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शनिवार, 5 मार्च 2016

किताबे--ए--मीरदाद--(अध्‍याय--04)

अध्याय—चार

मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।
नुष्य पोतड़ो में लिपटा एक परमात्मा है। समय एक पोतडा है. स्थान एक पोतड़ा है, देह एक पोतड़ा है, और इसी प्रकार हैं इन्द्रियाँ तथा उनके द्वारा अनुभव—गम्य वस्तुएँ भी। माँ भली प्रकार जानती है कि पोतड़े शिशु नहीं हैं। परन्तु बच्चा यह नहीं जानता।
अभी मनुष्य का अपने पोतड़ों में बहुत अधिक ध्यान रहता है जो हर दिन के साथ, हर युग के साथ बदलते रहते हैं। इसलिये उसकी चेतना में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है,
इसीलिये उसका शब्द, जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता, और इसीलिये उसके विवेक पर द्वपध छाई रहती है, और इसीलिये उसका जीवन असन्तुलित है। यह तिगुनी उलझन है।
इसलिये मनुष्य सहायता की प्रार्थना करता है। उसका आर्तनाद अनादि काल से गूँज रहा है। वायु उसके विलाप से बोझिल है। समुद्र उसके आंसुओ के नमक से खारा है। धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियाँ पड़ गई हैं। आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है। और यह सब इसलिये कि अभी तक वह अपने 'मैं' का अर्थ नहीं समझता जो उसके लिये है पोतड़े और उनमें लिपटा' हुआ शिशु भी।
'मैं' कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है, एक उसके पोतड़े, और दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व। क्या मनुष्य वास्तव में अविभाज्य को विभाजित कर देता है? प्रभु न करे ऐसा हो। अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती— ईश्वर की शक्ति भी नहीं। मनुष्य अपरिपक्व है इसलिये विभाजन की कल्पना करता है। और मनुष्य, एक शिशु, उस अनन्त अस्तित्व को अपने अस्तित्व का वैरी मान कर लड़ाई के लिये कमर कस लेता है और युद्ध की घोषणा कर देता है।
इस युद्ध में, जो बराबरी का नहीं है, मनुष्य अपने मास के चिथड़े उड़ा देता है, अपने रक्त की नदियाँ बहा देता है; जब कि परमात्मा, जो माता भी है और पिता भी, स्नेह—पूर्वक देखता रहता है, क्योंकि वह भली—भाँति जानता है कि मनुष्य अपने उन मोटे परदों को ही फाड़ रहा है और अपने उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है जो उस एक के साथ उसकी एकता के प्रति उसे अन्धा बनाये हुए हैं।
यही मनुष्य की नियति है—लड़ना और रक्त बहाना और मूर्च्‍छित हो जाना, और अन्त में जागना और 'मैं' के अन्दर की दरार को अपने मांस से भरना और अपने रक्त से उसे मजबूती से बन्द कर देना।
इसलिये, साथियो, तुम्हें सावधान कर दिया गया है— और बड़ी बुद्धिमानी के साथ सावधान कर दिया गया है— कि 'मैं' का कम से कम प्रयोग करो। क्योंकि जब तक 'मैं' से तुम्हारा तात्पर्य पोतड़े है, उनमें लिपटा केवल शिशु नहीं; जब तक इस का अर्थ तुम्हारे लिये एक चलनी है. कुठाली नहीं, तब तक तुम अपने मिथ्या अभिमान को छानते रहोगे और बटोरोगे केवल मृत्यु को, उससे उत्पन्न सभी पीड़ाओं और वेदनाओं के साथ।


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