दिनांक
17 नवम्बर 1979;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
सूत्र:
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
सब
देवन को भर्म
भुलाना, अविगति हाथ
बिकाना।
पहला
पद है देई—देवा, दूजा
नेम—अचारा।।
तीजे पद
में सब जग
बंधा, चौथा अपरंपारा।।
सुन्न
महल में महल
हमारा, निरगुन सेज बिछाई।
चेला
गुरु दोउ सैन करत हैं, बड़ी
असाइस
पाई।।
एक
कहै चल तीरथ जइये, (एक)
ठाकुरद्वार
बतावै।
परम
जोति के देखे
संतो, अब
कछु नजर न आवै।।
आवागमन
का संसय
छूटा, काटी
जम की फांसी।
कह
मलूक मैं यही जानिके, मित्र
कियो अविनासी।।
दीनबंधु
दीनानाथ मेरी
तन हेरिए।।
भाई
नाहिं बंधु
नाहिं, कुटुम
परिवार नाहिं,
ऐसा
कोई मित्र
नाहिं, जाके ढिग जाइए।।
सोने
की सलैया
नाहिं, रुपे को रुपैया
नाहिं,
कौड़ी
पैसा गांठ
नाहिं, जासे कछु
लीजिए।।
खेती
नाहिं बारी
नाहिं, बनिज व्यौपार
नाहिं,
ऐसा कोऊ साहु नाहिं, जासों
कछु मांगिए।।
कहत मलूकदास, छोड़
दे पराई आस,
रामधनी पायके अब
काकी सरन
जाइए।।
यह
जीवन क्या है? निर्झर
है;
मस्ती
ही इसका पानी
है।
सुख—दुःख
के दोनों
तीरों से,
चल रहा
राह मनमानी
है।
कब
फूटा गिरि के
अंतर से?
किस
अंचल से उतरा
नीचे?
किन
घाटों से बह
कर आया
समतल
में अपने को
खींचे?
निर्झर
में गति है, यौवन
है;
वह आगे
बढ़ता जाता है।
धुन एक सिर्फ
है चलने की—
अपनी
मस्ती में
गाता है?
बाधा
के रोड़ों
से लड़ता;
वन के
पेड़ों से
टकराता।
बढ़ता
चट्टानों पर चढ़ता,
चलता
यौवन से
मदमाता।
लहरें
उठती हैं, गिरती
हैं,
नाविक
तट पर पछताता
है।
तब
यौवन बढ़ता है
आगे,
निर्झर
बढ़ता ही जाता
है।
निर्झर
में गति ही
जीवन है;
रुक
जाएगी यह गति
जिस दिन?
उस दिन
मर जाएगा मानव,
जग—दुर्दिन
की घड़ियां गिन—गिन।
निर्झर
कहता है—"बढ़े
चलो!
तुम
पीछे मत देखो मुड़कर।"
यौवन
कहता है—"बढ़े
चलो!
सोचो
मत होगा क्या
चलकर।"
चलना
है केवल चलना
है;
जीवन
चलता ही रहता
है।
मर
जाना है रुक
जाना ही,
निर्झर
वह झरकर
बहता है।
गौतम
बुद्ध से किसी
ने पूछा एक
सुबह, एक
भिक्षु ने, एक खोजी ने, एक सत्यार्थी
ने : मैं क्या
करूं? और
बुद्ध ने जो
उत्तर दिया, बहुत
आकस्मिक था, अनपेक्षित
था। बुद्ध ने
कहा : "चरैवेति,
चरैवेति"!
चलते रहो, चलते
रहो! रुको मत, पीछे लौट कर
देखो मत। आगे
की चिंता न
लो। प्रतिपल
बढ़े चलो।
क्योंकि गति
जीवन है।
गत्यात्मकता
जीवन है। और
जैसे दौड़ती
हुई पर्वतों
से नदी की धार
एक न एक दिन
चलते—चलते
सागर पहुंच
जाती है, ऐसे
ही तुम भी
चलते रहे तो
परमात्मा तक
निश्चित
पहुंच जाओगे।
न तो नदी के
पास नक्शा
होता, न
मार्गदर्शक
होते, न
पंडित—पुरोहित
होते, न
पूजा—पाठ, न
यज्ञ—हवन, फिर
भी पहुंच जाती
है सागर।
कितना ही भटके,
कितने ही
चक्कर खाए
पर्वतों में,
लेकिन पहुंच
जाती है सागर।
कौन पहुंचा
देता है उसे
सागर? उसकी
अदम्य गति!
चरैवेति, चरैवेति।
फिक्र नहीं
लेती, सोच—विचार
नहीं करती :
कितना भटकाव
हो गया, कितना
समय बीत गया, कितना और
समय लगेगा, ऐसा अधैर्य
नहीं पालती।
मदमाती, मस्त,
प्रतिपल
आनंदमग्न।
इससे बोझिल भी
नहीं होती कि
सागर अभी तक
क्यों नहीं
मिला? इसका
संताप भी उसकी
छाती पर भारी
नहीं हो पाता।
मिलेगा ही, ऐसी कोई गहन
श्रद्धा, ऐसी
कोई आस्था, मिलना
अनिवार्य है।
जैसे बीज
टूटता है एक
परम श्रद्धा
में कि फूल
बनेगा ही, ऐसे
ही नदी बहती
है एक परम
श्रद्धा में
कि सागर
मिलेगा ही।
इस
श्रद्धा का
नाम ही
आस्तिकता है, ईश्वर
को मानने का
नाम नहीं, मंदिर,
मस्जिद, गुरुद्वारे
में पूजा—पाठ
का नाम नहीं।
यह परम
श्रद्धा कि
यदि मैं चलता
ही रहूं, तो
एक न एक दिन
गंतव्य आ ही
जाएगा। गति है
तो गंतव्य
अनिवार्य है।
लोग लक्ष्य
बनाकर चलते हैं,
इससे भटक जाते
हैं।
लक्ष्य
कौन बनाएगा? तुम
बनाओगे। अपने
अज्ञान में
बनाओगे, मूर्छा
में बनाओगे, सुषुप्ति
में बनाओगे, स्वप्न में
बनाओगे।
लक्ष्य क्या
होगा? तुम्हारे
स्वप्न का ही
विस्तार
होगा। तुम्हारे
लक्ष्य में
तुम्हीं
प्रतिबिंबित
होओगे।
तुम्हारा
लक्ष्य
अस्तित्व से
मेल नहीं खाएगा,
तुम से मेल खाएगा। और
तुम अगर जानते
होते, तो
लक्ष्य की
जरूरत क्या थी?
तुम्हें
कुछ पता नहीं
है; तुम
अपने इस
अज्ञान में
लक्ष्य
निर्धारित करोगे,
यह पाना है,
वह पाना है,
तो भटकोगे।
अलक्ष्य
बढ़ते चलो!बहते
चलो! गति में
रहो! इतना भर
ध्यान रहे, अटकना
मत कहीं। भटको
कितने ही, भटकना
कितना ही, अटकना
मत! कोई तट, कोई
कूल—किनारा
आसक्ति न बने।
कितना ही
सुंदर हो तट, गीत
गुनगुनाते
गुजर जाना।
ठहर मत जाना, रुक मत जाना,
किसी पड़ाव
को मंजिल मत
समझ लेना!
धन्यवाद देना
तट को, उसके
सुंदर
वृक्षों को; पक्षियों के
गीत को, सुंदर
मौसम को, लेकिन
धन्यवाद देकर
आगे बढ़ जाना।
कहीं आसक्ति न
बने, लगाव
न बने, कोई
चीज जंजीर न
बने, कोई
मोह बंधन न
बने और तुम
बढ़ते ही रहो—अज्ञात
की ओर, अलक्ष्य
की ओर, अपरिचित
की ओर—तो
सुनिश्चित एक
दिन सागर
पहुंच जाओगे।
नदियों
को नक्शे दे
दो कि फिर
पक्का समझना
कि सागर नहीं
पहुंच
पाएंगी।
नक्शे ही उलझा
लेंगे। नक्शों
की उलझन ही
काफी हो
जाएगी। और नक्शों
ने ही आदमी को
उलझाया है।
हिंदू नक्शे, मुसलमान
नक्शे, ईसाई
नक्शे, जैन,
बौद्ध, सिक्ख,
कितने
नक्शे हैं!
दुनिया में
तीन सौ धर्म
हैं। तो तीन
सौ नक्शे हैं।
और तीन सौ धर्मो
के कम—से—कम
तीन हजार
संप्रदाय
हैं। तो नक्शों
में भी नक्शे
हैं। इन तीन
हजार नक्शों
में आदमी खो
गया है। जाए
तो जाए कहां? जब तक
निर्णय न हो
जाए कौन—सा
नक्शा ठीक है,
कौन—सा
मार्गदर्शक
ठीक है, किसके
पीछे चलूं, किसका हाथ गहूं, तब
तक आदमी सोचता
है जहां हूं, वहीं ठीक।
कम—से—कम
परिचित भूमि
पर हूं।
डबरा
बन गया है
आदमी। और जैसे
ही आदमी डबरा
बनता है, उसके
भीतर कुछ सड़ना
शुरू हो जाता
है। उसकी आत्मा
मरने लगती है।
जैसे ही आदमी
डबरा बनता है,
कब्र बन
जाती है। फिर
मजार है, फिर
जीवन में
दुर्गंध है, कीचड़ है।
कमल नहीं
खिलते फिर। फिर
सुवास नहीं
उठती। फिर गीत
नहीं, संगीत
नहीं। फिर
नाचे कौन? भागती
सरिता नाचती
है, सरोवर
नहीं नाचते।
हालांकि
सरोवर
सुरक्षित होते
हैं, चारों
तरफ से घिरे
कूल—किनारे
से। नदी
असुरक्षित
होती है। रोज—रोज
नयी असुरक्षा
में प्रवेश
करती है। रोज
नयी चट्टानों
को तोड़ती
है। नए मार्ग
खोजती है। नए
मार्ग बनाती
है—बनाती है
मार्ग और उन
पर चलती है।
सरोवर सुरक्षा
में ही मर
जाता है। और
नदी असुरक्षा
में ही एक दिन
सागर तक पहुंच
जाती है।
जिन मंज़िलों
में राहबरों
का गुज़र
नहीं
ले आयी
है वहां भी
मेरी गुमरही
मुझे।
कुछ
ऐसी भी मंजिलें
हैं,
जहां
मार्गदर्शकों
का काम नहीं।
जिन मंज़िलों
में राहबरों
का गुज़र
नहीं
ले आयी
है वहां भी
मेरी गुमरही
मुझे।
वहां
भटकने की आदत, भटकते
ही चले जाने
की आदत पहुंचा
देती है। वहां
वे पहुंच जाते
हैं, जो
फिक्र ही नहीं
लेते
शास्त्रों की,
सिद्धांतों
की। जो आचरण—संहिताओं
में अपने को बांधते
नहीं, वे
पहुंच जाते
हैं। और जो
अपने को आचरण—संहिताओं
में बांध लेते
हैं, चरित्र
की क्षुद्र
धारणाओं में
बांध लेते हैं,
नीति—नियम—मर्यादा
में आबद्ध हो
जाते हैं, वे
वहां नहीं
पहुंच पाते।
देखते
हो तुम, हमने
राम को अवतार
कहा लेकिन फिर
भी
पूर्णावतार
नहीं कहा। कौन—सी
कमी है राम
में कि उनको
हम
पूर्णावतार न
कह सके? मर्यादा।
वे मर्यादा—पुरुषोत्तम
हैं। वही कमी
है। तुमने
शायद ऐसे न
सोचा होगा। कि
मर्यादा के
कारण, अति
मर्यादा के
कारण ही वे
सीमित हो गए
हैं! आंशिक ही
रह गए हैं।
कृष्ण को हमने
पूर्ण अवतार
कहा है।
गुमराही।
कृष्ण का कोई
बंधन नहीं, कोई मर्यादा
नहीं; अमर्याद
हैं। न कोई
नक्शा है, न
कोई बंधा हुआ
आचरण है, न
कोई रीति—नियम
है। मुक्त
धारा। नृत्य
है, बांसुरी
है। और
प्रतिपल
बांसुरी बज
रही है और रास
रचा जा रहा
है।
कृष्ण
को हमने
पूर्णावतार
कह कर अद्भुत
काम किया है; पृथ्वी
पर कोई जाति
नहीं कर सकी।
दुनिया ने बहुत
सम्मान दिया
है अपने सद्पुरुषों
को, लेकिन
सभी को सम्मान
दिया है उनकी
मर्यादा के कारण।
हम अकेली कौम
हैं इस पृथ्वी
पर, जिसने
कृष्ण को
सर्वाधिक
सम्मान दिया
है, पूर्णावतार
कहा है, अमर्यादा
के कारण।
अमर्यादा का
दूसरा नाम है
मुक्ति। अमर्यादा
का दूसरा नाम
है : न कोई कूल, न कोई
किनारा; सागर
हो जाना।
राम
हैं गंगा।
पवित्र हैं
बहुत, पर सागर
नहीं। कृष्ण
सागर ही हैं।
समग्रता
और सागर की
तलाश ही
परमात्मा की
तलाश है।
ये
सूत्र बड़े
प्यारे हैं।
इन सूत्रों को
समझने की
कोशिश करना—
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
मलूक
कहते हैं, अब
मैं अनुभव में
समा गया हूं।
परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं किया। यह
नहीं कहा कि
मैं परमात्मा
में समा गया
हूं। कहा कि
अनुभव में समा
गया हूं।
क्योंकि
परमात्मा
शब्द का उपयोग
करो तो
द्वंद्व खड़ा
होता है, द्वैत
खड़ा होता है, दूरी बनती
है। मैं और तू
पैदा हो जाते
हैं। और परमात्मा
कोई व्यक्ति
नहीं है। और
अगर परमात्मा
व्यक्ति है तो
तुम उसमें
कैसे समा
सकोगे? और
समा भी गए तो
समाना क्षणिक
होगा, क्षणभंगुर
होगा, फिर
छूट जाना
पड़ेगा।
यही
तो हमारा
अनुभव है
प्रेम का।
जिनसे
तुम्हारा
प्रेम है, किन्हीं—
किन्हीं
क्षणों में
तुम एक—दूसरे
में लीन हो
जाते हो। बस, किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में!
