दिनांक
15 नवम्बर 1979;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
गर्व
न कीजे
बावरे, हरि गर्वप्रहारी।
गर्वहिं ते रावन गया, पाया
दुख भारी।।
जरन
खुदी रघुनाथ
के मन नाहिं सोहाती।
जाके जिय
अभिमान है, ताकी
तोरत
छाती।।
एक
दया औ दीनता, ले
रहिए भाई।
चरन गहो जाय
साध के, रीझैं रघुराई।।
यही
बड़ा उपदेस
है,
परद्रोह न करिए।
कह
मलूक हरि सुमिरके
भौसागर तरिए।।
मन तें इतने
भरम गंवावो।
चलत
बिदेस बिप्र
जनि पूछो, दिन
का दोष न लावो।।
संझा
होय करो तुम
भोजन, बिनु
दीपक के बारे।
जौन
कहैं असुरन
की बेरिया, मूढ़ दई
के मारे।।
आप
भले तो सबहि
भलो है, बुरा
न काहू कहिए।
जाके मन
कछु बसै बुराई, तासों
भागे रहिए।।
आतम मारि पषानैं
पूजैं, हिरदै
दया न आवै।
रहो
भरोसे एक रामके, सूरे का
मत लीजै।
संकट
पड़े हरज नहिं
मानो, जिय का लोभ न कीजै।।
किरिया
करम अचार भरम
है,
यही जगत् का
फंदा।
माया—जाल
में बांधि
अंडाया, क्या
जानै नर
अंधा।।
यह
संसार बड़ा भौसागर, ताको देखि सकाना।
सरन
गए तोहि
अब क्या डर है, कहत
मलूक
दिवाना।।
तुम
बसे नहीं
इनमें आकर,
ये गान
बहुत रोए।
बिजली
बन घन में रोज
हंसा करते हो,
फूलों
में बन कर गंध
बसा करते हो,
नीलिमा
नहीं सारा तन
ढक पाती है,
तारा—पथ
में पग—ज्योति
झलक जाती है।
हर तरफ
चमकता यह जो
रूप तुम्हारा,
रह—रह
उठता जगमगा
जगत् जो सारा,
इनको
समेट मन में
लाकर,
ये गान
बहुत रोए।
जिस पथ
पर से रथ कभी
निकल जाता है,
कहते
हैं,
उस पर दीपक
जल जाता है।
मैं
देख रहा अपनी
ऊंचाई पर से,
तुम
किसी रोज तो
गुजरे नहीं
इधर से।
अंधियाले
में स्वर वृथा
टेरते फिरते,
कोने—कोने
में तुम्हें हेरते
फिरते।
पर, कहीं
नहीं तुमको
पाकर
ये गान
बहुत रोए।
कब तक
बरसेगी
ज्योति बार कर
मुझको?
निकलेगा
रथ किस रोज
पार कर मुझको?
किस
रोज लिए
प्रज्वलित
बाण आओगे,
खींचते
हृदय पर रेख
निकल जाओगे?
किस
रोज तुम्हारी
आग सीस पर
लूंगा,
बाणों
के आगे प्राण
खोल धर दूंगा?
यह सोच
विरह में
अकुला कर
ये गान
बहुत रोए।
परमात्मा
है जीवन की
सुगंध, जीवन
का सौरभ, जीवन
का संगीत, जीवन
का समारोह।
उसके बिना सब
अर्थहीन है।
उसके बिना सब
विषाद है।
उसके बिना
मृत्यु के अतिरिक्त
जीवन और कुछ
भी नहीं।
परमात्मा ही
जीवन है। शेष
सब मृत्यु है।
परमात्मा
जीवन का ही दूसरा
नाम है। और
हमने उसे जाना
नहीं। और हमने
उसे जिआ नहीं।
फिर हमारे गीत
रोएं न तो
और क्या करें?
फिर हमारी
आंखें आंसुओं
से भरी न हों
तो और क्या हो?
और ये हमारे
हृदय खाली हैं,
थोथे हैं।
इसीलिए तो हम
भीतर देखते
डरते हैं। बाहर—बाहर
भटकते हैं; भरमाते हैं
बहुत अपने को,
उलझाते हैं
बहुत अपने को,
व्यस्त
रखते हैं बहुत
अपने को कि कहीं
भीतर न झांकना
पड़े। क्योंकि
जब भी झांकते
हैं भीतर तो
सिवाय
रिक्तता के
कुछ और हाथ
नहीं लगता।
कहते
हैं बुद्ध :
झांको भीतर।
कहते कबीर, कहते
नानक, कहते
मलूक, कहते
हैं वे सब
जिन्होंने
जाना है : भीतर
झांको। पर हम झांकें तो
कैसे झांकें!
अंधकार ही
अंधकार है, अमावस ही
अमावस है, चांद
तो वहां कभी
निकलता नहीं!
चांद ऐसे
निकलेगा भी
नहीं। चांद के
निकलने में
कुछ बाधाएं हैं।
कुछ बादल घिरे
हैं हम पर।
चांद निकले भी—निकलता
भी है—तो भी
हमारी आंखें
उससे वंचित रह
जाती हैं। हम
भीतर जाते भी
हैं तो भी उस
अंतर्यामी को
नहीं देख पाते;
बीच में
अवरोध है, व्यवधान
है। और हमारे
ही खड़े किए
हुए व्यवधान हैं।
कोई और उन
पर्वतों को
नहीं निर्मित
कर गया है।
इसलिए हम जिस
दिन चाहेंगे,
उस दिन गिर
जाएंगे।
लेकिन तुमने
चाहा ही नहीं।
तुमने तो
व्यवधानों को
मित्र बना रखा
है। तुम तो
उन्हें और
सजाते हो, संवारते हो।
पहला
और सबसे बड़ा
व्यवधान है :
अहंकार।
तुम्हें पता
नहीं कि तुम
कौन हो। फिर
भी तुम दावा
किए जाते हो
कि मैं हूं।
बिना जाने ऐसा
दावा! तुम
किसको धोखा दे
रहे हो? और को
देते तो चल भी
जाता, ऐसे
तुम खुद ही
धोखा खा रहे
हो। जिसे यह
भी पता नहीं
कि मैं कौन हूं,
वह कैसे कहे
कि मैं हूं।
मैं कौन हूं
जानकर ही पता
चलेगा कि मैं
हूं। तुमने
पूछा ही नहीं
सार्थक
प्रश्न अभी।
जिज्ञासा भी
तुम करते हो
तो बेईमानी से
भरी।
मुझसे
आकर लोग पूछते
हैं : सृष्टि
को किसने
बनाया? जैसे
उन्हें कुछ
लेना—देना पड़ा
है! जैसे
सृष्टि के
बनने—बिगड़ने
से उनका कोई
संबंध है!
मृत्यु के बाद
आत्मा बचती या
नहीं? अभी
जीवित हो और
आत्मा की खोज
नहीं करते; अभी आत्मा
तुममें बसी है,
तब तो
तलाशते नहीं,
टटोलते
नहीं, पूछते
हो मरने के
बाद आत्मा
बचती या नहीं!
ये प्रश्न
धोखे के हैं।
इनसे तुम्हें
भ्रांति बनी
रहती है कि
तुम धार्मिक
हो। रहते हो
अधार्मिक और
राम—नाम की
चदरिया ओढ़े
रहते हो और
भीतर चलता है
सब वही—सब वही धोखाधड़ी, सब वही
पाखंड। भीतर
वही विषाद।
घाव ही घाव
हैं तुम्हारे
भीतर। जहां
फूल हो सकते
थे, वहां सिर्फ
घाव हैं। जहां
उत्सव हो सकता
था, वहां
केवल मातम है।
और फिर तुम
इतने चालबाज
हो कि इसी
मातम को भी
धर्म बना लेते
हो। मातमी
सूरतों को
महात्मा कहने
लगते हो। उदास
लोगों को, उदासीनों
को संन्यासी
मान लेते हो।
संन्यासी तो
वह है जो उसके
संगीत से भर
गया; संन्यासी
तो वह है
जिसने सुन ली
उसकी बांसुरी की
टेर, नाच
उठा जो! राधा बनो,
मीरां बनो, चैतन्य
बनो, मलूक
बनो, तो
संन्यासी हो!
पैरों में बंधें
घूंघर, प्राणों
में हो उत्सव,
गीत झरें
तुम्हारे ओठों
से, अमृत
की वर्षा हो
तुम्हारे
अंतर्तम में,
तो
संन्यासी हो!
लेकिन
तुमने किसको
संन्यासी कहा
है अब तक?
रोते
से लोग; मरे—मरे
से लोग; उदास,
जीर्ण—शीर्ण,
मनुष्य
जिन्हें कहना
मुश्किल, खंडहरी
कहो ज्यादा—से—ज्यादा,
उनकी तुम
पूजा किए हो।
तुम कांटों की
पूजा करते रहे;
फूलों को
विस्मरण किया
है तुमने।
कारण है। कांटों
से तुम्हारा
तालमेल बैठता
है—तुम भी
कांटे हो। तुम
भी विषाद से
भरे हो, विषाद
की भाषा समझ
में आती है।
तुम भी उदास
हो, उदासी
से तुम्हारा
सेतु बन जाता
है। तुम भी उत्सव—शून्य
हो, तुम्हारा
भी जीवन जीवन
नहीं है, इसलिए
मुरदों से
तुम्हारी
सांठ—गांठ बैठ
जाती है। तुम
उनकी पूजा
करते हो।
पूजा
करो फूलों की, पूजा
करो चांदत्तारों
की, पूजा
करो इस
महोत्सव की जो
चारों तरफ चल
रहा है!
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है, इस
महोत्सव का
नाम ही है। यह
जो विराट—नृत्य
चल रहा है, घास
की पत्तियों
से लेकर विराट
महासूर्यो
तक जो व्याप्त
है, यही
परमात्मा है।
इसमें
तुम्हारे भी
व्याप्त होने
का रास्ता है।
काश, तुम
नाच सको! काश, तुम गा सको!
लेकिन नाच ऐसा
हो कि नाचनेवाला
मिट जाए, और
गीत ऐसा हो कि
गायक न बचे।
फिर तुम्हारे
जीवन में
अवतरण होगा।
फिर तुम्हारे
जीवन में किरण
उतरेगी। तुम मिटो तो
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उतरने को
अभी, तत्क्षण
राजी है। कब
से राजी है! कब
से बाट जोहता
है!
कब
तक बरसेगी
ज्योति बार कर
मुझको?
निकलेगा
रथ किस रोज
पार कर मुझको?
किस
रोज लिए
प्रज्वलित
बाण आओगे,
खींचते
हृदय पर रेख
निकल जाओगे?
किस
रोज तुम्हारी
आग सीस पर
लूंगा,
बाणों
के आगे प्राण
खोल धर दूंगा?
