये
द्वारा
ध्वस्त की जा
चुकी अपनी
शक्ति और
दृढता को मैं
फिर से सँजोने
लगा। अगर रात
को मुझे चकमक
के इस
विषादपूर्ण
अम्बार में
घिरा पाना था
तो जरूरी था
कि मैं अपने
लिये कोई ऐसा
स्थान ढूँढ
लूँ जहाँ थक
कर चूर हुई अपनी
हड्डियों को
ढलान पर
लुढुकने के भय
के बिना सीधी
कर सकूँ। सो
मैंने फिर
घिसटना शुरू
कर दिया।
पर्वत से नीचे
की ओर दृष्टि
डाली तो मेरे
लिये विश्वास
करना कठिन था
कि मैं इतनी
ऊँचाई पर पहुँच
चुका हूँ।
ढलान का निचला
सिरा अब दिखाई
नहीं दे रहा
था ' जब कि
लगता था कि
शिखर अब लगभग
मेरी पहुँच
में है।
रात
होते—होते मैं
शिलाओं के एक
समूह तक पहुँच
गया जिनसे एक
गुफा—सी बनी
हुई थी। यह
गुफा एक ऐसे
गहरे खड्ड के
बिलकुल
किनारे पर थी
जिसकी तह में
भंयकर काले
साये करवटें
ले रहे थे, फिर
भी मैंने रात
के लिये उसी
को अपना बसेरा
बनाने का
निश्चय किया।
मेरे
जूतों के
चिथड़े उड़ गये
थे और उन पर
रक्त के बहुत—से
धबे पड़े हुए
थे। जब मैंने
उन्हें
उतारने की
कोशिश की तो
मुझे पता चला
कि मेरे पैरों
की खाल उनसे
इस तरह कस कर
चिपक गई है
जैसे उसे गोंद
लगा हो। मेरी
हथेलियों पर
गहरी रक्तिम
धारियाँ पड़ गई
थीं। नाखून
किसी सूखे
पेडू से उखाडी
हुई छाल के किनारों
जैसे हो गये
थे। मेरे
वस्त्र अपना
अधिकांश भाग
तीखे चकमक पत्थरों
को भेंट कर
चुके थे। मेरा
सिर नींद से
बोझिल हो रहा
था। लगता था
उसमें और कोई
विचार है ही
नहीं।
मैं
कितनी देर
सोया रहा था—
एक क्षण, एक
घण्टा या
अनन्त काल तक,
मुझे पता
नहीं। लेकिन,
यह महसूस
होने पर कि
कोई बलपूर्वक
मेरी आस्तीन
खींच रहा है, मैं उठ कर
बैठा तो
हड़बड़ाहट और
नींद की
बेसुधी में
मैंने देखा कि
एक युवती हाथ
में मन्द प्रकाश
वाली एक
लालटेन लिये
मेरे सामने
खड़ी है। वह
पूर्णतया
निर्वस्त्र
थी और उसके
शरीर की गठन
तथा चेहरे में
एक अत्यन्त
सुकुमार
सौन्दर्य था।
और मेरी जैकेट
की बाँह खींच
रही थी एक
वृद्धा जो उतनी
ही कुरूप थी
जितनी वह
युवती रूपवती
थी। एक सर्द
सिहरन ने मुझे
सिर से पैर तक
कँपा दिया।
जैकेट
को मेरे
कन्धों से
थोड़ा खींचती
हुई वृद्धा कह
रही थी, ''देख
रही हो तुम, मेरी प्यारी
बच्ची, अच्छा
भाग्य किस
प्रकार हमारी
आवश्यकताओं
की पूर्ति
करता है? भाग्य
की ओर से कभी
निराश मत होओ।’’
मेरी
जबान पथरा गई, और
विरोध करना तो
दूर, मैंने
बोलने तक की
कोशिश नहीं की।
व्यर्थ ही
मैंने अपने
मनोबल को
पुकारा। लगता
था कि वह मेरा
साथ छोड़ चुका
है। इतना अधिक
शक्तिहीन हो
गया था मैं उस
वृद्धा के
सामने; क्योंकि
यदि मैं चाहता
तो उसे और
उसकी पुत्री को
फूँक मार कर
गुफा से बाहर
फेंक सकता था।
पर मैं तो
इच्छा भी नहीं
कर पा रहा था, और न ही
मुझमें फूँक
मारने की
शक्ति थी।
अकेली
जैकेट से ही
सन्तुष्ट न
होकर उस
स्त्री ने
मेरे बाकी
कपड़े भी
उतारने शुरू
कर दिये, यहाँ
तक कि मेरी
देह पर एक भी
वस्त्र नहीं रहने
दिया। मेरे
वस्त्र
उतारते—उतारते
वह हर वस्त्र
उस कन्या को
देती जाती और
वह कन्या उसे
स्वयं पहन
लेती। गुफा की
दीवार पर पड़ रही
मेरे नग्न
शरीर की
परछाईं और
दोनों
स्त्रियों की
टूटी—फूटी
परछाइयों ने
मिल कर मुझे
डर और घृणा से
भर दिया। मैं
बिना कुछ समझे
देखता रहा और
बिना कुछ बोले
खडा रहा, जब
कि उस समय बोलन
ही सबसे अधिक
आवश्यक था और
उस अरुचिकर
अवस्था में मेरे
पास वही एक
शस्त्र बचा रह
गया था। आखिर
मेरी जुबान
खुली और मैंने
कहा:
''ऐ बुढ़िया, अगर
तुम्हारी सब
शर्म खत्म हो
गई है तो मेरी
तो नहीं हुई।
तुम जैसी
निर्लज्ज
डायन के सामने
भी मुझे अपने
नंगेपन पर
शर्म आ रही है।
पर इस कन्या
के भोलेपन के
सामने तो मेरी
लज्जा का कोई
अन्त ही नहीं
है।’’
''जिस प्रकार
यह तेरी लज्जा
को ओढ़े हुए है,
उसी प्रकार
तू इसके
भोलेपन को ओढ़
ले।’’
''किसी कन्या
को एक थके—हारे
मनुष्य के फटे
हुए वस्त्र
किसलिये चाहियें,
और एक ऐसे
मनुष्य के जो
पर्वतों में
ऐसे स्थान पर,
ऐसी रात में
भटक गया है ?''
''शायद उसका
बोझ हलका करने
के लिये। शायद
अपने आप को
गरम रखने के
लिये। सर्दी
से बेचारी
बालिका के
दाँत बज रहे
हैं।’’
''पर जब सर्दी
से मेरे दाँत
बजेंगे तो मैं
उसे कैसे दूर
भगाऊँगा ' क्या
तुम्हारे
हृदय में तनिक
भी दया नहीं
है ' मेरे
कपड़े ही इस
संसार में
मेरी एकमात्र
सम्पत्ति हैं।’’
''कम परिग्रह—
कम बन्धन।
अधिक
परिग्रह— अधिक
बन्धन।
अधिक
बन्धन— कम मोल।
कम
बन्धन— अधिक
मोल।
आओ
हम चलें, मेरी
बच्ची।’’
जब
वह कन्या का
हाथ पकड़ कर
चलने को हुई
तो मेरे मन
में उससे
पूछने के लिये
हजारों
प्रश्न उमड़ पड़े, लेकिन
केवल एक ही
मेरी जुबान पर
आ पाया?
''ऐ बुजुर्ग
औरत, जाने
से पहले मुझे
इतना बताने की
कृपा नहीं
करोगी कि क्या
मैं शिखर से
अभी भी दूर
हूँ ?''