फिर दूरी, बहुत
दूरी हो जाती
है। शायद पहले
से भी ज्यादा
दूरी हो जाती
है। क्षणभर
को पास आते हो,
निकट होते
हो, एक—दूसरे
में डूब जाते
हो, लीन हो
जाते हो, फिर
छिटक जाते हो;
छिटक—छिटक
जाते हो; यही
तो प्रेमी की
पीड़ा है। कि
चाहता है डूब
ही जाए, फिर
लौटे नहीं, मगर लौटना
पड़ता है।
जैसे
तुम पानी में
डुबकी लगाओ, लाख
तुम चाहो कि न लौटो, लेकिन
जल्दी ही
छटपटाहट होगी,
जल्दी ही
सांसें घुटने
लगेंगी, प्राणों
पर संकट आ
जाएगा। तुम न
भी चाहो तो भी
पानी के बाहर
निकल आओगे।
कितनी देर
पानी में
रहोगे? उतनी
देर भी तो
प्रेमी एक—दूसरे
में नहीं रह
पाते। छटपटहाट
शुरू हो जाती
है। पहले पाने
की छटपटाहट, डूब जाने की
छटपटाहट, फिर
निकल भागने की,
फिर दूर हो
जाने की, फिर
मुक्त हो जाने
की, फिर
स्वयं हो जाने
की आकांक्षा
जगती है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति
होता तो उसमें
भी छटपटाहट
पैदा होती।
उससे भी हम
भागते, उससे
भी बचते।
परमात्मा
व्यक्ति नहीं
है। परमात्मा
उस परम अनुभव
का नाम है, जहां
"मैं" मिट
जाता है। "तू—मैं"
नहीं, सिर्फ
"मैं" मिट जाता
है, सिर्फ
"मैं"
तिरोहित हो
जाता है, वाष्पीभूत
हो जाता है, कोई "मैं"
नहीं पाया
जाता। और
चूंकि "मैं"
नहीं पाया
जाता, इसलिए
"तू" कैसे
पाया जा सकता
है? न जहां
"मैं" है, न
जहां "तू" है, वहां क्या
है? उसको
अनुभव कहते
हैं मलूक। बस,
एक अनुभव है,
अस्तित्व
का, अपनी
निजता का, अपनी
समग्रता का।
चूंकि अपना ही
अनुभव है, इससे
फिर उससे
छूटने का कोई
उपाय नहीं—चाहो
तो भी उपाय
नहीं, संभावना
नहीं। डूबे सो
डूबे।
रामकृष्ण
कहते जैसे नमक
की पुतली को
कोई सागर में
उतार दे कि जा, सागर
की थाह ले आ!
नमक की पुतली
जैसे ही सागर
में गई कि
पिघलने
लगेगी। डूबने
लगेगी, बिखरने
लगेगी। थाह तो
क्या ले पाएगी,
जल्दी ही
सागर में गल
जाएगी। लौटकर
नहीं आएगी।
ऐसा ही अनुभव
है। अनुभव को
पद कहा। कहते
हैं :
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
अब मैं
उस परम अनुभव
में लीन हो
गया हूं, जिसको
कुछ लोगों ने
परमात्मा कहा है।
क्योंकि वह
आत्मा का परम
रूप है। और
जिसे कुछ
लोगों ने
निर्वाण कहा
है, क्योंकि
वहां अहंकार
बिल्कुल मिट
जाता है। जैसे
दीए का
निर्वाण हो
जाता है, दीया
बुझ जाता है, ऐसे अहंकार
बुझ जाता है।
इसलिए किसी ने
उसे निर्वाण
कहा है। और
किसी ने उसे
मोक्ष कहा है।
क्योंकि वहां
सब बंधन गिर
जाते हैं; मैं
के, तू के; शरीर के, मन
के, हृदय
के, विचार
के, भाव के;
सब बंधन गिर
जाते हैं। निबेंध
चैतन्य रह
जाता है। सब
सीमाएं गिर
जाती हैं, असीम
का अनुभव होता
है। किसी ने
उसे कैवल्य कहा
है, क्योंकि
वहां केवल
चेतना मात्र
बचती है, केवल
अनुभव मात्र
बचता है। और
कुछ भी नहीं
बचता। कौन अनुभव
कर रहा है, वह
भी नहीं बचता।
किसका अनुभव
हो रहा है, वह
भी नहीं बचता।
बस, दोनों
के बीच की
मिठास रह जाती
है। अनुभव
मात्र रह जाता
है; न तो
अनुभोक्ता और
न अनुभूत।
इसे
थोड़ा समझना।
हमारे
जीवन में तो
हमेशा
त्रिपुटी
होती है। जब
भी ज्ञान होता
है,
तो वहां तीन
होते हैं।
ज्ञानी, ज्ञान
और ज्ञेय।
प्रेम होता है
तो तीन होते
हैं। प्रेमी,
प्रेयसी और
प्रेम। दर्शन
होता है तो
तीन होते हैं।
द्रष्टा, दृश्य
और दर्शन।
हमारा तो सारा
जीवन इस त्रिपुटी
में बंधा हुआ
है।
लेकिन
एक ऐसी घड़ी है
परम अनुभव की, जहां
ज्ञाता नहीं
होता, ज्ञेय
नहीं होता, सिर्फ ज्ञान
की सतत धारा
रह जाती है, वर्षा होती
है। जहां
द्रष्टा नहीं
होता, दृश्य
नहीं होता, मात्र दर्शन
रह जाता है—शुद्ध।
जहां किनारे
नहीं रह जाते,
सरिता
किनारों से
मुक्त हो जाती
है। वही तो सागर
हो जाती है।
जब किनारे न
रहे तो सरिता
सागर हो जाती
है।
एक ऐसा
प्रेम है जहां
प्रेमी नहीं
होता, प्रेयसी
नहीं होती, बस प्रेम का
एक अद्भुत
अनुभव होता
है। जो सबको डुबा लेता
है, प्रेमी
को भी, प्रेयसी
को भी, दोनों
को अपने में
लीन कर लेता
है।
इसके
लिए अनुभव से
और प्यारा
शब्द क्या हो
सकता है?
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
भाव
गीतों का
समझती हूं न, पर
मैं साथ गाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती,
ज्योति
के पायल पहन
नक्षत्र—सी
मैं जगमगाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
अर्थ
समझूं मैं न—कड़ियों की
विकलता जानती
हूं
मैं
स्वरों के साथ
उठती आग को
पहचानती हूं।
पूर्णता
की प्यास ले
ज्यों सरि चले
सागर—मिलन को
है
तुम्हारे राग
में तृष्णा
वही—मैं मानती
हूं
लांघ
सीमा रिक्तता
की मैं चली पूर्णत्व
पाने
मैं
अपरिचित थी—पवन
की लय मुझे आई
बुलाने
और
मेरे फुल्ल मन
में भी पिकी
का दाह जागा
छोड़
घूंघट और
अकुलाहट उठी
मैं स्वर
मिलाने
मैं
सजीली प्यार—भीनी छांह—सी
हूं साथ जाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
मुग्ध
होठों बीच
सिमटी बंसरी—सी
मैं नहाती
दौड़ती
फिरती
तुम्हारे साथ
जीवन की गली
में
हूं घुली
जाती लहर—सी
मैं तुम्हारी
काकली में
प्राण
की यह रिक्त
तन्मयता—न रस
का अंत जैसे
जग उठा
हो मूर्ति का
ज्यों देवता प्रस्तरत्तली
में
वायु
चंचल प्राण का
किस मुक्ति का
मर्मर लिए है
आज
मेरा कंठ किस
मधु का
महासागर पिए
है।
ज्योति
यह आनंद की मन
की द्विधाएं
भस्म करती
गीत का लयभार
मेरे कंकणों
को रत किए है,
हो
शिथिल अवरोह
में—आरोह में
नभ चूम आती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
ज्योति—चंचल
आरती—जैसी
ध्वनित हो
थरथराती
देर तक
सुनती रही मैं
वाग्विहीना
स्वर
तुम्हारा
था न
गाने के लिए
मुझसे तनिक
आग्रह
तुम्हारा
लग रहा
था पर मुझे
मैं एक क्षण
भी रुक न सकती
प्रेरणा
से गति—समंत्रित
था विवश यह
गात सारा
छोड़
मंदिर मैं
निकल आई, रही
पूजा अधूरी
थी बड़ी
उन्मत्त
उत्कंठा नहीं
थी सह्य दूरी
मौन
पूजन था वहां—मुखरित
यहां था
व्यग्र अणु—अणु
थी
वहां निःशब्द
स्वीकृति अब
निनादित
प्रणति पूरी
मैं
पुलक—पूरित
खगी—सी सुख—पगी
बलिहार जाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
मैं
तुम्हारे गीत
की कोमल कड़ी
बन झूम जाती
भूल
जाती प्राण
गोपन के गुणों
की लाज भाती
भूल
जाता दिन घड़ी—भर
को अवज्ञाएं
तुम्हारी
था
अधिक कब पास
मेरे जो छिपा
पाती
तुम्हारी
खुल
पड़ी वह मूक थी
जो,
खिल उठी जो
वंचिता थी
लुट चली
उद्गार बनकर
जन्म से जो संचिता
थी
थी पड़ी
अवरुद्ध
निष्ठा की
अगति में जो
समर्पित
हो गई
परिपूर्ण
प्लावित
ग्रीष्म—सरि
जो रंजिता
थी
खुल गए
मीलित नयन
ज्यों स्नेह—व्याकुल
दीप बाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
मैं
वसंती वायु से
उठती लता—सी
कसमसाती
रूप
पाती रश्मि
मुझसे—सृष्टि
नव प्राणद
विपुलता
है यही
संगीत अंबर के
घनों में
पूर्ति भरता
भीगकर उस
तान से शारद
निशा अवदात
होती
है
वसंती तारकों
का राग यह पथत्ताप
हरता
बांध
लेता है
प्रकृति को
संचरण
पुलकावली का
गंध के परिप्रोत
से बनता सुमन
लघु तन कली का
इन
अनामी गीत का
मैं अर्थ समझी
हूं न अब तक
किंतु
रंग देता यही
मुख प्रति पवन
की अंजली का
मैं गुंथी
जाती इसी की
मुग्ध मीड़ों
में समाती
बिंब
से प्रतिबिंब—सी
मिलने चली मैं
राग—माती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
भाव
गीतों का
समझती हूं न, पर
मैं साथ गाती
मैं तुम्हारे
साथ गाती,
ज्योति
के पायल पहन
नक्षत्र—सी
मैं जगमगाती
मैं
तुम्हारे साथ
गाती।
एक ऐसी
घड़ी है समाधि
की,
समाधान की,
समाहित हो
जाने की; एक
ऐसा पावन क्षण
है तल्लीनता
का, तन्मयता
का, भावविमुग्धता का, जब
तुम नहीं
बचते। एक गीत
जरूर उठता है।
तुम्हारा गीत
नहीं, उसका
गीत! और उसका
भी कैसे कहें?
बस इतना ही
कहो कि एक गीत
उठता है। एक
गीत जो अस्तित्व
का है। एक
सुगंध जो न
मेरी, न
तुम्हारी, जो
समग्र की है, अखंड की है।
उस अखंड की
सुगंध को ही
हमने प्यारे—प्यारे
नाम दिए हैं।
मलूक
का नाम है :
अनुभव।
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
सब
देवन को भर्म
भुलाना, . . .
भूल
गए सब देवी—देवता,. . .
