कुठालियाँ
और चलनियाँ
शब्द
प्रभु का और
मनुष्य का
प्रभु
का शब्द एक
कुठाली है। जो
कुछ वह रचता
है उसको पिघला
कर एक कर देता
है. न उसमें से
किसी को अच्छा
मान कर
स्वीकार करता
है,
न ही बुरा
मान कर
ठुकराता है।
दिव्य ज्ञान
से परिपूर्ण
होने के कारण
वह भली—भाँति
जानता है कि
उसकी रचना और
वह स्वय एक हैं,
कि एक अंश
को ठुकराना
सम्पूर्ण को
ठुकराना है; और सम्पूर्ण
को ठुकराना
अपने आप को
ठुकराना है।
इसलिये उसका
उद्देश्य और
आशय सदा एक ही
रहता है।
जब
कि मनुष्य का
शब्द एक चलनी
है। जो कुछ यह
रचता है उसे
लड़ाई—झगड़े में
लगा देता है।
यह निरन्तर
किसी को मित्र
मान कर अपनाता
रहता है तो
किसी को शत्रु
मान कर
ठुकराता रहता
है। और अकसर
इसका कल का
मित्र आज का
शत्रु बन जाता
है,
आज का शत्रु?
कल का मित्र।
इस
प्रकार
मनुष्य का अपने
ही विरुद्ध
कूर और
निरर्थक
युद्ध छिड़ा रहता
है। और यह सब
इसलिये कि
मनुष्य में
पवित्र शक्ति का
अभाव है, और
केवल वही उसे
बोध करा सकती
है कि वह तथा
उसकी रचना एक
ही हैं, कि
शत्रु को
त्याग देना
मित्र को
त्याग देना है।
क्योंकि
दोनों शब्द,
''शत्रु'' और '' मित्र'', उसके शब्द— उसके 'मैं'— की रचना हैं। जिससे तुम घृणा करते हो और बुरा मान कर त्याग देते हो, उसे अवश्य ही कोई अन्य व्यक्ति, अथवा अन्य पदार्थ, अच्छा मान कर अपना लेता है। क्या एक वस्तु एक ही समय में परस्पर विपरीत दो वस्तुएँ हो सकती है? वह न एक है, न ही दूसरी; केवल तुम्हारे 'मैं' ने उसे बुरा बना दिया है, और किसी दूसरे 'मैं' ने उसे अच्छा बना लिया है।
''शत्रु'' और '' मित्र'', उसके शब्द— उसके 'मैं'— की रचना हैं। जिससे तुम घृणा करते हो और बुरा मान कर त्याग देते हो, उसे अवश्य ही कोई अन्य व्यक्ति, अथवा अन्य पदार्थ, अच्छा मान कर अपना लेता है। क्या एक वस्तु एक ही समय में परस्पर विपरीत दो वस्तुएँ हो सकती है? वह न एक है, न ही दूसरी; केवल तुम्हारे 'मैं' ने उसे बुरा बना दिया है, और किसी दूसरे 'मैं' ने उसे अच्छा बना लिया है।
क्या
मैंने कहा
नहीं था कि जो
रच सकता है वह
अ—रचित भी कर
सकता है? जिस
प्रकार तुम
किसी को शत्रु
बना लेते हो, उसी प्रकार
उसके साथ
शत्रुता को
मिटा भी सकते हो,
या उसे शत्रु
से मित्र बना
सकते हो।? इसके
लिये
तुम्हारे 'मैं'
को एक
कुठाली बनना
होगा। इसके
लिये तुम्हें
दिव्य ज्ञान
की आवश्यकता है।
इसलिये
मैं तुमसे
कहता हूँ कि
यदि तुम कभी
किसी वस्तु के
लिये
प्रार्थना
करते ही हो, तो
केवल दिव्य
ज्ञान के लिये
प्रार्थना
करो।
छानने
वाले कभी न
बनना, मेरे
साथियो।
क्योंकि
प्रभु का शब्द
जीवन है, और
जीवन एक
कुठाली है
जिसमें सब—कुछ
एक, अविभाज्य
एक बन जाता है,
सब—कुछ पूरी
तरह सन्तुलित
होता है, और
सब— कुछ अपने
रचयिता— पावन
त्रिपुटी— के
योग्य होता है।
और इससे और
कितना अधिक वह
तुम्हारे
योग्य होगा '
छानने
वाले कभी न
बनना, मेरे
साथियो, तब
तुम्हारा
व्यक्तित्व
इतना महान, इतना सर्व—व्यापी
और इतना सर्व—ग्राही
हो जायेगा कि
ऐसी कोई भी
चलनियाँ नहीं मिल
सकेंगी जो
तुम्हें अपने
अन्दर समेट
लें।
छानने
वाले कभी न
बनना, मेरे
साथियो। पहले
शब्द का
ज्ञान
प्राप्त करो
ताकि तुम अपने
खुद के शब्द
को जान सको।
जब तुम अपने
शब्द—को जान
लोगे तब अपनी
चलनियों को
अग्नि की भेंट
कर दोगे।
क्योंकि
तुम्हारा
शब्द और प्रभु
का शब्द एक हैं,
अन्तर इतना
ही है कि
तुम्हारा
शब्द अभी भी
परदों में
छिपा हुआ है।
मीरदाद
तुमसे परदे
फिंकवा देना
चाहता है।
प्रभु
के शब्द के
लिये समय और
स्थान का कोई
अस्तिंत्व
नहीं। क्या
कोई ऐसा समय
था जब तुम
प्रभु के साथ
नहीं थे? क्या
कोई ऐसा स्थान
है जहाँ तुम
प्रभु के अन्दर
नहीं हो? फिर
क्यों बाँधते
हो तुम
अनन्तता को
प्रहरों और
ऋतुओं की
जंजीरों में?