यह
सोच विरह में
अकुला कर
ये
गान बहुत रोए
वह
धनुष—बाण लिए
खड़ा ही है।
तुम ही छिपे
हो;
तुम ही
सामने नहीं
आते। और किसने
तुम्हें छिपाया
है? तुम्हारी
अस्मिता ने, तुम्हारे
अहंकार ने।
अहंकार
तुम्हारी
अपनी ईज़ाद
है, आत्मा
परमात्मा की
भेंट। तुम
आत्मा हो, अहंकार
नहीं।
अहंकार
का अर्थ है :
नाम,
धाम, पता—ठिकाना,
रंग—रूप।
अहंकार का
अर्थ हैः देह,
मन, हृदय।
इन तीनों के
पार तुम हो।
वहां न देह है,
न मन के
विचार हैं, न हृदय की
भावनाएं हैं।
वहां सन्नाटा
है। परम शून्य
है। उस परम
शून्य में
पूर्ण
तत्क्षण प्रवेश
कर जाता है।
पूर्ण को पाने
की एक ही शर्त पूरी
करनी है कि
तुम शून्य हो
जाओ।
ये
मलूक के वचन
उस शून्यता की
तरफ ले चलने
की सीढ़ियां
हैं। इन वचनों
को तुम साधक
की दृष्टि से
देखना। एक
विद्यार्थी
की भांति नहीं, एक
अध्येता की
भांति नहीं, एक सत्य के
खोजी की
भांति। और
दोनों में बड़ा
भेद है। अगर
तुम एक
अध्येता की
भांति इन
वचनों को पढ़ोगे,
तो कोरे के
कोरे रह
जाओगे। यह बाण
तुम्हें पार न
कर पाएगा। यह
रथ तुम्हारे
प्राणों से
होकर न निकल
पाएगा। ये गीत
तुम्हारे
रोते ही
रहेंगे—परमात्मा
तुममें न बस
पाएगा।
तुम
बसे नहीं
इनमें आकर
ये
गान बहुत रोए
बिजली
बन घन में रोज
हंसा करते हो,
फूलों
में बन कर गंध
बसा करते हो,
नीलिमा
नहीं सारा तन
ढंक पाती है,
तारा—पथ
में पग—ज्योति
झलक जाती है।
हर
तरफ चमकता यह
जो रूप
तुम्हारा
रह—रह
उठता जगमगा
जगत जो सारा
इनको
समेट मन में
लाकर
ये
गान बहुत रोए।
रोते
ही रहोगे।
जबकि सारा
अस्तित्व हंस
रहा है। कली—कली
हंस रही है, कण—कण
हंस रहा है।
तुम भर रो रहे
हो। और
तुम्हारे
रोने का कारण
तुमने ही
निर्मित कर
लिया है।
तुम्हीं चाहो
तो इसे छोड़ दो—अभी।
अहंकार को कोई
धीरे—धीरे
नहीं छोड़ पाता
है। समझ आती
है तो तत्क्षण
छोड़ देता है।
समझ आ गयी तो
अहंकार को पकड़
रखना असंभव है,
क्योंकि
वही तुम्हारा
नरक है।
इन
वचनों को एक
खोजी, एक सत्यार्थी
की तरह लेना, विद्यार्थी
की तरह नहीं।
ये वचन
तुम्हारे भीतर
नए—नए द्वार
खोले जा सकते
हैं। ये किसी
पंडित के वचन
नहीं हैं, एक
प्रज्ञा—पुरुष
के वचन हैं।
एक अलमस्त के
वचन हैं, जिसने
पिआ है
उसकी शराब को
और जाना है
उसके नशे को, जो मस्त हुआ
है उसमें डूबकर।
ये मस्ती में
गाए गए गीत
हैं। मत ढूंढ़ना
इनमें छंद, मत ढूंढ़ना
मात्राएं, मत
ढूंढ़ना
काव्य; वह
सब है, पर
वह गौण है।
उसमें ही मत
उलझ जाना। सार
गहना। छिलके
मत इकट्ठे
करने लग जाना।
संतों
पर बड़े
शोधकार्य
होते हैं। हर
विश्वविद्यालय
में संतों पर
शोधकार्य
चलता है। तीन—चार
वर्ष की मेहनत
के बाद
विद्यार्थी
पी एच० डी०, डी०
लिट्० लेकर
वापस लौट आता
है—और संतत्व
की बूंद भी
उसे नहीं
छूती। वह
मात्राओं में,
छंद में, शब्दों में,
शब्दों के
आयोजन में, इन व्यर्थ
की बातों में
उलझा रहता है।
मलूकदास
कब पैदा हुए? किस तिथि
में? किस
वर्ष? इसमें
उसकी सारी
शक्ति लग जाती
है। क्या इससे
प्रयोजन है!
तुम कब पैदा
होओगे? किस
तिथि में? तुम
कब अतिथि को बुलाओगे?—वह भूल ही
जाता है। ये
छंद तुम्हारे
भीतर कब पैदा
होंगे?—वह
भूल ही जाता
है। उसकी
उत्सुकता इन
वचनों से जीवन
लेने की नहीं
होती, इसलिए
चूक जाता है।
ये वचन
नहीं हैं, जलते
हुए अंगारे
हैं। ये मात्र
वचन नहीं हैं;
ये
तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित कर
दें, ऐसी
कीमिया इनमें
छिपी है। ये
तुम्हें नया
बना दें, नव—जन्म
दे दें, ये
तुम्हें
शाश्वत से
जुड़ा दें, ये
परमात्मा का
द्वार खोल दें।
इस अभीप्सा से
भरकर ही
इन्हें समझो
तो कुछ समझ
में आता है
अन्यथा रुदन
ही हाथ रहेगा।
जिस
पथ पर से रथ
कभी निकल जाता
है,
कहते
हैं, उस पर
दीपक जल जाता
है।
सच
कहते हैं। ठीक
ही कहते हैं।
परमात्मा की
एक किरण भी
निकल जाए, उसका
रथ तुम्हारे
भीतर से निकल
जाए, तो दीए
ही दीए जल
जाते हैं।
दीपावली हो
जाती है। उसकी
पिचकारी की एक
बूंद तुम पर
पड़ जाए कि रंग
ही रंग बिखर
जाते हैं, कि
फिर फाग ही
फाग है।
जिस
पथ पर से रथ
कभी निकल जाता
है,
कहते
हैं, उस पर
दीपक जल जाता
है।
मैं
देख रहा अपनी
ऊंचाई पर से,
तुम
किसी रोज तो
गुजरे नहीं
इधर से।
वह
तुम्हारा
ऊंचाई पर होना
ही बाधा है!
मैं
देख रहा अपनी
ऊंचाई पर से,
तुम
किसी रोज तो
गुजरे नहीं
इधर से।
तुम जब
तक झुकोगे
न तब तक वह
गुजरेगा
नहीं।
तुम्हारे
झुकने में ही
उसका गुजरना
है। वे दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
तुम्हारा
झुकना और उसका
गुजरना।
अंधियाले
में स्वर वृथा
टेरते फिरते,
कोने—कोने
में तुम्हें हेरते
फिरते।
पर, कहीं
नहीं तुमको
पाकर
ये
गान बहुत रोए।
टेरते
फिरो। लोग
बैठे हैं मालाएं
लिए अपने—अपने
अंधियारे
में और राम—राम
जप रहे हैं।
जपते रहो, अंगुलियां थक जाएंगी, ओंठ थक
जाएंगे, कंठ
थक जाएंगे, कहीं कुछ
उसका सुराग भी
न मिलेगा।
उसके सुराग पाने
का रास्ता हैः
मिटने की कला।
गर्व
न कीजे
बावरे, हरि गर्वप्रहारी।
पहला
वचन मलूक का :
अहंकार न करो।
ऐ पागलो!
अहंकार न करो।
अहंकार को मिटाओ।
वह परमात्मा
की पहली शर्त
है। हरि गर्वप्रहरी।
उसका पहला
प्रहार
तुम्हारे
अहंकार पर ही
है। तुम झुक
जाओ;
उसे तोड़
देने दो
तुम्हारे
अहंकार को, तुम्हारे
गर्व को, तुम्हारे
घमंड को; उसे
मिटा देने दो
तुम्हारी
ऊंचाइयों को।
कोई बैठा है
धन के शिखर पर,
कोई बैठा है
पद के शिखर पर,
कोई बैठा है
ज्ञान के शिखर
पर, कोई
बैठ गया है
त्याग के शिखर
पर—और तुम जब
तक शिखर पर हो,
शिखरों से
वंचित रहोगे।
झुको और सारे
शिखर तुम्हारे
हैं। शिखरों
का शिखर
तुम्हारा है।
मालिकों का
मालिक
तुम्हारा है।
गर्व
न कीजे
बावरे, हरि गर्वप्रहारी।
यह
पहली शर्त है :
अहंकार नहीं।
यह अहंकार ही
तुम्हें
विक्षिप्त
बनाए हुए है।
जब तक अहंकार
है तब तक
मनुष्य विक्षित
ही रहता है, खंड—खंड
रहता है, टूटा—फूटा
रहता है। झूठ
को कितना ही जोड़ो, जुड़
नहीं पाता।
कागज की नावें
कहीं सागर तिर
पाती हैं! और
ताश के पत्तों
से बनाए गए
महलों में
क्या निवास हो
सकेगा? आएगा
ज़रा—सा
हवा का झोंका
और गिर जाएंगे
महल। और ऐसे
ही हमारे सब
महल गिर जाते
हैं। सब महल
गिर गए हैं।
ऐसे ही हमारी
नावें डूबी
हैं।
सिकंदरों की
भी; छोटों
की भी, बड़ों
की भी; गरीब
की भी; अमीर
की भी। नावें
ही कागज की
हैं, नावों
का कोई कसूर
नहीं।
आश्चर्य है कि
हम फिर भी
उन्हीं नावों को
तैराए
जाते हैं, जिनको
हम रोज डूबते
देखते हैं।
फिर भी हम उसी नाम,
यश, कीर्ति,
अहंकार की
पूजा में
संलग्न रहते
हैं, जिसको
हम रोज टूटते
देखते हैं, रोज धूल—धूसरित
होते देखते
हैं। अजीब
बेहोशी है!
अजीब तमाशा
है! न—मालूम
कैसा सम्मोहन
है!
गर्व
न कीजे
बावरे, हरि गर्वप्रहारी।
गर्वहिं तें रावन
गया, पाया
दुःख भारी।।
सारा
इतिहास
मनुष्य जाति
का दो ही तरह
के लोगों का
इतिहास है—या
तो राम का या
रावण का। और
रावण का ही
ज्यादा है।
निन्यानबे
प्रतिशत रावण
का,
एक प्रतिशत
राम का। राम
तो ऐसे ही
समझो कि कहीं—कहीं
पाद—टिप्पणियों
में आ जाते
हैं, इतिहास
तो रावण का ही
है। वह तो
रावण के कारण
कभी—कभी
मजबूरी में
राम का भी
उल्लेख करना
पड़ता है। तुम
कहते हो तो
रामायण राम की
कथा को, कहना
नहीं चाहिए।
सारी कथा रावण
की है। सारा खेल
उसका है। राम
तो जैसे
अप्रासंगिक
मालूम होते
हैं। राम तो
जैसे हैं या
नहीं, बराबर।
असली में तो
रावण है।
और वही
तो भेद है।
रावण यानी
बहुत। एक
अहंकार से काम
नहीं चलता
उसका। एक सिर
से काम नहीं
चलता उसका। दस
अहंकार हैं, दस
सिर हैं। और
एक काटो
अहंकार, एक
सिर काटो कि
फिर ऊग आता
है। राम तो न
के बराबर हैं,
रावण भारी
हैं, बहुत जगह
घेरे हैं। राम
तो शून्य हैं।
इतिहास की दो
धाराएं हैं, एक राम की, एक रावण की।
एक अहंकार की
और एक निर्अहंकार
की। एक उनकी, जो समझते
हैं हम कुछ
हैं, और
दिखाकर
रहेंगे कि हम
कुछ हैं। और
एक उनकी, जो
समझते हैं कि
हम कुछ नहीं, परमात्मा ही
सब कुछ है।
"मेरा मुझमें
कुछ नहीं;" सब
उसका है।
जरन
खुदी रघुनाथ
के मन नाहिं सोहाती।
जलन,र्
ईष्या, खुदी,
अहंकार
परमात्मा को ज़रा भी
नहीं सोहाते।
ऐसे झूठों का
अंबार लेकर
तुम उसके पास
न पहुंच
सकोगे। ऐसी
बीमारियां
लेकर तुम उसके
पास न फटक
सकोगे।
स्वस्थ होना
होगा। ये रोग
छोड़ने होंगे। और
रोग ही हैं, व्याधियां ही हैं, मगर
कैसे पकड़े
हो तुम जोर से!
कभी इनसे किसी
ने सुख नहीं
पाया, तुमने
भी नहीं पाया—तुम्हारे
भी जीवन का
अनुभव है कुछ।
अहंकार ने सिवाए
दुःख के और
क्या दिया? अहंकार ने
सिवाय पीड़ा, संताप के और
कौन—सी भेंटें
तुम्हें दी
हैं? लड़ाया है, कलह
में डुबोया है,
चिंताओं से
घेरा है और
जीवन का
बहुमूल्य समय
व्यर्थ की
उलझनों में, व्यर्थ की
विपदाओं में
व्यतीत हो रहा
है। कब जागोगे?
कब तुम्हें
होश आएगा?
जागो हे
अविनाशी!
जागो किरणपुरुष!
कुमुदासन!
विधुमंडल
के वासी!
जागो हे
अविनाशी!
रत्न—जड़ित—पथ—चारी, जागो,
उडु—वन—वीथि—विहारी
जागो,
जागो
रसिक विराग—लोक
के, मधुवन
के संन्यासी!
जागो हे
अविनाशी!
जागो शिल्पि
अजर—अंबर के!
गायक
महाकाल के घर
के!
दिव
के अमृतकंठ
कवि, जागो,
स्निग्ध—प्रकाश—प्रकाशी!
जागो हे
अविनाशी!
विभा—सलिल
का मीन करो हे!
निज
में मुझको लीन
करो हे!
विधु—मंडल
में आज डूब
जाने का मैं
अभिलाषी!
जागो हे
अविनाशी!
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर मौजूद है
उतना ही जितना
बाहर मौजूद
है। भीतर उससे
पहले पहचान
करनी होगी, तब
बाहर उससे
पहचान हो
सकेगी।
क्योंकि जो
भीतर भी नहीं
पहचान सकता, वह बाहर
क्या खाक पहचानेगा!