अविगति
हाथ बिकाना।
और अब
उसके हाथ बिक
गया हूं जिसकी
गति का कुछ पता
नहीं; जिसके
संबंध में कोई
भविष्य—वाणी
नहीं हो सकती;
कहां ले
जाएगा यह सागर,
कहां इस
यात्रा का अंत
होगा, असंभव
है कहना कुछ
भी। परमात्मा
अज्ञात ही
नहीं है, अज्ञेय
भी है। जान—जान
कर भी कहां
जान पाते हैं
हम उसे! गीत तो
गा लेते हैं
मगर अर्थ पकड़
में नहीं आता।
धुन तो गुनगुना
लेते हैं, मस्त
तो हो लेते
हैं, लेकिन
व्याख्या
नहीं होती, परिभाषा
नहीं होती।
व्याख्या और
परिभाषा वे करते
हैं
जिन्होंने
जाना नहीं।
बड़ी
अद्भुत बात
है! परमात्मा
की व्याख्या
करने में वे
पंडित बड़े
कुशल हैं, जिन्होंने
जाना नहीं।
जाना नहीं, इसलिए
व्याख्या
करना आसान है।
जिन्होंने जाना
है, उनके
लिए शब्द बहुत
छोटे पड़ जाते
हैं, अनुभव
बहुत बड़ा।
अनुभव फिर
शब्दों में
समाता नहीं।
इसलिए बेबूझ
पहेली है।
यहां अज्ञानी
व्याख्या
करते हैं और
ज्ञानी
अव्याख्य रह
जाते हैं।
बुद्ध
से जब भी किसी
ने पूछा ईश्वर
है या नहीं, वे
बात टाल जाते।
जिंदगीभर
बात टालते
रहे। कुछ ने
समझा कि शायद
उन्हें पता
नहीं, इसलिए
बात टालते हैं,
नास्तिक
हैं। हिंदू अब
तक यही मानते
जाते हैं कि
बुद्ध
नास्तिक हैं। इसलिए
जब भी कोई
पूछता है
ईश्वर है, तो
साफ जवाब
क्यों नहीं
देते? है
तो कहो है, नहीं
है तो कहो
नहीं है। इससे
तो कम से कम
चार्वाक
बेहतर। नहीं
है, ऐसा तो
कहता है।
लेकिन बुद्ध
चुप रह जाते
हैं। लेकिन यह
हिंदू
व्याख्या गलत
है। यह हिंदू
व्याख्या
पक्षपातपूर्ण
है। इस तरह की
व्याख्या के
कारण ही बुद्ध
को यहां से
हिंदुओं ने उखाड़
फेंका। अपने
ही सब से
सुंदरतम फूल
को हिंदू बर्दाश्त
न कर सके। और
यह कोई
हिंदुओं ने ही
किया, ऐसा
नहीं, यह
दुनिया भर का
अनुभव है।
यहूदियों
में जो
श्रेष्ठतम
फूल खिला, जीसस,
उसको
यहूदियों ने
ही सूली दे
दी। और यूनानियों
में जो सबसे
सुंदर कमल
खिला, सुकरात,
उसको यूनानियों
ने ही जहर
पिला दिया। और
हिंदुओं ने जो
ऊंचे से ऊंचा
शिखर छुआ, जो
गौरीशंकर
हिंदुओं की
चेतना का था, गौतम बुद्ध,
उसको ही उखाड़
फेंका।
हिंदुस्तान में
कोई नामलेवा न
रह गया। और अब
जो नए बौद्ध
हैं, वे
क्या कोई ख़ाक
बौद्ध हैं? वे सब
राजनीतिक चालबाजियां
हैं।
डाक्टर
अंबेडकर
जिंदगी भर कई
दफा विचार
करते रहे, कभी
सोचते ईसाई हो
जाएं, कभी
सोचते
मुसलमान हो
जाएं—एक बात
पक्की थी कि
हिंदू नहीं
रहना है। फिर
आखिर में उन्होंने
तय किया कि
बौद्ध हो
जाएं। मगर
डाक्टर
अंबेडकर को
क्या ध्यान का
पता, क्या
समाधि का पता?
कानूनविद
थे, तार्किक
थे, पंडित
थे; ब्राह्मणों
को हरा सकें, ऐसे महाब्राह्मण
थे, लेकिन
बुद्धत्व से
क्या लेना—देना?
बुद्ध से
क्या लेना—देना?
यह
राजनीतिक
चालबाजी थी।
हजारों
साल तक भारत
में बुद्ध का
नामलेवा नहीं
रहा। और अब जो
नामलेवा पैदा
हुए हैं, उनको
बुद्ध से कोई
प्रयोजन नहीं
है। वे बिल्कुल
नितांत झूठे
बौद्ध हैं। नव—बौद्ध
बिल्कुल झूठे
बौद्ध हैं।
अगर अंबेडकर ईसाई
होते तो ये
सारे के सारे
लोग ईसाई हो
जाते। अगर
अंबेडकर मुसलमान
होते तो ये
मुसलमान हो
जाते। इनको
कुछ लेना—देना
नहीं।
राजनीतिक दांवपेंच
में कौन—सी
बात लाभ की
होगी, वही
हिसाब है।
क्या
हुआ?
हमने बुद्ध
को क्यों इस
तरह विस्मृत
किया? हमारी
व्याख्या खा
गई। बुद्ध के
मौन को हम न समझे।
बुद्ध की
चुप्पी
आस्तिक की
चुप्पी है।
परम आस्तिक की
चुप्पी है।
बुद्ध नहीं
बोले, क्योंकि
बुद्ध ने जाना
कि नहीं तो
कहा ही नहीं
जा सकता, क्योंकि
ईश्वर है। और
हां कैसे कहूं,
क्योंकि
हां सीमा बना
देता है। हां
छोटा शब्द है।
उसे तो केवल
मौन में ही
कहा जा सकता
है।
और
कैसा
दुर्भाग्य कि
हिंदू भी न
समझ सके! जो इस
पृथ्वी पर
सबसे पुरानी
जाति है। और जिसके
पास उपनिषदों
जैसी संपदा
है। उपनिषद कहते
हैं : जो कहे
मैं जानता हूं, जान
लेना नहीं
जानता। और जो
कहे नहीं
जानता, उसके
पास बैठना, उठना, सीखना
उससे, क्योंकि
वह जानता है।
जिनके
पास उपनिषदों
जैसी अद्भुत
संपदा थी, वे
भी बुद्ध को न
पहचान सके।
उपनिषदों को
भी नहीं
पहचाने हैं, बुद्ध को भी
क्यों पहचानेंगे!
हम
अपने—अपने
अंधकार को
इतना जोर से पकड़े हैं
कि रोशनी आए
तो हम आंख बंद
कर लेते हैं।
हमारा अंधकार
से मोह बहुत
है।
बुद्ध
का चुप रह
जाना जीवनभर सिर्फ
इस बात का
प्रतीक है कि
बुद्ध कह रहे
हैं कि मत
पूछो, यह सवाल
मत पूछो। यह अतिप्रश्न
है। परमात्मा
के संबंध में
चुप्पी ही
उत्तर है। चुप
रहो! चुप हो
जाओ! जैसे मैं
चुप हुआ ऐसे
तुम भी चुप हो
जाओ। बुद्ध
कहते हैं, जैसे
मैं उत्तर
नहीं दे रहा
हूं, तुम
भी उत्तर मत
दो। मौन में तलाशो। और मौन
में ही उसे
पाओगे।
जिसे
मौन में पाया
जाता है, उसे
केवल मौन में
ही कहा जा
सकता है।
बुद्ध ने और
सब उत्तर दिए,
सिर्फ
परमात्मा के
संबंध में
उत्तर नहीं
दिया। वही एक
परम अनुभव है,
जो बिल्कुल
शब्दातीत है।
अविगति
हाथ बिकाना।
मलूक
कहते हैं, किस
दुनिया में
प्रवेश कर
गया! न आरपार
है, न
ओरछोर है। न
कोई सीमा है, न कोई शब्द
प्रकट कर सके।
ऐसा डूबा हूं,
ऐसा तल्लीन
हो गया हूं, ऐसा मदमस्त!
शराब का नशा
तो चढ़ता
है, उतर
जाता है, परमात्मा
का नशा चढ़ा सो
चढ़ा। फिर
उतरता नहीं। और
जिसने उसके
नशे को पी
लिया है, जिसने
उसकी शराब को
पी लिया है, वही
पवित्रतम है
इस पृथ्वी पर।
उसके डगमगाने
में ही मार्ग
बनते हैं।
उसके भटकने से
ही रास्ते
निर्मित हो
जाते हैं।
वो रिंदे—पाक़बाज़
हैं, छू ले
अगर हमें
दोज़ख़ की आगको भी
गुलिस्तां बनाएं हम
ऐसे भी
रिंद हुए हैं, ऐसे
भी पियक्कड़
हुए कि वही
अकेले पाकबाज
हैं, अकेले
वही पवित्र
हैं। अगर वे
नरक की अग्नि
को भी छू दें
तो वसंत हो
जाए। फूल ही
फूल खिल जाएं।
अंगारे उनके
हाथ के स्पर्श
से फूल हो
जाएं।
इस परम
अवस्था में, इस
मस्ती में कौन
याद रखेगा गणेशजी
को! कौन याद
रखेगा
ब्रह्मा—विष्णु—महेश!
और भारत में
तो तैंतीस करोड़
देवी—देवता
हैं। कौन
पड़ेगा इस
पंचायत में? इस झगड़े—झांसे
में? जिसने
उस परम को
अनुभव कर लिया,
उसके लिए सब
विलीन हो गए, सभी देवी—देवता
विलीन हो गए।
ये सारा देवी—देवताओं
का फैलाव
हमारी
विक्षिप्तता
का फैलाव है।
इतने धर्म
चाहिए पृथ्वी
पर! अगर
विज्ञान एक है,
तो धर्म भी
एक ही हो सकता
है। अगर सत्य
एक है, तो
धर्म भी एक ही
हो सकता है।
कैसे हिंदू, कैसे
मुसलमान, कैसे
जैन, कैसे
बौद्ध? हां,
भाषाएं अलग
हो सकती हैं, कहने के
माध्यम अलग हो
सकते हैं, अभिव्यंजनाएं अलग हो सकती
हैं, अभिव्यक्तियां
अलग हो सकती
हैं।
स्वभावतः। बुद्ध
बोलेंगे तो
पाली में
बोलेंगे, महावीर
बोलेंगे तो
प्राकृत में,
और मुहम्मद
बोलेंगे तो
अरबी में, और
जीसस बोलेंगे
तो अरेमैक
में और लाओत्सू
बोलेगा तो
चीनी में; स्वाभाविक!
और सबके
प्रतीक अलग
होंगे, सबके
काव्य अलग
होंगे, सबकी
उंगलियां अलग
होंगी लेकिन
चांद तो एक ही
है जिस तरफ
उंगलियां उठी
हैं। तुम चांद
को देखो, उंगलियों
को मत चबाओ!
और लोग हैं कि
उंगलियां चबा
रहे हैं।
उंगलियों की
पूजा चल रही
है। ये तैंतीस
करोड़ उंगलिया
हैं, उनकी
ही पूजा कर
रहे हो। ये
बच्चों के
खिलौने हैं, और बच्चों
के लिए उपयोगी
हैं।
जैसे
जब भारत आजाद
नहीं हुआ था
तो स्कूल की
किताबों में
होता था : "ग" गणेशजी
का। अब ग को
समझाने के लिए
गणेशजी
से ज्यादा
अच्छा प्रतीक
और क्या होगा!
बच्चे को
बिल्कुल गणेशजी
याद रह जाते
हैं। बच्चा
एकदम खिलखिलाने
लगता है उनको
देखकर। उसका
चित्त एकदम
प्रसन्न हो
जाता है। यह
सूंड हाथी की, ये
तोंद, यह
हाथ में
मोतीचूर के
लड्ड२०८ और
चूहे की सवारी!
क्या गज़ब
का इरादा था, पक्का पता
रहा होगा कि
कभी न कभी
पेट्रोल की कमी
हो जाएगी!
पहले ही से
इंतजाम कर
लिया। चाहे चल
न सकें, एक
इंच न चले
होंगे जब से
बैठे हैं चूहे
पर; और
चूहा भी या तो
रबर का रहा
होगा, या
कभी का मर
चुका होगा!
चूहे की
मुक्ति तो हो
ही गई होगी!
बच्चा
प्रसन्न हो
जाता है।
लेकिन वह भी
बात न रही!
आजादी के बाद
अब "ग" गणेशजी
का नहीं होता, "ग"
गधे का।
क्योंकि गधा "सेक्यूलर"
है। गणेशजी
में ज़रा
धर्म की बदबू
आती है। और
भारतीय
संविधान तो धर्म—निरपेक्ष
है।
बच्चे
को समझाना हो
तो "ग" किसी न
किसी को तो बनाना
ही पड़ेगा; गणेशजी
का बनाओ कि
गधे का बनाओ!
लेकिन "ग" को
समझाने के लिए
कोई प्रतीक
चाहिए। ऐसे ही
धर्म के जगत् में
हम सब बच्चे
हैं। वहां
प्रतीक चाहिए,
ये तैंतीस करोड़ देवी—देवता
बस प्रतीक
हैं। बहाने
हैं। उस परम
को शायद तुम
अभी न समझ पाओ,
उतनी ऊंची
आंख भी न उठा
पाओ, उतना
साहस न जुटा
पाओ, उतनी
अभी तुम्हारी प्रौढ़ता न
हो, उतनी
अभी तुम्हारी
परिपक्वता न
हो, तो चलो,
कोई छोटा—मोटा
इशारा सही, नहीं सूरज
मिले तो किरण
ही सही, और
न हो सूरज की
किरण तो दीए
की किरण भी
ठीक, क्योंकि
दीए की किरण
भी है तो सूरज
की ही किरण।
और दीए की
छोटी—सी लौ
में जो जलता
है, वह भी
उसी प्रकाश का
अंश। मगर जो
सूरज को देख ले,
फिर दीए को जलाए फिरे!
दिन को
तुम दीया बुझा
देते हो न!