''तू काले
खड्ड के कगार
पर है।’’
उनकी
विचित्र
परछाइयाँ
लालटेन के
मन्द प्रकाश
में क्षण—भर
के लिये पीछे
को मेरी ओर
लहराई; वे
दोनों गुफा से
निकलीं और
काजल—सी काली
रात में विलीन
हो गईं। न
जाने कहाँ से
एक काली ठण्डी
लहर मेरी ओर
लपकी। उसके
बाद और अधिक
काली, और
अधिक ठण्डी
लहरें आने
लगीं। लगता था
गुफा की
दीवारें ही
बर्फीली
साँसें छोड़
रही हैं। मेरे
दाँत कटकटाने
लगे और उनके
साथ ही मेरे पहले
से ही अस्त—व्यस्त
विचार भी चारे
के लिये चकमक
पत्थरों पर
मुँह मार रही
बकरियाँ, खिल्ली
उड़ाता गडरिया,
यह स्त्री
और यह कन्या, मैं नंगा
खरोंचों और
घावों से भरा,
भूख से
पीड़ित, सर्दी
से अकड़ा, हक्का—
बक्का, ऐसी
गुफा में, ऐसे
अथाह खड्ड के
किनारे। क्या
मैं अपनी
मंजिल के समीप
था? क्या
मैं कभी वहाँ
पहुँच पाऊँगा? क्या इस
रात्रि का
अन्त होगा?
मैं
अभी अपने आप
को सँभाल भी
नहीं पाया था
कि मुझे एक
कुत्ते के
भौंकने की
आवाज सुनाई दी
और साथ ही
दिखाई दी एक
और रोशनी, बहुत
पास, बहुत
ही पास— ठीक
गुफा के अन्दर।
''देख रही हो
तुम, प्रिये,
अच्छा
भाग्य किस
प्रकार हमारी
आवश्यकताओं की
पूर्ति करता है? भाग्य की ओर
से कभी निराश
मत होओ।’’ यह
आवाज थी एक
वृद्ध, बहुत
ही वृद्ध
पुरुष की, जिसकी
दाढ़ी बढ़ी हुई
थी, कमर
झुकी हुई थी
और घुटने काँप
रहे थे। वह एक
स्त्री से बात
कर रहा था जो
उस जितनी ही बूढी
थी, दन्त—हीन
अस्त—व्यस्त।
उसकी भी कमर
झुकी हुई थी
और घुटने काँप
रहे थे। प्रकट
रूप से मेरी
उपस्थिति की
ओर कोई ध्यान न
देते हुए उसी
तीखे स्वर में,
जो बहुत
कठिनाई से
उसके कण्ठ से
निकल रहा लगता
था वह बोलता
चला गया:
''हमारे प्रणय
के लिये एक
शानदार सुहाग—कक्ष,
और
तुम्हारी खोई
हुई लाठी के
बदले एक बहुत
बढ़िया लाठी।
ऐसी लाठी पाकर
अब तुम्हारे
पैर कभी नहीं
लड़खडायेंगे,
प्रिये।’’ यह कहते हुए
उसने मेरी
लाठी उठा ली
और उस स्त्री
को जमा दी जो
बड़ी कोमलता के
साथ उस पर
झुकी और बड़े
प्यार के साथ
उसे अपने
जर्जर हाथों
से थपथपाने
लगी। फिर, मानों
मेरी
उपस्थिति पर
ध्यान देते
हुए, परन्तु
पूरा समय अपनी
संगिनी से ही
बात करते हुए
वह बोला
''यह अजनबी
अभी यहाँ से
चला जायेगा
प्रिये, और
अपने रात्रि
के सपने हम
एकान्त में
देखेंगे।’’
यह
कथन मेरे लिये
एक आदेश बन कर
आया जिसकी
अवज्ञा करने
की शक्ति
मुझमें नहीं
थी,
विशेषतया
जब उसका
कुत्ता
डरावने ढंग से
गुर्राता हुआ
मेरी ओर बढ़ा
मानों अपने
स्वामी की
आज्ञा का पालन
करने आ रहा हो।
पूरे दृश्य ने
मुझे
भयाक्रान्त
कर दिया, मैं
उसे इस तरह
देखता रहा
जैसे मेरी सुध—बुध
खो गई हो; एक
सुध—बुध खो
चुके व्यक्ति
की भाँति ही
मैं उठा और गुफा
के प्रवेश—द्वार
की ओर बढ़ा; साथ—साथ
मैं बोलने का—
अपनी रक्षा
करने का, दृढ़तापूर्वक
अपना अधिकार
जताने का—
निराशापूर्ण
प्रयत्न भी
करता रहा।
''मेरी लाठी
तुमने ले ली
है। क्या तुम
इतने निर्दयी
हो जाओगे कि
इस गुफा को भी
मुझसे छीन
लोगे जो इस
रात के लिये
मेरा बसेरा है
?''
''सुखी हैं
लाठी—हीन
वे ठोकर
नहीं खाते।
सुखी हैं
बेघर,
वे अपने घर
में हैं।
ठोकर खाते
हैं जो
हमारे
जैसे,
उन्हीं को
चलना पड़ता है
लाठियाँ
लेकर।
बँधे हैं
घर से जो
हमारी तरह,
उन्हीं को
जरूरत है
एक घर की।’’
इस
प्रकार वे एक
साथ गाते रहे, और
साथ ही अपने
लम्बे
नाखूनों को जमींन
में धंसाते हुए
तथा कंकड—कंकडियों
को समतल करते
हुए अपनी सेज
तैयार करते
रहे। लेकिन
मेरी ओर
उन्होंने कोई
ध्यान नहीं
दिया। इससे
मैं बुरी तरह
हताश होकर चीख
उठा?
''मेरे हाथों
को देखो। मेरे
पैरों को देखो।
मैं एक पथिक
हूँ, इस
वीरान ढलान
में भटका हुआ
पथिक। अपने ही
रक्त से अपने
पद—चिह्न
अंकित करता
हुआ मैं यहाँ
तक पहुँचा हूँ।
इस भयंकर
पर्वत का, जो
तुम्हारा खुद
जाना—पहचाना
लगता है, मुझे
आगे एक इंच भी
दिखाई नहीं दे
रहा है। क्या
तुम्हें करनी
का फल भुगतने
का जरा भी डर नहीं?
यदि तुम
मुझे अपने साथ
गुफा में रात
बिताने की
अनुमति नहीं
देना चाहते तो
कम से कम अपनी
लालटेन ही
मुझे दे दो।’’
''प्रेम
बेपरदा नहीं
होगा।
प्रकाश
बाँटा नहीं
जायेगा।
प्रेम करो
और देखो।
ज्योति
जगाओ और जियो।
जब रात दम
तोड़ दे
जब दिन साथ
छोड़ दे
जब धरती
जाये मर
तब क्या
बीतेगी
पथिकों पर ?'
तब कौन
होगा यहाँ
जो कर
पायेगा साहस? ''
बहुत
लाचार होकर
मैंने मिन्नत
से काम लेने
का निश्चय
किया, यद्यपि
हर पल मुझे लग
रहा था कि
इससे कोई लाभ
नहीं होगा, क्योंकि कोई
रहस्यमयी
शक्ति मुझे
बाहर की ओर धकेलती
जा रही थी।
''ऐ नेक बूढ़े।
ऐ नेक बुढिया।
मैं ठण्ड से
सुन्न हो गया
हूँ और थकान से
चूर—चूर, फिर
भी तुम्हारे
आनन्द में
बाधा नहीं
डालूँगा।
मैंने भी कभी
प्रेम का
प्याला पिया
है। मैं अपनी
लाठी और अपनी
तुच्छ कुटिया,
जिसे तुमने
अपना सुहाग—कक्ष
चुन लिया है, तुम्हारे
लिये
तुम्हारे पास
ही रहने दूँगा।
पर बदले में
एक छोटी—सी
चीज मैं तुमसे
अवश्य चाहता
हूँ जब तुम
मुझे अपनी
लालटेन के
प्रकाश से
वंचित रख रहे
हो तो क्या
इतनी कृपा भी
नहीं करोगे कि
मुझे इस गुफा
में से बाहर
ले चलो और शिखर
पर जाने का
रास्ता बता दो
' क्योंकि
मैं दिशा का
इश्न
पूर्णतया खो
चुका हूँ, और
अपना सन्तुलन
भी। मुझे पता
नहीं कि मैं
कितना ऊँचा चढ़
चुका हूँ और
कितना ऊँचा
मुझे अभी और चढ़ना
है।’’
मेरी
विनती की ओर
कोई ध्यान न
देते हुए वे
गाते गये:
''सचमुच ऊँचा
होता है
सदा नीचा।
सचमुच
वेगवान
होता है
सदा मन्द।
अति
संवेदनशील
होता है
चेतना—शून्य।
अतीव
वाक्पटु
होता है
मूक।
ज्वार और भाटा
दो रूप हैं
एक ही लहर
के।
जिसका
नहीं है
कोई
मार्गदर्शक
उसी के पास
है
पक्का
मार्गदर्शक।
बहुत महान
होता है
बहुत छोटा।
सब—कुछ है
उसके पास
जो सब—कुछ
देता है
लुटा।’’
एक
अन्तिम
प्रयत्न करते
हुए मैंने
उनसे प्रार्थना
की कि मुझे यह
तो बता दो कि गुफा
से निकलने पर मैं
किस ओर मुडूँ.