जाओ मंदिर, जाओ मस्जिद,
जाओ गिरजा,
जाओ
गुरुद्वारा, खाली हाथ
जाओगे, खाली
हाथ लौटोगे!
पंडित—पुजारियों
का जाल धर्म
नहीं है। धर्म
कोई मंदिर, मस्जिद, गिरजे,
गुरुद्वारे
में आबद्ध
नहीं है।
तुम्हें अपने
भीतर जो
निकटतम है, उस तक की
प्रतीति नहीं
हो रही, तो
तुम कैसे देख
सकोगे उसे
बाहर? कैसे
पहचानोगे
उसे वृक्षों
में? कैसे पहचानोगे
उसे सूरज में,
चांद में, तारों में; लोगों में, पशुओं में, पक्षियों
में; पत्थरों
में? और
जाते हो तुम
पत्थर की
मूर्ति के
सामने आरती का
थाल सजाते हो!
देख सकोगे तुम
पत्थर की मूर्ति
में? मैं
नहीं कहता हूं
कि परमात्मा
वहां नहीं है।
क्योंकि
परमात्मा
पत्थर में भी
है, सब
पत्थरों में
भी है—उनमें
भी जो
मूर्तियां
नहीं बनी हैं।
परमात्मा ही
है। सारा
अस्तित्व उसी
से व्याप्त
है। शायद यह
कहना भी ठीक
नहीं कि
अस्तित्व
उससे व्याप्त
है, यही
कहना उचित है
कि अस्तित्व
और परमात्मा
पर्यायवाची
हैं, एक ही
बात को कहने
के दो ढंग
हैं।
तुम्हें
पत्थर की
मूर्ति में
परमात्मा
दिखायी पड़
सकेगा? तुम्हें
अपने भीतर, जहां जीवन
की सलिला बह
रही है, जहां
चैतन्य की
ज्योति जल रही
है, वहां
उसकी पहचान
नहीं हो पा
रही! सबसे
पहले अपने ही
भीतर के मंदिर
में उसे देखना
होता है। फिर
सब जगह उसके
मंदिर हैं।
मुसलमान
फकीर बायज़ीद
ने कहा है, जब
मैं पहली दफा
काबा गया तो
मुझे काबा का
पत्थर दिखाई
पड़ा और कुछ भी
नहीं। जब
दूसरी बार काबा
गया, तो
मुझे पत्थर का
मालिक दिखायी
पड़ा। और जब
तीसरी बार गया,
तो न पत्थर
दिखाई पड़ा न
मालिक दिखाई
पड़ा। तब मैं
बड़ा चौंका।
पहली दफा
पत्थर दिखायी
पड़ा था; दूसरी
दफा पत्थर
दिखायी नहीं
पड़ा था, पत्थर
का मालिक
दिखायी पड़ा था;
तीसरी बार न
पत्थर दिखायी
पड़ा न पत्थर
का मालिक
दिखायी पड़ा।
स्वभावतः बायज़ीद
बहुत चौंका। चौंककर घबड़ाहट
में उसने आंखें
बंद कर लीं—और
तब वह दिखायी
पड़ा जो असली
में है, मालिकों
का मालिक। फिर
बायज़ीद
चौथी बार काबा
नहीं गया। अब
क्या खाक काबा
जाना है!
मंदिर
जाओ,
मस्ज़िद जाओ, काबा
या काशी या
कैलाश, सब
व्यर्थ है।
पहले अपने
भीतर चलो!
जागो हे
अविनाशी!
ज़रा
नींद तोड़ो. . .
जागो किरणपुरुष!
कुमुदासन!
विधुमंडल
के वासी!
जागो हे
अविनाशी!
रत्न—जड़ित—पथ—चारी, जागो,
उडु—वन—वीथि—विहारी
जागो,
जागो
रसिक विराग—लोक
के, मधुवन
के संन्यासी!
जागो हे
अविनाशी!
और
जागरण का पहला
कदम है, क्योंकि
अहंकार है
मूर्च्छा, इसलिए
जागरण का पहला
कदम है : अहंकार
छोड़ो।
कहो, प्राण
भरकर कहो कि
मैं नहीं हूं।
यही प्रार्थना
है, यही
ध्यान है। कहो
ही मत, जानो
कि मैं नहीं
हूं। जानो ही
मत, अनुभव
करो कि मैं
नहीं हूं। ज़रा
टटोलो और
तुम निश्चित
जान सकोगे कि
तुम नहीं हो।
यह "मैं"
भ्रांति है।
मैं का
अर्थ है : हम
अलग हैं
अस्तित्व से।
जैसे किसी लहर
को होश आ जाए
सागर में तो वह
भी समझेगी
कि मैं हूं, सागर
से अलग, दूसरी
लहरों से अलग,
ऐसे ही हम
भी लहरें हैं
उसके चैतन्य
के सागर की।
बस, इतना
ही भेद है कि
हमें ज़रा
होश है, लहर
ज़रा गहरी
नींद में सोई
है। हम भी सोए
हैं, लेकिन
नींद टूटी—टूटी
है। प्रभात
बेला की नींद
है। जब
दूधवाला द्वार
पर दस्तक देता
है तो कुछ—कुछ
सुनायी भी
पड़ता, पत्नी
चाय बनाती है
तो चौके से
आती आवाजों
की थोड़ी भनक
पड़ती है और
फिर तुम करवट
लेकर, कंबल
ओढ़कर और
दो क्षण को सो
रहते हो। ऐसी
तुम्हारी
नींद है। कुछ—कुछ
सुनायी पड़ता
है। अगर
बिल्कुल
सुनाई न पड़ता
होता, तो
मलूक बोलते
नहीं, मैं
बोलता नहीं।
बोलना व्यर्थ
था। कुछ—कुछ
सुनाई पड़ता है,
नींद में ही
सही, मगर
पुकार आ जाती
है। कुछ भनक
कान में पड़ती
है। उसी भनक
पर भरोसा है।
उसी भनक से
आशा है कि शायद
जग जाओ।
जागोगे
तो पहली बात
दिखायी पड़ेगी
कि मैं अलग
नहीं हूं। हम
अस्तित्व से
जुड़े हैं। एक
हैं। सारा
अस्तित्व एक
है। यहां कुछ
भी अलग—थलग
नहीं है। उस
ऐक्य का नाम
ही परमात्मा
है। और उस
ऐक्य में ही
आनंद है। उस
ऐक्य में ही
सत्य है। उस
ऐक्य में ही
अद्वैत है। वह
ऐक्य ही ब्रह्मानुभव
है,
समाधि है, निर्वाण है,
मोक्ष है, कैवल्य है।
जरन
खुदी रघुनाथ
के मन नाहिं सोहाती।
और
अहंकार तोर्
ईष्या से भरा
ही रहेगा।
अहंकार का
भोजन हैर्
ईष्या।
अहंकार तो
जलता है, भुनता
है, इसी
में उसका
प्राण ठहरा
है। अहंकार
सदा यही सोचता
रहता है : मैं
किससे बड़ा? और किसी से
अपने को बड़ा
पाता है तो
बड़ा
प्रफुल्लित
होता है। छोटे
बच्चे अपने
बाप की कुर्सी
पर चढ़ जाते
हैं, कुर्सी
के हत्थे पर
खड़े हो जाते
हैं और कहते हैं
: देखो, पिताजी,
मैं तुमसे
बड़ा। लेकिन
जिनको हम उम्र
वाले कहें, वे भी
बच्चों से
बहुत भिन्न
नहीं हैं।
दिल्ली की
किसी कुर्सी
पर बैठ गए और
तब वे कहने
लगते हैं कि
मैं बड़ा।
मुझसे बड़ा कोई
भी नहीं। ये
छोटे बच्चे
हैं जो कुर्सी
के हत्थों पर
चढ़ गए हैं।
कुर्सियों के
हत्थों पर चढ़ने
से न छोटे
बच्चे बड़े
होते और न
दिल्ली की गद्दियों
पर बैठ जाने
से कोई बड़ा
होता। अगर
किसी से अपने
को बड़ा पाया
तो अहंकार फूल
जाता है, कुप्पा
हो जाता है।
जैसे
गुब्बारे में
कोई हवा भर
दे। और हम
गुब्बारे में
हवा भरे ही
चले जाते हैं,
क्योंकि
दूसरे
गुब्बारों से
हमें बड़ा
दिखायी पड़ना
है। बड़ी
प्रतियोगिता
है। तो बड़ीर्
ईष्या है।
दूसरे भी उसी
चेष्टा में
लगे रहते हैं।
एक
महिला एक
डाक्टर के
यहां गयी। अभी
कल ही उसकी
शादी हुई। कल
रात ही उसने
सुहागरात
मनाई है। मगर
होगी बड़ी दूर
की सूझ रखनेवाली।
कुछ लोग बड़ी
दूर की सोचते
हैं! उसने
डाक्टर से कहा
कि ज़रा
मेरी जांच कर
लीजिए, कहीं
मैं गर्भवती
तो नहीं हूं।
डाक्टर को भी
मजाक सूझा।
उसने उससे कहा
कि लेट! और
उसके पेट पर
ठीक नाभि के
नीचे कलम
उठाकर बिल्कुल
बारीक
अक्षरों में
दस्तखत कर
दिए। इतने
बारीक कि जब
तक तुम
खुर्दबीन से न
देखो, दिखायी
भी न पड़ सके।
उस महिला ने
पूछा, यह
आप क्या कर
रहे हैं? उसने
कहा कि मैं
दस्तखत कर रहा
हूं। उस महिला
ने कहा, मेरे
पेट पर दस्तखत
करने से क्या
फायदा? उस
डाक्टर ने कहा
कि घबड़ा मत, जब ये
दस्तखत तुझे
पढ़ाई में आने
लगें, तब
समझना कि
गर्भवती है। ज़रा पेट को
फूलने दे! जब
अक्षर तुझे
पढ़ाई में आने
लगे, तब
लौट आना। तब
समझना कि अब
मेरे पास आने
का वक्त आया।
अभी तू बहुत
जल्दी आ गई।
छोटे—छोटे
बच्चे, छोटा—छोटा
अहंकार। छोटे
बच्चों की
बातें सुनते
हो तुम!
दो
बच्चे बातें
कर रहे थे। एक
कह रहा था कि
तैराक हो, गोताखोर
हो, तो कोई
मेरे पिताजी
जैसा। पांच—पांच,
सात—सात
मिनट पानी के
भीतर चले जाते
हैं। पता ही नहीं
चलता। दूसरा
बोला, यह
कुछ भी नहीं!
गोताखोर हो तो
मेरे पिताजी
जैसा। आज सात
साल हो गए, जो
गोता मारा है
सो निकले ही
नहीं। इसको
कहते हैं
गोताखोरी!
छोटे
बच्चे अभी
अहंकार लिखना
शुरू कर रहे
हैं। अपने ढंग
से। तुतलाते
ढंग से। मगर
शुरू हो गयी मूढ़ता की
यात्रा, जो
दिल्ली पर
समाप्त होगी।
जो किसी—न—किसी
तरह जीवन को व्यर्थ
करके रहेगी।
अगर
तुम अपने से
बड़े को देख लो, तो
पीड़ा होती है,
तो कष्ट
होता है, तो
चोट लगती है—भयंकर
चोट लगती है।
बड़ी चोट लगती
है। बड़े से बड़े
भी जो हैं, उनको
भी चोट लगती
है, अपने
से बड़े को देख
लें तो। और
कैसे करोगे
तुम इंतजाम कि
हर चीज में
तुम बड़े हो जाओ?
इस जिंदगी
में बहु—आयाम
हैं। हो सकता
है तुम्हारे
पास सबसे ज्यादा
धन हो। लेकिन
इससे क्या
होता है? तुम्हारा
नौकर भी तुमसे
ज्यादा
स्वस्थ हो सकता
है। तोर्
ईष्या पकड़ेगी,
नौकर सेर्
ईष्या पकड़
जाएगी। राह
चलता हुआ
भिखमंगा तुमसे
ज्यादा सुंदर
हो सकता है—फिर
क्या करोगे? अहंकार सिर धुनेगा।
कोई ज्यादा
बुद्धिमान हो
सकता है।
नेपोलियन
की ऊंचाई पांच
फीट पांच इंच
थी। जिंदगीभर
उसे इसकी पीड़ा
रही। सब कुछ
उसके पास था।
बड़ा सम्राट।
मगर यह अड़चन
उसे काटती थी।
सदा काटती रही।
क्योंकि उसके
सिपाहियों
में ऐसे लोग
थे जो उससे
ऊंचे थे। उसके
शरीररक्षक
कोई छह फीट
ऊंचा था, कोई साढ़े छह
फीट ऊंचा था।
एक दिन दीवाल
पर लगी घड़ी को
नेपोलियन ठीक
कर रहा था, उसका
हाथ नहीं
पहुंच पा रहा
था दीवाल की
घड़ी तक, उसके
शरीररक्षक
ने कहा, आप रुकें, मैं
आपसे ऊंचा हूं,
मैं ठीक किए
देता हूं।
नेपोलियन ने
कहा, शब्द
वापस लो, अन्यथा
जबान कटवा
दूंगा। कहो कि
मैं आपसे लंबा
हूं, ऊंचा
नहीं। देखते
हो अहंकार
कैसी पीड़ा
लेता है! कहो
कि लंबा हूं, ऊंचा नहीं।
ऊंचे तुम कैसे
हो जाओगे? सिपाही
ने तत्क्षण
क्षमा मांगी।
घाव छू गया!
