सिरजनहार
शब्द
‘’मैं’’
समस्त
वस्तुओं का
स्रोत और
केन्द्र है।
मीरदाद:
जब तुम्हारे मुख
से ‘मैं’ निकले
तो तुरन्त
अपने हृदय में
कहो, ''प्रभु,
'मैं' की
विपत्तियों
में मेरा
आश्रय बनो, और 'मैं' के परम
आनन्द की ओर
चलने में मेरा
मार्गदर्शन
करो।’’ क्योंकि
इस शब्द के
अन्दर, यद्यपि
यह अत्यन्त
साधारण है, प्रत्येक
अन्य शब्द की
आत्मा कैद है।
एक बार उसे
मुक्त कर दो, तो सुगन्ध
फैलायेगा
तुम्हारा मुख
मिठास में पगी
होगी
तुम्हारी जिह्वा,
और
तुम्हारे
प्रत्येक
शब्द से जीवन
के आहलाद का
रस टपकेगा।
उसे
कैद रहने दो, तो दुर्गन्धपूर्ण
होगा
तुम्हारा मुख,
कड्वी होगी
तुम्हारी
जिह्वा, और
तुम्हारे
प्रत्येक
शब्द से
मृत्यु का मवाद
टपकेगा।
क्योंकि, साथियो,
'मैं' ही
सिरजनहार
शब्द है। और
जब तक तुम
इसकी
चमत्कारी
शक्ति को
प्राप्त नहीं
करोगे; जब
तक तुम उस
शक्ति के
स्वामी नहीं
बन जाओगे, तब
तक तुम्हारी
हालत ऐसी होगी
कि यदि गाना
.चाहोगे तो
आर्तनाद
करोगे, यदि
शान्ति
चाहोगे तो
युद्ध करोगे;
यदि प्रकाश
में उड़ान भरना
चाहोगे, तो
अँधेरे
कारागारों
में पडे
सिकुडोगे।
तुम्हारा
'मैं' अस्तित्व
की तुम्हारी
चेतना—मात्र
है, मूक और
देह—रहित
अस्तित्व की,
जिसे वाणी
और देह दे .दी
गई है। यह
तुम्हारे
अन्दर का
अश्रव्य है
जिसे श्रव्य
बना दिया गया
है, अदृश्य
है जिसे दृश्य
बना दिया गया
है ताकि जब
तुम देखो तो
अदृश्य को देख
सको; और जब
सुनो तो
अश्रव्य को
सुन सको।
क्योंकि अभी
तुम आंख और
कान के साथ
बंधे हुए हो।
और यदि तुम इन
आँखों के
द्वारा न देखो,
और यदि तुम
इन कानों के
द्वारा न सुनो,
तो तुम कुछ
भी देख और सुन
नहीं सकते। 'मैं' के
विचार—मात्र
से तुम अपने
दिमाग में
विचारों के
समुद्र को
हिलकोरने
लगते हो। वह
समुद्र रचना
है तुम्हारे 'मैं' की
जो एक साथ विचारक
और विचार
दोनों है। यदि
तुम्हारे
विचार ऐसे हैं
जो चुभते
काटते
या नोचते हैं, तो
समझ लो कि
तुम्हारे
अन्दर के 'मैं'
ने ही
उन्हें डंक, दाँत और
पंजे प्रदान
किये हैं।
मीरदाद
चाहता है कि
तुम यह भी जान
लो कि जो प्रदान
कर सकता है वह
छीन भी सकता
है।
'मैं' की
भावना—मात्र
से तुम अपने
हृदय में
भावनाओं का कुआं
खोद लेते हो।
यह पूजा रचना
है तुम्हारे 'मैं' की
जो एक साथ
अनुभव करने
वाला और अनुभव
दोनों है। यदि
तुम्हारे
हृदय में
कँटीली
झाडियाँ हैं तो
जान लो कि
तुम्हारे
अन्दर के 'मैं'
ने ही
उन्हें वहाँ लगाया
है।
मीरदाद
चाहता है कि
तुम यह भी जान
लो कि जो इतनी
आसानी से लगा
सकता है वह
उतनी ही आसानी
से जड़ से उखाड़
भी सकता है। 'मैं'
के उच्चारण—मात्र
से तुम शब्दों
के एक विशाल
समूह को जन्म
देते हो; प्रत्येक
शब्द होता है
एक वस्तु का
प्रतीक; प्रत्येक
वस्तु होती है
एक संसार का
प्रतीक; प्रत्येक
संसार होता है
एक
ब्रह्माण्ड
का घटक अग। वह
ब्रह्माण्ड
रचना है
तुम्हारे 'मैं'
की जो एक
साथ स्रष्टा
और सृष्टि
दोनों है। यदि
तुम्हारी
सृष्टि में
कुछ हौए हैं, तो जान लो कि
तुम्हारे
अन्दर के 'मैं'
ने ही
उन्हें
अस्तित्व
दिया है।
मीरदाद
चाहता है कि
तुम यह भी जान
लो कि जो रचना
कर सकता है वह
नष्ट भी कर
सकता है।
जैसा
स्रष्टा होता
है, वैसी ही
होती है उसकी
रचना। क्या
कोई अपने आप
से अधिक रचना
रच सकता है? या अपने आप
से कम? स्रष्टा
केवल अपने आप
को ही रचता है—
न अधिक, न
कम।
एक
मूल—स्रोत है 'मैं'
जिसमें से
सब वस्तुएँ
प्रवाहित.