क्योंकि हो
सकता है पहले
ही कदम पर मौत
मेरी ताक में
बैठी हो; और
मैं अभी मरना
नहीं चाहता।
साँस रोके मैं
उनके उत्तर की
प्रतीक्षा
करता रहा जो
एक और रहस्यमय
गीत के रूप
में मिला और जिसने
मुझे पहले से
भी अधिक उलझन
में डाल कर और अधिक
बेचैन कर दिया
:
''चट्टान का
मस्तक है कठोर
और उन्नत।
शून्य की
गोद है कोमल
और अथाह।
सिंह और
कीट,
देवदार और
ईंधन
खरहा और
घोंघा
छिपकली और
बटेर
गरुड़ और
छछूँदर
सबको
लेटना है एक
ही खोह में।
एक ही
काँटा, एक
ही चारा।
केवल
मृत्यु क्षति—पूर्ति
कर सकती है
जैसा नीचे, वैसा
ऊपर
जीने के
लिये मरो,
या मरने के
लिये जियो।’’
हाथों
और घुटनों के
बल घिसटता हुआ
मैं जैसे ही
गुफा से बफर
निकला, लालटेन
की लौ टिमटिमा
कर बुझ गई।
कुत्ता दबे
पैर मेरे पीछे—पीछे
चला आ रहा था, मानों मुझे
बाहर निकालना
चाहता हो।
अन्धकार इतना
घना था कि
उसके स्याह
बोझ को मैं
अपनी पलकों पर
महसूस कर रहा
था। मैं और एक
पल भी वहाँ
नहीं ठहर सकता
था। इस बात का
कुत्ते ने
मुझे विश्वास
दिला दिया था।
एक
झिझकता कदम।
एक और झिझकता
कदम। तीसरे
कदम पर मुझे
ऐसा लगा जैसे
पर्वत अचानक मेरे
पैरों के नीचे
से निकल गया
है और मैंने अपने
आप को स्थधकार
के समुद्र के
तूफानी भँवर
में फँसा हुआ
पाया जिसने
मेरे प्राण
सुखा दिये और
मुझे प्रचण्ड
वेग से नीचे
झटक दिया—
नीचे. और नीचे।
जब
मैं काले खड्ड
के शून्य में
चक्कर खा रहा
था,
तब जो
अन्तिम दृश्य
मेरे मन में
कौंधा वह था उन
प्रेत जैसे
दूल्हा और
दुलहन का। जब
मेरी साँस
नासिका में
जमने लगी थी, तब जो
अन्तिम शब्द
मैंने
बुदबुदाये वे
उन्हीं के
शब्द थे
''जीने के
लिये मरो, या
मरने के लिये
जियो।’’
किताब
का रखवाला:
''उठ, ऐ
भाग्यशाली
अजनबी, तूने
अपनी मंजिल पा
ली है।’’
प्यास
से सूखा कण्ठ
लिये और सूर्य
की झुलसाती किरणों
के नीचे
छटपटाते हुए
मैंने आँखें
थोड़ी खोलीं तो
अपने आप को
जमीन पर चित
पड़ा पाया और
देखा कि एक
मनुष्य की
काली आकृति
मुझ पर झुकी
हुई बड़ी कोमलता
से मेरे सूखे
होंठों को
पानी से नम कर रही
है,
और उतनी ही
कोमलता से
मेरे अनेक
घावों पर जमे रक्त
को धो रही है।
उसका शरीर
भारी था और
मुखाकृति
भद्दी, दाढ़ी
तथा भौंहें
घनी, दृष्टि
गहरी तथा
तीह्या। उसकी
आयु का अनुमान
लगाना
अत्यन्त कठिन
था। परन्तु
उसका स्पर्श
कोमल और
शक्तिदायक था।
उसकी सहायता
से मैं उठ कर
बैठ सका, और
ल्यै स्वर में
जो मेरे अपने
कानों तक भी
बड़ी कठिनाई से
पहुँच रहा था
पूछ पाया,
''मैं कहाँ
हूँ? ''
''पूजा—शिखर
पर।’’
''और गुफा ?''
''तुम्हारे
पीछे।’’
''और काला
खड्ड? ''
''तुम्हारे
सामने।’’
निःसन्देह, बहुत
आश्चर्य हुआ
मुझे जब मैंने
देखा कि सचमुच
ही गुफा मेरे
पीछे है और
काला खड्ड
मुँह बाये
मेरे सामने है।
मैं खड्ड के
एकदम किनारे
पर था। मैंने
उस व्यक्ति को
गुफा में साथ
चलने के लिये
कहा और वह
खुशी—खुशी
मेरे साथ हो
लिया।
''इस खड्ड में
से मुझे किसने
निकाला ?''
''जिसने ऊपर
शिखर तक
तुम्हारा
मार्ग—दर्शन
किया, अवश्य
उसी ने
तुम्हें खड्ड
से निकाला
होगा।’’
''कौन है वह ?''
''वही जिसने
मेरी जुबान
बन्द कर दी और
मुझे डेढ सौ
साल तक इस
शिखर के साथ
बाँधे रखा।’’
''तो क्या तुम
ही बन्दी
महन्त हो ''?
''ही वह मैं ही
हूँ।’’
''पर तुम बोल
सकते हो जब कि
वह गूंगा है।’’
''मेरी जबान
तुमने खोल दी
है।’’
''वह मनुष्य
की संगति से
कतराता भी है।
परन्तु लगता
है कि तुम
मुझसे बिलकुल
नहीं डर रहे।’’
''मैं सबसे
कतराता हूँ, पर तुमसे
नहीं।’’
''तुमने पहले
कभी मेरी शक्ल
नहीं देखी।
फिर ऐसा क्यों
कि तुम और
सबसे कतराते
हो, पर
मुझसे नहीं? ''
''एक सौ पचास
साल मैंने
तुम्हारे आने
की प्रतीक्षा
की है। एक सौ
पचास साल, एक
भी दिन छोडे
बिना, हर
ऋतु में, हर
मौसम में मेरी
पापी आंखें इस
ढलान के चकमक
पत्थरों को
निहारती रही हैं
कि शायद कोई
मनुष्य मुझे
इस पर्वत पर
चढ़ता और ऐसी
दशा में यहाँ
पहुँचता
दिखाई दे जाये
जिस दशा में
तुम पहुँचे हो—
पास न लाठी है,
न वस्त्र, न रसद।
बहुतों ने
ढलान के
रास्ते चढ़ने
का प्रयत्न किया,
पर पहुँचा
कभी कोई नहीं।
दूसरे
रास्तों से कई
पहुँचे, पर
ऐसा एक भी
नहीं था जिसके
पास न लाठी हो,
न वस्त्र, न रसद।
मैंने कल सारा
दिन तुम्हारी
प्रगति पर नज़र
रखी। रात
मैंने
तुम्हें गुफा
में सोकर
बिताने दी; किन्तु पौ
फटने के साथ
ही मैं यहाँ
आया और देखा कि
तुम्हारी
साँस बन्द है।
लेकिन मुझे
पूरा विश्वास
था कि तुम जी
उठोगे। और
देखो, तुम
मुझसे अधिक
सजीव हो। तुम
जीने के लिये
मरे हो। मैं
मरने के लिये
जी रहा हूँ।
ही, महिमा
उसी के नाम की
है। सब—कुछ
वैसा ही है
जैसा कि उसने
वादा किया था।
सब—कुछ वैसा
ही है जैसा
होना चाहिये
था। मेरे मन
में तनिक भी
सन्देह नहीं
रहा कि तुम ही
वह चुने हुए
व्यक्ति हो।’’
''कौन—सा
व्यक्ति ?''
