परमात्मा
के संबंध में
जितने असत्य
कहे गए और गढ़े
गए हैं, उतने
और किसी चीज
के संबंध में
नहीं।
परमात्मा के
संबंध में
जितना झूठ
प्रचलित है, उतना किसी
और चीज के
संबंध में
नहीं।
परमात्मा के
संबंध में
जितने असत्य,
जितने झूठ,
जितनी
कल्पनाएं
प्रचलित हैं,
उतनी किसी
और चीज के
संबंध में
नहीं। और कुछ
बात ऐसी है कि
शायद
परमात्मा के
संबंध में
सत्य कहा ही
नहीं जा सकता
है। जो भी कहा
जाता है, वह
कहने के कारण
ही असत्य हो
जाता है।
कुछ
है,
जिसे कहना
संभव नहीं है।
कुछ है, जिसे
जाना जा सकता
है, लेकिन
कहा नहीं जा
सकता। और
आश्चर्य की
बात है कि जिस
परमात्मा के
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता, उसके
संबंध में
इतने शास्त्र
लिखे गए हैं
जिनका हिसाब
लगाना
मुश्किल है!
शब्द
असमर्थ हैं।
हम जो कह सकते
हैं,
वह संसार के
आगे नहीं जाता
है। शब्द में,
भाषा में
संसार से आगे
की बात नहीं
कही जा सकती
है। और इसलिए
ईश्वर के
संबंध में भी
जो हम कहते हैं—
चाहे उसे पिता
कहें, चाहे
मित्र कहें, चाहे प्रेमी
कहें— कोई भी
बात सच नहीं
है। क्योंकि
प्रेमी से हम
जो समझते हैं,
मित्र से हम
जो समझते हैं,
पिता से हम
जो समझते हैं,
परमात्मा
उससे बहुत
भिन्न और बहुत
ज्यादा है।
लेकिन
हमारे पास और
शब्द भी नहीं
हैं। जीवन के
कामचलाऊ शब्द
हमारे पास हैं, उन्हीं
को हम उसके
संबंध में भी
प्रयोग कर
लेते हैं। और
इसलिए जो भी
सोचा—विचारा,
कहा, लिखा—पढ़ा
जाता है, वह
हमें उसकी जरा
सी भी झलक
नहीं दिखा
पाता।
मैंने
सुना है, एक
फकीर एक
रास्ते से
गुजरता था।
सर्द रात थी
और उसके हाथ—पैर
ठंडे हो गए।
उसके पास
वस्त्र न थे।
वह एक वृक्ष
के नीचे रुका।
सुबह जब उसकी
नींद खुली, तब हाथ—पैर
हिलाना भी
मुश्किल था।
उसने किसी
किताब में पढ़ा
था कि जब हाथ—पैर
ठंडे हो जाते
हैं तो आदमी
मर जाता है।
किताबें पढ़ कर
जो लोग चलते
हैं वे ऐसी ही
भूल में पड़
जाते हैं।
उसने सोचा कि
शायद मैं मर
गया हूं। उसे
पता था कि मरे
हुए लोग कैसे
हो जाते हैं।
तो वह आंख बंद
करके लेट रहा।
कुछ लोग
रास्ते से
गुजरते थे, उन्होंने उस
आदमी को मरा
हुआ समझ कर
उसकी अरथी
बनाई और उसे
वे मरघट की
तरफ ले चले।
वे एक चौरस्ते
पर पहुंचे
जहां चार
रास्ते फूटते
थे और वे
चिंता में पड़
गए कि मरघट को
कौन सा रास्ता
जाता है? वे
अजनबी लोग थे,
उस गांव के
रास्तों से
परिचित न थे।
वे चारों
विचार करने
लगे कि कोई
मिल जाए गांव का
रहने वाला तो
हम पूछ लें कि
मरघट को
रास्ता कौन सा
जाता है? फकीर
तो जिंदा था।
उसने सोचा कि
बेचारे बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए हैं। अब
पता नहीं गांव
वाला कोई आएगा
कि नहीं आएगा।
तो वह अरथी से
बोला कि जब
मैं जिंदा हुआ
करता था, तब
लोग बाएं
रास्ते से
मरघट जाते थे।
हालांकि मैं
मर गया हूं और
अब बताने में
असमर्थ हूं
लेकिन इतनी
बात तो कह ही
सकता हूं।
उन
चारों ने घबड़ा
कर अरथी छोड़
दी! वह फकीर
नीचे गिर पड़ा!
उन्होंने कहा, तुम
कैसे पागल हो?
तुम बोलते
हो? कहीं
मरे हुए आदमी
बोलते हैं?
उस
फकीर ने कहा, मैंने
ऐसे जिंदा
आदमी देखे हैं
जो नहीं बोलते
हैं, तो
इससे उलटा भी
हो सकता है कि
कुछ मुर्दे
ऐसे हों जो
बोलते हों।
अगर कोई जिंदा
आदमी चाहे तो
नहीं बोले, तो कोई
मुर्दा आदमी
चाहे तो बोल
नहीं सकता है?
इसमें इतनी
आश्चर्य की
क्या बात है? वह फकीर
कहने लगा।
मैंने
जब यह कहानी
सुनी तो मेरे
मन में एक खयाल
आया और वह यह
कि असलियत और
भी उलटी है।
यह तो हो भी
सकता है कि
मुर्दा आदमी
बोलता हुआ मिल
जाए;
यह जरा
मुश्किल ही है
कि जिंदा आदमी
और चुप हो जाए।
जिंदा आदमी न
बोले, यह
जरा मुश्किल
ही है। यही
ज्यादा आसान
मालूम पड़ता है
कि मरा हुआ आदमी
बोल जाए।
हम
सब जिंदा हैं, लेकिन
हमने जिंदगी
में एक भी
क्षण न जाना
होगा जब किसी
न किसी रूप
में हम नहीं
बोल रहे हैं—
या बाहर, या
भीतर। हमने न
बोलने का, साइलेंस
का, मौन का
एक भी क्षण नहीं
जाना है। हमने
बहुत जन्म
देखे होंगे, लेकिन वे सब
जन्म शब्दों
के जन्म हैं।
और हमने इस
जिंदगी में भी
बहुत दिन
व्यतीत किए
हैं, लेकिन
वे सब शब्द की
यात्रा के दिन
हैं। जब हम
बोलते हैं; नहीं बोलते
तो सोचते हैं;
नहीं सोचते
तो सपना देखते
हैं—लेकिन
शब्द, बोलना
किसी न किसी
तल पर जारी
रहता है। और
जिस आदमी के
शब्द अभी जारी
हैं, वह
परमात्मा को
नहीं पहचान
पाएगा; क्योंकि
उसकी पहचान
निःशब्द में,
मौन में, साइलेंस में
ही संभव है।
इसलिए
परमात्मा के
संबंध में सब
कहा गया झूठ हो
जाता है।
क्योंकि उसे
जब जाना जाता
है तब शब्द नहीं
होते, विचार
नहीं होते; थॉट नहीं
होता, थिंकिंग
नहीं होती; सब समाप्त
हो जाता है, तब उसका
अनुभव होता है।
और जब हम उसे
कहने जाते हैं,
बताने जाते
हैं, तब
शब्द वापस
उपयोग करने
पड़ते हैं।
जिसे निःशब्द
में जाना है, उसे शब्द
में नहीं कहा
जा सकता। जिसे
मौन में जाना
है, उसे
वाणी कैसे
प्रकट करेगी?
और जिसे
चुप्पी में, गहन चुप्पी
में अनुभव
किया है, उसे
बोल कर कैसे
बताया जा सकता
है?
इसीलिए
नास्तिक जीत
जाते हैं, अगर
आस्तिक से
विवाद करें।
आस्तिक की हार
निश्चित है।
आस्तिक
नास्तिक से
कभी भी जीत
नहीं सकता। न
जीतने का कारण
है। नास्तिक
इनकार करता है,
इनकार
शब्दों में हो
सकता है।
आस्तिक
स्वीकार करता
है, स्वीकृति
को शब्दों में
बताना कठिन है।
इसलिए आस्तिक
निरंतर
मुश्किल में
रहा है।
लेकिन
आप अपने को
आस्तिक मत समझ
लेना, क्योंकि
आस्तिक
पृथ्वी पर
मुश्किल से
कभी कोई पैदा
होता है।
पृथ्वी पर दो
तरह के
नास्तिक हैं.
एक वे जो
जानते हैं कि
नास्तिक हैं
और एक वे जो
जानते नहीं कि
नास्तिक हैं
और अपने को
आस्तिक समझते
हैं। पृथ्वी
पर आस्तिक
बहुत मुश्किल
से पैदा होता है।
क्योंकि
आस्तिक तभी
पैदा होता है
जब वह परमात्मा
को जान ले, उसके
पहले कोई
आस्तिक नहीं
हो सकता।
क्योंकि जिसे
हमने जाना
नहीं, उस
पर आस्था कैसे
आ सकती है? जिसे
हम जानें, उसी
पर आस्था आ
सकती है।
लेकिन
सारी दुनिया
में बड़ी अजीब
बातें सिखाई जाती
हैं। आदमी को
पता ही नहीं
परमात्मा का
और हम उसे आस्था
सिखा देते हैं, बिलीफ
सिखा देते हैं,
उसे कहते हैं—मानो!
एक बच्चा पैदा
हुआ, उसे
हम कहते हैं
कि मानो
परमात्मा है!