लेनिन
रूस का
डिक्टेटर हो
गया था। उसको
एक अड़चन थी।
रूस पृथ्वी का
बड़े से बड़ा
देश है।
दुनिया की एक
बटा छह जमीन
रूस के पास
है। इससे बड़ा
कोई देश नहीं—यूरोप
के एक कोने से
लेकर एशिया के
दूसरे कोने तक
फैला है। दो
महाद्वीपों
को घेरे हुए
है। लेनिन
इसका एकमात्र
तानाशाह हो
गया। लेकिन उसे
एक अड़चन थी।
और वह अड़चन यह
थी कि उसका
ऊपर का धड़
तो बड़ा था और
पैर छोटे थे।
और इससे वह
इतना पीड़ित
रहता था कि
जिसका हिसाब
नहीं। वह
सभाओं में
जनता से पहले
पहुंच जाता
था। लोग सोचते
थे,
कितना
विनम्र है।
कारण और ही
था। असली कारण
यह था कि वह
बाद में
पहुंचे तो
लोगों को
दिखायी पड़ते
थे—उसके पैर
छोटे और शरीर
बड़ा। वह पहले
ही पहुंच जाता
था सभाओं में।
सबसे पहले
पहुंचता और
सबसे पीछे
जाता। लोग
कहते, अहाह! नेता हो तो
ऐसा! कैसा
विनम्र!
उसने कुर्सियां
बनवा रखी थीं
बड़ी। सामने टेबिल
रखकर ही बैठता
था। कुर्सियां
ऐसी बनवा रखी
थीं जिसके
कारण वह ऊंचा
दिखायी पड़े।
लेकिन बड़ी मुश्किल
थी,
उसके पैर
जमीन नहीं
छूते थे। अगर
कोई टेबिल
के नीचे झांककर
पैर देख लेता
तो वह नाराज
हो जाता।
क्योंकि उसके
पैर लटके रहते
हवा में। जिस
आदमी ने भी कभी
उसके पैर झांककर
देख लिए, उसने
उसे कभी क्षमा
नहीं किया।
क्या
करोगे? धन हो,
पद हो, प्रतिष्ठा
हो, सब हो, मगर किसी—न—किसी
मामले में
तुमसे बेहतर
लोग मिल
जाएंगे। किसी
की नाक सुंदर
है, किसी
की आंख सुंदर
है, किसी
का रंग गोरा
है, किसी
की देह पुष्ट
है।
एक
गांव में
सम्राट
निकलने में
डरता था। निकलना
पड़ता था कभी
लेकिन डरता
था। डरता था
एक आदमी से।
एक आदमी शिवजी
के मंदिर के
सामने मस्त
पड़ा रहता था।
उसका कुल काम इतना
था : दंड—बैठक
लगाना और
शिवजी को जो
प्रसाद लोग
चढ़ा जाएं, उसी
को प्राप्त कर
लेना। न कोई
फिक्र, न
कोई चिंता। वह
इतना मजबूत था
जब भी सम्राट
निकलता, वह
उसके हाथी की
पूंछ पकड़कर
खड़ा हो जाता।
अब तुम सम्राट
की सोच लो गति!
हाथी आगे न बढ़
सके। अब
सम्राट लगता
होगा बिल्कुल
बुद्धू की तरह
बैठा हाथी पर।
हाथी पर न
बैठे हैं जैसे
गधे पर बैठे
हैं! और भीड़ लग
जाती और लोग
हंसने लगते।
और महावत हांक
रहा है और सम्राट
नाराज हो रहा
है और वह आदमी
पूंछ पकड़े
खड़ा है। आखिर
सम्राट से न
रहा गया, यह
बर्दाश्त के
बाहर था, कुछ—न—कुछ
करना ही
पड़ेगा।
उसने
एक फकीर से
पूछा कि क्या
करूं, क्या न
करूं! इसकी
वजह से मैं
निकलने में
डरता हूं। कभी
निकलना पड़ता
है काम के
कारण। तो मुझे
भय होता है कि
वह आदमी कहीं
मिल न जाए। और
वह है कि पड़ा
ही रहता है
वहां। वह
चौबीस घंटे
वहां मौजूद—बीच
बाजार में, बस हाथी की
पूंछ पकड़कर
खड़ा हो जाता
है! हाथ—पैर जोड़ने
पड़ते हैं कि
भाई, चलने
दे। फकीर ने
कहा, आप
फिक्र न करें।
उसे आज महल बुलवाएं,
मैं ठीक किए
देता हूं।
उसे
महल बुलवाया
और कहा सुनो, ऐसे
कब तक भीख पर जिओगे? हम
तुम्हें एक
रुपया रोज
देंगे. . . एक
रुपया उन
दिनों बहुत
बड़ी बात थी। एक
रुपए में आदमी
तीस दिन खाना
खाता. . . एक छोटा—सा
काम है। उसने
कहा, कौन—सा
काम? इतना
कि शंकरजी
का मंदिर है, उस पर रोज
शाम को छह बजे
दीया जला दिया
करे और रोज
सुबह छह बजे
दीया बुझा
दिया करे।
इतना तुम्हारा
काम है। और एक
रुपया
तुम्हें रोज
मिलेगा। उसने
सोचा, यह
अच्छा। ऐसे तो
उसे खाने—पीने
का चल ही रहा
था, लेकिन
एक रुपया और
मिले तो और
दूध पिएगा!
एक रुपया तो रइसों को
भी रोज खर्च
करने को मिल
जाता उन दिनों
तो बहुत बड़ी
बात थी। उसने
कहा, ठीक; और काम कुछ
खास नहीं। ये
है, हम पड़े
ही रहते हैं
वहां, जला
देंगे दीया
शाम को, बुझा
देंगे सुबह!
एक
महीने बाद
सम्राट को
फकीर ने कहा
कि अब निकलो।
गया सम्राट।
पुरानी आदतवश
वह आदमी ने
आकर पकड़ी
पूंछ, घसिट गया। फकीर
से सम्राट ने
पूछा कि हुआ
क्या? उस
आदमी ने भी
पूछा कि हुआ
क्या? दूध
भी पिया और इस
बार तो केशर
भी डाली और इस
बार तो मजा—ही—मजा
था! फकीर ने
कहा कि मामला
सीधा—सादा है।
एक चिंता तुझे
पकड़ा दी। तुझे
फिकर लगी रहती
थी दिनभर
कि छह बजे कि
नहीं? हर
किसी की घड़ी
में देखता था,
हर किसी से
पूछता था कि
कितना समय हुआ?
अभी घंटाघर
का छह बजा कि
नहीं? क्योंकि
सम्राट ने कहा
था, ठीक छह
बजे। मिनटभर
की भी देरी न
चलेगी। तो ही
रुपया
मिलेगा। तो ठीक
छह बजे दीया
जलाना है। और
ठीक छह बजे
सुबह बुझाना
है। दंड—बैठक
लगाते—लगाते
बीच में रुक—रुक
कर घड़ी देख
लेता। जाकर
ठीक छह बजे
दीया बुझाना,
फिर दंड—बैठक
लगाओ। वह
फिक्र दो समय
की खा गयी।
घुन लग गया।
महीने भर में
सब अस्त—व्यस्त
हो गया।
लेकिन
एक साधारण
गरीब आदमी एक
सम्राट को
पीड़ा दे सकता
है।
बहादुरशाह जफ़र भारत
का आखिरी मुगल
सम्राट हुआ।
उसे कविता लिखने
का शौक था। और
कुछ उसके
अच्छे गीत भी
हैं। लेकिन वे
सच में उसके
हैं,
यह संदिग्ध
है। वह रोज ही
गीत लिखता था।
बहुत गीत लिखे
उसने। उसने एक
दिन गालिब से
कहा कि मिर्जा,
आप कितने
दिन में एक
गीत लिखते हैं?
गालिब ने
कहा, दिनों
से गीत लिखने
का क्या संबंध?
कभी महीनों
बीत जाते; कभी
साल गुजर जाती
और गीत नहीं
बनता है तो
नहीं बनता, और कभी बनता
है तो बन जाता
है। अपने हाथ
की बात नहीं।
उसकी देन है।
जब फूंक देता
है स्वर तो बज
जाता है। हम
तो लाख कोशिश
करें तो भी
बात नहीं
बनती। इसलिए
मैंने कोशिश ही
करनी छोड़ दी।
राह देखता हूं,
जब उसकी मौज
होगी, आएगा
मधुमास, खिलेगा
फूल, खिल
लेगा। नहीं
होगी उसकी मौज,
तो मैं लाख
घिसता रहूं
कलम, चीज
बनती नहीं।
औरों को भले
धोखा दे दूं
कि यह गीत है, मगर मुझे ही
नहीं रास आता।
मेरे ही
प्राणों को
नहीं भाता।
बहादुरशाह जफ़र ने कहा
कि मैं तो
समझता था तुम
महाकवि हो।
तुमसे तो मैं
अच्छा! अरे, मैं
पाखाने
में बैठे—बैठे
गीत बना लेता
हूं! मिर्जा
गालिब ने कहा,
क्षमा करें,
इसीलिए
आपके गीतों
में पाखाने
की बदबू आती
है। बहादुरशाह
जफ़र को
बहुत चोट लगी।
सम्राट! लेकिन
मिर्जा गालिब
से कुछ कह भी न
सकता। मगर चोट
खा गया, बुरी
तरह चोट खा
गया। अपने
मित्रों से
कहा कि आज मैं
बहुत दुःखी
हूं। मेरा
बहुत अपमान हो
गया। मेरे
अहंकार को
बहुत चोट
पहुंच गयी है।
मैं तो सोचता
था मैं महाकवि
हूं और गालिब
कह दे कि आपके
गीतों में
बदबू आती है पाखाने की!
कभी
क्षमा न कर
सका फिर। मन
में वह पीड़ा
जिंदगी—भर रही
उसे। लेकिन
गालिब से कुछ
कह भी नहीं सकता
था। गालिब की
बात ही और थी।
ऐसे तो उर्दू
ने बहुत
महाकवि दिए
हैं,
पर गालिब बेजोड़ है।
और सब छोटे—छोटे
तारे हैं, गालिब
तो ध्रुवतारा
है। थिर है।
शायद फिर कभी गालिब
जैसा व्यक्ति
पैदा होगा
नहीं उर्दू के
साहित्य में।
न पीछे कोई था,
न आगे कोई
होगा।
कभी—कभी
ऊंचाइयां
ऐसी छुई जाती
हैं।
मगर
क्या करोगे? सब
स्थितियों
में तुम ऊंचे
नहीं हो सकते।
इसलिए अहंकार
या तो तुम्हें
फुलाएगा—और
फूला हुआ
अहंकार बहुत
ही संवेदनशील
हो जाता है। ज़रा—ज़रा—सी
बात से चोट
लगने लगती है।
जिस अहंकारी
आदमी को तुम
रोज नमस्कार
करते हो, आज
नमस्कार न
करना सड़क पर, उसको चोट लग
गयी। वह चौबीस
घंटे यही
सोचता रहेगा,
क्या मामला
है? क्यों
इस आदमी ने
नमस्कार नहीं
की?