''वह
भाग्यशाली
व्यक्ति
जिसके हाथों
में मुझे पवित्र
किताब संसार
के सामने लाने
के लिये सौंपनी
है।’’
''कौन—सी
किताब ?''
''उसकी किताब—
मीरदाद की
किताब।’’
''मीरदाद?
कौन है मीरदाद
'?'
''क्या यह
सम्भव है कि
तुमने मीरदाद
का नाम नहीं
सुना? कितनी
विचित्र बात
है। मुझे
पूर्ण
विश्वास था कि
अब तक उसका
नाम पृथ्वी पर
ऐसे फैल चुका
होगा जैसे वह
आज तक मेरे
पैरों के नीचे
की भुमि, मेरे
आस—पास की
वायु और मेरे
ऊपर के आकाश
में व्याप्त है।
पवित्र है यह भुमि,
ऐ अजनबी, इस पर उसके
पाँव चले थे।
पवित्र है यह
वायु; इसे
उसके फेफड़ों
ने अपनी साँस
बनाया था।
पवित्र है यह
आकाश; इसके
हर भाग पर
उसकी दृष्टि
पड़ी थी।’’ इतना
कह कर महन्त
श्रद्धापूर्वक
झुका, तीन
बार उसने जमीन
को चूमा, और
फिर मौन साध
लिया। थोडा
रुक कर मैंने
कहा:
''
जिस
व्यक्ति को
तुम मीरदाद
कहते हो. उसके
विषय में और
जानने की मेरी
उत्कण्ठा को
तुम बढ़ा रहे
हो।’’
''मेरी बात
ध्यानपूर्वक
सुनो, और
जो कुछ बताने
की मुझे इजाजत
है वह सब
तुम्हें
बताऊँगा।
मेरा नाम
शमदाम है। मैं
नौका का
मुखिया था जब
नौ साथियों
में से एक की
मृत्यु हुई।
उसकी आत्मा
अभी ससार से
विदा हुई ही
थी कि मैंने
सुना कि द्वार
पर खड़ा कोई
अजनबी मुझे
बुला रहा है।
मैं तुरन्त
जान गया कि
विधाता ने उसे
दिवंगत साथी
का स्थान लेने
के लिये भेजा
है; मुझे
खुश होना
चाहिये था कि
प्रभु अभी भी हुए
नौका पर अपनी कृपा—दृष्टि
रखे है, जैसे
वह हमारे पूर्वज
सैम के समय से
रखता आया था।’’
यहाँ
मैंने यह
पूछने के लिये
उसे बीच में
रोका कि नीचे
के लोगों ने
जो मुझे बताया
है कि इस नौका
को हज़रत नूह
के बड़े पुत्र
ने बनवाया था
क्या वह सच है।
उसने तुरन्त
जोरदार
शब्दों में
उत्तर दिया,
''हां, बिलकुल
वैसा ही है
जैसा तुम्हें
बताया गया है।’’
फिर बीच में
रोकी गई अपनी
कहानी जारी
रखते हुए उसने
कहा,
''
हां, मुझे
खुश होना चाहिये
था। पर
किन्हीं
कारणों से, जो पूर्णतया
मेरी समझ से
परे थे, मैंने
अपने अन्दर एक
विद्रोह
उभरता महसूस
किया। अजनबी
पर मैंने अभी
एक नजर भी न
डाली थी कि
मेरे पूरे
अस्तित्व ने
उसके विरुद्ध
युद्ध छेड दिया।
और मैंने उसे
अस्वीकार
करने का
निर्णय कर लिया,
यह पूरी तरह
समझते हुए भी
कि उसे
अस्वीकार करना
अलंध्य
परम्पराओं का
उल्लंघन करना
होगा, जिसने
उसे भेजा उसे
अस्वीकार
करना होगा।
''मैंने जब
द्वार खोला और
उसे देखा—
मात्र एक युवक
जिसकी पच्चीस
से अधिक नहीं
होगी— तो मेरे
हृदय में अनेक
खंजर लगे
जिन्हें मैं उसकी
देह में भोंक
देना चाहता था।
नग्न, स्पष्ट
रूप से भूख से
पीड़ित, अपनी
सुरक्षा के
सभी साधनों से,
लाठी तक से
विहीन वह
सर्वथा असहाय
प्रतीत हो रहा
था। उसके मुख
पर एक विलक्षण
तेज था जिसके
कारण वह कवच
से सज्जित एक
योद्धा से
कहीं अधिक
सुरक्षित और
अपनी आयु से
कहीं अधिक बड़ा
लग रहा था।
मेरा सम्पूर्ण
व्यक्तित्व
उसके विरुद्ध
चीख उठा। मेरी
शिराओं में
बहते रक्त की
एक—एक बूँद
उसे कुचल देने
के लिये मचल
उठी। इसका
कारण मुझसे मत
पूछो। शायद
उसकी पैनी
दृष्टि ने
मेरी आत्मा को
निर्वस्त्र
कर दिया था, और अपनी
आत्मा को किसी
के भी सामने
निर्वस्त्र
होता देख मैं भयभीत
हो उठा था।
शायद उसकी
पवित्रता ने
मेरी गन्दगी
पर से परदे
हटा दिये थे, और जो परदे
मैं अपनी
गन्दगी को
ढकने के लिये
इतनी देर तक
बुनता रहा था
उनसे वंचित हो
जाने का मुझे
दु: ख था, क्योंकि
गन्दगी को
अपने परदों से
सदा प्यार रहा
है। शायद उसके
ग्रहों और
मेरे ग्रहों
के बीच कोई
पुराना वैर था।
कौन जाने? यह
तो केवल वही
बता सकता है।
''मैंने बड़े
कर्कश और
निष्ठुर स्वर
में उससे कहा
कि उसे
बिरादरी में
शामिल नहीं
किया जा सकता,
और उसे
तुरन्त वहाँ
से चले जाने
का आदेश दिया।
परन्तु वह
अपनी बात पर
डटा रहा और
शान्त स्वर में
उसने मुझे पुन
: विचार करने
का परामर्श
दिया। उसके
परामर्श को
मैंने अपना
अपमान समझा और
उसके मुँह पर
मैंने थूक
दिया। बिना
किसी
उत्तेजना के
वह अपनी बात
पर डटा रहा, और धीरे से
अपने मुँह पर
से भूक को
पोंछते हुए उसने
एक बार फिर
मुझे अपने
निर्णय को
बदलने का
परामर्श दिया।
जब वह अपने
मुँह पर से
भूक पोंछ रहा
था तो मुझे ऐसा
महसूस हुआ
जैसे वह भूक
मेरे मुँह पर
पुत्र रहा हो।
मैंने अपने आप
को पराजित भी
महसूस किया और
कहीं अपने
अन्तर की
गहराई में मान
लिया कि वह
मुकाबला
बराबरी का
नहीं है, अजनबी
ही अधिक बलवान
प्रतिद्वन्द्वी
है।
हर
पराजित
अहंकार की तरह
मेरा अहंकार
भी तब तक संघर्ष
छोड़ने के लिये
तैयार नहीं था
जब तक उसे नीचे
पटक कर मिट्टी
में रौंदा न
जाता। मैं
उसके अनुरोध
को स्वीकार
करने के लिये
लगभग तैयार था, पर
मैं पहले उसे
नीचा दिखाना
चाहता था।
लेकिन उसे तो
किसी तरह नीचा
दिखाया ही
नहीं जा सकता
था।
अचानक
उसने कुछ भोजन
और वस्त्र
माँगे, और
मेरी आशा फिर
से जाग उठी।
अब जब कि भूख
और ठण्ड उसके
विरुद्ध मेरा
साथ दे रही
थीं, मुझे
विश्वास हो
गया कि मैंने
युद्ध जीत
लिया है।
निर्दयतापूर्वक
मैंने उसे
रोटी का एक
टुकड़ा तक देने
से इनकार कर
दिया; कह
दिया कि मत का
गुजारा दान पर
चलता है और मठ
दान नहीं दे
सकता। यह कहते
हुए मैं सरासर
झूठ बोल रहा
था, क्योंकि
मत इतना अधिक
धनवान था कि
जरूरतमन्दों
को भोजन और
वस्त्र देने
से इनकार कर
ही नहीं सकता
था। मैं चाहता
था कि अजनबी
मेरे आगे हाथ
पसारे। लेकिन
वह हाथ पसारने
को तैयार न था।
वह तो ऐसे
माँग रहा था
जैसे यह उसका
अधिकार हो; उसके माँगने
में आदेश था।
लड़ाई देर तक
चली, पर
उसका रुख जरा
भी न बदला।
शुरू से ही वह
उसकी थी। अपनी
पराजय को
छिपाने के
लिये आखिर
मैंने उसके
सामने
प्रस्ताव रखा
कि वह एक नौकर
बन कर नौका
में आ जाये—केवल
एक नौकर बन कर।
मैंने अपने आप
को दिलासा
दिया कि इससे
उसकी हेठी
होगी। मैं तब भी
न समझ पाया कि
भिखारी मैं
हूँ वह नहीं।
मेरी हेठी पर
मुहर लगाते
हुए उसने बिना
किसी आपत्ति
के मेरा
प्रस्ताव
स्वीकार कर
लिया। उस समय
मैं कल्पना तक
न कर पाया कि
उसे नौकर के
रूप में
प्रवेश देकर
भी मैं अपने
आप को मठ से
बाहर निकाल
रहा हूँ।
अन्तिम दिन तक
मैंने इस भ्रम
को गले से
लगाये रखा कि
नौका का
स्वामी वह
नहीं, मैं
हूँ। ओह, मीरदाद
मीरदाद तूने
शमदाम का क्या
हाल कर दिया!