ध्यान
रहे,
जिस चीज को
भी कोई मान
लेगा, वह
फिर उसे जान
नहीं सकता।
मानना बहुत
खतरनाक है, बिलीफ बहुत
खतरनाक है।
मैं
एक छोटे से
अनाथालय में
गया था। कोई
सौ बच्चे थे।
और अनाथालय के
संयोजकों ने
मुझे कहा, हमारे
बच्चों को हम
धर्म की भी
शिक्षा देते
हैं।
मैं
थोड़ा चकित
हुआ! मैंने
कहा,
धर्म की
शिक्षा? धर्म
की साधना तो
हो सकती है, शिक्षा नहीं
होती। धर्म की
शिक्षा हो ही
नहीं सकती, सिर्फ साधना
ही हो सकती है।
शिक्षा उन
चीजों की हो
सकती है जो
हमसे बाहर हैं।
कोई दूसरा
उन्हें हमें
बता सकता है।
लेकिन जो
हमारे भीतर है,
हमारे
सिवाय और कोई
उसे नहीं बता
सकता। उसकी
तरफ कोई इशारा
ही नहीं हो
सकता। और जो
भी इशारा होगा,
वह झूठ हो
जाएगा। फिर भी,
मैंने कहा,
आप कहते हैं
तो मैं चलूंगा।
मैं
गया।
उन्होंने कहा, आपको
पता नहीं, हम
सच में ही
शिक्षा देते
हैं।
सौ
बच्चे थे।
अनाथ बच्चे थे।
अब अनाथ
बच्चों को तो
जो भी सिखाया
जाए,
सीखना ही
पड़ेगा। उन
संयोजक ने उन
बच्चों से
पूछा, ईश्वर
है?
उन
सब बच्चों ने
हाथ ऊपर उठा
दिए। जैसे कोई
गणित का सवाल
हो या जैसे
कोई भूगोल या
इतिहास की बात
हो। उन बच्चों
ने हाथ ऊपर
उठा दिए कि
हां,
ईश्वर है।
सौ बच्चों ने!
मैं
बहुत चकित हुआ।
मैंने कहा, आदमी
मरते तक पता
नहीं लगा पाता
ईश्वर के होने
का, इन
बच्चों को अभी
से पता लग गया,
यह बिलकुल
चमत्कार है।
उन
संयोजक ने
पूछा कि आत्मा
है?
उन
बच्चों ने फिर
हाथ उठा दिए।
उन
संयोजक ने
पूछा, आत्मा
कहां है?
उन
बच्चों ने
हृदय पर हाथ
रख दिए कि
यहां।
मैंने
एक छोटे से
बच्चे से पूछा
कि तुम बताओगे
हृदय कहां है?
उसने
कहा,
यह तो हमें
सिखाया नहीं
गया। जो
सिखाया गया है
वह हम बता रहे
हैं। यह हमारी
किताब में ही
नहीं लिखा हुआ
है। आप पूछते
हैं, हृदय
कहां है? उसमें
लिखा है, आत्मा
यहां है, वह
हम बता रहे
हैं।
ये
बच्चे कल बड़े
हो जाएंगे, के
हो जाएंगे।
सभी बच्चे एक
दिन बूढ़े होते
हैं। जो बूढ़े
हो गए हैं, वे
भी एक दिन
बच्चे ही थे।
ये बच्चे कल
बड़े होंगे, के होंगे और
भूल जाएंगे कि
वह हाथ, जो
इन्होंने
ईश्वर के लिए
उठाया था, सिखाया
हुआ हाथ था।
सिखाए हुए हाथ
झूठे हाथ होते
हैं। बुढ़ापे
में भी इनसे
कोई पूछेगा, ईश्वर है? वह बचपन से
सीखी गई बात
उठ कर खड़ी हो
जाएगी। ये
कहेंगे, हां,
ईश्वर है।
लेकिन वह बात
सरासर झूठी
होगी, क्योंकि
सिखाई गई है, जानी नहीं
गई है।
रूस
में बच्चों को
वे दूसरी बात
सिखाते हैं कि
ईश्वर नहीं है।
बच्चे वही सीख
लेते हैं।
बच्चों को
सिखाते हैं कि
ईश्वर नहीं है, तो
बीस करोड़ का
मुल्क कहता है
कि ईश्वर नहीं
है।
मेरे
एक मित्र रूस
गए थे। एक
स्कूल में
देखने गए थे।
एक स्कूल के
छोटे—छोटे
बच्चों से
उन्होंने
पूछा, ईश्वर
है? तो एक
छोटे से बच्चे
ने कहा..... और
सारे बच्चे
हंसने लगे कि
आप भी कैसी
बातें पूछते
हैं? एब्सर्ड!
बेमानी! एक
छोटे से बच्चे
ने कहा, गॉड
वाज़, ईश्वर
हुआ करता था, उन्नीस सौ
सत्रह के पहले,
अब कहां! जब
दुनिया में
अज्ञान था, तब ईश्वर था,
अब कहां!
रूस में अब
कोई ईश्वर
नहीं है। हमको
हंसी आएगी, लेकिन हम भी
उन बच्चों से
भिन्न नहीं
हैं। भिन्नता
इस बात में है
सिर्फ कि
उन्हें सिखाया
गया है कि
ईश्वर नहीं है,
हमें
सिखाया गया है
कि ईश्वर है।
लेकिन दोनों
थोथी बातें
हैं, क्योंकि
दोनों सिखाई
गई हैं। न वे
जानते हैं कि
ईश्वर नहीं है,
न हम जानते
हैं कि ईश्वर
है। हमारी
हालत बिलकुल
एक जैसी है।
उन्हें लोग
नास्तिक
कहेंगे, हमें
लोग आस्तिक
कहेंगे।
फिर
आस्तिकों में
भी हजार तरह
के भेद हैं।
हिंदू कुछ और
सीख लेता है, मुसलमान
कुछ और सीख
लेता है, जैन
कुछ और सीख
लेता है, बौद्ध
कुछ और सीख
लेता है। जो
भी हमें सिखा
दिया जाता है,
हम वही सीख
लेते हैं।
तो
फिर और कोई
ज्ञान है? या
कि जो सिखा
दिया गया वही ज्ञान
है? अगर
सिखाया हुआ
ज्ञान है, तब
हो सकता है एक
दिन दुनिया
में ईश्वर न
रह जाए, क्योंकि
सारी दुनिया
को सिखाया जा
सकता है कि ईश्वर
नहीं है। सिखाया
हुआ ज्ञान
नहीं है।
सिखाया हुआ
तोते की तरह
रटन है। और इस
तोते की तरह
रटन करने वाले
लोगों को हम आस्तिक
समझ लेते हैं,
इससे बड़ी
भ्रांति हो
जाती है।
आस्तिक
मुश्किल से ही
पैदा होता है।
असल में
आस्तिक तब
पैदा होता है,
जब हम जान
पाते हैं कि
वह क्या है, सत्य क्या
है, जो है
वह क्या है, दैट ब्दिच
इज, वह
क्या है जो है—
जब हम उसे
जानते हैं।
लेकिन
ध्यान रहे, जो
पहले से
विश्वास कर
लेता है, वह
कभी जान नहीं
सकेगा। अगर आप
जाने बिना ही
नास्तिक बन गए
हैं, आस्तिक
बन गए हैं, हिंदू
बन गए हैं, मुसलमान
बन गए हैं, तो
आप भटक गए, फिर
आप कभी भी
नहीं जान
सकेंगे।
क्योंकि आपने
पहले ही उस
बात को
स्वीकार कर लिया
है, जिसे
आप नहीं जानते
हैं। और जो
व्यक्ति इतनी
भी हिम्मत
नहीं जुटा
पाता कि कह
सके जिस बात
को नहीं जानता
है, कह सके
कि नहीं जानता
हूं वह
व्यक्ति कैसे
सत्य की खोज
कर सकता है? सत्य की खोज
की, परमात्मा
की खोज की
पहली शर्त यह
है कि हम किन्हीं
विश्वासों
में न पड़े, हम
किसी पक्ष को
स्वीकार न
करें। हम
खोजने निकलें।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
फकीर मेहमान
हुआ। और उस
गांव के लोग
आए और उस गांव
के लोगों ने
कहा कि हमारी
मस्जिद में
चलें और हमें
समझाएं ईश्वर
के संबंध में।
उस
फकीर ने कहा, मुझे
क्षमा कर दो!
क्योंकि
कितने लोग
समझा चुके, कोई समझता
ही नहीं है।
अब मुझे
परेशान मत करो।
लेकिन
जितना उसने
मना किया, जैसी
कि लोगों की
आदत होती है, जिस चीज के
लिए मना करो, वे और
आग्रहशील हो
जाते हैं। जिस
चीज के लिए
मना करो, उनका
मन और जोर से
पकड़ने लगता है
कि चलें, देखें,
खोजें। इस
दरवाजे पर लिख
दिया जाए यहां
झांकना मना है।
और फिर इस
गांव में शायद
ही ऐसा आदमी
मिले जो बिना
झांके निकल
जाए। लोगों के
लिए निषेध
निमंत्रण बन
जाता है।
इनकार करो, और उन्हें
आमंत्रण हो जाता
है।
वे
फकीर के पीछे
पड़ गए। फकीर
टालने लगा है, वे
और पीछे पड़ गए
हैं। नहीं
माने हैं तो
फकीर ने कहा, चलो, मैं
चलता हूं। वह
उनके गांव की
मस्जिद में
गया है। वे सब
गांव के लोग
इकट्ठे हो गए
हैं। वह फकीर
मंच पर बैठा
है। और उसने
कहा, इसके
पहले कि मैं
कुछ बोलूं मैं
तुमसे एक बात
पूछ लूं :
ईश्वर है, तुम
मानते हो? जानते
हो ईश्वर है?