या फिर
अहंकार दूसरे
को बड़ा देखता
है और क्षुभित
होता है। और
जलता है, अग्नि
में। नरक कहीं
और नहीं है।
नरक है तुम्हारे
अहंकार में।
यह हर हालत
में जलाता है।
और फिर तुम
कितना ही फुला
लो इसे, हमेशा
तुमसे भी
ज्यादा फूले
हुए लोग मिल
जाएंगे। यह
दुनिया बड़ी
है। इसलिए कभी—न—कभी
तुम अड़चन में
पड़ोगे।
कहते
हैं ऊंट
पहाड़ों के पास
नहीं जाता।
बात ठीक ही
लगती है। ऊंट
रहते भी
रेगिस्तानों
में,
पहाड़ों की
तरफ जाते भी
नहीं।
रेगिस्तानों
में वे ही
पहाड़ हैं। पहाड़ों
के पास उनको
अपनी हैसियत
का पता चलेगा।
लेकिन कभी न
कभी तो आदमी
को पहाड़ मिल
ही जाएगा। और
जहां पहाड़
मिला, वहीं
कष्ट है।
इसलिए तो तुम
जीसस को क्षमा
नहीं कर पाए; पहाड़ के पास
ऊंट आ गए। तुम
ऊंट थे।
रेगिस्तान में
सब ठीक था।
जीसस का पहाड़,
जीसस का
हिमालय या
सुकरात का, या बुद्ध का,
या मलूक का,
या कबीर का—तुम
किसी को भी
क्षमा नहीं कर
पाए। इनकी
मौजूदगी
तुम्हें कष्टपूर्ण
हो गयी।
क्योंकि
तुम्हारे
अहंकार को बड़ी
चोट पड़ने लगी,
कि मैंने तो
परमात्मा अभी
तक जाना नहीं
और मलूकदास
ने जान लिया।
मैंने परमात्मा
अभी तक देखा
नहीं और कबीरदास
ने देख लिया!
यह जुलाहा! यह
दो कौड़ी
का आदमी, इसने
परमात्मा देख
लिया! तुम
कैसे मानो? तुम कैसे
राजी हो जाओ? तुम बदला
लोगे। इसलिए
तुमने संतों
को सदियों—सदियों
में सताया है।
इस सताने
के पीछे गणित
है।
गणित
यह है कि उनकी
मौजूदगी तुम्हारे
अहंकार को
बहुत जला—भुना
डालती है। जिन
संतों से तुम
अमृत ले सकते
थे,
उनसे तुमने
अमृत न लिया।
उनको देखकर
तुमने अपने
भीतर जहर
पिया। अद्भुत
हो तुम! जिनसे
तुम्हारी
प्यास सदा के
लिए बुझ सकती
थी, उनके
पास से तुम और
प्यासे होकर
लोटे। जिनके
जीवन की एक बूद
तुम्हारी
तृषा को सदा
के लिए शांत
कर देती, उनके
पास से तुम आग
के अंगारे
लेकर लौटे।
जहां से फूलों
की झोली भर
लेनी थी, वहां
तुमने अंगार बीने। मगर
अहंकार यही
करता है।
अहंकार
तुम्हें सब स्थिति
में परमात्मा
से दूर रखेगा।
संतों से दूर
रखेगा, सद्गुरुओं से दूर
रखेगा।
अहंकार हमेशा
चाहता है, अपने
से छोटे लोगों
के साथ जुड़े
क्योंकि वहां उसे
लगता है कि
मैं पहाड़ हूं।
इसलिए
तुम पसंद करते
हो खुशामदी।
तुम्हारी स्तुति
करनेवाले
लोग। जो कहें
कि वाह, आप, क्या कहने!
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक नवाब के घर
नौकरी किया।
अब नवाब की
नौकरी और मुल्ला
नसरुद्दीन
जैसा होशियार
आदमी। तो
नौकरी तो क्या
करता था सिर्फ
खुशामद करता
था। उतना ही
काफी था। और
नवाब इतना
प्रसन्न था उस
पर कि सदा साथ
रखता था। क्योंकि
हर वक्त वह
उसके अहंकार
के गुब्बारे
को फुलाता
रहता। साथ ही
भोजन करने
बिठाता नवाब
उसे,
साथ ही कमरे
में सुलाता।
अहंकारी को
चौबीस घंटे
चाहिए। क्योंकि
अहंकार में हर
जगह पंक्चर हो
जाते हैं। कोई
चाहिए जो
जल्दी से मल्हम—पट्टी
कर दे, पंक्चर
जोड़ दे। फिर
पंप मार दे।
ज्यादा जलन हो
जाए तो थोड़ा
मक्खन लगा दे,
थोड़ा शीतल
कर दे, थोड़ा
चंदन लेप कर
दे। और नसरुद्दीन
जैसा कुशल!
भोजन
करते वक्त एक
दिन दोनों
बैठे, नयी—नयी भिंडियां
हैं, नवाब
ने कहा कि बड़ी
सुंदर बनी हैं—अपने
बावर्ची को
कहा। खुश हूं
मैं। मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा कि
भिंडी है भी
चीज बहुत
अद्भुत! अरे, प्राचीन
शास्त्रों
में, जो खो
चुके हैं, भिंडी
को तो
सब्जियों का
राजा कहा है।
यह तो सम्राट
है सम्राट।
जैसे आप मनुष्यों
में, ऐसे
भिंडी
सब्जियों
में। पृथ्वी
पर अमृत समझो।
अगर जीवनभर
व्यक्ति
भिंडी खाए, मरे ही
नहीं।
बावर्ची ने
सुना। वह रोज
भिंडी बनाने
लगा। सातवें
दिन सम्राट ने
थाली फेंक दी।
बावर्ची को
बुलाया कि
दुष्ट, क्या
मेरी जान लेना
है? भिंडी,
भिंडी, भिंडी.
. . एक सीमा होती
है! नसरुद्दीन
ने थाली अपनी
और जोर से
फेंक दी और
बावर्ची से कहा
कि तू नवाब को
ही नहीं, हमको
भी मारेगा।
हत्यारे कहीं
के! नवाब ने
कहा कि नसरुद्दीन,
तुम तो कहते
थे भिंडी अमृत
है; और
पुराने
शास्त्र जो खो
गए हैं, उनमें
भिंडियों
को सब्जियों
का सम्राट कहा
गया है। वह सब
क्या हुआ? नसरुद्दीन ने कहा, मालिक,
मैं आपका
नौकर हूं, भिंडी
का नहीं। आप
दिन को दिन
कहें, दिन,
आप दिन को
रात कहें, रात।
मैं तो आपका
सेवक हूं।
आपकी हां मेरी
हां। आपकी न
मेरी न।
अहंकारी
सदा अपने
आसपास इस तरह
के लोगों को
इकट्ठा
रखेगा। इसलिए
तुम्हें
राजनेताओं के
पास चापलूस, चमचे
इकट्ठे होते
मिल जाएंगे।
और वे ही चमचे—राजनेता
बदल जाता है, चमचे वही के
वही, वे
दूसरे
राजनेता के
पीछे हो जाते
हैं। अरे, वे
कोई भिंडी के
नौकर थोड़े ही
हैं! उन्हें भिंडियों
से क्या लेना?
भिंडी का
नाम मोरारजी
देसाई हो कि
भिंडी का नाम चरणसिंह
हो, उन्हें
क्या मतलब? वे तो
कुर्सी की
सेवा करते
हैं। कुर्सी
पर कोई भी
बैठे, उसकी
भी सेवा इस
बहाने हो जाती
है; बाकी
कुर्सी की
सेवा करते
हैं। वे
कुर्सी को मानते
हैं, जो
बैठे कुर्सी
पर!
प्रत्येक
व्यक्ति. . . तुम
भी अपनी तरफ
नजर रखना, उन
लोगों से तुम
बड़े प्रसन्न
होते हो जो
तुम्हारी
खुशामद करते
हैं। उनसे
सावधान रहना!
वे दोस्त नहीं
हैं, दुश्मन
हैं। दोस्त तो
वह है जो
तुम्हें
तुम्हारी
स्थिति
बतलाए। इसलिए
कबीर ने कहा
हैः निंदक
नियरे राखिए
आंगन कुटी छवाय।
अपने घर के
पास ही बसा
लेना निंदक
को। आंगन कुटी
छवा
देना। उसकी
सेवा—सुश्रूषा
करना। उसको
पास ही रखना।
क्योंकि वह
तुम्हें याद
दिलाता रहेगा
तुम्हारी
असलियत की। वह
तुम्हारे
कांटों को फूल
नहीं कहेगा। भले
तुम्हारे
फूलों को
कांटा कह दे
उसमें कुछ हर्जा
नहीं है फूलों
को कांटा कहे
तो। फूलों को
कांटा कहने से
फूल कांटे
नहीं हो जाते।
लेकिन कांटों
को जो लोग फूल
कहते हैं, उनकी
अगर तुम
मानोगे— और
अहंकार मानना
चाहता है—तो
कम—से—कम
तुम्हारे लिए
तो भ्रांति
पैदा हो जाती
है।
जरन
खुदी रघुनाथ
के मन नाहिं सोहाती।
जाके जिय
अभिमान है, ताकि
तोरत
छाती।।
परमात्मा
तो उसकी छाती
तोड़ देगा, जिसके
भीतर अभिमान
है। खुदी है, फिर खुदा
नहीं। खुदी
जाए, सो
खुदा है।
एक
दया और दीनता, ले
रहिए भाई।
मलूक
कहते हैं। दो
चीजें सीख लो।
एक तो : मैं कुछ
नहीं हूं; दीनता।
और उसी से
दूसरी चीज
अपने—आप
निष्पन्न
होती है : दया।
अहंकारी
दयावान नहीं
होता।
अहंकारी कठोर
होता है। अपने
अहंकार को
सिद्ध करने
में उसे पाषाण
हो जाना पड़ता
है। निर्अहंकारी
सदय हो जाता
है। पिघल जाता
है। प्रीतिपूर्ण
हो जाता है
उसका
व्यवहार।
चरन गहो जाय
साध के, रीझैं
रघुराई।।
पकड़ लो
उसके चरण। तो
ही तुम रिझा
सकोगे
परमात्मा को।
और उसके चरण
कौन पकड़ेगा? जो
झुकने को राजी
है।
यही
बड़ा उपदेश है, परद्रोह न करिए।
कह
मलूक हरि सुमिरके
भौसागर तरिए।।
वह
कहते हैं, यह
परम उपदेश है।
एक बात में सब
बात आ गयी। एक
कुंजी बड़े से
बड़े ताले को
खोल देती है।
यह छोटी कुंजी
है, मगर
छोटी मत समझना,
क्योंकि यह
बड़े—से—बड़े
ताले को खोल
देती है।
मंदिरों का
द्वार इससे
खुल जाता है।
जैसे ही तुम
विनम्र बनो, परमात्मा का
संदेश
तुम्हें
सुनाई पड़ने
लगे। आंख खुलें
तुम्हारी।
क्योंकि
अहंकार ने ही
परदा डाला है।
कान खुलें
तुम्हारे।
क्योंकि
अहंकार ने ही
तुम्हारे
कानों में
पत्थर भर दिए
हैं। हृदय तुम्हारा
आंदोलित होने
लगे। क्योंकि
अहंकार ही
तुम्हें जड़
बनाए हुए है।
विनम्रता
पिघला दे, तुम
बहने लगो, बहाव
आए। और जहां
बहाव है, वहां
जीवन है। और
जहां जीवन है,
वहां
परमात्मा है।
रे
प्रवासी, जाग,
तेरे
देश का
संवाद आया
भेदमय
संदेश सुन
पुलकित
खगों ने
चंचु खोली;
प्रेम
से झुक—झुक
प्रणति में
पादपों की
पंक्ति डोली।
दूर
प्राची की तटी
से
विश्व
का तृणत्तृण
जगाता
फिर
उदय की वायु
का वन में
सुपरिचित
नाद आया।
रे
प्रवासी, जाग,
तेरे
देश का
संवाद आया।
व्योम—सर
में हो उठा
विकसित
अरुण
आलोक—शतदल;
चिर—दुःखी
धरणी विभा में
हो रही
आनंद—विह्वल।
चूमकर
प्रति रोम से
सिर
पर चढ़ा
वरदान प्रभु
का,
रश्मि—अंजलि
में पिता का
स्नेह—आशीर्वाद
आया।
रे
प्रवासी, जाग,
तेरे
देश का
संवाद आया।
सिंधुत्तट का
आर्य भावुक
आज जग
मेरे हृदय में
खोजता
उद्गम विभा का
दीप्त—मुख
विस्मित उदय
में;
उग रहा
जिस क्षितिज—रेखा
से
अरुण, उसके
परे क्या?
एक
भूला देश
धूमिल
सा
मुझे क्यों
याद आया?
रे
प्रवासी, जाग,
तेरे
देश का
संवाद आया।
अहंकार
हटे तो
तुम्हें अपने
असली देश का
संदेश सुनायी
पड़े।
तुम्हारे
भीतर वेद जगे।
उपनिषद उठे।
गीता फूटे।
कुरान
गुनगुनाए। तुम
सब छिपाए बैठे
हो संपदाएं!
यह अहंकार
सबको दबाए
बैठा है। यह
अहंकार की
चट्टान के
नीचे अमृत के
झरने दबे हैं।
धर्म
की यात्रा में
पहला कदम है :
अपने को मिटा
देना, पोंछ
देना; न हो
जाना। फिर शेष
सब अपने—आप
घटित होता चला
जाता है। तुम
इतना करो, शेष
परमात्मा
करने को राजी
है।
मन तें इतने
भरम गंवावो।
और
कितना तुम
गंवा रहे हो, पता
है? काश, तुम्हें पता
हो तो
तुम्हारी
छाती धक से रह
जाए, कि
कितना तुम
गंवा रहे हो!