और क्यों
समेटते हो स्थान
को इंचों और
मीलों में?
प्रभु
का शब्द वह
जीवन है जो
जनमा नहीं, इसीलिये
अविनाशी है।
फिर तुम्हारा
शब्द जन्म और
मरण की लपेट
में क्यों है? क्या तुम
केवल प्रभु के
जीवन के सहारे
जीवित नहीं हो?
और क्या मृत्यु
से मुका कभी
मृत्यु का
स्रोत हो सकता
है?
प्रभु
के शब्द में 'सब—कुछ
शामिल है।
उसके अन्दर न'
कोई अवरोध
है, न बाड़े।
फिर तुम्हारा
शब्द अवरोधों
और बाड़ों से
क्यों इतना
जर्जर है?
मैं
तुमसे कहता
हूँ,
तुम्हारी
हड्डियाँ और
मांस भी केवल
तुम्हारी ही
हड्डियाँ और
मांस नहीं हैं।
तुम्हारे
हाथों के साथ
और अनगिनत हाथ
भी पृथ्वी और
आकाश की
उन्हीं
देगचियो में
डुबकी लगाते
हैं जिनमें से
तुम्हारी
हड्डियाँ और
मांस आते हैं
और जिनमें वे
वापस चले जाते
है।
न
ही तुम्हारी आंखों
की ज्योति
केवल
तुम्हारी
ज्योति है। यह
उन सबकी
ज्योति भी है
जो सूर्य के
प्रकाश में
तुम्हारे
भागीदार हैं।
यदि मुझमें
प्रकाश न होता
तो क्या
तुम्हारी आंखें
मुझे देख
पातीं? यह
मेरा प्रकाश
है जो
तुम्हारी आंखों
में मुझे
देखता है। यह
तुम्हारा
प्रकाश है जो
मेरी आंखों
में तुम्हें
देखता है। यदि
मैं पूर्ण
अन्धकार होता
तो मेरी ओर
ताकने पर
तुम्हारी आंखें
पूर्ण अंधकार
ही होतीं।
न
ही तुम्हारे
वक्ष में चलता
श्वास केवल
तुम्हारा
श्वास है। जो
श्वास लेते
हैं,
या
जिन्होंने
कभी श्वास
लिया था, वे
सब तुम्हारे
वक्ष में
श्वास ले रहे
हैं। क्या यह
आदम का श्वास
नहीं जो अभी
भी तुम्हारे
फेफड़ों को
फुला रहा है? क्या यह आदम
का हृदय नहीं
जो आज भी तुम्हारे
हृदय के अन्दर
धड़क रहा है?