उन
सारे लोगों ने
हाथ हिला दिए।
उन्होंने कहा
कि हां, ईश्वर
है। इसमें शक
की बात ही
नहीं, संदेह
का सवाल ही
नहीं, हम
सब मानते हैं
ईश्वर है।
उस
फकीर ने कहा, फिर
मेरे बोलने की
कोई जरूरत न
रही। क्योंकि
ईश्वर आखिरी ज्ञान
है, जिसने
उसे भी जान
लिया, अब
उससे बात करनी
नासमझी है।
मैं जाता हूं।
वह नीचे उतर
गया। उसने कहा
कि जब तुम्हें
ईश्वर तक का
पता चल चुका
है तो अब और
मैं तुम्हें
क्या बता
सकूंगा? बात
ही खतम हो गई, यात्रा का
ही अंत आ गया, यह तो अंतिम
अनुभव भी
तुम्हें हो
गया। और अब
तुम्हारे
सामने बातें
करूं तो मैं
अज्ञानी हूं।
मुझे क्षमा कर
दो!
मस्जिद
के लोग बड़ी
मुसीबत में पड़
गए,
क्योंकि
जानता तो कोई
भी नहीं था कि
ईश्वर है।
झूठे ही हाथ
उठा दिए थे।
उठाते वक्त
खयाल भी न था
कि हम झूठे
हाथ उठा रहे
हैं।
अगर
बहुत दिन तक
झूठे हाथ
उठाते रहें तो
आदमी खुद ही
भूल जाता है
कि ये उठाए गए
हाथ झूठे हैं।
आप भी जब
मंदिर की
मूर्ति के
सामने सिर
झुकाते हैं तो
कभी खयाल किया
है कि यह सिर
सच में झुक रहा
है या झूठा
झुकाया जा रहा
है?
यह सिर्फ
आदत है, सिखाई
गई बात है? या
आपने भी कभी
जाना है कि इस मूर्ति
में कुछ है?
और
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
जिसे मूर्ति
में कुछ दिख
जाएगा, उसे
सारी दुनिया
में कुछ नहीं
दिखेगा फिर? वह एक मंदिर
को खोजता हुआ
सिर झुकाने
आएगा? फिर
तो जहां भी
दिखाई पड़
जाएगा—सब वही
है—वही सिर
झुका लेगा।
अधार्मिकों
के सिवाय मंदिरों
में शायद ही
कोई कभी जाता
है। धार्मिक
तो कभी जाता
नहीं देखा गया।
यह मैं नहीं
कह रहा हूं कि
जो नहीं जाते
हैं वे धार्मिक
हैं। न जाने
से कोई
धार्मिक नहीं
होता, लेकिन
धार्मिक शायद
ही मंदिर जाता
देखा गया है।
मस्जिद
के लोग
परेशानी में
पड़ गए। लेकिन
उन्होंने सोच—विचार
किया कि इस
फकीर से सुनना
तो जरूर था, बड़ी
गलती हो गई।
हमारा उत्तर
ही ऐसा था कि
आगे बोलने की
जरूरत न रही।
अब हम दूसरा
उत्तर देंगे।
फिर एक बार
फकीर को किसी
तरह बुला कर
ले आओ।
दूसरे
शुक्रवार को
फिर उन्होंने
प्रार्थना की।
उस फकीर ने
कहा कि मैं तो
गया था पिछली
बार,
लेकिन तुम
तो सब जानते
ही हो, अब
आगे और क्या
बताना है? जो
जानता ही है, उसे जानने
को शेष क्या
रह जाता है? अब तुम
जानते ही हो
तो बात ही
क्या करनी है?
पर
उन लोगों ने
कहा कि हम वे
लोग नहीं, हम
दूसरे लोग हैं।
फकीर
उन्हें
भलीभांति जान
रहा था कि वे
वही हैं। उसने
कहा,
ठीक है, धार्मिक
आदमी का कभी
कोई भरोसा
नहीं, जरा
में बदल जाए।
तथाकथित
धार्मिक, वे
जो सो कॉल्ड
रिलीजस हैं, उनके बदलने
का कोई भरोसा
भी नहीं। अभी
कुरान पढ़ रहे
हैं, अभी
छाती में छुरा
भोंक दें! अभी
गीता पढ़ रहे थे,
अभी किसी की
स्त्री को
लेकर भाग
जाएं! इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है।
धार्मिक आदमी
से ज्यादा गैर—
भरोसे का आदमी
ही पृथ्वी पर
अब तक नहीं
पाया गया।
क्योंकि
जिसको हम
धार्मिक कहते
हैं, सच
में वह
धार्मिक ही
नहीं है। थोथा,
सूडो
रिलीजस, झूठा,
सिर्फ माना
हुआ धार्मिक
है। धर्म का
उसके जीवन में
कोई संबंध
नहीं। अगर
धर्म का संबंध
हो जाए तो
आदमी न हिंदू
रहेगा, न
मुसलमान, न
ईसाई।
धर्म
भी दस हो सकते
हैं?
हजार हो
सकते हैं? सत्य
भी हजार तरह
का हो सकता है?
गणित
एक तरह का
होता है—चाहे
तिब्बत में, और
चाहे चीन में,
और चाहे
हिंदुस्तान
में हो, और
चाहे रूस में—सब
जगह गणित एक
है। और
केमिस्ट्री
भी एक है और
फिजिक्स भी एक
है—साइंस एक
है। लेकिन
धर्म हजार
हैं!
सिर्फ
झूठ हजार तरह
के हो सकते
हैं,
सत्य हजार
तरह का नहीं
हो सकता। अगर
कोई कहने लगे
कि हिंदुओं की
केमिस्ट्री अलग
है और
मुसलमानों की
केमिस्ट्री
अलग है, तो
समझ लो कि इन
दोनों को
पागलखाने में
भर्ती करना
पड़े। इसके
सिवाय कोई
उपाय न रहे।
क्योंकि
केमिस्ट्री
कैसे अलग हो
सकती है? पानी
चाहे हिंदू
गरम करे, चाहे
मुसलमान, सौ
डिग्री पर भाप
बनता है। और
कोई उपाय नहीं
है कि कुरान
पढ़ने वाला कम
डिग्री पर भाप
बना दे और
गीता पढ़ने
वाला ज्यादा
डिग्री पर भाप
बना दे। पानी
सौ डिग्री पर
भाप बनता है, यह सत्य है।
यह सत्य
सार्वलौकिक
है, युनिवर्सल
है।
धार्मिक
आदमी सिर्फ
धार्मिक होता
है—जस्ट
रिलीजस—न
हिंदू न
मुसलमान, न
ईसाई। ये सब
अधार्मिकों
के सिरों पर
लगे हुए लेबल
हैं। धर्म
कैसे हो सकते
हैं पचास तरह
के? जब
पदार्थ का
नियम एक है, तो परमात्मा
का नियम कैसे
अनेक हो सकता
है?
उस
फकीर के फिर
वे पीछे पड़ गए।
उसने कहा, ठीक
है, तुम
कहते हो तो हम
चलेंगे। वह
गया। वह मंच
पर खड़ा हुआ।
उस गांव के
लोगों ने सोच—विचार
करके तय कर
लिया था कि
उत्तर अब
दूसरा देना है।
फकीर ने पूछा
कि मैं पूछ
लूं वही बात
कि ईश्वर है, तुम मानते
हो? जानते
हो? तुम्हें
उसका अनुभव हो
गया है?
सारे
मस्जिद के लोग
चिल्लाए, कैसा
ईश्वर? हमें
कुछ पता नहीं।
न हम मानते
हैं, न हम
जानते हैं। अब
आप बोलिए!
उस
फकीर ने कहा, जिसे
तुम मानते ही
नहीं, जानते
ही नहीं, उसके
संबंध में बात
करने से फायदा
क्या है? जिसकी
तुम्हें कोई
खबर ही नहीं, उसका तुम
प्रश्न ही
कैसे उठाते हो?
किस ईश्वर
की बात कर रहे
हो? किस
ईश्वर की मैं
बात करूं?
गांव
के लोग फिर
मुसीबत में पड़
गए कि यह तो
बड़ा धोखेबाज
आदमी मालूम
पड़ता है।
पिछली बार
हमने ही भरी
तो उसने कहा, तुम्हें
पता ही हो गया,
बात खत्म।
अब हम इनकार
करते हैं तो
वह कहता है, जिसको तुम
जानते नहीं, मानते नहीं,
जिसका
तुम्हें कोई
पता नहीं, उसकी
बात भी क्यों
करनी? बात
करने के लिए
भी कुछ शुरुआत
तो चाहिए।
किसकी मैं बात
करूं? किससे
मैं बात करूं?
मैं जाता
हूं।
गांव
के लोगों ने
कहा,
यह तो बड़ी
मुश्किल हो गई।
यह आदमी कैसा
है! फिर
उन्होंने कहा,
अब हम क्या
करें? लेकिन
इससे सुनना
जरूर है। इस
आदमी की आंखों
से लगता है कि
कुछ जानता है।
इस आदमी के
व्यक्तित्व
से लगता है कि
इसे कुछ खबर
है। शायद हम
ठीक उत्तर
नहीं दे पा
रहे, अब हम
क्या करें? उन्होंने
तीसरा उत्तर
तैयार किया।
फिर फकीर को
समझा—बुझा कर
ले आए।
उसने
कहा कि तुम
क्यों परेशान
हो रहे हो?