यह तो जब
जागोगे और देखोगे
तब तुम्हें
पता चलेगा कि
अरे, जन्मों—जन्मों
कितना गंवाया!
कितनी संपदा
अपनी थी और हम भिखमंगे
बने रहे! सारा
साम्राज्य
अपना था और हम कौड़ी—कौड़ी
बटोरते रहे! कोहिनूरों
के ढेर लगे थे
भीतर और हम
समुद्र के तट
पर रंगीन
पत्थर बीनते
रहे! परमात्मा
तुम्हारे
भीतर मौजूद है,
तुम और क्या
मांगते हो!
तुम और क्या
चाहते हो!
तुम्हारी कोई
चाह, तुम्हारी
कोई मांग
तृप्त
होनेवाली
नहीं है। पा
भी जाओ अपनी
चाह का गंतव्य,
मिल भी जाए
जो तुमने
मांगा था, तो
भी तृप्ति
होनेवाली
नहीं है। तुम
तो तृप्त केवल
परमात्मा से
ही हो सकते हो,
निर्वाण से
ही हो सकते हो;
आत्मानुभव
से ही हो सकते
हो। उससे कम
में कोई संतोष
नहीं है। न कभी
हुआ है, न
हो सकता है।
मन तें इतने
भरम गंवावो।
कितना
गंवाते रहे
हो! अब भी जागो!
अब भी समय है!
अभी भी देर
नहीं हो गयी
है। क्योंकि
फिर भी तुम
गंवाते रह
सकते हो
जन्मों—जन्मों
तक।
चलत
बिदेस बिप्र
जनि पूछो, दिन
का दोष न लावो।।
संझा
होय करो तुम
भोजन, बिनु
दीपक के बारे।
जौन
कहैं असुरन
की बेरिया, मूढ़ दई
के मारे।।
मूर्खो की
भांति तुम
व्यवहार कर
रहे हो।
तुम्हारी बुद्धि
मारी गयी है।
परदेश जाते हो, तो
पूछते हो
ब्राह्मण से
कि दिन ठीक है
या नहीं? अरे,
दिल ठीक है
या नहीं, पूछो!
दिन की पूछते
हो! दिन तो सब
उसके हैं। दिन
तो ठीक हैं।
लेकिन तुम
ज्योतिषियों
से क्या पूछ
रहे हो? "लगन
महूरत झूठ
सब।" मगर तुम मूढ़ हो, इसलिए
चालबाज, चालाक
तुम्हें
लूटने को जगह—जगह
बैठे हैं।
दो
ज्योतिषी एक
रास्ते पर रोज
सुबह मिलते थे—इससे
पहले कि बाजार
में जाकर अपनी
दुकान लगाते।
एक—दूसरे को
अपना हाथ
दिखाते कि भई, आज
धंधा कैसा
चलेगा? और
शुभ मुहूर्त
में एक—दूसरे
को चार—चार
आने भेंट
करते। हर्जा
भी कुछ नहीं!
चवन्नी उसको
भी मिल जाती, चवन्नी उसको
भी मिल जाती!
वह उसका हाथ
देख देता, वह
उसका हाथ देख
देता! इन ज्योतिषियों
से तुम पुछवा
रहे हो? ज्योतिषियों
ने पक्षी बांध
रखे हैं पिंजड़ों
में, वे चिट्ठियां
उठा—उठा कर
तुम्हारा
भाग्य खोल रहे
हैं। दुनिया में
भी खूब मजा
है। राम
मिलायी जोड़ी।
मूरख बहुत हैं,
चालबाज भी
बहुत हैं।
कहते
हैं कि दुनिया
में सबसे सुखी
परिवार वही है
जिसमें पत्नी
अंधी हो और
पति बहरा हो।
सो पति को जो
करना हो
उपद्रव सो
करता रहे
मुहल्ले भर
में। जो—जो
रास रचाना हो, रचाए।
जहां—जहां
बांसुरी
बजानी हो, बजाए।
और पत्नी को
जो बकना है सो
बकती रहे। पति
बहरा, उसे
कुछ सुनायी
पड़े नहीं और
पत्नी है अंधी,
उसे कुछ
दिखायी पड़े
नहीं। इसको
कहते हैं :
"राम मिलाई
जोड़ी"। बड़ी
मुश्किल से
ऐसा होता है।
क्योंकि राम
से तुम जोड़ी
मिलवाते ही
नहीं। तुम तो
खुद ही अपनी
जोड़ी मिलाते
हो या ज्योतिषी
से मिलवाते
हो। यह क्या ख़ाक मिलाएंगे!
इनसे तुम
मिलवा रहे हो
जोड़ी। और सच
यह है कि तुम
खुद ही एक
जोड़ी के
हिस्से हो।
तुम मूढ़
हो और ये चतुर—चालाक।
इस
दुनिया में
इतना शोषण
चलता है धर्म
के नाम पर, उसका
कारण क्या है?
तुम
जिम्मेवार हो
उतने ही जितने
शोषण करनेवाले
जिम्मेवार
हैं। तुम
करवाते हो
शोषण, वे
करते हैं। अगर
वे न करेंगे
तो कोई और
करेगा।
तुम्हें
चाहिए ही चाहिए
कोई शोषण
करनेवाला।
चलत
बिदेस बिप्र
जनि पूछो, दिन
का दोष न लावो।।
दिन को
दोष देते हो!
और अगर पूछना
ही हो तो किसी बिप्र को
पूछो। बिप्र
का अर्थ है :
बुद्ध। बिप्र
का अर्थ है :
ब्राह्मण
नहीं।
क्योंकि
ब्राह्मण का
अर्थ भी
ब्राह्मण
नहीं।
ब्राह्मण का
अर्थ है :
ब्रह्म को
जिसने जाना।
ब्राह्मण के
घर में जो
पैदा हुआ, वह
नहीं। बिप्र
वह है जो
प्रज्ञा को
उपलब्ध हो
गया। अगर पूछना
ही हो तो किसी
बुद्ध से
पूछो। दिनों
को दोष मत दो।
और अगर जीवन
में
दुर्भाग्य ही
दुर्भाग्य घटें तो
समझना कहीं
भीतर की
मूर्छा है।
जिसके कारण
दुर्भाग्य घट
रहे हैं। दुर्घटनाएं
घट रही हैं।
लेकिन
आदमी में एक
होशियारी है।
वह हर चीज का दायित्व
किसी और पर
थोप देना
चाहता है।
भाग्य पर, असमय
पर, ठीक
घड़ी में घर से
नहीं निकले, ठीक पैर
बिस्तर के
बाहर नहीं रखा,
रास्ता
बिल्ली काट गई,
कि रास्ते
पर कोई एक आंखवाले
सज्जन मिल गए!
अब वैसे एक आंखवाले
सज्जन को मिल
कर, देख कर
तुम्हें खुश
होना चाहिए।
अद्वैत! दो आंखों
की तो झंझट
है। एक आंख ही
हो जाए, फिर
कहना क्या!
जीसस का
प्रसिद्ध वचन
है : जिस दिन
तुम्हारी दो
आंखें एक आंख
बन जाएंगी, उस दिन
तुम्हारा
सारा अंतर्लोक
प्रकाश से भर
जाएगा। सो धन्यभागी
हो अगर कहीं
एक आंखवाला
मिल जाए! मगर
नहीं। फिर तुम
कहते हो दिनभर
गड़बड़ होती है।
गड़बड़ करते हो
तुम, गड़बड़
होती है
तुम्हारे
भीतर से।
लेकिन दोष बाहर
देने में
अहंकार को
सुविधा है।
अहंकार दोष नहीं
लेना चाहता।
सब टाल देता
है दूसरों पर।
इस तरह अपने
को बचा लेता
है।
संझा
होय करो तुम
भोजन, बिनु
दीपक के बारे।
सांझ
हो जाती है, रात
पड़ जाती है, और दीया भी
नहीं जलाते और
भोजन करते हो।
ये छोटी—छोटी
बातें तो
सीखो। यह सवाल
रात में ही
भोजन करने का
नहीं है, यह
सवाल है : जीवन
में दीया
जलाओ। चाहे
भोजन करो, और
चाहे उठो, बैठो,
चलो; बोलो;
काम करो; दुकान पर
बैठो, दीया
जला रहे।
तुम्हारे
प्रत्येक
कृत्य में दीया
जले। अंधेरे—अंधेरे
में मत करो
काम। हां, रात
तो कई लोग
दीया जलाकर
भोजन कर लेते
हैं। और दिन
भर? अंधेरे
में ही काम
में लगे रहते
हैं। अंधेरे में
यानी मूर्छा
में। मूर्छा
तोड़ो, वही
दीए का जलना
है। ऐसा दीपक
जलाओ जो चौबीस
घंटे जलता
रहता है। नींद
में भी, जागरण
में भी।
जौन
कहैं असुरन
की बेरिया, मूढ़ दई
के मारे।।
जो भी
कहता है कि यह
समय खराब, कि
यह बेला असुर
की, कि अपशगुन
का क्षण है, कि यह
मुहूर्त ठीक
नहीं, उसकी
बुद्धि मारी
गयी है। वह मूढ़
है। यह सारा
समय परमात्मा
का है। प्रति
पल शुभ है और
प्रति पल
सुंदर है। तुम
सुंदर हो जाओ,
तुम जागरूक
हो जाओ!
आप
भले तो सबहि
भलो है, बुरा
न काहू कहिए।
इस
जगत् की एक
अद्भुत बात
है। तुम वही
दूसरों में
देखते हो, जो
तुममें पड़ा
है। तुम अपनी
ही छाया
दूसरों में
देख लेते हो।
तुम अपने ही
प्रतिबिंब को
देख—देख कर
डरते हो।
एक
कुत्ता एक
राजमहल में
घुस गया, मैंने
सुना है। उस
महल में
दीवालों पर
दर्पण ही
दर्पण लगे थे।
वह दर्पणों से
ही बनाया गया
महल था।
कुत्ता तो
बहुत घबड़ा
गया। लाखों
कुत्ते!
कुत्ते ही
कुत्ते चारों
तरफ। जिधर
देखे उधर
कुत्ते। एकदम
घिर गया।
दरवाजा मालूम
था जिससे भीतर
आया, बाहर
जाना भी हो
सकता था, लेकिन
इतने कुत्ते
घेरे हैं तो
वह इतना घबड़ा
गया कि उसने
होश ही खो
दिया कि कहां दरवजा है, कहां दीवाल
है। और फिर
भौंकने भी
लगा। और जब एक
कुत्ता भौंका
तो सारे
कुत्ते
भौंके। फिर
झपटा। किस—किस
पर झपटे? पगला
गया। सुबह
उसकी लाश
मिली। रात भर
भौंकता रहा, लड़ता रहा, दीवालों से
टकराता रहा, दर्पण से
टकराता रहा, सिर मारता
रहा—और सुबह
मरा हुआ पाया
गया। उसके साथ
ही बाकी सब
कुत्ते भी
दर्पणों में
मर गए थे।
रामतीर्थ
इसको बहुत बार
दोहराते थे इस
घटना को। यह
घटना प्यारी
है,
महत्त्वपूर्ण
है। यह हमारे
जीवन की घटना
है। यह हमारी
कहानी है। तुम
दूसरे को देख
कर जब भौंकते
हो, ज़रा सोच लेना!
कहीं तुम्हें
अपना ही दर्पण
में तो प्रतिबिंब
नहीं दिखायी
पड़ गया?
मुल्ला
नसरुद्दीन
को एक दर्पण
मिल गया
रास्ते के
किनारे।
दर्पण उसने
कभी देखा नहीं
था। उठा कर
देखा, बड़ा
हैरान हुआ।
कहा कि
बिल्कुल
पिताजी जैसे मालूम
होते हैं।
पिताजी को तो
मरे भी समय हो
गया। उसने कहा,
हद्द हो
गयी! कभी सोचा
नहीं कि बड़े
मियां को फोटू
उतरवाने का
शौक था। पर
चलो, अच्छा
हुआ मिल गई।
संभाल कर रख
दूं। घर आया—जो
सभी पतियों
की स्थिति है
कि पत्नियों
से कुछ तुम
छिपा तो नहीं
सकते; वह
छिपाना चाहता
था कि बेटों
को, पत्नी
को, किसी
को पता नहीं
चले, नहीं
तो कोई तोड़—फोड़
दे, खराब
कर दे तो छिपा
कर ऊपर गया, दूसरी मंजिल
पर। पत्नी ने
देख लिया। पत्नियां
कुछ भी काम कर
रही हों, पति
को देखती ही
रहती हैं। लोग
कहते हैं कि
कुछ भी तुम
करो, कहीं
भी तुम हो, परमात्मा
देखता है।
परमात्मा
देखता हो या
नहीं देखता हो,
पत्नी
देखती रहती
है! घर जाओ, तत्क्षण
ऐसा सवाल
पूछेगी कि बस
तुम्हारे पैर के
नीचे की जमीन
खिसकी। तुम लाख
तैयारी करके
आओ कि यह जवाब
देना है, यह
जवाब देना है,
इस तरह कह
देंगे, इस
तरह बता देंगे,
मगर कुछ काम
नहीं आता। देख
लिया होगा
पत्नी ने कोने
की आंख से
अच्छा, कुछ
छिपा रहा है!