शमदाम. तूने
अपना क्या हाल
बना लिया!
दो
बड़े—बड़े आंसू
महन्त की दाढ़ी
में से होते
हुए नीचे गिर
पड़े और उसकी
भारी भरकम देह
काँप उठी।
मेरा हृदय
द्रवित हो गया
और मैंने कहा, ''जिसकी
याद आंखों से आंसू
बन कर बह रही
है, कृपया
उसके बारे में
अब बात मत करो।’’
''अशान्त न
होओ, ऐ
भाग्यशाली
दूत। यह तो
मुखिया का
बीते समय का अहंकार
है जो अब भी 'कटुता के आंसू
बहा रहा है।
यह तो कानून
की सत्ता है
जो आत्मा की
सत्ता के विरुद्ध
दाँत पीस रही
है। अ हकार को
रो लेने दो; यह इसका
अन्तिम रुदन
है। सत्ता को
दाँत पीस लेने
दो; यह
अन्तिम बार
दाँत पीस रही
है। काश, उस
समय मेरी आंखों
पर यों 'दुनियावी
दू—ध के परदे न
पड़े होते जब
इन्होंने
उसके दिव्य स्वरूप
को पहली बार
देखा था! काश, उस समय मेरे
कानों में
दुनियावी
बुद्धि की रूई
न भरी होती जब
उसके दिव्य
ज्ञान ने
इन्हें ललकारा
था। काश, उस
समय मेरी
जिह्वा पर
विषयासक्ति
की कड्वी
मिठास का लेप
न होता जब उसकी
आत्मिक रस से
लिप्त वाणी के
साथ वह संघर्ष
कर रही थी!
लेकिन अपने
बोये भ्रम का
घास—पात मैं
बहुत—कुछ काट चुका
हूँ, और
अभी मुझे और
भी काटना है।
सात
साल तक एक
तुच्छ सेवक बन
कर वह हमारे
बीच रहा—
शिष्ट, सतर्क,
सौम्य, संकोचशील,
किसी भी
साथी के छोटे.
से छोटे आदेश
के पालन के
लिये तैयार।
वह ऐसे चलता—फिरता
था मानों हवा
पर सवार हो।
उसके मुख से
कभी कोई शब्द
न निकलता।
हमने समझा कि
उसने मौन—व्रत
धारण किया हुआ
है। शुरू—शुरू
में हममें से कुछ
की प्रवृत्ति
उसको चिढ़ाने
की रही। पर वह
हमारे
शाब्दिक
प्रहारों का उत्तर
एक अलौकिक मौन
से देता; शीघ्र
ही उसने हम
सबको उसके मै।
न का आदर करने के
लिये विवश कर
दिया। लेकिन
जहाँ बाकी सात
साथियों को
उसके मौन से
प्रसन्नता
होती थी और
शान्ति मिलती
थी, वहाँ
मुझे वह मौन
कष्ट देता था,
विचलित
करता था। उसके
मौन को भंग
करने के लिये
मैंने अनेक
प्रयत्न किये.
पर सब व्यर्थ
सिद्ध हुए।
''उसने हमें
अपना नाम
मीरदाद बताया।
केवल इस नाम
से पुकारे
जाने पर ही वह
उत्तर देता था।
उसके बारे में
हम केवल इतना
ही जानते थे।
फिर भी उसकी
उपस्थिति हम
सबको तीव्रता
के साथ महसूस
होती थी, इतनी
तीव्रता के
साथ कि जब तक
वह अपनी कोठरी
में न चला
जाता हम जरूरी
बातों के विषय
में भी कभी—कभार
ही जुबान
खोलते।
''वे समृद्धि
के दिन थे, मीरदाद
के पहले सात
वर्ष। सात—गुना
और इससे भी
अधिक वृद्धि
हुई मठ की
विशाल सम्पत्ति
में। मेरा हृदय
उसके प्रति
नरम हो गया, और यह देखते
हुए कि विधाता
ने और किसी को
हमारे पास
नहीं भेजा है,
मैंने उसे
एक साथी के
रूप में
स्वीकार करने
के बारे में
बाकी साथियों
के साथ
गम्भीरतापूर्वक
मन्त्रणा की।
''पर ठीक उसी
समय वह घटना
घटी जिसका
किसी को अनुमान
तक न था, जिसका
अनुमान कोई
लगा ही नहीं
सकता था, कम
से कम यह
बेचारा शमदाम
तो कभी भी
नहीं। मीरदाद
ने अपने
होंठों पर लगा
मौन का ताला
तोड़ दिया, और
उसके साथ ही
खुल गये एक
तूफान के
द्वार। जिन
विचारों को
उसके मौन ने
इतनी देर तक
छिपाये रखा था,
उन्हें अब
मीरदाद ने
प्रकट कर दिया,
और वह ऐसी
अबाध धाराओं
में फूट पड़े
कि सभी साथी
उनके प्रचण्ड
वेग की लपेट
में आ गये—सिवाय
बेचारे इस
शमदाम के जो
अन्त तक उनके
साथ जूझता रहा।
मुखिया के रूप
में अपना
प्रभुत्व
जताते हुए मैंने
उस बहाव की
दिशा को मोड़ना
चाहा, परन्तु
साथी मीरदाद
के अतिरिक्त
और किसी के
प्रभुत्व को
स्वीकार करने
के लिये तैयार
नहीं थे।
मीरदाद मालिक
था, शमदाम,
केवल
बिरादरी से
निकाला हुआ एक
व्यक्ति।
मैंने
धूर्तता का
सहारा भी लिया।
कुछ साथियों
को मैंने सोने
और चाँदी की
बहुमूल्य
वस्तुओं का
प्रलोभन दिया;
औरों से
लम्बे—चौड़े उपजाऊ
भूखण्ड देने
का वादा किया।
मैं लगभग सफल
हो गया था जब, किसी
रहस्यमय ढ़ंग
से, मीरदाद
ने मेरे
प्रयत्नों को
जान लिया और
उसने अनायास
ही उन पर पानी
फेर दिया—
केवल कुछ
शब्दों से ही।
''बहुत
विचित्र और
बहुत जटिल था
वह सिद्धान्त
जिसे उसने
प्रस्तुत
किया। किताब
में सब दिया
हुआ है। उसके
विषय में
बोलने की मुझे
आज्ञा नहीं।
किन्तु
मीरदाद की वक्तृत्व—शक्ति
से बर्फ काली
स्याह प्रतीत
होने लगती थी
और काली स्याह
चीज बर्फ—सी
सफेद। इतने
पैने और
शक्तिशाली थे
उसके शब्द। उस
शस्त्र का
सामना मैं किस