होती हैं और जिसमें
वे वापस चली
जाती हैं।
जैसा मूल
स्रोत होता है,
वैसा ही
होता है उसका
प्रवाह भी।
एक
जादू की छड़ी
है 'मैं'।
फिर भी यह छड़ी
ऐसी किसी
वस्तु को पैदा
नहीं कर सकती
जो जादूगर में
न हो। जैसा
जादूगर होता
है, वैसी
ही होती हैं
उसकी छड़ी की
पैदा की हुई
वस्तुएँ।
इसलिये, जैसी
तुम्हारी
चेतना है, वैसा
ही है
तुम्हारा ‘मैं'।—जैसा
तुम्हारा 'मैं'
है, वैसा
ही है
तुम्हारा
संसार। यदि इस
'मैं' .का
अर्थ स्पष्ट
और निश्चित है,
तो
तुम्हारे
संसार का अर्थ
भी स्पष्ट और
निश्चित है; और तब तुम्हारे
शब्द कभी
भूलभुलैया
नहीं होंगे, न ही होंगे
तुम्हारे
कर्म कभी पीडा
के घोंसले। यदि
यह धुँधला और
अनिश्चित है,
तो
तुम्हारा
ससार भी
धुँधला और
अनिश्चित है,
और
तुम्हारे
शब्द केवल
उलझाव हैं
तुम्हारे कर्म
पीड़ा की
उत्पादनशालाएँ।
यदि
यह परिवर्तन—रहित
तथा
चिरस्थायी है, तो
तुम्हारा
संसार भी
परिवर्तन—रहित
और चिरस्थायी
है, और तब
तुम हो समय से
भी अधिक महान
तथा स्थान से भी
कहीं अधिक
विस्तृत। यदि
यह अस्थायी और
परिवर्तनशील
है, तो
तुम्हारा
संसार भी
अस्थायी और
परिवर्तनशील
है; और तुम
हो धुएँ की एक
परत जिस पर
सूर्य अपनी
कोमल साँस छोड़
रहा है।
यदि
यह एक है तो
तुम्हारा
संसार भी एक
है;
और तब
तुम्हारे और
स्वर्ग तथा
पृथ्वी के सब
निवासियों के
बीच अनन्त
शान्ति है।
यदि यह अनेक
है तो
तुम्हारा
संसार भी अनेक
है, और तुम
अपने साथ तथा
प्रभु के असीम
साम्राज्य के
प्रत्येक
प्राणी के साथ
अन्त—हीन
युद्ध कर रहे
हो।
'मैं' तुम्हारे
जीवन का
केन्द्र है
जिसमें से वे
वस्तुएँ
निकलती हैं
जिनसे
तुम्हारा
सम्पूर्ण संसार
बना है, और
जिसमें वे सब
वापस आकर मिल
जाती हैं। यदि
यह स्थिर है
तो तुम्हारा
संसार भी
स्थिर है; तब
ऊपर या नीचे
की कोई भी
शक्ति
तुम्हें
दायें या
बायें नहीं
डुला सकती।
यदि यह
चलायमान है तो
तुम्हारा
संसार भी चलायमान
है; और तुम
एक असहाय
पत्ता हो जो
हवा के कुड
बवंडर की लपेट
में आ गया है।
और
देखो, तुम्हारा
संसार स्थिर
अवश्य है.