जैसे ही नसरुद्दीन
काम करने
बाजार गया, पत्नी ऊपर चढ़ी, खोज
लिया उसने
दर्पण। देखा;
कहा, अच्छा,
तो अब इस
कलमुंही के
पीछे पड़ा है!
बुढ़ापे में! आज
लौटे घर तो
इसको मजा चखाऊं।
फोटूएं
ला रहा है घर
में! फोटूएं
छिपा रहा है!
तुम ज़रा
गौर से देखना।
दूसरों में
तुम्हें वही
दिखाई पड़ जाता
है जो
तुम्हारे
भीतर है। अगर
तुम उदास हो
तो चांद भी
आकाश में उस
रात उदास
मालूम पड़ेगा।
और अगर तुम
प्रसन्नचित्त
हो,
तो अमावस भी
पूर्णिमा
जैसी मालूम
होती है। हम अपना
प्रक्षेपण
करते रहते
हैं। इसलिए
बुद्धों के
लिए सारा जगत्
बुद्ध हो जाता
है। इसलिए जिन्होंने
जाना है
परमात्मा को,
उनके लिए
सारा जगत् उसी
से भर जाता
है। परमात्मामय
हो जाता है।
आज तक
वह नज़र नहीं
भूली
तुमने
देखा था एक
बार हमें
अपने अश्कों को
पी रहे हैं
मगर
लोग
कहते हैं बादाख्वार
हमें
मै तो
है मै, खुलूससे साक़ी!
अगर मिले
हम मैकशों
को ज़हर भी
आबेहयात है
हम तीरःबख्तके
नूरके
पैगंबर भी हैं
ऐ "शाद"!
हम पै ख़त्म
यह तारीक रात
है।
"आज तक
वह नज़र नहीं
भूली"। एक नजर
परमात्मा की तुम्हारे
भीतर उतर आए, फिर भूलती
नहीं, भूल
सकती नहीं।
फिर हर नजर
में वही नजर
है। तुम्हारी
नजर में वह
नजर है तो हर
नजर में वही
नजर है।
आज
तक वह नज़र
नहीं भूली
तुमने
देखा था एक
बार हमें।
बस, एक
बार परमात्मा
तुम्हें देख
ले, तुम
उसे देख लो, फिर हर जगह
वही मिल
जाएगा। जहां देखोगे
वही दिखाई
पड़ेगा।
अपने
अश्कों
को पी रहे हैं
मगर।
और तब
एक ही पीड़ा रह
जाती है, कि
कैसे उसमें
डूब जाएं, कैसे
उसके साथ एक
हो जाएं! सब
जगह दिखाई
पड़ता है, लेकिन
अभी भी थोड़ी
दूरी रह गयी है।
देखनेवाले
की दूरी दिखाई
पड़ने वाले से।
दृश्य की
दृष्टा से।
भक्त की पीड़ा
क्या है? भक्त
की पीड़ा यही
है। संसारी की
पीड़ा हैः धन नहीं
मिलता, पद
नहीं मिलता।
भक्त की पीड़ा
क्या है? कि
परमात्मा
दिखाई पड़ता है,
दूरी कब
मिटेगी? दूरी
ऐसी काटती है।
इतनी सी दूरी,
इंच भर
दूरी। मैं और
तू की दूरी
काटती है। यह
दूरी भी मिट
जानी चाहिए।
भक्त चाहता
पूरा लीन हो
जाए, ताकि
परमात्मा
मुझमें पूरा
लीन हो जाए।
कोई अवरोध न
बचे। कोई भेद
न बचे। कोई
भाव न बचे।
अपने
अश्कों
को पी रहे हैं
मगर
तो वह
आंसू पीता है—हालांकि
उसके आंसू
खुशी के भी
आंसू हैं एक
दृष्टि से कि
परमात्मा की
झलक मिली। और
एक तरफ से
विरह के भी
आंसू हैं कि
झलक क्या मिली, अब
डूबने की
आकांक्षा भी
जगी है।
लोग
कहते हैं बादाख्वार
हमें
हालांकि
लोग कहेंगे कि
यह शराबी हो
गया। क्योंकि
जिसको सब तरफ
परमात्मा
दिखाई पड़ने
लगेगा और
जिसके आंसुओं
में
मुस्कुराहट
होगी और जिसके
आंसू भी नाचते
हुए होंगे और
जिसके आंसुओं
में प्रार्थना
होगी, लोग उसे
कहेंगे कि पियक्कड़
है। यह शराब
पिए हुए है।
यह होश में
नहीं है।
इसलिए
अकसर ज्ञानी
लोगों को
मदमस्त मालूम
पड़े। सूफियों
में तो उनको
"मस्त" कहा ही
जाता है। हमने
भी शब्द दिया :
"परमहंस"।
मै
तो है मै . . .
शराब
तो शराब है, . . .
खुलूससे
साकी! अगर
मिले
लेकिन
अगर पिलाने
वाला ढंग से पिलाए, अगर
असली पिलानेवाला
मिल जाए सूफी
परमात्मा को
साकी कहते
हैं। और वह जो
पिलाता है, वह जो आनंद
की धार तुममें
बरसाता है, वही शराब
है।
मै
तो है मै खुलूससे
साकी! अगर
मिले
. . . अगर
प्रेम से
परमात्मा पिलाए.
. .
हम मैकशों को
ज़हर भी
आबेहयात है
तो फिर
हम पियक्कड़ों
को जहर भी
पिला दे तो भी
अमृत है।
जिसने उसे देख
लिया, उसके
लिए जहर मिट
गया। अमृत ही
अमृत है।
हम तीरः बख्तके
नूरके
पैगंबर भी हैं
और फिर
जिसने उसे देख
लिया, वह
बांटने भी
लगता है उसे, वह पैगंबर
भी हो जाता
है। वह उसके
प्रकाश का संदेशवाहक
हो जाता है।
हम तीरःबख्तके
नूरके
पैगंबर भी हैं
ऐ
"शाद"! हम पै ख़त्म यह
तारीक रात है
वह जो
अंधेरी रात
उसके लिए खत्म
हो गई, उसे
लगता है सारी
दुनिया के लिए
खत्म हो गई।
उसकी अड़चन यही
होती है कि
लोग क्यूं
अब भी अंधेरे
में जिए जा
रहे हैं? प्रकाश
ही प्रकाश है।
लोग क्यों
टकरा रहे हैं?
क्यों लोग
गिर रहे हैं? राह साफ है
और सीधी है, लोग क्यों
ग१६७ो में चले
जा रहे हैं? उसे समझ में
नहीं आता। उसे
बड़ी बेचैनी
होती है। उसकी
आंख खुल गई तो
उसे लगता है
सबकी आंख खुल
गई। बूद्ध
ने कहा है, जिस
दिन मैं बुद्ध
हुआ, मेरे
लिए सारा
अस्तित्व
बुद्ध हो गया।
बता
दो आाब?दाने—बे—अमलको
खुदा
उकता
चुका है बंदगी
से
खुदा
से क्या
मुहब्बत कर
सकेगा
जिसे
नफ़रत है उसके
आदमी से
कह दो
पाखंडियों से, पुजारियों
से, तथाकथित
धार्मिकों से.
. .
बता
दो आाब?दाने—बे—अमल
को
खुदा
उकता
चुका है बंदगी
से
तुम्हारी
बंदगी से बहुत
उकता
चुका है।
तुम्हारी
बंदगी बंदगी
नहीं है। तुम
झुकते कहां हो? तुम्हारा
अहंकार तो और
भी मजबूत हो
जाता है। जो
आदमी मस्जिद
से लौटता है
मंदिर से
लौटता है, उसके
अहंकार पर और
धार लग जाती
है, और दो
हीरे जोड़
लाया। वह और
अकड़ कर देखता
है, वह
कहता है कि
तुम सब पापी
हो, पुण्यात्मा
मैं हूं।
जिसने थोड़ा
दान दे दिया, कि कुछ
उपवास कर लिए,
कि पर्यूषण
में व्रत रख
लिए, कि
थोड़ी नमाज पढ़
ली, कि
गीता कंठस्थ
हो गई, कि
रोज गायत्री
का मंत्र पढ़ने
लगा, उसकी
अकड़ देखते हो?
उसकी नाक पर
अहंकार बैठा
हुआ दिखाई
पड़ेगा।
बता दो आबिदाने—बे—अमल
को
खुदा उकता चुका
है बंदगी से
खुदा
से क्या
मुहब्बत कर
सकेगा
जिसे
नफ़रत है उसके
आदमी से
और यह
सारे लोग आदमी
नफरत करते
हैं। आदमी को
तो नरक भेजने
का इंतजाम किए
हैं,
आदमी को तो
वे गुनहगार और
पापी बता रहे
हैं, आदमी
की तो जितनी
निंदा हो सके
तुम्हारे
महात्मा करते
हैं। और
परमात्मा का
गुणगान करते
हैं! यह कैसी
बात है! संगीत
की निंदा और
संगीतज्ञ का
गुणगान! यह
कौन—सा तर्क
है? नृत्य
की निंदा और
नर्तक की
प्रशंसा! यह
कौन—सा ढंग है?
यह कौन—सा
गणित है? यह
सारा
अस्तित्व
उसका नृत्य है,
उसका गीत
है।
फूल—सा रंगो—बू
नहीं लेकिन
फूल—से बढ़के नर्म तीनत है
इसको नफ़रतसे पायमाल न
कर
घास भी गुलसितांकी
ज़ीनत है
फूल तो
फूल,
जिसको
दिखाई पड़ने
लगता है, उसे
घास भी फूल हो जाती
है।
फूल—सा रंगो—बू
नहीं लेकिन
माना
कि फूल—सा न
रंग है, न बू
है।
फूल से बढ़के नर्म तीनत है
लेकिन
एक बात है कि
फूल से बढ़कर, ज्यादा
कोमलता है। न
होगा रंग, न
होगी सुगंध, लेकिन घास
की पत्तियों
में वह जो लोच
है, वह जो
नर्मी है, वह
जो मखमलीपन
है, वह
फूलों से भी
बढ़कर है।
इसको नफरतसे पायमाल न
कर
इसे
घृणा करके
नष्ट मत कर
दो।
घास भी गुलसितां
की ज़ीनत
है
बगीचे की
घास उतनी ही
शोभा है, जितनी
शोभा गुलाब
है। गुलाब और
घास में फर्क
नहीं है—देखनेवाले
को। पापी और
पुण्यात्मा
में फर्क नहीं
है—देखनेवाले
को। रात और
दिन में भेद
नहीं है उसे, जिसके भीतर
का दीया जल
गया है।
आप
भले तो सबहि
भलो है, बुरा
न काहू कहिए।
जाके मन
कछु बसै बुराई, तासों
भागे रहिए।।
उससे
बचो जिसके मन
में निंदा है, घृणा
है, अहंकार
है,र् ईष्या है, क्रोध है, लोभ है, मोह
है, उससे
बचो। जब तक कि
तुम्हारे
भीतर का
परमात्मा न जग
जाए। जिस दिन
जग जाए, फिर
किसी से बचने
की जरूरत नहीं
है। फिर बैठो शराबघरों
में, जुआघरों
में, तो भी
कुछ हर्जा
नहीं।
तुम्हारे
जाने से जुआघर
भी मंदिर हो
जाएगा।
तुम्हारी
मौजूदगी से शराबघर
भी मंदिर हो
जाएगा। अभी तो
तुम मंदिर में
भी जाओ तो
जुआघर बन जाता
है। क्योंकि
तुम अपनी हवा
अपने साथ ले
कर चलते हो।
लोक
बेद का पैंडा औरहि इनकी
कौन चलावे।
लेकिन
भीड़—भाड़ का
रास्ता और ही
है,
उससे ज़रा
सावधान रहना।
भीड़—भाड़ का
रास्ता तो भेड़
का रास्ता है,
भेड़—चाल है।
वहां तो एक—दूसरे
को पकड़े
हुए अंधे चले
जा रहे हैं। "अंधा
अंधम ठेलिया
दोनों कूप पड़ंत"।
सब कुएं में
गिर रहे हैं, मगर अंधे
अंधों को पकड़े
हुए हैं। एक भेड़ गिर गई
कुएं में, तो
सारी भेड़ें
गिर जाएंगी।
जो भी उसके
पीछे आ रही
हैं, बस
पीछे आती चली
जाएंगी।
लोक
बेद का पैंडा औरहि
इनका
पथ अलग है,
इनकी
कौन चलावै।
आतम मारि पषानैं
पूजै, हिरदै
दया न आवै।।
इनकी
तो क्या कहो!