उन्होंने
कहा कि अब हम, दूसरा
ही उत्तर है
हमारे पास।
फकीर
ने कहा, सोचे—विचारे
उत्तर का कोई
मतलब नहीं
होता पागलों!
तुम सोच—विचार
कर तय करते हो,
वह सब झूठ
होता है। जो
सच होता है
उसे सोच—विचार
कर तय नहीं
करना पड़ता, वह तय होता
है। और जिसे
हम सोच—विचार
कर तय करते
हैं, वह
कभी सच नहीं
होता। सिर्फ
असत्य के लिए
सोचना पड़ता है,
सत्य के लिए
सोचना नहीं
पड़ता है। और
अगर सत्य के
लिए भी सोचना
पड़े, तो वह
असत्य ही होगा।
सत्य को जानना
पड़ता है, सोचना
नहीं पड़ता।
असत्य को
सोचना पड़ता है।
इसलिए असत्य
बोलने वाला
सोच—विचार में,
चिंता में,
परेशानी
में पड़ जाता
है। सत्य
बोलने वाले को
परेशानी नहीं
होती, क्योंकि
चिंता का कोई
कारण नहीं है।
जो है वह है।
जो नहीं है वह
नहीं है।
फिर
भी वे गांव के
लोग नहीं माने।
उन्होंने कहा, एक
बार और चले
चलें। बड़ी
कृपा होगी।
वह
गया। वह फकीर
फिर मंच पर
खड़ा हो गया है।
उसने फिर पूछा
है कि मित्रों, मैं
फिर वही बात
पूछ लूं—ईश्वर
है, तुम
मानते हो? जानते
हो? पहचानते
हो? कुछ
खबर है उसकी?
तो
मस्जिद के
लोगों ने तय
किया था... अगर
हम भी होते, हम
भी उस गांव
में होते, या
हो सकता है
हममें से कुछ
लोग उस गांव
में रहे भी
हों, तो
हमने भी यही
तय किया होता...
आधी मस्जिद के
लोगों ने कहा
कि हां, हम
ईश्वर को
मानते हैं; आधे लोगों
ने कहा, हम
नहीं मानते।
अब आप बोलिए!
उस
फकीर ने कहा, तुम
बड़े नासमझ हो!
जिनको मालूम
है, वे
उनको बता दें
जिनको मालूम
नहीं। मेरी
क्या जरूरत है?
तुम मेरे
पीछे क्यों
पड़े हो? तुम
मुझे क्यों
परेशान करते
हो? अब तो
कोई जरूरत ही
नहीं है मेरी,
मैं बिलकुल
बेकार हूं
यहां। कुछ
जानते हैं, कुछ नहीं
जानते। आपस
में एक—दूसरे
को समझा—बुझा
लें। मैं यह
चला। और फकीर
ने चलते वक्त
उनसे कहा कि
हिम्मत हो, तो फिर चौथी
बार आना!
गांव
के लोग बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए। बहुत
सोचा, लेकिन
चौथा उत्तर न
मिला। करते भी
क्या? करते
भी क्या, एक
उत्तर हां का,
एक न का, फिर
दोनों उत्तर मिला
कर दे दिए हां
और न के, अब
क्या करते? ये तीन तो
विकल्प ही
दिखाई पड़ते
हैं, कोई
चौथा
अल्टरनेटिव
भी तो नहीं है।
बहुत परेशान
हुए। फकीर कई
दिन रुका रहा
और गांव में
घूम—घूम कर
लोगों से कहता
रहा, क्यों,
अब नहीं आते?
लेकिन गांव
के लोग कुछ भी
न सोच पाए कि
अब क्या करें?
आखिर उस
फकीर को वह
गांव छोड़ देना
पड़ा। किसी
दूसरे आदमी ने
दूसरे गांव
में उससे पूछा
कि हमने सुना
है उस गांव के
लोग फिर न आए।
अगर वे आते तो
तुम समझाते
फिर ईश्वर को?
उसने
कहा,
फिर मुझे
समझाना ही
पड़ता।
उस
आदमी ने कहा, तो
तुमने तीन बार
में क्यों
नहीं समझाया?
उसने
कहा,
मैं ठीक
उत्तर की
प्रतीक्षा
करता रहा।
क्या
ठीक उत्तर हो
सकता है?
तो
उस फकीर ने
कहा,
अगर वे गांव
के लोग चुप रह
जाते और कोई
उत्तर न देते,
तो ही मैं
कुछ बोल सकता
था। क्योंकि
तब वे ईमानदार
होते, ऑनेस्ट
होते।
क्योंकि
ईश्वर के
संबंध में न
तो हमें पता
है कि वह है, न हमें पता
है कि वह नहीं
है। हम बेईमान
हैं, अगर
हम कोई भी
उत्तर दे रहे
हैं।
लेकिन
यह बेईमानी
धार्मिक
किस्म की है।
और जब बेईमानी
धार्मिक
किस्म की होती
है,
तो पहचानना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
अधार्मिक
बेईमान आदमी
तो पकड़ जाता
है। धार्मिक
और बेईमान
आदमी को पकड़ना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि
उसकी बेईमानी
के चारों तरफ
धार्मिकता की
पर्त चढ़ाई हुई
है।
हमारा
उत्तर क्या है? अगर
हम सच में
ईमानदार हैं,
ऑनेस्ट हैं,
तो हम
कहेंगे, कोई
भी उत्तर तो
हमारे पास
नहीं, हमें
कुछ भी तो पता
नहीं। हम इतना
भी तो नहीं कह
सकते कि वह है,
हम इतना भी
नहीं कह सकते
कि वह नहीं है।
और जो व्यक्ति
इतनी सच्चाई
पर खड़ा हो जाए
कि मुझे कुछ
भी पता नहीं, उस व्यक्ति
की सच्ची
आस्तिकता की
यात्रा शुरू
हो जाती है।
क्योंकि अगर
हमें यह अनुभव
हो जाए कि
मुझे कुछ भी
पता नहीं है, तो हम इतनी
पीड़ा में, इतनी
सफरिंग में, इतने कष्ट
में पड़ जाएंगे
कि वह पीड़ा, वह कष्ट, वह
अज्ञान हमें
धक्के देगा कि
हम खोज पर
निकलें, हम
जाएं और पता
लगाएं।
लेकिन
हम बड़े अदभुत
लोग हैं! हमें
पता कुछ भी नहीं
है और हम मान
कर बैठ गए हैं
कि पता है, इसलिए
यात्रा भी
नहीं करते। अब
कोई बीमार
आदमी समझ ले
कि मैं स्वस्थ
हूं तो फिर वह
इलाज की क्या
फिकर करे!
इलाज की फिकर
तो इस बात से शुरू
होती है कि
ज्ञात हो कि
मैं बीमार हूं
तो हम
स्वास्थ्य की
तरफ भी जा
सकते हैं।
पृथ्वी
पर झूठी
आस्तिकता है।
और इसलिए
धार्मिक जीवन
निर्मित नहीं
हो पा रहा है।
और झूठी
आस्तिकता का
आधार है
विश्वास, बिलीफ।
और सारी
दुनिया में
यही समझाया
जाता है कि विश्वास
करो, यकीन
लाओ, श्रद्धा
रखो; मानो,
पूछो मत, संदेह मत
करो, शक मत
करो, अविश्वास
मत करो। बड़ी
उलटी बात
सिखाई जा रही
है। जो आदमी
विश्वास में
जीएगा, वह
कभी भी अनुभव
तक नहीं पहुंचता
है। अनुभव तक
केवल वे ही
लोग पहुंचते
हैं, जो
झूठे
विश्वासों
में नहीं जीते,
झूठे
अविश्वासों
में भी नहीं
जीते।
अविश्वास, डिसबिलीफ
भी एक तरह का
विश्वास है—
विरोधी
विश्वास है, निगेटिव
बिलीफ है।
ईमानदार आदमी
चुप खड़ा हो
जाता है कि
मुझे पता नहीं।
डी.एच
.लारेंस एक
बगीचे में घूम
रहा था। एक
अदभुत आदमी था।
एक छोटा बच्चा
उसके साथ घूम
रहा है। और वह
लारेंस से
पूछता है, जैसा
कि छोटे बच्चे
अक्सर सवाल
उठा देते हैं,
जिनका कि के
भी उत्तर नहीं
दे सकते।
लेकिन इतने
हिम्मतवर के
कम होते हैं
जो मान लें
बच्चों के
सामने इस बात
को कि मुझे
उत्तर पता
नहीं। इसी तरह
के कमजोर
बूढ़ों ने
दुनिया को
परेशानी में
डाल रखा है।
बच्चे ने
प्रश्न उठा
दिया एक सीधा
सा। वृक्षों
को देखा है और
हाथ उठा कर
लारेंस से पूछा,
व्हाय दि
ट्रीज आर
ग्रीन? वृक्ष
हरे क्यों हैं?
लारेंस
ने कहा, दि
ट्रीज आर
ग्रीन, बिकाज
दे आर ग्रीन!
वृक्ष हरे हैं,
क्योंकि
वृक्ष हरे
हैं!
उस
बच्चे ने कहा, यह
भी कोई उत्तर
हुआ! यह कोई
उत्तर है! हम
पूछते हैं, वृक्ष हरे
क्यों हैं? आप कहते हैं
कि हरे हैं, क्योंकि हरे
हैं। यह कोई
उत्तर हुआ!