चीज से कर
सकता था? किसी
भी चीज से
नहीं, सिवाय
मठ की मुहर के
जो मेरे पास
रहती थी।
परन्तु वह भी
किसी काम की
नहीं रह गई थी,
क्योंकि
मीरदाद के
उत्तेजक
उपदेशों से
प्रभावित
होकर साथी उस
प्रत्येक
दस्तावेज पर,
जिसका मेरी
ओर .से लिखा
होना उन्हें
उचित जान पड़ता
था. हस्ताक्षर
करने और मुहर
लगाने के लिये
मुझे बाध्य कर
देते थे। थोड़ी—थोडी
करके वे सब
जमीनें, जो
श्रद्धालुओं
ने सदियों के
दौरान मठ को
दान में दी
थीं, उन्होंने
जरूरी
दस्तावेज
तैयार करके
दूसरों को दे
दीं। इसके बाद
मीरदाद ने
साथियों को
उपहारों से. लाद
कर उन उपहारों
को आस—पास के
सभी गाँवों के
गरीबों और
जरूरतमन्दों
में बाँटने के
लिये बाहर भेजना
शुरू कर दिया।
फिर अन्तिम
नौका—दिवस पर,
जो नौका के
दो वार्षिक
उत्सवों में
से एक था—
दूसरा था अगर—
बेल का दिवस—
मीरदाद ने
अपने
उन्मादपूर्ण
कार्यों का
अन्त अपने
साथियों को यह
आदेश देकर
किया कि मठ का सारा
सामान निकाल
कर बाहर
इकट्ठे हुए
लोगों में
बाँट दिया जाये।
''यह सब—कुछ
मैंने अपनी
पापी आंखों से
देखा और अपने
हृदय में
अंकित कर लिया
जो मीरदाद के
प्रति का। से
फटने ही वाला
था। यदि घृणा
अकेली ही किसी
का वध करने
में समर्थ होती,
तो जो घृणा
उस समय मेरी
छाती में उफन
रही थी, वह
हजार
मीरदादों का
वध कर डालती।
परन्तु उसका
प्रेम मेरी
घृणा से अधिक
शक्तिशाली था।
मुकाबला एक
बार फिर
बराबरी का
नहीं था। मेरा
अहंकार एक बार
फिर टलने को
तैयार नहीं था
जब तक उसे
नीचे पटक कर
मिट्टी में
रौंदा न जाता।
पर बिना लड़े
ही मीरदाद ने
मुझे कुचल
डाला। मैं लड़ा
उससे, पर
कुचला मैंने
अपने आप को ही।
कितनी बार
उसने अपने
प्रेमपूर्ण
अनन्त धैर्य
के साथ मेरी
आँखों पर जमी
परतों को
उतारने का
प्रयास किया!
कितनी बार
मैंने अपनी
आँखों पर पहले
से भी अधिक
कड़ी परतें जमा
लीं। जितनी
अधिक कोमलता
के साथ वह
मुझसे पेश आता,
उतनी ही
अधिक घृणा के
साथ मैं उसका
उत्तर देता।
''मैदान में
हम दो योद्धा
थे— मीरदाद और
मैं। वह अपने
आप में एक
पूरी सेना था
और मैं अकेला
लड़ रहा था।
यदि मुझे
दूसरे
साथियों का
समर्थन
प्राप्त होता
तो अन्त में
विजय मेरी
होती। और तब
मैं उसका कलेजा
चीर कर रख
देता। पर मेरे
साथी उसका
पक्ष लेकर
मेरे साथ लड़े।
गद्दार!
मीरदाद
मीरदाद तुमने
अपना बदला ले
लिया।’’
और
आंसू, तथा इस
बार साथ में
सिसकियाँ भी,
और फिर एक
लम्बी खामोशी,
जिसके बाद
मुखिया एक बार
फिर झुका, तीन
बार जमीन को
चूमा और बोला
''मीरदाद मेरे
विजेता, मेरे
स्वामी, मेरी
आशा, मेरे
दण्ड और मेरे
पुरस्कार, शमदाम
की कटुता को
क्षमा करो। धड़
से अलग होने
के बाद भी
साँप का फन
विष नहीं तजता।
पर सौभाग्य से
वह काट नहीं
सकता। देखो, शमदाम के अब
न दाँत हैं, न विष। उसे
अब अपने प्रेम
का सहारा दो
ताकि शमदाम वह
दिन देख सके
जब तुम्हारे
मुख की तरह
उसके मुख से भी
शहद टपकने लगे।
इसका तुमने
उसे वचन दे
रखा है। आज के
दिन तुमने
उसके पहले
कारागार से
उसे मुक्त कर
दिया है।
दूसरे में भी
उसे ज्यादा
देर न ठहरने
देना।’’
मेरे
मन में प्रश्न
उठा कि वह कौन—से
कारागारों की
बात कर रहा है।
मुखिया ने
मानों उसे पढ़
लिया, और एक
दीर्घ नि:
श्वास छोड़ते
हुए समझाना
शुरू किया।
परन्तु उसकी
आवाज अब इतनी
मधुर हो गई थी
न तनी बदल गई
थी कि कोई भी
सचमुच कसम
खाकर कह सकता
था। के यह
आवाज किसी
अन्य व्यक्ति
की है।
उसने
कहा:
''उस दिन
मीरदाद ने हम
सबको इसी गुफा
में बुलाया
जहाँ वह आम
तौर पर सात
साथियों को
उपदेश दिया
करता था।
सूर्य अस्त
होने को था।
पछवाँ एक गहरे
कोहरे को ऊपर
घेर लाई थी
जिससे घाटियाँ
भर गई थीं और
जो एक
रहस्यपूर्ण
चादर की भाँति
यहाँ से लेकर
समुद्र तक की
पूरी धरती पर
छा गया था।
कोहरा हमारे
पर्वत के कटि—तट
से ऊपर नहीं
पहुँचा था, इसलिये यह
पर्वत एक सागर—तट
के समान
प्रतीत हो रहा
था। पश्चिमी
क्षितिज पर
घनघोर घटा घिर
आई थी जिसने
सूर्य को पूरी
तरह से छिपा
लिया था।
मुर्शिद ने
प्रेम—विभोर
होते हुए भी
अपनी भावनाओं
को नियन्त्रण
में रख कर
बारी—बारी
सातों को गले
लगाया, और
अन्तिम को गले
लगाते हुए वह
बोला :
''बहुत देर रह
चुके हो तुम
ऊँचाइयों पर।
आज तुम्हें
गहराइयों में
उतरना ही
.होगा। जब तक
तुम नीचे
उतरते हुए ऊपर
नहीं चढ़ोगे, और जब तक तुम