सुबह होते ही
बुझा देते हो।
ऐसे ही जो
परमात्मा को
अनुभव कर लेता
है,
वह सब देवी—देवता
बुझा देता है;
दीए हैं ये,
रात के लिए
ठीक हैं। और
जिनका भरोसा
पूरा है कि
सुबह होने ही
वाली है, वे
शायद दीयों को
जलाएं भी नहीं,
वे सुबह की
प्रतीक्षा
करें। उसके
लिए साहस चाहिए।
मैं अपने
संन्यासी को
चाहता हूं
इतना ही साहस
हो उसमें।
क्या छोटी—मोटी
बातों से
उलझना।
क्योंकि
उलझना तो आसान
है फिर सुलझना
मुश्किल हो
जाता है। पकड़ना
तो आसान है, छोड़ना
मुश्किल हो
जाता है।
तुम
चीजों को ही
नहीं पकड़ते, चीजें
तुम्हें भी
पकड़ लेती हैं।
मैं
अपने एक मित्र
के साथ घूमने
जाता था। उनको
आदत थी कि कोई
भी मंदिर दिखाई
पड़े,
जल्दी से
सिर झुकाएं।
मैंने एक दिन
उनको कहा कि
भई, तुम्हारे
साथ मैं भी थक
जाता हूं, यह
बार—बार सिर
झुकाना! और
मंदिरों की इस
देश में कुछ कमी
है! दोत्तीन
घर निकले कि
फिर मंदिर, दो—चार घर
निकले कि फिर
मंदिर। न
मंदिर तो झाड़
के ही नीचे
बैठे हैं शंकरजी,
गणेशजी,
देवी, देवता,
न—मालूम
क्या—क्या!
तो
मुझे भी उनके
साथ खड़ा होना
पड़े। मैंने
कहा,
तुम्हारे
साथ मैं भी
पाप का
भागीदार
होऊंगा पीछे,
कि तुम
क्यों खड़े थे?
और यह क्या
तुमने आदत बना
रखी है! एकाध
मंदिर में चले
गए और जो
तुम्हें करना
हो, जितनी
बार करना हो, उतनी बार
झुक लिए, मगर
यह दिनभर!
उन्होंने कहा,
लगता तो
मुझको भी
अच्छा नहीं है,
लेकिन बचपन
से आदत हो गई
है, पिताजी
पकड़ा गए।
पिताजी तो चले
गए मगर आदत रह गई।
अब आप कहते
हैं तो ठीक है,
अब आप कहते
हैं तो ठीक ही
कहते होंगे।
और बात तो
मुझे भी लगती
है कि मुझे भी
बड़ी अड़चन होती
है दिनभर!
और पिताजी ऐसा
डरा गए हैं कि
कोई भी देवी—देवता
हो, सब की
पूजा करना।
वे
मुझे अपने घर
भी ले गए, उनका
घर देखा तो एक
छोटा—सा मंदिर
बना रखा है, उसमें न—मालूम
कितने देवी—देवता!
जो भी मिले, जो भी
मूर्तियां
मिल गयीं! और
यहां
मूर्तियों की
कोई दिक्कत है!
कोई भी गोल
पत्थर मिला, उसी को उठा
लाए। वही शंकरजी
हो गए। चंदन—मंदन
चढ़ा दिया, दो
फूल रख दिए, फौरन पूजा
शुरू हो गई।
तो वह कहते
हैं: इसमें भी घंटियां
बजाते—बजाते—जल्दी
भी कितनी करो,
मगर फिर भी
एक घंटा सुबह
लग जाता है।
सब पर कम से कम
पानी तो छिड़को,
फूल तो चढ़ाओ!
और फिर यह भी
डर रहता है कि
एकाध कोई छूट
जाएं, नाराज
हो जाएं, कुछ
से कुछ! तो
वैसे ही तो
जिंदगी में
मुश्किलें
हैं, अब
किसी को नाराज
भी नहीं कर
सकते! तो
मैंने उनसे
कहा, इनमें
से कुछ छांट
क्यों नहीं
देते! उसने
कहा कि छांटें
कैसे? किसको
हटाएं? जिसको हटाएं
वही नाराज हो
जाएगा। पर अब
आप कहते हैं
तो ठीक कहते
हैं, मैं
अब कोशिश
करूंगा, कि
कल से ऐसा हर
मंदिर के
सामने झुकने
की कोई जरूरत
नहीं है। आप
ठीक कहते हैं,
एक दफे सुबह
पूजा कर ली, ठीक है।
दूसरे
दिन मेरे साथ
निकले, पहला
ही मंदिर पड़ा,
मैंने कहा :
सावधान! मंदिर
आ रहा है! वे
बिल्कुल
सावधान होकर
मेरे साथ चले।
दस—पंद्रह कदम
मंदिर के आगे
निकल गए। फिर
मुझसे बोले, माफ करें, बड़ी बेचैनी
हो रही है! और
बड़ा डर भी लग
रहा है! और आज
सुबह बिल्ली
भी रास्ता काट
गई! मुझे जा कर
नमस्कार कर
लेने दें। कुछ
से कुछ हो जाए,
तो फिर आप
ही जिम्मेवार
होंगे!
उनकी
बेचैनी देख कर
मुझे दया आयी।
पकड़ना तो
आसान है, छोड़ना
फिर बहुत
मुश्किल है।
और हम कितने
देवी—देवताओं
को पकड़े
हुए हैं!
इसलिए जो
हिम्मतवर है,
वह तो पकड़ता
ही नहीं। वह
तो कहता है अब पकड़ेंगे
तो फिर एक को
ही। एक काफी
होना चाहिए।
क्या बूंद—बूंद!
पूरा सागर ही
क्यों नहीं
अपना कर लें? तो वह तो रात
के अंधेरे में
शायद दीया भी
नहीं जलाए।
वह तो
प्रतीक्षा
करेगा
परमात्मा की।
सौ—सौ
अंधियारी
रातों से, तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
मुख से
मुख—छवि पर
लज्जा का, झीना
परिधान कहीं
सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
दुनिया
देखी पर कुछ न
मिला, तुझको
देखा सब कुछ
पाया
संसार—ज्ञान
की महिमा से, प्रिय
की पहिचान
कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
जब गरजें
मेघ,
पपीहा पिक,
बोलें—डोलें
गुलजारों
में
लेकिन
कांटों की
झाड़ी में, बुलबुल
का गान कहीं
सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
संसार
अपार महासागर
मानव लघु—लघु
जलयान बने
सागर
की ऊंची लहरों
से चंचल जलयान
कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
देवालय
का देवता मौन, पर
मन का देव
मधुर बोले
इन
मंदिर—मस्जिद—गिरजा
से,
मन का भगवान
कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
शीतल
जल में
मंजुलता है, प्यासे
की प्यास
अनूठी है
रेतों
में बहते पानी
से,
हरिणी
हैरान कहीं
सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
सुंदर
हैं फूल, बिहग,
तितली, सुंदर
हैं मेघ, प्रकृति
सुंदर
पर जो
आंखों में बसा
उसी सुंदर का
ध्यान कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
उस एक
को बसा लो। बस
उस एक को पा
लेना सब पा
लेना है।
दुनिया
देखी पर कुछ न
मिला, तुझको
देखा सब कुछ
पाया
संसार—ज्ञान
की महिमा से, प्रिय
की पहिचान
कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
देवालय
का देवता मौन, पर
मन का देव
मधुर बोले
इन
मंदिर—मस्जिद—गिरजा
से,
मन का भगवान
कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
सुंदर
हैं फूल, विहग,
तितली, सुंदर
हैं मेघ, प्रकृति
सुंदर
पर जो
आंखों में बसा
उसी सुंदर का
ध्यान कहीं सुंदर
तेरी
मुस्कान कहीं
सुंदर
क्यों
छोटे—छोटे से
बंधना जबकि
विराट
तुम्हारा
होने को राजी
है। जबकि सब
तुम्हें मिल
सकता है, तब
तुम किन छोटे—छोटे
खिलौनों में
उलझे हो? और
खिलौनों में
काफी लोग उलझे
हैं! खिलौनों
में ही इतने
उलझ गए हैं
जिसका हिसाब
नहीं।
कहीं
रामलीला हो
रही है तो
नाटक में ही
लोग उलझे हैं।
ज्ञानी कहते
हैं सारा
संसार नाटक
है। और
अज्ञानी नाटकों
को भी सत्य
समझ लेते हैं।
गांव का कोई
लफंगा राम बन
गया है! उसके
ही पैर पड़ रहे
हैं,
वहीं फूल
चढ़ा रहे हैं।
मालूम है
उन्हें कि यह कौन
है, भलीभांति
मालूम है, मगर
अभी राम का
वेश पहने है, मुकुट
इत्यादि
बांधे है, बारात
निकल रही है, तो आरती
उतारी जा रही
है, फूल चढ़ाए
जा रहे हैं, चरण छूए
जा रहे हैं।
तुम नाटक को
भी सत्य समझ
लेते हो। तुम
पत्थर की
मूर्तियों को
सत्य समझ लेते
हो! तुम आदमी
के गढ़े
हुए
सिद्धांतों
को सत्य समझ
लेते हो? तुम
आदमी के रचे
हुए
शास्त्रों को
सत्य समझ लेते
हो? अगर
इतने जल्दी
तुम राजी हो
गए, तो परमात्मा
से वंचित
रहोगे। अगर
उसे पाना है
तो हिम्मत
करनी होगी—
सब
देवन को धर्म
भुलाना, अविगति
हाथ बिकाना।
पहला
पद है देई—देवा, . . .
यह
पहला पाठ, देई—देवा।
न—मालूम कितने
देवी और देवता
. . .
पहला
पद है देई—देवा, दूजा
नेम—अचारा।।
फिर
दूसरा पद है
कि नियम पालो, आचरण
साधो, व्रत
रखो, उपवास
करो, एकादशी
आ गई, कि पर्यूषण
आ गए, कि रमज़ान
का महीना आ
गया!
पहला
पद है देई—देवा, . . .
पहला
यह कि यह पूजो, गणेशजी
बैठे हैं! शंकरजी
बैठे हैं, इनकी
पूजा करो!
पत्थर पर फूल चढ़ाओ, सिर
झुकाओ।
अपने ही हाथ
से बनाए हुए
खिलौने, इनको
पूजो!
कैसा अंधापन
है! मगर पहला
पाठ ठीक। मलूकदास
कहते हैं, पहले
पाठ की तरह
ठीक है। दूजा
पाठ है कि
थोड़ा पहले से
महत्त्वपूर्ण
है, कि
थोड़ा जीवन
नियम—व्रत; थोड़ी जीवन
में मर्यादा,
संयम; थोड़ा
जीवन को
बांधकर चलना;
थोड़ा जीवन
को एक
व्यवस्था, संयोजन
देना। मगर यह
रहेगा ऊपरी।
क्योंकि इसका
आविर्भाव
तुम्हारे भीतर
से नहीं हो
सकता। यह वैसा
ही रहेगा जैसे
छोटे बच्चों
को हम कह देते
हैं कि ऐसा
करना तो वे वैसा
करते हैं।
एक
छोटा बच्चा
बारबार अपना
अंगूठा चूसता
था। उसकी मां
ने कहा कि देख—उसको
डरवाने
के लिए कहा, बच्चे
सिर्फ डर को
ही मानते हैं।
और जिन लोगों
का धर्म भी डर
पर खड़ा है, समझ
लेना बच्चे ही
हैं। बच्चे डर
को मानते हैं।
डर को जो
मानते हैं, वे बच्चे
हैं। उसकी मां
ने डराने के
लिए कहा—बहुत
दफे धमकाया, मारा, मगर
वह सुने ही
नहीं—उसको डरवाने
के लिए कहा कि
देख, अगर
ज्यादा
अंगूठा चूसेगा
तो तेरी हालत
कैसी होगी
मालूम है? अंगूठा
चूसेगा
तो पेट तेरा
एकदम बहुत बड?ा हो जाएगा!
तो वह घबड़ाया
कि कहीं पेट
बहुत बड़ा न हो
जाए। फिर
दूसरे दिन
मुहल्ले की एक
महिला आई, उसको
बच्चा होने
वाला है, पेट
उसका बहुत बड़ा
है। वह बच्चा
एकदम खिलखिला कर
हंसने लगा और
कहा कि मुझे
पक्का पता है
कि तुमने क्या
गड़बड़ की है।
उसकी मां थोड़ी
डरी। लेकिन अब
बात, बड़ा
मुश्किल है
उसको रोकना।
उसने कहा कि
अंगूठा चूसो,
और चूसो!
मैंने तो कान पकड़े, अब
कभी नहीं चूसूंगा।
अब तो
प्रत्यक्ष
प्रमाण भी मिल
गया।
बच्चा
अगर मान भी
लेगा तो भी
उसकी मान्यता
में कोई बोध
तो नहीं हो
सकता। भय होगा, या
लोभ होगा।
बच्चे को हम
पुरस्कार
देते हैं, या
भय देते हैं।
इसलिए नरक और
स्वर्ग हैं; वे बच्चों
के लिए हैं।
उनका कोई
अस्तित्व नहीं
है। न कहीं
कोई नरक है, न कहीं कोई
स्वर्ग है।
लेकिन बच्चों
के लिए क्या
करो, वे
नरक से ही मान
सकते हैं। खूब
डरवाओ
उनको कि नरक
में ऐसे—ऐसे सताए
जाओगे!
एक
राजनेता मरा।
कंजूस था, महाकंजूस
था। अपनी
पत्नी से बोला
कि देखो, नाहक
मेरे कपड़ों को
मेरे साथ मत
जलाना। अरे, जब जल ही रहे
हैं तो कपड़े
क्यों खराब
करने? यह
मेरी वसीयत
है। तो मुझे
तो नंगधड़ंग
ही चढ़ा देना!