लारेंस
ने कहा कि
उत्तर का मतलब
सिर्फ इतना है
कि मुझे पता
नहीं है और
मैं झूठ नहीं
बोल सकता हूं।
इस
आदमी का भाव
देखते हैं? वह
कहता है, मुझे
पता नहीं। यह
धार्मिक आदमी
का पहला लक्षण
है कि वह साफ होगा
इस बात में कि
मुझे क्या पता
है और क्या पता
नहीं है।
क्या
आप साफ हैं? आपने
कभी लेखा—जोखा
किया है कि
मुझे क्या पता
है और क्या
पता नहीं है? आप बहुत
हैरान हो
जाएंगे। शायद
ही जीवन का
कोई परम सत्य
पता हो! लेकिन
जिन बातों का
हमें बिलकुल
पता नहीं है, हम बहुत जोर
से टेबल ठोंक—ठोंक
कर कहते हैं
कि हमें पक्का
पता है। न
केवल टेबल
ठोंकते हैं, एक—दूसरे की
छाती में छुरा
भी भोंकते है—कि
मुझे जो पता
है वह ज्यादा
ठीक है, तुम्हें
जो पता है वह
गलत है।
आश्चर्य
है! जिन
सत्यों के
संबंध में
हमें कोई भी
बोध नहीं है, उनके
संबंध में हम
कितने
फैनेटिक, कितने
पागल, कितने
आक्रामक, कितने
अग्रेसिव हैं।
समझ के बाहर
है यह बात।
लेकिन यही बात
हमारी स्थिति
बनी है। इस
स्थिति को
तोड़ना जरूरी
है।
तो
मैं आपसे
निवेदन करना
चाहूंगा, कभी
एकांत क्षणों
में इस पर
सोचना कि धर्म
के संबंध में
मुझे क्या पता
है? निश्चित
हां, गीता के
सूत्र आपको
याद होंगे, कुरान की
आयतें भी याद
हो सकती हैं, बाइबिल के
वचन भी कंठस्थ
हो सकते हैं।
लेकिन ध्यान
रखना, वह
आपका ज्ञान
नहीं है। गीता
में जो है वह
कृष्ण का
ज्ञान रहा
होगा, आप
उसे पढ़ कर
अपना ज्ञान
नहीं बना सकते
हैं। बारोड, उधार लिया
हुआ ज्ञान
अज्ञान से
बदतर है।
क्योंकि
अज्ञान कम से
कम अपना तो
होता है। इतना
तो है कि मेरा
है। कम से कम
प्रामाणिक, ऑथेंटिक तो
होता है कि
मेरा है। ज्ञान
उधार है सब।
और अज्ञान
हमारा है।
ध्यान
रहे,
मेरे
अज्ञान को, मैं सारी
दुनिया के
ज्ञान को भी
इकट्ठा कर लूं
तो भी नहीं
मिटा सकता।
क्योंकि
अज्ञान मेरा
है और ज्ञान
दूसरे का है।
दूसरे का
ज्ञान मेरे
अज्ञान को
मिटा नहीं सकता
है। कैसे मिटा
सकता है? दोनों
कहीं कटते ही
नहीं। दोनों
कहीं एक—दूसरे
को स्पर्श भी
नहीं करते।
दूसरे का ज्ञान,
अज्ञान से
भी खतरनाक हो
सकता है।
मैंने
सुना है, एक
अंधा आदमी
अपने एक मित्र
के घर मेहमान
है। रात बहुत—बहुत
भोजन बने हैं,
खीर बनी है।
उस अंधे आदमी
ने अपने मित्रों
से पूछा, यह
खीर क्या है? यह किस चीज
को तुम खीर
कहते हो? यह
कैसी है? किससे
बनी है? मुझे
कुछ समझाओ, मुझे बहुत
पसंद पड़ी है।
मित्र
समझदार रहे
होंगे।
दुनिया में
नासमझ आदमी तो
मुश्किल से ही
मिलता है, सभी
समझदार हैं।
वे भी समझदार
थे। उन्होंने
उस अंधे आदमी
को बताया कि
खीर जो है वह
दूध से बनी है।
उस
अंधे आदमी ने
कहा कि यह दूध
क्या है? कैसा
होता है? क्या
है रंग? क्या
है रूप?
उन
समझदारों ने
कहा कि दूध
बिलकुल शुभ, सफेद
होता है।
उस
अंधे आदमी ने
कहा,
मुझे
मुश्किल में
डाले दे रहे
हो। मेरा पहला
प्रश्न वहीं
का वहीं खड़ा
रहता है, तुम
जो जवाब देते
हो उससे और
नये प्रश्न
खड़े हो जाते
हैं। यह सफेदी
क्या बला है? यह सफेदी
क्या है? यह
सफेदी कैसी
होती है? यह
शुभ्र किसको
कहते हो तुम?
समझदार
कम समझदार न
थे। एक समझदार
आगे बढ़ा और
उसने कहा, कभी
बगुला देखा है
नदी के किनारे?
तालाब के तट
पर? झील के
पास? सफेद
बगुला? ठीक
बगुले के
पंखों जैसा
सफेद होता है
दूध!
उस
अंधे आदमी ने
कहा,
तुम
पहेलियों में
उलझाए दे रहे
हो। यह बगुला
क्या बला है? और मेरे
पहले प्रश्न
तो अब कितने
दूर छूट गए, तुम्हारे
जवाब मुझे
बहुत आगे ले
आए हैं, लेकिन
हर बात वहीं की
वहीं अटकी हुई
है। यह बगुला
क्या होता है?
कैसा होता
है? कुछ
मुझे इस तरह
समझाओ कि मैं
समझ सकूं।
एक
समझदार आदमी
ने अपना हाथ
आगे बढ़ाया, उस
अंधे आदमी को
कहा कि मेरे
हाथ पर हाथ
फेरो। अंधे
आदमी ने हाथ
पर हाथ फेरा।
यह कुछ समझ
में आने वाली
बात थी, क्योंकि
अंधे को स्पर्श
अनुभव हुआ। उस
समझदार आदमी
ने कहा कि
जैसे मेरे हाथ
पर तुमको
सुडौल मालूम
होता है, ऐसे
ही बगुले की
गर्दन सुडौल
होती है।
वह
अंधा आदमी खड़े
होकर नाचने
लगा। उसने कहा, मैं
समझ गया कि
दूध सुडौल हाथ
की तरह होता
है। मैं
बिलकुल समझ
गया।
वे
सब मित्र कहने
लगे,
क्षमा करो!
क्षमा करो!
इससे तो बेहतर
था कि तुम न
जानते थे। यह
जानना तो और
मुश्किल में
डाल देगा।
नहीं, दूध
सुडौल हाथ की
तरह नहीं होता।
उस
अंधे आदमी ने
कहा,
मुझे क्यों
मुश्किल में
डालते हो? तुम्हीं
ने तो मुझे
समझाया है।
असल
बात यह है कि
अंधे आदमी को
सफेद रंग के
संबंध में कुछ
भी नहीं
समझाया जा
सकता। और जो
समझाने जाता
है वह निपट
नासमझ है।
अंधे आदमी की आंख
का इलाज हो
सकता है; सफेद
रंग नहीं
बताया जा सकता।
आंख का इलाज
हो जाए तो
सफेद रंग
दिखाई पड़ सकता
है। और कोई
उपाय नहीं है।
हम
सब,
जहां तक
सत्य का संबंध
है, अंधे
हैं। हमें कुछ
पता नहीं है।
और हम सबने
किताबों में
से कुछ समझ
लिया है। वह
उसी अंधे आदमी
के हाथ की तरह।
वह उसी अंधे
आदमी की धारणा
की भांति। हम
उसको पकड़ कर
बैठे हुए हैं।
और हम जिंदगी—जिंदगी
पकड कर बैठे
रहें, उससे
हम कहीं
पहुंचेंगे
नहीं।
पहली
बात जाननी
जरूरी है कि
हम अंधे हैं
और दूसरी बात
जाननी जरूरी
है कि हमें
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ता है।
जहां तक ईश्वर
का,
सत्य का
संबंध है, हमें
कुछ भी पता
नहीं है, कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता है। यह
पहली सच्चाई
होगी, जिसे
हम स्वीकार कर
लें, तो
फिर आगे बढ़ा
जा सकता है।
तब हम पूछ
सकते हैं कि यह
आंख कैसे ठीक
हो कि हम जान
सकें?
लेकिन
जिसने मान
लिया, वह यह
पूछता ही नहीं
कि हम जान
सकें। वह तो
यह मान लेता
है कि जान
लिया। वह तो
विश्वास को
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे ज्ञान
बना लेता है, उसे पता ही
नहीं चलता कि
मैंने गीता
में ऐसा पढ़ा
था, कब वह
समझने लगता है
कि ऐसा मैं
जानता हूं।
मैं
देखता हूं लोग
बैठे हैं—
धार्मिक लोग— आंख
बंद करके सोच
रहे हैं अहं
ब्रह्मास्मि!
मैं ब्रह्म
हूं मैं
ब्रह्म हूं
मैं ब्रह्म
हूं। किसी
किताब में पढ़
लिया है। अब
दोहरा रहे हैं
कि मैं ब्रह्म
हूं।
अब
दोहराते रहिए।
क्या दोहराने
से पता चल जाएगा
कि आप ब्रह्म
हैं?