वादी को शिखर
से नहीं जोड़
लोगे, ऊँचाइयों
पर तुम्हारा
सिर सदा चकराता
रहेगा और
गहराइयों में
तुम्हारी
आँखें सदा
अपनी ज्योति
खोती रहेंगी।’’
''फिर मेरी ओर
मुड़ते हुए
उसने देर तक
कोमलतापूर्वक
मेरी आंखों
में देखा और
बोला
''जहाँ तक
तुम्हारा सम्बंध
है, शमदाम
तुम्हारा समय
अभी नहीं आया।
तुम्हें इस
शिखर पर मेरे
पुन : आने की प्रतीक्षा
करनी होगी। और
इस प्रतीक्षा
के दौरान तुम
मेरी किताब के
रखवाले रहोगे
जो वेदी के
नीचे एक लोहे
के सडक के
अन्दर ताले
में रखी हुई
है। ध्यान
रखना कि किसी
के हाथ उसका
स्पर्श न करें—
तुम्हारे हाथ
भी नहीं। समय
आने पर मैं
अपना दूत इस
किताब को
तुमसे लेकर
संसार के
सामने प्रकट
करने के लिये
भेजूँगा। इन
चिह्नों से
पहचान पाओगे
तुम उसे : वह
चकमक पत्थरों
वाली ढलान से
इस शिखर पर
चढ़ेगा। वह
पूरे कपड़े पहन
कर, एक
लाठी और सात
रोटियाँ लेकर
इस ओर अपनी
यात्रा पर
निकला होगा; परन्तु जब
वह इस गुफा के
सामने
तुम्हारे पास
पहुँचेगा तब
उसके पास न
लाठी होगी. न
भोजन, न
वस्त्र, और
उसकी साँस
बन्द होगी। जब
तक वह नहीं
आता, तुम्हारी
जबान और होंठ
मुहर—बन्द
रहेंगे और तुम
हर मनुष्य के
सम्पर्क से दूर
रहोगे। केवल
उसकी झलक ही
तुम्हें मौन
के कारागार से
मुक्त करेगी।
यह किताब उसके
हाथों में
सौंपने के बाद
तुम एक शिला
बन जाओगे, जो
शिला मेरे आने
तक इस गुफा के
प्रवेश—द्वार
की रखवाली
करेगी। उस कारागार
से तुम्हें केवल
मैं ही मुक्त
करूँगा। अगर
प्रतीक्षा
तुम्हें
लम्बी लगी तो
उसे और भी
लम्बी कर दिया
जायेगा और अगर
छोटी लगी तो
और भी छोटी।
विश्वास करना
और धैर्य रखना।’’
इसके बाद
उसने मुझे भी
गले से लगा
लिया।’’फिर
दोबारा सातों
साथियों की ओर
हुए उसने हाथ
हिला कर संकेत
किया और कहा, 'साथियो, मेरे—पीछे
आओ।'
''और वह उनके
आगे—आगे ढलान
से नीचे उतरने
लगा; उसका
गौरवशाली
मस्तक उठा हुआ
था, उसकी
स्थिर दृष्टि दूर
खोज रही थी, उसके पवित्र
चरण नाम—मात्र
के लिये धरती का
स्पर्श कर रहे
है। जब वे
कोहरे की चादर
के छोर पर तो
सूर्य की किरणें
समुद्र पर
छाये काले
बादल के निचले
किनारे बेध कर
निकल आईं।
इससे आकाश में
एक उज्ज्वल
मेहराबदार
मार्ग बन गया
जिस पर फैला
प्रकाश इतना
विलक्षण था कि
मनुष्य के
शब्द उसका
वर्णन नहीं कर
सकते थे इतना
देदीप्यमान
था कि मनुष्य
की आंखें उसे
देख नहीं सकती
थीं। और मुझे
ऐसा दिखाई
दिया जैसे
मुर्शिद तथा
उसके साथ ही
वे सातों
पर्वत से अलग
हो गये हों और
धुन्ध पर चलते
हुए सीधे
मेहराब के
अन्दर— सूर्य
के अन्दर—
प्रवेश कर रहे
हों। और मुझे
दुःख हो रहा
था अकेले पीछे
रह जाने का—ओह,
इतना अकेला!''
लम्बे
दिन के कठोर
परिश्रम से
थके—टूटे
व्यक्ति के
समान शमदाम
सहसा निढाल
होकर मौन हो
गया,
उसका सिर
झुक गया, पलकें
बन्द हो गईं
और वक्ष
अनियमित
साँसों से ऊँचा—नीचा
होने लगा। इस
अवस्था में वह
बहुत देर तक
रहा। मैं उसके
लिये सान्ताना
के कुछ शब्द
ढूँढ ही रहा
था कि उसने
अपना सिर
उठाया और बोला
''तुम भाग्य
के लाड़ले हो।
एक अभागे को
माफ कर दो।
मैं बहुत बोल
गया हूँ— शायद
बहुत ज्यादा।
मैं और कर ही
क्या सकता था? क्या एक
व्यक्ति, जिसकी
जिह्वा ने एक
सौ पचास साल
का उपवास किया
हो, केवल
एक 'ही' या
'ना' कह
कर अपना उपवास
तोड़ सकता है? क्या एक
शमदाम एक
मीरदाद हो सकता
है ?''
''शमदाम मेरे
भाई, क्या
मैं एक प्रश्न
पूछ सकता हूँ?
''
''तुम कितने
नेक हो कि
मुझे भाई कह
कर सम्बोधित कर
रहे हो। जिस
दिन मेरे एकमात्र
भाई की मृत्यु
हुई थी उस दिन
से किसी ने
मुझे भाई कह
कर नहीं
पुकारा, और
उसे मरे कई
वर्ष बीत गये
हैं।
तुम्हारा
प्रश्न क्या
है?''
''मीरदाद इतना
महान शिक्षक
है. इसलिये
मैं बड़ा हैरान
हूँ कि आज तक
दुनिया ने
उसके या उसके
सात साथियों
में से किसी
के बारे में
नहीं सुना। यह
कैसे हुआ? ''
''शायद, वह
एक उचित अवसर.
की प्रतीक्षा
में है। शायद
वह किसी और
नाम से शिक्षा
दे रहा है। एक
बात का मुझे
पूर्ण
विश्वास है? मीरदाद
संसार को बदल
देगा जैसे
उसने नौका को
बदल दिया था।’’
''उसे मरे तो
बहुत समय बीत
चुका होगा।’’
''नहीं, मीरदाद
नहीं मर सकता।
मीरदाद
मृत्यु से
अधिक
शक्तिशाली है।’’
''तो क्या
तुम्हारा
तात्पर्य है
कि वह संसार
को नष्ट कर
देगा जैसे
उसने नौका को
नष्ट कर दिया था
?''