परन्तु केवल अस्थिरता
में। निश्चित
है तुम्हारा
संसार, परन्तु
केवल
अनिश्चितता
में; नित्य
है तुम्हारा
संसार, परन्तु
केवल
अनित्यता में;
और एक है
तुम्हारा
संसार परंतु
केवल अनेकता
में।
तुम्हारा
संसार है
कब्रों में
बदलते पालनों का, और
पालनों में बदलती
कब्रों का; रातों को
निगलते दिनों
का, और
दिनों को उगलती
रातों का, युद्ध
की घोषणा कर
रही शान्ति का, और शान्ति
की प्रार्थना कर
रहे युद्ध का;
अश्रुओं पर
तैरती
मुसकानों का,
और
मुसकानों से दमकते
अश्रुओं का।
तुम्हारा
संसार
निरन्तर
प्रसव—वेदना
में तड़पता
संसार है, जिसकी
धाय है मृत्यु।
तुम्हारा
संसार
छलनियों और
झरनियों का
संसार है जिसमें
कोई दो छलनियां
या झरनियाँ एक
जैसी नहीं हैं।
और तुम
निरन्तर उन
वस्तुओं को
छानने और
झारने में
खपते रहे हो
जिन्हें छाना
या झारा नहीं
जा सकता।
तुम्हारा
संसार अपने ही
विरुद्ध
विभाजित है, क्योंकि
तुम्हारे
अन्दर का 'मैं'
इसी प्रकार
विभाजित है।
तुम्हारा
संसार
अवरोधों और
बाड़ी का संसार
है,
क्योंकि
तुम्हारे
अन्दर का 'मैं'
अवरोधों और
बाड़ों का 'मैं'
है। कुछ
वस्तुओं को यह
पराया मान कर
बाड़ से बाहर कर
देना चाहता है,
कुछ को अपना
मान कर बाड़
के अन्दर ले लेना
चाहता है।
परन्तु जो
वस्तु बाड़ के
बाहर है वह
सदा बलपूर्वक
अन्दर आती
रहती है, और
जो बाड़ के
अन्दर है वह
सदा बलपूर्वक
बाहर जाती
रहती है।
क्योंकि वे एक
ही माँ की—
तुम्हारे 'मैं'
की— सन्तान
होने के कारण
अलग—अलग नहीं
होना चाहतीं।
और
तुम,
उनके शुभ
मिलाप से प्रसन्न
होने के बजाय,
अलग न हो
सकने वालों को
अलग करने की
निकल चेष्टा
में फिर जुट
जाते हो। 'मैं'
के अन्दर की
दरार को भरने
के बजाय तुम
अपने जीवन को
छील—छील कर
नष्ट करते
जाते हो : तुम
आशा करते हो
कि इस तरह तुम
इसे एक पच्चड़
बना लोगे जिसे
तुम, जो
तुम्हारी समझ
में तुम्हारा 'मैं' है
और जो
तुम्हारी
कल्पना में
तुम्हारे 'मैं'
से भिन्न है,
उन दोनों के
बीच ठोंक सको।
इसीलिये
मनुष्यों के
शब्द विष—भरे
होते हैं।
इसीलिये उनके
दिन सन्ताप
में डूबे होते
हैं। इसीलिये
उनकी रातें
पीडा से तड़पती
हैं।
हे
साधुओ, मीरदाद
तुम्हारे 'मैं'
के अन्दर की
दरारों को भर
देना चाहता है
ताकि तुम अपने
साथ, मनुष्य—मात्र
के साथ, और
सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड
के साथ
शान्तिपूर्वक
जी सकी।
मीरदाद
तुम्हारे 'मैं'
के अन्दर
भरे विष को
सोख लेना
चाहता है ताकि
तुम ज्ञान की
मिठास का
स्वाद चख सको।
मीरदाद
तुम्हें
तुम्हारे 'मैं'
को तोलने की
विधि सिखाना
चाहता है ताकि
तुम पूर्ण
सन्तुलन का
आनन्द ले सको।
नरौंदा
: मुर्शिद फिर
रुक गये, और हम
सब पर फिर से
एक गहन मौन छा
गया। एक बार
फिर मिकेयन ने
मौन को भग
करते हुए कहा?
मिकेयन :
तुम्हारे
शब्द हमारी
उत्सुकता बढ़ा
रहे हैं, मीरदाद।
वे अनेक द्वार
खोलते हैं, पर हमें
देहरी पर ही
छोड़ जाते हैं।
हमें इससे आगे
ले चलो— हमें
अन्दर ले चलो।
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