पत्नी ने कहा
कि लोग क्या
कहेंगे! अरे, उन्होंने
कहा कि जब मैं
मर ही गया तो
अब क्या लोग
कहेंगे, मुझे
क्या लेना—देना!
जिंदगीभर
लोग क्या—क्या
कहते रहे, मैंने
फिक्र नहीं की,
अब मर रहा
हूं, अब
क्या फिक्र!
वह वसीयत में
लिखवा गया कि
मेरे कपड़े
नाहक मत
जलाना। बेकार
का खर्चा
करना!
मर रहा
है आदमी! और
फिर उसने कहा
अपनी पत्नी से
अब मुझे तो
पक्का पता ही
है कि मुझे
कहां जाना है, वहां
इतनी गर्मी
होगी कि कपड़ों
की वहां जरूरत
पड़ने वाली
नहीं! और कम से
कम ये गांधी
जो पकड़ा गए
हैं, खादी,
यह तो वहां
बहुत मुश्किल
पड़ेगी, इसका
पहनना ही
मुश्किल होगा,
मलमल हो तो
चल भी जाए।
मुझे पक्का
पता है कि मैं
कहां जा रहा
हूं। क्योंकि जिंदगीभर
जो मैंने किया
है, मैं
जानता हूं। जब
दिल्ली आ गया
तो नरक निश्चित
है! सो वहां आग
की लपटों में
जलना है। वहां
कहां ठंडक कि
खादी के कपड़े
पहने बैठे हुए
हैं। तू फिक्र
ही मत करना!
पत्नी को
संकोच तो बहुत
लगा, लेकिन
थी तो वह भी
आखिर कंजूस की
ही पत्नी और जिंदगीभर
का साथ और
सत्संग का असर
तो पड़ता ही
है। नहीं तो
सत्संग का सद्गुरुओं
ने इतना
प्रभाव क्यों
माना? उसने
भी हिम्मत कर दी
और नंगा ही
चढ़ा दिया
नेताजी को।
हालांकि लोगों
ने कहा कि बड़ा
गजब है! त्यागत्तपश्चर्या।
लोग भी अद्भुत
हैं! क्या—क्या
निकाल लेते
हैं कि त्यागत्तपश्चर्या!
कि देखो, क्या
त्यागी आदमी!
कैसा महात्मा
था!
नेताजी
तो मर गए।
तीसरे रोज रात
पत्नी सोयी थी
कि किसी ने
दरवाजा
खटखटाया, बड़े हड़बड़ा कर
उसने दरवाजा
खोला—कौन इतनी
रात आया? देखा
कि भूत खड़ा है,
पति का भूत।
पति ने कहा, निकाल, मेरे
ऊनी कपड़े
निकाल! पत्नी
ने कहा, हुआ
क्या? उसने
कहा, हुआ
क्या, सब
नेतागण वहां
पहुंच गए हैं,
उन सबने
मिलकर नरक को एयरकंडीशन
कर दिया। तो
मैं ठंड से
ठिठुरा जा रहा
हूं। खादी से
काम नहीं चलेगा,
तू ऊनी कपड़े
निकाल!
तुम्हारा
नरक भी कल्पना
है। तुम जैसी
चाहो, कल्पना
करो।
तुम्हारा
स्वर्ग भी
कल्पना है। तुम
जैसी चाहो
वैसी कल्पना
करो। बच्चों
को डराने के
लिए है? लेकिन
डर से कहीं
कोई जीवन
वस्तुतः
रूपांतरित
होता है?
एक
छोटा बच्चा आइस्क्रीम
खा रहा है। आइस्क्रीम
का दीवाना है।
आइस्क्रीम
मिल जाए तो
फिर न उसे
रोटी चाहिए, न
कुछ और चाहिए,
बस, आइस्क्रीम बहुत है।
दिन—रात आइस्क्रीम!
डाक्टरों ने
भी उसके पिता
को कह दिया है
कि इसके दांत
खराब हो
जाएंगे, सड़
जाएंगे, इसका
पेट भी खराब
हो जाएगा, इतनी
आइस्क्रीम
उचित नहीं है।
पिता भी
परेशान है कि
अब करना क्या?
तो डरवाने
के लिए पिता
ने कहा कि देख,
अगर ज्यादा आइस्क्रीम
खाएगा तो
अंधा हो
जाएगा।
उस
लड़के ने गौर
से पिताजी की
तरफ देखा और
कहा कि अच्छा
तो ज्यादा
नहीं खाऊंगा, कम—से—कम
उतनी तो खाने
दें कि जितने
में आपको
चश्मा लगाना
पड़ा, कम से
कम उतनी तो
खाने दें!
बहुत से बहुत
चश्मा लगेगा।
तब पिताजी को
खयाल आया कि
वह चश्मा लगाए
हुए हैं। यह
उन्होंने
सोचा ही नहीं
था कि बच्चा
यह तरकीब
निकालेगा। कि
कम से कम
चश्मा लगाने
तक तो खाने ही
दें! फिर आगे
का आगे देखा
जाएगा!
लोग
तरकीबें
निकाल लेंगे।
भय में से तो
तरकीबें
निकाल ही ली
जाएंगी। और
तुमने स्वर्ग
के प्रलोभन
दिए हैं : ऐसा
सुख मिलेगा, वैसा
सुख मिलेगा।
ये बच्चों को
समझाने की बातें
हैं, उनको
दंड दो और
पुरस्कार दो।
दंड और
पुरस्कार की
भाषा बचकानी
है, ये
प्रौढ़ व्यक्तियों
के लिए नहीं
हैं। इसलिए
उसको दूसरा पद
कहते हैं। ये
जो नियम हैं, आचार हैं, दूजा।
तीजे पद
में सब जब
बंधा, . . .
और
तीजा पद क्या
है?
पाखंड, जिसमें
सारा जग बंधा
हुआ है। लोग
करते कुछ हैं,
हैं कुछ और।
दिखाते कुछ और
हैं, हैं
कुछ और। जब वे
देवी—देवता की
भी पूजा कर
रहे हैं तब भी
देवी—देवता की
पूजा कर रहे
हैं, यह
पक्का मत
समझना। उनके
भीतरी
प्रयोजन बड़े और
हो सकते हैं।
अब
जैसे लक्ष्मीजी
की पूजा करते
हैं लोग, दीवाली
पर। उनको कोई
धर्म से लेना—देना
है! जुआरी भी
करते हैं। सटोरिए
भी करते हैं।
उनको कोई धर्म
से प्रयोजन है?
मगर एक बात
उनको बहुत
पुराने समय
में ही समझ में
आ गयी होगी कि
अगर विष्णुजी
को मनाना है, तो लक्ष्मीजी
के पीछे पड़ो!
अगर पति को
मनाना है तो
पत्नी को मना
लो, उतना
काफी है।
इसलिए लोग नेतागणों
के पास नहीं
पहुंचते, उनकी
पत्नियों के
पास पहुंच
जाते हैं, फूल,
फल, मेवा—मिष्ठान
ले कर। पत्नी
की सेवा कर दो,
बस
पर्याप्त है,
फिर सब ठीक
हो जाएगा।
धन की
आकांक्षा है!
और तुम कहते
हो इस देश को
धार्मिक देश!
दुनिया के
किसी देश में
धन की पूजा नहीं
होती। यहां
लोग नगद
सिक्कों को रख
कर दीवाली पर
पूजा करते हैं—और
यह धार्मिक लोगों
का देश है! धन
की पूजा से
ज्यादा
गर्हित और कोई
बात हो सकती
है! धन का
उपयोग करो; पूजा
कर रहे हो! धन
उपकरण है, साधन
है, साध्य
नहीं है।
लेकिन कैसे
पागल लोग हैं
कि धन की भी
पूजा चल रही
है! आरती
उतारी जा रही
है—रुपयों की!
सिक्कों की!
और अब तो
सिक्के भी नहीं
मिलते तो लोग
नोटों की गड्डियां
रख लेते हैं; क्या करें? कागजी
सिक्के और
कागजी ही पूजा
और कागजी ही
आदमी!
तीजे पद
में सब जग
बंधा, . . .
पाखंड
में सारा जग
बंधा हुआ है।
लोग नियम भी रखते
हैं,
आचरण भी
रखते हैं, उसमें
से भी तरकीबें
निकाल लेते
हैं। इसमें से
भी हिसाब
निकाल लेते
हैं कैसे
बचना! व्रत भी
रखते हैं, उसमें
से भी उपाय कर
लेते हैं।
मैं एक
जैन घर में
मेहमान हुआ। पर्यूषण
के दिन होते
हैं,
तो हरी
सब्जी की
मनाही है। मगर
देखते हो, होशियार
लोग कैसे हैं?
वे केला खा
रहे थे, मैंने
कहा, यह
तुम क्या कर
रहे हो? वे
कहने लगे, यह
हरा है ही
नहीं। हरी
सब्जी की
मनाही है, यह
तो पीला है।
अब
देखते हो तुम
आदमी की चालबाजियां? उन्होंने
हरी सब्जी का
मतलब हरा रंग;
तो केला
बराबर चलता
है। जैन बराबर
केले को लेते
हैं, केले
की सब्जी बना
लेते हैं पर्यूषण
के पर्व में।
और दूसरे फलों
में क्या अड़चन
है? वे हरे
हैं। और दूसरी
सब्जी में
क्या अड़चन है?
वे हरी हैं।
बस रंग की बात
है, निकाल
ली तरकीब। पर्यूषण
के पहले
सब्जियां
सुखा कर रख
लेते हैं जैन।
और फिर उन पर
पानी छिड़क
कर फिर सब्जी
बना ली। जब
तुम सुखाते हो
तो क्या करते
हो? पानी
ही उड़ रहा है, कुछ और हो
रहा है क्या? नाहक क्यों
उपद्रव कर रहे
हो, पहले
पानी उड़ाओगे,
फिर पानी छिड़क कर
फिर सब्जी
बनाओगे। तो
पुराने पानी
में क्या
हर्जा था, वह
इससे शुद्ध था
जो तुम डाल
रहे हो अब। वह
कम से कम
नैसर्गिक था।
मगर चालबाजियां!
मुसलमान
दिन में भोजन
नहीं करते रमज़ान
के महीने में; रात
में भोजन करते
हैं। और फिर
दिल खोलकर कर
लेते हैं! कि दिनभर के
लिए इंतजाम हो
जाए। दिनभर
उपवास और रात
भोजन! प्रयोजन
क्या है? किसको
धोखा दे रहे
हो? क्यों
धोखा दे रहे
हो?
जैन पर्यूषण
के दिन में
रात पानी नहीं
पीते। तो सूरज
ढलते—ढलते
एकदम पीते
रहते हैं पानी, डटकर
पी जाते हैं।
इतना पी जाते
हैं कि रात में
कई बार उठना
पड़ता है।
मैं
सोहन के घर
मेहमान था और
कुछ जैन साध्वियां
भी आकर मुझसे
मिलने के लिए
वहां मेहमान
हो गई थीं।
उन्होंने
डटकर पीया
होगा पानी, क्योंकि
रात तो पानी
पी नहीं सकते,
तो रातभर
फिर पेशाब
करनी पड़ेगी।
और जैन साध्वी
आधुनिक
टायलेट का
उपयोग नहीं कर
सकती।
शास्त्र में
नियम नहीं, क्योंकि
महावीर को पता
ही नहीं था कि
इस तरह के
टायलेट कभी
बनेंगे!
महावीर ने तो
ठीक ही नियम
दिया कि कभी
भी जल इत्यादि
में मल—विसर्जन
नहीं करना।
ठीक नियम है।
क्योंकि जिस
जल को पीना है,
वही तो
पोखरा गांव का,
वही तो
तालाब गांव का,
उसी को पीना
है, उसी
में स्नान
करना है, उसी
में मलमूत्र—त्याग
करोगे, तो
गंदगी
फैलेगी। यह
स्वच्छता का
सीधा नियम था।
तो महावीर ने
कहा कि जल में
किसी भी
स्थिति में मल—मूत्र
त्याग मत करना
लेकिन अब जैन
मुनि की और
जैन साध्वी की
बड़ी मुश्किल
है। वह
तुम्हारा जो
टायलेट है, वह तो छोटा—सा
कुआं समझो।
उसमें पानी
भरा हुआ है।
अब उसमें कैसे
मलमूत्र
विसर्जन करें?
शास्त्र के
विपरीत है। तो
जैन
साध्वियों ने
क्या किया
रातभर, थाली
में पेशाब कर—करके
जा कर सड़क पर
फेंकती रहीं!
वह जो सोहन के
यहां पहरेदार
था, वह बड़ा
हैरान हुआ।
सुबह जब मैं
सोहन के बगीचे
में गया तो
उसने कहा कि
गजब की बाइयां
ठहरी हैं!
मैंने कहा, क्या हुआ? उसने कहा, रातभर जब
देखो तब थाली
भरकर लिए चली
आ रही हैं, तो
मैं सोचूं भी
बात क्या है? फिर जब मैं
पास जाकर देखा
तब मुझे पता
चला कि बदबू आ
रही है, पेशाब
की! तो इन बाइयों
को हो क्या
गया है?
ये इस
तरह के उपद्रव
पैदा होंगे।
क्योंकि पाखंड!
