अध्याय—(अड़ष्ठवां)
पिछले
कुछ समय से
फिल्म
इंडस्ट्री के
बहुत से लोग
ओशो में रुचि
ले रहे हैं।
कल्याणजी, महीपाल,
विजयानंद, महेश भट्ट, मनोज और
इंदीवर इनमें
से प्रमुरव
हैं। कल्याण
जी संगीत
निर्देशक के
रूप में टॉप
पर हैं।
इंदीवर
फिल्मों के
लिए गीत लिखते
हैं। वह ओशो
की देशनाओं को
गीतों में
ढालना चाहते हैं।
मनोज
प्रसिद्ध
फिल्म
निर्देशक व
अभिनेता हैं।
आज
मनोज ने ओशो
को अपने घर पर
आमंत्रित
किया है।
क्रास मैदान
में शाम के
प्रवचन के बाद, ओशो
को सीधे ही
मनोज के घर ले
जाया जाता है।
सड्कों पर इस
समय भारी
ट्रैफिक है।
मैं कुछ
मित्रों के
साथ मनोज के
घर जा रही दूसरी
कार में बैठ
जाती हूं।
हमारी
कार ट्रैफिक
जाम में कुछ
समय के लिए
फंस जाती है, और
अंततः 9—3० बजे
हम अपने
ठिकाने पर
पहुंच जाते हैं।
बगीचे
से घिरा हुआ, यह
बहुत ही सुंदर
बंगला है।
प्रवेश द्वार
को खुला छोड़
दिया गया है
ताकि लोग
चुपचाप भीतर आ
सकें। दरवाजे
पर खड़ा
चौकीदार
हमारा स्वागत
करता है और
हाथ से इशारा
करके रास्ता
बता देता है।
कुछ ही मिनटों
में हम एक बड़े
से लिविंगरूम
में प्रवेश
करते हैं जो
लोगों से पूरी
तरह भरा हुआ
है। ओशो पहले
ही बोलना शुरू
कर चुके हैं, फिर भी
हमारी ओर
मुस्कुराकर
देखते हैं।
चुपचाप, हमें
जहां भी जगह
मिलती है, हम
बैठ जाते हैं।
ओशो से इतनी
दूर बैठने पर
मैं थोड़ी
बेचैन होने
लगती हूं। ओशो
के करीब ही
खाली पड़ी एक
जगह पर मेरी
नजर पड़ती है
और भीतर से
बड़ा प्रबल भाव
होता है कि
उनके पास जाकर
बैठ जाऊं। कुछ
देर तो मैं
झिझकती हूं
लेकिन भाव
इतना प्रबल हो
रहा है कि
अपने बावजूद
मैं उठकर किसी
तरह उनके पास
पहुंचकर कछ
दूरी पर बैठ
जाती हूं। वे
मेरी ओर देखकर
मुस्कुरा
देते हैं, जिससे
मेरा
तनाव दूर हो
जाता है और
मैं शांत हो
जाती हूं।
मनोज और उसकी
पत्नी ओशो के
बहुत करीब
बैठे हुए हैं।
एक मित्र जो
रिकार्डिग कर
रहे हैं, वह भी
पास ही बैठे
हैं।
यह
बड़ी अनूठी
बैठक है। इसे
हम वार्तालाप
ही कह सकते
हैं। ओशो हर
तरह के
प्रश्नों का
जवाब दे रहे
हैं। मैं, श्रोताओं
की ओर देखती हूं
और उनमें
फिल्म इंडस्ट्री
के कई जाने—पहचाने
चेहरे नजर आते
हैं। ओशो को
सुनते हुए वे
सभी विमुग्ध
भाव में नजर आ
रहे हैं। ऐसा
लगता है कि
किसी को भी
समय का होश ही
नहीं रहा है।
मीटिंग बस
चलती ही जा
रही है।
मैं
घड़ी की ओर देखती
हूं तो पीने
बारह बज चुके
हैं। मुझे ओशो
के लिए चिंता
होने लगती है।
क्रॉस मैदान
में पहले ही वे
दो घंटे तक
बोले हैं।
यहां बोलते
हुए भी अब
उन्हें तीन
घंटे होने को
आए हैं। कल
सुबह 8—00 बजे
चौपाटी के पास
बिरला केंद्र
में फिर एक मीटिंग
का आयोजन किया
गया है। मैं
इन्हीं सब ख्यालों
में खोई हुई
हूं और पंद्रह
मिनट बाद जब
मीटिंग
समाप्त होती
है तभी इनसे
बाहर आती हूं।
चुपचाप, लोग
अपनी—अपनी जगह
से उठ जाते
हैं और बाहर
जाने लगते हैं।
मनोज ओशो को
रात अपने
बंगले में ही
रुकने का निवेदन
करते हुए कहते
हैं कि सुबह
वह ही उन्हें
चौपाटी ले
आएंगे। ओशो
इसके लिए राजी
हो जाते हैं
और हमें कहते
हैं कि हम
उनकी चिंता न
करें।
हम
सब लोग सुबह
उनको फिर से
मिलने की आशा
लिए,
बंगले से
शहर आ जाते
हैं।
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