पावन
त्रिपुटी
और
पूर्ण
सन्तुलन
मीरदाद
: यद्यपि
तुममें से हर
एक अपने—अपने 'मैं'
में
केन्द्रित है
फिर भी तुम सब
एक 'मैं' में
केन्द्रित हो—
प्रभु के एकमात्र
'मैं' में।
प्रभु
का 'मैं', मेरे
साथियो, प्रभु
का शाश्वत, एकमात्र
शब्द है।
इसमें प्रभु
प्रकट होता है
जो परम चेतना
है। इसके बिना
वह पूर्ण मौन
ही रह जाता।
इसी के द्वारा
स्रष्टा ने
अपनी रचना की
है। इसी के
द्वारा वह
निराकार अनेक
आकार धारण करता
है जिनमें से
होते हुए जीव
फिर से
निराकारता
में पहुँच
जायेंगे।
अपने
आप का अनुभव
करने के लिये, अपने
आप का चिन्तन
करने के लिये,
अपने आप का
उच्चारण करने
के लिये प्रभु
को 'मैं' से अधिक और
कुछ बोलने की
आवश्यकता
नहीं। इसलिये 'मैं' उसका
एकमात्र शब्द
है। इसलिये
यही शब्द है।
जब
प्रभु 'मैं' कहता है तो
कुछ भी अनकहा
नहीं रह जाता।
देखे गये लोक
और अनदेखे लोक,
जन्म ले
चुकी वस्तुएँ
और जन्म लेने
की प्रतीक्षा
कर रही
वस्तुएँ, बीत
रहा समय और
अभी आने वाला
समय— सब, सब—कुछ
ही, रेत का एक—एक
सूक्ष्म कण तक,
इसी शब्द के
द्वारा प्र कर
होता है और
इसी शब्द में
समा जाता है।
इसी के द्वारा
सब वस्तुऐं
रची गई थीं।
इसी के द्वारा
सबका पालन
होता है।
यदि
किसी शब्द का
कोई अर्थ न हो, तो
वह शब्द शून्य
में गूँजती केवल
एक
प्रतिध्वनि
है। यदि इसका
अर्थ सदा एक
ही न हो, तो
यह गले का
कैंसर और जबान
पर पड़े छाले
से अधिक और
कुछ नहीं।
प्रभु
का शब्द शून्य
में गूँजती
प्रतिध्वनि नहीं
है,
न ही गले का
कैंसर है,
न ही जुबान पर
पड़े छाले, सिवाय
उनके लिये जो
दिव्य ज्ञान
से रहित हैं।
क्योंकि
दिव्य ज्ञान
वह पवित्र
शक्ति है जो शब्द
को प्राणवान बनाती
है और उसे चेतना
के साथ जोड़ देती
है। यह उस
अनन्त तराजू
की डण्डी है
जिसके दो पलड़े
हैं आदि चेतना
और शब्द।
आदि
चेतना, शब्द
और दिव्य
ज्ञान— देखो
साधुओ, अस्तित्व
की यह
त्रिपुटी, वे
तीन जो एक हैं,
वह एक जो
तीन है, परस्पर
समान, सह—व्यापक,
सह—शाश्वत;
आत्म—सन्तुलित,
आत्म—ज्ञानी,
आत्म—पूरक।
यह न कभी घटती
है न बढ़ती है—
सदैव शान्त, सदैव समान।
यह है पूर्ण
सन्तुलन, ऐ
साधुओ।
मनुष्य
ने इसे प्रभु
नाम दिया है, यद्यपि
यह इतना
विलक्षण है कि
इसे कोई नाम
नहीं दिया जा
सकता। फिर भी
पावन है यह
नाम, और
पावन है वह
जिह्वा जो इसे
पावन रखती है।
मनुष्य
यदि इस प्रभु
की सन्तान
नहीं तो और
क्या है? क्या
वह प्रभु से
भिन्न हो सकता
है? क्या
बड़ का वृक्ष
अपने बीज के
अन्दर समाया
हुआ नहीं है? क्या प्रभु
मनुष्य के
अन्दर
व्याप्त नहीं
है?
इसलिये
मनुष्य भी एक
ऐसी ही पावन
त्रिपुटी है
चेतना, शब्द
और दिव्य
ज्ञान।
मनुष्य भी, अपने प्रभु
की तरह, एक
स्रष्टा है।
उसका 'मैं'
उसकी रचना
है। फिर क्यों
वह अपने प्रभु
जैसा
सन्तुलित
नहीं है?
यदि
तुम इस पहेली
का उत्तर
जानना चाहते
हो,
तो ध्यान से
सुनो जो कुछ
भी मीरदाद
तुम्हें बताने
जा रहा है।
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