जीवन को सहज
ढंग से न जिओगे, जबर्दस्ती
के नियम थोप
लोगे, जो
तुम्हारे
अनुकूल नहीं
हैं, तो
फिर उनसे बचने
के कोई उपाय
खोजने
पड़ेंगे। सामने
के दरवाजे पर
एक आदमी हो
तुम और पीछे
के दरवाजे से
तुम दूसरे
आदमी हो।
तीजे पद
में सब जग
बंधा, चौथा अपरंपारा।।
और
चौथी है असली
बात;
सहजता।
पाखंड से
विपरीत। न तो
देवी—देवता
हैं वहां—क्योंकि
देवी—देवता की
पूजा पाखंड
है। पाषाण की
पूजा पाखंड ही
हो सकती है। न
वहां "नेम—अचारा"।
न तो नियम और
आचरण हैं।
क्योंकि नियम
और आचरण ऊपर
से थोपोगे
तुम, तो
भीतर से कोई
रास्ता निकालोगे
कि कैसे बचते
रहें। एक हाथ
से छोड़ोगे,
दूसरे हाथ
से पकड़ोगे।
तीसरे
पद में सारा
जग बंधा है, पाखंड।
और चौथा पद है
अपरंपार का; चौथा पद है
सहजता का।
लेकिन यह सहजता
तभी संभव होती
है, जब
अनुभव के पद
में समाना हो
जाए। तब
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
जीता है। तब
तुम ऐसे ही
सहज हो जाते
हो जैसे पशु—पक्षी
हैं, वृक्ष
हैं, नदी—पहाड़
हैं, चांदत्तारे हैं, तुम
जबर्दस्ती
अपने ऊपर कोई
चीज थोपते
नहीं। तुम्हारे
चैतन्य से जो
विकसित होता,
उसीके अनुकूल
जीते हो।
तुम्हारी
चेतना एक
दर्पण हो जाती
है। उस दर्पण
में जो झलकता
है, वही
तुम्हारा
शास्त्र है।
और यह सारा
अस्तित्व उसी
प्यारे का
विस्तार हो
जाता है। उसी
परमात्मा का
विस्तार हो
जाता है। फिर
तुम सोच—सोच
कर, हिसाब
लगा—लगा कर
व्यवहार नहीं
करते। फिर
चालबाजी, कुशलता,
होशियारी, पांडित्य, इनकी कोई
जरूरत नहीं रह
जाती।
तुम्हारा
व्यवहार
निर्दोष होता
है।
जो इस
चौथे में जीएगा, उसके
लिए द्वार खुल
जाते हैं
परमात्मा के
असली मंदिर
के।
सुन्न
महल में महल
हमारा, निर्गुन सेज बिछाई।
वह
शून्य के महल
में प्रविष्ट
हो जाता है।
जहां स्वयं
निर्गुण उसके
लिए सेज बिछाता
है। स्वयं
परमात्मा उसे
अपने में लीन
कर लेता है।
स्वयं
परमात्मा
द्वार खोल
देता है। सारा
अस्तित्व
उसके लिए
अनावृत हो
जाता है।
कल
मोतियों को
रोल दिया साक़ी
ने
सोने
में मुझे तोल
दिया साक़ी
ने
ये सुनके कि
खुलता नहीं मक़सूदे—हयात
मैख़ाने का
दर खोल दिया साक़ी ने
मधुशाला
का द्वार
स्वयं
परमात्मा खोल
देता है।
मस्ती बरस
जाती है। आनंद
की अहर्निश
धाराएं बहने
लगती हैं।
अमृत का
आविर्भाव
होने लगता है।
चेला
गुरु दोउ सैन करत हैं, बड़ी
असाइस
पाई।।
फिर तो
कहने को कुछ
बचता नहीं।
गुरु इशारा
करता है शिष्य
को कि देख! शिष्य
गुरु को इशारा
करता है कि
देख रहे हो! अब
तो सैन होती
है,
इशारे होते
हैं। अब तो
आंख की बात हो
जाती है। अब
जबान को बीच
में नहीं लाना
पड़ता। आंखों—आंखों
में बात हो
जाती है, आंखों
के इशारों में
बात हो जाती
है।
चेला
गुरु दोउ सैन करत हैं, . . .
दोनों
मुस्कराते
हैं एक—दूसरे
की तरफ देखकर।
कहें तो क्या
कहें? दोनों
ही स्वाद ले
रहे हैं।
. . . बड़ी असाइस
पाई।।
बड़ा
चैन मिला। बड़ा
आनंद बरसा।
एक
कहै चल तीरथ जइए, (एक)
ठाकुरद्वार
बतावै।
परमजोति के
देखे संतो, अब
कछु नजर न आवै।।
लोग
कहते हैं, कोई
कहते हैं तीरथ
चलो, कोई
कहते हैं कि
चलो मंदिर चलो,
कोई कहता है
काबा, कोई
कहता है काशी,
लेकिन मलूकदास
कहते हैं :
परमजोति के
देखे संतो, अब
कछु नजर न आवै।।
अब
क्या
ठाकुरद्वारा? अब
क्या काबा और
क्या काशी? अब क्या
कुरान और क्या
गीता? अब कहां
आना है, कहां
जाना है, परम—ज्योति
का दर्शन हो
गया है, अब
तो वही ज्योति
सब तरफ दिखाई
पड़ती है।
आवागमन
का संसय
छूटा, काटी
जम की फांसी।
और
जिसने उस परम
ज्योति को देख
लिया, अब
मृत्यु नहीं
है उसके लिए।
मृत्यु
समाप्त हो गई।
आवागमन
का संसय
छूटा, . . . अब
आना नहीं होगा
वापिस जगत्
में। क्योंकि
जगत् एक पाठशाला
है, चौथा
पाठ अगर सीख
लिया तो।
. . . चौथा
अपरंपारा।।
अगर उस
अपरंपार को
अनुभव कर लिया, असीम
को अनुभव कर
लिया, उस
अव्याख्य को,
अविगत को
अनुभव कर लिया,
उस
अनिर्वचनीय
को अनुभव कर
लिया तो फिर
लौट कर नहीं
आना होगा, तो
बात खत्म हो
गई!
विद्यार्थी
जब उत्तीर्ण
हो जाता है तो
वापिस उसी
कक्षा में
नहीं लौटता।
कह
मलूक मैं यही जानिके, मित्र
कियो अविनासी।।
मलूक
कहते हैं कि
मैंने फिर और
दूसरी
मित्रताएं
नहीं बांधीं।
क्या बांधो
मंदिर, मस्जिद,
पंडित—पुजारी,
मंत्रत्तंत्र,
तीरथ! मैंने
ये सारी
मित्रताएं
नहीं बनाईं।
मैंने तो उसी
एक अविनाशी को
अपना मित्र
बनाया। और जिसने
उसे मित्र
बनाया, उसने
सब पाया।
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो!
ज़मीन
है न बोलती,
न
आसमान बोलता
जहान
देखकर मुझे
नहीं ज़बान
खोलता,
नहीं
जगह कहीं जहां
न
अजनबी गिना
गया,
कहां—कहां
न फिर चुका
दिमाग़—दिल
टटोलता,
कहां
मनुष्य है कि
जो
उमीद
छोड़कर जिया,
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो;
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो!
तिमिर
समुद्र कर सकी
न पार
नेत्र की तरी,
विनष्ट
स्वप्न से लदी,
विषाद
याद से भरी,
न कूल
भूमि का मिला,
न कोर
भोर की मिली
न कट
सकी,
न घट सकी
विरह—घिरी
विभावरी,
कहां
मनुष्य है
जिसे
कमी
खली न प्यार
की,
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
दुलार लो
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो!
उजाड़ से
लगा चुका
उमीद
मैं बहार की,
निदाघ
से उमीद
की
वसंत
के बयार की
मरुस्थली
मरीचिका
सुधामयी
मुझे लगी,
अंगार
से लगा चुका
उमीद
मैं तुषार की;
कहां
मनुष्य है
जिसे
न भूल
शूल—सी गड़ी?
इसीलिए
खड़ा रहा
कि भूल
तुम सुधार लो!
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो!
पुकारकर
दुलार लो, दुलारकर सुधार लो!
मित्रता
बनानी हो तो
बस उस एक से।
पुकारना हो तो
बस उसे।
प्रतीक्षा
करनी हो बस
उसकी पुकार की।
और खड़े रहना, डटे
रहना, पुकारते
ही रहना! जैसे
सौ डिग्री पर
पानी आकर वाष्पीभूत
हो जाता है, ऐसे ही सौ
डिग्री पर
प्रार्थना
आकर पूरी होती
है।
दीनबंधु
दीनानाथ मेरी
तन हेरिए।।
कहे ही
चले जाना कि
देखो मेरी
तरफ। कब तक
मेरी तरफ नजर
न उठाओगे? पुकारते
ही रहना, उसके
द्वार पर
दस्तक देते ही
रहना।
दीनबंधु
दीनानाथ मेरी
तन हेरिए।।
मेरी
भी तरफ देखो।
माना कि बड़ा
विस्तार है
संसार और बहुत
कुछ तुम्हें
देखने को है, लेकिन
मैं खड़ा
रहूंगा, मैं
प्रतीक्षा
करूंगा।
खड़ा
रहा इसीलिए कि
तुम मुझे
पुकार लो!
पुकार
कर दुलार लो, दुलार
कर सुधार लो!
अड़े
रहना! डटे
रहना!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते!
सेतु सूलों का
बना बांधा
विरह—वारीश का
जल,
फूल की
पलकें बनाकर
प्यालियां
बांटा हलाहल;
दुःखमय सुख
सुखभरा दु:ख—
कौन
लेता पूछ, जो
तुम,
ज्वाल—जल
का देश देते!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते!
नयन की नीलमत्तुला
पर मोतियों से
प्यार तोला,
कर रहा
व्यापार कब से
मृत्यु से यह
प्राण भोला!
भांतिमय कण
श्रांतिमय
क्षण
थे
मुझे वरदान, जो
तुम
मांग
ममता शेष
लेते!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते!
पद चले, जीवन
चला, पलकें
चलीं, स्पंदन
रही चल,
किंतु
चलता जा रहा
मेरा क्षितिज
भी दूर धूमिल!
अंग अलसित
प्राण
विजड़ित
मानती
जय,
जो तुम्हीं
हंस
हार आज अनेक
देते!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते
घुल गई
इन आंसुओं में
देव,
जाने कौन
हाला,
झूमता
है विश्व पी—पी
घूमती
नक्षत्र माला;
साध है
तुम
बन सघन
तम
सुरंग
अवगुंठन उठा,
गिन
आंसुओं की रेख
लेते!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते!
शिथिल
चरणों के थकित
इन नूपुरों
की करुण
रुनझुन
विरह
का इतिहास
कहती, जो कभी
पाते सुभग सुन;
चपल पद
धर
आ अचल
उर!
वार
देते मुत्ति, खो
निर्वाण
का संदेश
देते!
मेरा
सजल मुख देख
लेते!
यह
करुण मुख देख
लेते!
पुकारते
रहो! प्यास को प्रार्थना
बनाते रहो!
आता है, निश्चित
आता है अतिथि।
लेकिन आता है
तभी जब तुम्हारी
पुकार समग्र
हो जाती है।
अधूरी—अधूरी
नहीं। जब
तुम्हारे
पूरे प्राण
संलग्न हो
जाते हैं। और
इस पुकार को
ऐसे बांटते मत
फिरो, कि
थोड़ी—सी गणेशजी
को दे आए, थोड़ी—सी
शिवजी को दे
आए, थोड़ी—सी
महेशजी
को दे आए, बांटते
मत फिरो। इस
पुकार को सघन
करो! इस पुकार
को त्वरा दो, तीव्रता दो!
इस पुकार को
एकाग्रता दो!
उस एक के लिए
ही पुकारो!
बस एक ही भर
देगा! एक ही
पर्याप्त है।
उस एक के पा
लेने पर सब पा
लिया जाता है।
दीनबंधु
दीनानाथ मेरी
तन हेरिए।।
भाई
नाहिं बंधु
नाहिं, कुटुम
परिवार नाहिं,
ऐसा
कोई मित्र
नाहिं, जाके ढिग जाइए।।
मेरा
कोई भी नहीं
है। नहीं कि
भाई नहीं थे, नहीं
कि बंधु नहीं
थे, नहीं
कि परिवार
नहीं था, मगर
ये होना कुछ
होना नहीं है।
सब धोखा है।
सब नाते—रिश्ते
बस शब्दों की
बातें हैं।
सोने
की सलैया
नाहिं, . . .
सोने
का पांसा मेरे
पास नहीं, . . .
रूपे को
रुपैया नाहिं, . . .
मेरे
पास कुछ भी
नहीं है।
कौड़ी
पैसा गांठ
नाहिं, जासे कछु
लीजिए।।
तुम्हारे
द्वार पर खड़ा
हूं,
देने को
मेरे पास कुछ
भी नहीं है।
लेने को शून्य
है मेरे पास, पूरा हृदय
मेरा शून्य है
कि तुम पूरे
आओ और समा जाओ
और देने को मेरे
पास कुछ भी
नहीं। यह
विनम्रता ही
समर्पण है।
धार्मिक
आदमी में
अहंकार होता
है। वह कहता
है,
मैंने इतने
व्रत किए, इतने
उपवास किए, इतने पुण्य
किए, इतनी
तीर्थ—यात्रा
की, इतनी
बार पूजा करता
हूं, इतनी
बार नमाज पढ़ता
हूं, इतनी
बार विष्णु सहस्त्रनाम
का पाठ करता
हूं; अकड़
होती है, अहंकार
होता है। वह
यह कह रहा है
कि मेरे पास सोने
की सलैया है, रूपे का रुपैया
है, खरीद
लूंगा
तुम्हें!