''नहीं, नहीं।
जैसे उसने
नौका को भार—मुक्त
कर दिया था, वह संसार को
भार—मुक्त कर
देगा। और फिर
से जलायेगा उस
अमर ज्योति को
जिसे मेरे
जैसे लोगों ने
भ्रमों के
असंख्य ढेरों
के नीचे छिपा
दिया है और अब
आहें भरते हुए
रोते हैं कि
हाय, हमारे
इर्द—गिर्द
अँधेरा क्यों
है। मनुष्य ने
अपने अन्दर
अपना जो कुछ
ध्वस्त कर दिया
है, वह
उसका
पुनर्निर्माण
करेगा। किताब
शीघ्र ही
तुम्हारे
हाथों में
होगी। उसे
पढ़ना, तुम्हें
प्रकाश दिखाई
देगा। अब मुझे
और देर नहीं
करनी चाहिये।
कुछ क्षण यहीं
मेरे लौटने की
प्रतीक्षा
करो; मेरे
साथ हरगिज मत
आना।’’
वह
उठा और मुझे
आश्चर्य तथा
उत्सुकता में
डूबा छोड़ कर
तेजी के साथ
बाहर निकल गया।
मैं भी बाहर
निकल आया, लेकिन
खड्ड के कगार
से आगे नहीं
बढ़ा।
जो
दृश्य मेरी आंखों
के सामने फैला
था उसकी जादू—भरी
रेखाओं और
रंगों ने मेरी
आत्मा को ऐसा
मन्त्र—मुग्ध
कर दिया कि
क्षण—भर के
लिये मैंने
अपने
अस्तित्व को
द्रवित होकर
छोटी—छोटी
अदृश्य
फुहारों के
रूप में हर
वस्तु के ऊपर
और अन्दर
बिखरता हुआ
महसूस किया :
दूर मोतिया
कोहरे से ढंके
शान्त सागर पर; कभी
मुड़ती, कभी
लेटती, पर
समुद्र—तट से
शुरू होकर एक
के बाद एक
जल्दी—जल्दी
उठ रही और
निरन्तर ऊपर
की ओर सरकते—सरकते
बीहड़ गिरि—शिखरों
की ठीक
चोटियों तक
पहुँच रही
पहाड़ियों पर;
धरती की
हरियाली से
घिरी हुई
पहाड़ियों के
ऊपर बसी शान्त
बस्तियों पर,
पर्वतों के
हृदय के तरल
प्रवाह से
अपनी प्यास बुझा
रही और
परिश्रम—रत
मनुष्यों तथा
दूब चरते पशुओं
से जडी, पैहाडियों
की गोद में
दुबकी हरी—भरी
वादियों पर; पर्वतों द्वारा
समय के
विरुद्ध लड़े
जा रहे युद्ध
में उन्हें
लगे घावों के
सजीव चिह्नों
जैसे बडे—बड़े
खड्डों और का
घाटियों में,
अलसाये
समीर में, ऊपर
नीले आकाश में;
नीचे
भस्मरंगी
धरती पर।
इधर—उधर
भटकती मेरी
आँखें जब ढलान
पर आकर ठहरी
तभी मुझे
मुखिया तथा
उसके द्वारा
लज्जापूर्वक
सुनाये गये
अपने और
मीरदाद तथा
किताब के वृत्तान्त
का ध्यान आया।
और तब उस
अदृश्य शक्ति
पर मुझे महान
आश्चर्य हुआ
जिसने मुझे
भेजा तो था एक
वस्तु की तलाश
में,
और पहुँचा
दिया किसी
दूसरी वस्तु
तक। और मैंने
मन ही मन उस
अज्ञात शक्ति
को धन्य—धन्य
कहा।
शीघ्र
ही मुखिया लौट
आया और बीते
समय के साथ
पीले पड़ चुके
कपडे में
लिपटा एक छोटा—सा
पुलिन्दा
हाथों में
देते हुए बोला
''अब तक मेरे
पास रही यह
धरोहर अब से
तुम्हारे पास
रहेगी। इस
धरोहर के
प्रति वफादार
रहना। अब मेरी
दूसरी घड़ी
निकट है। मेरे
कारागार के
द्वार मेरे
स्वागत के लिये
खुल रहे हैं।
शीघ्र ही वे
मुझे कैद करने
के लिये बन्द
हो जायेंगे।
वे कितना समय
बन्द रहेंगे—
यह केवल
मीरदाद ही बता
सकता है।
शीघ्र ही
शमदाम का नाम
हर स्मृति—पटल
पर से मिट
जायेगा।
कितना
दुःखदायी, ओह,
कितना
दुःखदायी
होता है मिटा
दिया जाना! पर
यह मैं क्यों
कह रहा हूँ? मीरदाद की
स्मृति से तो
कभी कुछ नहीं
मिटता। जो कोई
भी मीरदाद की
स्मृति में
जीता है, वह
सदा जीवित
रहता है।’’
इसके
बाद मुखिया
देर तक मौन
रहा। फिर उसने
अपना सिर
उठाया और
अश्रु—पूरित
नेत्रों से
मेरी ओर देखते
हुए बहुत धीमे
स्वर में. जो
.कठिनाई से
सुना जा सकता
था,
फिर कहना
शुरू किया:
''जल्दी ही
तुम वापस नीचे
संसार में
पहुँच जाओगे।
परन्तु तुम
नग्न हो, और
संसार नग्नता
से धृणा करता
है। अपनी
आत्मा को भी
वह चिथड़ों में
लपेट कर रखता है।
मेरे वस्त्र
अब मेरे किसी
काम के हो रहे।
मैं इन्हें
उतारने के
लिये गुफा में
जाता हूँ ताकि
तुम इनसे
अपनी
नग्नता को ढक
सकी,
हालाँकि
शमदाम के
वस्त्र शमदाम
के सिवाय और
किसी को ठीक
नहीं बैठ सकते।
मेरी कामना है
कि वे तुम्हारे
लिये बन्धन न
बनें।’’
मैंने
इस सुझाव पर
कोई राय प्रकट
नहीं की; एक
प्रसन्न मौन
के साथ इसे
स्वीकार कर
लिया। जब
मुखिया कपड़े
उतारने के
लिये गुफा में
गया तो मैंने
किताब पर
लिपटा कपड़ा
हटाया और
घबराहट के साथ
पीले पड़ चुके
उसके चमड़े के
पृष्ठों को
पलटने लगा।
जिस पृष्ठ को
मैंने सबसे
पहले पढने का
यत्न किया, शीघ्र ही
अपने आप को
उसी में मग्न
पाया। मैं
पढ़ता गया, और
ज्यों—ज्यों
पढ़ता गया और
अधिक तल्लीन
होता चला गया।
अवचेतन मन में
मैं
प्रतीक्षा कर
रहा था कि मुखिया
आवाज देकर कहे
कि उसने कपड़े
उतार दिये हैं
और मुझे कपड़े
पहनने के लिये
बुलाये। पर
समय बीतता गया
और उसने मुझे
बुलाया नहीं।
किताब
के पृष्ठों पर
से आंखें उठा
कर मैंने गुफा
के अन्दर
झाँका तो देखा
कि गुफा के
बीच में
मुखिया के
कपडों का ढेर
पड़ा है।
परन्तु
मुखिया स्वयं
दिखाई नहीं दे
रहा था। मैंने
उसे कई बार
पुकारा, हर
बार पहले से
ऊँचे स्वर
में. पर कोई
उत्तर न मिला।
मैं डर गया और
अत्यन्त
परेशान हो उठा।
जिस सँकरे
प्रवेश—द्वार पर
मैं खड़ा था, उसके सिवाय
गुफा से बाहर
निकलने का और
कोई मार्ग
नहीं था।
मुखिया
प्रवेश—द्वार
से बाहर नहीं
गया— यह मैं
निश्चित रूप
से जानता था, इसमें मुझे
लेश—मात्र भी
सन्देह नहीं
था। क्या वह
केवल एक प्रेत
था? पर
मेरे अपने हाड़—मांस
से मैंने उसके
हाड़—मांस का
स्पर्श किया
था। और फिर
उसकी किताब
मेरे हाथ में
थी, और
उसके वस्त्र
गुफा में पड़े
थे। कहीं वह
कपड़ों के नीचे
तो नहीं छिपा
है? मैं
आगे बढ़ा और
उन्हें एक—एक
करके उठाया, और ऐसा करते
हुए मुझे अपने
आप पर हँसी भी
आई। ऐसे और कई
ढेर भी मुखिया
के भारी भरकम
शरीर को नहीं
ढक सकते थे।
क्या वह किसी
रहस्यमय ढंग
से गुफा में
से निकल कर
गहरे काले
खड्ड में गिर
गया?
जिस
तेजी से यह
अन्तिम विचार
मेरे, मन में
कौंधा, उसी
तेजी से दौड़ कर
मैं बाहर आया,
और प्रवेश—द्वार
के बाहर कुछ
ही कदम की
दूरी पर मैं
सहसा जमीन में
गड़—सा गया जब
मैंने देखा कि
सामने खडड के
ठीक किनारे पर
एक बहुत बड़ी
शिला पड़ी है।
यह शिला पहले
वहाँ नहीं थी।
वह देखने में
एक दुबके हुए
जैसी लगती थी,
परन्तु उस पशु
का सिर मनुष्य
के सिर से बहुत
मिलता—जुलता
था; मुखाकृति
मोटी और बेडौल
थी, ठोड़ी
चौड़ी तथा ऊपर
को उठी हुई, जबड़े भिंचे
हुए, होंठ
कस कर बन्द थे,
और आंखें भेंगी
नज़र से उत्तर
दिशा में
शून्य को ताक
रही थीं।
किताब
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