आत्मा को मार
डालते हैं और
पत्थर को
पूजते हैं!
हिरदै
दया न आवै।।
इनके
हृदय दया नहीं
आती,
क्योंकि
अहंकार के साथ
दया का फूल
नहीं खिलता।
रहो
भरोसे एक रामके, सूरे का
मत लीजै।
अंधों
से मत सीख लो!
रहो
भरोसे एक रामके,
राम का
ही भरोसा ले
लो। यह भीड़
अंधी है, एक
अर्थ में। तो
इस वचन के दो
अर्थ हो सकते
हैं। एक अर्थ
कि अंधों से
सलाह मत लो।
यह भीड़—भाड़
अंधी है।
अंधों की।
इसका एक दूसरा
अर्थ भी हो
सकता है, कि
मलूकदास
जैसे, कबीरदास जैसे, अंधों
का मत लो। ये
भी अंधे हैं
एक अर्थ में।
ये दुनिया
नहीं देखते, ये परमात्मा
देखते हैं।
दुनिया के लोग
अंधे हैं, उनको
दुनिया दिखाई
पड़ती है, परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ता। दुनिया
के लोगों के
लिए परमात्मा
है ही नहीं, दुनिया ही
है। और कबीर, मलूक, नानक
को? दुनिया
नहीं है, परमात्मा
ही है। ये भी एक
अर्थ में अंधे
हैं। अगर मत
ही अंधों का
लेना हो तो
ऐसे अंधों का
लो।
रहो
भरोसे एक रामके,
तो
मलूक कहते हैं, अगर
मेरी सुनो, मैं भी अंधा
हूं, तो
मेरी सलाह एक
ही हैः राम के
भरोसे रहो। और
सब भरोसे छोड़
दो।
रहो
भरोसे एक राम
के, सूरे का मत लीजै।
मुझ
अंधे का मत ले
लो। अगर अंधों
से ही रस है।
अगर अंधों की
ही सुनने की
आदत है, चलो, मैं अंधा
सही! तुम मेरी
सुनो!
संकट
पड़े हरज नहिं
मानो, जिय का लोभ न कीजै।।
संकट आ
जाए तो हर्ज
मत मानना।
जीवन भी गवाना
पड़े तो लोभ मत
करना।
क्योंकि संकट
में ही आत्मा
का जन्म होता
है। संकट चुनौती
है।
हादसाते—हयात
की आंधी
हस्बेत्तौफ़ीक़
रास आती है
तेज़
करती है सोज़े—अहले—कमाल
नाक़िसों के
दिए बुझाती है
आंधियां
उठती हैं जीवन
की। उनसे केवल
कमजोर बुझ
जाते हैं।
जिनमें बल है, वे
तो और
प्रज्वलित हो
जाते हैं।
हादसाते—हयात
की आंधी
हस्बेत्तौफ़ीक़
रास आती है
पात्रता
के अनुसार
तूफान भी रास
आ जाते हैं।
तेज़
करती है सोज़े—अहले—कमाल
जिनके
भीतर कुछ भी
बल है, उसको और
तेज कर देती
है। तुम्हारे
भीतर लपट है, तो उसको और
गति दे देती
है। देखा
तुमने, जंगल
में आग लगी हो
और आंधी चल
जाए, तो
लपटें सारे
जंगल में फैल
जाती हैं।
पूरा जंगल आग
हो उठता है।
लेकिन छोटे—छोटे
दीए बुझ जाते
हैं। वही हवा
छोटे दीयों को
बुझा देती है,
जंगल की आग
को बढ़ा देती
है। जंगल की
आग बनो!
तेज़
करती है सोज़े—अहले—कमाल
नाक़िसों के
दिए बुझाती है
वे जो
कमजोर हैं, बस
उनके दीए बुझ
जाते हैं। और
इस दुनिया में
सबसे कमजोर है
अहंकारी, क्योंकि
वह भ्रांति
में जी रहा
है। वह झूठ
में जी रहा
है। झूठ कमजोर
है। सत्य
शक्तिशाली
है। झूठ को छोड़ो,
झूठे भरम को
छोड़ो!
किरिया
करम अचार भरम
है, यही
जगत् का फंदा।
तुम
क्रिया—कांड
में पड़े हो।
कि कभी करवा
ली सत्यनारायण
की कथा और
सोचा कि धर्म
हो गया; कि
कभी हो आए
गंगा; कि
कुंभ का मेला
कर लिया; कि
हज़ की
यात्रा कर आए
और हाजी हो गए;
कि थोड़ी—सी
माला फेर ली; कि नाम जप
लिया, कि
जपुजी पढ़ लिया—और
बस, तुमने
सोचा हो गया
काम! यह ऐसे ही
है जैसे अंधेरी
रात में कोई
बैठ कर रोशनी,
रोशनी, रोशनी
जपता रहे। खाक
रोशनी होगी।
कि बीमार आदमी
बैठकर दवा, दवा, दवा
जपता रहे।
स्वस्थ हो
जाएगा? न
भूखे का पेट
भरता ऐसे; न
प्यासे की
प्यास बुझती
ऐसे। तो
जिंदगी की असली
घटनाएं तुम
क्रिया—कांडों
से हल करना
चाहते हो?
किरिया
करम अचार भरम
है, यही
जगत् का फंदा।
इसी
में सारा जगत्
फंसा हुआ है।
माया
जाल में बांधि
अंडाया, क्या
जानै नर
अंधा।।
और लोग
अंधे हैं।
देखते
हो,
दो तरह के
अंधे की बात
की!
माया—जाल
में बांधि
अंडाया . . .
अटक
गया है
मायाजाल में,
क्या
जानै नर
अंधा।।
यह
संसार बड़ा भौसागर, ताको देखि सकाना।
मलूकदास
कहते हैं, मैं
तो यह देख कर
ही सकपका
गया कि इतना
बड़ा भवसागर!
कैसे पार
होगा! कागज की
नावें हैं, बड़ा भवसागर
है। तूफान हैं
और आंधियां
हैं।
यह
संसार बड़ा भौसागर, ताको देखि सकाना।
सरन
गए तोहि
अब क्या डर है, कहत
मलूक
दिवाना।।
लेकिन
कहते हैं :
मलूक दीवाना
कहता है तुमसे
कि उसकी शरण
क्या गया, सारा
भय विदा हो
गया। अब कोई
डर नहीं है।
क्योंकि उसकी
शरण जाते ही
नाव मिल गई।
उसकी शरण जाते
ही दूसरा
किनारा मिल
गया। उसकी शरण
पहुंच जाओ तो
मंझधार भी
किनारा बन
जाती है। और
उसकी शरण न
पहुंचे तो
किनारे पर भी
डूबोगे।
डूबना ही
तुम्हारा
भाग्य है।
कहा
जाता है मुझ
से ज़िंदगी
इनआमे—कुदरत
है
सज़ा
क्या होगी
उसकी, जिसका
ये इनआम
है साक़ी
तबस्सुम
इक बड़ी दौलत
है,
मैं भी इसका
क़ायल हूं
मगर ये
आंसुओं का एक
शीरीं नाम है साक़ी
लड़कपन ज़िद में
रोता था, जवानी
दिल को रोती
है
न जब
आराम था साक़ी, न
अब आराम है साक़ी
इस
जिंदगी को ज़रा
गौर से तो
देखो, कभी
आराम नहीं, कभी चैन
नहीं, एक
क्षण को चैन
नहीं। फिर भी
तुम चौंकते
नहीं? बेचैन
ही बेचैन हो, कांटे—ही—कांटे
छिदे हैं, रास्ता
कंटकाकीर्ण—ही—कंटकाकीर्ण
है, अब
डूबे, तब
डूबे, फिर
भी तुम चौंकते
नहीं? फिर
भी तुम स्मरण
नहीं करते, उसकी नाव को
पुकार नहीं
देते, उसके
हाथ का सहारा
नहीं लेते?
मलूकदास तो
दीवाने हैं।
दीवाने हुए
बिना काम नहीं
चलता। दीवाना
यानी परवाना।
परवाने को
देखा है?—नाचते
हुए शमा के
ऊपर मर जाते
हुए? वही
भक्त की भी
जीवनचर्या
है। प्रभु के
प्रकाश पर
नाचता हुआ
भक्त समाप्त
कर देता है
अपने को। और
उसी समाप्ति
से जीवन का
संगीत उठता है,
गीत उठता
है।
ढलकते
गीत में मोती,
चमकती
आंख में शबनम।
तुम्हारी
बांसुरी की
तान में
छिप रो
रहा कोई।
गुलाबी
आंख अपनी
आंसुओं
से धो रहा
कोई।
तुम्हारे
गीत में तारे
झपकते—झिलमिलाते
हैं।
कमल, मानो,
सरोवर में
निकलते, डूब
जाते हैं।
मनाती
हो चिता के
पास
जैसे
चांदनी मातम।
ढलकते
गीत में मोती,
चमकती
आंख में शबनम।
नहा कर
सात रंगों में
कहीं
से वेदना आयी,
उदासी
या किसी ग़म
की
उषा के
लोक में छायी।
कसकती
वेदना ऐसे कि
जैसे
प्राण हिलते
हों,
किरण—सी
फूटती, मानो,
तिमिर
में फूल खिलते
हों।
अंधेरी
रात में ज्यों
बज
रही हो
ज्योति की
सरगम।
ढलकते
गीत में मोती,
चमकती
आंख में शबनम।
बनो
परवाने! बनो
दीवाने!
कसकती
वेदना ऐसे कि
जैसे
प्राण हिलते
हों,
किरण—सी
फूटती, मानो,
तिमिर
में फूल खिलते
हों।
अंधेरी
रात में ज्यों
बज
रही हो
ज्योति की
सरगम
ढलकते
गीत में मोती,
चमकती
आंख में शबनम।
तुम्हारी
आंखों में भी
चमक हो सकती
है बुद्धों
की। तुम
अधिकारी हो।
जन्म से
तुम्हारा यह
हक है। गंवाओ
तो तुम
जिम्मेवार
हो। इस हक को
पाने की
तैयारी करो।
तुम्हारे सुर—सुर
में गीत हो
जाएगा।
तुम्हारी
श्वास—श्वास
संगीत बन
जाएगी।
परमात्मा से जुड़ो! मगर
दीवानगी
चाहिए। क्यों? दुकानदारों
का यह काम
नहीं। वे इतना
बड़ा दांव नहीं
लगा सकते। यह जुआरियों
का काम है।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
मेरे
संन्यासी को
जुआरी होने की
क्षमता चाहिए, साहस
चाहिए।
अहंकार को
दांव पर लगाना
कोई छोटा—मोटा
खेल नहीं है।
सबसे बड़ा खेल
है, इससे
बड़ा फिर कोई
खेल भी नहीं
है। क्योंकि
जिस दिन, जिस
क्षण तुम इतना
साहस जुटा
लोगे कि कह
सको कि मैं
नहीं हूं, कि
जान सको कि
मैं नहीं हूं,
कि अनुभव कर
सको कि मैं
नहीं हूं, कि
मर जाओ
स्वेच्छा से,
वही
संन्यासी है।
और उसी मृत्यु
में समाधि का फूल
खिलता है।
तुम्हारी आंख
भी ज्योति से
भरेगी—बुद्धों
की ज्योति। और
तुम्हारे चरण
भी कमलों पर
होंगे—बुद्धों
के कमल। और
तुम्हारे
प्राण में भी
सरगम उठेगा—
सरगम जो
त्रिभुवन को,
सारे लोक को
आनंद से और आलोक
से आंदोलित कर
देता है। इतनी
बड़ी संपदा के
तुम मालिक हो।
मगर कैसे छोटे—छोटे
भ्रम में जीवन
गंवा रहे हो!
"मन तें
इतने भरम गंवावो"।
अब जागो!
जागने की बेला
आ गई। बेला तो
कब की आई है, मगर
तुम जागो
तभी सवेरा है।
तुम जब तक सोए
हो, रात ही
है। तुम्हारे
जागने में ही
सवेरा है, तुम्हारे
सोने में ही
रात्रि है।
तुम्हारे सोने
का नाम संसार
है, तुम्हारे
जागने का नाम
मोक्ष है।
आज
इतना ही।
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