परमात्मा
खरीदा नहीं जा
सकता। हां, तुम बिक जाओ
उसके हाथ तो
बिक जाओ, उसे
खरीद नहीं
सकते।
ठीक
कहते मलूकदास, सीधी—सादी
बात, सीधे—सादे
शब्दों में पर
गहरी, अति
गहरी—
सोने
की सलैया
नाहिं, रूपे को रुपैया
नाहिं,
कौड़ी
पैसा गांठ
नाहिं, जासे कछु
लीजिए।।
इसलिए
लेने को मेरी
कोई सामर्थ्य
नहीं। तुम्हें
कुछ दे सकूं, इसका
कोई उपाय
नहीं। सिर्फ
झोली फैलाता
हूं; आओ और बरसो!
तुम्हारी
करुणा का
भरोसा है, अपने
कृत्यों का
नहीं। अपने
गुणों का कोई
भरोसा नहीं है
सिर्फ
तुम्हारी
क्षमा का
भरोसा है।
इस भेद
को ठीक से समझ
लेना।
जो
व्यक्ति कहता
है मैं ऐसे—ऐसे
गुणों का धनी
हूं,
वह कभी
परमात्मा को
नहीं पा
सकेगा। जो
कहता है, मेरे
क्या गुण, दुर्गुण
ही दुर्गुण
हैं, पाप
ही पाप मेरे
पल्ले हैं, भूलें ही
भूलें हैं, कांटे ही
कांटे मेंरे
पास हैं, फूल
तो मेरे भीतर
खिलता ही नहीं,
फूल तो तुम
उतरो तो खिलें;
तुम्हें घर
में बिठाने के
लिए भी स्थान
नहीं है, तुम्हारे
योग्य आसन भी
नहीं है, कहां
से लाऊं!
सोने
की सलैया
नाहिं, रुपे को रुपैया
नाहिं,
फिर भी
पुकारता हूं
कि आओ। बस
प्रेम है, प्रार्थना
है, पुकार
है।
खेती
नाहिं बारी
नाहिं, बनिज
व्यौपार
नाहिं,
ऐसा कोऊ साहु
नाहिं, जासों कछु मांगिए।।
कहत मलूकदास, छोड़
दे पराई आस, . . .
मलूकदास
कहते हैं : छोड़ दो
सारी आशाएं, छोड़
दो पराए की
आशाएं, कोई
सहयोग नहीं
देगा। न कोई
पंडित वहां
पहुंचा सकता
है, न कोई
पुरोहित वहां
पहुंचा सकता
है, न कोई
दान वहां
पहुंचा सकता
है, न कोई
धर्म वहां
पहुंचा सकता
है। कहत मलूकदास, छोड़ दे पराई
आस, . . .
रामधनी पायके अब
काकी सरन
जाइए।।
अरे, अगर
शरण ही जाना
हो तो कहां
छोटे—मोटे
साहूकारों की
शरण जा रहा है?
उसकी ही शरण
जा! उस एक के ही
चरण गह!
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो
तीरगी कैफ़े—नूर
देती है
ज़ीस्तकी राहमें हर—इक
ठोकर
ज़िंदगी का
शऊर देती है
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो,
. . . अगर
तुम्हारे
मस्तिष्क में
और हृदय में
देखने की
क्षमता हो, दृष्टि हो, दर्शन की
पात्रता हो, अगर तुम आंख
के परदे काट
सको, दृष्टि
को निखार सको,
अगर आंख का
दर्पण बना सको,
. . .
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो
तीरगी कैफ़—नूर
देती है
तो फिर
अंधियारा भी
प्रकाश हो
जाता है। और
अगर देखने की
क्षमता ही न
हो तो प्रकाश
भी अंधेरा है।
सुबह भी सांझ
है,
जिंदगी भी
मौत है। और
अगर देखने की
क्षमता हो, ष्ठ
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो
तीरगी कैफ़—नूर
देती है
तो
अंधेरे में से
भी ज्योति की
किरणें फूटने
लगती हैं, और
मृत्यु में से
भी अमृत का
दर्शन होने
लगता है। और
जहर भी जहर
नहीं रह जाता
अगर देखने की
क्षमता ही न
हो तो प्रकाश
भी अंधेरा है।
सुबह भी सांझ
है, जिंदगी
भी मौत है। और
अगर देखने की
क्षमता हो, पृष्ठ
ज़ीस्तकी राहमें हर—इक
ठोकर
ज़िंदगीका
शऊर देती है
तो
जिंदगी की
ठोकरें ठोकरें
नहीं रह जातीं
बल्कि जिंदगी
को जीने की
शैली सिखाती हैं।
हर ठोकर
सौभाग्य हो
जाती है। हर
राह में पड़ी
चट्टान सीढ़ी
बन जाती है।
हर कांटा फूल
बन जाता है।
शत्रु भी फिर
मित्र मालूम
होते हैं। दुर्दिन
भी सुदिन और
दुर्भाग्य
में भी सौभाग्य
के दर्शन होने
लगते हैं।
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो
तीरगी कैफ़े—नूर
देती है
ज़ीस्तकी राहमें हर—इक
ठोकर
ज़िंदगीका
शऊर देती है
इसलिए
असली बात एक
है : सिर्फ
देखने की कला
आनी चाहिए। यह
देखने की कला
कैसे आए? कौन—सी
बाधाएं हैं जो
तुम्हें
देखने से
असमर्थ किए
हैं?
पहली
बाधा है
तुम्हारा
अहंकार, कि
तुमने अपने को
समझ रखा है कि
मैं कुछ हूं।
फिर तुमने कुछ
अपने को किस
कारण समझा है,
यह गौण है।
कोई
प्रधानमंत्री
है, कोई
राष्ट्रपति
है, कोई
धनी है, कोई
ज्ञानी है, कोई त्यागी
है, कोई
महात्मा है, तुमने किस
कारण अपने को
कुछ समझा है, यह बात गौण
है। जब तक
तुमने अपने को
कुछ समझा है
तब तक
तुम्हारी आंख
पर पर्दा है।
परमात्मा तो
नग्न है, प्रकट
है, आंख पर
पर्दा
तुम्हारी है।
तुम्हीं नकाब
डाले बैठे हो,
तुम्हीं
बुर्का ओढ़े
बैठे हो। और
बुर्का
तुम्हारे
अहंकार का है।
अहंकार
तो पहली अड़चन
है। अहंकार को
हटाना ही होगा
तो ही आंख देखने
में समर्थ हो
सकेगी। इसलिए
अहंकार जिन—जिन
चीजों के
सहारे खड़ा है, उन—उन
से अपना
तादात्म्य
छोड़ दो। मैं
नहीं कहता कि
धन छोड़ दो, मैं
कहता हूं सिर्फ
तादात्म्य
छोड़ दो। समझो
अमानत है, अपना
नहीं कुछ। सबै
भूमि गोपाल
की। उसका है।
एक
सूफी फकीर के
दो बेटे थे, जुड़वां
बेटे। बहुत
प्रेम था उसे
उन बेटों से।
फकीर मस्जिद
गया था रोज की
भांति और दो
सांड लड़ते हुए
रास्ते पर आए
और दोनों
बच्चे उसमें
कुचल गए।
फकीर
घर लौटा।
पत्नी ने उसे
भोजन करवाया—बताया
ही नहीं कि
बच्चे मर गए।
जैसे रोज भोजन
कराती थी—वैसे
ही पंखा झला, भोजन
लगाया, फकीर
को भोजन
कराया। फकीर
ने बार—बार
पूछा कि बेटे
नहीं दिखाई
पड़ते।
क्योंकि वे
रोज उसके भोजन
के समय उसके
पास आ जाते, उसकी थाली
में बैठ जाते।
पत्नी ने कहा
कि भोजन कर
लें, फिर
मैं बेटों के
संबंध में कुछ
बताऊं।
मगर न तो
पत्नी की आंख
से आसूं
टपका, न
उसके चेहरे से
कोई खबर मिली
कि कुछ
दुर्घटना हो
गई है। और उसने
कुछ कहा नहीं
क्योंकि फिर
पति भोजन न कर
पाएगा।
जब
भोजन कर चुका
तो पति ने
पूछा, अब बोलो,
कहां हैं
मेरे दोनों
बेटे? दिखाई
नहीं पड़ते, घर में उनका
शोरगुल भी
सुनाई नहीं
पड़ता। कहीं खेलने
गए हैं? पत्नी
ने कहा, आप
आए, दूसरे
कमरे में
मौजूद हैं, मिला देती
हूं। उसने
चादर ओढ़ा
दी थी दोनों
की लाशों को, चादर उघाड़
दी।
फकीर
तो एकदम ठगा
रह गया, उसने
कहा, यह
क्या? उसकी
आंखों से तो
आंसू झलकने
लगे, उसने
कहा, यह
क्या? पत्नी
ने कहा कि
रुकिए, जिसने
दिया था उसने
वापिस ले लिया,
आप किसलिए
परेशान हो रहे
हैं? आपको
मालूम है कुछ
दिन पहले आपका
मित्र तीर्थयात्रा
को गया था और
अपने हीरे—जवाहरात
हमारे पास रख
गया है, अभी
मुझे खबर आयी
है कि वह
आनेवाला है।
वह आएगा तो
हीरे—जवाहरात
वापिस ले
जाएगा। तो हम रोएंगे
क्या बैठ कर?
फकीर
हंसने लगा।
फकीर ने कहा कि
मैं तो सोचता
था तू साधारण
गृहिणी है, लेकिन
तू मुझसे आगे
गई; तूने
मुझसे आगे की
बात देखी। सच
ही तो कहती है तू,
उसकी अमानत
थी, उसने
वापिस ले ली।
हमारा क्या था?
मैं भी
तुम से इतना
ही कहता हूं
कि धन हो, पद हो,
प्रतिष्ठा
हो, कुछ भी
हो, छोड़कर
भागने को नहीं
कह रहा हूं।
क्योंकि सब
छोड़कर भाग
जाओगे तो भागोगे
भी कहां? यही
सब लोग वहां
पहुंच जाएंगे
जहां तुम भाग
के पहुंचोगे।
इसलिए मैं
भागने के पक्ष
में नहीं हूं।
क्योंकि
भागकर अगर गए,
तो होगा
क्या? सब
हिमालय चले गए,
तो क्या
करोगे? वहीं
जा कर बसाना
पड़ेगा "एम. जी.
रोड"! आखिर सभी
लोग वहां
पहुंच गए, तो
दुकानें
खोलनी पड़ें, "माणिक बाबू"
को गुड़ की
दुकान खोलनी
पड़े, आखिर
इतने लोग
रहेंगे तो गुड़
तो चाहिए ही
पड़ेगा। और गुड़
आएगा तो मक्खियां
आएंगी. . . और फिर
सब आएगा! और जब
गुड़ ही आ गया
तो फिर और
क्या बचेगा? सब उपद्रव
हो जाएगा। गुड़
जल्दी ही गोबर
हो जाएगा!
तुम ज़रा
कल्पना करो कि
सारे लोग
संन्यासी हो
गए और भाग गए।
भागोगे कहां? जहां
जाओगे वहीं
बस्ती बस
जाएगी। यही
बस्ती फिर
पुनरुक्त हो
जाएगी।
जर्मनी
के एक बहुत
बड़े विचारक, इमेनुअल कांट ने
नीति की
परिभाषा में
एक
महत्त्वपूर्ण
बात कही है।
उसने कहा कि
वही नियम
नैतिक है, जिसको
अगर सारे लोग
मानें तो भी
व्यवधान पैदा न
हो। मैं उसकी
इस बात से
राजी हूं। वही
नियम नैतिक है,
जिसको अगर
सारे लोग भी
मानें तो जीवन
में कोई व्यवधान
पैदा न हो।
इसलिए पुराने
ढंग का जो संन्यास
है, वह
अनैतिक है। वह
नैतिक नहीं
है। क्योंकि
अगर सारे लोग
उसे मानें, तो मुश्किल
खड़ी हो जाएगी।
जीवन में
व्यवधान पड़
जाएगा। इतना
व्यवधान पड़
जाएगा कि
संन्यासी को
भोजन देने
वाला भी कोई
नहीं मिलेगा।
अगर सभी लोग
संन्यासी हो
जाएं तो एक
बात पक्की है
कि जो लोग
हिमालय में
संन्यास ले कर
बैठे हैं और गंगोत्री
के किनारे
बैठे हैं और
ऋषिकेश में
माला जप रहे
हैं, वे सब
भाग कर आ
जाएंगे बस्ती
में। दुकाने
खोलेंगे? उनको
खिलाने—पिलाने
वाला भी न रह
जाएगा।
ज़रा
तुम थोड़ा सोचो, सारे
जैनमुनि
हो गए! फिर बड़ी
मुश्किल
होगी। एक—एक जैनमुनि
के लिए, संभालने
के लिए बड़ा
इंतजाम करना
पड़ता है।
दिगंबर
जैनमुनि सिर्फ
जैनों से ही
भोजन ले सकता
है। और किसी
से नहीं। तो
जब वह यात्रा
करता है, बड़ी
मुश्किल खड़ी
होती है, क्योंकि
कई गांव में
जैनी होता
नहीं। जैनियों
की संख्या ही
कितनी है! कोई
तीस लाख। साठ करोड़ के
देश में तीस
लाख की संख्या
कोई संख्या है?