कैसे पता चल
जाएगा? जब
पहली बार आपने
दोहराया कि
मैं ब्रह्म
हूं तब आपको
पता नहीं था।
जब आपने दूसरी
बार दोहराया,
तब भी आपको
पता नहीं था।
जब आपने तीसरी
बार दोहराया,
तब भी आपको
पता नहीं था।
और अगर पता ही
हो गया था तो
चौथी बार
दोहराया किसलिए?
तो चौथी बार
दोहराया तब भी
पता नहीं था।
हजार बार, लाख
बार, करोड़
बार दोहराइए,
पता कैसे हो
जाएगा? रिपीटीशन
नॉलेज बन जाता
है? दोहराने
से ज्ञान पैदा
हो जाता है?
तब
तो बड़ा सस्ता
मामला है; तब
तो बहुत ही
सस्ता मामला
है। तब तो
हिटलर ने ठीक
लिखा है अपनी
आत्मकथा में।
उसने लिखा है
कि दुनिया में
सफेद झूठ जैसी
कोई चीज नहीं
होती। जिस झूठ
को बार—बार
दोहराओ, वही
सत्य हो जाता
है। तब तो फिर
हिटलर परम
शानी है। और
मजे की बात यह
है कि हम
हिटलर को कभी
ज्ञानी न
कहेंगे, लेकिन
हम यही कर रहे
हैं ज्ञान के
लिए।
हां, यह
बात जरूर सच
है कि अगर
असत्य को भी
बार—बार
दोहराया जाए,
तो हम धीरे—
धीरे यह भूल
जाते हैं कि
यह असत्य है।
दूसरा नहीं, हम खुद भूल
जाते हैं। अगर
आप बचपन से एक
असत्य को
दोहराते रहें,
दोहराते
रहें, तो
बुढ़ापे तक याद
रखना जरा
मुश्किल हो
जाएगा कि यह
असत्य था और
मैंने जब पहली
बार दोहराया
था तो असत्य
था, मुझे
पता नहीं था।
यह भूल जाएंगे
आप। निरंतर
दोहराने से
सिर्फ भूल
सकते हैं, लेकिन
ज्ञान नहीं हो
सकता। सिर्फ
इतना भूल सकते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
पत्रकार मर
गया और मरते
ही से स्वर्ग
के दरवाजे पर
पहुंच गया—जर्नलिस्ट,
अखबार वाला।
अब अखबार वाला
था, उसने
कहा कि सीधे
स्वर्ग में
मुझे जगह
मिलनी चाहिए।
और यहां कोई
मिनिस्टर या
कहीं भी
दरवाजा खटखटाए
तो दरवाजा
खुलता था, तो
उसने कहा, भगवान
भी क्यों, डरता
होगा जरूर।
अखबार वाले से
कौन नहीं
डरता! जाकर
उसने सीधा दरवाजा
खटखटाया।
द्वारपाल ने
बाहर झांक कर
देखा। उसने
कहा, दरवाजा
खोलों! मैं एक
बड़े अखबार का
रिपोर्टर हूं
और मैं मर गया
हूं और मैं
स्वर्ग में
रहना चाहता
हूं।
उस
द्वारपाल ने
कहा,
माफ करिए!
पहली तो बात
यह है कि
स्वर्ग में
कोई घटना ही
नहीं घटती, न्यूज ही
नहीं घटती, क्योंकि
न्यूज के लिए
भी तो उपद्रवी
आदमी चाहिए—
राजनीतिज्ञ
चाहिए, गुंडे
चाहिए, बदमाश
चाहिए। यहां
कोई आते ही
नहीं इस तरह
के सब लोग।
हालांकि जमीन
पर जो भी मरता
है, वे सभी
स्वर्गीय
लिखे जाते हैं।
सब स्वर्ग चले
जाते हैं, ऐसा
हम मानते हैं।
जाता मुश्किल
से ही कोई कभी
होगा। उस
द्वारपाल ने
कहा, यहां
कोई घटना ही
नहीं घटती।
अखबार कहां
चले? और
यहां का एक
निश्चित कोटा
है, दस
अखबार वालों
को हमने जगह
दे रखी है।
लेकिन वह भी
बेकार है, कोई
काम ही नहीं
है। और अखबार
भी निकालों तो
कोई पढ़ने को
राजी नहीं
होता। इसलिए
वह ठप्प ही
पड़ा है काम।
अगर तुम्हें
जाना ही है तो
नरक चले जाओ, वहां बहुत
अखबार चलते
हैं, बड़े
अखबार चलते
हैं, बहुत
सर्कुलेशन है
अखबारों का।
क्योंकि
घटनाएं भी खूब
घटती हैं, घटनाएं
ही घटनाएं हैं
वहां तो, जहां
देखो वहीं
घटना घट रही
है।
पर
उसने कहा कि
मुझे तो
स्वर्ग में
रहना है। आप
एक कर सकते
हैं तरकीब, मुझे
चौबीस घंटे के
लिए भीतर ले
लें। मैं दस
अखबार वालों
में से एक को
राजी कर लूंगा
कि वह नरक चला
जाए। तो फिर
तो जगह खाली
होती है मुझे?
उस
द्वारपाल ने
कहा,
आप आ जाएं, चौबीस घंटे
आप कोशिश कर
लें।
वह
अखबार वाला
भीतर गया। जो
भी आदमी उसे
मिला, उसने
कहा, सुना
तुमने? नरक
में एक बहुत
नया अखबार
निकलने वाला
है। उसके लिए
एक बड़े संपादक
की, चीफ
एडीटर की
जरूरत है।
मोटर भी
मिलेगी, बंगला
भी मिलेगा, सब इंतजाम
है, बड़ी
तनख्वाह भी है।
उसने पूरे
स्वर्ग में
खबर फैला दी।
सांझ को वह
वापस
द्वारपाल के
पास आया और
उसने पूछा कि
कहो, कोई
गया?
द्वारपाल
ने दोनों हाथ
रोक कर उससे
कहा कि ठहरो!
वे दसों चले
गए हैं और अब
तुम नहीं जा
सकते, क्योंकि
यहां हम तो
बहुत मुश्किल
में पड़ जाएंगे।
दस का कोटा है।
वे दसों ही
भाग गए हैं।
वे कहते हैं, हमको नरक
जाना है। सब
चले गए।
लेकिन
उस अखबार वाले
ने कहा, रास्ते
से हटो! मैं भी
जाऊंगा।
उसने
कहा,
तुम कैसे
पागल हो!
उसने
कहा,
कौन जाने, बात सच भी हो
सकती है कि
अखबार वहा
निकल रहा हो।
क्योंकि
मैंने जिससे
भी सुना है
दिन में, सभी
यही कह रहे
हैं कि अखबार
निकलने वाला
है। पूरे
स्वर्ग में एक
ही चर्चा है।
कौन जाने!
उस
द्वारपाल ने
कहा,
पागल, सुबह
तूने ही यह
झूठ शुरू किया
था।
उसने
कहा,
सुबह को
बहुत देर हो
गई, बात सच
भी हो सकती है।
मैं लेकिन
यहां नहीं
रहना चाहता।
झूठ हो तो भी
कोई हर्जा
नहीं। जब दस
आदमियों ने
मान लिया, तो
बात में कुछ न
कुछ जान होनी
चाहिए।
हम
भी भूल जाते
हैं कि हमने
कब झूठ
स्वीकार किया
था खुद। और
अगर बोलते ही
चले जाएं तो
आखिर में पता
ही नहीं रहेगा
कि यह झूठ था।
दोहराने
से कोई सत्य
नहीं होता है।
हम किताबें पढ़
लेते हैं—ईश्वर
के संबंध में, ब्रह्म
के संबंध में,
आत्मा के
संबंध में
बातें सीख
लेते हैं, फिर
उनको दोहराने
लगते हैं। और
दोहराते—दोहराते
मर जाते हैं, हम कुछ जान
नहीं पाते।
क्या
करें?
इसलिए
मैं आपसे यह
निवेदन करना
चाहता हूं पहली
बात तो यह
समझें कि हम
अज्ञानी हैं, परम
अज्ञानी, एब्लोल्युट
इग्नोरेंट
हैं सत्य के
संबंध में। यह
पहला सत्य
होगा, यह
पहला चरण होगा
मंदिर का
परमात्मा के।
और जब परम
अज्ञान है
हमारा और
दूसरे के
ज्ञान से
ज्ञान मिल
नहीं सकता—कितनी
ही गीता
कंठस्थ करो और
कितने ही
ब्रह्म—सूत्र
पढ़ो, ज्ञान
नहीं मिल सकता
है किसी किताब
से, न किसी
गुरु से।
ट्रांसफरेबल
नहीं है। वह
कोई ऐसी चीज
नहीं है कि
किसी ने
मुट्ठी भरी और
आपको दे दी।
अगर ऐसा होता
तो एक ही गुरु
सारी दुनिया
में ज्ञान
बांट जाता।
फिर कोई जरूरत
न थी। कोई
किसी को ज्ञान
दे नहीं सकता।
अगर मृत्यु को
जानना है तो
खुद मरना पड़ता
है। और अगर ज्ञान
को उपलब्ध
करना है तो
खुद उस मार्ग
से गुजरना पड़ता
है जहा ज्ञान
उपलब्ध होता
है।
क्या
है वह मार्ग?
समस्त
विचारों से
मुक्त हो जाना, पूर्ण
शून्य में ठहर
जाना, मौन,
पूर्ण मौन
में उतर जाना
वह मार्ग है।
यदि हम क्षण
भर को भी
पूर्ण मौन में
हो सकें, कंप्लीट
साइलेंस में
हो सकें, तो
हम उसे जान
लेंगे जो है।
क्यों? आखिर
मौन में होने
से क्यों जान
लेंगे?