न
ही तुम्हारे
विचार
तुम्हारे
अपने विचार हैं।
सार्वजनिक
चिन्तन का
समुद्र दावा
करता है कि यह
विचार उसके
हैं,
और यही दावा
करते हैं
चिन्तन करने
वाले अन्य सब
प्राणी जो
तुम्हारे साथ
उस समुद्र में
भागीदार हैं।
न
ही तुम्हारे
स्वप्न केवल
तुम्हारे
स्वज हैं।
तुम्हारे
स्वप्नों में
सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड
अपने सपने देख
रहा है।
न
ही तुम्हारा
घर केवल
तुम्हारा घर
है। यह
तुम्हारे
मेहमान का और
उस मक्खी, उस
चूहे, उस
बिल्ली का, और उन सब
प्राणियों का
भी घर है जो
तुम्हारे साथ
इसका उपयोग
करते हैं।
इसलिये, बाड़ों
से सावधान रहो।
तुम केवल भ्रम
को बाड़ के
अन्दर लाते हो
और सत्य को
बाड़ के बाहर
निकालते हो।
और जब तुम
अपने आप को
बाड के अन्दर
देखने के लिये
मुड़ते हो, तो
अपने सामने
खड़ा पाते हो
मृत्यु को जो
भ्रम का दूसरा
नाम है।
मनुष्य
को,
ऐ साधुओ, प्रभु से
अलग नहीं किया
जा सकता; और
इसलिये अपने
साथी
मनुष्यों से
और अन्य प्राणियों
से भी उसे अलग
नहीं किया जा
सकता क्योंकि
वे भी शब्द से
उत्पन्न हुए
हैं।
शब्द
सागर है, तुम
बादल हो, और
बादल क्या
बादल हो सकता
है
यदि
सागर उसके
अन्दर न हो? नि:सन्देह
मूर्ख है वह
बादल जो अपने रूप
और अपने
अस्तित्व को
सदा के लिये
बनाये रखने के
उद्देश्य से
आकाश में अधर
टँगे रहने के
प्रयास में ही
अपना जीवन
नष्ट करना
चाहता है।
अपने
मूर्खतापूर्ण
श्रम का उसे
भग्न आशाओं और
कटु
मिथ्याभिमान
के सिवाय और
क्या फल प्राप्त
होगा? यदि
वह अपने आप को
गँवा नहीं
देता, तो
अपने आप को पा
नहीं सकता।
यदि वह बादल
के रूप में मर
कर लुप्त नहीं
हो जाता, तो
अपने अन्दर के
सागर को पा
नहीं सकता जो
उसका एकमात्र
अस्तित्व है।
मनुष्य
एक बादल है जो
प्रभु को अपने
अन्दर लिये
हुए है। यदि
वह अपने आप से
रिक्त नहीं हो
जाता, तो वह
अपने आप को पा
नहीं सकता। आह,
कितना
आनन्द है
रिक्त हो जाने
में।
यदि
तुम अपने आप
को सदा के
लिये शब्द में
खो नहीं देते, तो
तुम उस शब्द
को समझ नहीं
सकते जो कि
तुम स्वय हो.
जो कि
तुम्हारा 'मैं'
ही है। आह, कितना आनन्द
है खो जाने
में।
मैं
तुमसे फिर
कहता हूँ, दिव्य
ज्ञान के लिये
प्रार्थना
करो। जब
तुम्हारे
अन्तर में
दिव्य ज्ञान
प्रकट हो जायेगा,
तो प्रभु के
विशाल
साम्राज्य
में ऐसा कुछ
नहीं होगा जो
तुम्हारे
द्वारा
उच्चारित
प्रत्येक 'मैं'
का उत्तर एक
प्रसन्न
हुँकार से न
दे।
और
तब स्वयं
मृत्यु
तुम्हारे
हाथों में
केवल एक
अस्त्र होंगी
जिससे तुम
मृत्यु को
पराजित कर सकी।
और तब जीवन
तुम्हारे
हृदय को अपने
असीम हृदय की
कुंजी प्रदान
करेगा। वह है
प्रेम की
सुनहरी कुंजी।
शमदाम
:
मैंने स्वप्न
में भी कल्पना
नहीं की थी कि
जूठे बर्तन
पोंछने के
चिथड़े और झाड़ू
में से इतनी
बुद्धिमत्ता
निचोड़ी जा
सकती है।
(उसका संकेत
मीरदाद के
सेवक होने की
ओर था।)
मीरदाद
:
बुद्धिमानों
के लिये सब—कुछ
बुद्धिमत्ता
का भण्डार है।
बुद्धिहीनों
के लिये
बुद्धिमत्ता
स्वयं एक मूर्खता
है।
शमदाम
:
तेरी जबान, निःसन्देह, बड़ी चतुर
है। आश्चर्य
है कि तूने
उसे इतने समय
तक लगाम दिये
रखी। परन्तु
तेरे शब्द
बहुत कठोर और
कठिन हैं।
मीरदाद
:
मेरे शब्द तो
सरल हैं, शमदाम।
कठिन तो
तुम्हारे
कानों को लगते
हैं। अभागे
हैं वे जो सुन
कर भी नहीं
सुनते, अभागे
है वे जो देख
कर भी नहीं
देखते।
शमदाम
:
मुझे खूब
सुनाई और
दिखाई देता है, शायद
जरूरत से कुछ
ज्यादा ही।
फिर भी मैं
ऐसी मूर्खता
की बात नहीं
सुनूँगा कि
शमदाम और
मीरदाद दोनों
समान हैं, कि
मालिक और नौकर
में कोई अन्तर
नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें