पत्र पाथय—09
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां,
अर्ध—रात्रि' अंधेरे
रास्तों पर
घूमकर लौटा हूं।
सब चुप और मौन
है। कभी—कभार
बस कोई कुत्ता
भौंक जाता है।
मौन उससे
टूटता नहीं और
घना हो जाता
है। तारे ठंडे
है और निःशब्द
संगति से भरे
हैं।
यह
गहरी
निस्तब्धता
मुझे बहुत
प्रिय है।
मैं
अपने में हो
आता हूं।
मौन
मुझे भीतर
खींच लेता है
यह 'प्रतिबोध'
है। मैं
अपने को छू
लेता हूं और
सब कुछ मुझे
छू जाता है।
इस गहराई में
अनेकता नहीं
दीखती। भेद
ऊपर है, ऊपरी
है। भीतर अभेद
है और अभेद ही
सत्य है।
''तत्वभासि
श्वेतकेतु''' श्वेतकेतु
वह तू ही है! यह
महाकाव्य पुन:
पुन: सुनाई
देता है। जीवन
एक संगीत है।
खंडित स्वर—व्यक्ति—स्वर
में दुःख है।
अखंडता आनंद
है। उपनिषद्
कहते हैं, ''वह
कवि है। यह
सृष्टि उसका
काव्य है।''
इस
काव्य में
अपने को खो
देना ही सब
कुछ पा लेना
है।
रजनीश
के प्रणाम
15-12-1960
रात्रि
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