जब
तक हमारा मन
शब्दों से भरा
है,
विचारों से
भरा है, तब
तक बेचैन है।
तब तक ऐसा है
जैसे झील पर
तरंगें हों।
चांद है आकाश
में और झील
तरंगों से भरी
है, तो
चांद का
प्रतिबिंब
नहीं बनता फिर
झील में। और
फिर झील शांत
हो गई, कोई
तरंग नहीं है,
झील मौन हो
गई, एक लहर
भी नहीं है
झील की छाती
पर, झील
बिलकुल
साइलेंट, शांत
हो गई है, तो
झील एक दर्पण
बन जाती है और
चांद उसमें
प्रतिफलित हो
जाता है, रिफ्लेक्ट
हो जाता है, दिखाई पड़ने
लगता है।
मौन
की स्थिति में
हम बन जाते
हैं दर्पण, शांत,
और जो है वह
उसमें
प्रतिफलित हो
जाता है, उसमें
दिखाई पड़ जाता
है।
मनुष्य
को बनना है
दर्पण, चुप, एक लहर भी न
हो मन पर। तो
उसी क्षण में,
जो है.....उसी
का नाम
परमात्मा हम
कहें, सत्य
कहें, जो
भी नाम देना
चाहें। नाम से
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। नाम
के झगड़े सिर्फ
बच्चों के
झगड़े हैं। कोई
भी नाम दे दें—एक्स,
वाय, जेड
कहें तो भी
चलेगा। वह जो
है, अननोन,
अज्ञात, वह
हमारे दर्पण
में
प्रतिफलित हो
जाता है और हम
जान पाते हैं।
तब है
आस्तिकता, तब
है धार्मिकता,
तब धार्मिक
व्यक्ति का
जन्म होता है।
अदभुत
है आनंद उसका।
सत्य को जान
कर कोई दुखी
हुआ हो, ऐसा
सुना नहीं गया।
सत्य को बिना
जाने कोई सुखी
हो गया हो, ऐसा
भी सुना नहीं
गया। सत्य को
जाने बिना
आनंद मिल गया
हो किसी को, इसकी कोई
संभावना नहीं
है। सत्य को
जान कर कोई
आनंदित न हुआ
हो, ऐसा
कोई अपवाद
नहीं है। सत्य
आनंद है, सत्य
अमृत है, सत्य
सब कुछ है—जिसके
लिए हमारी
आकांक्षा है,
जिसे पाने
की प्यास है, प्रार्थना
है। लेकिन हम
दर्पण नहीं
हैं, जिसमें
सत्य
प्रतिफलित हो
सके।
एक
युवा फकीर
सारी दुनिया
का चक्कर लगा
कर अपने देश
वापस लौटा था।
उस देश का
सम्राट बचपन
में उसके साथ
एक ही स्कूल
में पढ़ा था।
वह फकीर
सम्राट के पास
गया। सारी
पृथ्वी से घूम
कर लौटा है
फकीर—
अर्धनग्न, फटे
वस्त्र।
सम्राट गले
मिला है।
बैठते ही
सम्राट ने
पूछा है, सारी
दुनिया घूम कर
आए, मेरे
लिए कुछ लाए
हो?
जिनके
पास सब कुछ
होता है, उनके
मन में भी और
कुछ की वासना
तो बनी ही
रहती है। एक
सम्राट एक
फकीर से
मांगने लगा कि
मेरे लिए कुछ
लाए हो?
फकीर
ने कहा कि
मुझे खयाल था
निश्चित ही कि
तुम जरूर
मिलते ही पहली
बात यही
पूछोगे।
जिनके पास
बहुत है, पहली
बात उनके मन
में यही उठती
है। तो मैं
तुम्हारे लिए
कुछ ले आया
हूं।
सम्राट
ने चारों तरफ
देखा, फकीर के
पास तो कुछ
मालूम नहीं
पड़ता। हाथ
खाली हैं, झोला
भी साथ नहीं।
सम्राट ने कहा,
क्या ले आए
हो?
फकीर
ने कहा, मैंने
बहुत खोजा, बहुत खोजा, बड़े—बड़े
बाजारों में,
बड़ी—बड़ी
राजधानियों
में, लेकिन
मैं यह सोचता
था, कोई
ऐसी चीज ले
चलूं जो
तुम्हारे पास
न हो। लेकिन
जहां भी गया, मुझे खयाल
आया, यह सब
तुम्हारे पास
जरूर होगा।
तुम कोई छोटे
सम्राट नहीं।
और देखता हूं
तुम्हारे महल
में सभी कुछ
है। भूल हो
जाती बड़ी। मैं
वह कुछ भी
नहीं लाया।
फिर एक चीज
मुझे मिल गई, जो मैं लाया
हूं।
सम्राट
तो खड़ा हो गया!
उसने कहा, ऐसी
कोई चीज लाए
हो जो मेरे
पास नहीं है? देखें, जल्दी
निकालो! मेरी
उत्सुकता को
ज्यादा मत
बढ़ाओ।
उस
फकीर ने खीसे
में हाथ डाला, फटे
कुर्ते से एक
छोटा सा दो
पैसे का दर्पण,
दो पैसे का
मिरर निकाल कर
सम्राट को दे
दिया। सम्राट
ने कहा, पागल
हो गए हो? मेरे
पास बड़े—बड़े
दर्पण हैं। यह
तुम दो पैसे
का दर्पण लाए
हो कि मेरे
पास नहीं होगा?
कैसे पागल
हो!
उस
फकीर ने कहा, यह
दर्पण साधारण
नहीं है।
इसमें अगर
देखोगे, तो
तुम अपने को
ही देख लोगे।
दूसरे दर्पण
में सिर्फ
शरीर दिखा
होगा, इसमें
तुम ही दिख
जाओगे।
कागज
में लिपटा हुआ
है दर्पण।
सम्राट ने कहा, मैं
इसे खोल कर
देखूं?
फकीर
ने कहा, अकेले
में देखना, क्योंकि
इसमें तुम दिख
जाओगे जैसे हो,
जो है।
फिर
फकीर चला गया।
एकांत होते ही
सम्राट ने
कागज फाड़ा। एक
साधारण सा
दर्पण है, जिसको
दर्पण कहना भी
मुश्किल है, अत्यंत दीन—दरिद्र
दर्पण है।
लेकिन उस
दर्पण पर एक
वचन लिखा हुआ
है कि और सब
दर्पण व्यर्थ
हैं, एक ही
दर्पण सार्थक
है। और वह वही
दर्पण है जो
तुम बन सकते
हो। मौन हो
जाओ, चुप
हो जाओ, चित्त
की सब तरंगें
बंद कर दो।
उसी दर्पण में
देख सकोगे कि
तुम कौन हो।
और जो स्वयं
को देख ले, वह
सबको देख लेता
है। एक बार
झलक मिल जाए
शांत होकर
जीवन की, सब
मिल जाता है।
लेकिन
हम खोजते हैं
शास्त्रों
में,
शास्त्रों
में कभी न
मिलेगा। हम
खोजते हैं
गुरुओं के पास;
कभी न
मिलेगा। कोई
किसी को दे
सकता नहीं। है
हमारे पास और
हम खोजते हैं
कहीं और, तो
भटकते रहते
हैं। एक ही
बात आपसे कहना
चाहता हूं वह
यह, अज्ञान
को समझें और
अज्ञान को
झूठे ज्ञान से
ढांकें मत, उधार ज्ञान
से अपने
अज्ञान को
भुलाए मत।
उधार ज्ञान को
दोहरा—दोहरा
कर जबर्दस्ती
ज्ञान बनाने
की व्यर्थ चेष्टा
में न लगें।
ऐसा न कभी हुआ
है, न हो
सकता है। एक
ही उपाय है, और जिस उपाय
से सबको हुआ
है, कभी भी
हुआ है, कभी
भी होगा, और
वह उपाय यह है
कि कैसे हम
दर्पण बन जाएं—
जस्ट टु बी ए
मिरर।
दर्पण
पता है आपको, दर्पण
की खूबी क्या
है? दर्पण
की खूबी यह है
कि उसमें कुछ
भी नहीं है, वह बिलकुल
खाली है।
इसीलिए तो जो
भी आता है
उसमें दिख
जाता है। अगर
दर्पण में कुछ
हो तो फिर
दिखेगा नहीं।
दर्पण में कुछ
भी नहीं टिकता,
दर्पण में
कुछ है ही
नहीं, दर्पण
बिलकुल खाली
है। दर्पण का
मतलब है. टोटल
एंप्टीनेस, बिलकुल खाली।
कुछ है ही
नहीं उसमें, जरा भी बाधा
नहीं है। अगर
जरा भी बाधा
हो, तो फिर
दूसरी चीज
पूरी नहीं
दिखाई पड़ेगी।
जितना कीमती
दर्पण, उतना
खाली। जितना
सस्ता दर्पण,
उतना थोड़ा
भरा हुआ।
बिलकुल पूरा
दर्पण हो, तो
उसका मतलब यह
है कि वहां
कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
कैपेसिटी टु
रिफ्लेक्ट।
कुछ भी नहीं
है, सिर्फ
क्षमता है एक
प्रतिफलन की—जो
भी चीज सामने
आए वह दिख जाए।
क्या
मनुष्य का मन
ऐसा दर्पण बन
सकता है?