हजारों
गांव हैं जहां
जैनी नहीं
हैं। तो उनको भोजन
कौन दे? तो
उनके साथ चौके
चलते हैं।
तुम
कहोगे, चौका
क्यों नहीं, चौके क्यों?
तो
उसके पीछे भी
कारण हैं।
क्योंकि जैनमुनि
एक घर से भोजन
नहीं लेता।
क्योंकि एक पर
बोझ न पड़े।
क्या—क्या होशियारियां!
तो वह दो—चार
घर से भोजन
लेता है। तो
एक चौका नहीं
चल सकता।
अब
देखना, नियम
बना था इसलिए
कि एक पर बोझ न
पड़े। बात समझ में
आती है।
महावीर के समय
में हजारों जैनमुनि
थे, मुश्किल
खड़ी हो गई
होगी, बिहार
छोटा—सा इलाका,
वैसे भी
गरीब—सदा से
गरीब बिहार!
और पता नहीं
बुद्ध और महावीर
भी इसको क्यों
चुने! मेरे
सामने भी
विकल्प था, मैंने कहा :
नहीं! बिहार
के मित्रों ने
बहुत कहा कि
आप बिहार ही आ
जाएं, मैंने
कहा, बहुत
हो चुका!
बुद्ध—महावीर
ने जो भूल की, वह मैं नहीं
करूंगा। वैसे
ही बिहार भूखा
मर रहा है, गरीब
है, हर साल
अकाल है, कभी
बाढ़ है, कभी
कुछ, कभी
कुछ और ऊपर से
यह उपद्रव—बुद्ध
और महावीर!
फिर इनके साथ
हजारों
संन्यासी।
जिस गांव में
महावीर ठहर
जाएं, समझो
अकाल पड़ गया।
क्योंकि
दस हजार जैनमुनि
उनके साथ
चलें। छोटे—मोटे
गांव की तो
बिल्कुल
समाप्ति ही
समझो! उनकी
चपेट में ही
मर जाए, छोटा—मोटा
गांव कहां बचे?!
तो यह
ठीक था नियम
कि एक घर से ही
मत मांगना, नहीं
तो बोझ पड़
जाएगा। तो
थोड़ा—थोड़ा
मांग लेना।
चार—छः लोगों
पर बंट जाएगी
बात। मगर आदमी
देखते हो कैसा
है? नियम किसलिए
बनते हैं और
क्या परिणाम
होता है? अब
दिगंबर जैनमुनि
के साथ दस—बारह
चौके चलते
हैं। मतलब दस—बारह
स्त्रियां, उनके पति, नौकर—चाकर, यह सारा दंद—फंद
चलता है। जहां
दिगंबर जैनमुनि
दिगंबर ठहरता
है और वहां
गांव में अगर
जैन नहीं है, तो ये दस—बारह
चौके वाले लोग,
दस—बारह जगह
भोजन बनाते
हैं। सड़क के
किनारे दस—बारह
चौके लगते हैं,
तंबू तनते
हैं! फिर जैनमुनि
आते हैं और एक—एक
जगह से थोड़ा—थोड़ा
भोजन लेते
हैं। एक आदमी
के लिए दस—बारह
जगह भोजन बनता
है!. . . ताकि भोजन
ज्यादा न बनाना
पड़े!!
आदमी
की मूढ़ता
का कोई अंत
नहीं है। तो
मैं नहीं हूं
उस पक्ष में।
मैं कांट से
सहमत हूं कि
ऐसा नियम
अनैतिक हो
जाता है जिसको
अगर लोग मान
लें तो मुसीबत
खड़ी हो जाए।
इसलिए झूठ
अनैतिक है। क्योंकि
अगर सारे लोग
झूठ बोलें तो
बड़ी मुश्किल
हो जाए।
समझ लो
कि एक दफा हम
तय ही कर लें
कि पूरा देश
झूठ बोलेगा।
सब ने तय कर
लिया कि झूठ
बोलेंगे। तुमसे
किसी ने पूछा, कितने
बजे हैं? तुम
बोलते हो, पांच
बजे हैं। वह
फौरन समझ गया
कि चार बजे
होंगे, कि
छः बजे होंगे।
पांच तो बज ही
नहीं सकते। किसी
ने पूछा, कहां
जा रहे हो? तुमने
कहा, नदी
जा रहा हूं।
उसने कहा, स्टेशन
जा रहे हैं, नदी जा रहे
हैं, यह तो
बोला ही नहीं
जा सकता।
जब सभी
लोग झूठ बोल
रहे हों तो
बड़ा उपद्रव मच
जाएगा। वह तो
थोड़े—से लोग
झूठ बोलते हैं
तो चलता है, क्योंकि
बाकी लोग सच
बोलते हैं। वह
बाकी लोग सच
बोलते हैं, उनके आधार
पर छोटी—सी
संख्या का झूठ
भी चल जाता
है। असल में
झूठ बोलनेवाला
भी इसी ढंग से
बोलता है कि
सच समझा जाए।
वह भी ऐसे
नहीं बोलता कि
कोई पकड़ ले कि
झूठ है। वह भी
दावा करता है
कि सच है। झूठ बोलनेवाला
भी और मामलों
में सच बोलता
है। दस—पांच
मामलों में सच
बोलता है, तब
झूठ बोलता है।
एक
आदमी एक सेठ
के घर से एक
दिन मांग कर
ले गया कि ज़रा
एक कटोरी
चाहिए, घर
में मेहमान
आया है। सेठ
ने थोड़ा सोचा
कि कटोरी देना
कि नहीं, मगर
कटोरी छोटी—सी
चीज है, और
यह आदमी कुछ
बुरा नहीं है,
पड़ोस में ही
रहता है, दे
दी कटोरी।
वह
आदमी दूसरे
दिन सुबह आया
और दो कटोरी
लेकर आया!
सेठ ने
पूछा कि एक ही
ले गए थे।
उसने कहा कि
मैं क्या करूं, रात
उसको बच्चा
पैदा हो गया।
सेठ ने सोचा
तो कि कहीं
कटोरी के
बच्चे पैदा
होते हैं! मगर
दो आती हों तो
कौन मना करे? सेठ ने कहा
कि बड़ा अच्छा
हुआ। रख लीं
कटोरी। फिर वह
आदमी एक दिन कड़ाही
मांग कर ले
गया। फिर दो कड़ाहियां
ले आया। सेठ
ने कहा, यह
भी आदमी
अद्भुत है!
फिर एक
दिन वह सेठ के
घर से बहुत—से
बर्तन ले गया।
सेठ ने दे दिए
जितने बर्तन
चाहिए थे।
सोने—चांदी के
मांगे तो वे
भी दे दिए।
उसने कहा कि अब
सब के बच्चे
हो जाएंगे तो
फिर कहना ही
क्या?
दूसरे
दिन वह आदमी
आया ही नहीं।
तीसरे दिन भी नहीं
आया तो सेठ ने
आदमी भेजा।
उसने कहा, क्या
करें, वे
सब मर गए। सेठ
ने कहा कि हद
हो गई, बर्तन
कहीं मरते हैं?
तो उस आदमी
ने कहा, जब
बर्तनों के
बच्चे हो सकते
हैं, तो मर
क्यों नहीं
सकते? अरे,
जब जन्म
होगा तो मौत
भी होगी!
चौंकना था तो
जन्म के वक्त
ही चौंक जाना
था, भैया!
अब बहुत देर
हो गई!
वह
जिसको झूठ
बोलना हो, वह
भी पहले सच
बोलता है। दस—पांच
सच बातें करता
है, तब
कहीं
ग्यारहवीं
झूठ डाल देता
है। तब उसकी झूठ
चलती है।
इस
दुनिया में
अधिक लोग अब
भी सच्चे हैं, इसलिए
झूठ चल रही
है। अधिक लोग
अब भी चोर
नहीं हैं, इसलिए
चोरी चल रही
है। अधिक लोग
अब भी बेईमान नहीं
हैं, इसलिए
बेईमानी चल
रही है।
कांट
कहता है : सभी
लोग बेईमान हो
जाएं, बेईमानी
बंद हो जाए।
सभी लोग झूठ
बोलें, झूठ
बंद हो जाए।
आत्मघात हो
जाए झूठ का
अपने—आप।
अगर यह
बात सच है और
इसीलिए झूठ और
बेईमानी और चोरी
अनैतिक हैं, तो
भगोड़ा
संन्यास भी
अनैतिक है।
हालांकि कांट
ने उसके संबंध
में कोई
उल्लेख नहीं
किया, क्योंकि
उसको भगोड़े
संन्यासियों
का कोई बोध
नहीं था।
मैं
तुम्हें
भागने को नहीं
कहता। मैं तो
कहता हूं, तुम
जहां हो वहीं
रहो, लेकिन
अमानत समझना।
अमानत में
खयानत मत करना।
उसने दिया है,
भोगो, जीओ, उपयोग
करो, बंधना
मत। जिस दिन
छीन ले, उस
दिन रोना मत, चिल्लाना मत,
छाती मत पीटना।
दिया था तो
धन्यवाद! ले
लिया तो उपयोग
कर लिया, ले
लिया तो जरूर
लेने में भी
उसकी कोई
मर्जी होगी।
आंख हो देखने
की तो—
ज़ीस्त की
राह में हर—इक
ठोकर
ज़िंदगीका
शऊर देती है
ज़हनो—दिलमें
अगर बसीरत
हो
तीरगी कैफ़े—नूर
देती है
बस, देखने
की दृष्टि
चाहिए। और दृष्टि
पर सबसे बड़ा
पर्दा अहंकार
का है। फिर
जिस कारण भी
यह पर्दा पड़
रहा हो, वे
कारण तोड़ दो।
तादात्म्य से
पर्दा पड़ता
है। धन से जुड़
गए तो धन
अहंकार बन
गया। कहा कि
मेरा है, बस,
उपद्रव हो
गया। जहां आया
"मेरा", वहां
आया "मैं"।
ज्ञान से कहा
"मेरा" है, वही
उपद्रव हो
गया। कहां
"मेरा धर्म,"
"मेरी
किताब"—और
उपद्रव हो गए।
मत
कहना। मेरा
कुछ भी नहीं, सब
उसका है। उसकी
हम पर अनुकंपा
है कि अपना अस्तित्व
हमें भेंट कर
दिया, कि
थोड़ी देर हम
उसके
अस्तित्व का
रस लें। उसने
अपने बगीचे
में हमें
निमंत्रित
किया कि हम
उसके फूलों की
गंध लें। उसके
फूलों को तोड़ो
मत। उसके
फूलों को तोड़
कर तुम मिटा
ही डालोगे, मार ही
डालोगे। वे न
उसके रह
जाएंगे, न
तुम्हारे रह
जाएंगे।
फूलों को
वृक्षों पर रहने
दो।
तादात्म्य
मत बनाओ। बस, संन्यास
का मौलिक अर्थ
है : किसी भी
चीज के मालिक
मत बनो। जीओ,
और जो हाथ
में आए उसका
उपयोग करो और
जी भर कर
उपयोग करो!! बस,
मालिक मत
बनो! मालिक
वही है। उसके
अतिरिक्त कोई
भी मालिक
नहीं। उसके
अतिरिक्त
जिसने भी मालकियत
का दावा किया,
वही
अधार्मिक है।
रामधनी पायके अब
काकी सरन
जाइए।।
वही
धनी है। वही
सारे धन का
मालिक है।
मालिकों का
मालिक है। अब
उसको पा कर
किसकी शरण
जाना? इसलिए
वे कहते हैं :
अब
मैं अनुभव पदहिं
समाना।।
सब
देवन को भर्म
भुलाना, अविगति
हाथ बिकाना।
अब तो
बिक गया एक
परमात्मा के
हाथ,
अब परम धनी
से मैत्री हो
गयी, अब तो
उसमें डुबकी
लग गई, अब
किसकी करूं
पूजा, किसका
करूं आराधन? जाऊं काशी
कि काबा? अब
तो जहां हूं, वही मौजूद
है। आंख बंद
करूं तो भीतर
मौजूद है, आंख
खोलूं तो बाहर
मौजूद है।
जिसमें देखूं,
वही है।
पत्थर में भी
वही है। चांदत्तारों
में भी वही।
जिस दिन
तुम्हें सारा
अस्तित्व परमात्ममय
दिखाई पड़ने
लगे, उस
दिन जानना
स्वर्ग उतर
आया, मोक्ष
उतर आया।
निर्वाण उतर
आया। उस क्षण
तुम्हारा
जीवन आनंद की
पहली बार
अनुभूति
करेगा। उस दिन
तुम्हारा
जीवन समारोह
बनेगा, उत्सव
बनेगा, लेकिन
उसके पहले
शर्त याद रखना—
रामदुवारे जो
मरे!
उसके
द्वार पर पहले
अहंकार को मार
डालना होगा।
तो फिर सब कुछ
तुम्हारा है।
सारा
अस्तित्व; अस्तित्व
की सारी संपदा,
सारी गरिमा,
सारा सौरभ।
आज
इतना ही।
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