बन
सकता है! और
ऐसे दर्पण बने
मन का नाम ही
ध्यान है, मेडिटेशन
है। ऐसा जो
दर्पण जैसा बन
गया मन है, उसका
नाम ध्यान है,
ऐसे मन का
नाम ध्यान है।
ध्यान
का मतलब यह
नहीं कि राम—राम, राम—राम,
राम—राम कर
रहे हैं।
ध्यान का कोई
संबंध नहीं है।
यह सब लहर चल
रही है। राम—राम
के नाम की चल
रही है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कि
ओम— ओम, ओम—ओम
कर रहे हैं, वह भी लहर चल
रही है। ओम की
चल रही है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कोई
लहर न रह जाए
शब्द की, कोई
विचार न रह
जाए। कुछ भी न
रह जाए, बस
खालीपन रह जाए।
तो उस खालीपन
में हम उसे
जान लेंगे जो
चारों तरफ
मौजूद है।
भगवान
को खोजने कहीं
कोई हिमालय पर, कोई
एवरेस्ट पर
थोड़े ही जाना
है, न किसी
चांद—तारे पर
जाना है। वह
है यहीं, सब
जगह। सच तो यह
है कि वही है, उसके
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। इसलिए जो
पूछता है कहां
खोजने जाऊं? वह पागल है।
कोई अगर यह
पूछे कि कोई
ऐसी जगह बताओ
जहां भगवान न
हो, तो समझ
में आ सकता है
कि यह आदमी
कुछ खोजने निकला
है। लेकिन कोई
कहता है, मुझे
वह जगह बताओ
जहां भगवान है,
तो समझना यह
आदमी पागल है।
क्योंकि ऐसी
कोई जगह ही
नहीं है जहां
वह नहीं है।
असल में होना
मात्र वही है।
जो भी है, वही
है। उसके
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। ईश्वर का
मतलब है
अस्तित्व, एक्सिस्टेंस,
जो है।
फिर
कमी क्या है? हम
खोज क्यों
नहीं पाते उसे?
कमी
शायद इतनी ही
है कि हम
दर्पण नहीं
हैं,
जिसमें वह
झलक जाए। हम
भीतर भरे हैं
और वह नहीं
झलक पाता, हम
भीतर तरंगों
से भरे हैं और
वह नहीं झलक
पाता। इसलिए
कहीं खोजने न
जाएं, सिर्फ
चुप बैठें, मौन बैठें
और धीरे— धीरे
इस दिशा में
थोड़ा प्रयोग
करें कि कैसे
मन के विचार
क्षीण होते
चले जाएं, क्षीण
होते चले जाएं,
और एक दिन आ
जाए जिस दिन
मन में कोई
विचार न हो।
हम हों, वह
हो और बीच में
कोई विचार न
हो। बस उसी
क्षण मिलन हो
जाता है। और
यह भी कठिन
नहीं है बहुत।
कठिन है, बहुत
कठिन नहीं है।
कठिन तो है हां,
लेकिन
बहुत कठिन
नहीं है, असंभव
नहीं है।
कैसे
यह संभव होगा, एक
छोटा सा सूत्र,
और अपनी बात
मैं पूरी कर
दूंगा।
एक
छोटे से सूत्र
को ध्यान में
रख लें, यह
संभव हो जाएगा।
आधा घंटे को
चुपचाप बैठ
जाएं रोज
चौबीस घंटे
में। और कुछ
भी न करें, बस
मन को देखते
रहें, सिर्फ
देखते रहें, जस्ट
ऑब्जर्वेशन, सिर्फ देखते
रहें—यह हो
रहा है, यह
हो रहा है, यह
हो रहा है। मन
में यह विचार
आया, वह
विचार आया, आया—गया, आया—गया।
भीड़ लगी है, रास्ता चल
रहा है। बस
चुपचाप देखते
रहें, देखते
रहें, देखते
रहें। कुछ भी
न करें, माला
भी न फेरे, राम—राम
भी न जपें, मंत्र
भी न दोहराएं,
कुछ भी न
करें, बस
इस मन को
देखते रहें कि
ये विचार चल
रहे हैं, ये
चल रहे हैं, ये जा रहे
हैं, ये आ
रहे हैं।
रोकें भी न
किसी विचार को,
झगड़े भी न, दबाएं भी न, किसी विचार
को निकालें भी
न। क्योंकि
किसी विचार को
निकालने गए कि
फिर कभी न
निकाल पाएंगे,
असंभव है वह
बात। दबाया
किसी को, तो
फिर उससे कभी
छुटकारा न
होगा। वह छाती
में दबा हुआ
खड़ा ही रहेगा
सदा। लड़े किसी
से कि हारे।
लड़ना ही मत
विचार से! जो
विचार से
लड़ेगा वह
हारेगा।
क्यों? इसलिए
नहीं कि विचार
बहुत मजबूत है
और हम बहुत
कमजोर हैं।
इसलिए कि
विचार है ही
नहीं, छाया
है। और छाया
से लड़ने वाला
कभी नहीं जीत
सकता। आप बड़े
से बड़े दैत्य
से भी जीत
सकते हैं, लेकिन
किसी छाया से
लड़े, फिर न
जीत सकेंगे।
इसका यह मतलब
नहीं कि छाया
बहुत मजबूत है।
इसका कुल मतलब
कि छाया
वस्तुत: है ही
नहीं। उससे
लड़े कि बेवकूफ
बने, अपने
हाथ से मूढ़
बने, और गए,
और हारे, और मिटे।
लड़ना
मत,
जूझना मत, निर्णय मत
करना, रोकना
मत, चुपचाप
बैठ कर देखते
रहना मन को।
और अगर थोड़ा
साहस रखा और
भयभीत न हुए, और भागे न, और देखते
रहे......
क्योंकि
भय लगेगा।
क्योंकि जब मन
को देखने
बैठेंगे तो
पाएंगे, क्या
मैं पागल हूं?
अगर दस मिनट
एकांत में बैठ
कर मन में जो
चलता हो उसे
लिख डालें
ईमानदारी से,
तो पति अपनी
पत्नी को न
बता सकेगा, पत्नी अपने
पति को न बता
सकेगी, मित्र
अपने मित्र को
न बता सकेगा
कि यह मेरे
दिमाग में
चलता है। और
अगर बताया तो
घर भर के लोग
चौंक कर
देखेंगे और
कहेंगे कि
जल्दी
अस्पताल ले
चलो। ये बातें
तुम्हारे
दिमाग में
चलती हैं? हालांकि
जो कहेगा कि
तुम पागल
मालूम पड़ते हो,
वह भी दस
मिनट बैठेगा
तो यही उसको
भी पता चलेगा।
और जिस डॉक्टर
के पास वे ले
जा रहे हैं, अगर वह भी दस
मिनट बैठेगा
तो यही उसको
भी पता चलेगा।
भयभीत
न हुए अगर, भागे
न, डरे न, चुपचाप
देखते रहे......मन
बिलकुल पागल
जैसा मालूम
पड़ेगा। पागल
में और हममें
कोई बुनियादी
फर्क नहीं है,
सिर्फ
डिग्री का
फर्क होता है।
कोई अट्ठानबे
डिग्री का
पागल है, कोई
सौ डिग्री का,
कोई एक सौ
दो की भाप पर
निकल गया, आगे
चला गया है।
इसलिए तो देर
नहीं लगती है—एक
आदमी का
दिवाला निकला,
तब तक वह
ठीक था कल तक, अभी दिवाला
निकला, वह
पागल हो गया।
एक आदमी ठीक
था, उसकी
पत्नी मर गई, वह पागल हो
गया। एक आदमी ठीक
था, कुछ
गड़बड़ हुई, पागल
हो गया।
डिग्री का
फर्क है। एक
डिग्री इधर था,
जरा ही ताप
बढ़ गया, उस
तरफ हो गया।
पागलखानों
में जो हैं और
पागलखानों के
जो बाहर हैं, उनके
बीच दीवाल का
ही फासला है, ज्यादा
फासला नहीं है।
और कोई भी
आदमी फौरन
दीवाल के भीतर
हो सकता है। हम
सब उत्ताप के
करीब ही रहते
हैं, लेकिन
सम्हाले—सम्हाले
चलते हैं।
तो
जब बैठ कर
देखेंगे तो
लगेगा एकदम
मैडनेस, पागलपन।
पर साहस रखना
और देखते चले
जाना, मत
डरना, मत
भागना। तो
धीरे— धीरे, धीरे— धीरे
पागलपन क्षीण
हो जाता है।
सिर्फ देखने
से, कुछ भी
न करने से
धीरे— धीरे
भीतर एक नई
चेतना जगने
लगती है—देखने
वाले की, द्रष्टा
की, साक्षी
की— और विचार
खोने लगते हैं।
एक दिन आ जाता
है, निश्चित
आ जाता है, जब
विचार धीरे—
धीरे— धीरे
समाप्त हो
जाते हैं।
सिर्फ हम रह
जाते हैं और
कोई विचार
नहीं रहता।
सिर्फ चेतना
रह जाती है—एक
फ्लेम की तरह,
एक ज्योति
की तरह। जरा
भी कंपती नहीं,
जरा भी
हिलती नहीं।
बस उसी अकंप, अडोल, अचल
चेतना में वह
दर्पण बन जाता
है, जिसमें
प्रभु के
दर्शन होते
हैं।
परमात्मा
करे,
इस दिशा में
खयाल आ जाए।
मेरी
बातों को इतने
प्रेम और
शांति से सुना, उससे
बहुत
अनुगृहीत हूं।
और अंत में
सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं, मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
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